Ticker

6/recent/ticker-posts

Boycott Drama: विदेशी माल का नागरिकी बहिष्कार और आयात पर सरकारी छूट, बहिष्कार और स्वागत का ग़ज़ब झोल



यूँ तो आजकल बहिष्कार लफ्ज़ की जगह बायकॉट वाला अंग्रेज़ी लफ्ज़ ज़्यादा चलन में है। और ये बायकॉट केवल उत्पादों का ही नहीं होता, फ़िल्मों- गानों- व्यक्तियों- विचारों तक का भी होता है। ये बात और है कि जिनका बायकॉट होता है वे ज़्यादा फेमस हो जाते हैं! लोग उसे ज़्यादा देख-पढ़ या सुन लेते हैं! ख़ैर, हमें यहाँ बात करनी है विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की। विशेषत: चीनी चीज़ों के बायकॉट की। हम नागरिक बहिष्कार करते हैं और सरकार क़रार करती है! सवाल यह है कि ज़्यादा सही कौन है? इसे लेकर पिछले लेख में हमने लंबी चर्चा कर ली है। लिहाज़ा हम वहीं से आगे बढ़ते हैं।
 
हिंदुस्तान ज़िंदाबाद, मेड इन इंडिया, चाइना मुर्दाबाद, देशद्रोही, राष्ट्रवाद। आज़ादी से पहले किसने कौन सा नारा दिया था इसका रट्टा मार अच्छे नंबर लाए जा सकते हैं, जबकि आज़ादी के बाद नारों से चुनाव जीते जा सकते हैं और नारों से मुद्दों की हत्या भी की जा सकती है! विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के तत्काल और अंतिम परिणामों के बीच हमें सदैव विदेशनीति को भी ज़ेहन में रखना चाहिए। विश्व के तमाम देशों की विदेशनीति में एक अलिखित नियम है कि कोई भी देश स्थायी मित्र या स्थायी दुश्मन नहीं होता। या यूँ कह लीजिए कि हर मौक़े पर ख़ुद को क्या मिलेगा यह सोचना ही तमाम देशों की ख़ुद की देशसेवा होती है। हां, जो मिलता है उसके लिए कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, यही महत्वपूर्ण होता है। हर जगह हर दौर में यही होता आया है। तमाम देशों की कूटनीति की अंतिम व्याख्या यही हो सकती है कि घर भर लो। इसके उदाहरण जगज़ाहिर हैं, लिहाज़ा दोहराने की ज़रूरत नहीं है।
 
हमने पिछले लेख में देखा कि विदेशी चीजों के बहिष्कार की मुहिम स्वयंभू न होकर आयोजित प्रसंग सरीखी ज़्यादा दिखती है। किसी ख़ास मौक़ों पर, किसी ख़ास उत्सवों के आसपास का समय बहिष्कार का मौसम गिना जा सकता है। और इस बहिष्कार वाली मुहिम में चीनी चीज़ों का विरोध मूल तत्व बना रहा है। यूँ तो हमारा बाज़ार चीनी चीज़ों से बुरी तरह से प्रभावित है। चीन वाले जबरन तो भेजते नहीं होंगे। हम लाते हैं, हमारी सरकारें लाती हैं, हमारे उद्योगपति लाते हैं। उन्हें भी अपराधी नहीं माना जा सकता। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार एक बहुत बड़ा फ़ैक्टर है। सच यह भी है कि हमें किसी दूसरे देश के बिना नहीं चल सकता। हम ज़िद पर आकर या कुछेक पहलुओं को सोचकर सब कुछ रोक नहीं सकते। हमारी चीज़ें दूसरे देशों में जाती हैं। दूसरों की हमारे यहाँ आती हैं। हम तो पाकिस्तान के साथ भी व्यापार करते हैं।
 
दरअसल, देशभक्ति और व्यापार अलग चीज़ है। वैसे इस चीज़ को अलग तब ही माना जा सकता है, जब बात वैश्विक तौर पर वैश्विक सत्यता की हो। दशकों पहले चीन ने समय की मांग को समझा और अपने दुश्मन माने जाने वाले जापान के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को अहमियत दी। उसने समझा था कि अगर उसे जापान के साथ उस स्तर पर आना है, तो पहले अपने ढाँचे को दुरुस्त करना होगा, और उसने यही किया।
 
