इस कदर छा गये हम पर पॉलिटिक्स के साये... कि अपनी जुबां तक हिन्दुस्तानी ना रही।
तभी तो इन्हें नेता कहा जाता है, वर्ना राजपुरुष न कहा करते। यहाँ जिस स्तर के बिगड़े बोल की सूची है, हो सकता है कि आगे
जाकर आपको यह बोल उतने भी बिगड़े हुए ना लगे, क्योंकि तब हमारे नेता लोग अपने स्तर को और गिरा हो चुके होंगे।
पार्ट 2
हमने पिछली दफा जहाँ
से अघूरा छोड़ा था, वहीं से शुरू करते हैं। यूँ तो हर व्यक्ति को अपनी बात कहने या लिखने का अधिकार
है। किंतु संविधान यह भी कहता है कि बोलने की या फिर लिखने की आज़ादी ज़रूर है, किंतु तब तक कि जब
तक बोलना या लिखना संवैधानिक मूल्यों को चुनौती न देता हो। संवैधानिक मूल्यों की चुनौती
के अलावा नस्लीय मसलों को उभारना, ईशनिंदा करना, जाति का अपमान करना, मुल्क़ के ख़िलाफ़ टिप्पणी करना जैसी छूट नहीं है।
जो लोग सार्वजनिक जीवन
में हैं, सार्वजनिक मंचों पर हैं, उन्हें इस मर्यादा का विशेष ध्यान रखना होता है। यूँ तो ध्यान सभी को रखना होता
है यह नोट करें। हम पिछली दफा ऐसे कई पुराने बिगड़े बोल को नोट कर चुके हैं। वहीं से
आगे बढ़ते हैं।
नेताओं के बिगड़े बोल
सेना और उनके बलिदानी सैनिकों के लिए हो तब मामला गंभीर माना जाना चाहिए। मुंबई में
2008 हमले के बाद वीर संदीप उन्नीकृष्णन के घर पहुंचे केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री
वीएस अच्युतानंदन ने सारी हदें पार कर दी थीं। दरअसल, मुख्यमंत्री के पहुंचने के पहले उनके कुत्ते वहाँ पहुंच गए
और सुरक्षा हेतु अधिकारी कुत्तों के साथ वीर जवान के घर पर जम गए। इस पर वीर सैनिक
के परिवार द्वारा आपत्ति जताई गई। बाद में सीएम ने बोल दिया कि, “अगर शहीद का घर नहीं
होता, तो उनके यहाँ एक कुत्ता भी नहीं जाता।” विवाद बढ़ता देख सीएम ने माफ़ी भी माँग ली थी।
बिहार में तत्कालीन
नीतीश सरकार में मंत्री भीम सिंह ने पुंछ में वीरगति को प्राप्त हुए जवानों के बारे
में काफी शर्मनाक बयान देते हुए कह दिया था कि, “लोग सेना और पुलिस में मरने के लिए ही आते हैं। शहीदों के अंतिम संस्कार के बारे
में ऐसा क्या खास हो गया है?” हालाँकि इस बयान को लेकर विवाद बढ़ने पर नीतीश कुमार ने अपने मंत्री से माफ़ी मांगने
को कहा और मंत्री ने माफ़ी मांग ली।
भाजपा के तत्कालीन
राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी राजनेता का काम सरहदों पर सैनिकों का जो काम होता है
उससे भी ज़्यादा जोखिम वाला काम है, ऐसा बोलकर फँस चुके हैं।
2016 में उरी आतंकी हमले के बाद वीर गति को प्राप्त हुए निंब सिंह रावत के शव का अंतिम
संस्कार उनके पैतृक गांव राजसमंद के राजवा में राजनीतिक व सैन्य सम्मान के साथ किया
गया। बलिदानी सैनिक को अंतिम विदाई देने जनसैलाब उमड़ पड़ा। इस दौरान सीएम या बीजेपी
नेता के नहीं पहुंचने को लेकर राजस्थान के तत्कालीन शिक्षा मंत्री कालीचरण सराफ ने ग़लतबयानी कर दी।
दरअसल, राजस्थान की मुख्यमंत्री
