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Impostor Corona : ये सुपर वायरस है, यूँ ही नहीं जाएगा, होश में रहिए, बेहोश होने से अच्छा है होश में रहना

 
नये साल की शुरुआत में ही ऐसी नकारात्मक बात वाला लेख। अच्छा नहीं लगेगा। हैरानी होगी। बेतुका भी लगेगा। यूँ कहे कि काल्पनिक और अतिरेक वाला तत्व दिखेगा। खैर, लगना है तो लगे फिलहाल, किंतु अंत में किसी की भी जिंदगी को गहरे जख्म ना लगे यही कामना करता है यह लेख।

यूँ तो इस साल की शुरुआत में भारत और दूसरे राष्ट्र कोरोना वायरस की वैक्सीन को लेकर बात कर रहे हैं। कुछ देशों में वैक्सीन आ चुकी है, लग रही है, कहीं आने वाली है, लगने वाली है। और इधर हम कुछ दूसरी बात कर रहे हैं। इसलिए फिलहाल तो आप इसे महज अतिरेक कल्पना से लबालब लेख मानकर नजरअंदाज कर देंगे यह भी पता है। क्योंकि जब देश में और देश के आसपास जो दूसरे देश हैं वहाँ भी कोरोना वायरस को लेकर चिंता कम है, तो फिर ऐसे लेख बेतुके और काल्पनिक ही लग सकते हैं।
 
हमें पता है कि हम ना ही वायरोलॉजिस्ट हैं, ना साइंटिस्ट हैं। इस चीज़ के किसी प्रकार के विशेषज्ञ नहीं हैं हम। लेकिन बहुत सारा डाटा, उसका सिरे से विश्लेषण, अनगिनत ख़बरें-रिपोर्टें और ऊपर से SARS-CoV-2 का इतिहास, स्वभाव, आदत और उसके पिछले करीब एक साल के रंग ढंग। बहुत सारी चीजों का विश्लेषण करने वाले जानकार ही कहते हैं कि ये कोई सामान्य वायरस नहीं है, यह सुपर वायरस है। यहाँ नोट करें कि सुपर वायरस लफ्ज़ वैज्ञानिक नजरिए से सहीं लफ्ज़ नहीं है, किंतु इसे हम केवल इसलिए इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि इसे आसानी से समझा जा सके।
 
यूँ तो कई राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष लगभग लगभग ऐसा दिखावा कर चुके हैं और कर भी रहे हैं कि कोरोना वायरस गया! वातावरण ऐसा तैयार कर चुके हैं ऐसे राष्ट्राध्यक्ष, जैसे कि मानवता ने कोरोना वायरस से छुटकारा पा लिया हो! इन राष्ट्राध्यक्षों में भारत भी शामिल है। भारत समेत दुनिया के बड़े बड़े देशों में लॉकडाउन समाप्त होने के बाद अब तक वहाँ की राजनीति, राजनीति की प्रवृत्तियाँ या कार्यक्रम, सभ्यता, उनकी रोजाना जिंदगियाँ, जिस प्रकार से धीरे धीरे पटरी पर लौट रही हैं, कोरोना वायरस से निजात पा लिया हो ऐसा विश्वास ज्यादा है। वातावरण ऐसा होने लगा है जैसे कि नया साल आ गया, पुराने साल की यादें, पीड़ा, दिक्कतें, मुसीबतें दूर हो गई!
किंतु दुनिया के कई देश ऐसे भी हैं जहाँ कोरोना वायरस अपना रंग और रूप बदलकर फिर से हमले शुरू कर रहा है। यूँ तो सितंबर 2020 के बाद ऐसे देशों में कोरोना वायरस फिर से ताक़तवर होता जा रहा है। भारत में भी लॉकडाउन के बाद बीच में कुछ सप्ताह तक कोरोना वायरस का प्रकोप कुछ जगहों पर दिखा था। किंतु भारत उन दिनों चुनावी जश्न में व्यस्त था। चुनावी मौसम था, सो नेतागिरी ने इसे तवज्जो नहीं दी! मीडिया की दुकानेंतो चुनावी मौसमों में ज्यादा सज धज चुकी होती है, इसलिए ऐसी दुकानें धंधा छोड़ काहे कोरोना को पकड़ती!
 
हम यहाँ उन चेतावनियों को, उन संशोधनों को, उन विश्लेषणों को भी देखते जाएँगे, जो कोरोना वायरस को लेकर छप रहे हैं। भारत समेत कुछ राष्ट्रों ने, उन राष्ट्रों की सभ्यताओं ने जो बातें नजरअंदाज की थीं, उसे भी समझते जाएँगे। किंतु सबसे पहली बात समझनी होगी कोरोना वायरस को लेकर। हम बहुत सालों पहले वायरस के बारे में लंबा सा लिख चुके हैं। उन बातों को यहाँ लिखने जाएँगे तो विषय बदल जाएगा। इतना पता होना चाहिए कि कोरोना वायरस जैसे सुपर वायरस (आसान भाषा में आसानी से समझ सकें इसलिए सुपर वायरस लफ्ज़ को इस्तेमाल किया है) छलिया टाइप जीव होते हैं। धोखा देने में मास्टर जीव। रंग और रूप बदलना इनकी मूल प्रकृति होती है।
 
