स्वामीनारायण संप्रदाय के ताज़ा विवाद और फिर आरोप-प्रत्यारोप के ग़ज़ब मंज़र को देखकर
उन निष्पक्ष इतिहासकारों की उस बात को वज़न मिलता है, जिसमें अनेक निष्पक्ष इतिहासकारों ने लिखित रूप से, तथ्यों- तर्कों- साक्ष्यों के साथ कहा है कि भारत का धार्मिक
इतिहास अलग अलग युग के शासकों व धार्मिक सत्ताओं द्वारा अपने तरीक़े से, अपनी मान्यताओं और अपनी योजनाओं व अपनी ज़रूरतों के हिसाब से
लिखी गई नवलकथा सरीखी किताबें ही हैं। विवादों से चोली-दामन का रिश्ता रखनेवाला स्वामीनारायण
संप्रदाय और उनके द्वारा निर्मित अविरत विवाद, विवाद के बाद उनके तर्क और बयान, यह सब मंज़र देखकर एक ऐसा मत बनने जा रहा है कि ये संप्रदाय हिंदू
संप्रदाय पर अतिक्रमण करने की ठान कर चल रहा है।
किसी संप्रदाय के आराध्य
देव का, उस आराध्य देव के धार्मिक आभामंडल और व्यापकता
का खुलकर इस्तेमाल करके आप स्वयं फ़ाइव स्टार से लेकर सेवन स्टार तक की आलिशान इमारतों
में वैभवी और ज़मीं पर जन्नत जैसा जीवन कैसे जी सकते हैं, उसका अभ्यास करना हो तो गुजरात में स्वामीनारायण संप्रदाय से
बढ़कर कोई दूसरा मंच हो नहीं सकता। उस आराध्य देव की कृपा जबरन ही सही, किंतु जबरन ही लेकर आप लाखों-करोड़ों लोगों पर कृपा करने लायक
रुतबा हाँसिल कर पाते हैं।
श्री कष्टभंजन देव
हनुमानजी मंदिर, सालंगपुर में जिस तरह से इन दिनों जमकर बवाल काटा गया, स्वामीनारायण संप्रदाय
का अहंकारी लहज़ा और तरीक़ा, विवादित पुस्तकें, आदी फिर याद किए जाने लगे हैं। फ़िलहाल तो असीमित पैसा, विशाल अनुयायी गण और
इसके चलते सत्ता से क़रीबी, इन तीनों का चक्र इस संप्रदाय को तमाम चक्रव्यूह
से बाहर निकालते नज़र आते हैं।
नोट करें कि
स्वामीनारायण संप्रदाय ने तो ताज़ा कारनामा किया उसमें भी, तथा अपने पूर्व कारनामों
में भी, किसी स्वामीनारायण स्वामी या प्रतिनिधि को पुलिस थाने तक जाना नहीं पड़ा।
जबकि ताज़ा विवाद के बाद विरोध करने वाले दो हिंदू धार्मिक प्रतिनिधियों को पुलिस
थाने जाना पड़ा है। वैसे एक बात नियम या क़ानून लागू कराने वालों को साफ़ कर देनी चाहिए
कि घार्मिक भावना या सद्भाव बिगाड़ने को लेकर जितने नियम, क़ानून हैं, उसकी ट्रीटमेंट बेचारे लोगों पर ही होगी, बड़े लोगों को स्पेशल
ट्रीटमेंट दी जाएगी।
स्वतंत्रता से पहले और स्वतंत्रता के बाद स्वामीनारायण संप्रदाय से संबंधित ऐसी
दो घटना, जो बहुत कुछ समझा सकती हैं... सरदार पटेल का तंज़ और मकरंद मेहता का वो लेख
दशकों पुरानी एक रचना
है, किसकी है पता नहीं। रचना है - पंडित को पूरब भलो, ज्ञानी को पंजाब। कर्मकाँडी को दख्खन भलो, ढोंगी को गुजरात। गुजरात के जनमानस में बचपन से एक फ़िक़रा देखा
है। गुजरात में लोग दशकों से धड़ल्ले से बोलते हैं कि साधु होना है तो स्वामीनारायण
के हो लीजिए, वर्ना न हो।
यूँ तो नारायण यानी
स्वयं श्री भगवान विष्णु। हिंदू संप्रदाय के पुराणों और घार्मिक ग्रंथों के मुताबिक़ भगवान विष्णु स्वयं, और उनके जो भी अवतार हैं, श्री राम का अवतार हो या श्री कृष्ण का, वे अपने आराध्य देव स्वयं शिव को बताते हैं। इसे लेकर एक बार
इस संप्रदाय के नाम को ही विवादित बताते हुए कहा गया था कि स्वामीनारायण - स्वामी ख़ुद
ही स्वयं नारायण हो नहीं सकता, और स्वयं नारायण का शिव के सिवा दूसरा कोई
स्वामी है नहीं।
गुजरात के प्रसिद्ध
इतिहासकार मकरंद मेहता ने वर्ष 1987 में स्वामीनारायण संप्रदाय को लेकर एक लेख लिखा था। इस लेख के चलते उन पर मामला
दर्ज हुआ था, जो 2017 तक लंबित था। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश शाह के मुताबिक़ मकरंद मेहता ने
जो लिखा था उसके लिए उनके पास मज़बूत और पुख़्ता आधार थे। मकरंद मेहता के उस लेख के मुताबिक़ सहजानंद स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा था कि वे लोग उनकी अधिक से अधिक प्रशंसा करें, ताकि हर जगह उनकी महिमा स्थापित हो सके। बकौल मकरंद मेहता, स्वामी ने अपने कथित चमत्कारों का जमकर महिमामंडन हो इसके लिए
अपने शिष्यों को निर्देश दिए थे।
प्रकाश शाह के एक अतिगंभीर
आरोप के मुताबिक़ स्वामीनारायण संप्रदाय और अंग्रेज़ों के बीच समझौता था और उस समझौते
के मुताबिक़ वे एकदूसरे की मदद किया करते थे। यह बात 7 दिसंबर 2017 के दिन बीबीसी गुजराती
के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी छपी थी, जिसे बीबीसी गुजराती के संवाददाता रजनीश कुमार
ने संपादित किया था। प्रकाश शाह रेफरेंस के साथ कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के
दौरान महात्मा गाँधी और सरदार पटेल, दोनों का मानना था कि स्वामीनारायण संप्रदाय
के लोग धर्म के नाम पर पागलपन को बढ़ावा दे रहे हैं।
इतिहास में एक पुख़्त घटना का ज़िक्र मिलता है, जिसका सीधा संबंध भारत के लौहपुरुष सरदार
पटेल से है। सरदार पटेल के पिता झवेरभाई स्वामीनारायण संप्रदाय में बहुत मानते थे।
राजमोहन गाँधी की एक किताब में सरदार पटेल और स्वामीनारायण संप्रदाय को लेकर एक दिलचस्प
वाक़ये को लिखा गया है। सरदार वल्लभभाई पटेल भाग-1 नामक गुजराती किताब,
जो नवजीवन प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद की तरफ़ से प्रकाशित हुई है
तथा नरहरी डी. परीख द्वारा लिखी गई है, उसमें भी यह घटना दर्ज है।
किताब में लिखा गया
है कि उन दिनों झवेरभाई जिन्हें बहुत मानते थे उस यज्ञपुरुषदास स्वामी ने वड़ताल से
अलग बोचासण में अक्षर पुरुषोत्तम नाम से एक अलग धारा को स्थापित कर दिया। इसके चलते
दो अलग अलग धारा स्थापित हो गईं। इसका परिणाम यह आया कि उन दिनों जमकर बवाल मचा। मामला
क़ानून तक पहुंचा। यज्ञपुरुषदास स्वामी पर वारंट निकला। ख़ुद को संसार का उद्धारक बताने
वाले स्वामीजी अपने लिए कोई दूसरा उद्धारक ढूंढने लगे!!!
झवेरभाई स्वामी की
मदद करने के लिए निकल पड़े। वे पहुंचे अपने बैरिस्टर बेटे वल्लभभाई के पास। बोरसद ज़िले
में वल्लभभाई का बहुत बड़ा नाम हो चुका था। झवेरभाई ने बेटे से सीधे सीधे बात कह दी, “पूरे ज़िले में तेरा नाम चल रहा है और इधर महाराज पर वारंट निकल आए? यह ठीक है? तूँ हैं तो फिर पुलिस महाराज को गिरफ़्तार
कैसे कर सकती हैं?”
स्वामीजी पर वारंट
को लेकर पिता की बात सुनकर वल्लभभाई ने तंज़ कसा, “महाराज पर वारंट कैसा? वे तो पुरुषोत्तम भगवान का अवतार हैं। हम सभी को इस जीवन चक्र
से छुड़ाने वाले भगवान। उन्हें भला कोई कैसे पकड़ सकता है?”
पिता झवेरभाई गंभीर
थे। तंज़ को नज़रअंदाज़ कर बोले, “फ़िलहाल मज़ाक मत कर। मुझे पक्का पता है कि वड़ताल और बोचासण वालों के बीच मंदिर
के कब्ज़े को लेकर कुछ हुआ है और इसीलिए महाराज पर वारंट निकला है। तुझे ये वारंट निरस्त
कराना चाहिए। महाराज को गिरफ़्तार किया जाता है तो हमारी इज़्ज़त को धक्का पहुंचेगा।”
“हमारी इज़्ज़त को क्यों धक्का लगेगा? कोई करम ही ऐसे करेगा तो उसकी इज़्ज़त जाएगी, हमारी नहीं।” वल्लभभाई झिझक पड़े। वे आगे बोले, “वारंट निकला है तो वजह भी होगी।”
पिता मान नहीं रहे
थे, वल्लभभाई की बात को अनदेखा किए जा रहे थे और अपना आग्रह किए जा रहे थे। सरदार पटेल
उन्हें आश्वासन देकर बात को ख़त्म करते हुए कहते हैं, “बड़े काका, आपको अब इन साधुओं
से छुटकारा पा लेना चाहिए। प्रपंच करें, एकदूसरे से झगड़ा करें, अदालतों में चले जाएँ। जो अपना भला नहीं कर सकते वे हमें इस
जन्म का सागर कैसे पार कराएँगे?”
