यूनिफॉर्म सिविल कोड... कॉमन सिविल कोड... देश के तमाम नागरिकों के लिए एकसमान
क़ानून। दरअसल यह विषय समान नागरिक संहिता को लेकर है, जिसमें सभी धर्मों के
नागरिकों को एकसमान क़ानून के नीचे रहना चाहिए, ऐसी भावना समन्वित है। लेकिन किसी
वजह से ये मसला हिंदू व मुस्लिम क़ानूनों के इर्दगिर्द ही घूमता रहा है। हमें पता
होना चाहिए कि यूनिफॉर्म सिविल कोड केवल मुस्लिम समाज को ही प्रभावित नहीं करता।
यूँ तो यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की वकालत बहुधा हिंदू समाज करता है।
वकालत करने वालों में से ज़्यादातर को इस प्रस्तावित क़ानून के बारे में बहुत कुछ
पता नहीं है। सिंपल सी बात है कि हिंदू-मुस्लिम वाला एंगल, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद
की सनक, आदि चीज़ों के साये में बहुधा हिंदू समाज इस क़ानून को लागू करने को लेकर
उत्साहित है। यूँ कहे कि ‘सोच’ से ज़्यादा ‘सनक’ घूम रही है।
वर्ना भारत में एक क़ानून वो भी लागू है, जिसे एससी एसटी एक्ट कहते
हैं, जिसमें आरोपी को न्यायिक प्रक्रिया का प्राकृतिक मौक़ा तक नहीं दिया जाता।
सुप्रीम कोर्ट तक इस एससी एसटी एक्ट की न्यायिक प्रक्रिया को असंवैधानिक करार दे
चुका था, किंतु दलित राजनीति के मद्देनज़र बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार ने ही इस क़ानूनी
प्रक्रिया को अध्यादेश का सहारा देकर ज़िंदा रखा था! यूनिफॉर्म या कॉमन सिविल कोड को लेकर यही मजबूरियाँ कांग्रेस के खेमें में हैं।
लिहाज़ा, यूनिफॉर्म सिविल कोड के मसले को मोदीवादियों, राहुलवादियों या
केजरीवादियों के चश्मे से देखे बगैर आगे बढ़ते हैं।
एक बात यहाँ दर्ज करना ज़रूरी है, जिसे हम धर्म और राष्ट्र वाले लेख में लिख
चुके हैं। बात यह कि मूल रूप से भारत में संविधान ही सर्वोपरी है। संविधान वह किताब
है, जिसके आगे तमाम धर्मों के धुरंधरों को नतमस्तक होना ही पड़ा है। धर्म कोई भी
हो, उसका पवित्र ग्रंथ कोई भी हो, उस धर्म का भगवान भी चाहे कोई भी हो, संविधान की
कसोटी पर उसे खरा उतरना ही पड़ता है। लेकिन वोटबैंक की राजनीति, तुष्टिकरण वाला
नियम, आदि चीज़ें सदैव सीधे सादे मसले को भी इतना जटिल बना देता है कि कई मामलों
में संविधान की पुस्तक बौनी पड़ जाती है और न्यायालय तक के फ़ैसले भी प्रभावित हो
जाते हैं। जो पूर्व में हो भी चुका है।
प्रचलित रूप से
देखा जाए तो हिंदुओं के लिए सिविल कोड अलग है, लेकिन लघुमती समुदाय मुस्लिमों के
लिए उनका अपना क़ानून मान्य है। जवाहरलाल नेहरू के काल में कॉमन सिविल
कोड की चर्चा ज़रूर छिड़ी थी, लेकिन शायद उनमें वो नैतिक हिम्मत नहीं थी, या फिर
वो लघुमती समुदाय के मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते थे। लिहाज़ा हिंदू सिविल
कोड या हिंदू मैरिज एक्ट वगैरह क़ानून लागू किए गए, लेकिन मुस्लिम समुदाय को इन क़ानूनों से छूट दी गई। लेकिन सिविल कोड भारत के तमाम नागरिकों के लिए एक समान क़ानून है। हालाँकि, शादी, बच्चे जैसे विषयों पर मुसलमानों को अपने धर्म के हिसाब
से छूट दी गई है, लेकिन अन्य तमाम विषयों पर उन्हें भारत का क़ानून पूर्ण रूप से
लागू होता है।
उसके पश्चात किसी
न किसी विषयों या घटनाओं पर कॉमन सिविल कोड की चर्चाएँ होती थीं। फ़रवरी 2008 के
दौरान लॉ कमिशन ने तत्कालीन यूपीए सरकार को एक रिपोर्ट दिया। उस रिपोर्ट में कॉमन सिविल
कोड की तरफ़दारी की गई थी। उस दौर में क़ानून समिति के अध्यक्ष एआर लक्ष्मण ने यूपीए
सरकार को इस धारा के बारे में कहा था, लेकिन आख़िर तक यूपीए सरकार ने कोई हकारात्मक
कदम नहीं उठाए।
सन 2016 के दौरान,
तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काल में यह मसला फिर एक बार उठा। उनकी
पार्टी भाजपा पहले से ही इस क़ानून की पक्षधर रही थी और इसे ज़रूरी मानती थी। कॉमन
सिविल कोड का मुद्दा उठते ही अलग अलग राजनीतिक दलों से विरोध की आवाज़ें आनी शुरू
हो गईं, जिसमें प्रमुख आवाज़ कांग्रेस की रही। सीधी राजनीतिक बात थी कि कांग्रेस के
पास लघुमती समुदाय का बड़ा वोटबैंक है। इसके अलावा अन्य पार्टियाँ भी हैं, जो इस
धारा के विरोध में हैं। कुछ नेता और पार्टियाँ ऐसी भी हैं, जो समआलोचना का सहारा
लेते हैं। मतलब यह कि वे ना तो खुलकर विरोध करते हैं, और ना ही खुलकर समर्थन देते
हैं।
स्वाभाविक है कि
राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ साथ मुख्य रूप से इसका कड़ा विरोध करने वाले लघुमती
समुदाय के धर्मगुरु और संगठन हैं। उनका मानना है कि लघुमती समुदाय को केवल शादी और तलाक़ के मामलों में शरीयत क़ानून लागु होता है, लेकिन अन्य तमाम अपराधों के लिए उन पर
भारतीय क़ानून की तमाम धाराएँ लागू हैं। उनका तर्क है कि शादी या तलाक़ के मामलों में शरीयत में सटीक क़ानून है और तलाक़ के मामलों में जो भ्रमित वातावरण खड़ा किया गया
वैसी स्थिति नहीं है। लेकिन यहाँ ये भी लिखना पड़ेगा कि कुछ मुस्लिम औरतों ने ही
न्यायालय के समक्ष तलाक़ के मामलों में उन्हें मजबूत नागरिकी अधिकार मिले इसके लिए