जब कोरोना वायरस के पहले वेरिएंट की पहचान चीन के वुहान में की गई थी, तब उसकी आर-नॉट क्षमता 2.5 थी। जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार अब कोरोना वायरस के वेरिएंट की आर-नॉट क्षमता पहले के मुकालबे दोगुना से भी ज्यादा तक हो सकती है। वायरस पर रिसर्च करने वाले कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि कोरोना वायरस असाधारण ढंग से खुद को बदल रहा है।

 
वायरस के सामने वैज्ञानिक नजरिए से फिलहाल तो एक ही कारगर हथियार है। और वो हथियार है वैक्सीन। वैक्सीनेशन कई देशों में शुरू हो चुका है, कई देशों में शुरू होने वाला है। वैक्सीन भले वैज्ञानिक बनाते हो, विशेषज्ञ इसे तैयार करते हो, किंतु इसका वितरण और व्यापार कंपनियाँ करती हैं। इस लिहाज से वैक्सीन भले ही विशुद्ध रूप से धंधा हो, लेकिन यही धंधा वायरस जैसी महामारियों से मानव सभ्यता को बचाता है। वैक्सीन बनाना, बेचना, आदि में सेवा भाव वाला तत्व भले कम हो और बिजनेस वाला एंगल भले ज्यादा हो, किंतु अंत में वैक्सीनेशन का जिम्मा सरकारों पर होता है। कंपनियाँ भले बिजनेस करे या थोड़ा बहुत सेवा भाव रखे, किंतु पूरे कार्यक्रम में कौन सा रास्ता पकड़ना है यह सरकारों के जिम्मे होता है। अगर हम जीतते हैं तो हम फ्री वैक्सीन देंगे वाली राजनीति भले शीर्ष नेतृत्व करता रहता हो, लेकिन कायदे से ऐसी महामारियों के दौरान राष्ट्र के तमाम नागरिकों के प्रति सेवाभाव रखना ही होता है। वायरस की प्रकृति जैसी भी हो, राजनीति राजनेताओं की प्रकृति है। लिहाजा इसे हम यहाँ छोड़ देते हैं।
 
हम बार बार कह रहे हैं, साल की शुरुआत में फिर एक बार कहते हैं। दो चीजें महत्वपूर्ण हैं। पहली, कोरोना वायरस एक महामारी है और इसका इलाज विज्ञान के पास है, धर्म के पास नहीं है। दूसरी बात, नारों से चुनाव जीते जा सकते हैं, वायरस को नहीं।
  
वैक्सीन ही वायरस के खिलाफ एकमात्र हथियार ज़रूर है। किंतु विशेषज्ञ कहते हैं कि जब तक 70 से 75 फीसदी जनता का टीकाकरण नहीं हो जाता तब तक कोरोना बड़ा ख़तरा है। किसी देश के लिए बहुत कम समय में इतने प्रतिशत वैक्सीनेशन करना बहुत ही मुश्किल काम है। इसमें वक्त लग सकता है। उपरांत वायरस के नये प्रकार के साथ साथ वैक्सीन को अपडेट भी करते रहना ज़रूरी माना गया है। कुल मिलाकर, वायरस अब भी मौजूद है। किंतु कुछ समय के लिए सजग रहने के बाद ज्यादातर जगहों पर राजनीति और आम जनता, दोनों लापरवाही की गोद में समा चुके हैं!
देखिए, महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था वाला एंगल भावनात्मक सभ्यता को जागरूक या एकजुट करने के लिए ठीक है, किंतु फिर जवाबदेह लोगों को वह प्रयास भी करने होते हैं जो ऐसी स्थिति में करने चाहिए। ये सही है कि राष्ट्र के मुखिया ने राष्ट्र को मानसिक और भावनात्मक रूप से कोरोना के लिए तैयार करने के लिए नारों और उत्सवों की लहर चलाई। किंतु यह भी सच है कि इसके साथ जो ज्यादा ज़रूरी था उस पर भारत में ज्यादा काम नहीं हो पाया!
 
हम वैज्ञानिक या वायरोलॉजिस्ट तो नहीं हैं, किंतु जानकारों द्वारा जो लेख लिखे गए हैं भूतकाल में और वर्तमान में, उनको पढ़कर एक बात समझ आती है कि ऐसे वायरस की एक मूल प्रकृति होती है। सारे वायरस की प्रकृति ऐसी होती है या नहीं, यह नहीं पता। किंतु फिलहाल हम जिस प्रकार के वायरस से रूबरू हो रहे हैं, ऐसे वायरस की एक प्रकृति होती है। वो यह कि ऐसे वायरस अपना रंग और रूप जल्दी से बदलते रहते हैं, और उनका रंग रूप बदलने के बाद वे मारक क्षमता कम करते जाते हैं और संक्रमण की ताक़त बढ़ाते जाते हैं। फिर एक बार नोट करते हैं कि तमाम वायरस ऐसा करते हैं या नहीं, यह नहीं पता, किंतु ऐसे वायरस ज्यादातर तो ऐसा ही करते हैं। आसान सी भाषा में कहे तो, ज्यादातर तो इंफेक्शन कैपेसिटी बढ़ती है, डेथ रेट कम होता जाता है। इसके पीछे वायरस की प्रकृति के साथ साथ मानव शरीर की क्षमता और वायरस के बारे में ज्यादा जानकारी होने से चिकित्सकीय सजगता बढ़ना भी वजहें हैं।
 