अहमदाबाद में सन 1920 में छात्रों के समक्ष
सरदार पटेल ने ‘बाबा बिज़नेस’ को लेकर जो बात कही थी उसे आज की आधुनिक पीढ़ी को समझनी चाहिए। सरदार पटेल ने असहकार
आंदोलन के समय सार्वजनिक रूप से छात्रों को कहा था, “इस देश के छप्पन लाख
बाबा, जो भगवा पहनकर निकल पड़े हैं, सारे के सारे कोई मेहनत नहीं करते, कोई काम नहीं करते। फिर भी वे भूखे नहीं मरते। किसी ने सुना
क्या कि कोई बाबा खाली पेट मर गया?”
लंबी अवधि से विवादों से ग़हरा रिश्ता रहा है स्वामीनारायण संप्रदाय का, स्वामीनारायण संप्रदाय हिंदू संप्रदाय और
मान्यताओं पर अतिक्रमण कर रहा है? संप्रदाय की किताबों के अतिक्रमण वाले हिस्से और विवादास्पद वाणी विलास पर एक नज़र
सालंगपुर हनुमानजी
मंदिर का ताज़ा विवाद... बता दें कि स्वामीनारायण संप्रदाय का हिंदू धर्म के देवी-देवताओं
पर यह पहला अतिक्रमण नहीं है। वे इससे पहले स्वयं श्री शिव, श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री राम से लेकर तमाम हिंदू देवता और देवियों के बारे में भी
आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं।
स्वामीनारायण संप्रदाय
दूसरों के साथ नहीं बल्कि हिंदू संप्रदाय और उनकी मान्यताओं के साथ इससे पहले भी अनेक
बार उलझ चुका है। स्वयं श्री शिव, श्री ब्रह्मा, श्री नारायण, श्री राम, श्री हनुमानजी, इंद्र देव, तमाम हिंदू देवियाँ, ये संप्रदाय इन तमाम बातों में अतिविवादित
रूख अपना चुका है और ग़ज़ब के दावे भी कर चुका है। स्वयं श्री शिव उनके स्वघोषित भगवान
के चरण छूने आते हैं, श्री राम के बारे में आपत्तिनजक टिप्पणी, नारायण नाम से विवाद, हिंदू संप्रदाय के तमाम माताजी श्रीजी महाराज
की वजह से हैं, आत्मा को लेने यम नहीं उनके स्वामी आते हैं, और न जाने क्या क्या!!!
शिव-ब्रह्मा और विष्णू
के भी भगवान हैं स्वामीनारायण, ये वाला विवादित वीडियो हो या दूसरे मामले
हो, हिंदू धर्मग्रंथों को मरोड़ना, बदलना, अपने तरीक़े से प्रसंग
डालना और अपनी नवलकथा सरीखी कहानियों को धार्मिक इतिहास बताना, इनकी सूची बहुत लंबी है। एक दावे की माने तो 150 से ज़्यादा बार इन्होंने
हिंदू संप्रदाय और हिंदू मान्यताओं पर अतिक्रमण किया है और विवाद उत्पन्न किए हैं।
स्वामीनारायण संप्रदाय
के इन कारनामों की वजह से एक मत यह भी बन रहा है कि विधर्मी लोगों ने तो केवल हिंदू
मंदिरों और प्रतीकों को ही तोड़ा था, ये लोग तो हिंदू ग्रंथों, हिंदू मान्यताओं, हिंदू शास्त्रों और हिंदुओं के इतिहास तक
को तोड़ रहे हैं! स्वामीनारायण संप्रदाय की इस अतिक्रमण वाली प्रवृत्ति को सदियों पहले
हुए अतिक्रमण से भी ख़तरनाक प्रवृत्ति मानने वाले एक वर्ग का निर्माण होने जा रहा है।
दरअसल स्वामीनारायण
संप्रदाय के इस अतिक्रमण वाले स्वभाव का मूल उनके अपने ग्रंथों में है। यूँ तो हिंदू
धर्म में नीलकंठ स्वयं श्री शिव हैं। किंतु यहाँ वे अपने एक संत को नीलकंठी नाम देकर
अतिक्रमण की शुरुआत करते हैं!
उनके संप्रदाय की कुछ
पुस्तकें, सर्वोपरि श्री स्वामीनारायण भगवान भाग 1 और भाग 2, नीलकंठ चरित्र, छपैयापुरे श्रीहरि बालचित्र, श्री भूमानंदस्वामी कृत श्री हरिलीलामृत ग्रंथ, सत्सगं विहार भाग 2, सहजानंद चरित्र जैसी पुस्तकों में ऐसी ऐसी
काल्पनिक कहानियाँ हैं, जिसे पढ़ने या सुनने के बाद जिस सनातन धर्म
और उसके वेद या ग्रंथों व पुराणों को समग्र भारत वर्ष का आधार बताया जाता है उस पर
आघात होंगे।
इन पुस्तकों में श्री
शिव, श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री विष्णु के अनेक अवतार जैसे कि श्री राम-श्री कृष्ण, श्री हनुमानजी, इंद्र देव तथा हिंदू
संप्रदाय में जिनका वर्णन किया गया है वे तमाम देवियाँ तथा माताजी, तमाम के ऊपर स्वामीनारायण
के एक संत या एक से अधिक संतों को दर्शाया गया है!!! ऐसी ऐसी कहानियाँ रची गई हैं, जिसमें समग्र हिंदू
देवों और देवियों को इनके संतों के आगे नतमस्तक दिखाया गया है! इन शोर्ट, इन्होंने अपने लंबे
काल में चुपके से ऐसे ऐसे ग्रंथ, ऐसी ऐसी कहानियाँ बना कर रखी हैं, जिसमें तमाम हिंदू मान्यताओं को चुनौती दी जा सकें। ऐसे ऐसे उदाहरण और घटनाएँ हैं, जिससे उनके संप्रदाय के एक प्रतिनिधि को समग्र ब्रह्मांड का
असली अधिपति, असली नाथ, असली ईश्वर दर्शाया गया है!!!
और इस बारे में गुजरात
के लोकल अख़बार दिव्य भास्कर ने इन्हीं दिनों विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित की है। हम
यहाँ उसका हिंदी अनुवाद पेश करते हैं।
पुस्तक संख्या-1: सर्वोपरि स्वामीनारायण
भगवान भाग-1 एवं भाग-2
(शिव और पार्वती को वर्णिराज की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ, जूनागढ़ में शिव को वर्णिराज ने स्थापित किया, शिव को वरदान दिया, चंद्रमा को मुक्ति शिव नहीं दिला पाएँ तो वर्णिराज ने चंद्र को मुक्ति दिलवाई, स्वामीनारायण के स्वामी को सर्वोपरि और अनंत ब्रह्मांडों का
नाथ बताया)
मणिनगर स्वामीनारायण
गादी संस्थान द्वारा प्रकाशित और सद्गुरु शास्त्री सर्वेश्वर दासजी द्वारा लिखित सर्वोपरि
श्री स्वामीनारायण भगवान खंड -2 वन विचरण पुस्तक का पहला संस्करण 2015 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक के पृष्ठ 224 पर पार्वती सेवा से लाभ नामक अध्याय है।
यह अध्याय वर्णिराज
के एक घने जंगल में अकेले भटकने से शुरू होता है। इसके बाद आगे पढ़ने के लिए मिलता
है कि ठीक इसी समय एक संयोग घटित हुआ। कैलाशपति शिवजी और पार्वती उत्तर प्रदेश में
घूमते हुए छपैया भूमि पर आएँ। वहाँ नारायणसर के निकट शिवजी भूमि पर उछलने और कूदने
लगे।
यह देखकर पार्वतीजी
ने पूछा, “हे पतिदेव! आप क्या कर रहे हैं? आप यहाँ क्यों घूम और कूद रहे हैं?”
शंभू महादेव ने समझाया, “अनंत ब्रह्मांडों के
नाथों ने यहाँ खेला है, इसलिए इस भूमि की मिट्टी सर्वोच्च तीर्थ बन
गई है।”
“किंतु पतिदेव, यह तो बताइए कि यह कब की बात है?”
“अरे सती, अभी हाल ही की बात है।”
“तो बताइए, आपने दर्शन कब किए?”
“यहाँ नारायणसर में उस भगवान की माता भक्तिदेवी उन्हें स्नान कराती थीं, उस समय ब्रह्मा और विष्णु के साथ मैं भी दर्शन के लिए आया था।”
“पति देव, आप मुझे छोड़ कर गए यह अच्छा नहीं है। हमारे प्रत्येक धर्मग्रन्थ में लिखा है कि
जो भी व्रत, यज्ञ, तीर्थ आदि हों, पति को पत्नी के साथ जाना चाहिए। आप उसका पालन क्यों नहीं करते? आपको यह शोभा नहीं
देता। अब अगर आप मुझे छोड़कर अकेले चले जाएँगे तो नतीजा अच्छा नहीं होगा और आपको पछताना
पड़ेगा। अब बताइए तो सही कि वह अब कहाँ हैं?”