याचिकाएँ दायर की थीं। एक बार में तीन तलाक़ को निरस्त करके अब नया क़ानून बन चुका
है।
ग़ौरतलब है कि लॉ कमिशन
के उपरांत भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी कई मसलों पर केंद्र सरकार से समान नागरिकी क़ानून लाने के ठोस प्रयासों के बारे में निर्देश दे चुका है। लॉ कमिशन, सर्वोच्च
न्यायालय व कई बुद्धिजीवियों का सटीक तर्क है कि राष्ट्र की एकता के लिए कॉमन सिविल
कोड ज़रूरी है। उनका भाव यह है कि इस देश में सैकड़ों धर्म हैं, और हर धर्म व हर
समुदाय कब तक अपने अपने क़ानूनों को चलाते रहेंगे? क़ानून की नज़र में भारत के तमाम नागरिकों को एक समान रूप से देखा जाता है, लिहाज़ा उनके लिए क़ानून अलग अलग नहीं होने चाहिए।
समान नागरिकता क़ानून का अर्थ भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक (सिविल) क़ानून (विधि) से है। समान
नागरिक संहिता एक सेकुलर (पंथनिरपेक्ष) क़ानून होता है, जो सभी धर्मों के लोगों के लिए
समान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में, अलग-अलग धर्मों के
लिए अलग-अलग सिविल क़ानून न होना ही 'समान नागरिक संहिता' की मूल भावना है। समान नागरिक क़ानून से अभिप्राय क़ानूनों के वैसे समूह से है, जो
देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता
है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी क़ानूनों से ऊपर होता है। ऐसे क़ानून विश्व
के अधिकतर आधुनिक देशों में लागू हैं।
प्राथमिक
समान नागरिकता क़ानून के अंतर्गत, व्यक्तिगत स्तर - संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार - विवाह, तलाक़ और गोद लेना - समान नागरिकता क़ानून भारत के संबंध में है, जहाँ भारत का संविधान
राज्य के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता क़ानून सुनिश्चित करने
के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। हालाँकि इस तरह का क़ानून अभी तक लागू नहीं किया
जा सका है।
भारत में अधिकतर निजी क़ानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध हिंदू विधि के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाई
के लिए अपने क़ानून हैं। मुस्लिमों का क़ानून शरीयत पर आधारित है; फ़िलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का पर्सनल लॉ है, जबकि हिंदू सिविल लॉ
के तहत हिंदू,
सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। फ़िलहाल हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा
अपने पर्सनल लॉ, यानी निजी क़ानूनों के तहत करते हैं। मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए
इस देश में अलग क़ानून चलता है, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ज़रिए लागू होता है।
अन्य धार्मिक समुदायों के क़ानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं।
1993 में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने क़ानून में औपनिवेशिक काल के क़ानूनों में संशोधन किया गया। इस क़ानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी
हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और
दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।
यह विवाद ब्रिटिशकाल
से ही चला आ रहा है। अंग्रेज़ मुस्लिम समुदाय के निजी क़ानूनों में बदलाव कर उससे दुश्मनी
मोल नहीं लेना चाहते थे। हालाँकि विभिन्न महिला आंदोलनों के कारण मुसलमानों के निजी क़ानूनों में थोड़ा बदलाव हुआ। प्रक्रिया की शुरुआत 1772 के हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरीयत क़ानून के लागू होने से हुआ। हालाँकि समान नागरिकता क़ानून उस वक़्त कमज़ोर पड़ने
लगा, जब राजनीतिक हेतु के चलते मुस्लिम तलाक़ और विवाह क़ानून को लागू कर दिया गया। 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के ख़िलाफ़ मुसलमानों को अवज्ञा
आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद
हुआ, जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई।
व्यक्तिगत क़ानून (पर्सनल लॉ)
इतिहास
हिंदू उत्तराधिकार
अधिनियम में बिना वसीयती तथा स्वअर्जित सम्पत्ति में पत्नी तथा पुत्री (विवाहित या अविवाहित)
को बराबरी का अधिकार है। लेकिन पुत्रियाँ अपने विवाह में दिए गए दहेज के एवज में इसे
छोड़ देती हैं, तथा पत्नी को केवल जीवनपर्यन्त इसका उपभोग करने की छूट होती है। उसकी
मृत्यु के बाद यह पुन: पुत्रों में बँट जाती है। स्त्रियाँ अपने परिवार से सम्बन्ध
बनाए रखने के लिए भी अक्सर अपना हिस्सा नहीं माँगती हैं। व्यावहार में पैतृक सम्पत्ति
में तो सिर्फ़ पुरुष सदस्यों को ही हिस्सा मिलता है। स्त्रियों को तो अपने मायके में
रहने का अधिकार तभी तक होता है यदि वे अविवाहित हों अथवा तलाक़शुदा। कृषि योग्य भूमि
को टुकड़ों से बचाने के लिए महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं दी जाती।
शाहबानो का मामला सदैव चर्चा का केंद्र बना रहा, शाहबानो लड़ाई जीती थीं, लेकिन
राजीव गांधी सरकार ने पानी फेर दिया था?
