आधार कार्ड की ज़िंदगी एक पंक्ति में यूँ बयाँ की जा सकती है - कभी देश के लिए ख़तरा, कभी देश के लिए एकमात्र आधार। एक ऐसा विराट कार्यक्रम, जो संसद में पारित होने से पहले ही देश में लागू किया जा रहा
था! अब तो हालात यह है कि आधार कार्ड पर कुछ सवाल उठाए जाते हैं, तो इसे आधार कार्ड
के ख़िलाफ़ साज़िश सरीखा बताया जाता है! जबकि सवाल तो कुछ घटनाओं से उठे हुए होते हैं।
आधार को लेकर कुछ घटना बड़ी अजीब हैं। आधार सौ फ़ीसदी सुरक्षित है, लेकिन उसे कोई भी अनधिकृत तरीक़े से आसानी से निकाल सकता है!
आधार सौ फ़ीसदी सुरक्षित है, लेकिन निजी डाटा अनेकों
बार साइट पर लीक हो जाता है!
एक पुराना सवाल है
कि क्या आधार से निजी जानकारी सार्वजनिक हो सकती है? यह सवाल सालों से पूछा जाता रहा है। यूँ कहे कि सर्वव्याप्त सवाल है यह। इसका उत्तर
भी दिया जाता है कि ऐसा बिलकुल नहीं है। सरकार और उनके विभाग आधिकारिक रूप से कहते
रहे हैं कि ये महज़ एक ग़लत धारणा है, ऐसा कुछ नहीं है।
विडंबना यह है कि 2014 से पहले और 2014 के बाद सवाल उठाने
वाले और उत्तर देने वाले किरदार बदल चुके हैं, किंतु सवाल अब भी क़ायम है। सवाल इसलिए क़ायम है, क्योंकि आधार को लेकर ऐसी चीज़ें, ऐसी घटना, बदस्तूर जारी हैं। अजीब यह है कि आधार के
बारे में कुछ भी विवादास्पद घटित होता है, तब संबंधित विभाग, तकनीक या फिर मानवीय ग़लती बताकर सभी को लताड़ा जाता है, सिवा आधार के! पता नहीं चलता कि आधार और ईवीएम, इन दोनों में ऐसा क्या है, जिनकी ग़लती कभी होती ही नहीं!
लोग पूछते हैं कि अगर
आधार एक सरकारी योजना है, उसका इस्तेमाल सरकारी ही होना था, तो फिर ऐसा क्यों कि जब हम सिम कार्ड ख़रीदने के लिए पहचान पत्र
के रूप में आधार देते हैं, तब भी उस निजी कंपनी को आधार कार्ड के माध्यम से डाटा मिल
जाता है। भले उसे बायॉमीट्रिक जानकारी नहीं मिलेगी, लेकिन दूसरा डाटा तो मिल जाएगा।
इस बात को समझाने के
लिए आधार एक्ट की धारा 8 को आगे रखा जाता है। इसकी भाषा बड़ी गूढ़ है और यह आसानी से समझ नहीं आती।
दरअसल, आधार एक्ट में किसी
व्यक्ति की ‘पहचान बताने वाली सूचनाओं’ के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा डेमोग्राफिक
(जनांकिकी) का है, और दूसरा बायॉमीट्रिक (जैविक) सूचनाओं का। एक्ट में एक जगह ‘बुनियादी बायॉमीट्रिक
सूचना’ का ज़िक्र है।
जानकारों की माने तो, आधार एक्ट की धारा 8 का संबंध ‘सत्यापन’ से है। अगर एक्ट के शुरुआती मसौदे (नेशनल
आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया बिल, 2010) और इसके अंतिम रूप आधार एक्ट 2016 के बीच तुलना करें तो ‘सत्यापन’ के लिहाज़ से बड़ा बुनियादी बदलाव दिखाई देता
है। 2010 के बिल के अनुसार यदि अथॉरिटी से किसी आधार नंबर के बारे में कोई सवाल किया जाता
है, तो अथॉरिटी उस पर सकारात्मक/नकारात्मक या जो उचित समझे, वह जवाब दे सकती है, पर वह किसी तरह की डेमोग्राफिक या बायॉमीट्रिक
जानकारी साझा नहीं कर सकती। आधार एक्ट 2016 में इसमें बदलाव किया गया। यहाँ कहा गया कि किसी सवाल के जवाब में अथॉरिटी सिर्फ़ बायॉमीट्रिक जानकारी नहीं दे सकती।
यानी किसी के आधार
के बारे में अर्ज़ी डालकर कोई भी (एजेंसी या व्यक्ति, जो शुल्क चुकाने को राजी हो) जानकारी ले सकता है कि उस आधार