बहुत सीधी सी बात है कि देशों को आगे बढ़ना है, तो यह ज़िद पर अड़ जाने से या अकेले दम पर संभव ही नहीं है। इसके लिए दूसरे राष्ट्रों की तरफ़ देखना ही पड़ता है। दूसरे राष्ट्र भी हमारे तरफ़ देखते तो हैं ही। भारत आज कई देशों के उपग्रह लॉन्च करता है। हम पाकिस्तान के साथ भी व्यापार करते हैं, जबकि उसके और हमारे रिश्ते जन जन को पता है। इसीलिए लगता है कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देशभक्ति का रूप अलग सा है।
हमने पिछले लेख में विस्तार से देखा कि गुजरात में गुजरात सरकार और गुजराती व्यापारियों का चीन के साथ व्यापार का प्रयास नरेंद्र मोदी के काल से ही बढ़ने लगा था। यहाँ साणंद, दहेज और अलंग में चाइना टाउन खड़ा करने का लक्ष्य है। प्रयोजित चाइना टाउन में चाइना का स्कूल भी बनेगा, जिसमें चाइनीज़ भाषा के विषय होंगे! मातृभाषा या राष्ट्रभाषा की दौड़ में यह भी एक पहलू है।
 
चीनी चीज़ों के नागरिकी बहिष्कार के बीच गुजरात सरकार का प्रतिनिधिमंडल व्यापार के लिए एक से ज़्यादा बार चीन जा चुका है! सीएएसएमई ने गुजरात में इंडस्ट्रियल पार्क बनाकर चाइनीज़ मैन्युफैक्चरिंग यूनिट शुरू करने के लिए एमओयू साइन किया है। गुजरात चैंबर ऑफ़ कॉमर्स इंडस्ट्रीज़ केमिकल और फ़ार्मा कंपनियों के लिए माल चाइना से ही ख़रीदा करते हैं। देश में जितना रो मटेरियल चीन से आता है, गुजरात अकेले ही उसका 25 फ़ीसदी आयात करता है! चीन की कंपनी चाइना रेलवे रोलिंग स्टॉक कॉर्पोरेशन को नागपुर मेट्रो रेल कोच बनाने का ठेका दे दिया गया था। गुजरात में बनी सरदार पटेल की मूर्ति, जिसे स्टैचू ऑफ़ यूनिटी कहते हैं, में भी चीनी कंपनी की मदद ली गई थी। मीडिया रिपोर्ट की माने तो रिलायंस जियो के कार्ड चीन से ही ख़रीदे गए थे। इस बात का खुलासा टेलीकॉम टॉक ने किया था। कुछेक प्रयोजित स्मार्ट सिटी भी ऐसे हैं, जिसके लिए चीन की कंपनियों से मदद ली जा रही है।

 
भारत सरकार चीन के साथ करोड़ों अरबों रुपये के समझौतों पर दस्तख़त कर चुकी है। इनमें रेलवे, माइनिंग, पर्यटन, अंतरिक्ष अनुसंधान तथा वोकेशनल एजुकेशन से जुड़े समझौतें भी शामिल हैं। चाइना के मोबाइल हैंडसेट हमारे यहाँ धड़ल्ले से बिकते हैं! चीनी चीज़ों के बहिष्कार की बड़ी बड़ी मुहिम के बाद भी शहरों और गाँवों तक में चीनी मोबाइल कंपनियों के बड़े बड़े साइन बोर्ड आपको चमकते दमकते मिल जाएँगे! मोबाइल एक्सेसरीज़, जो चाइना से आती हैं, उसकी बिक्री भी जमकर होती है! फ्लिपकार्ट, अमेज़न इंडिया, स्नैपडील तथा टाटा प्लेटफॉर्म से चाइना के इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स की ख़रीदी में इज़ाफ़ा देखा गया है!
 