इस पूरे मामले को,
कोर्ट ट्रायल को, फ़ैसले के बाद की स्थितियों को तथा राजनीति को समझने के लिए
शाहबानो मामले का पूरा विश्लेषण पढ़ना ज़रूरी है। यहाँ संक्षेप में उस मामले के
अंत की बात करें तो, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम समाज के विरोध के सामने
घुटने टेक दिए और एक साल में ही सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले तक को पलट दिया। सरकार
ने एक नया क़ानून ससंद में पारित कर दिया, जिससे सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ही रद्द हो
गया। शाहबानो क़ानूनी लड़ाई जीतकर भी हार गईं। फ़ैसला उनके पक्ष में आया था, बावजूद इसके
उन्हें न्याय नहीं मिल पाया।
शाहबानो मामला
नागरिकी अधिकार और सामाजिक न्याय का मामला था। सर्वोच्च न्यायालय ने उसे इसी तरह
देखा और फ़ैसला दिया। किंतु फिर इस मामले से जो खुला, उसने भारत की राजनीति ही नहीं
बल्कि सामाजिकता और समरसता तक की दिशा और दशा बदल दी। मुस्लिम वोटबैंक को साधने के
लिए राजीव गांधी सरकार ने अध्यादेश के ज़रिए सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फ़ैसले को कुचल डाला। लेकिन बात यहीं नहीं रुकी। जब राजीव गांधी ने पाया कि उनके इस
कदम से हिंदू वोटबैंक भी उनसे दूर हो सकता है, तब उन्होंने अयोध्या मुद्दे में
मंदिर का ताला खुलवाकर हिंदुओं को संतुष्ट करने की कोशिश की। शाहबानो न्याय
पाकर भी हार गईं, उधर भारत का सामाजिक और समरसता वाला ढाँचा ध्रुवीकरण की ज़द में
कुछ इस तरह फँसा कि फिर संकीर्णता के कुँए से कोई निकल नहीं पाया।
संदीप महापात्रा, संघ के विचारक
जिस तरह भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो - चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान हो, या फिर किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों ना हो। लेकिन सिविल क़ानून सबके लिए अलग अलग है। हिंदुओं, सिखों और जैनियों के लिए ये अलग है, बौद्धों और पारसियों के लिए ये अलग है। जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह सिविल क़ानून पारसियों, हिंदुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए 'कोडिफाई' कर दिया गया है। फिर एक 'स्पेशल मैरिज एक्ट' भी लाया गया है, जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई। बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलमानों की बात करते हैं। 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई रिफॉर्म नहीं हुए हैं। समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया। हालाँकि यह संभव है। हमारे पास गोवा का उदाहारण भी है, जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है।
समाज के अलग-अलग प्रतिनिधि आख़िर क्या सोचते हैं?