यहाँ एक और बात लिखनी होगी। वो यह कि किसी भी बीमारी या महामारी के समय इंसानी मानसिकता और मानव शरीर की अद्भुत प्राकृतिक रचना सबसे बड़ा उपाय व हथियार होती है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध तथ्य है। किंतु यहाँ विषय बदल जाएगा, लिहाजा हम उस विषय को आगे नहीं बढ़ाएँगे।
 
इसके साथ ही पहली हक़ीकत को हमें समझना होगा। वह यह कि यह भारत है। यहाँ की संस्कृति, यहाँ की सभ्यताओं की आदतें, जीवनशैली, सरकारें बदलने से नहीं बदलती। उपरांत भारत विकासशील राष्ट्र है। लिहाजा जनसंख्या की तुलना में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत उतनी बेहतर नहीं है। भले ही हमारे देश का मेडिकल उद्योग दुनिया भर में अपना लोहा मनवा चुका हो, भले ही हमारा टीकाकरण अभियानों का इतिहास उज्जवल रहा हो, किंतु आबादी की तुलना में अस्पतालों, डॉक्टरों का गुणाभाग, ऊपर से उन अस्पतालों या डॉक्टरों द्वारा दी जा रही सेवाओं की गुणवत्ता, दूर दराज के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल, बहुत सारी चीजें अब भी चिंता का विषय है। ऊपर से भारत की जीवनशैली गर्मजोशी वाली है, एकाकी नहीं है।
 

सो, अगर वायरस अपना रंग ढंग बदलता है और जैसा कि फिलहाल दुनिया के कुछ देशों में देखा जा रहा है वैसे हालात पैदा होते हैं, तब विशेषज्ञों के अनुमानों के मुताबिक वह ज्यादा इंकेक्शन कैपेसिटी के साथ आएगा। मारक क्षमता यूँ तो कम होगी ऐसी संभावना गणितीय मॉडल बताते हैं। लेकिन इंकेक्शन कैपेसिटी ज्यादा होने की वजह से वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को संक्रमित करेगा। सिंपल सी बात है कि जितने ज्यादा लोग संक्रमित होंगे उतना पैनिक बढ़ेगा। संक्रमितों की तादाद और पैनिक बढ़ना, दोनों चीजें स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक दबाव पैदा करेगी। कम संसाधनों की समस्या इस नयी समस्या से ठीक से निपट नहीं पाएगी। संक्रमितों की तादाद ज्यादा होगी, कम संसाधनों की समस्या खड़ी होगी, साथ ही कमजोर स्वास्थ्य सेवा ढह जाएगी। इन परिस्थितियों के चलते अनुपात में मौतों का आँकड़ा ज्यादा दिखेगा। भले ही कुल मिलाकर डेथ रेट कम हो। किंतु यदि एक दिन में 100 लोग संक्रमित होने के बजाए उसी एक दिन में 1000 लोग संक्रमित होते हैं तो फिर तुलनात्मक रूप से पैनिक और मौतों का आँकड़ा बढ़ने की संभावना ज्यादा होगी। फिर पैनिक और आँकड़ा ही दिखेगा, कम मारक क्षमता गायब हो जाएगी।
 
यूँ तो कोरोना वायरस ने दस्तक दी तब से विशेषज्ञों को लग रहा था कि भारत में स्थिति बहुत बिगड़ेगी। किंतु अब तक भारत में स्थिति उतनी बिगड़ी नहीं है। सरकारी आँकड़े दावा करते हैं कि भारत में संक्रमण और मौतें, दोनों नियंत्रण में हैं। इन सरकारी दावों को लेकर विशेषज्ञ भी बँटे हुए हैं। कुछ इससे सहमत हैं, कुछ सहमत नहीं हैं। जो सहमत हैं वे लॉकडाउन, भारतीय लोगों की रोग प्रतिकारक शक्ति, भोजन, जीवनशैली आदि आदि चीजों को सम्मान देकर मानते हैं कि इन सारी चीजों से भारत उतनी गंभीर परिस्थिति में जाने से बचा है। हालांकि कुछ विशेषज्ञ इससे बिल्कुल सहमत नहीं है। वे कम टेस्टिंग को सबसे बड़ा झोल मानते हैं। कहते हैं भारत में कोरोना वायरस को लेकर टेस्टिंग बहुत ही कम हुआ है, साथ ही टेस्टिंग का वह मान्य तरीका कम अपनाया गया, जिसकी डब्ल्यूएचओ ने वकालत की थी। यानी विशेषज्ञों का ये तबका साफ साफ मानता है कि भारत में सरकारी आँकड़े जो भी कहे, वायरस से संक्रमितों की तादाद उससे ज्यादा है।
 
कुल मिलाकर, एक तबका यह मानता है कि सबूत नहीं है, लिहाजा रोग नहीं है। दूसरा तबका यह मानता है कि सबूत नहीं भी हो, रोग तो है ही। एक तबका लॉकडाउन को बेहतर उपाय मानता है, दूसरा तबका मानता है कि लॉकडाउन अस्थायी और सर्वप्रथम तरीका मात्र है, उपाय नहीं है। एक तबका मानता है कि लोगों को अलग थलग किया जाएगा तो वायरस का प्रभाव कम होगा। दूसरा तबका मानता है कि बिना संपूर्ण और सही टेस्टिंग के अलग थलग करेंगे कैसे? एक तबका मानता है कि दो गज की दूरी से हम वायरस को हरा देंगे, दूसरा तबका मानता है कि एक ही उपाय है, और वो है ज्यादा से ज्यादा टेस्टिंग, सही इलाज और जल्दी से जल्दी वैक्सीनेशन कर के सुरक्षा चक्र को थोड़ा और सख्त बनाना।
  