वसुंधरा राजे या बीजेपी की तरफ़ से प्रदेश अध्यक्ष वीर जवान को श्रद्धांजलि देने नहीं
पहुंचे थे। इसी सवाल पर राजस्थान के शिक्षा मंत्री कालीचरण सराफ उखड़ पड़े। सराफ से
जब सीएम के नहीं आने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि, “मुख्यमंत्री फ्री नहीं
हैं, प्रतिनिधि को भेज दिया।” जब ये कहा गया कि कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट श्रद्धांजलि देने गए, तब सराफ ने जवाब
दिया कि, “सचिन पायलट के पास अभी काम क्या है, वह फ्री हैं। वह सरकार में नहीं हैं, इसलिए उनको तो जाना ही चाहिए। लेकिन हम सरकार में हैं, मुख्यमंत्री के पास
कई काम हैं।”
वहीं भाजपा के सांसद
नेपाल सिंह ने 1 जनवरी 2018 को सेना के बारे में बेहद ही घटिया और निचले स्तर का बयान दे दिया। पुलवामा सीआरपीएफ
कैंप आतंकी हमले पर बोलते हुए इन्होंने कहा, “सेना में लोग रोज मरेंगे ही, ऐसा कोई देश नहीं है जहाँ झगड़े में सेना का जवान नहीं मरता हो। गाँव में भी जब
झगड़ा होता है तो आदमी मरता ही है। कोई ऐसी डिवाइस बताओ जिससे आदमी न मरे, कोई ऐसी चीज़ बनाओ
जिससे गोली का कोई असर ही न हो।”
इस घटिया बयान के बाद
जब नेताजी घिर गए तो उन्होंने उसी दिन माफ़ी मांग ली।
आरएसएस के प्रमुख मोहन
भागवत का उत्साह 11 फ़रवरी 2018 को कुछ ज़्यादा ही हो गया। अतिउत्साह में इन्होंने आरएसएस की तुलना महान भारतीय
सेना से कर दी! अतिउत्साह इतना कि संघ की सेना को भारतीय
सेना से भी ज़्यादा तत्पर बता दिया! मोहन भागवत की ये तुलना और उनका अति उत्साह दिनों तक उनकी किरकिरी करवाता रहा।
मोहन भागवत ने 11 फ़रवरी को कहा कि, “सेना को सैन्यकर्मियों को तैयार करने में छह-सात महीने लग जाएँगे, लेकिन संघ के स्वयंसेवकों को लेकर यह तीन दिन में तैयार हो जाएगी।
अगर कभी देश को ज़रूरत हो और संविधान इजाज़त दे, तो स्वयंसेवक मोर्चा संभाल लेंगे।”
10 जनवरी 2018 के दिन केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने तो भारतीय नौसेना पर सरेआम “विकास कार्यों को रोकने
की आदत” का सनसनीखेज़ इल्ज़ाम लगा दिया। इस दिन केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा
कि, “इस इलाके में नौसेना
को फ्लैट या क्वार्टर के निर्माण के लिए एक इंच ज़मीन भी नहीं दी जाएगी।” पश्चिमी नौसेना कमांड
के प्रमुख वाइस एडमिरल गिरीश लूथरा की मौजूदगी में गड़करी ने कहा कि, “आख़िर हर कोई दक्षिण
मुंबई में ही क्यों रहना चाहता है?” उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि, “ऐसे विकास कार्यों को रोकना नौसेना की आदत हो गई है।”
ये वही गड़करीजी थे, जो घोटालों पर बोल गए थे कि दो काम हम उनके करते हैं, दो काम वो हमारे करते
हैं। वही गड़करीजी, जो अपने वोटरों को पैसे लेकर वोट डालने की नसीहत देते थे। ये किसी समस्या को लेकर
समूची नौसेना को विकास कार्यों को रोकने की आदती सेना बता रहे थे।
भारतीय सेना की पाकिस्तानी
