2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का सफल पूर्वानुमान करने के बाद एक दूसरे विश्लेषण
से एक ही स्पष्ट आकलन निकलता है कि - यह हार है और सिर्फ़ और सिर्फ़ नरेंद्र मोदी की
ही हार है। यक़ीनन, अगर गोदी मीडिया का साथ नहीं होता तो नरेंद्र मोदी इससे भी नीचे जा सकते थे।
यूँ तो अब भी गोदी मीडिया और भक्त प्रजाति के लोग मानने के लिए तैयार नहीं हैं
कि यह नरेंद्र मोदी की बड़ी राजनीतिक हार है। लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की
सच्चाई के पीछे बहुत सारी नाकामियों और कईं कड़वे सच को छिपाने के प्रयास गोदी मीडिया
और भक्त प्रजाति करेगी ही करेगी, यह पहले से स्पष्ट था।
चार बातों को फिर स्पष्ट कर देते हैं। पहली – नरेंद्र मोदी पहली
बार नहीं हारे, वह इससे पहले भी एक से अधिक बार हार चुके हैं। यहाँ तक कि अरविंद केजरीवाल उन्हें
दो-दो बार हरा चुके हैं। केजरीवाल के सिवा भी दूसरों के हाथों नरेंद्र मोदी हार चुके
हैं। दूसरी – भारत में हर राजनीतिक दल के पास अपना अपना चाणक्य होता ही है। तीसरी – मास्टर स्ट्रोक हर
राजनीतिक दल और हर नेता अनेकों बार लगा चुके हैं, मास्टर स्ट्रोक नामक
चालाकी के ऊपर किसी एक का अधिकार नहीं है। और आख़िरी तथा चौथी बात – भारत का मीडिया जिस
तरह से पिछले कुछ सालों से सत्ता के आगे दंडवत अवस्था में लेटा हुआ है, जिस तरह से वो पीएम
मोदी की घटिया बातों को भी किसी ब्रह्मवाक्य की भाँति पेश करने का दुस्साहस करता रहता
है, ऐसी स्थिति मीडिया ने इतिहास में कभी नहीं दिखाई।
नरेंद्र मोदी के द्वारा गढ़े गए कुछ मिथक उनके उस व्यक्तित्व के साथ सदैव चिपके
रहेंगे कि वह अनेक विशाल झूठ को स्थापित करने वाले तथा अधिक से अधिक भ्रमित करने वाले
नेता रहे हैं, वे निहायत आत्ममुग्ध हैं तथा उन्हें आत्मप्रशंसा किसी भी क़ीमत पर चाहिए। गुजरात
मॉडल जैसे मिथक से शुरुआत करने वाले नरेंद्र मोदी अपनी शैली के चलते फेकू या जुमलेबाज
के तौर पर पुकारे-लिखे जाने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अपने स्टैंड
से बेशर्मी से पलटने वाले, राजनीति का स्तर बहुत नीचे तक गिराने वाले, नफ़रती-ज़हरीली और
साप्रंदायिकता से लबरेज़ शैली और अनेक बार घटिया और निहायत हास्यास्पद बातें करने वाले, लोकतांत्रिक परम्पराओं
को नापसंद करने वाले, तथा विशेषत: अत्यधिक कैमरा प्रिय नेता के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है।
वाराणसी से नरेंद्र
मोदी की जीत का अंतर ग़ज़ब घटा है, एक समय वह अपने प्रतिद्वंद्वी से पीछे भी
रह गए थे, विपक्षी दलों और बीजेपी के मुख्य चेहरों के सामने मोदी बहुत
नीचे नज़र आ रहे हैं, मोदी को मिला 225वां क्रम
4 जून 2024 के दिन सुबह से मतगणना शुरू हुई। एकाध घंटे के भीतर स्पष्ट होने लगा कि एग्जिट
पोल ग़लत साबित होंगे। किंतु सबसे चौंकाने वाली बात थी वाराणसी सीट से मतगणना के बीच
नरेंद्र मोदी का अपने प्रतिद्वंद्वी से पीछे रह जाना! नरेंद्र मोदी अंत में जीते तो सही, किंतु अपनी पिछली जीत के मुक़ाबले इस बार अंतर ग़ज़ब घट गया। इतना ही नहीं, विपक्षी दलों और अपनी
ही पार्टी के चेहरों के सामने मोदीजी की जीत का अंतर बहुत नीचे चला गया।
पीएम मोदी की जीत के
अंतर में ख़ासी गिरावट आई और वे महज़ 1.5 लाख वोट के अंतर से जीत हासिल कर पाए। जबकि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में