नंबर वाले व्यक्ति की पहचान सूचक जानकारी क्या है, बस उस आधार से जुड़ी बायॉमीट्रिक सूचना नहीं मांगी जा सकती। इसके अतिरिक्त फ़ोटोग्राफ
सहित और अन्य कोई भी जानकारी यूआईडीएआई अर्ज़ी डालने वाले के साथ साझा कर सकता है।
बतौर हिफाज़त, इंतज़ाम के दो उपाय किए गए हैं। एक है कि अर्ज़ी लगाने वाले को आपको बताना
होगा कि वह आपकी पहचान बताने वाली सूचनाओं का इस्तेमाल किस मक़सद से करेगा। दूसरा उपाय
यह है कि अर्ज़ी लगाने वाला आपके आधार नंबर (या आपकी बुनियादी बायॉमीट्रिक जानकारी)
सार्वजनिक नहीं करेगा।
आधार एक्ट की धारा
8 की रोशनी में देखें
तो, सेंट्रल आइडेंटिटी डाटा रिपॉजिटरी (यूआईडीएआई का पहचान बताने वाली सूचनाओं का भंडारघर)
के ‘सुरक्षित’ होने के बारे में हो रही बहस बहुत ज़्यादा
भटकी हुई जान पड़ती है। यह रिपॉजिटरी पहुंच से बाहर नहीं है। इसके उलट, आधार एक्ट में पहचान सूचक जानकारी को साझा करने की पूरी रूपरेखा
बताई गई है, बस बुनियादी बायॉमीट्रिक सूचनाओं को साझा
करने की मनाही है। इसके अतिरिक्त सरकार (या कह लें यूआईडीएआई) को पहचान बताने वाली
सूचनाओं तक किसी की पहुंच या बाकी बातों के निर्धारण के असीमित अधिकार हासिल हैं।
आधार की प्रकृति में
बदलाव हो गया और यह ज़्यादातर लोगों की नज़र में नहीं आया! आख़िर यह हुआ कैसे? इसका एक संभावित उत्तर तो यही जान पड़ता है कि आधार की अगली
पांत के कर्ता-धर्ता समझ गए हैं कि डाटाबेस का व्यापारिक मोल है। मुद्दे की बात यह
है कि रिपॉजिटरी तक निजी हाथों की पहुंच के रास्ते व्यापार की बहुत ज़्यादा संभावनाएं
पैदा हो रही हैं। ऐसा होना और भी लाज़मी है, क्योंकि ‘बिग डाटा’ (डाटा भंडार) में कॉर्पोरेट की दिलचस्पी बढ़ रही है। आधार को लेकर चल रही चर्चा
में इसे ‘सत्यापन का मंच’ बताकर इसके मोल का बखान किया जा रहा है और
इसे ध्यान में रखकर अनगिनत ऐप्स बनाए जा सकते हैं।
इसी वजह से धारणा बनती
है कि यूआईडीएआई आपकी पहचान की सूचनाओं की हिफ़ाज़त करना तो दूर, उन्हें ऐसे किसी भी
व्यक्ति या संस्था को बेचने को तैयार है, जिसके पास आपका आधार नंबर है और जो आपकी पहचान
संबंधी जानकारी मांगने के एवज़ में शूल्क चुकाने को तैयार हो। बस आपकी बायॉमीट्रिक
जानकारी नहीं दी जाएगी।
इस तथ्य को याद रखा जाना चाहिए कि आधार योजना
वैकल्पिक होगी यह बताकर लाया गया, और फिर उसे व्यावहारिक बनाया गया, और फिर अनिवार्य! चतुराई से बहलाया गया कि आधार स्वैच्छिक होगा, फिर अनिवार्य हो गया। हालात यहाँ तक बन गए
हैं कि अब आधार के विरोधी और आधार के हिमायती, ऐसे दो तबके उत्पन्न हो चुके हैं।
समय समय पर ‘आधार’ से जुड़े बड़े कथित ख़तरों का ध्यान आता है, हालाँकि इन ख़तरों को सरकार बेवजह की चिंता करार देती है। वैसे
भारत में ज़्यादातर तो निजता को लोग उतनी गंभीरता से नहीं लेते! और इसी वजह से आधार
पर वाजपेयी सरकार, मनमोहन सरकार और फिर मोदी सरकार धड़ल्ले से
अपना रुख बदलकर काम कर पाईं।
आधार को लेकर यूपीए
से लेकर एनडीए, सभी का, सरकार में होते हुए एक ही रवैया रहा।
दोनों ने अपनी अपनी सरकारों के दौरान एक ही बयान दिया कि आधार पूरी तरह सुरक्षित है।
मोदीजी और बीजेपी ने आधार को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया था, और फिर सरकार बनाने के बाद घोषित कर दिया कि आधार ही देश का
एकमात्र आधार है!