भारत सरकार के मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स के आँकड़ों के मुताबिक़, चीन से भारत आने वाली चीज़ों में आईटी-टेक्निकल, केमिकल्स, मशीनरी, बेसिक मेटल्स, एपरेल-टेक्स्टाइल्स, मोटर व्हीकल, रबड़ और नोन मेटालिक चीज़ें अग्रीम हैं।
 
चीनी चीज़ों के बायकॉट के खेल का ग़ज़ब यह है कि उद्योगपतियों का या अरबों की आयात करने वालों का विरोध नहीं होता, बल्कि पटाखों और झालरों का होता है! चौराहों पर छिटपुटियें चीनी सामान जलाए जाते हैं, लेकिन स्मार्ट फोन की होली होती हुई नहीं देखी। हां, उसकी बिक्री होती हुई ज़रूर देखी है! पटाखों या झालरों के विदेशी व्यापार के बारे में देखे तो, मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स के आँकड़ों के मुताबिक़ पहले 10 स्थानों में यह कहीं पर नहीं है। जो पहले 10 स्थानों पर हैं उसका समावेश इन बहिष्कार अभियानों में नहीं होता!
 
मामला अक्सर झालर, पटाखें आदि में ही सिमट जाया करता है! जबकि सालाना हर योजनाएं, परियोजनाएं, निवेश, समझौते, ठेके आदि में चीनी कंपनियों की साझेदारी बढ़ती जा रही है। बिजली सेक्टर से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में भी चीन की मौजूदगी है। बिजली सेक्टर में चीन की एंट्री से कुछ तबकों में व्यापार संबंधी डर भी है। ग़ौरतलब है कि सुरक्षा की दृष्टि से चीनी उपकरणों के प्रयोग को भारत में हमेशा से संदिग्ध माना जाता रहा है। लेकिन इन सबके बावजूद भारत में इनका इस्तेमाल बढ़ा भी है!
 
मार्च 2017 के दौरान गुजरात के हालोल में जनरल मोटर्स का विवाद ख़ूब छाया रहा। अमेरिकी कार उत्पादक कंपनी जनरल मोटर्स इंडिया प्रा. लिमिटेड को 31 मार्च 2017 के बाद एक चाइनीज़ कंपनी टेकओवर करने वाली थी, जिसका नाम शंघाई ऑटोमोटिव इंडस्ट्रीज़ कॉर्पोरेशन था। बताइए, पिछले साल दीवाली में चीनी चीज़ों के बहिष्कार से क्या नतीजा निकला उसका कोई आँकड़ा तो नहीं आया था, लेकिन 2017 में चीनी कंपनियाँ भारत में निवेश को बढ़ा रही थीं! वो भी विवादों के साथ।
 
यहाँ विवाद यह था कि इस कंपनी ने प्रदेश सरकार को दरख़्वास्त भेजी थी, जिसमें तत्कालीन कामदारों को दरकिनार किया गया था। गुजरात में इससे पहले कई टेकओवर हो चुके थे, लेकिन ये शायद पहली दफा था कि बिना कामदारों के टेकओवर किया जा रहा हो। जनरल मोटर्स के एम्प्लॉइज़ यूनियन ने विरोध करते हुए कहा कि पूरे भारत में चीनी चीज़ों के बहिष्कार की योजनाएँ चलाई जाती हैं और दूसरी तरफ़ चीनी कंपनी के लिए लाल कालीन बिछाई जाती है! इन कामदारों का संघर्ष ख़ूब चला था।
 