इन्होंने निकटतम प्रतिद्वंद्वी सपा की शालिनी यादव को 4,79,505 मतों से हराया था।
इससे पहले वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल को 3,71,784 मतों से पराजित किया
था। 2014 में 3,71,784 का अंतर, 2019 में इससे भी अधिक 4,79,505 मतों का अंतर, जबकि इस बार 1,52,513 का अंतर।
वोटों के इस अंतर को
इस तरह से भी समझा जा सकता है कि 542 लोकसभा सीटों में से 224 सीटों पर जीतने वाले उम्मीदवार पीएम मोदी के मुक़ाबले ज़्यादा अंतर से जीते हैं! यानी, नरेंद्र मोदी से ज़्यादा शानदार और ज़्यादा बड़ी जीत 224 उम्मीदवारों ने दर्ज
की है! नरेंद्र मोदी 225 वें क्रम पर हैं! इनसे पहले जो 224 जीते हुए उम्मीदवार हैं, इनमें से अनेक तो ऐसे हैं, जिनके नाम तक देश को पता नहीं। ऐसे उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से भी आगे निकल गए
हैं!
वे वाराणसी से लगातार
तीसरी बार जीतकर संसद पहुंचे हैं, किंतु इस बार इनकी जीत का अंतर बहुत कम हो गया है। बीच मतगणना, एक समय वे अपने प्रतिदवंदी
(कांग्रेस के अजय राय) से पिछड़ भी गए थे!
दर्ज यह भी होना चाहिए
कि वाराणसी से पीएम मोदी के सामने जिन जिन प्रत्याशियों ने उम्मीदवारी पत्र दायर किया
था, उनमें से 90 फ़ीसदी से ज़्यादा
उम्मीदवारों को किसी न किसी अनैतिक तरीक़ों से जबरन हटाया गया, ऐसी जनचर्चा वाराणसी
की बाज़ारों में अनेक पत्रकार रिपोर्ट कर चुके हैं।
नरेंद्र मोदी बनाम
विपक्षी चेहरे
कुल मिलाकर मोदी 225वें क्रम पर हैं, और यदि विपक्षी चेहरों
की बात करें तो, 224 लोकसभा सीटों में से 112 सीटें ऐसी हैं, जहाँ अन्य पार्टियों के उम्मीदवारों की जीत का अंतर वाराणसी में मोदी की जीत से
अधिक है! यानी विपक्ष के 112 नेता नरेंद्र मोदी
से आगे निकल गए!
विपक्ष की पार्टियों
के कई ऐसे नेता हैं, जिनमें चर्चित कम हैं, अधिकांश अंजान नाम हैं, जो इस चुनाव में नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले अधिक अंतर से जीत कर आए हैं! यक़ीनन, राहुल गांधी इस सूची में बड़ा नाम है, जो वायनाड़ और रायबरेली, दोनों सीटों से क्रमानुसार 3,64,422 तथा 3,90,030 के अंतर से चुनाव जीते हैं।
कांग्रेस के उम्मीदवार
रकीबुल हुसैन धुबरी (असम) से अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी बदरुद्दीन अजमल से 10,12,476 मतों से जीते हैं।
इन लोकसभा चुनावों में सर्वाधिक अंतर से जीतने वाले रकीबुल हुसैन हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी के भतीजे और टीएमसी के नेता अभिषेक बनर्जी ने डायमंड हार्बर सीट 7,10,930 वोटों के अंतर से
जीती है। इस सूची में डीएमके की नेता एमके कनिमोझी (अंतर - 5,40,729), एआईएमआईएम के नेता
असदुद्दीन ओवैसी (अंतर - 3,92,738), समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (अंतर - 1,70,922), आम आदमी पार्टी के
नेता गुरमीत सिंह (अंतर - 1,72,560), नेशनल कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) की नेता सुप्रिया सुले (अंतर - 1,58,333) जैसे चर्चित नाम हैं।
किंतु नरेंद्र मोदी
के नाम से आगे इनमें अनेक ऐसे नाम हैं, जिन्हें देश की अधिकांश जनता जानती भी नहीं। कुछ निर्दलीय उम्मीदवार तक नरेंद्र
मोदी से भी ज़्यादा बड़ी जीत दर्ज कर आए हैं!