आतंकी कैंप पर कार्रवाई के बाद, जब विपक्षों ने कार्रवाई के सबूतों और विस्तारपूर्वक
जानकारी देने की मांग की, तो एक भाजपाई नेता ने विपक्षी पार्टियों पर आपत्तिजनक टिप्पणी
कर दी। उन्होंने जानकारी देने की मांग करने वालों के जन्म तथा उनके माता-पिता पर टिप्पणी
कर दी, जिसे यहाँ लिखा नहीं जा सकता। सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने वाले विपक्षी दलों
को तत्कालीन सरकार ने देशद्रोही बता दिया। साथ ही तत्कालीन केंद्र सरकार सैन्य कार्रवाई
के पोस्टर छपवाकर चुनावों में वोट मांगने लगी। ऐसे में विपक्षी नेता राहुल गाँधी ने
कह दिया कि, “मोदी जवानों के ख़ून की दलाली कर रहे हैं।” लगा कि सेना ने जितना बड़ा काम कर दिखाया था, हमारे नेता उतना ही छोटा काम कर रहे थें।
प्रधानमंत्री जैसे
संवैधानिक पद पर रहते हुए अपने भाषणों को निम्न स्तर तक ले जाने की सबसे ज़्यादा घटनाएँ
नरेंद्र मोदी के दौर में हुई हैं। नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री विपक्षी नेताओं को
देशद्रोही या पाकिस्तानी सरीखे कहने में कभी हिचके नहीं। आलोचना लोकतंत्र की स्वाभाविक
प्रक्रिया है। किंतु जब नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा नोटबंदी (या नोटबदली) हुई और इसकी
तीखी प्रतिक्रिया विपक्षी नेताओं की तरफ़ से आई, तब 22 दिसम्बर 2016 के दिन बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने वाराणसी से एक रेली में कहा, “विपक्ष का नोटबंदी
का विरोध वैसा है, जैसे पाकिस्तान आतंकवादियों की मदद करता है।” उन्होंने कहा, “जैसे पाकिस्तानी सेना आतंकियों को कवर फायर देती है, वैसा काम विपक्ष कर
रहा है।” किसी योजना पर आलोचना के ख़िलाफ़ किसी पीएम को ऐसे बोलते हुए देखना किसी को अजीब
लगा, किसी को स्वाभाविक।
नरेंद्र मोदी अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल
के दौरान ख़ुद के बयानों के स्तर को लेकर काफी चर्चा में रहे। मुझे फाँसी लगा देना, मुझे लात मार देना, मुझे गोली मार देना, मुझे चौराहे पे लटका
देना, जैसे कई बयानों ने गरिमा या पद के स्तर के हिसाब से विवाद उत्पन्न किए।
बतौर पीएम नरेंद्र
मोदी ने 20 जनवरी 2018 को बेहद विवादित तरीक़ा अपनाते हुए रोजगार के मुद्दे पर जवाब दिया था। नई नौकरियों
के सृजन वाले सवाल पर इन्होंने कह दिया था कि,
“आपकी ऑफिस के बाहर कोई शख़्स पकौड़े बेचता है तो क्या ये रोजगार
नहीं है?” रोजगार के मुद्दे पर बतौर पीएम ये बयान वाक़ई अप्रत्याशित था।
इतना ही नहीं, जब पीएम के इस बयान
का विरोध हुआ तो राज्यसभा में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बयान का बचाव करते
हुए कह दिया था कि, “बेरोजगार रहने से अच्छा है कि पकौड़े बेचे जाए। आप पकौड़े बेचने वालों को ग़रीब नहीं कह सकते। हो सकता है कि आगे जाकर वो बड़ा व्यापारी बन जाए।” रोजगारी जैसे गंभीर
मुद्दे पर इतनी महान चर्चा कौन कर सकता था भला!