29 मार्च 2017 को भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की पत्नी साक्षी
धोनी ने ट्वीट कर उनके पति के आधार की जानकारी लीक होने की शिकायत तत्कालीन आईटी मिनिस्टर
रविशंकर प्रसाद से की थी। इसके बाद यूआईडीएआई ने संबंधित एजेंसी (जिसने धोनी की आधार
संबंधी जानकारी दर्ज की थी) पर 10 साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। इस घटना के बाद सरकारों के घिसे पिटे बयान
संदेहास्पद नज़र आने लगे।
इस घटना के पहले सरकार
और यूआईडीएआई, दोनों आधार को पूरी तरह सुरक्षित बता रहे
थे। लेकिन इस घटना के बाद द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक़, केंद्र के सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय में पदस्थ वरिष्ठ
वैज्ञानिक अर्चना दुरेजा ने 25 मार्च 2017 को सभी मंत्रालयों और राज्यों को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने कहा कि, "ऐसे कई वाक़ये सामने आ चुके हैं, जब यह पता चला कि आम आदमी के आधार से जुड़ी
जानकारियाँ- जैसे कि आधार नंबर, रिहाइश आदि से संबंधित जानकारी, बैंक खाते के विवरण वगैरह सार्वजनिक हुए हैं। ऐसी जानकारियाँ
(लोगों के आधार से जुड़ीं) जो विभिन्न मंत्रालयों/विभागों ने अपने पास जमा कर रखी हैं, वे ऑनलाइन प्रकाशित की जा चुकी हैं। यही नहीं, ऑनलाइन सर्च करने पर ये आसानी से किसी के लिए उपलब्ध हो जाती
हैं।" दुरेजा ने इस पत्र में आधार क़ानून-2016 के नियम और दंड के
बारे में मंत्रालयों और राज्यों को याद दिलाकर मशविरा दिया कि वे इस तरह की घटना रोकने
के लिए अतिरिक्त ऐहतियात बरतें।
सरकार और यूआईडीएआई
एक तरफ़ सौ फ़ीसदी सुरक्षा का ढोल पीट रहे थें, दूसरी तरफ़ ऐसे पत्र और उसके भीतर की सूचना
कुछ और चीज़ें ही दर्शा रही थीं।
अप्रैल 2017 के दौरान झारखंड सरकार
के वेबसाइट से लाखों पेंशन लाभार्थी नागरिकों के आधार कार्ड नंबर लीक होने का मामला
सामने आया। आधार क़ानून के मुताबिक़ आधार नंबर सार्वजनिक नहीं किए जा सकते, जबकि यहाँ घंटों तक आधार नंबर दिखाई दिए! आख़िरकार शाम को वेबसाइट
ब्लॉक किया गया। महिला, बाल व सामाजिक सुरक्षा विभाग के वेबसाइट पर
पेंशन लाभार्थी नागरिकों के आधार नंबर, बैंक खाता नंबर समेत कई दूसरी जानकारी साइट
पर देखने के लिए मिली थीं।
जिस आधार कार्ड को
लेकर सरकारें सौ फ़ीसदी सुरक्षा के नारे लगा रही थीं, उसी आधार कार्ड को लेकर जो घटनाएँ सामने आ रही थीं, लगा कि सरकारों के नारों के गुब्बारे में आधार कार्ड पंक्चर
कर रहा है।
26 अप्रैल 2017 के दिन अहमदाबाद के घाटलोडिया चाणक्यपुरी सेक्टर 6 से जाली आधार कार्ड
बनाने के रैकेट का भंडाफोड़ हुआ। ख़बरों की माने तो इस रैकेट के मुख्य सूत्रधार ने 500 से ज़्यादा जाली आधार
कार्ड बनाए थे। आरोपी सॉफ़्टवेयर इंजीनियर था।
ऐसी चीज़ें सवाल उठा गईं कि भारत के दूसरे हिस्सों
में ऐसे रैकेट नहीं होंगे इसकी कोई गारंटी है क्या? एमएस धोनी का मामला, झारखंड और अब गुजरात, सौ फ़ीसदी सुरक्षा का नारा मज़ाक बनकर उभरने
लगा था। आगे और भी बहुत कुछ होना बाकी था अभी। हनुमानजी का भी आधार कार्ड बना!