यूँ तो भारत ने इन दिनों उतना बुरा प्रदर्शन भी नहीं किया है, और ना ही उतना अच्छा प्रदर्शन किया है। हालांकि जानकार इस लोहे सरीखी सत्ता के दौरान दबी भाषा में यह ज़रूर कह जाते हैं कि भारत जितना अच्छा कर सकता था, उतना कर नहीं पाया। नरेंद्र मोदी जैसा राष्ट्राध्यक्ष अपनी प्रजा को, अपने सिस्टम को, अपनी नौकरशाही को, अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को, जिस तरह मजबूती से तैयार कर सकता था, उन्होंने उसमें निराश किया है। यह दबी भाषा में कहने को मजबूर हैं जानकार। उस दौर को याद कर लीजिए, डब्ल्यूएचओ कोरोना को उस अंतिम सूची में डालता है और फिर भारत को करीब एक महीने का समय मिलता है। लेकिन नतीजा शून्य! फिर डब्ल्यूएचओ कोरोना को आधिकारिक रूप से वैश्विक महामारी घोषित करता है। फिर एक बार भारत को करीब एक महीने का समय मिलता है। फिर एक बार नतीजा शून्य!
महीने से डेढ़ महीने का जो समय मिला था भारत को, इन दिनों हजारों लाखों लोगों को इक्ठ्ठा कर विदेशी नेता का चुनाव प्रचार हमारे यहाँ एक आलीशान कार्यक्रम में, चकाचौंध वाली रैली के जरिए भारत करता रहता है! जब दुनिया के दूसरे देश खुद को तैयार कर रहे थे, भारत में सरकारें गिराना और बनाना, यह काम जारी था! डब्ल्यूएचओ कोरोना को महामारी घोषित करता है, गंभीर चेतावनी देता है, और हमारे यहाँ सरकार कहती है कि कोरोना कुछ नहीं बिगाड़ेगा, धबराने की ज़रूरत नहीं है! कनिका कपूर के साथ वीवीआईपी लोग पार्टी करते रहते हैं! लॉकडाउन के दिनों में फूहड़ तरीकों से अलग अलग प्रकार के उत्सव ज्यादा मनाए जाते हैं, मूल उपायों पर काम कम होता है! लॉकडाउन के बाद भारत की नेतागिरी चुनावी जश्न में डूब जाती है! रैलियाँ करती है, सभाएँ करती है! राजनीति प्रेरणा देती है तो फिर भारत के लोग भी अपने अपने सामाजिक और धार्मिक कार्यक्रमों में डूब जाते हैं! जो कुछ अच्छा किया हमने, उस पर बुरे रवैये ने जैसे कि पानी फेर दिया!
 
एक रिपोर्ट में एक और चिंता व्यक्त की गई है। चिंता यह है कि भारत में महीनों से इलाज का प्रोटोकॉल बदला ही नहीं गया है। कोविड 19 टास्कफोर्स के वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से रिपोर्ट छपती है कि उपचार प्रोटोकॉल में आखिरी बदलाव 3 जुलाई 2020 को हुआ था। नौ महीने से आईसीएमआर ने सुध नहीं ली है। आपको पता होना चाहिए कि इन दिनों अमेरिका, यूके, इटली, फ्रांस, रूस सहित दूसरे देशों में प्रोटोकॉल बदलता रहा। सुपर वायरस अपना रंग ढंग बदलता रहता है। मानव सभ्यता इसके बारे में अधिक से अधिक जानने की कोशिश करती रहती है। कोशिशों के चलते जानकारी मिलती है, डाटा मिलता है, रिसर्च होता है। और उसी प्रकार से उपचार के तौर तरीके बदलते रहते हैं। हमारे यहाँ नौ नौ महीने तक इस चीज़ को लेकर परम शांति रही!
 
कोविड 19 टास्कफोर्स के वरिष्ठ सदस्य (या फिर सदस्यों) के हवाले से भारत में कुछेक मीडिया रिपोर्टें छप रही हैं। इन रिपोर्टों में आशंका जताई जा रही है कि स्थिति नियंत्रण के बाहर जा भी सकती है। महाराष्ट्र जैसे राज्यों का डाटा इस आशंका की तरफ इशारा किए जा रहा है। कुछ जगहों पर इशारों इशारों में लिखा जा रहा है कि वैज्ञानिक तो इस आशंका से अवगत करा ही रहे हैं, किंतु सरकार अफसरशाही चलाती है। अफसर लोग वैज्ञानिकों की बातों को गंभीरता से ले नहीं रहे, ऐसा मत व्यक्त किया गया है। अफसर क्यों गंभीरता से नहीं ले रहे यह चर्चा का दूसरा सिरा है। क्योंकि अफसरशाही गंभीर नहीं है या फिर राजनीतिक नेतृत्व बेफिक्र है, इसका कोई तथ्यात्मक रिपोर्ट कहीं मौजूद नहीं है, या हमारी जानकारी में नहीं है।

