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Duty towards Army: सैनिकों का फ़र्ज़ वे निभाते हैं, सैनिकों के प्रति हमारा फ़र्ज़ हम भूल जाते हैं


देश की सेना पर हर कोई नाज़ करता है। उनके बलिदान को देश सदैव याद रखता है। लेकिन यह नाज़ या गौरव उनके बलिदान से ही क्यों जुड़ा रहता है? जो जवान देश को सुरक्षित रखते हैं, उन जवानों की समस्याओं पर देश संजिदगी क्यों नहीं दिखाता? हम उनकी दिक्कतें, उनकी समस्या, उनकी चिंता जैसे मसलों पर गंभीर नहीं दिखाई देते।
 
सबसे पहले एक चीज़ साफ़ हो जानी चाहिए। और वो यह कि एक नागरिक के रूप में एक कर्तव्य यह भी है कि,
देश प्रथम होता है, धर्म उसके बाद
सैनिक प्रथम होता है, सरकारें उसके बाद
हम इस कर्तव्य को सदा याद रखें। हम यहाँ देश, देश की सेना तथा उस महान सेना के सैनिकों और हमारे अस्थायी नागरिकी अभिगम को लेकर बात करेंगे।

हम यहाँ बिना लाग लपेट उस विवादित तथ्य को भी स्वीकार कर लेते हैं, जो सेना संबंधित भ्रष्टाचार और सैन्य अफ़सरों में राजनीति से जुड़ा हुआ है। किंतु यहाँ स्थायी और अस्थायी नागरिकी अभिगम की बात करनी है, सो हम उसी पर आगे बढ़ते हैं।
 
परिवार की चिंता, काम का ज़्यादा बोझ और सुविधाओं का अभाव
देश में सेना का मनोबल बनाए रखने की बातें हर कोई करता है। बातें करने में हमसे बढ़िया कोई नहीं, और इससे आगे कुछ और करने में हमसे बढ़िया आलसी भी कोई नहीं होगा। सैनिकों की सुख-सुविधा हो या फिर घर-परिवार की चिंता का सवाल, ये सब ऐसे मसले हैं जिनको लेकर जवानों में हताशा फैलती है। बीते सालों में सेना के अफ़सरों और जवानों के अलग-अलग कारणों से आत्महत्या करने के मामले इस हताशा की ओर ध्यान दिलाने को काफी हैं। साथ ही सैन्य बलों में वीआरएस लेने के प्रतिशत में इज़ाफ़ा भी चर्चा का विषय हो सकता है।
 
रक्षा संबंधित अवलोकनकारों के अनुसार भारतीय फ़ौज का पिछले कुछ काल से (25-30 सालों से) दिन-रात इस्तेमाल होने लगा है। नोट करें कि दिन-रात इस्तेमाल केवल सरहदों से ही जुड़ा नहीं रहा, बल्कि सरहदों के भीतर कार्रवाईयों से भी जुड़ा है। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक, सब जगह सैनिकों की तैनाती सीमाओं पर है। साथ ही प्राकृतिक आपदाओं या दूसरी घटनाओं में भी सेना की मदद ली जाती है। एक तरह से सेना को चौबीस की जगह अड़तालीस घंटे काम में लिया जाता रहा है।
वे अपना फ़र्ज़ निभाते हैं। लेकिन उनके प्रति हमारा फ़र्ज़ हम कितने हद तक निभाते हैं यह हमें सोचना और समझना है। वे अपना फ़र्ज़ स्थायी तरीक़े से निभाते हैं, हमारा उनके प्रति फ़र्ज़ कितना अस्थायी रहा है, यह स्वीकार करना होगा।
 
उनकी चिंता स्थायी रूप से नहीं की जा रही कि वे किन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। रक्षा विशेषज्ञ करीम के अनुसार, सेना में भर्ती के लिए युवाओं के मन में जो जज़्बा होता था, वह आज नहीं दिखता। कारण साफ़ है कि न तो सेना के जवानों को उनके काम के मुताबिक़ पैसा मिलता है और न ही आम नागरिकों के मन में सैनिकों के प्रति सम्मान स्थायी रूप से चस्पा रहता है। हाँ, ये भाव कुछ मौक़ों पर ज़रूर दिखता है।
 