कहा गया था और कहा
भी जाता है कि आधार अति सुरक्षित है। तो फिर उसे बनाने वाले लोग लापरवाह हैं क्या? एक ऐसे गाँव की कहानी सामने आई, जहाँ सारे लोग आधार कार्ड के मुताबिक़ एक ही दिन पैदा हुए थें!
अजीब सी लगने वाली
यह बात राजस्थान के जैसलमेर पोकरण उपखंड क्षेत्र के गाँव की थी। यहाँ के सभी निवासी
एक ही तिथि पर पैदा हुए थे! प्राथमिक रूप से यही लग रहा था कि आधार नामांकन के दौरान
बरती गई लापरवाही या अनदेखी के चलते सभी ग्रामीणों की जन्म तिथि 1 जनवरी अंकित हुई थीं।
सभी के जन्म के साल अलग अलग थे।
अगर मीडिया मुठ्ठी
के बाहर होता तो फिर सनसनी वाले म्यूज़िक के साथ एंकर लोग यही बताते कि अद्भुत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय। वैसे इतने अद्भुत कर्मचारियों की
बड़ी कृपा कि उन्होंने जन्म के साल एक नहीं किए। गाँव वालों से कहा गया होगा कि आधार
यूनिक पहचान नंबर है, किंतु इतना ज़्यादा यूनिक होगा ये तो उन्होंने
भी नहीं सोचा होगा। यूनिक आधार कार्ड के डाटा ज़रूरत से ज़्यादा यूनिक हुए जा रहे थे!
आगरा ज़िले के तीन
गाँवों और प्रयागराज (उस समय इलाहाबाद) के एक गाँव में भी सभी की जन्म तिथि 1 जनवरी छपकर आई थी!
इतना ही नहीं, इस गाँव के लोगों के राशन कार्ड और वोटर आईडी
तथा आधार, सब में अलग अलग जानकारी दर्ज थी।
इसके अलावा, हरिद्वार से क़रीब 20 किमी दूर खाटा गाँव का भी एक मामला अंग्रेज़ी अख़बार में छपा, जहाँ क़रीब 800 परिवारों की जन्म तिथि एक ही थी!
आधार के सुरक्षित होने
के दावे कई मामलों की वजह से खोखले साबित हो रहे थे। तकनीकी दुनिया के लोग कहते हैं
कि इस दुनिया में कोई भी चीज़ सुरक्षित नहीं होती।
शायद सरकारें ये बख़ूबी समझ रही होगी। तभी
तो दो अलग अलग आश्वासन दिए जा रहे थे। एक बयान में सरकार कह रही थी कि बायॉमीट्रिक
डाटा बेहद सुरक्षित ढंग से एन्क्रिप्टेड है और सौ फ़ीसदी सुरक्षित है। दूसरी तरफ़ सरकार
ये भी कह रही थी कि डाटा लीक करने के मामले में जो भी दोषी पाए जाएँगे उन पर ज़ुर्माना
लगाया जा सकता है, जेल भेजा जाएगा।
इन दिनों छात्रों, पेंशन और जन कल्याण योजनाओं का लाभ लेने वाले लोगों की जानकारियाँ
दर्जनों सरकारी वेबसाइट पर आ चुकी थीं! भारत के सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी (सीआईएस)
की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ चार अहम सरकारी योजनाओं के तहत आने वाले, 13 से 13.5 करोड़ आधार नंबर, पेंशन और मनरेगा में काम करने वाले 10 करोड़ बैंक ख़ातों
की जानकारी ऑनलाइन लीक हो चुकी थी!
बेंगलुरु की सेंटर
फॉर इंटरनेट एंड सोसायटी की रिपोर्ट ने आधार की सुरक्षा पर एक बार फिर सवाल खड़े किए।
सीआईएस ने रिपोर्ट को इंफॉर्मेशन सिक्योरिटी प्रैक्टिस ऑफ़ आधार के नाम से प्रकाशित
किया था। रिपोर्ट के अनुसार पहले जहाँ से आधार कार्ड का डाटा लीक हुआ, उसमें दो डाटा बेस रूरल डेवलपमेंट मिनिस्ट्री से जुड़े थे। इनमें
नेशनल सोशल असिस्टेंट प्रोग्राम का डैशबोर्ड और नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट
का पोर्टल शामिल थें।
यह रिपोर्ट चार डाटा
बेस की स्टडी के बाद तैयार की गई थी। हालाँकि रिपोर्ट में इस बात की जानकारी नहीं दी
गई थी कि डाटा लीक के पीछे क्या कारण थें।
नोट करें कि इस रिपोर्ट
के समय भारत में 23 करोड़ लोगों को आधार के ज़रिए जनकल्याण योजनाओं का फ़ायदा मिल रहा था। 23 करोड़ में से क़रीब
13-14 करोड़ के डाटा लीक! सौ फ़ीसदी सुरक्षा!