जिस तरह भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो - चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान हो, या फिर किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों ना हो। लेकिन सिविल क़ानून सबके लिए अलग अलग है। हिंदुओं, सिखों और जैनियों के लिए ये अलग है, बौद्धों और पारसियों के लिए ये अलग है। जहाँ तक विवाह का सवाल है तो यह सिविल क़ानून पारसियों, हिंदुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए 'कोडिफाई' कर दिया गया है। फिर एक 'स्पेशल मैरिज एक्ट' भी लाया गया है, जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई। बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलमानों की बात करते हैं। 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई रिफॉर्म नहीं हुए हैं। समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया। हालाँकि यह संभव है। हमारे पास गोवा का उदाहारण भी है, जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है।
मुन्ना शर्मा, हिंदू महासभा
हिंदुओं में शादी जन्मों का बंधन है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। साथ ही सम्मिलित हिंदू परिवार की जो कल्पना है, वो इस समाज की संस्कृति का हिस्सा है। मगर अब आधुनिक युग में महिलाओं को भी अधिकार होना चाहिए कि वो अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकें। उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। चाहे वो संपत्ति हो या विवाह। हिंदू महिलाएं भी चाहती हैं कि उनके पिता और पति की संपत्ति में उन्हें बराबर का हिस्सा मिले। यह बराबरी का मुद्दा है। हर समाज की महिलाएं बराबरी चाहती हैं, इसलिए समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। मगर ना तो भाजपा इस बारे में गंभीर है, और ना ही दूसरे राजनीतिक दल।
ताहिर महमूद, विधि आयोग के पूर्व
सदस्य
ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि संविधान में यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में क्या कहा गया है। वो डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी, यानी राज्यों के लिए नीति निदेशक तत्व की बात करते हैं। लेकिन यह नीति निदेशक तत्व संसद के लिए नहीं, बल्कि राज्यों के लिए हैं। यह कहा गया है कि राज्य इस बात का प्रयास करेंगे कि समान नागरिक संहिता हो। इसका यह मतलब है कि जिस भी समुदाय के लिए क़ानून बने उसमें समानता होनी चाहिए। मगर मुस्लिम पर्सनल लॉ 1400 साल पहले बना था। इसे संसद ने नहीं बनाया। संसद ने हिंदू सक्सेशन एक्ट बनाया है। सबसे ज़्यादा महिला विरोधी क़ानून वहीं हैं। इस क़ानून में कमी का एक उद्धरण यह है कि हिंदू पुरूषों पर यह लाज़मी है कि वो अपने बूढ़े माँ बाप का भरण पोषण करें। मगर यह इस शर्त के साथ है कि माँ बाप हिंदू हों, जबकि मुसलमान पुरूष पर यह तब भी अनिवार्य है अगर उसके माँ बाप मुसलमान ना भी हों। लिंग भेद हर क़ानून में है। इसलिए ज़रूरी है कि क़ानूनों की समीक्षा हो। भारत विविधता का देश है, इसलिए बेहतर होगा कि एक समान क़ानून की जगह सभी क़ानूनों की समीक्षा की जाए और उन सबमें समानता लाई जाए।
जॉन दयाल, अखिल भारतीय ईसाई परिषद
देखिए, अभी हिंदुओं में भी यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं है। मैं दक्षिण भारत से आता हूँ और वहाँ हिंदू समाज के एक तबके में मामा और भाँजी के बीच शादी की प्रथा है। अगर कोई हरियाणा में ऐसा करे तो दोनों की हत्या हो जाएगी। सैकड़ों जातियाँ हैं, जिनके शादी के तरीक़े और नियम अलग अलग हैं। उसी तरह ईसाइयों में भी कॉमन सिविल कोड है, मगर कई ईसाई अपनी जाती में ही शादी करना चाहते हैं। अब हमारे बीच रोमन कैथलिक भी हैं और प्रोटेस्टेंट भी। मैं रोमन कैथलिक हूँ और हमारे यहाँ तलाक़ की कोई गुंजाइश नहीं है। शादी हमारे यहाँ जन्म जन्मान्तर का बंधन है। वहीं प्रोटेस्टंट्स में तलाक़ है। यह जो बीजेपी रह रहकर यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात उछालती है, वो सिर्फ़ राजनीतिक लाभ लेने के लिए। इस मुद्दे पर राजनीतिक दल भी अछूते नहीं हैं। यूनिफ़ोर्म कोड पर कोई गंभीर नहीं है। हमें कोई प्रारूप दिखाओ तो सही। कुछ भी नहीं है।
राणा परमजीत सिंह, दिल्ली सिख गुरुद्वारा
प्रबंधक कमिटी