देश का सैनिक अपने परिजन की चिंता छोड़ सीमाओं की रक्षा में मुस्तेदी से लगा रहता है। उस पर केवल सीमाओं की रक्षा का ही जिम्मा नहीं है। वह देश में प्राकृतिक आपदाओं की मार के समय भी याद किया जाता है। यहाँ तक कि देश की सामाजिक और राजनीतिक आपदाओं से उत्पन्न हालात से निपटने की ज़िम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी पड़ती है। ऐसे में सैनिकों के मन में यह सवाल कोंधना स्वाभाविक है कि उसके नहीं रहने पर उसके परिवार, माता-पिता, बच्चों और अन्य आश्रितों का क्या होगा? यह तनाव उन्हें दिन-रात खाए जाता है। सरकारों के वादे समय पडऩे पर कितने खोखले साबित होते हैं, इसका भी उन्हें अंदाज़ा है।
 
करीम जैसे अन्य रक्षा जानकारों के मुताबिक़ पहले कोई जवान छुट्टी पर अपने घर के लिए रवाना होता था तो कमांडेट और दूसरे अफ़सर उसे बुलाकर उनके घर-परिवार के बारे में पूछा करते थे। अब कोई पूछने वाला नहीं। क्योंकि वह सिस्टम समय के साथ लुप्त होने के कगार पर है।

 
हमारा जवान सीमा पर रहते हुए भी घर-परिवार की चिंता में घुला जाता है। जवान तो अकेला ही सीमा पर रहता है, परिवार के दूसरे लोग कैसे हैं, उनको कोई तकलीफ़ तो नहीं, ये सब ऐसी बातें हैं जिनकी परवाह सरकार और रक्षा मंत्रालय को करनी ही चाहिए। इसके लिए एक व्यवस्था निर्मित की गई है, किंतु ज़्यादातर तो यह व्यवस्था ही अपने आप में इतनी खोयी खोयी है कि आम नागरिकों को भी ऐसी चीज़ों की जानकारी नहीं है। दु:ख तो तब होता है जब जवान का आत्मसम्मान भी खोया-खोया सा लगता है।
 
सैन्य और समाज के मनोवज्ञानिकों के अनुसार यह कहा जाता है कि सेना बाहरी दुश्मन से लड़ती नहीं दिखती तो उसका आभामंडल फीका लगने लगता है। लेकिन इस आभामंडल को फीका करने में नौकरशाही का हाथ होने लगे तो चिंता बढऩा स्वाभाविक है। विशेषज्ञ ये कहना नहीं चाहते कि सेना के आत्मसम्मान के लिए पैसा ही सब-कुछ है। उनका मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें आधुनिक हथियारों से लेस तो किया जाता है, लेकिन उसमें गंभीर प्रकार की देरी और लापरवाही दिखती रहती है।
 
सेना को यह भरोसा हो कि वह किसी भी बाहरी चुनौती से निपटने में सक्षम हैं और उसके पास लड़ाई के मोर्चे के लिए आधुनिकतम उपकरण मौजूद हैं तो शौर्य का भाव तो बढ़ ही जाएगा। पुराने और अधिक उपयोग में लिए गए जहाज़ गिरते रहे और सैनिक मरते रहे। ठंड, गर्मी और बारिस से लेकर रेगिस्तान, समंदर, जंगल, पहाड़। सैनिकों को हर जगह जाना होता है। नये हथियारों व उपकरणों का शोर मचता तो बहुत है, लेकिन शोर के पीछे सच छिप जाता है।
आवाम को महफूज रखने के लिए सेना के तीनों अंगों के जवान और अफ़सर तमाम कष्ट सहते हुए सीमाओं पर तैनात रहते हैं। सरहद पर तपती धूप, कड़ाके की ठंड और आँधी-तूफ़ान का सामना करते हुए सैनिक तैनात मिलेंगे। चाहे शांतिकाल हो या फिर युद्धकाल, सेना से उसी तरह से चौकसी रखने को कहा जाता है। हालात शांत हो या अशांत हो, उन पर सदैव कामयाबी का दबाव रहता है। कभी-कभी तो उन्हें देश में ही मौजूद दुश्मनों का मुकाबला करने का काम करना पड़ता है। वे कई प्रकार की ज़िम्मेदारी, परिस्थिति और दबाव के बीच अपना फ़र्ज़ निभाते हैं।
 