“फ़िलहाल तो वह यहाँ नहीं है। वे असंख्य प्राणियों के कल्याण हेतु संपूर्ण भारतवर्ष
में विचरण कर रहे हैं।”
“तो ज़ल्दी चलिए, मुझे उनके दर्शन कराइए।”
इस तरह दर्शन की उत्कंठा
से शंकर और पार्वती नंदी पर सवार होकर ज़ल्दी से इस स्थान पर पहुंचे। दोनों ने सन्यासी
के वस्त्र पहने हुए थे। वर्णिराज की कृषमूर्ति देखकर वे दोनों आश्चर्यचकित हो गए। अरे!
अनन्त ब्रह्माण्डों के नाथ की यह स्थिति?
उन्होंने वर्णिराज को प्रणाम करते हुए कहा, “हे भगवन्! आप अकेले किस तरफ़ विचरण कर रहे हैं?”
दोनों की मनोदशा देखकर
वर्णिराज ने उनकी ओर देखा। उन दोनों ने वर्णिराज को प्रणाम करके कहा, “हे भगवन्! आप अकेले
किस तरफ़ विचरण कर रहे हैं? आप अपने पास किसी सेवक को नहीं रखते? तपस्या से आपका कोमल शरीर कितना क्षीण हो गया है! आप भूखे होंगे।”
यह कहते हुए पार्वती
ने अपने पास मौजूद एक गठरी को खोला, उसमें से सातव (भुना हुआ आटा) और नमक निकाला और वर्णिराज को दिया। वर्णिराज ने
पूछा, “आप कौन हैं?”
दोनों ने कहा, “आप पाँच पाँच दिनों
से भूखे हैं, इसलिए हम आपकी सेवा के लिए यह छोटा सा उपहार लाए हैं।”
वर्णिराज कहते हैं, “पहले यह बताओ कि आप
कौन हैं? हम किसी अजनबी का खाना नहीं खाते।”
शंकर कहते हैं, “हे सर्वज्ञ भगवान!
आप सब कुछ जानते हैं फिर भी पूछते हैं, इसलिए मैं बताता हूँ कि मैं कैलासवासी शिव
हूँ और यह पार्वती हैं।”
वर्णिराज ने सातव को
जल में मिला लिया और शालिग्राम को अर्पण कर स्वयं स्वीकार किया। शंकर-पार्वती की सेवा
से प्रसन्न होकर वर्णिराज ने वरदान दिया कि हम आपको सेवा में रखेंगे। उस वचन के अनुसार
जूनागढ़ मंदिर में शंकर और पार्वती को स्थापित किया है।
सद्गुरु शास्त्री श्री
सर्वेश्वरदासजी स्वामी सर्वोपरि श्री स्वामीनारायण भगवान खंड-1 बाललीला के पृष्ठ
59 पर अध्याय 'चंद्र आव्यो दर्शन
काजे' में लिखते हैं कि शरद पूर्णिमा की रात थी, चंद्रमा सोलह कला में खिला हुआ था। उस रात
भक्तिमाता, धर्मदेव तथा अन्य परिजन घर के आँगन में बैठे
थे। बाल प्रभु अपनी माँ की गोद में बैठे थे। चंद्रमा दूधिया धवल चाँदनी बिखेर रहा था।
बाल प्रभु ने चंदा मामा को आकाश में घूमते हुए देखा।
यह बच्चे की स्वाभाविक
प्रवृत्ति है कि वह जो कुछ भी देखता है उसके साथ उसे खेलने का मन होता है। बालप्रभु
ने अपना स्वाभाविक भाव दिखाते हुए सोचा कि मुझे सचमुच इस चम्मच, छोटी सी प्लेट जैसे
खिलौने की आवश्यकता है। अपनी मीठी भाषा में बोलते हुए और अपने दाहिने हाथ की उंगली
से इशारा करते हुए कहने लगे, “माँ, इसे मेरे पास लाओ।”
बाल प्रभु के दर्शन
की इच्छा तो स्वयं चंद्रमा को भी थी। दूर से तो दर्शन हो गए थे, लेकिन पास आने का मौक़ा नहीं मिला था। परमेश्वर की इच्छा के बिना कोई कैसे निकट आ सकता है? बाल प्रभु ने उनकी
इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया। इसीलिए उन्होंने अपनी माँ से कहा, "माँ, मुझे चन्द्र ला दीजिए।"
भक्ति माता कहती हैं, “वह हमारे पास नहीं
आएगा। वह आकाश में घूमता है। हमारे बुलाने पर भी वह नहीं आएगा।”
“क्यों नहीं आएगा? हम बुलाएँगे तो ज़रूर आएगा। आपको बुलाना नहीं
है इसलिए मना कर रहे हैं। मुझे चन्द्र चाहिए ही चाहिए।”
यह सुनकर माँ परेशान
होने लगी और बोलीं, “हम उसे बुलाते हैं तो वह नहीं आता। अब आप खेलना चाहते हैं तो आप बुलाएँ। देखे तो
सही कि वह आता है या नहीं?”
पुस्तक में आगे
लिखा है कि जिस भगवान की इच्छा से ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति और स्थिति और विनाश होता
है, इन्द्र, शेषजी आदि बड़े-बड़े देवता जिनकी आज्ञा को शिरोमान्य मानते हैं, उस शक्तिशाली स्वामी
की इच्छा से चंद्रमा क्यों नहीं आते? आएँगे ही न? बाल प्रभु ने तुरंत चँद्रमा की ओर देखा।
अपनी छोटी उंगली से
आने के लिए इशारा करते हुए प्रभु कहने लगे,
“कई वर्षों से फँसा हुआ हैं, अब यदि तुम्हें मोक्ष की आवश्यकता हो तो शीघ्र यहाँ आ जाओ।”
बाल प्रभु के वचन के
साथ, चंद्र रोहिणी आदि 27 पत्नियों और उनके पार्षदों के साथ विभिन्न सामग्रियों के साथ दर्शन के लिए उपस्थित
हुए। उसी समय वह बीज के रूप में आकाश में थें। चंद्रमा के आने के साथ ही समस्त छपैयापुर
रोशन हो गया। चंद्रमा ने सोलह प्रकार के उपचारों से बाल प्रभु की पूजा की।
दिव्य उज्ज्वल पुरुष
के रूप में आये चंद्रमा को भक्तिमाता पहचान नहीं सकें। उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “भाई, तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?”
तब चंद्रमा ने विस्तार
से बताया कि, “मैं चंद्र हूँ। मैं परिवार के साथ हूँ। अपने मोक्ष के लिए मैंने कई देवताओं के
दर्शन किए, कई तीर्थस्थलों की यात्रा की, उनमें स्नान किया, उनका पानी पिया, लेकिन मेरी मुक्ति नहीं हुई। मैंने सोचा कि सारे तीर्थ समुद्र में हैं, इसलिए मैं समुद्र में
ही रहा, लेकिन मुझे वहाँ मुक्ति नहीं मिली। इसलिए मैंने सोचा कि मुझे शंकर के पास जाना
चाहिए। कई वर्षों तक उनकी जटा में ही रहा, परंतु वो भी मुक्ति कहाँ से दिला पातें?
अत: उनके पुत्र गणपतिजी के भाल में जाकर रहने लगा, परंतु कोई मेल न होने
से मैं पुनः आकाश में विचरण कर रहा था। आकाश यानी शून्य। क्या मोल है उसका? वहाँ मैं निराश्रित घूमता रहा। तभी इस प्रभु को दया आयी और उन्होंने
मेरी ओर देखा। साथ ही, समीप भी बुलाया। सचमुच, आज मेरा भाग्य खुल गया। मैं कृतज्ञ हूँ।”
इस प्रकार विभिन्न
उपचारों से भगवान की स्तुति और पूजा करने के बाद, चंद्र अपने परिवार के साथ आकाश मार्ग से अद्दश्य हो गया।
पुस्तक संख्या-2: नीलकंठ चरित्र
(पुराणों या इतिहास में ऐसा सुनने को नहीं मिलता कि पहले किसी ने इतनी कठोर तपस्या
की हो, ब्रह्मा- विष्णु और
महेश अंतरिक्ष में सेवा में खड़े होकर देखते रहें, सूर्यनारायण ने हाथ जोड़कर कहा - हे भगवन्! हम आपके कारण महान
बने हैं, सूर्यनारायण ने हाथ
जोड़कर कहा - हे भगवन, आपने मुझे बचा लिया, इसलिए मैं धन्य हूँ, हनुमानजी नीलकंठ के
पैर छूकर लठ लेकर मंदिर में गए, साधुओं को लठ से मारकर कहा - मैं नीलकंठ वर्णी का सेवक अंजनीपुत्र हनुमान हूँ)
स्वामीनारायण अक्षरपीठ, शाहीबाग (अहमदाबाद)
द्वारा प्रकाशित और और रमेश एम. दवे द्वारा लिखित नीलकंठ चरित्र के अब तक 20 से अधिक संस्करण प्रकाशित
हो चुके हैं।
नीलकंठ चरित्र के 23वें पृष्ठ पर अध्याय
संख्या-14 'पुलहाश्रम मां आकरू तप' अध्याय में नीलकंठ के बारे में बताया गया है जो 12 वर्ष की आयु में तपस्या
करने चले जाते हैं। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 25 पर लिखा है कि पुलहाश्रम के जंगल में कुछ अन्य योगी और ऋषि
भी रहते थे। इतनी कम उम्र में नीलकंठ की तपस्या देखकर वह अवाक रह गए। वे सुबह-शाम नीलकंठ
को देखते हैं लेकिन नीलकंठ तपस्या से विचलित नहीं होते। नीलकंठ की तपस्या से उन्हें
यह अहसास हुआ कि 'इतनी घोर तपस्या के बारे में पुराणों या इतिहास में किसी ने नहीं सुना है। लगता
है कि साक्षात नारायण ही कठोर तपस्या करने आए हैं!’