इस बीच डोकलाम से लेकर गलवान विवाद को लेकर चीन तथा भारत के बीच संघर्ष का दौर बना रहा। फिर एक बार चीनी चीज़ों के बहिष्कार वाला आह्वान हुआ। सारी स्थितियाँ, आँकड़े और अन्य चीज़ें तो हमने पहले ही देख ली। लिहाज़ा उसे ध्यान में रखकर ख़ुद ही आगे बढ़े। इस दफा तो पिछले बायकॉट ड्रामा के मुक़ाबले ज़्यादा चौंकना था बहिष्कार करने वालों को। इस बार की कहानी बड़ी रोचक रही।
सबसे पहले सरकार से जुड़े आरएसएस ने लोगों से अपील की कि वे चीनी चीज़ों का बहिष्कार करें। फिर एक बार सोशल मीडिया के डीपी बदल गए! आँकड़े और ज़मीनी हक़ीकत से किसी को वैसे भी लेना-देना नहीं होता, क्योंकि हम भावनाप्रधान सभ्यता है। आरएसएस की इस अपील के बाद विपक्ष ने संघ से अपील कर दी कि आप अपनी सरकार से एकाध अपील यह भी करिए कि इस यज्ञ में वो भी साथ दें। संघ ने कोई अपील नहीं की। लेकिन सरकार को जवाब देना पड़ा, जो संघ की उस अपील के बिलकुल विपरित था!
 
इन दिनों डाटा हैकिंग को लेकर चीनी मोबाइल कंपनियों को सरकारी नोटिस दिया जा चुका था। सरकार ने इस नोटिस पर अपना पक्ष रखा और कहा कि, “ये डाटा हैकिंग और डाटा सुरक्षा से संबंधित विषय है, इसमें दूसरा कोई द्दष्टिकोण नहीं है।सरकार ने कहा कि, केवल चीनी कंपनियाँ ही नहीं, बल्कि कुछ भारतीय कंपनियों को भी नोटिस दिया गया है। इसे चीन-भारत के आर्थिक संबंधों से नहीं जोड़ना चाहिए।
 
आरएसएस, उससे जुड़े दूसरे संगठन तथा अनेक लोग चीन का बहिष्कार करने का आह्वान कर रहे थे। जिनकी सरकार थी उनसे जुड़े नेता लोग भी वही कर रहे थे। लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही थी, ना ही कह रही थी।
 
कुछ दिनों बाद सरकार ने एक और बयान जारी कर कहा कि, चीन के साथ सीमा विवाद के मद्देनज़र भारत में चीन के निवेश प्रस्तावों को सुरक्षा मंजूरी के नाम पर लंबित करने की सरकार की कोई योजना नहीं है।चीन की कंपनियों के भारत में निवेश प्रस्तावों पर भारत चीन सीमा विवाद के मद्देनज़र सुरक्षा मंजूरी देने की प्रक्रिया को धीमा करने के सवाल पर प्रवक्ता ने कहा कि, सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है। द्दश्य कुछ ऐसा उत्पन्न हुआ, जैसे कि आरएसएस की अपील को सरकार ने ही खारिज़ कर दिया हो!
 
वैसे 2020 में टिकटॉक, यूसी ब्राउज़र, हैलो, जेंडर जैसे चीन से संबंधित सैकड़ों ऐप्स बैन कर दिए गए थे। इन ऐप्स में एक ऐप वीबो भी था। नोट करें कि इस ऐप को स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तेमाल किया करते थे! पीएम मोदी ने 2015 में वीबो एकाउंट खोला था, जो वेरिफ़ाइड था और अब तक वहाँ उनके ढाई लाख फ़ॉलोअर्स थे। सोचिए, 2015 से 2020 के पाँच सालों तक कितनी माथापच्ची हुई चीनी चीज़ों को लेकर, किंतु पीएम मोदी का चीनी ऐप एकाउंट चलता रहा! उधर टिकटॉक बैन हुआ तो चीन के दूसरे ऐप, जो बैन नहीं हुए थे, जैसे कि स्नेक वीडियो और जिली ऐप्स, उसका इस्तेमाल बढ़ गया!
 
ईरान वाले चाबहार बंदरगाह को लेकर पिछले साल काफ़ी कुछ कहा जा चुका था। ईरान के साथ जब सहमति बनी, तब चीन को भारत की कड़ी टक्कर वाले टैगलाइन के साथ मीडिया कुद पड़ा। मीडिया का प्रसारण ऐसा था, जैसे कि चीन को किसी जंग में हरा दिया हो। लेकिन फिर जो हुआ तो उस समय मीडिया को साँप सूँघ गया। अगस्त 2017 के अंतिम दौर में एक ख़बर आई कि भारत ने चाबहार बंदरगाह की विकास परियोजना शुरू कर दी है। लेकिन सबसे बड़ा ट्विस्ट तो यह था कि इसके लिए भारत ने चीन की एक कंपनी को ही ठेका दे दिया था!!!