हमारी भी यह बहुत पुरानी मांग रही है कि हमें हिंदू सक्सेशन एक्ट के अधीन ना लाया जाए, क्योंकि हमारे सबसे पहले गुरु - गुरुनानक देवजी ने कभी जनेऊ नहीं पहना था। हम इसी संघर्ष में लगे हैं कि हमें अलग धर्म के रूप में मान्यता मिले। मगर हमारे मामलों का निपटारा हिंदुओं के लिए बनाए गए क़ानून के तहत किया जाता है। हमारा पूरा सिस्टम गुरु ग्रन्थ साहिब के अनुसार ही चलता है। हमारे यहाँ तलाक़ नाम की चीज़ नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार बातचीत करे, ना कि कोई क़ानून किसी पर ज़बरदस्ती थोप दे।
मुख्तार अब्बास नकवी, पूर्व केंद्रीय संसदीय
कार्य राज्य मंत्री
यह भी सही है कि समाज में सुधारों के लिए बहस की ज़रुरत है। हमारे देश में ऐसा नहीं हो सकता कि डंडे के ज़ोर पर कोई क़ानून लागू कर दिया जाए। यह देश संविधान से चलता है। मांगें उठती रहती हैं और सुधारों की गुंजाइश बनी रहती है। लेकिन उसके लिए समाज को ही तैयार होने की ज़रुरत है। वैसे समानता की मांगें भी उठती रहती हैं, मगर यह सब कुछ आम राय और सहमती से ही संभव हो सकता है। अभी इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।
मुस्लिम धर्मगुरु
बरेलवी और देवबंदी समुदाय के मुस्लिम धर्मगुरुओं के अनुसार एक बार में तीन तलाक़ को इस्लामिक धर्म में मान्यता प्राप्त थी, और फिर भी उस मान्यता को निरस्त कर दिया गया। उनकी दलीलों की माने तो, जिन राष्ट्रों ने तीन तलाक़ पर पाबंदियाँ लगाई हैं, वे मुस्लिम राष्ट्र हैं किंतु इस्लामिक नहीं हैं। उनके अनुसार तीन तलाक़ इस्लाम का क़ानून था और पर्सनल लॉ था, जिसकी समीक्षा नहीं की जा सकती थी। और फिर भी की गई। उनके मुताबिक़ डोमेस्टिक वायोलेन्स जैसे कई संवैधानिक विषय और क़ानून मुस्लिम महिलाओं पर लागू होते हैं और वे उन क़ानूनों के सहारे आगे बढ़ सकती हैं। समान नागरिक संहिता की बात शुरू करने से पहले वे धर्मगुरु निरस्त किए गए तीन तलाक़ के क़ानून के बारे में यही कहते हैं कि तीन तलाक़ इस्लाम का क़ानून था, जिसे बदला नहीं जा सकता था।
विधि आयोग के
चेयरमेन बलबीर सिंह चौहान
विधि आयोग के तत्कालीन चेयरमेन व जस्टिस बलबीर सिंह चौहान ने अपनी राय 5 दिसम्बर 2017 के दिन दी थी। तारीख़ का ज़िक्र इसलिए, क्योंकि कॉमन सिविल कोड को लेकर इस बीच कई माथापच्ची हो चुकी थी, जो राजनीतिक रास्तों से होती हुई क़ानूनी गलियारों से गुज़री थी। माथापच्ची के बाद भी कॉमन सिविल कोड की संभावना भारतीय आवाम में ज़िंदा थी। लेकिन 5 दिसंबर के दिन बलबीर सिंह ने अपनी राय सामने रखी। उन्होंने सीधे सीधे कहा कि फ़िलहाल तो कॉमन सिविल कोड मुमकिन नहीं है तथा यह अच्छा विकल्प भी नहीं है। उन्होंने कहा कि पर्सनल लॉ को रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे संविधान द्वारा संरक्षण प्राप्त है।
हिंदुओं में शादी जन्मों का बंधन है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता। साथ ही सम्मिलित हिंदू परिवार की जो कल्पना है, वो इस समाज की संस्कृति का हिस्सा है। मगर अब आधुनिक युग में महिलाओं को भी अधिकार होना चाहिए कि वो अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकें। उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। चाहे वो संपत्ति हो या विवाह। हिंदू महिलाएं भी चाहती हैं कि उनके पिता और पति की संपत्ति में उन्हें बराबर का हिस्सा मिले। यह बराबरी का मुद्दा है। हर समाज की महिलाएं बराबरी चाहती हैं, इसलिए समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। मगर ना तो भाजपा इस बारे में गंभीर है, और ना ही दूसरे राजनीतिक दल।
ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि संविधान में यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में क्या कहा गया है। वो डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी, यानी राज्यों के लिए नीति निदेशक तत्व की बात करते हैं। लेकिन यह नीति निदेशक तत्व संसद के लिए नहीं, बल्कि राज्यों के लिए हैं। यह कहा गया है कि राज्य इस बात का प्रयास करेंगे कि समान नागरिक संहिता हो। इसका यह मतलब है कि जिस भी समुदाय के लिए क़ानून बने उसमें समानता होनी चाहिए। मगर मुस्लिम पर्सनल लॉ 1400 साल पहले बना था। इसे संसद ने नहीं बनाया। संसद ने हिंदू सक्सेशन एक्ट बनाया है। सबसे ज़्यादा महिला विरोधी क़ानून वहीं हैं। इस क़ानून में कमी का एक उद्धरण यह है कि हिंदू पुरूषों पर यह लाज़मी है कि वो अपने बूढ़े माँ बाप का भरण पोषण करें। मगर यह इस शर्त के साथ है कि माँ बाप हिंदू हों, जबकि मुसलमान पुरूष पर यह तब भी अनिवार्य है अगर उसके माँ बाप मुसलमान ना भी हों। लिंग भेद हर क़ानून में है। इसलिए ज़रूरी है कि क़ानूनों की समीक्षा हो। भारत विविधता का देश है, इसलिए बेहतर होगा कि एक समान क़ानून की जगह सभी क़ानूनों की समीक्षा की जाए और उन सबमें समानता लाई जाए।