उधर सरकार ने ये स्वीकार
किया कि क़रीब 34 हज़ार सर्विस प्रदाताओं को या तो ब्लैक लिस्ट कर दिया गया है या फिर सस्पेंड किया
गया है, जो उचित प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं कर रहे
हैं और फ़र्ज़ी पहचान पत्र बना रहे थे।
आधार का उद्देश्य ही फ़र्ज़ी पहचान को ख़त्म करना था, लेकिन सरकार ख़ुद अब तक 85 लाख लोगों का डुप्लीकेट
पहचान पत्र रद्द कर चुकी थी!
सीआईएस पहले भी कह
चुका है कि आधार इसलिए असुरक्षित है, क्योंकि यह बायॉमीट्रिक डाटा पर आधारित है। सीआईएस
के मुताबिक़ तकनीकी स्तर पर इसमें काफ़ी खामियाँ हैं, जिनकी वजह से आधार का डाटा पूरी तरह से सुरक्षित रखना काफ़ी मुश्किल है। इस रिसर्च
रिपोर्ट में कहा गया कि नागरिकों की जानकारी इस तरह सार्वजनिक होना इस बात को दर्शाता
है कि इसे कितने लचर तरीक़े से लागू किया गया है।
इन्हीं दिनों वह घटना
भी सामने आई थी, जब पता चला कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय
के वेबसाइट से ऐसे डाटा एक्सेल शीट आसानी से गूगल के ज़रिए डाउनलोड किए जा सकते थें!
द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ डाटा रिसर्चर श्रीनीवास कोडाली ने थर्ड पार्टी वेबसाइट
के द्वारा ग़लती से लीक किए गए 5 से 6 लाख लोगों के पर्सनल डाटा के बारे में बताया था। इस डाटा में आधार नंबर, नाम, कास्ट, जेंडर और फ़ोटोज़ शामिल थे।
पहले यूपीए सरकार और अब एनडीए सरकार, दोनों सवालों को खारिज़ करते रहे। एक अंग्रेज़ी अख़बार ने विकीलीक्स के हवाले से लिखा कि कुछ कश्मीरी आतंकियों के पास यूआईडी बरामद
हुए थे। पता नहीं कि नंदन निलेक्णी ने कौन सा मंत्र फूँका था कि पहले मनमोहन सिंह और
अब नरेंद्र मोदी, दोनों आधार को देश
का एकमात्र आधार मानने लगे! गड़बड़ियाँ होती रहीं और दूसरी तरफ़ सरकार दावा करती रही कि इसमें गड़बड़ी की कोई
गुंजाइश नहीं है! संसद के भीतर क़ानून ही नहीं बना था, और इधर लाखों कार्ड बनने लगे थे!
याद करिए वो समय जब
भगवान श्री हनुमानजी का भी सचित्र आधार बन चुका था! हरेक खानापूर्ति व पंजीयन क्रंमाक
के साथ यह कार्ड बेंगलुरु से बना था! पता फ़र्ज़ी था, इसलिए कार्ड राजस्थान के सीकर जिले के दांता रामगढ़ डाकघर पहुंच गया और सार्वजनिक
हो गया। सिंपल सा सवाल है कि कार्ड बनाने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर और कार्ड का सत्यापन
करने वाले अधिकारी ने हनुमानजी के चित्र को किसी नागरिक का फ़ोटो कैसे मान लिया होगा?
फिर तो एक ही नाम के
अनेक आधार बनने की कहानियाँ भी आईं! प्राणियों के आधार भी बने! मृत नागरिकों के भी आधार
कार्ड बने! देवी-देवताओं के भी बने! बीच में मिड डे मिल के लिए भी इसे अनिवार्य कर
दिया गया! इतना ही नहीं, मवेशियों की तस्करी रोकने के नाम पर गायों
के आधार कार्ड की योजना की मनशा भी ज़ाहिर हुई!