 
उच्चपदस्थ सूत्रों के हवाले से मीडिया में रपटें छपीं, जिसके मुताबिक़ भारत सरकार ने चाबहार बंदरगाह के विकास परियोजना में एक ठेका चीन की कंपनी को दिया था! एक दावे के अनुसार, चाबहार को विकसित करने के लिए जिस स्तर की क्रेन चाहिए, वह भारत के पास नहीं थी। यूरोपीय देशों के पास क्रेन ज़रूर थी, लेकिन ईरान पर प्रतिबंध के कारण यूरोपीय कंपनियाँ आगे नहीं आ रही थीं। हालाँकि विकल्प के तौर पर सिंगापुर की कंपनी भी थी, लेकिन नई दिल्ली ने इसके लिए बीजिंग की कंपनी को चुन लिया! जबकि इधर लोग चीनी चीज़ों के बहिष्कार की भावना के साथ फेफड़े फाड़े जा रहे थे!
 
इतना ही नहीं, सितंबर 2017 की शुरुआत में ही गुजरात से एक ख़बर आई। यहाँ सर्वशिक्षा अभियान के तहत सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे छात्रों को चाइनीज़ टैब (टैबलेट पीसी) देने की योजना सामने आई! सर्वशिक्षा अभियान के तहत प्रदेश में 70 प्राइमरी स्कूलों में एक योजना शुरू की गई थी, जिसके तहत यह टैब दिए जाने थे।
 
उसके बाद जब फिर एक बार चीन सीमा पर संघर्ष हुआ, तो फिर से बहिष्कार वाला उत्सव चलने लगा! इसके चलते डेढ़ साल तक गुजरात के 50 हज़ार छात्रों को टैबलेट नहीं मिल पाए। इन छात्रों में जीटीयू के भी छात्र थें। नोट करें कि इन टैब को नमो टैबलेट के नाम से पहचाना जाता है गुजरात में! मेड इन चाइना वाले स्वदेशी नमो टैब्स! इससे पहले चीनी टैब, जो गुजरात सरकार को मिले थें, उसमें से 70 हज़ार टैब ख़राब निकले थे! गुजरात सरकार इस टैब के लिए प्रति छात्र एक हज़ार रुपए लेती है।
बुलेट ट्रेन के सपनों के बीच जहाँ जापान की बात आती है, तो साथ में ख़याल यह भी रखना होगा कि चेन्नई-दिल्ली बुलेट ट्रेन परियोजना का ठेका चीन को ही मिला था!
 
नीलसन द्वारा किया गया एक सर्वे छपा था, जिसे नोट करना ज़रूरी है। यह सर्वे एलईडी बल्ब पर किया गया था। सर्वे में एक जगह ज़िक्र था कि देशभर में चीन से चोर रास्ते से मंगाए गए सस्ते बल्ब ज़्यादा बिक रहे थे! अब आप यह कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं कि झालर में यह एलईडी बल्ब इस्तेमाल नहीं होते! ये तो घरों में रोशनी और ऊर्जा बचाने हेतु इस्तेमाल होते हैं!!
 
आत्मनिर्भर वाला नारा भी ख़ूब चला 2019-20 के दौरान। किंतु भास्कर के रिपोर्ट की माने तो आत्मनिर्भर की बातें करने वाले गुजरात भाजपा के नेता ही चीनी ऐप इस्तेमाल किया करते हैं! गुजरात के प्रदेश प्रवक्ता चीनी चीज़ों से दूर रहने का प्रवचन देते हैं, किंतु राज्य के मंत्री, राज्य के भाजपाई नेता, राज्य की पुलिस तक चीनी प्लेटफॉर्म का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया करते हैं!
 