 
जैसा हमने ऊपर कहा वैसे, ऐसे वायरस अपना रंग और रूप बदलने में माहिर होते हैं। भारत में कोरोना वायरस के नये वेरिएंट मिलने की बातें सामने आ रही हैं। मीडिया रिपोर्टों में, विश्लेषणों में, यह चीज़ लिखी जा रही है। भारत का अपना सीरो सर्वे चेतावनी दे रहा है। 10 हज़ार सैंपल की जीनोम सीक्वेसिंग है। आईसीएमआर के सीरो सर्वे में 25 फीसदी आबादी में संक्रमण और 75 फीसदी को हाई रिस्क का पता चलने का दावा, यह रिपोर्ट करती है। वेरिएंट के बारे में लिखा गया है कि 2020 का साल खत्म होने से पहले कुछ विदेशी और कुछ स्वदेशी वेरिएंट सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र में मिला नया वेरिएंट माथापच्ची करा रहा है।
 
वायरस के विशेषज्ञों का एक तबका यह भी मानता है कि उपचार का प्रोटोकॉल बदलना चाहिए। इस तबके का मानना है कि वायरस किसी खास आयुवर्ग के लोगों को ही प्रभावित करेगा यह मानते रहना ठीक नहीं है। वैसे उनकी यह दलील सीधे सीधे ठीक लगती है। जो वायरस बहरूपिया हो वह किसी खास उम्र के लोगों को ही संक्रमित करेगा, यह लंबे समय तक माना नहीं जा सकता। जो नये म्यूटेंट हैं, वह बच्चों और युवाओं को संक्रमित नहीं करेंगे ऐसी कोई गारंटी कहीं पर नहीं है। सिंपल सी बात है कि यह छलिया जीव है। डाटा पर रिसर्च करने वाले बताते हैं कि वायरस का दूसरा हमला जिन देशों में हो रहा है अभी, वहाँ वह उन आयु वर्ग को भी संक्रमित कर रहा है, जिन्हें वह पहले नहीं कर रहा था। बच्चों तक पर खतरा बताते हैं कुछ विशेषज्ञ। कहते हैं कि छोटी लाशें देखने की हिम्मत हो तभी बेहोश रहिए, वर्ना होश में आइए।
 
जमीनी हकीकतों से जो लोग वाकिफ़ हैं वह बताते हैं कि भारत में पहले लॉकडाउन के दौरान वह चीजें दुरुस्त नहीं हुई, जो होनी चाहिए थी। लॉकडाउन के बाद वह चीजें और ज्यादा पिछड़ गई। कोरोना चला गया वाला वातावरण तैयार हो गया है। लिहाजा चीजें उसी मोड में चली गई है, जैसे वह मार्च 2020 से पहले थी! घोषणाओं का क्या हुआ उस पर डाटा रखने वाले लोग बताते हैं कि घोषणाएँ बहुत हुई हैं, किंतु जो घोषणाएँ हुई उन पर काम बहुत कम हुआ है! बेड्स, दवा, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर को लेकर आज की स्थिति में स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे में अगर आशंका सच साबित होती है तो स्थिति वायरस के नये रूप रंग को लेकर ज्यादा बिगड़ सकती है। क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएँ, सरकार का रवैया और नागरिकी वातावरण, तीनों चीजों में भारत बेफिक्र सा नजर आता है! जबकि ख़तरा अब भी बरकरार है।
 
वैज्ञानिकों का समूह चिंता जता रहा है, लेकिन उनकी चिंताओं पर कोई चिंतित ही नहीं है। फालतू व्हाट्सएप मैसेज को गंभीरता से लेने वाले लोग वैज्ञानिक क्या कह रहे हैं वह पिछले करीब एक साल से सुन ही कहाँ रहे हैं! रही बात सरकार की, वह अपनी ही सुन रही है, किसी और की नहीं!
  
कोविड 19 टास्क फोर्स का सबको पता होगा। लेकिन लोग INSACOG (Indian SARS-CoV-2 Genomic Consortia) के बारे में बहुत कम सुना होगा। इसका गठन केंद्र सरकार ने किया है, कोरोना वायरस को लेकर। इसका काम है वायरस की नये नये किस्म का पता लगाना और सरकार को बताना। ताकि सरकार रणनीति तैयार कर सके। इस संस्था ने अपने साथ देश की 10 नामी लैब को भी जोड़े रखा है।
यूके और दक्षिण आफ्रिका जैसे देशों में मिले नये वेरिएंट पर शोध जारी है। भारत में अभी पिछले महीने ही, यानी दिसंबर 2020 में ही, यूके वाला वेरिएंट मिल चुका है। कुछ रिपोर्टों की माने तो भारत में तीन-चार से भी ज्यादा नये वेरिएंट मौजूद हो सकते हैं।
 
जो विशेषज्ञ चेताते हैं, वे कहते हैं कि आयुर्वेद या होम्योपैथी बुरी चीज़ नहीं है। वे कहते हैं कि यह उतनी ही अच्छी चीज है, जितना मेडिकल साइंस है। विशेषज्ञ कुछ हद तक यह भी मानते हैं कि आयुर्वेद या होम्योपैथी शायद मेडिकल साइंस से भी बढ़िया है। किंतु ये सभी विशेषज्ञ एक बात को लेकर एकमत हैं। वे कहते हैं कि आयुर्वेद या होम्योपैथी लंबी अवधि के नजरिए से देखे तभी मेडिकल साइंस से बढ़िया है। वे कहते हैं कि किसी भी महामारी के दौरान किसी भी समाज और उस समाज से जुड़े लोगों की प्रथम कोशिश यही होती है कि जल्द से जल्द राहत मिले। आयुर्वेद या होम्योपैथी लंबी समयावधि में मेडिकल साइंस से भी बेहतर है। किंतु अभी समय नहीं है। तुरंत उपाय मेडिकल साइंस है। एक बार सभ्यता वायरस के खिलाफ रक्षित महसूस करने लगे उसके बाद मेडिकल साइंस की जगह आयुर्वेद या होम्योपैथी ले सकते हैं।
 