वे प्रतिदिन नीलकंठ
के पास आकर उनके पेर छूते हैं और प्रार्थना करते हैं, “हे भगवन! हमें वैराग्य
और तपस्या के गुण दीजिए।”
नीलकंठ के दोनों ओर
अंतरिक्ष में धर्मदेव और भक्तिमाता दिव्यदेह के साथ उनकी रक्षा के लिए खड़े थे। 'सलामत रहो, सलामत रहो मेरे बेटे!' बोलते हुए वह भी प्रार्थना कर रहे हैं। दूसरी ओर ब्रह्मा, विष्णु और महेश अंतरिक्ष में सेवा में खड़े हैं।
नीलकंठ ने चातुर्मास
का समय इसी कठोर तपस्या में व्यतीत किया। 1850 ई. में कार्तिक सुद एकादशी के दिन प्रातःकाल सूर्यनारायण साक्षात मनुष्य रूप में
प्रकट हुए।
नीलकंठ ने खुश होकर
सूर्यनारायण से कहा, “मेरा ब्रह्मचर्य व्रत कायम रहे और मुझे वरदान दो कि जब मैं तुम्हें याद करूं तो
आपको साक्षात देखूँ।”
सूर्यनारायण ने हाथ
जोड़कर कहा, “हे प्रभु! आप निर्दोष हैं, आपके कारण हम महान हैं। आपकी कृपा से और आपकी आराधना से मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ
है। आप सच्चे पुरूषोत्तम नारायण, सभी अवतारों के अवतार हैं। आप सदैव निर्दोष हैं। मैं आपको वरदान देने वाला कौन
होता हूँ? किंतु ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मस्थिति को प्राप्त
किया जा सकता है यह सिद्ध करने हेतु आप तपस्या कर रहे हैं। यद्यपि आपमें सभी कल्याणकारी
गुण सिद्ध हैं, फिर भी आपने जो माँगा है वह अवश्य पूरा होगा। आपने इतनी कठोर तपस्या इसलिए की ताकि
पृथ्वी पर लोग आपकी तरह त्याग, वैराग्य और तपस्या सीख सकें।”
सूर्यनारायण ने फिर
हाथ जोड़कर कहा, “हे स्वामी, मैं धन्य हो गया कि आपने मुझे याद किया। जब भी आपको मेरी सेवाओं की आवश्यकता होगी
तब आप मुझे अवश्य याद करें। मैं आपकी सेवा में उपस्थित रहूँगा।”
यह बोलकर प्रणाम कर
सूर्यनारायण अन्तर्धान हो गए।
नीलकंठ चरित्र के अध्याय
संख्या-22 'धर्म नो उपदेश' के पृष्ठ 40 पर लिखा है कि नीलकंठ अब दक्षिण की ओर चले गए। चलते-चलते शाम हो गई। एक गाँव आया।
गाँव के चौराहे पर कुछ लोग बैठे थे।
नीलकंठ ने उनसे पूछा, “क्या यहाँ जोगी-जति
के रहने के लिए कोई जगह है?”
एक शख़्स ने कहा, “यहाँ बनिये के घर के
सामने साधुओं का रामजी मंदिर है, वहाँ साधु-संतों को आश्रय मिलता है। तो आप वहाँ चले जाएँ।”
नीलकंठ रामजी मंदिर
गए। साधुओं ने उन्हें ठहराया। नीलकंठ नहाकर मंदिर के आँगन में बैठें।
संध्या आरती हुई। फिर
मंदिर में रामायण की कथा शुरू हुई। गाँव के स्त्री-पुरुष कहानी सुनने के लिए एक-दूसरे
के पास आकर बैठ गए। नीलकंठ ने देखा कि मंदिर में स्त्री-पुरुष एक साथ बैठे हैं। उन्हें
ये पसंद नहीं आया। जब कथा समाप्त हुई तो सभी लोग साधु के पैर छूकर जाने लगे। कुछ महिलाएँ
नीलकंठ के पैर छूने आईं। नीलकंठ उठकर कमरे के अन्दर चले गए। उसके बाद कुछ स्त्रियाँ
साधुओं के हाथ-पैर दबाने लगी और उन साधुओं की सेवा करने लगीं। नीलकंठ को यह बिलकुल पसंद नहीं आया।
उन्होंने साधुओं से
कहा, “रामायण की कथा कहते हो और धर्म का आचरण क्यों नहीं करते? साधु को स्त्रियों
को उपदेश नहीं देना चाहिए। त्यागी साधु को स्त्री और धन से दूर रहना चाहिए।”
ये शब्द सुनकर साधु
क्रोधित हो गए और बोले, “बच्चे, हमें उपदेश देने वाले तुम कौन होते हो?
यहाँ से चले जाओ नहीं तो हम तुम्हें मार डालेंगे।”
नीलकंठ तो तुरंत अद्दश्य
हो गए। साधुओं को आश्चर्य हुआ कि यह लड़का मंदिर के बंद दरवाजे से कैसे गायब हो गया!
मंदिर से निकलकर नीलकंठ बनिये के घर के आँगन में बैठ गए। इसलिए पवनपुत्र हनुमान वहाँ
नीलकंठ के पास आए। हनुमान ने देखा कि नीलकंठ को दुष्ट साधुओं ने भगा दिया है, तो वह नीलकंठ के पैर
छूकर लठ लेकर मंदिर में गए। सारे साधुओं और उनकी सेविकाओं को लठ से मारने लगे। साधुओं
की हड्डियाँ टूट गईं।
साधुओं ने कहा, “तुम कौन हो? हमें बिना दोष क्यों
मार रहे हो? हमने क्या गुनाह किया है?”
हनुमानजी कहते हैं, “तुम सबने नीलकंठ ब्रह्मचारी
को बिना दोष के यहाँ से क्यों निकाल दिया? नीलकंठ तो साक्षात् भगवान हैं। तुम सबने उन्हें इस रामचन्द्रजी के मंदिर से क्यों
निकाला? जाओ और नीलकंठ से माफ़ी मांगो। नीलकंठ को सम्मान सहित मंदिर में वापस ले आओ। तभी
मैं तुम्हें जाने दूँगा, अन्यथा मैं तुम सबको आज ही समाप्त कर दूँगा।”
साधुओं ने कहा, “आप जैसा कहेंगे हम
वैसा ही करेंगे लेकिन हमें छोड़ दीजिए। बताओ तुम कौन हो।”
तब हनुमानजी ने कहा, “मैं नीलकंठ वर्णी का
सेवक अंजनीपुत्र हनुमान हूँ।”
साधुओं ने सभी स्त्रियों
को निकाल दिया। मंदिर का दरवाज़ा खोला और बनिये के आँगन में जाकर नीलकंठ से माफ़ी मांगी।
साधुओं ने कहा, “हम आपको नहीं पहचान
पाएँ। आप तो साक्षात रामचन्द्रजी के अवतार हैं। आज से हम स्त्री और धन को नहीं छूएंगे।
स्त्रियों को उपदेश नहीं देंगे। आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे, परंतु इस सेवक हनुमानजी
से हमें मुक्त कराइएँ।”
नीलकंठ ने सभी को क्षमा
दी और पवनपुत्र हनुमानजी को संकेत किया और वे आकाश मार्ग से चले गए। नीलकंठ को मंदिर
में लाया गया। दो दिन तक मंदिर में अच्छा खाना खिलाया। नीलकंठ दो दिन रुके और सभी साधुओं
को आदेश (नीति और नियम) देकर वहाँ से चले गए।
पुस्तक संख्या-3: छपैयापुरे श्रीहरि
बालचरित्र
(लक्ष्मीजी घनश्याम महाराज के पैरों को छूती हैं और खड़ी हो जाती हैं, तीनों देवता ब्रह्मा- विष्णु और शिव घनश्याम महाराज को स्नान
कराते हैं, ब्रह्मा हाथ जोड़कर
घनश्याम महाराज से विनती करते हैं कि आप मेरा सृष्टि निर्माण का काम किसी और को सौंप
दें, ब्रह्मा घनश्याम महाराज
को साष्टांग प्रणाम करते हैं और कहते हैं मुझे माफ़ कर दीजिए यह ग़लती फिर से नहीं होगी)
श्रीभूमानंद स्वामी
कृत छपैयापुरे श्रीहरि बालचरित्र पुस्तक स्वामीनारायण मंदिर भुज-कच्छ द्वारा प्रकाशित
की गई थी। अब तक इसके 7 से अधिक संस्करण आ चुके हैं।
पुस्तक के 50वें पृष्ठ संख्या में
लिखा है कि एक बार जब भक्तिमाता अपने पुत्र को उंगली पकड़कर चलना सिखा रही थीं, तभी लक्ष्मीजी अपनी सखियों के साथ अपने प्रभु की बाललीला देखने
आईं। जिसमें बताया गया है कि लक्ष्मीजी घनश्याम महाराज के पैरों को छूकर खड़ी रहती
हैं।
छपैयापुर श्रीहरि बालचरित्र
ग्रंथ की पृष्ठ संख्या 54 पर लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता कुएं के किनारे आकर बैठते हैं और पहले तो घनश्याम महाराज
के दर्शन करते हैं और फिर घनश्याम महाराज की सेवा करते हैं और उन्हें स्नान कराते हैं।
जब भक्तिमाता यह देखतीं
हैं तो घनश्याम महाराज कहते हैं, “ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता हमें स्नान कराने आए हैं।”
यह सुनकर तीनों देवताओं
ने विनती की और कहा, “भक्तिमाता, यह आपका पुत्र है जो हमारे ब्रह्मांड का नियंता (परमेश्वर) है।”
पुस्तक के पेज नंबर
110 पर लिखा है कि ब्रह्मा
उस स्थान पर आए जहाँ पर घनश्याम महाराज बैठे थे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। और
ब्रह्माजी हाथ जोड़कर घनश्याम महाराज से अनुरोध किया कि, “सृष्टि में जल तथा
जीवन निर्माण का कार्य किसी दूसरे को दे दें।”
जवाब में घनश्याम महाराज
कहते हैं, “मैं आपके काम से खुश हूँ और आप ही काम संभालिए।”
पुस्तक के पेज नंबर
111 पर दर्ज है कि अलग-अलग
मुख वाले ब्रह्मा घनश्याम महाराज के पास आए और हाथ जोड़कर बोले कि, “है अक्षराधिपति पुरूषोत्तम भगवान, आपकी क्या आज्ञा है?”