दूसरी तरफ़ पश्चिम बंगाल बीजेपी के नेता जॉय बनर्जी कहते हैं कि जो लोग चीनी उत्पाद इस्तेमाल करते हैं उनकी टाँगें तोड़ दो, उनके घरों में तोड़फोड़ करो। बेचारे लठैत अपनों को कैसे मारेंगे? वैसे भी नारा होता है आत्मनिर्भर भारत का और उसमें मटेरियल होता है चीन का! किंतु अब नागरिकों ने भी नेताओं जितना ही निठल्लापन प्राप्त कर लिया है।
 
उधर वीवो कंपनी आईपीएल स्पॉन्सरशीप से हटी और वहाँ टाटा आई। किंतु बीसीसीआई के साथ वीवो का अनुबंध पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ था। बाद में कबड्डी के खेलों में वीवो मुख्य स्पॉन्सर बन गई!
 
कौन सी चीज़ों का बहिष्कार करें और कब तक करें? देश में प्रमुख बिकने वाले 5 स्मार्ट मोबाइल ब्रांड में से 4 चीन से हैं। उधर ऐप मार्केट में चीन का हिस्सा 40 फ़ीसदी है। दवाओं के उत्पादन में रो मटेरियल पर भारत चीन के ऊपर निर्भर है। इस संबंध में हर साल 65 फ़ीसदी से ज़्यादा रो मटेरियल चीन से ख़रीदा जाता है। और यह आँकड़ा नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्री ने लोकसभा के भीतर दिया था। थिंक टैंक गेट वे हाउस की माने तो, यूनिकॉर्न क्लब में शामिल 30 स्टार्टअप्स में से 18 चीन के हैं। फिक्की रिपोर्ट के मुताबिक़ 45 फ़ीसदी इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स और 27 फ़ीसदी ऑटो पार्ट्स चीन से आते हैं। स्मार्ट टीवी का मार्केट हो, टेलीकॉम सेक्टर हो, होम अप्लायंसेज़ हो, सोलार ऊर्जा हो, इंटरनेट हो, स्टील हो, फ़ार्मा हो, चीन का हिस्सा 25 फ़ीसदी से लेकर 75 फ़ीसदी तक पहुंचता है।
 
2020 में चीन के साथ गलवान घाटी में तनातनी के बीच महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार ने चीन की ग्रेट वॉल मोटर्स (जीडब्ल्यूएम) कंपनी के साथ एक अरब डॉलर, यानी 7,600 करोड़ रुपये से अधिक का क़रार किया था! विवाद बढ़ा तो फिर महाराष्ट्र सरकार ने इस समझौते को स्थगित कर दिया।
 

हमें यह भी पता होना चाहिए कि भारतीय सैनिकों के बुलेट प्रूफ़ जैकेट में भी चीनी मटेरियल लगता है, और इसकी इजाज़त नरेंद्र मोदी सरकार ने भी दी हुई है! सत्यहिंदी रिपोर्ट के मुताबिक़, भारतीय सैनिकों के लिए बुलेट प्रूफ़ जैकेट और दूसरे ऐसे सुरक्षा उपकरण बनाने वाली कंपनियाँ इसके लिए कच्चा माल चीन से ही ख़रीदती हैं! उन दिनों रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा था कि सेना के लिए प्रोटेक्टिव उपकरण में चीन से आयातित कच्चे माल या उपकरण के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाई गई है।
 
2020 के सरकारी रिपोर्ट के अनुसार अकेले गुजरात राज्य में ही इस साल 38 हज़ार करोड़ के पार्टस मंगाए गए थे। 2019 के मुक़ाबले इस साल क़रीब 34 फ़ीसदी ज़्यादा! सरहदी विवाद के बीच पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना ने आईसीआईसीआई बैंक में 15 करोड़ रूपये का निवेश कर दिया था! जो संघ पहले चीनी उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए सार्वजनिक आह्वान किया करता था, उसी संघ के मोहन भागवत कुछ महीनों में पल्टी मार कहते हैं कि स्वदेशी का अर्थ यह नहीं है कि हर विदेशी उत्पाद का बहिष्कार करने किया जाए। वैसे भी संघ पल्टी मारने में दशकों से पारंगत है।
बायकॉट का ये प्रोपेगेंडा मौसमी बहुत है। कुछ मौसम में ऐसे चल पड़ता है, जैसे कि दूसरे दिन देश से चीन का माल हट जाएगा। गो कोरोना गो जैसी अतिविशिष्ट समझ रखने वाले नेताओं के पास वैसे ही विशेषज्ञ समर्थक होते हैं। चीनी उत्पाद और चीनी व्यंजनों तक का बायकॉट होने लगता है! देशभक्ति कम और दिवालियापन ज़्यादा दिख जाता है। चीनी सामानों की होली, सोशल मीडिया पर स्वनिर्भरता के उपदेश, समेत बहुत कुछ चल जाता है कुछ दिनों तक। उसके बाद क्या? अरे भाई, और भी दुख हैं ज़माने में!
 