दूसरी तरफ़, अप्रैल
2017 के दौरान 40 हज़ार किसानों को उनके बर्बाद हुई फ़सल का मुआवज़ा इसलिए नहीं मिल सका था, क्योंकि बैंक में इन किसानों के आधार नंबर ग़लत दर्ज किए गए
थे। 2021 में सुप्रीम कोर्ट में एक मामला चला, जिससे पता लगा कि आधार कार्ड नहीं
होने की वजह से 3 करोड़ राशन कार्ड रद्द कर दिए गए थे।
इस बीच, यूपी एसटीएफ ने फ़र्ज़ी तरीक़े से आधार कार्ड बनाने वाले एक गिरोह
का भंडाफोड़ किया। ग़ज़ब बात यह थी कि उस गिरोह के कई सदस्य पहले यूआईडीएआई में बतौर
ऑपरेटर काम कर चुके थे! इसके पीछे मूल वजह थी यूआईडीएआई की अधिक से अधिक आधार कार्ड
जल्दी से जल्दी बनवाने की सनक। एनरोलमेंट के लिए अलग अलग एजेसिंयाँ, उन्हें टार्गेट देना, और इसी चक्कर में अनधिकृत यूज़र और अनधिकृत
तरीक़ों का इस्तेमाल। कानपुर के बर्रा में इस तरह का एक सेंटर तक चल रहा था, जिस पर एसटीएफ ने छापा मारा था।
इन्हीं दिनों उत्तर
प्रदेश के देवबंद से पकड़े गए एक आतंकी से पूछताछ में जाँच एजेंसियों को पता चला था
कि संबंधित आतंकी ने अनधिकृत तरीक़े से आधार कार्ड बनवा रखा था!
उधर एक मामले में सरकार
ने यह स्वीकार किया कि ग्राहकों की आधार संख्या का उपयोग कर उनके बैंक खातों से धोखाधड़ी
कर पैसे निकाले जाने की घटनाएं हुई हैं! 2018 में वित्त राज्य मंत्री प्रताप शुक्ला ने राज्यसभा में लिखित जवाब में कहा था
कि चार सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों ने लगभग डेढ़ करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की सूचना
दी है।
किसी ने यह नहीं बताया कि आधार सटीक योजना
है तो इतने सारे कार्ड क्यों बेकार हुए? और उसे रद्द क्यों किया गया? ज़्यादा पूछा जाने लगा तो अधिकारी इसे लोगों की ग़लती बताने लगे! आधार सटीक नहीं निकला तो उसका दोष नागरिकों के मत्थे मड़ दिया गया! किसी में पता ग़लत, किसी में नाम ग़लत, किसी में स्पेलिंग ग़लत, किसी में पहचान ग़लत, और भी बहुत कुछ। थोड़े बहुत नागिरक ग़लती करते
होंगे, लेकिन देश के लाखों
नागरिकों से ग़लती हुई होगी? सभी ने एक समान जन्म
तिथि डाल दी होगी? ये कैसे मुमकिन हो सकता है? ग़नीमत है कि डाटा लीक की जो घटनाएँ हुईं उसमें नागरिकों के ऊपर दोषारोपण नहीं हुआ।
अस्पताल में आधार कार्ड
नहीं दिखा पाने की वजह से कारगिल संघर्ष में वीरगति को प्राप्त लक्ष्मण दास की पत्नी
शकुंतलाजी ने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया था। इन्हें हृदय संबंधित बीमारी थी। बेटा
इलाज के लिए अस्पताल से मिन्नतें करता रहा और उधर अस्पताल वाले आधार कार्ड जमा कराने
पर अड़े रहे! इस बीच शंकुतलाजी ने दम तोड़ दिया।
आधार वैकल्पिक होगा, देश को दिए गए इस आश्वासन का भरोसा मनमोहन सरकार और मोदी सरकार, दोनों तोड़ चुके हैं। साथ ही अस्पताल वालों को क़ानूनी सुरक्षा
उपलब्ध है। इसलिए हर मसले पर वे बेगुनाह हैं। गुनाह तो नागरिक करते हैं। है न?