तब घनश्याम महाराज
ब्रह्मा का अहंकार दूर करते हैं। फिर चतुर्मुखी ब्रह्माजी घनश्याम महाराज को साष्टांग
प्रणाम करते हैं और कहते हैं, “महाराज मेरे अपराध को क्षमा करें। आपको मना करना मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी और मैं
दोबारा ऐसा काम कभी नहीं करूंगा।”
पुस्तक संख्या-4: श्रीभूमानंदस्वामी
कृत श्रीहरिलीलामृत ग्रंथ
(ब्रह्मा और शिव जय-जय कहकर श्री महाराज की स्तुति करते हैं)
स्वामीनारायण मंदिर, कुंडलधाम और स्वामीनारायण
मंदिर कारेलीबाग-वडोदरा ने श्रीहरिलीलामृत ग्रंथ नामक इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।
पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक
267 एवं पृष्ठ क्रमांक
268 पर लिखा है कि इंद्रादिक
देव श्रीमहाराज की जलक्रीड़ा देखने आते हैं और देवता पुष्प एवं चंदन की वर्षा करते
हैं। और ब्रह्मा और शिव जय-जय कहकर स्तुति करने लगते हैं।
पुस्तक संख्या-5: सत्संग विहार-भाग 2
(श्रीजी महाराज ब्रह्मा, विष्णु, महेश को प्रसाद देकर उनका कल्याण करते हैं)
स्वामीनारायण अक्षरपीठ
शाहीबाग ने बच्चों के लिए सत्संग विहार नामक पुस्तकों की एक श्रृंखला जारी की है।
पुस्तक के पृष्ठ संख्या-23 में लिखा है कि एक
बार श्रीजी महाराज खाट पर बैठे थे तभी एक कौआ आया। श्रीजी महाराज रोटी को हवा में उछाल
देते हैं और कौआ रोटी को अपनी चोंच में लेकर उड़ जाता है। यह देखकर लाडूबा पूछते हैं
कि महाराज ये क्या किया? रोटी कौवे को फेंक दी? जवाब में श्रीजी महाराज मुस्कुराते हुए कहते हैं कि यह कौआ नहीं
बल्कि ब्रह्माजी थे। वे हमारी प्रसादी लेने आए थें। वर्षों से तरस रहे थें, आज लाभ दिया। आगे यहाँ
बताया गया है कि, ऐसे थे श्रीजी महाराज। देवताओं को भी दुर्लभ। सर्वोच्च भगवान। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवता उनके
प्रसाद के लिए तरसते हैं और वे सर्वोच्च हैं। प्रसाद देते हैं और देवताओं का भी कल्याण
करते हैं।
पुस्तक संख्या-6: सहजानन्द चरित्र
(देवता और ऋषि-मुनियों को एक पैर पर खड़े होकर महाराज की स्तुति करते देखा हैं)
स्वामीनारायण अक्षरपीठ, शाहीबाग (अहमदाबाद)
द्वारा प्रकाशित तथा रमेश एम. दवे द्वारा लिखित इस किताब के कई संस्करण आ चुके हैं।
पुस्तक के पृष्ठ संख्या
10 में, शारदादेवी कहती हैं
कि, “स्वामीनारायण तो इंद्र, चंद्र, विष्णु और महेश आदि देवों के स्वामी हैं और उन्हें कोई भी नहीं जीत सकता।” साथ ही, पुस्तक में एक जगह
संतदासजी कहते हैं कि, “उन्होंने शिव, ब्रह्मादि अनंत देवताओं, ऋषियों और अवतारों को एक पैर पर खड़े होकर महाराज की स्तुति करते देखा है।” साथ ही एक जगह लिखा
है कि, “लोग महाराज से वर्षा कराने का अनुरोध करते हैं तो महाराज रात को शय्या पर सोते
हुए इन्द्र को धमकाते हैं।” इसके अलावा किताब में एक जगह लिखा है कि,
“अक्षरधाम सर्व धामों से ऊंचा है।”
स्वामी नित्यस्वरूप
दास का वीडियो और फिर अपने वाणी विलास के लिए माफ़ी
(ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के नेता हैं भगवान स्वामीनारायण)
सितंबर, 2019 में सरधार स्वामीनारायण
मंदिर के स्वामी नित्यस्वरूप दास का एक वीडियो वायरल हुआ था। इस वीडियो में नित्यस्वरूप
दास ने कहा था, “कितने महान भगवान मिले हैं। परमपिता परमेश्वर से मुलाकात हुई। आप कल्पना तो करिए।
उनकी ऊंचाई के बारे में क्या कहें? भक्तों, देखे तो भगवान, देवी सब कुछ शाश्वत सत्य है। इस धरती पर तैंतीस
करोड़ देवता हैं। लेकिन वे देवी-देवता तैंतीस करोड़ हैं और उनके नेता इंद्र हैं। इनके
नेता ब्रह्मा, विष्णु और शंकर हैं। इनके प्रणेता विराट पुरुष हैं। इनके नेता प्रधान पुरुष हैं।
इनके नेता एक महान पुरुष। महापुरुष नेता ही मूल अक्षर हैं। अक्षर नेता भगवान स्वामीनारायण
हैं। अक्षर को पुरूषोत्तम कहा जाता है। तो बात भूले नहीं और सावधान रहें, इस बात को याद रखें।”
इस वीडियो पर विवाद
उत्पन्न होने के बाद नित्यस्वरूप दास का एक और वीडियो आया, जिसमें उन्होंने अपने वाणी विलास को लेकर माफ़ी माँग ली। कह दिया
कि किसी देव-देवी पर ग़लत बोला हो तो मुझे माफ़ करें, देवों के देव तो शंकर ही हैं, हम सब सनातन धर्म के संतान हैं, मैं माफ़ी माँगता हूँ।
इस विवाद के बाद सरधार
मंदिर ने जिन कलाकारों को अवॉर्ड दिए थें उन कलाकारों ने उन अवॉर्ड को वापस लौटा दिया
था।
प्रबोध स्वामी की मौजूदगी
में उनके शिष्य आनंदसागर का वीडियो जिसमें वह शिवजी का अपमान कर रहे थे
(शिवजी ने कहा कि मुझे अभी तक प्रबोध स्वामी के दर्शन हो पाए ऐसे मेरे पुण्य अभी
जागृत नहीं हुए हैं)
5 सितंबर 2022 को सोखड़ा हरिधाम के प्रबोध स्वामी के शिष्य आनंदसागर का एक वीडियो वायरल हुआ।
जिसमें वह भगवान शिव का अपमान कर रहे थे। वीडियो में आनंदसागर प्रबोध स्वामी की मौजूदगी
में बोल रहे थे कि, “आत्मीय विद्याधाम (AVD) की धरती पर एक बेटा रहता है। उसका नाम निशिथ है। कच्छ से हैं। जबसे आत्मीय विद्याधाम
में रहने आए हैं, तब से गुरुहरि प्रबोध स्वामी ने उन्हें कई दर्शन दिए हैं। इसमें इतने सारे अनुभव
और दृश्य हैं कि इससे एक पूरी किताब भर सकती है। पिछले महीने कुछ दिन स्वामीजी ने उन्हें
दर्शन दिए थे। प्रबोध स्वामी आत्मीय विद्याधाम की धरती पर बने कमरे मंछ थे और उन्होंने
निशिथभाई को बुलाया और कहा कि एवीडी के मुख्य द्वार पर जाओ। कोई और आदेश नहीं था, इसलिए निशिथभाई वहाँ
चले गए। जहाँ मुख्य द्वार था और शिवजी द्वार के बाहर खड़े थे।” उन्होंने आगे कहा कि, “निशिथभाई ने वर्णन
किया कि शिवजी ठीक वैसे खड़े थे जैसा कि हम चित्र में देखते हैं। जटावाले, नाग पहने हुए, रुद्राक्ष पहने हुए, हाथ में त्रिशूल। उन
सभी गुणों के साथ जो हम टीवी पर देखते हैं वैसे सारी प्रॉपर्टी के साथ खड़े थे।”
उसके बाद निशिथभाई
ने प्रार्थना की कि, “आप इतनी दूर आए हैं तो अन्दर प्रवेश करें ताकि प्रबोध स्वामीजी के दर्शन कर सकें।” तब शिवजी ने कहा कि, “अभी मेरे ऐसे पुण्य
(सद्गुण) जागृत नहीं हुए हैं कि मैं प्रबोध स्वामी के दर्शन कर सकूं। लेकिन यह मेरा
सौभाग्य है कि मैंने आपके दर्शन कर लिए।” इतना कहकर शिवजी ने उस युवक निशिथभाई के चरण स्पर्श किए और वहाँ से चले गए। शिवजी
का यह अपमान प्रबोध स्वामी की उपस्थिति में हो रहा था और प्रबोध स्वामी यह सब सुन रहे
थे।
इस घटना के कुछ ही
दिनों के भीतर स्वामीनारायण संप्रदाय के एक साधु के 2 और वीडियो सामने आए
थे। एक वीडियो में प्रेमस्वरूप स्वामी ने डाकोर के राजा रणछोड़ की उपेक्षा की थी। वहीं
दूसरे वीडियो में स्वामी कहते नज़र आए थे कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मिलकर आपको नुकसान पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन वो आपका कुछ