नरेंद्र मोदी बनाम
बीजेपी के चेहरे
विपक्ष के 112 उम्मीदवार नरेंद्र
मोदी से आगे हैं, जबकि अपनी ही पार्टी बीजेपी में नरेंद्र मोदी 113वें क्रम पर हैं! यहाँ भी नरेंद्र मोदी से आगे 112 उम्मीदवार हैं! नरेंद्र मोदी के लिए
अपनी ही पार्टी में 113वें क्रम पर पहुंचना, और देश में 225वें क्रम पर पहुंचना एक बड़ी राजनीतिक हार है। बीजेपी के 112 उम्मीदवार अपने पीएम
उम्मीदवार और प्रमुख नेता से अधिक अंतर से विजय हासिल कर आए हैं!
इसमें सबसे चर्चित
नाम मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का है। उन्होंने विदिशा सीट
पर अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार को 8,21,408 वोटों के अंतर से हराया है। वही शिवराज सिंह चौहान, जो मध्य प्रदेश में
बिना नरेंद्र मोदी की सहायता के सालों से बीजेपी को मज़बूती से जिताते आए हैं, जिन्हें पिछले विधानसभा
चुनाव में बीजेपी को भव्य विजय के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटा दिया गया था, जिनका कद (राजनीतिक
विश्लेषकों की माने तो) नरेंद्र मोदी ने कम करने के अनेक प्रयास किए, वह बीजेपी में सबसे
बड़ी जीत दर्ज कर लौटे हैं।
मध्य प्रदेश की इंदौर
सीट से बीजेपी के उम्मीदवार शंकर लालवानी 10,08,077 वोटों के अंतर से जीते हैं। इंदौर सीट ऐसी है, जहाँ नोटा का बटन दूसरे नंबर पर था, क्योंकि इस सीट पर
मतगणना से पहले कांग्रेस के उम्मीदवार ने अपना नामांकन वापस ले लिया था। इस सीट पर
शंकर लालवानी और नोटा के बीच का अंतर 10,08,077 है, लेकिन अगर प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार से मुक़ाबले की बात करें तो इस सीट पर विनिंग
मार्जिन 11,75,092 रहा है। देश की यह इकलौती सीट है, जहाँ सबसे ज़्यादा 2,18,674 लोगों ने नोटा का बटन दबाया।
इसके अलावा अमित शाह
ने गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट को 7,44,716, महेश शर्मा ने उत्तर प्रदेश की गौतम बुद्ध नगर सीट को 5,59,472, ज्योतिरादित्य सिंधिया
ने मध्य प्रदेश की गुना सीट को 5,40,929, मनसुख मांडविया ने गुजरात की पोरबंदर सीट को 3,83,360, पीयूष गोयल ने महाराष्ट्र की मुंबई नॉर्थ सीट को 3,57,608 लाख और हेमा मालिनी
ने उत्तर प्रदेश की मथुरा सीट को 2,93,407 वोटों के अंतर से जीता है।
एक दिलचस्प जानकारी यह भी नोट करें कि इन चुनावों में सबसे कम जीत का मार्जिन मुंबई
नॉर्थ वेस्ट सीट पर रहा। इस सीट पर शिवसेना (शिंदे) के रविंद्र वायकर ने अपने निकटतम
प्रतिद्वंद्वी शिवसेना (उद्धव ठाकरे) अमोल कीर्तिकर को महज़ 48 मतों से हराया।
नरेंद्र मोदी बनाम
लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों की तुलना की जाए तब नरेंद्र मोदी आसपास भी नहीं ठहरते
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता
के अनाप-शनाप सर्वे, आँकड़े, रिपोर्ट, शो मीडिया में चलते रहते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद की स्थिति देखें तो, नरेंद्र मोदी लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों की तुलना में इनके आसपास
भी नज़र नहीं आते।
यह बात ऐतिहासिक रूप
से सच है कि नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। वे जवाहरलाल नेहरू