हालांकि इन चीजों की बातें हमें होम्योपैथी विरुद्ध एलोपैथी वाली बहुत पुरानी चर्चा की तरफ ले जा सकती हैं। दशकों-सदियों पुरानी एक और चर्चा है औरतों और पुरुषों वाली। कौन कितना सहनशील है, कौन कितना त्याग करता है, कौन कितना अच्छा है, कौन कितना बुरा है। होम्योपैथी विरुद्ध एलोपैथी वाली लड़ाई भी ऐसी ही है! फिलहाल तो हमें एक बात समझ लेनी चाहिए कि पुराना जमाना जो भी हो, आज के जमाने में होम्पोपैथी और एलोपैथी, दोनों विशुद्ध रूप से धंधा ही है।

 
वैक्सीन को लेकर विशेषज्ञ कहते हैं कि बिना शक के महामारी के खिलाफ कारगर हथियार वैक्सीन ही है। वे लगे हाथ कह देते हैं कि वैक्सीन गारंटी नहीं है किंतु तत्काल प्रभाव से कारगर हथियार ज़रूर है। मानव सभ्यता के पास आज के समय में महामारी के खिलाफ लड़ने का पहला और अंतिम हथियार वैक्सीन ही है। किंतु विशेषज्ञ कहते हैं कि वैक्सीनेशन कार्यक्रम तभी प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है जब सही आँकड़े मौजूद हो। लेकिन ये सब बातें दूसरी चर्चा के लिए ज़रूरी है। वैक्सीन बनाने के लिए भी बहुत सारा रिसर्च चाहिए और वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद भी बहुत सारा रिसर्च चाहिए। बिना रिसर्च के सारी चीजें बेकार ही होती है। कभी कभी होता यह है कि आपके पास रिसर्च बहुत सारा होता है, किंतु राजनीतिक व्यवस्था अपने तरीके से सारी चीजें चलाती है, रिसर्च के हिसाब से नहीं! कुल मिलाकर, कंधे से कंधे मिलते हैं तभी समस्याएँ खत्म होती हैं।
 
5 अक्टूबर 2020 को कोरोना वायरस के नये म्यूटेंट पर कई खबरें छपी थी दुनियाभर में। एशिया और भारत जैसे देशों के लिए यह ख़बर महत्वपूर्ण है। लेकिन हमने ऊपर लिखा वैसे, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में डूबी हुई सभ्यता प्राइमरी एजुकेशन को देख नहीं रहीं! टास्क फोर्स, टास्क फोर्स की सहायता के लिए समितियाँ, रिसर्च टीम, बहुत सारी चीजें बनी तो हैं, किंतु फंड की कमी वाली पुरानी समस्या यहाँ भी दिक्कतें पैदा कर रही हैं। अक्टूबर 2020 में नये म्यूटेंट पर बातें हुई थी, किंतु जनवरी 2021 तक कोई ठोस योजना नहीं बन पाई है! रिसर्च की कमी या रिसर्च में देरी को दोष दिया जाएगा, किंतु कमी या देरी किन चीजों के चलते हुई यह व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वाले देखेंगे नहीं!
हमें पता होना चाहिए कि हमारे यहाँ पिछले छह महीनों में महज कुछ जीनोम सिक्वेंसिंग की गई थी और उधर चीन, इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में हज़ारों जीनोम सिक्वेसिंग कर ली गई है। सिंपल सी बात है कि ऐसे रिसर्च से ही रणनीति, योजनाएँ, दवाएँ, इलाज, बेड्स आदि की तैयारियाँ की जा सकती है। सारे लोगों में तो नहीं, किंतु बहुत सारे लोगों में मान्यता है कि वैक्सीन आ जाने के बाद हम जंग जीत लेंगे। किंतु ज्ञात होना चाहिए कि बिना रिसर्च के वैक्सीन को अपडेट नहीं किया जा सकता।
 
नये नये वेरिएंट पर भारत में महीनों से रिपोर्टें छप रही हैं। नये नये म्यूटेंट का खतरा बताया जा रहा है। लेकिन वातावरण ऐसा है कि हम कोरोना वायरस के ख़तरे की भी बात करते हैं तो मजाक उड़ाते हैं लोग! मास्क, सैनिटाइज़र आदि को तिलांजली दे चुकी सभ्यता कोरोना वायरस की चेतावनी को अब देख भी नहीं रही! रिसर्च में दिक्कतों से लेकर हमारे राजनीतिक और सामाजिक रवैये में ऐसा बदलाव, हमारे हिसाब से यह आग में घी डालने के बराबर काम है।
 
कुछ रिपोर्टें बताती हैं कि भारत में कोरोना वायरस के नये रंग-रूप का पता अक्टूबर 2020 ही नहीं, नवंबर और दिसंबर 2020 में भी चला है। कुछ राज्यों में उछाल देखा जा रहा है। हमने ऊपर INSACOG के बारे में बात की। हालांकि यहाँ दर्ज करना होगा कि इसका गठन केंद्र सरकार ने बहुत देरी से किया है। जानकारी के लिए बता दें कि INSACOG का गठन अभी अभी हुआ है। जबकि दुनियाभर के कई राष्ट्रों ने इस प्रकार के ढाँचे का गठन बहुत पहले कर दिया था। सिंपल है कि जिन्होंने इस ढाँचे का गठन पहले किया होगा वहाँ जीनोम सिक्वेसिंग की प्रक्रिया तेजी से और ज्यादा एकरूपता के साथ हुई होगी। हम इसमें पिछड़ गए!
 