देखिए, अभी हिंदुओं में भी यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं है। मैं दक्षिण भारत से आता हूँ और वहाँ हिंदू समाज के एक तबके में मामा और भाँजी के बीच शादी की प्रथा है। अगर कोई हरियाणा में ऐसा करे तो दोनों की हत्या हो जाएगी। सैकड़ों जातियाँ हैं, जिनके शादी के तरीक़े और नियम अलग अलग हैं। उसी तरह ईसाइयों में भी कॉमन सिविल कोड है, मगर कई ईसाई अपनी जाती में ही शादी करना चाहते हैं। अब हमारे बीच रोमन कैथलिक भी हैं और प्रोटेस्टेंट भी। मैं रोमन कैथलिक हूँ और हमारे यहाँ तलाक़ की कोई गुंजाइश नहीं है। शादी हमारे यहाँ जन्म जन्मान्तर का बंधन है। वहीं प्रोटेस्टंट्स में तलाक़ है। यह जो बीजेपी रह रहकर यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात उछालती है, वो सिर्फ़ राजनीतिक लाभ लेने के लिए। इस मुद्दे पर राजनीतिक दल भी अछूते नहीं हैं। यूनिफ़ोर्म कोड पर कोई गंभीर नहीं है। हमें कोई प्रारूप दिखाओ तो सही। कुछ भी नहीं है।
हमारी भी यह बहुत पुरानी मांग रही है कि हमें हिंदू सक्सेशन एक्ट के अधीन ना लाया जाए, क्योंकि हमारे सबसे पहले गुरु - गुरुनानक देवजी ने कभी जनेऊ नहीं पहना था। हम इसी संघर्ष में लगे हैं कि हमें अलग धर्म के रूप में मान्यता मिले। मगर हमारे मामलों का निपटारा हिंदुओं के लिए बनाए गए क़ानून के तहत किया जाता है। हमारा पूरा सिस्टम गुरु ग्रन्थ साहिब के अनुसार ही चलता है। हमारे यहाँ तलाक़ नाम की चीज़ नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार बातचीत करे, ना कि कोई क़ानून किसी पर ज़बरदस्ती थोप दे।
यह भी सही है कि समाज में सुधारों के लिए बहस की ज़रुरत है। हमारे देश में ऐसा नहीं हो सकता कि डंडे के ज़ोर पर कोई क़ानून लागू कर दिया जाए। यह देश संविधान से चलता है। मांगें उठती रहती हैं और सुधारों की गुंजाइश बनी रहती है। लेकिन उसके लिए समाज को ही तैयार होने की ज़रुरत है। वैसे समानता की मांगें भी उठती रहती हैं, मगर यह सब कुछ आम राय और सहमती से ही संभव हो सकता है। अभी इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।
बरेलवी और देवबंदी समुदाय के मुस्लिम धर्मगुरुओं के अनुसार एक बार में तीन तलाक़ को इस्लामिक धर्म में मान्यता प्राप्त थी, और फिर भी उस मान्यता को निरस्त कर दिया गया। उनकी दलीलों की माने तो, जिन राष्ट्रों ने तीन तलाक़ पर पाबंदियाँ लगाई हैं, वे मुस्लिम राष्ट्र हैं किंतु इस्लामिक नहीं हैं। उनके अनुसार तीन तलाक़ इस्लाम का क़ानून था और पर्सनल लॉ था, जिसकी समीक्षा नहीं की जा सकती थी। और फिर भी की गई। उनके मुताबिक़ डोमेस्टिक वायोलेन्स जैसे कई संवैधानिक विषय और क़ानून मुस्लिम महिलाओं पर लागू होते हैं और वे उन क़ानूनों के सहारे आगे बढ़ सकती हैं। समान नागरिक संहिता की बात शुरू करने से पहले वे धर्मगुरु निरस्त किए गए तीन तलाक़ के क़ानून के बारे में यही कहते हैं कि तीन तलाक़ इस्लाम का क़ानून था, जिसे बदला नहीं जा सकता था।
विधि आयोग के तत्कालीन चेयरमेन व जस्टिस बलबीर सिंह चौहान ने अपनी राय 5 दिसम्बर 2017 के दिन दी थी। तारीख़ का ज़िक्र इसलिए, क्योंकि कॉमन सिविल कोड को लेकर इस बीच कई माथापच्ची हो चुकी थी, जो राजनीतिक रास्तों से होती हुई क़ानूनी गलियारों से गुज़री थी। माथापच्ची के बाद भी कॉमन सिविल कोड की संभावना भारतीय आवाम में ज़िंदा थी। लेकिन 5 दिसंबर के दिन बलबीर सिंह ने अपनी राय सामने रखी। उन्होंने सीधे सीधे कहा कि फ़िलहाल तो कॉमन सिविल कोड मुमकिन नहीं है तथा यह अच्छा विकल्प भी नहीं है। उन्होंने कहा कि पर्सनल लॉ को रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे संविधान द्वारा संरक्षण प्राप्त है।
समान नागरिक संहिता, सनक और सोच के झूले में झूल रहा एक सुधार... शाहबानो नहीं
बल्कि एक हिंदू महिला की अपील के चलते समान नागरिक संहिता का मसला फिर ज़िंदा हुआ
था?