नहीं बिगाड़ सकते, ये तीन देवता भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
यहाँ भी वाणी विलास
के बाद आनंदसागर स्वामी ने माफ़ी माँग ली थी।
कृष्णस्वरूप स्वामी
ने ब्रह्मा और इंद्र देव को लेकर अति विवादित टिप्पणी की थी
(एक बड़ा रहस्य था, मेरे मूत्र में ब्रह्मा बह गए थे)
एक के बाद एक सामने
आ रहे वीडियो के बीच 9 सितंबर 2022 को एक और वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें महादेव के बाद ब्रह्मा और इंद्रदेव को लेकर विवादित टिप्पणी की गई थी। कृष्णस्वरूप
स्वामी भुज ने पुराने मंदिर में अपने एक भाषण में स्वामी पंथ के व्यासपीठ से इंद्र
और ब्रह्माजी के बारे में विवादास्पद टिप्पणी की थी।
इस वीडियो में कृष्ण
स्वरूप स्वामी कहते नज़र आते थे कि, “एक ऋषि हो गए, बगदालू। उनके कई शिष्य थें। एक दिन उनके साथ ऐसा हुआ कि यात्रा करते समय ऋषि बगदालु
कच्छ में नारायण झील की तीर्थयात्रा पर गए। उनके साथ शिष्य भी थे। रास्ते में गुरु
को लघुशंका आई तो वे अपना कमंडल और झोली देकर लघुशंका के लिए चल दिए। हालाँकि, मुझे आश्चर्य हुआ कि
पेशाब करने के बजाय वो हँसने लगे और उछलने लगे। शिष्य को लगा कि गुरु की 60 साल की उम्र में मति
मारी गई हो। गुरु लात मारते जा रहे थे और हंस रहे थे। ऐसा कुछ समय तक होता रहा।”
आगे वीडियो में स्वामी
कहते हैं, “एक शिष्य ने पूछा, गुरुजी, आपने आज नई लीला की।” गुरु ने कहा, “तुम्हें संदेह होगा, यह एक बड़ा रहस्य था, मेरे मूत्र में ब्रह्मा बह गए। मुझे वो देख कर हंसी आ रही थी। शिष्य ने पूछा, “मतलब?” उन्होंने कहा कि, “मूत्र में चींटा (मकोड़ा)
बह रहा था। मुझे वो देख कर हंसी आ रही थी। वह ब्रह्मा था। ऋषि बगदालू त्रिनेत्रधारी
थे। जो चींटा था उसके पिछले जन्म को देखा तो वह पूर्व इंद्र था। तो मुझे उसे मूत्र
में भीगता हुआ देखकर आश्चर्य हुआ कि क्या यह इंद्र की उपाधि थी। परन्तु आज वही इन्द्र
मूत्र में तन गया।”
सालंगपुर विवाद के
बाद भी स्वामीनारायण संप्रदाय के साधु-संत हिंदू संप्रदाय के साधु-संतों को शास्त्र
के अज्ञानी कहते नज़र आए थे, विवाद के बीच नौतम
स्वामी समेत कई स्वामियों ने अहंकार से लबालब बयान दिए थे
ऊपर दर्ज पुस्तकों
की अतिकाल्पनिक और हास्यास्पद कहानियाँ महज़ कुछ हिस्सा भर ही हो सकता है। एक दावे के
मुताबिक़ स्वामीनारायण संप्रदाय ने 150 से ज़्यादा बार विवाद उत्पन्न किए हैं। इस लिहाज़ से ऊपर दर्ज 2-4 वीडियो के वाणी विलास
भी छोटा सा हिस्सा ही माना जा सकता है।
उपरांत, सालंगपुर के ताज़ा विवाद
के दौरान स्वामीनारायण संप्रदाय के साधु-संतों के वाणी विलास और अहंकारी बयान निरंतर
जारी रहे थे। वे सीधे सीधे हिंदू संप्रदाय के साधु-संतों को 'अज्ञानी' कहते नज़र आए। नौतम
स्वामी ने आग में घी डालने का काम किया। साथ ही दूसरे स्वामियों ने भी ऐसे ही बयान
देकर अपने संप्रदाय की बेशुमार संपत्ति, असीमित अनुयायीगण तथा सत्ता से नज़दीक़ियों
के मद में अपने सिवा दूसरों को ऐरा गैरा ही समझा।
समूचे गुजरात में सालंगपुर
मंदिर विवाद को लेकर जमकर बवाल काटा जा रहा था। इस बीच स्वामीनारायण संप्रदाय के नौतम
स्वामी आणंद ज़िले के खंभात के किसी स्वामीनारायण मंदिर में 31 अगस्त 2023 की शाम को एक महासभा
से कहते हैं, “संत लोग जो दूसरे संप्रदाय से हैं, अखाड़े से हैं उनसे विनती है कि वे वैचारिक
भूमिका से समझकर बात करें, स्वामीनारायण भगवान स्वयं भगवान हैं इस तथ्य
को स्वीकार नहीं कर सकते उनसे बात करनी ही नहीं है।”
वे आगे कहते हैं, “स्वामीनारायण स्वयं
भगवान हैं। भगवान स्वामीनारायण ने कलयुग में जन्म लेकर अधर्म का नाश किया है। हमारे
ख़िलाफ़ जो लोग बात कर रहे हैं उन बातों से हमारे अनुयायीयों को डिमोरलाइज़ नही होना चाहिए।
हमने किसीको नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं किया है। स्वामीनारायण के विद्वान संत लोग
जवाब देने के लिए तैयार हैं। छोटे-मोटे प्रश्नों को लेकर सही मंच पर बात करनी चाहिए।
कुछ लोग अदालतों में गए हैं। हमें छोटे-मोटे लोगों को जवाब देने की ज़रूरत नहीं है।
पुराणों में भी भगवान स्वामीनारायण की बात है। और हम ये बात डंके की चोट पर कहते हैं।
मैं प्रार्थना करता हूँ कि जो लोग ज़ल्दी से चलना चाहते हैं वे तनिक धीरे चलें और वापस
मुड़ जाएँ।”
वे अपने अनुयायीयों
के सामने हुँकार भरते हैं, “किसी के दबाव में न आएँ। किसी की छत्र-छाया में न चलें। सत्संगी लोगों से अनुरोध
है कि नीडर रहें।” वे अपने अतिक्रमण को आगे बढ़ाते हुए बोलते
हैं, “कोई किसी भी देवी-देवता का अपमान करें वह स्वीकार्य नहीं है। किंतु स्वामीनारायण
स्वयं भगवान हैं और उस भगवान की बात को टालने के प्रयत्न कोई करेगा तो वह भी स्वीकार्य
नहीं होगा। उस प्रयत्न को माफ़ नहीं किया जा सकता। किसी भी बात का शास्त्र के मुताबिक़ जवाब दिया जाएगा।” इन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि, “ये सामान्य हनुमानजी महाराज नहीं है, यह कष्टभंजन देव गोपालानंद स्वामी ने स्थापित
किए हैं। स्वामीजी ने अपना योग और एश्वर्य उसमें स्थापित किया है।”
एक और स्वामी, जिनका नाम अनुपम स्वामी बताया गया, वे इस विवाद के बाद कहते हैं, कुछ साधु-संतों और सज्जनों को आपत्ति है कि किसी सामान्य आदमी को हनुमानजी प्रणाम
नहीं कर सकते, आप ये शिल्प हटा लीजिए। लेकिन हम यही तो कह
रहे हैं कि सहजानंद स्वामी सामान्य आदमी नहीं हैं, वे स्वयं भगवान हैं और भगवान के भी माता-पिता हैं और उन्हें प्रणाम करने में हनुमानजी
को किसी प्रकार क आपत्ति क्यों हो। इसके बाद वे स्वामी वेदव्यास के द्वारा लिखित स्कंद
पुराण के वासुदेव माहात्मय ग्रंथ का उल्लेख कर दावा करते हैं कि स्वामीनारायण भगवान
हैं।
हालाँकि थोड़ी देर
बाद अनुपम स्वामी का एक और वीडियो आ जाता है,
जिसमें वे अपनी भूल स्वीकार करते हुए माफ़ी माँग लेते हैं।
31 अगस्त 2023 के दिन बीबीसी गुजरात में जय शुक्ल की डिजिटल रिपोर्ट के मुताबिक़ उन्होंने स्वामीनारायण
संप्रदाय के कुछ संतों से बात की तो उन संतों ने कहा कि शिल्पचित्रों में कुछ भी ग़लत
नहीं है। शिल्पचित्रों का विरोध करने वालों को शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। जय शुक्ल
ने सालंगपुर मंदिर के कोठारी स्वामी विवेकसागर स्वामी से बात की। स्वामी का कहना है
कि, “हमने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। जिनके पास ज्ञान नहीं है वे ऐसे आरोप लगाते हैं।
वे लोग अपनी द्दष्टि से देखना चाहते हैं तो देखें।”
बीबीसी गुजराती ने
मंदिर के कुछ संचालनकर्ताओं से भी बात की, जिनका कहना था कि, “यह दुनिया का विशाल हनुमानजी मंदिर है। आप हमें सिखाएँगे कि हमें पूजा कैसे करनी
चाहिए?”