कोरोना वायरस के पहले हमले के दौरान जो स्थितियां थीं, अब वह काफी हद तक बदल चुकी हैं। टेस्टिंग और वैक्सीनेशन के सिवा फिलहाल कोई दूसरा उपाय मानवता के पास नहीं है। विशेषज्ञ नसीहत देते हैं कि जिन्होंने टेस्टिंग को हल्के में लिया, उन्हें गलती सुधारने की ज़रूरत है। अध्ययन और शोधपत्रों में एक बात खास नोट करने लायक है कि कोरोना वायरस किसी खास आयु वर्ग को ही संक्रमित करेगा, इस मान्यता को चुनौती ज़रूर दी जा सकती है। कोरोना वायरस के संक्रमण की कोई उम्र नहीं है।
 
इंसानियत पर कहर बरपाने वाला यह कोई पहला वायरस नहीं है। मानव सभ्यता के पास इसे लेकर बहुत पुराना अनुभव है। दिक्कत केवल राजनीतिक व्यवस्था पैदा करती है। कोरोना वायरस कहाँ से आया, इस सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण है इससे कैसे निपटा जाए। वैसे भी वायरस आता है तब वह अकेला नहीं आता। उसके साथ आती है ढेरों कहानियाँ। कुछ काल्पनिक होती हैं, कुछ सच्ची। 
1 जून 2020 को दिव्य भास्कर ने एक रिपोर्ट छापी थी। कोविड समिति के हवाले से लिखा था कि भारत में सामुदायिक संक्रमण फैलने का खतरा बरकरार है। कोविड नेशनल टास्क फोर्स ने कहा था कि फिलहाल तो कोरोना पर नियंत्रण पाना मुश्किल है। उन्हें तभी से सामुदायिक संक्रमण का खतरा महसूस हो रहा था। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसे कितनी बेफिक्री से नजरअंदाज किया वह ताजा इतिहास ही है। हम तब सामुदायिक संक्रमण से बच गए थे, लेकिन स्थिति अब फिर से ख़तरे की तरफ ले जा रही है।
 
1 अप्रैल 2020 को भारत में कोरोना कोविड 19 को लेकर बनी एक समिति ने कहा था कि अगर दूसरी बार कोरोना वायरस का हमला हुआ तो इससे निपटने के लिए ढेर सारी स्वास्थ्य सेवाएँ चाहिए होगी। इस समिति ने कई चेतावनी दी थीं। आम जनता तो छोड़िए, केंद्रीय नेतृत्व समेत तमाम राजनीतिक जमात ने इन चेतावनियों को कुड़ेदान में डाल दिया हो ऐसा वातावरण है। अभी कोरोना वायरस का प्रकोप कम है, इसलिए उस समिति की सारी चेतावनी मजाक सी लगती है। किंतु ऐसा नहीं है कि सबूत नहीं है तो रोग नहीं है। सबूत ना हो, रोग तो है ही।
 
जुलाई 2020 में डब्ल्यूएचओ भी चेता चुका है कि ठोस कदमों को लंबे समय तक लागू करने की ज़रूरत है, वर्ना हालात बद से बदतर होते जाएँगे। वैसे डब्ल्यूएचओ कोई वैज्ञानिक संस्था नहीं है। किंतु वह दुनियाभर से डाटा इक्ठ्ठा कर अनुमान तैयार करता है। वह कई बार गलत साबित हो चुका है। गलत साबित हो भी सकता है भविष्य में। किंतु अब तक कोरोना वायरस को लेकर उसके अनुमान यही दिखा रहे हैं कि दुनियाभर की सरकारें कुछ हद तक लापरवाह रही हैं, और इसी वजह से कोरोना वायरस का संकट अब भी बड़े ख़तरे के रूप में मौजूद है। डब्ल्यूएचओ के डॉ. टेड्रोस कहते हैं कि अगर बुनियादी चीज़ों का पालन नहीं किया गया तो एक ही रास्ता है कि कोरोना थमेगा नहीं और वो बढ़ता ही जाएगा और यह बद से बदतर होता जाएगा। उनका इशारा वैज्ञानिकों के शोधपत्र, रिसर्च आदि को राजनीति द्वारा तवज्जो नहीं देने को लेकर था।
 
ज्यादातर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय यही आ रही है कि कोराना वायरस यूँ ही नहीं जाएगा, वह लंबे समय तक मानव सभ्यता के बीच किसी न किसी रूप में मौजूद रह सकता है। लेकिन इससे घबराने की भी ज़रूरत नहीं है। बहुत सारे वायरस अब भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिनके साथ हम जी रहे हैं। यूँ तो कुछ शोध की माने तो कोरोना वायरस पुराना है, नया नहीं है। किंतु उसने जिस तरह से अपने नये रंग और रूप के साथ हमले किए, उसे समझने में मानव सभ्यता को कुछ तो वक्त लगेगा। आज की स्थिति में लापरवाही भारी पड़ सकती है। क्योंकि आज की स्थिति में वह अब भी अबूझ पहेली है। यह मौसमी बीमारी बनकर रह जाएगा, कुछ अध्ययन यह भी कहते हैं। यानी, पैनडेमिक की स्थिति से एनडेमिक तक पहुंचना।
  