इन दिनों लगा कि पीएम
मोदी से आगे तो आरएसएस के नेता निकलना चाह रहे हैं। तभी तो 15 फ़रवरी 2018 के दिन संघ के वरिष्ठ
नेता इंद्रेश कुमार ने रोजगार के ऊपर कह दिया कि, “भीख मांगना भी देश के 20 करोड़ लोगों का रोजगार है। भीख मांगना छोटा काम नहीं है।” ग़ज़ब ही कह लीजिए, जहाँ पकौड़े तलना
और भीख मांगना रोजगार माना जा रहा था। वैसे नोट करें कि भीख माँगना क़ानूनन अपराध माना
जाता है, लेकिन आरएसएस का अपना कोई अलग क़ानून होता होगा।
7 फ़रवरी 2018 के दिन कांग्रेसी नेता रेणुका चौधरी ने अजीबोग़रीब वर्तन किया और बदले में पीएम
मोदी ने भी उनसे भी ज़्यादा अजीबोग़रीब लहजा अपना लिया। इस दिन पीएम मोदी आधार पर राज्यसभा
में अपनी बात रख रहे थे। इसी समय कांग्रेसी नेता रेणुका चौधरी सदन में ही जोर-जोर से
हँसने लगीं। सभापति नायडू रेणुका चौधरी को शांत रहने की हिदायत दे रहे थे, लेकिन चौधरी की हँसी
कम नहीं हो रही थी! चौधरी का रवैया वाक़ई
अजीबोग़रीब था।
बदले में देश के प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने भी मर्यादा छोड़ते हुए कह दिया कि, “सभापतिजी, मेरी आपसे विनती है कि रेणुकाजी को कुछ मत कहीए। क्योंकि रामायण सीरियल के बाद
ऐसी हँसी सुनने का सौभाग्य आज जाकर मिला है।”
बाद में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने ट्विटर पर
रेणुकाजी की हँसी का वीडियो शेयर किया और साथ में रावण की बहन शूर्पणखा की तस्वीर भी
लगा दी! कुल मिलाकर, किसी ने थोडा बेड़ा
गर्क किया, किसीने ज़्यादा!
इन्हीं दिनों सरकार
के तत्कालीन केंद्रीय मंत्री नायडू ने नोटबंदी का विरोध करने वालों को राक्षस तक कह
दिया! उन्होंने कहा कि, “नोटबंदी का विरोध करने
वाले असूर यज्ञ में बाधा डाल रहे हैं।” केंद्रीय मंत्री लोकतंत्र में विरोध प्रक्रिया
से इतने ख़फ़ा क्यों हो गए होंगे, यह तो उन्हें ही पता।
बतौर प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह का महंगाई पर ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’ वाला बयान, उसके बाद सरकार बदली, किंतु मंज़र नहीं। नवनिर्वाचित मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आर्थिक
नीतियों पर उठ रहे सवालों से परेशान होकर कह दिया था कि, “विकास मुफ़्त में नहीं
मिलता। जिसे विकास चाहिए उसे विकास की क़ीमत चुकानी होगी।”
दिसंबर 2020 में केंद्रीय मंत्री
रावसाहेब दानवे ने किसान आंदोलन पर कह दिया था कि, “तीन नए कृषि क़ानूनों को वापस लिए जाने की ये जो मांग है, किसानों का ये जो
विरोध प्रदर्शन है, उसके पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है।”
जनवरी 2021 के दौरान राजस्थान
के बीजेपी विधायक मदन दिलावर ने पहले तो किसान आंदोलनकारियों को आतंकवाकी, लुटेरे और चोर कहा, साथ ही कहा कि, “आंदोलन क्या है? ये तो पिकनिक मना रहे हैं। वहाँ चिकन बिरयानी खा रहे हैं। चिकन बिरयानी खाकर, मैं समझता हूँ, बर्ड फ्लू फैलाने का षडयंत्र है। सरकार ने, चाहे निवेदन करके, चाहे सख़्ती से, इनको (किसानों को) नहीं हटाया तो देश में बर्ड फ्लू
का प्रकोप बड़ा रूप धारण कर सकता है।”
पूर्व विदेश राज्यमंत्री
वीके सिंह भी पीछे नहीं रहे हैं इस प्रतियोगिता में। जब इराक में फँसे भारतीयों को
लाने के मुद्दे पर पत्रकारों ने उनसे सवाल पूछा तब उन्होंने कह दिया था कि, “सरकार हनुमान थोड़ी है।” वीके सिंह अपने बयानों के कारण कई बार विवादों में आ चुके हैं। पूर्व सैनिक रामकिशन
ग्रेवाल की दिल्ली में ख़ुदकुशी के बाद उन्होंने इसे चार पैसे से जोड़कर बेतुका तरीक़ा अपनाया था। उन्होंने अपने बयान में मृतक पूर्व सैनिक की मानसिक अवस्था पर टिप्पणी कर
दी थी!