एक संचालनकर्ता ने
तो कह दिया कि, “हम इन विरोधियों के विरुद्ध कदम नहीं उठा रहे यही हमारी कृपा है।”
3 सितंबर 2023 के दिन गुजराती मीडिया में एक और बयान की ख़बर थी। वड़ताल के ब्रह्मस्वरूप स्वामी
ने नाथ संप्रदाय के सिद्धपुरूष गैबीनाथ को 'असूर' कह दिया। इस मामले में जूनागढ़ गौरक्षनाथ
आश्रम के महंत शेरनाथ बापू ने पुलिस को आवेदन देकर कार्रवाई की मांग की।
वड़ताल के ब्रह्मस्वरूप
स्वामी एक सत्संग कार्यक्रम में गैबीनाथ पर टिप्पणी करते हैं, “गैबी कनफटा गढ़डा आया तब महाराज ने उसे असुर कहा था। हमारे नंद संतों ने उस घटना
को लिखा इसलिए असुर कहा। एक असुर 500 सींगों वाली सेना लेकर आया। यह बावा गैबी कनफटा। टूटे हुए कान होते थे और बाली
पहनता था। गैबी कनफटा के वंशज समाज में उभर रहे हैं।”
4 सितंबर 2023 के दिन गुजराती मीडिया रिपोर्ट की माने तो, वडोदरा के दर्शन स्वामी ने हरिभक्तों की सभा में कहा कि, “मेरे इष्टदेव सर्वोच्च
हैं... हैं... और हैं... श्रीमान्। अगर वो चिलम पीकर ख़ुद को सनातनी कहते हैं तो हम
सीना तानकर तिलक, टीका और चोटी रखते हैं, तो हम आपसे पहले सनातनी हैं। कृपया स्वामीनारायण वालों को चिढ़ाने की कोशिश न करें।
हमारा पेट भगवान स्वामीनारायण भरते हैं। यह हमारे भगवान स्वामीनारायण ही हैं जो हमें
अंत में अक्षरधाम ले जाते हैं। जो कोई हमारे प्रभु से कहे कि यह मोची है, कोई हमारे प्रभु से कहे कि यह तो ऐसा ऐसा है तो वह चीज़ कदापि
स्वीकार नहीं की जाएगी। ये लोकतंत्र है। किसी से डरे नहीं।”
दर्शन स्वामी ने हरिभक्तों
को ज्ञान का पाठ पढ़ाना शुरू किया और कहा कि, “तुम किसी से डरते तो नहीं न? श्रीमान, स्वर्ग में जितने शत्रु
हैं, सितारे जितने हैं उतने ही शत्रु एक बार बन जाए और एक समूह इकट्ठा हो जाए और यदि सर्वोपरि भगवान स्वामीनारायण के सामने आ जाए, श्रीमान मेरे इष्टदेव सर्वोपरि हैं... हैं...
और हैं...। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए और किसी पाजी प्लाउ के बोलने भर
से किसी को भयभीत नहीं होना है श्रीमान।”
हालाँकि दर्शऩ
स्वामी ने यह नहीं बताया कि मंदिर की सत्ता और संपत्ति के लिए अनैतिक और
असंवैधानिक काम करने वाले या अप्राकृतिक संबंधों तथा साथ ही अनैतिक संबंधों के अविरत
आरोप झेलने वाले, हत्या या हत्या के प्रयास व सामूहिक षडयंत्र का आरोप धारण करने वाले
क्या होते हैं।
यूँ तो स्वामीनारायण
संप्रदाय का बहुत लंबे काल से विवादों से ग़हरा नाता रहा है। यहाँ एक से अधिक स्वघोषित
भगवान भी हैं! यूपी के दिवंगत घनश्याम पाँडेयजी, जिन्होंने कथित रूप से स्वामीनारायण संप्रदाय के विस्तार और विकास में अपना जीवन
बिताया और स्वामी सहजानंद नाम धारण किया। संप्रदाय के भीतर वे पहले से ही संप्रदाय
के स्वधोषित भगवान हैं और उन्हें अब बाकायदा भगवान का लेबल चिटका दिया गया है। संप्रदाय
के अंदर ऐसे कम से कम पाँच प्रतिनिधि हैं, जिन्हें अनुयायी अपना भगवान मानते हैं।
दरअसल, स्वामीनारायण संप्रदाय
ने पैसों और लाखों-करोडों का समर्पित भक्तगण,
इससे राजनीति और सत्ता में इतनी जबर्दस्त पेठ बना ली कि राज्य
के मुख्यमंत्री से लेकर देश का प्रधानमंत्री तक की संवैधानिक हस्तियाँ यहाँ आती-जाती
रहती हैं। ऐसे में उस लेबल को चिटकाना और फिर उसे सदैव के लिए स्थापित करना बहुत आसान
काम था।
गुजरात ही नहीं, गुजरात के बाहर भी
इस संप्रदाय से जुड़े प्रतिनिधि या आला ज़िम्मेदारी वाले लोग उन तमाम विवादों, अपराधों से जुड़े रहे
हैं, जो यदि कोई आम आदमी कर दें तो उसे सालों तक जेल में डाल दिया जाए। दूसरे संप्रदायों
की तरह यहाँ भी संप्रदाय की संपत्ति की माथापच्ची, भ्रष्टाचार, पैसों की अनअधिकृत और गैरक़ानूनी हेरफेर, पैसों का गबन, धमकियाँ, मारपीट, प्रपंच, अप्राकृतिक संबंधों वाले गंभीर आरोप, राजनीतिक सत्ता से सांठगांठ से लेकर हत्या, हत्या के व्यक्तिगत
या सामूहिक षडयंत्र, धार्मिक गद्दी और नियंत्रण तक के विवाद और
आरोप अरसे से चिपकते रहे हैं।
कभी कभी लगता है कि इतने सारे विवाद, अपराध या आरोपों से
उलझने से अच्छा है कि लहसुन और प्याज़ जमकर खाया जाए। वैसे भी ईश्वर ने स्वाद दिया है
तो उसका लुत्फ़ उठाया जाए। ऐसे अनैतिक काम करने से तो यही अच्छा।
ऐसे विवादों के बाद
यह संप्रदाय पिछले कुछ काल से धार्मिक विवादों में ज़्यादा उलझता हुआ दिखाई दे रहा है।
हिंदू संप्रदाय की धार्मिक मान्यताओं को आहत करना, हिंदू समाज के जो मूल ग्रंथ माने जाते हैं उसमें अपनी मान्यता और अपने विवादित
मतों का अतिक्रमण करना। स्वामीनारायण संप्रदाय से जुड़े प्रतिनिधियों के मुँह से इससे
पहले भी ऐसी बातें निकल चुकी हैं, जो हिंदू संप्रदाय की मूल भावना के ख़िलाफ़ जाती रही हो। पैसा, विशाल भक्तगण और सत्ता
को उनकी ज़रूरत, तीन चक्र मिलकर उन्हें
हर चक्रव्यूह से बाहर निकाल लाते हैं।
स्वामीनारायण संप्रदाय, जो ख़ुद ही अपने आप
में लंबे अरसे से, यूँ कहे कि अपने शुरुआती काल से हिंदू व्यवस्था में विवादित संप्रदाय रहा है, उसने अपने घनश्याम पाँडेयजी, जिनका संप्रदाय में सहजानंद स्वामी नाम था, को स्वयं ही भगवान घोषित कर दिया था! उन्हें
इस प्रवृत्ति में राजनीति, राजनीति के पीछे चल रही भीड़ और आस्था-भावना
से लबालब जनसमाज का भरपूर साथ मिला। पैसा, राजनीति, सत्ता और अतिविशाल भक्तगण। आज स्थिति यह है कि जगह जगह राजनीति में इनका प्रभाव
ज़बरदस्त है।
अपने अपने अलग परिसरों
में भोजन व्यवस्था में अलग अलग पंक्तियाँ, अलग अलग पंक्तियों के लिए अलग अलग प्रकार
के भोजन, आदि नकारात्मक चीजें भी नोट की जाती रही हैं। दूसरे घामों में आजकल से आईपी, वीआईपी या वीवीआईपी
पंक्तियों का विवाद होता होगा, यहाँ यह दर्शन से लेकर भोजन तक में कई जगहों
पर अरसे से देखा जाता रहा है।
दूसरी तरफ़ निश्चित
रूप से स्वामीनारायण संप्रदाय के ऐसे अनेका अनेक सेवा कार्य हैं, जिसको लिखने बैठे तो एक अलग लेख की ज़रूरत पड़ सकती है। निशुल्क
भोजन से लेकर शिक्षा कार्य तथा इंसानों से लेकर जानवरों तक के लिए दूसरे सद्कार्यों
की लंबी सूची बन सकती है। उनकी अपनी नियमावली है, जिसमें बहुत कुछ अच्छा है।
किंतु धर्म, सत्ता और राजनीति को भावनात्मक नहीं किंतु
व्यावहारिक चश्मे से देखा जाए तभी कुछ अनसुलझे तर्क सुलझ सकते हैं। वैसे भी, एक स्थायी सत्य है
कि आप एक-दो अच्छे काम कर दों,
लोग आपको दस बुरे काम करने की इजाज़त दे देंगे।
स्वामीनारायण संप्रदाय
द्वारा स्थापित और संचालित श्री कष्टभंजनदेव हनुमानजी मंदिर, सालंगपुर धाम, ज़िला बोटाद, में जिस तरह से जमकर बवाल काटा गया, यह संप्रदाय तथा उनसे
जुड़े विवाद फिर एक बार बाज़ार में घूम रहे हैं। यहाँ हनुमानजी की एक नई और विशाल
54 फ़ीट ऊंची प्रतिमा
के नीचे, चारों तरफ़ पत्थरों में या फिर कुछ दूसरे तरीक़े से तरासकर कुछ शिल्प या पेंटिग्स
बनाए गए, जिसमें श्री हनुमानजी के कुछ शिल्प ऐसे थें, जिसमें स्वयं भगवान श्री हनुमानजी इस स्वामीनारायण संप्रदाय
के स्वघोषित भगवान के सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक खड़े थें तथा एक शिल्प में घुटनों पर
बैठकर उस स्वघोषित भगवान के सामने सिर झुका रहे थें!!! एक शिल्प में सहजानंद स्वामी
आसन पर बैठे थें और हनुमानजी हाथ जोड़े नमस्कार वाली मुद्रा में थें!