के बाद दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो लगातार तीन चुनाव जीते हो। इंदिरा गांधी तीन बार प्रधानमंत्री बनी थीं, किंतु लगातार कार्यकाल
उन्हें नहीं मिल पाया था। हालाँकि यह ज़रूर नोट करें कि लगातार तीन बार बहुमत के साथ
प्रधानमंत्री बनने का नेहरू का रिकॉर्ड वे तोड़ नहीं पाए हैं। ऐसा करने वाले नेहरू
अकेले प्रधानमंत्री हैं।
लोकप्रिय प्रधानमंत्री
की बात हो तब यूँ तो तीन नाम लिए जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल
बिहारी वाजपेयी। हालाँकि वाजपेयी का प्रतिशत नेहरू और इंदिरा के सामने आधे से भी बहुत
कम हैं। किंतु तीन सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री में अब भी यह तीनों शामिल हैं, और इनके आँकड़े के
सामने मोदी आसपास भी नज़र नहीं आते।
भारत में अब तक जो
व्यक्ति तीन बार प्रधानमंत्री बने, उनमें जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी शामिल हैं, और पूरी उम्मीद है कि मोदी चौथे होंगे। नोट करें कि यहाँ अपने पूरे राजनीतिक जीवन
में तीन बार देश के प्रधानमंत्री बनने की बात है, लगातार तीन बार नहीं।
पूरे राजनीतिक जीवन में तीसरे कार्यकाल के लिए निकटतम प्रतिद्वंद्वी से जीत का
अंतर
नेता
|
जीत का अंतर (तीसरे कार्यकाल के लिए)
|
इंदिरा गांधी
|
49.35%
|
जवाहरलाल नेहरू
|
33.45%
|
अटल बिहारी वाजपेयी
|
16.39%
|
नरेंद्र मोदी
|
13.49%
|
इंदिरा गांधी जब तीसरी
बार साल 1980 में प्रधानमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने अपना लोकसभा चुनाव मेंडक सीट से लड़ा था। तब उन्होंने अपने नज़दीक़ी
प्रतिद्वंद्वी को 49.35 प्रतिशत वोटों के अंतर से हराया था। यह भारत के राजनीतिक इतिहास में तीसरे कार्यकाल
के लिए बतौर पीएम उम्मीदवार अब तक का सबसे बड़ा प्रतिशत है। स्वयं नेहरू का प्रतिशत
अपनी पुत्री इंदिरा के सामने बहुत नीचे है।
नोट करें कि यहाँ हार
जीत के अंतर की तुलना प्रतिशत में इसलिए की जा रही है, क्योंकि मतदाताओं
की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है, यानी नेहरू के दौर में एक चुनाव क्षेत्र में जितने वोटर थे, आज उससे कई गुना अधिक
हैं।
चुनाव आयोग के आँकड़ों
के मुताबिक़ तीसरी बार जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उत्तर प्रदेश
की फूलपुर लोकसभा सीट पर अपने नज़दीक़ी प्रतिद्वंद्वी को 33.45 प्रतिशत वोटों के
अंतर से हराया था।
तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री
बनने का मौक़ा बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ज़रूर मिला था, लेकिन वे मोदी या
नेहरू की तरह लगातार तीन चुनाव नहीं जीते थे। वाजपेयी ने लखनऊ सीट से लोकसभा चुनाव
लड़ा और अपने नज़दीक़ी प्रतिद्वंद्वी को 16.39 प्रतिशत वोटों के अंतर से हराया था। इंदिरा और नेहरू के सामने यह प्रतिशत बेहद
ही कम है, किंतु तीसरे कार्यकाल के नज़रिए से तीसरे क्रम पर है।
ऊपर दिए गए आँकड़ों
के मुक़ाबले नरेंद्र मोदी अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 13.49 प्रतिशत वोटों के
अंतर से जीते हैं। यानी, इंदिरा गांधी-जवाहरलाल नेहरू और वाजपेयी से भी कम।