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के
मुताबिक़, बेंगलुरु के रहने वाले कर्नल मैथ्यू थॉमस
द्वारा दायर की गई आरटीआई में जानकारी दी गई थी कि यूआईडीएआई के साथ काम कर रहीं विदेशी
कंपनियाँ सभी प्रकार का डाटा एक्सेस कर सकती हैं। दावा किया गया कि इन कंपनियों के
साथ किए गए कॉन्ट्रैक्ट के क्लॉज 15.1 में कहा गया है कि कंपनियाँ सभी प्रकार के डाटा और हार्डवेयर को एक्सेस कर सकती
हैं। ये केवल उन कंपनियों को लागू है, जो बायॉमीट्रिक सर्विस प्रोवाइडर हैं। कर्नल मैथ्यू
सुप्रीम कोर्ट में दायर राइट टू प्राइवेसी मामले में याचिकाकर्ता भी थे।
सब सलामत है के नारे
के बीच नवम्बर 2017 में यूआईडीएआई ने आरटीआई के तहत जानकारी देते हुए खुलासा किया था कि आधार कार्ड
में संग्रहित की गई नागरिकी जानकारी लीक हो चुकी है। यूआईडीएआई ने बताया था कि केंद्र
सरकार तथा राज्य सरकारों के 200 से ज़्यादा वेबसाइट पर नागरिकों के नाम, पता समेत अन्य चीज़ें सार्वजनिक हो चुकी हैं।
जवाब देते हुए यूआईडीएआई
सुरक्षा स्तर, सुरक्षा दावे वगैरह की बातें भी कर रही थीं।
एक तरफ़ 200 से ज़्यादा साइट पर जानकारी लीक हो चुकी होती है और संस्था आधार की सुरक्षा को
लेकर आश्वासन दे रही होती है!
इसके बाद अगले साल
लोकसभा में मंत्री केजे अल्फोंस ने लिखित रूप से स्वीकार किया कि, "गुजरात यूनिवर्सिटी, गुजरात सरकार की डेवलपिंग कास्ट वेलफेयर के
वेबसाइट पर नागरिकों के आधार नंबर समेत कुछ जानकारियाँ सार्वजनिक हो गई थीं।"
आधार डाटा सुरक्षा
को लेकर एक के बाद एक जो परतें खुल रही थीं, सवाल जस के तस थे। नोट करें कि बचाव करने
वाले, यानी कि सरकार और यूआईडीएआई, भी जस की तस ही थे!
एक ऐसा वाक़या भी हुआ, जिसमें एक ही आधार पर 9 अलग अलग मोबाइल लिंक्ड मिले! दिल्ली के मयूर विहार में रहने वाली गृहिणी प्रिया
रैना ने बताया कि जब वो अपना मोबाइल नंबर आधार से लिंक करवाने गईं, तो पता चला कि उनके आधार से पहले से ही 9 फोन नंबर लिंक हो
चुके हैं! जब प्रिया ने इस मामले को लेकर ट्वीट किया वह वायरल हुआ तो यूआडीएआई ने इस
पूरे मामले में ठीकरा सिम कार्ड प्रोवाइडर पर फोड़ दिया। सिम कार्ड कंपनी ने अपनी ग़लती
मान इस मामले के लिए सॉफ़्टवेयर में ख़राबी को ज़िम्मेदार बताया।
किसी नागरिक ने ग़लती से ग़लत जानकारी लिख दी
तो वह उसकी ग़लती है, और उस ग़लती के लिए उसे भुगतना भी होगा। किंतु यहाँ लाखों नागरिकों
की जानकारियाँ लीक हो जाए तब किसी की ग़लती नहीं, किसी की ज़िम्मेदारी नहीं! सब सलामत है जी। आधार की निजी जानकारी सार्वजनिक हो जाना निजता के अधिकार का उल्लंघन
नहीं है और ना ही सरकारी अपराध! लीक होना महज़ एक ग़लती है।
कुछ साल पहले यूआईडीएआई
ने आधार धारा के कथित उल्लंघन मामले में एयरटेल के ख़िलाफ़ जाँच के आदेश दिए थे। भारती
एयरटेल पर आरोप था कि उन्होंने अपने उपभोक्ताओं के आधार वेरिफिकेशन के समय ही एयरटेल
पेमेंट बैंक में खाते खोल दिए थे। भारती एयरटेल की यह कथित गड़बड़ी तब पकड़ी गई, जब
उपभोक्ताओं की एलपीजी सब्सिडी की राशि बैंक के बचत खातों में जमा होने के बजाय एयरटेल
पेमेंट बैंक में जमा होने लगी! प्राथमिक रूप से यह भरोसा व समझौते के उल्लंघन का मामला
था। जाँच वाच का अंजाम क्या हुआ यह बताने का चलन हमारे यहाँ है नहीं।
आधार सुरक्षित है, लेकिन इसे कोई भी आसानी से निकाल सकता है! रोहिंग्या मुसलमानों
के मामले में 3 जनवरी 2018 को गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने सदन को जानकारी देते हुए कहा कि, "कुछ रोहिंग्या मुसलमानों के आधार, पैन और वोटर कार्ड हासिल करने की कुछ घटनाएं सामने आई हैं। लेकिन इन ग़ैरक़ानूनी
शरणार्थियों के रहने की जगह देने का कोई मामला सामने नहीं आया है।" ये आधार बड़ा कमाल का सुरक्षित दस्तावेज़ है, जिसे बाहरी लोग आसानी से निकाल पा रहे थे!