बीजेपी के पूर्व सासंद
साक्षी महाराज, जिनकी जुबान फिसलने के बिना मानती नहीं थी।
जनवरी 2017 में चुनाव प्रचार के दौरान वो बोल गए कि, “भारत में जनसंख्या विस्फोट के लिए हिंदू ज़िम्मेदार नहीं है। जो चार-चार पत्नियाँ
रखते हैं और 40 बच्चों को जन्म देते हैं वे लोग... अगर हिंदुओं की जनसंख्या कम होगी तो देश का
बँटवारा हो जाएगा।” विवाद बढ़ता देख चुनाव आयोग ने उनसे जवाब
मांगा और मेरठ पुलिस ने उन पर अलग अलग धाराओं के तहत मामला भी दर्ज किया।
एक समय ऐसा आया जब, एक से अधिक संतान पैदा
करने वाला विवाद राजनेताओं में थमा, तो दिसम्बर 2016 में ज्योतिर्मठ के
शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने फिर से बखेड़ा खड़ा कर दिया। उन्होंने नागपुर से
कहा कि, “हिंदुओं को जनसंख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। इसके लिए उन्हें दो बच्चों वाला नियम
दरकिनार करना चाहिए। हिंदू 10-10 बच्चे पैदा करें तभी जनसंख्या बढ़ेगी और सुरक्षा होगी।” शंकराचार्य ने तो आगे
यह भी कह दिया कि, “उन बच्चों का ख़याल कौन रखेगा, उन्हें खिलाएगा-पिलाएगा कौन, इसकी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। भगवान इन बच्चों का ख़याल
रखेगा।”
4 बच्चे पैदा करने वाली बेफिजूल की नसीहत एक साल बाद भी थमी नहीं थी! 25 नवम्बर 2017 को कर्नाटक के उडुपी में धर्मसंसद के मंच से स्वामी गोविंद फिर एक बार उसी रास्ते
चले और कहा कि, “जब तक समान नागरिक संहिता लागू नहीं होती तब तक हिंदुओं को कम से कम 4 बच्चे पैदा करने चाहिए।”
15 फ़रवरी 2018 के दिन ख़ुद को अखिल भारतीय संत परिषद् के संयोजक कहने वाले नरसिम्हा सरस्वती ने
कहा, “हर हिंदू को दो के बदले चार बच्चे पैदा करने चाहिए। उनके पालन की ज़िम्मेदारी संन्यासियों
की होगी।”
धर्म का ग़ज़ब पालन हो रहा था देश में। संन्यास
ले चुके लोग संसारियों को उपदेश दे रहे थे कि कितने बच्चे पैदा करें! नरसिम्हा सरस्वतीजी तो संन्यासियों के लिये नया टास्क लेकर कूदे थे। लाखों-करोड़ों
बच्चों के लालन-पालन का टास्क!