वैसे चीन के साथ सीमाओं पर तनातनी के बीच रेलवे में एकाध चीनी कंपनी के साथ समझौता रद्द करने की बात सामने आई थी। भारतीय सैना के लिए उपकरणों में चीन से आने वाले रो मटेरियल को कम और फिर धीरे धीरे बंद करने का सरकारी वादा भी सामने आया था। कुछ राज्यों में कुछ कामों में चीन की कंपनियों को किनारे करने की बातें भी सामने आई थीं। किंतु यह सब चीज़ें तनातनी के दौर में कही जाती है। लेकिन अंत में कुल मिलाकर चीन के साथ क़रार, व्यापार, समझौते होते ही रहते हैं। वे बंद नहीं होते।
 
2020 का साल कोरोना महामारी का साल था। कथित रूप से यह महामारी चीन से आई थी। गलवान घाटी संघर्ष की तनातनी और चीनी बहिष्कार का ये दौर था। इस बीच गुजरात के अहमदाबाद में सिविल अस्पताल, तथा राजकोट और सूरत शहर के सरकारी कोविड सेंटर्स के लिए चार मशीन ख़रीदे गए। चारों मशीन चीन से ख़रीदे गए थे!
 
भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक़, इसके लिए 7 मई, 2020 को गुजरात सरकार ने बाक़ायदा इसका ऑर्डर दिया था और यह मशीन ब्लड सेल काउंट के लिए थे, जो चाइना की माइंड्रे कंपनी से ख़रीदे गए थे। नोट करें कि ब्लड सेल काउंट मशीन भारतीय कंपनियाँ भी बनाती हैं। किंतु सरकार ने सोचा होगा कि कोरोना वायरस चीन से आया, तो फिर मशीन भी चीन से ही आएँगे!
 
2020 में सैकड़ों प्रमुख चीनी ऐप्स बंद हुए, किंतु तब सरकार ने स्वयं ही कहा था कि इसका संबंध केवल डाटा सुरक्षा को लेकर है, चीन-भारत के आर्थिक संबंधों को लेकर नहीं है। हाल के समय में ऑनलाइन पेमेंट की दुनिया में चीन का पेटीएम धड़ल्ले से भारत में चल रहा है! पेटीएम के अलावा स्नैपडील, स्विगी उड़ान, जोमैटो, बिग बास्केट, बाईजूस, डेल्हीवेरी, फ्लिपकार्ट, हाइक, मेकमायट्रिप, ओला, ओयो, पॉलिसी बाज़ार, अलीबाबा, टेंसेंट जैसी चीनी कंपनियाँ भारत के बाज़ार में प्रमुख खिलाड़ी हैं।
 

पिछले एक दशक से साल दर साल भारत के भीतर चीनी कंपनियों का निवेश और काम बढ़ता ही गया! है न कमाल का बायकॉट! स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट, टेक्सटाइल प्रोजेक्ट, इंडस्ट्रियल पार्क, आदि में जमकर चीनी निवेश हुआ है। झारखंड में 2020 के दौरान अदाणी पावर प्लांट में चीनी कंपनी सेप्को थ्री (एसटीजी) के निवेश की ख़बरें आई थीं। यहाँ प्लांट के आसपास जो मशीनें थीं, उसके ऊपर लिखा था- मेड इन चाइना टू इंडिया।
 