दुसरी तरफ़ संसाधनों की कमी, रहने की, खाने पीने की अच्छी सुविधाओं का अभाव आदि समस्याएँ उनकी मुश्किले और बढ़ाती हैं। कई चौकियाँ ऐसी हैं जहाँ जवानों को जगह के अनुसार सुविधाएँ मिल नहीं पाती। सियाचीन चौकियों के यूनिफॉर्म की क्वालिटी से लेकर हथियारों की कमी के प्रकरण के मसले निरंतर देश के सामने आते रहे हैं। उनके खाने की गुणवत्ता पर कैग भी सवाल उठा चुका है।
 
ताजा समय में बीएसएफ जवान तेजबहादुर यादव की शिकायत, उनका वो वीडियो और फिर जो कुछ हुआ वह देखें तब भी और इससे पहले भी खाना, खाने की गुणवत्ता, भ्रष्टाचार आदि के मामले हो या हम नागरिकों की अस्थायी देशभक्ति का मामला हो, नुक़सान सैनिकों को ही होता है। लांसनायक यज्ञप्रतापसिंह, उनकी पत्नी और उनके 7 साल के बच्चे का संघर्ष हो या फिर अमरदीप यादव का मामला हो, मंज़र सालों से कितना बदल पाया है यह दोबारा सोचने को मजबूर करता है। सीआरपीएफ जवान मीतू सिंह का वो वीडियो, जिसमें वे दर्द के साथ कहते हैं कि मैं दुश्मन की गोली खाकर मर जाऊँ तो ग़म नहीं, लेकिन किसी के जूते साफ़ करने का, किसी के कुत्ते को टहलाने का काम मेरा नहीं है।
 
हमारे सैनिकों के ऐसे अनेका अनेक मामले दशकों से मिलते रहे हैं। दुश्मन से लड़ने का फ़र्ज़, भारत को सुरक्षित रखऩे की ज़िम्मेदारी, हथियारों का गंभीर मसला, भ्रष्ट आचार, खाने की क्वालिटी, काम का बोझ, सुविधा में अन्यायी अंतर और ऊपर से परिवार की चिंता, माता-पिता, पत्नी-बच्चों की चिंता, खेत की चिंता, घर की चिंता। मसले तो इससे भी ज़्यादा हैं। इधर, हम नागरिकों का तो क्या है? देशभक्ति के गीत और सोशल मीडिया पर बलिदान के संदेश लिखना हमें बहुत अच्छे से आता है। है न?
 

अब अग्निवीर जैसी योजना आने वाली है। अब अनुबंध वाला सिस्टम आने वाला है। कुछ मसले ऐसे होते हैं जिसमें फ़ायदे भले अनेक हो, किंतु जोखिम संवेदनशील हो तब गंभीरता बढ़ जाती है। सेना में टेंपरेरी रहकर सेना को छोड़ देने का यह सिस्टम अमेरिकी-चीनी जैसे सैनिक हमें देगा या फिर भारत को न्यौच्छावर करने वाला सैनिक चाहिए।
 
उपेक्षा से बढ़ती निराशा, घर की चिंता के साथ तैनात सैनिक, सैन्य बल और सैन्य ख़र्चे पर कटौती वाला सिस्टम
1971 की ऐतिहासिक जंग के अनेक नायकों में से एक नायक, जिनके कारनामे पर बॉर्डर जैसा मूवी बना, वे इस दुनिया को अलविदा कह गए तब सोशल मीडिया पर सन्नाटा था। लोगों को यह जानने में देरी लगी कि हमारे वॉर हीरो कुलदीपसिंह चांदपुरी दुनिया छोड़ चुके हैं।
 