राम मंदिर का मुद्दा
कई नेताओं को न जाने क्यों सीमाएँ लाँधने पर मजबूर किया करता था। मर्यादा पुरुषोत्तम
राम को लेकर कई नेता मर्यादा और तर्क, दोनों को तहसनहस करते रहें। राम मंदिर के
मुद्दे पर गिरिराज सिंह बोल गए थे कि, “देश की जनता राम मंदिर मांग रही है। लेकिन राम भक्त बचेंगे ही नहीं तो राम मंदिर
कैसे बनेगा? हिंदू समाज को उनकी जनसंख्या बढ़ाने की ज़रूरत
है।”
राम मंदिर के ही मुद्दे
पर फ़रवरी 2018 में गिरिराज सिंह ने कह दिया कि, “भारत में सब भगवान राम की संतान हैं। देश में कोई बाबर की औलाद नहीं है। अगर मैं
धर्म परिवर्तन करूँगा तो क्या मेरे पूर्वजों की जाति बदल जाएगी?”
2015 के दौरान गुजरात भाजपा के नेता बाबू बोखरिया अचानक ही जनसेवक से राजा बन गए। मूंगफली
के दामों को लेकर उनसे मिलने पहुंचे किसानों को बोखरिया ने सुना दिया कि, “मूंगफली मुझे पूछ कर उगाई थी?”
25 अक्टूबर 2016 के दिन गुजरात के तत्कालीन डिप्टी सीएम नितिन पटेल भी बोखरिया की राह चलते नज़र
आए। नीट के मुद्दे को लेकर छात्रों के माता-पिता उनसे मिलने आए थे। इस बीच गहमागहमी
बढ़ गई और हंगामा होने लगा। नितिन पटेल ने कह दिया कि, “मैं आप का नोकर नहीं हूँ, मुझे किसी की बात सुननी नहीं।” बाद में नितिन पटेल
हाय हाय के नारे भी लगे। स्वर्णिम संकुल में पुलिस बुलानी पड़ी। कई अभिभावकों को गिरफ़्तार तक किया गया।
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर
सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद यूपी के कैबिनेट मंत्री आज़म खान ने विवादित बयान देते
हुए कहा था, “सत्ता के लिए राजनेता किसी भी हद तक जा सकते हैं और इसीलिए विपक्ष द्वारा ये सामूहिक
दुष्कर्म करवाया गया है या नहीं उसकी जाँच होनी चाहिए।”
अपने बयान के द्वारा
कैबिनट मंत्रीजी ने महिला के साथ हुए इस अपराध को राजनीतिक साज़िश करार दे दिया! सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आज़म खान के इस
बयान को आपत्तिजनक तथा संवेदनहीन बयान कहा और टिप्पणी की कि ऐसे बयान को लेकर आज़म खान
के उपर क्रिमिनल केस क्यों न किया जाए? 20 अप्रैल 2017 को अदालत ने कहा कि, “अगर कोई व्यक्ति मंत्री पद को स्वीकार करता है, तो वो सामान्य नागरिक के बोलने की
आज़ादी के अधिकार का उस तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता।”
सामूहिक दुष्कर्म बयान
मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी झेलने के बाद भी आज़म खान सुधरने का नाम नहीं
ले रहे थे! जून 2017 के आख़री सप्ताह में उन्होंने यूपी के रामपुर में एक कार्यक्रम
के दौरान भारतीय सेना पर ही भद्दी टिप्पणी कर दी। उन्होंने अपनी टिप्पणी में सेना पर
दुष्कर्म के मामलों में शामिल होने का आरोप मड़ दिया।
उन्होंने अपनी टिप्पणी
में कहा कि, "फ़ौज के साथ जो हो रहा है वो हिंदुस्तान की असल ज़िंदगी का पर्दा उठाती है। लोग फ़ौज या बेगुनाहों का सिर उतारते हैं, कहीं कोई किसी का हाथ काटकर ले जाता है। लेकिन
इस मौक़े पर दहशतगर्द फ़ौज के प्राइवेट पार्ट्स को काटकर साथ ले गए। उन्हें हाथ से भी