एक अंग्रेज़ी अख़बार
ने संदर्भों और तथ्यों के साथ दावा किया कि महज़ पाँच सौ रुपये में आधार की जानकारी
मिल जाती हैं। आधार का फ़र्ज़ीवाड़ा खुला। किंतु सज़ा मिली पत्रकार को, आरोपियों को नहीं! 4 जनवरी 2018 को अंग्रेज़ी अख़बार द ट्रिब्यून ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया कि उसकी एक
पत्रकार रचना खैरा ने पाँच सौ रुपये में किसी अंजान शख़्स से एक ऐसा सॉफ़्टवेयर ख़रीदा, जिससे सैकड़ों लोगों के आधार कार्ड का डाटा मिल सकता है। यूआईडीएआई ने ट्रिब्यून के
इस रिपोर्ट को बिना किसी जाँच के झूठा करार दिया! ट्रिब्यून ने अपनी रिपोर्ट के लिए
संदर्भ और तथ्य दिए।
बदले में उस पत्रकार
के ख़िलाफ़ ही प्राथमिकी दर्ज हो गई! हालाँकि उसे आरोपी नहीं बताया गया था। फ़र्ज़ीवाड़ा
करने वालों को नहीं, फ़र्ज़ीवाड़ा खोलने वालों को सज़ा देने का प्रावधान
आधार में कबसे आया था, पता नहीं! जिस पत्रकार की मदद से पुलिस को मामले की जाँच करनी चाहिए थी, उसी पत्रकार के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करने से जाँच शायद जल्दी
से पूरी होती होगी!
रिजर्व बैंक से जुड़े
एक थिंक टैंक ने भी एक रिपोर्ट में अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए आधार डाटा की सुरक्षा
को लेकर सवाल उठाए थे।
‘सब चंगा सी’ वाला नारा देने वाली यूआईडीएआई ने बाद में
वर्चुअल आईडी जारी करने का एलान किया। यूआईडीएआई के पूर्व अध्यक्ष नंदन नीलेकणि ने
तो यहाँ तक कह दिया कि, "आधार को बदनाम करने के लिए योजनाबद्ध तरीक़े से अभियान चलाया जा रहा है। राई का
पहाड़ बनाया जा रहा है। आधार पर नकारात्मक विचार फैलाए जा रहे हैं, जिसके परिणाम नकारात्मक ही होंगे। लोगों के लिए बेहतर होगा कि
वे अपने विचार रचनात्मक रखे। सब को मान लेना चाहिए कि आधार यहाँ बना रहेगा।"
लोकसभा के भीतर इतने
सारे राज्यों के सरकारी साइट पर डाटा लीक हो गया है वाली स्वीकृति, दूसरे अनेक डाटा लीक, अनेक गड़बड़ियाँ, लाखों आधार को निरस्त करना, राशन कार्ड घारकों का डाटा लीक मामला, डिजिटल इंडिया के संभवित ख़तरों पर संसदीय
वित्त समिति की बातें। नंदन नीलेकणि को बताना चाहिए था कि क्या ये सब उस योजनाबद्ध
अभियान का हिस्सा हैं? तो फिर इन राज्यों
को ही उपदेश दे दीजिए। नकारात्मकता और सकारात्मकता का भाषण देने वाले नीलेकणि बाबा
अनेक मामलों पर कुछ भी कह नहीं पाए।
कारगिल संघर्ष के पश्चात जो योजना मूल रूप से संवेदनशील सरहदी इलाक़ों के नागरिकों
को पहचान पत्र जारी करने को लेकर ही थी, उसे देश के लोगों तक
सरकारी सुविधाओं को पहुंचाने के लिए लागू किया गया! पिछली सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक ने इसे सिर्फ़ सरकारी सुविधा हेतु दिखाया
और स्वैच्छिक योजना के तौर पर प्रस्तुत किया। फिर यह स्वैच्छिक योजना अनिवार्य बन गई! सरकार हदों को लाँघते हुए कहने लगी कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है ही नहीं! सुप्रीम कोर्ट में निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है, यह साबित करने के लिए सरकार
के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी गई और जीती गई।
बिना क़ानून के यह योजना देशभर में सालों तक चली और फिर क़ानून बना! वैकल्पिक योजना अनिवार्य बन गई! इतना ही नहीं, आधार और टैक्स, आधार और बैंक, सभी को जोड़ा जाने
लगा! अंत में नोट यह भी
करें कि दावा था कि आधार स्वैच्छिक है, लेकिन अब ये अनिवार्य
है।
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)
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