अक्टूबर 2020 के महीने से यूरोप फिर एक बार कोरोना वायरस की चपेट में आ गया। फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी में फिर से वही हालात बने। फिर संक्रमण का केंद्र धीरे धीरे अपनी जगह बदलने लगा। यूरोप से वह अमेरिका की तरफ जाता रहा। फिर कही और। नाइजीरिया, आयरलैंड, साउथ आफ्रिका तक भी पहुंचा। जर्मनी भी फिर से झुलस रहा है। दिसंबर 2020 तक ब्रिटेन में कोरोना नये रंग और नये ढंग के साथ सामने आ चुका है। कुछ देश ऐसे भी हैं, जहाँ कोरोना का खतरा बहुत कम है। कुछ ऐसे देश हैं, जहाँ ख़तरा अब भी बरकरार है। सामुदायिक संक्रमण कब कहाँ फैला, कम हुआ, फिर से फैल रहा है, आदि को लेकर चीजें और रिपोर्टें पढ़नी चाहिए।
इसके बाद से अब तक, कुछ जगहों पर विशेषज्ञों और जानकारों के हवाले से लेख छपे हैं। आशंका जताई गई है कि शायद हालात यह बन गए है कि हम वायरस के नये वैरिएंट पर ढंग से शोध शुरू भी नहीं कर पाए हैं अब तक, और जब करेंगे तब कोई नया वैरिएंट सामने आ चुका होगा! वायरस को लेकर कई शोधपत्र प्रकाशित हो रहे हैं, अध्ययन सामने आ रहे हैं। उन शोधपत्रों और अध्ययनों की माने तो पिछले साल वाले उपाय बदलने की ज़रूरत है। किसी खास आयु वर्ग को ही कोरोना वायरस संक्रमित करेगा वाली मान्यता को भी बदलने की ज़रूरत बताते हैं अध्ययन। मास्क, किट्स, सैनिटाइज़र को तिलांजली दे चुकी सभ्यता को चेताते हैं शोधपत्र।
 
यूके और साउथ आफ्रिका से आया नया कोरोना वैरिएंट विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन वेरिएंट पर जीनोम सीक्वेसिंग करने के बाद पता चला कि यह बहुत कम समय में सामुदायिक फैलाव तक पहुंचने में सक्षम है। ऐसा भी नहीं कि दो-तीन किस्में ही भारत में फैल रही हैं। इससे ज्यादा वेरिएंट फैल रहे हैं। यह विशेषज्ञों के रिसर्च तथा विश्वसनीय रिपोर्टों में दर्ज है। जिन्होंने विदेश यात्रा नहीं की उनमें भी कुछ वेरिएंट प्रभाव जमा रहे हैं।
 
चीख चीख कर, चिल्ला चिल्ला कर विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, रिसर्चर बता रहे हैं कि कोरोना वायरस अब भी मौजूद है और अब भी वह गंभीर परिणाम तक ले जाने में सक्षम है। किसी ऐसे सुपर वायरस का पहले के मुकाबले अधिक संक्रमक होने का इतिहास तो है ही। किंतु विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, रिसर्चर आदि जितनी भी माथापच्ची कर ले, राजनीति-सभ्यता और मीडिया, सभी अपनी दुनिया में मस्त है! बेपरवाह, बेफिक्र... ! माहौल ऐसा जैसे कि कोरोना तो चला गया! हमारे हिसाब से जब विशेषज्ञ चेता रहे हैं तो फिर होश में रहने में हर्ज क्या है? बेहोशी में लड़कर अपनी मूर्खता की वजह से दुखी होने से तो अच्छा है कि होश में रहकर लड़ा जाए।
 
मार्च 2020 में व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वाले दावा किया करते थे कि गर्मी में कोरोना कमजोर होगा। व्हाट्सएप विश्वविद्यालय वालों के इस अजब रिसर्च को विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के शोधपत्र सिरे से खारीज करते हैं। पिछले साल भी वायरस का प्रकोप गर्मी में ज्यादा रहा था। अध्ययन कहते हैं कि अब की बार भी गर्मी में वायरस का प्रकोप ज्यादा होगा। वैज्ञानिक कोरोना वायरस के नये प्रकार को लेकर कह रहे हैं। सरकारें शिद्दत से नजरअंदाज कर रही है! जैसे कि राजनीति नारों से वायरस को हरा देगी!
 
पिछले कुछ महीनों से कोरोना वायरस के नये रंग और नये रूप के बारे में भारत में छपने लगा था। जनवरी 2021 तक हालात ऐसे हैं, जैसे कि प्रकाशित की गई रिपोर्टें कोई कॉमिक बुक हो! तमाम चीजें देखकर लगता तो यही है कि हम पूर्व तैयारी करने में यकीन ही नहीं करते, हम तो उस अंदाज को धारण किए हुए हैं कि होगा सो देखा जाएगा! पूर्वतैयारी में नहीं बल्कि प्रतिक्रिया देने में यकीन रखने वाली योजना कितनी कारगर होगी वह तो आने वाला समय बताएगा। हम तो यही कामना करते हैं कि आने वाला समय बेहतर हो, सुरक्षित हो।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)