शिकायत नहीं थी, पैर से भी नहीं थी, सिर से भी नहीं थी। जिस्म के जिस हिस्से से शिकायत थी उसे काटकर
साथ ले गए। ये देश के लिए इतना बड़ा संदेश है जिस पर पूरे देश को शर्मिंदा होना चाहिए
और सोचना चाहिए कि हम दुनिया को क्या मुँह दिखाएँगे।"
इस बयान के बाद विवाद
हुआ तो उनकी पार्टी के लोग बचते-बचाते बयान देते नज़र आए। विपक्षी पार्टी के नेता या
प्रवक्ता आज़म पर बरसे, लेकिन उनके ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव लाना, या
सेना की अवमानना का ख़याल किसी को नहीं आया! हमारे यहाँ नेता लोग मानहानि को लेकर अविरत मुकदमे किया करते हैं, या किसी पत्रकार
को अवमानना के हथियार से जेल में ठूंस देते हैं। लगा कि सारे नेता अपनी जमात के दूसरे
नेता द्वारा दिये गये गटरछाप बयान का राजनीतिक विरोध करने की नौटंकियाँ ही कर रहे हो।
रियो ओलंपिक के बाद
भाजपा के सांसद उदित राज की तरफ़ से भी विचित्र बयान आया। रियो ओलंपिक में भारत केवल
2 मेडल जीतने में सफल
हो पाया था। दरअसल नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने मीडिया इंटरव्यू
में कहा था कि, “वे अगर पीएम होते तो भारत 10 मेडल जीत के ले आता।” अब वे भारत के प्रधानमंत्री थे और रियो में 2 मेडल के साथ खिलाड़ी लौटे, तो उसके बाद उन पर तंज़ कसे जा रहे
थे। उपरांत तत्कालीन खेल मंत्री के साथ साथ नीता अंबानी को भी रियो भेजा गया था! पीएम की आलोचना हुई तो बचाव में उदित राज ने ट्वीट किया कि, “जमैका के उसैन बोल्ट ग़रीब थे। ट्रेनर ने उन्हें सुबह-शाम बीफ़ खाने की सलाह दी थी और इसीलिए वे ओलंपिक में
9 गोल्ड मेडल जीत पाए
थे।”
इन्हीं दिनों केंद्रीय
मंत्री महेश शर्मा भी कुछ ऐसा बोल गए कि उन पर भी काफी तंज़ कसे गए। आगरा में पर्यटकों
की सुरक्षा के बारे में जब उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने विदेशी पर्यटकों को छोटे
शहरों में रात के समय अकेले बाहर नहीं निकलने की सलाह दे दी! उन्होंने विदेशी पर्यटकों को स्कर्ट ना पहनने की भी नसीहत दे दी! बवाल हुआ तो महेश शर्माजी ने भी पारंपरिक रास्ता अपनाते हुए उनके बयान को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है वाला सूर छेड़ दिया।
आम आदमी पार्टी के
प्रवक्ता आशुतोष भी पीछे नहीं रहे हैं। उनके एक मंत्री के सीडी कांड के वक़्त उन्होंने
नेहरू, गाँधी तथा वाजपेयी तक को लपेटे में ले लिया था। वे यही से नहीं अटके थें। उन्होंने
तो सी राजगोपालाचारी, राममनोहर लोहिया और जॉर्ज फ़र्नांडिस तक के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कर दी
थीं।
उधर भाजपा के निलंबित
सांसद दयाशंकर फिर एक बार अपने आप को रोक नहीं पाए। उन्होंने मायावती पर फिर अभद्र
टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि, “मायावती श्वान सरीखी हैं। उनके मोहल्ले से आप किसी भी गति से अपना वाहन चला लो, वो आप का पीछा करती है। लेकिन जैसे ही आप अपना वाहन रोक दो, वो डर के मारे भाग जाएगी।”
सुब्रमण्यम स्वामी
भी काफी देर तक चुप नहीं रह सकते। तत्कालीन आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन पर ग़ैरज़रूरी बयानों के बाद उन्होंने मुख्य आर्थिक सलाहकार और तत्कालीन वित्तमंत्री अरूण जेटली पर