सबसे पहला सवाल उठा कॉमन सिविल कोड को लेकर। कॉमन सिविल
कोड और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर काफ़ी बहस हुई। इसके अलावा लॉ कमिशन द्वारा लॉ
बोर्ड को दिए गए सवालों पर भी तार्किक प्रश्न उठाए गए। कहा गया कि लॉ कमिशन
द्वारा जो सवाल दिए गए थे, वे उतने सटीक और संवैधानिक नहीं थे। संवैधानिक
विशेषज्ञों के अनुसार लॉ कमिशन द्वारा जो प्रश्नावली बनायी गई उसमें ही कुछ कमियाँ
रह गई थीं, और लॉ कमिशन को प्रश्नावली बनाते समय कुछ संवैधानिक पहलुओं का ख़याल रखना
चाहिए था।
इसके अलावा सबसे
बड़ा सवाल केंद्र सरकार की तैयारियों को लेकर ही उठा। सीधा सा तर्क था कि इस प्रस्तावित क़ानून को लेकर जो भी समर्थन या विरोध है, जो
भी दलीलें हैं, उसका आधार है क्या? आख़िर
पूरा देश या संवैधानिक विशेषज्ञ बहस कौन से विषय पर करें? क्योंकि केंद्र सरकार ने समान नागरिक संहिता का कोई भी
ड्राफ्ट सामने रखा ही नहीं था। बिना
ड्राफ्ट के गपसप हो सकती थी, चर्चा नहीं।
कोई भी क़ानून
बनाया जाता है तब संविधान संबंधित विषयों पर चर्चा की जाती है। लेकिन यहां लॉ
कमिशन के कुछेक सवाल, केंद्र सरकार का हलफ़नामा और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अपने
तर्कों के अलावा और कोई चीज़ें थी ही नहीं। स्वाभाविक था कि यदि प्रस्तावित क़ानून को लेकर देश में चर्चा करनी है, तब ऐसी अवस्था में प्रस्तावित क़ानून का कोई
ड्राफ्ट होना चाहिए। लेकिन यहाँ उस विषय की ही कमी थी। ड्राफ्ट तैयार किया गया
है या नहीं, उसे विधिवत रूप से सामने क्यों नहीं लाया गया, लॉ कमिशन के सवालों का आधार क्या था, यह अनुत्तरित सवाल थे।
बहस के कुछ मुख्य
बिंदु देखे तो... कॉमन सिविल कोड और यूनिफॉर्म सिविल कोड, इन लफ़ज़ों के ऊपर क़ानूनी चर्चा, सिविल कोड, क्रिमिनल कोड और पर्सनल कोड को लेकर चर्चा, जेंडर जस्टिस (समान
नागरिक अधिकार) को लेकर वर्तमान क़ानून तथा प्रस्तावित क़ानून को लेकर चर्चा... कई
सारी चीज़ें जुड़ीं। शादी को लेकर तथा प्रस्तावित क़ानून को लेकर कई सारी दलीलें आईं और
तमाम दलीलें ख़ारिज करने लायक भी नहीं थी। हिंदुओं को लेकर जो हिंदू मैरिज एक्ट है
उस पर भी चर्चा हुई। चर्चा के दौरान मालूम पड़ा कि हिंदुओं में भी मैरिज के लिए
दो क़ानून हैं, हिंदू मैरिज एक्ट तथा स्पेशियल मैरिज एक्ट। लेकिन ज़मीनी तौर पर ज़्यादातर तो हिंदुओं में शादियाँ इनमें से किसी क़ानून के तहत नहीं होती। वहाँ पर
भी शादियाँ पर्सनल लॉ के हिसाब से ही होती है।
पंजाब में कोई महिला यदि विधवा हो
जाती है और उस पर कोई भी पुरुष चददर डालता है या चुड़ी पहनाता है, तो उस अवस्था में
उस महिला की शादी उस पुरुष से हो जाती है। इसके पीछे वजह संपति सुरक्षा की बताई
जाती है। गोवा में और अन्य राज्यों में भी हिंदुओं की शादी के नियम या प्रक्रियाएं
हिंदू मैरिज एक्ट या स्पेशियल मैरिज एक्ट के तहत नहीं होती। कई जगहों पर अन्य
धर्मों में भी एक से ज़्यादा पत्नी की प्रथाएं प्रवर्तमान हैं। पोंडुचेरी में आज भी
शादी के उपर विदेश का क़ानून (फ्रेंच क़ानून) लागू होता है, ना कि भारत का। इतना ही
नहीं, कश्मीर-पंजाब या यूपी के मुस्लिमों में भी शादी या तलाक़ को लेकर अलग अलग
नियमावली प्रवर्तमान है। समान नागरिक संहिता की जद्दोजहद में आज भी कई जगहों पर
पंचायत बुलाकर संवैधानिक मूल्यों के ख़िलाफ़ ही फ़ैसले सुनाए जाते हैं।
इसके अलावा
बाल विवाह, शादी की प्रक्रियाएं, जुदा होने की विधियाँ, संपत्ति में महिलाओं के
अधिकार, दूसरी शादी की प्रक्रिया से लेकर तमाम विषयों पर बहस छिड़ी। ये बहस इसलिए
भी छिड़ गई, क्योंकि समान नागरिक संहिता का मूल उद्देश्य जेंडर जस्टिस, यानी कि
समान नागरिक अधिकार का था। कहा गया कि आज भी भारत में हर धर्म या उनकी शाखाएं
अपने अपने हिसाब से ही सारी परंपराएँ आगे बढाती हैं। वर्ना हिंदुओं में मामा की
भांजी के साथ शादियाँ नहीं हो रही होती। जबकि हिंदू मैरिज एक्ट ये कहता है कि लड़का-लड़की
अपने पिता की सात पुश्तों तक और माता की तरफ़ से पाँच पुश्तों तक संबंधित न हो।
कुछ विशेषज्ञों की
दलील माने तो हमारे देश में पर्सनल लॉ से संबंधित क़ानून अलग अलग हैं, लेकिन वो इसलिए
अलग नहीं है कि धर्म अलग है, बल्कि इसलिए अलग है कि राज्य अलग अलग है। ऊपर के पेरा