उधर सनी देओल के ज़ुकाम की ख़बरें मिनटों में लोगों के पास पहुंच जाती है। गुजरात में अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के बाद महीनों तक एनएसजी का एक कमांडो सुरजनसिंह अहमदाबाद के अस्पताल में बेहोश रहे और आख़िरकार उनका निधन हो गया। काफी कम लोगों तक यह जानकारी पहुंची। कुछ समय पहले भारत के सबसे ज़्यादा मेडल वाले वॉर हीरो लेफ्टिनेंट जनरल ज़ोरावर चंद बख्शी का निधन हुआ, न फूल चढ़े, 'ट्वीट' हुआ। सूची बनाने बैठेंगे तो अनगिनत मामले हैं।
रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार नयी शताब्दी में सेना को लेकर सरकार ही नहीं, बल्कि आम जनता में भी उपेक्षा का भाव दिखता जा रहा है। वन रेंक वन पेंशन के मुद्दे पर उनकी जितने लंबे समय तक उपेक्षा की गई वह जवानों की हताशा बढ़ाने के लिए काफी था। इसके लिए पूर्व सैनिकों को सड़क पर उतरना पड़ा।
 
इस मामले के लिए कुछ समय पहले जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों की रेली पर जिस तरह से पुलिस ने बल प्रयोग किया उससे भी सेना के जवानों को निराशा हाथ लगी। पूर्व सैनिक अपना हक़ मांग रहे थे। ये वे लोग थें जो कभी न कभी देश के लिए अपना सब कुछ झोंक चुके थे। लेकिन उस दिन, स्वतंत्रता दिन की पूर्वसंध्या पर, उनके साथ जो हुआ, जिस तरह से उनके कपड़े फटे, वो सैन्य मेडल जिन पर हम नाज़ किया करते हैं वे सड़क पर गिरे, मंज़र काफी झकझोरने वाला था। ये सब सुन-देखकर सीमा पर तैनात जवान खुश हुए होंगे?
 
एक बार कुछ आला निती निर्माताओं ने दलील दी थी कि दरअसल लंबे समय से युद्धकाल नहीं होने से सेना की ज़रूरत कम हुई है। फिर सेना में ख़र्चों पर कटोती, सैन्य बल पर कटोती, अनुबंध वाला सिस्टम आदि की वक़ालत की गई। उसको नये नये नाम देकर पूर्व और वर्तमान सरकारें उसे कम या ज़्यादा मात्रा में अमली जामा पहनाती रही।
 

इस संबंध में सेना के पूर्व और आला अफ़सरों का कहना है कि वे लंबे समय तक सेना में रहे। उनका अनुभव रहा है कि जब जब सेना को नीति नियंताओं ने कुछ करने की इजाज़त दी तब तब हालात अलग ही रहे हैं। इसके उदाहरण पूर्व काल से लेकर वर्तमान समय तक मौजूद हैं। तो फिर सवाल उठा कि आप सेना का इस्तेमाल ही नहीं करना चाहेंगे तो फिर दोष किसका? 1962 का भारत-चीन युद्ध इसका उदाहरण है। 1965 के बाद दौर ज़रूर बदला।
 
रक्षा विशेषज्ञों की माने तो यह बात सही है कि सैन्य ताक़त के लिहाज़ से हम दुनिया की बड़ी ताक़त समझे जाते हैं। लेकिन सीमा पर तैनात जवान को चिंता मुक्त रखा जाना ज़रूरी है। सरकार की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए। सीमा पर तैनात जवान को यह भरोसा होगा कि उसके घर-परिवार की चिंता सरकार कर रही है तो वह ज़्यादा मुस्तैद होगा।
पहले जवानों के घर-परिवार की चिंता सैनिक कल्याण बोर्ड और स्थानीय पंचायतें किया करती थीं। अब इन सबने यह काम छोड़ सा दिया है। परिवार की चिंता करते-करते अवसाद में आए जवान कभी-कभी अपने अफ़सरों व मातहतों पर भी हमला कर बैठते हैं। जवानों की ख़ुदकशी का एक कारण यह भी है। यह चिंता की बात है कि सेवा में रहते हुए सैन्य अफ़सरों व जवानों में ख़ुदकुशी की घटनाएं बढ़ रही हैं। मोहभंग के हालात में सेना को बीच में ही अलविदा करने वालों की तादाद भी कम नहीं।
 