भी बयान दिए थे। सोनिया के विदेशी मुद्दे पर शोर मचाने वाले स्वामी वक़्त आने पर नये
आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल तथा गुजरात के नये मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के विदेश में
जन्म लेने वाले मुद्दे पर चुप रह गए। लेकिन महबूबा मुफ्ती पर वो चुप नहीं रह पाए। सितंबर
2016 के प्रथम सप्ताह में उन्होंने कहा कि, “महबूबा मुफ्ती कुत्ते की दुम जैसी हैं। कुत्ते की दुम टेढ़ी ही रहती है, वैसे मुफ्ती भी कभी सुधरने वाली नहीं हैं।” उन्होंने आगे कहा कि, “महबूबा मुफ्ती के कई
सालों से आतंकवादियों के साथ रिश्ते हैं।” गौरतलब है कि उनकी ही पार्टी भाजपा इन दिनों मुफ्ती के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार
चला रही थी!
तत्कालीन केंद्रीय
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर भी अछूते नहीं रहे। दिल्ली के तत्कालीन सीएम अरविंद केजरीवाल
के जीभ की सर्जरी हुई थी। सीएम की मेडिकल समस्या पर मनोहर पर्रिकर भी बोल गए कि, “मोदीजी की आलोचना कर
कर के तथा उनके ख़िलाफ़ अनाप शनाप बोलने से केजरीवालजी की जीभ लंबी हो गई थी।” नोट करें कि इन्हीं
दिनों उरी सेक्टर में भारतीय सेना के ब्रिगेड मुख्यालय पर बड़ा आतंकी हमला हुआ था।
रक्षा मंत्री ऐसे समय पर भी अपनी जीभ को काबू नहीं कर पाए और दूसरों की जीभ पर बोल
पड़े।
उधर हरियाणा के तत्कालीन
मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने सामूहिक दुष्कर्म व बिरयानी मामले में बिगड़ा बयान दे
दिया। सितंबर 2016 में हरियाणा की 50वीं वर्षगांठ के मौक़े पर एक आयोजन में जब मुख्यमंत्री खट्टर से पत्रकारों ने मेवात
सामूहिक दुष्कर्म मामले और बीफ़ विवाद में सीबीआई जाँच के बारे में पूछा तो उन्होंने
कहा कि, “ये कोई मुद्दे नहीं हैं। मैं ऐसे छोटे मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता। आज हमें
स्वर्ण जयंति के बारे में बात करनी चाहिए।”
इतना ही नहीं, जब उनसे फिर से इस बारे में पूछ गया तो खट्टर ने कहा, “स्वर्ण जयंति समारोह
की तुलना में यह बहुत छोटे मामले हैं और देश में कहीं भी हो सकते हैं।”
महाराष्ट्र राज्य की
बीजेपी शासित सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्री विष्णु सावरा ने भी कुपोषण से मर रहे
लोगों पर टिप्पणी करते हुए कह दिया था कि,
“अरे भाई मर गए तो मर गए न। अब उसका क्या? कोशिश इसके आगे ऐसा
न हो यह है।” राज्य में कुपोषण से आदिवासियों की बढ़ती मौतों की संख्या को लेकर विष्णु सावरा
का ये बयान तब सामने आया था, जब वह अपने चुनावी इलाके के दौरे पऱ थे।
कौन सी भाषा प्रदेश में या देश में इस्तेमाल की जाए उसे लेकर निरंतर बवाल होता
रहता है। कौन सी भाषा को महत्व दिया जाए ये तय करने से पहले भाषा को सुधारने के बारे
में क्यों सोचा नहीं जाता होगा ये वाक़ई संवेदनशील सवाल है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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