प्रतिमा के नीचे लगी
पेंटिग्स में हनुमानजी को स्वामीनारायण संप्रदाय के सहजानंद स्वामी के भक्त और दास
के रूप में दिखाया गया था! किसी संप्रदाय के स्वामी को, जो स्वघोषित रूप से
संप्रदाय के लिए भगवान हैं, उन्हें हिंदू धर्म के पूजनीय देव हनुमानजी से भी ऊपर दिखा दिया गया! ऐसी कुछ कृतियाँ
यहाँ से कुछ दूरी पर स्वामीनारायण संप्रदाय द्वारा संचालित कुंडल धाम में भी मिलीं।
वहाँ स्वामीनारायण के स्वघोषित भगवान को हनुमानजी नमस्कार मुद्रा में फल दे रहे थें!
फिर तो स्वामीनारायण संप्रदाय के ऐसे दूसरे कारनामों की ख़बरें आने लगीं। सालंगपुर, कुंडल धाम, सुरेंद्रनगर पाटड़ी
वणींद्रा घाम, सायला लोया धाम, इन जगहों पर भी श्री हनुमानजी को स्वामीनारायण के स्वघोषित भगवान के दास के रूप
में चित्रित किया गया था और उस स्वघोषित भगवान के आगे नतमस्तक होकर फल अर्पण करते हुए
दिखाया गया था! क्या पता, ऐसी दूसरी तस्वीरें या रचना कहीं और भी हो सकती हैं।
सालंगुपर में विवादित
शिल्प के साथ साथ हनुमानजी के ललाट पर स्वामीनारायण संप्रदाय का तिलक लगा। उनके स्वघोषित
भगवान के दास बताने के बाद हनुमानजी को उनका संप्रदायी तक बता दिया गया!
जो ताज़ा विवाद और विरोध
था, उसमें स्वामीनारायण संप्रदाय के अलग अलग प्रतिनिधि अलग अलग जवाब
दे रहे थें। फूल टू राजनीति टाइप जवाब! एक स्वामी ग़लती स्वीकार कर रहा था, दूसरा माफ़ी माँगने की बात करता था, तीसरा इस कारनामे को सही ठहराता था, चौथा नये नये शास्त्र और अपने घर में निर्मित नवलकथा को इतिहास
बता कर ज्ञान देता था, पाँचवा हिंदू ग्रंथों में इसका ज़िक्र है यह
कहकर महज़ 300 साल पुराने संप्रदाय को 3000-3500 साल पुराने संप्रदाय में मिक्स कर अचार बनाता था! वैसे भी वहाँ अचार वाले भी प्रतिनिधि
हैं।
दिनों तक जमकर बवाल
काट लिया स्वामीनारायण संप्रदाय ने। गुजरात और गुजरात के बाहर तक से जमकर विरोध हुआ।
दिनों तक शिल्प और कृतियाँ हटाने को कहा गया। तमाम हिंदू संप्रदाय, साधु, संत, भक्तजन, आश्रम, संगठन, समितियाँ, सब ने कहा। इन्होंने
नहीं हटाया। इतना ही नहीं, विवाद बढ़ा तो अहंकार के साथ कह दिया कि स्वामीनारायण
तो स्वयं भगवान हैं। अंत में विवाद बढ़ता देख गुजरात के मुख्यमंत्री को उतरना पड़ा
और आख़िरकार इन्होंने उन शिल्प को रातोरात हटा लिया।
हालाँकि मामला अब भी
वहीं है। क्योंकि सिर्फ़ विवादित शिल्प हटे हैं, इनके दूसरे कारनामों पर हिसाब अभी जस का तस
है। उपरांत, इन्होंने विश्व हिंदू परिषद और मुख्यमंत्री से मुलाकात की, जबकि जो लोग इनसे मिलना
चाहते थें, इनसे संप्रदाय ने दूरी बना रखी है।
कभी कभी स्वामीनारायण
संप्रदाय और संघ, दोनों एकसरीखे लगते हैं। दोनों क पास अपना
कोई ठोस, सुनहरा, तार्किक और तथ्यात्मक इतिहास नहीं है, और ऐसे में दोनों दूसरों के इतिहास के नायकों
के नाम पर अपना आधार मज़बूत करते जाते हैं! दोनों अपनी रेखा लंबी बताने हेतु दूसरों
की रेखा छोटी दिखाने के कारनामे कर गुज़र जाते हैं और दोनों अपने घर की नवलकथा को ऐसे
पेश करते हैं, जैसे कि उनकी नवलकथा प्रमाणित इतिहास हो! इससे काम नहीं बनता तो दूसरों की कथा में भी सेंध मार लेते हैं!
स्वामीनारायण संप्रदाय के इस अतिक्रमण वाले वर्तमान को देखकर इतिहासकारों के उन
तथ्यात्मक दावों को ज़्यादा वज़न मिलता है कि जिनके पास बेशुमार पैसे की ताक़त थी और
जिनके पास असीमित अनुयायी थे, तथा इन दोनों वजहों
से जिनके पास सत्ता की छत्रछाया थी, वेसी तमाम ताक़तों ने
युगों से अपने अपने हिसाब से तर्कों, तथ्यों, सत्य, असत्य, कल्पनाएँ, चमत्कार, अतिक्रमण आदी तत्वों को मिलाकर अपनी अपनी कहानियाँ बनाई और उसे देश के इतिहास के
रूप में स्थापित किया। जिनके पास बेशुमार पैसा, असीमित अनुयायी और सत्ता का मेल, इन तीनों की अवधि लंबे समय तक रही, उनके लिए यह प्रक्रिया सफल रही, जिनके लिए ये मुमकिन
नहीं हो पाया, उनके लिए असफल रही।
उन निष्पक्ष इतिहासकारों ने तमाम तर्कों, तथ्यों व साक्ष्यों के साथ लिखित रूप से अनेक जगहों पर कहा है कि लगभग तमाम शासकों
के काल में यही हुआ। अलग अलग शासकों के काल में अलग अलग संस्कृति व नियमों वाले संप्रदाय
फलते-फूलते रहे या लुप्त होते रहे। लगभग तमाम ने अपनी अपनी कहानियाँ लिखवाई, जिसमें सच और झूठ, अति और अल्प, सब कुछ था।
अतिक्रमण...। यह तत्व इतिहास का एक कड़वा सच है। हर चीज़ में अतिक्रमण मूल तत्व
रहा। राज्य की सीमाओं में अतिक्रमण से लेकर पुस्तकों व मान्यताओं का अतिक्रमण। अनेक
जगहों पर इतिहासकार लिखते हैं कि ये वो युग था जब किसी इलाक़े पर जीत के बाद उस इलाक़े के प्रतीकों और मान्यताओं का विध्वंश करना राजनीति और युद्धनीति का मूल माना जाता था।
और इसी मूल के अधीन होकर सबने एकदूसरे के इतने प्रतीकों का विध्वंश किया कि जिनकी गिनती
विधर्मी विध्वंशों से भी ज़्यादा है। इतिहास में ऐसी अनेका अनेक धटनाओं का ज़िक्र हैं
जिसमें धार्मिक प्रतीकों का विध्वंश विधर्मियों से ज़्यादा घर के लोगों द्वारा घर में
ही हुआ था।
लड़ाई में जीत के बाद उस राज्य की सत्ता के प्रतीक, उस राज्य की व्यवस्था के प्रतीक, उस राज्य की धार्मिक संस्कृति के प्रतीक, अस्मिता के प्रतीक, आदी प्रतीकों को तोड़ना जीत पर मुहर लगाने जैसा माना जाता था। और इसीके चलते इतने
मंदिर टूटे हैं, इतनी मूर्तियों का
विध्वंश हुआ है, जितना बाहरी लोगों
से नहीं हुआ होगा। और ये सब केवल धर्म को लेकर ही नहीं रहा, बल्कि उस राज्य की अस्मिता से जुड़े तमाम प्रतीकों में रहा।
जीते हुए राज्य के मंदिर तोड़े गए, उसके राजसत्ता के प्रतीक
समान इमारतों या दरवाजों को खंडित किया गया, उनकी रानियाँ व राजकुमारियों तक के साथ ग़लत व्यवहार के दावे मिलते हैं। अतिक्रमण
मूर्त प्रतीकों पर हो उससे ज़्यादा ख़तरनाक प्रवृत्ति है अतिक्रमण अमूर्त प्रतीकों पर
हो।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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