लोग दलील देते हैं कि अगर हमें चीनी सामान नहीं ख़रीदना है तो हम व्यापारियों के माल का विरोध क्यों करते हैं? सरकार की आयात नीति का ही विरोध क्यों नहीं कर लेते? दरअसल व्यक्तिगत बहिष्कार करने वाले अपने तौर पर विरोध करते हैं, और उनका मक़सद कुछ अलग और सरल सा है। इसलिए वे इस तर्क से दूर रहते हैं। जो आयोजित विरोध में झुटे हैं, उनके पास तो अपना ख़ुद का तर्क है नहीं! इसलिए वे सरकारी कमिटमेंट का तर्क देकर मामले को ज़्यादा हास्यास्पद बना देते हैं। जैसे कि सरकारों को ख़रीदना ज़रूरी है और हमें विरोध करना ज़रूरी है!!!
हमारे पास देशप्रेम दिखाने के लिए अन्य तरीक़े भी हैं। हमारे पास अपनी व्यवस्थाओं को ठीक करने के मौक़े भी हैं, हम वहाँ उतने प्रयास नहीं करते! विशेषज्ञों के मुताबिक़, चीन से प्रतिस्पर्धा करनी है तो इन विरोधों से नहीं होगी। बल्कि इसके लिए हमें अपने बेसिक्स पर काम करना होगा। जानकार बताते हैं कि हमें बहिष्कार से ज़्यादा ज़रूरत तो हमारी कमियाँ दूर करने की है। हमारा एजुकेशन सिस्टम, हमारी यूनिवर्सिटी का स्तर, हमारा मेडिकल ढाँचा, से लेकर हर उस मामले को देखने की ज़रूरत है। कुपोषण, ग़रीबी, रोजगारी, कौशल, प्लेसमेंट से लेकर हर उस मामले पर इतना मुखर होने की ज़रूरत है, जो ज़्यादा फ़ायदेमंद है।
 
दरअसल हमारे समाज में जिसे हमारा दुश्मन माना जाता है, उसीकी हर चीज़ का बहिष्कार करने का चलन या संस्कृति अरसे से स्थायी है। मुसलमानों के अतिक्रमण का विरोध होता है, जबकि हिंदू संप्रदाय से जुड़े लोगों का अतिक्रमण गाँव गाँव या शहर शहर को देखे तो उनसे कम भी नहीं है! उनके द्वारा किए जा रहे वॉइस पॉल्यूशन को न्यूसेंस माना जाता है, जबकि हमारे द्वारा फैलाए जा रहे वॉइस पॉल्यूशन की मात्रा उनसे कम नहीं होती! चीन का विरोध होता है, जबकि हमारी निर्भरता दूसरे देशों पर भी कम नहीं है।
 
राजनीति भावना का फ़ायदा उठा लेती है। मुद्दों का समाधान उसकी प्राथमिकता नहीं होती। दूसरी तरफ़ समाज के भीतर दूसरों पर निर्भरता का तत्व भी ठूंस-ठूंसकर भरा पड़ा है। किसी एक जाति को चुनाव का टिकट नहीं मिलता, किंतु उससे नुकसान कम या किसी प्रकार का फ़ायदा मिलने की संभावना हो, तब दूसरी जाति उस जाति के उम्मीदवारों को चुपचाप सपोर्ट कर देती है! कूटनीति का तत्व समाज के भीतर सदैव ज़िंदा रहता है। तो फिर देश जैसे विशाल फ़लक के ऊपर वो चिरंजीवी रहेगा ही।
 
चीन पर निर्भरता कैसे कम हो सकती है उसका जवाब चीन का आर्थिक इतिहास स्वयं ही दे देता है। जापान और चीन के रिश्ते इस समस्या का बेहतरीन उदाहरण है। आगे मुँह रखकर बायकॉट प्रोसेस को हरी झंडी देना और पीछे मुँह करके उन्हीं के साथ समझौते करना। इस राजनीति से किसीका भला होता होगा, तभी तो राजनीति यह प्रवृत्ति करती रहती होगी। रही बात निर्भरता की। इस प्रवृत्ति से निर्भरता का पात्र बदलेगा, आत्मनिर्भरता का अवतरण नहीं होगा।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)