में उनकी इस दलील को आधार मिल जाता है। उन्होंने व्यावहारिक रूप से कहा कि अंग्रेज़ों ने सोचने में ग़लती की और सोचा कि भारत में सारे हिंदू और मुस्लिम, एक
समाज है। जबकि ऐसा नहीं है। धार्मिक विभाजन की द्दष्टि से वो एक हो सकते हैं,
लेकिन व्यक्तिगत क़ानूनों में सभी की नियमावली अलग अलग ही है।
साथ में कहा गया
कि क्रिमिनल कोड और सिविल कोड के तहत जेंडर जस्टिस हर तबके की महिलाओं को मिलता
है। इसमें किसी को कोई बाध नहीं रहा है और आज भी ये सारे कोड लागू हैं। लेकिन
संविधान में पर्सनल लॉ के संबंध में यह भी कहा गया है कि राज्य यह देखे कि तमाम
धर्मों की व्यक्तियों को समान रूप से अधिकार मिले। लेकिन, यदि कोई व्यक्ति बिना शादी किए किसी
के साथ रहना चाहता है, तब राज्य उस पर क़ानून थोपकर मजबूर नहीं कर सकता। मतलब कि
सिविल कोड, क्रिमिनल कोड और पर्सनल लॉ की भेदरेखा यहाँ पर बड़ी बहस का मुद्दा बनी
रही। कहा गया कि पर्सनल लॉ तमाम धर्मों में प्रवर्तमान है, वर्ना संथारा पर विवाद नहीं
हुए होते, या अनशन करके जान गँवाने वालों के परिवार या प्रेरक गुरुओं पर क्रिमिनल
कोड के तहत मामले चल जाते।
सबसे तीखा और सटीक
सवाल केंद्र सरकार की मनशा को लेकर उठा। सवाल था कि केंद्र सरकार
प्रस्तावित क़ानून की रायशुमारी किससे करेगी? यक़ीनन उनसे, जिसकी क़ानूनी वैधता हो। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर ही
सवाल उठे थे और कहा गया था कि उस संस्था की कोई क़ानून वैधता ही नहीं है, और वो
मुस्लिम समाज का वैध प्रतिनिधि भी नहीं है। ऐसे में केंद्र सरकार किसी
प्रस्तावित क़ानून को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से क्यों रायशुमारी कर रही है, जिसकी क़ानूनी वैधता पर ही सवाल है।
तीखा सवाल दागा गया कि लॉ बोर्ड को भारतीय संविधान के
किस सेक्शन के तहत वैधता मिली हुई है? किस आधार पर वो मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि है? अगर इस पर ही बहस है, तो फिर केंद्र उससे रायशुमारी कैसे कर सकता है? और वो भी किसी प्रस्तावित क़ानून को लेकर। साथ में कहा गया कि लॉ बोर्ड का जो
नाम है, उसमें ही पर्सनल लॉ बोर्ड शब्द है। अब यही तो पूरा पेच फँसा है। जो संस्था
पर्सनल लॉ की रक्षा की भूमिका निभाती है, जो संस्था वैधानिक भी नहीं है, उससे कॉमन
सिविल लॉ की रायशुमारी किस आधार पर की जा रही है? ख़ास करके तब, जब ड्राफ्ट ही सामने नहीं आया है।
तब से लेकर अब तक
बहुत सारा पानी गंगा में बह चुका है। बहुत सारी बहस भी हो चुकी है। सारी बहस अपने
अपने हिसाब से, और अपने अपने तर्कों से ऊपर नीचे होती रही। किसी ने धार्मिक द्दष्टिकोण
से बहस की, किसी ने संवैधानिक द्दष्टिकोण से, तो किसी ने सामाजिक द्दष्टिकोण से।
किसी ने करने के लिए बहस की, और किसी ने नहीं भी की। लेकिन उल्लेखनीय यह था कि
सार्थक बहस तो जानकार भी इसलिए नहीं कर पाएँ, क्योंकि प्रस्तावित क़ानून का रोडमेप
या ड्राफ्ट देश के सामने था ही नहीं।
दूसरी तरफ़ निरर्थक चर्चाओं का दौर भी चलता रहा। ज़्यादातर नागरिकों के बीच चर्चा अपने
अपने हिसाब से हो रही थी, जहाँ एक ही चीज़ कही जा सकती है कि समान नागरिक संहिता के
समर्थक या इसके विरोधी, दोनों में से ज़्यादातर तो ऐसे थे कि जिन्हें इस प्रस्तावित क़ानून के बेसिक्स ही नहीं पता थे। हालाँकि, यह बहुधा रूप से था, अपवाद तो हर जगह होते ही हैं।
आज बीजेपी शासित नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में है। लगातार दूसरी बार भारी
बहुमत के साथ सत्ता में है। आज भारत में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति ऐसी
है कि इस सुधार को लागू होना ही चाहिए। यूँ कहे कि इस सुधार को लागू करने के लिए
यह बिलकुल ठीक समय है। यह कोई जनलोकपाल क़ानून भी नहीं है, जिसके लागू होने से
सरकार अल्पमत में आ सकती है। हिंदू, मुस्लिम या दूसरे धर्मों के अतिवादी जो भी ‘सनक’ धारण करें, किंतु
समान नागरिक संहिता को ‘सुधारवादी सोच’ के साथ उसकी ‘मूल भावना’ के साथ लागू करने के लिए सही स्थिति ही तो है यह।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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