देश की सरकार और सैन्य अधिकारी सैनिकों में देश सेवा का जज़्बा कायम रखने के लिए यह भरोसा दिलाते रहे हैं कि आप देश की सीमाओं की रक्षा करें, हम आपके परिवार की चिंता करने के लिए बैठे हैं। हालात अब उलट होते दिख रहे हैं। आज सैनिक पारिवारिक और सामाजिक मोर्चे के साथ-साथ सीमा पर तैनाती के दौरान भी ख़ुद को अकेला महसूस करता है। लम्बी अवधि तक छुट्टियाँ नहीं मिलने पर स्वयं व परिवार से जुड़े मुद्दों को हल करने का मौक़ा भी नहीं मिल पाता। इन सबका नतीजा यह होता है कि जवानों का अधिकतर समय अनावश्यक रूप से विवादों के निपटारे की कोशिश में ही खप जाता है।
 
एक तरफ़ सेना में पद खाली पड़े हैं, दूसरी तरफ़ सैन्य बल और सैन्य ख़र्चों में कटौती की वकालत की जाती है। कभी सेना भर्ती के लिए उमडऩे वाली भीड़ देखकर लगता था कि देशभक्ति का ज्वार उमड़ा है, लेकिन अब भीड़ बेरोजगारी और मजबूरी की दिखती है।
 
नौसेना प्रमुख का पत्र- जिन्होंने हमारे लिए जान दी, उनके बच्चों की पढ़ाई का फंड मत काटो
हमारी सरकारें भारत देश को माँ भारती और भारतीय सेनाओं को अपनी जान से प्यारे बताने में कोई कसर नहीं छोड़ती। कम से कम भाषणो में ये दावे या जुमले अधिक चलते हैं। लेकिन जुमले तो जुमले होते हैं और इन जुमलों का सामना सिर्फ़ नागरिकों ही नहीं, सैनिकों को भी करना पड़ता है।
 
कुछ कुछ ऐसा ही नज़ारा दिसंबर 2017 में देखने के लिये मिला। यहाँ एक मामले में नौसेना प्रमुख सुनील लांबा को तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण को पत्र लिखकर गुज़ारिश करनी पड़ी कि, देश के लिए जान गँवाने वाले जवानों के बच्चों को मिलने वाली शिक्षा प्रतिपूर्ति को कम करने का जो फ़ैसला किया गया है उसको वापस ले लिया जाए।
सुनील लांबा ने लिखा कि, उन लोगों ने देश के लिए जान गँवाई है, ऐसे में सरकार को उनके बच्चों को पढ़ाई के लिए मिलने वाला फंड कम नहीं किया जाना चाहिए।अपने पत्र में लांबा ने कहा कि, “अगर सरकार इस गुज़ारिश को मान लेगी तो इससे पता लगेगा कि सरकार देश के लिए बलिदान देने वालों को याद रखती है और उनका आदर भी करती है।
 
दरअसल पहले जान गँवाने वाले, लापता हो जाने वाले या दिव्यांग सैनिकों के बच्चों की ट्यूशन फीस, हॉस्टल फीस, किताबों का ख़र्च, स्कूल और घर के कपड़ों का पूरा ख़र्च सरकार उठाती थी। लेकिन 1 जुलाई 2017 से इसको 10 हज़ार रुपए तक सीमित कर दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक़, सशस्त्र बल के जवानों के लगभग 3,400 बच्चे इससे प्रभावित हुए। इस व्यवस्था को भारत सरकार ने 1971 की लड़ाई जीतने के बाद शुरू किया था।
 
मंज़र कमाल का दिखा। एक तरफ़ बलिदान देने वाले वीर जवानों के परिवार को मदद करने के नाम पर राष्ट्रवाद में डूबी हुई आम जनता, दूसरी तरफ़ अपनी मदद कम करती जा रही सरकार। फिर इस मामले में आगे क्या हुआ वह पता नहीं। निर्णय पलटा गया था या नहीं इसकी सटीक जानकारी नहीं है, किंतु निर्णय हुआ ही क्यों था यह अनसुलझा सवाल है।
 
हाड़ कंपाती ठंड या तपती गर्मी नहीं, जवानों को अफ़सरों की अफ़सरी तोड़ती है?
ठीकठाक खाना, ख़राब खाना से लेकर घटिया खाना तक की समस्याएँ कैग रिपोर्ट में भी दर्ज हैं। वहीं ठेकेदारों की कमिशनखोरी से लेकर कथित रूप से अन्य समस्याएँ भी कई जगहों पर उठती रही हैं। सैनिक घटिया खाने की शिकायत तभी सार्वजनिक करता होगा, जब उन्हें सुना नहीं जाता होगा। लेकिन फिर नियमों के नाम पर उनके लिए दूसरी समस्याएँ रख दी जाती हैं।
 
कहा तो यह भी जाता है कि सैनिक किसी भी चीज़ से हार नहीं मानता, पर उन्हें अफ़सरों की अफ़सरी तोड़ देती है। कुछ रिपोर्टों में दर्ज है कि सेना मुख्यालय से लेकर सीजीओ कॉम्प्लेक्स में तैनात जवान मुँह नहीं खोलना चाहते, लेकिन जैसे ही अफ़सरों की अफ़सरी पर तंज़ और आपूर्तिकर्ता ठेकेदारों की रईसी सुनते हैं, मुस्कराना नहीं भूलते।
सर्दी के मौसम में पानी की टोटी में पानी नहीं होता, बल्कि बर्फ़ ही हो जाता है। कई जगह हालात इससे भी मुश्किल होते हैं। लेकिन जवान इन हालातों से हारते नहीं। वे सीना ताने खड़े रहते हैं। गर्मी में पारे के 40 डिग्री को छूते ही दिल्ली की रायसीना पहाड़ी लाल हो जाती है। जरा फर्ज कीजिए कि एक टैंक के भीतर पोखरण में कितना तापमान होता होगा। लाठी-महाजन रेंज का रेगिस्तान आसानी से पारे को 50 तक पहुंचा देता है। सर्दी हो, गर्मी हो या बारिस हो, ये जवान किसी भी माहौल से हार नहीं मानते।
 
सेना के जवानों के तनाव पर डीआरडीओ के वैज्ञानिक मानस मंडल ने काफी काम किया है। लाइफ साइंसेज डिपार्टमेंट के प्रमुख रहे डॉ. डब्ल्यू सेल्वामूर्ति के समय में समाधान के काफी प्रयास हुए थे। नतीजे में निकलकर आया था कि सेना के जवान दुश्मन की चुनौतियों से नहीं हारते, लेकिन अफ़सरों की अफ़सरी से टूट जाते हैं। घर से दूर रहना, घर की चिंताएँ, परिवार की चिंताएँ से लेकर सरहद पर तमाम प्रकार के मानसिक तनावों के बीच अफ़सरशाही जवानों को हताहत करती है। बीच में एक रिपोर्ट के बाद रक्षा मंत्रालय, सेना मुख्यालय ने ध्यान देकर मिनिमम ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) को बदल दिया था। अफ़सर-जवान के तालमेल, संवाद को बढ़ावा देकर योगा आदि को शामिल किया था। अभी भी कमियाँ हैं और समीक्षा की ज़रूरत है।
 
टेंपरेरी मेडलों से अपना काम चला रही है सेना?
फ़ौजी संसाधनों के विषय में एक रिपोर्ट के अनुसार, जवानों को अर्पण किए जाने वाले मेडल की कमी के चलते सेना को लोकल बाज़ारों से मेडल ख़रीदने पड़ जाते हैं। रिपोर्ट की माने तो, रक्षा विभाग ने 2008 से अन्य प्रकार के मेडल सेना को दिए ही नहीं है। कहा गया कि यह विभाग अलग अलग तरीक़े के हज़ारों-लाखों मेडल के बैकलॉग से झूज रहा है। लोकल बाज़ार से मेडल ख़रीदकर काम चलाया जा रहा है, जिसमें जवान का नाम और नंबर अंकित नहीं किए जाते। फिर अप्रैल 2017 में ख़बर आती है कि सरकार 7.60 लाख मेडल ख़रीदने जा रही है। ख़बर के मुताबिक़, क़रीब 16.82 लाख सेवा मेडल की कमी थी जोकि सेना के बहादुर जवानों को दिए जाने थे। रक्षा मंत्रालय का कहना था कि लगभग 15 लाख मजबूत सशस्त्र बलों को मेडल देने के लिए 7.60 लाख और 9.89 लाख मेडल की ख़रीद के लिए दो अलग-अलग प्रस्ताव हैं। इस ख़रीद प्रक्रिया पर आगे हमारे पास कोई ठोस जानकारी नहीं है।
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)