बतौर प्रधानमंत्री
अपनी पार्टी को जिताई गई कुल सीटों की बात की जाए तब भी नरेंद्र मोदी बहुत ही पीछे
नज़र आते हैं। चुनाव आयोग के आधिकारिक आँकड़ों को सामने रखे तो,
क्रम
|
वर्ष
|
नेतृत्व
|
कुल लोकसभा सीटें
|
जीती हुईं सीटें
|
सीटें जीतने का प्रतिशत
|
1
|
1984
|
राजीव गांधी
|
543
|
404
|
74.40
|
2
|
1957
|
जवाहरलाल नेहरू
|
494
|
371
|
75.10
|
3
|
1952
|
जवाहरलाल नेहरू
|
489
|
364
|
74.44
|
4
|
1962
|
जवाहरलाल नेहरू
|
494
|
361
|
73.08
|
5
|
1980
|
इंदिरा गांधी
|
543
|
353
|
65.01
|
6
|
1971
|
इंदिरा गांधी
|
518
|
352
|
67.95
|
7
|
2019
|
नरेंद्र मोदी
|
545
|
303
|
55.60
|
8
|
1977
|
सामुहिक नेतृत्व
|
543
|
295
|
54.33
|
9
|
1967
|
इंदिरा गांधी
|
520
|
283
|
54.42
|
10
|
2014
|
नरेंद्र मोदी
|
545
|
282
|
51.74
|
2019 के मुक़ाबले 2024 में बिना मुद्दे के
नरेंद्र मोदी बीजेपी को वो वोट शेयर नहीं दिला सकें, कांग्रेस ने बीजेपी
से पचास प्रतिशत वोट शेयर वाली 29 सीटें छीन ली!
2014 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के प्रति नाराज़गी, भ्रष्टाचार विरुद्ध जनाक्रोश तथा नयी आशाओं का चुनाव था। 2019 चुनाव पुलवामा, बालाकोट और राष्ट्रवाद
के साये में लड़ा गया चुनाव था। जबकि 2024 में नरेंद्र मोदी कोई भी सांप्रदायिक या भावनात्मक मुद्दा नहीं बना सकें, और इस वजह से 2019 में 224 लोकसभा सीटों पर 50 प्रतिशत या उससे अधिक
वोट शेयर से जीतने वाली बीजेपी इस बार 156 सीटों पर वह वोट शेयर प्राप्त कर सकी।
2019 में उन 224 सीटों में से भाजपा को 7 सीटों पर 70% से ज़्यादा वोट मिले, 77 सीटों पर 60% से 70% के बीच और 140 सीटों पर 50% से 60% के बीच वोट मिले। चुनाव आयोग के आँकड़ों के मुताबिक़, 2024 के चुनाव में भाजपा
ने 7 सीटों पर फिर से 70% से अधिक वोट हासिल किया। लेकिन 60% से 70% के बीच के स्ट्राइक रेट वाली सीटों की संख्या 77 से घट कर 39 हो गई। 50% से 60% वोट शेयर के साथ जीती गई सीटें भी 140 से खिसकर 110 तक आ गईं।
50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर वाली जिन 68 सीटों को बीजेपी ने गँवाया, इनमें से 29 सीटें कांग्रेस ने जीती, जबकि 8 समाजवादी पार्टी ने जीती। 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर वाली 29 सीटें बीजेपी से कांग्रेस ने जीती! यह मामूली आँकड़ा नहीं है।
राजस्थान के बाड़मेर
में नई कहानी लिखी गई। 2019 में भाजपा ने यह सीट 59.52% वोट शेयर से जीती थी। लेकिन इस बार उसका वोट शेयर बाड़मेर में 17% पर सिमट गया! यहाँ कांग्रेस जीती है।
उत्तर प्रदेश के नतीजों
ने नरेंद्र मोदी और बीजेपी, दोनों को ज़बरदस्त झटका दिया है
यूपी की कुल 80 लोकसभा सीटों में
से बीजेपी ने 2014 में 71, तथा 2019 में 62 सीटें जीती थीं। इसी साल वहाँ राम मंदिर का अतिभव्य कार्यक्रम हुआ था। बीजेपी
और एग्जिट पोल, दोनों यहाँ बीजेपी को 71 से ऊपर सीटें दे रहे थे।
किंतु यूपी लोकसभा
ने नतीजों ने नरेंद्र मोदी और बीजेपी, दोनों को ही नहीं, राजनीतिक विश्लेषकों तक को झटका दिया है। बीजेपी यहाँ 50 से भी नीचे जा सकती
है ऐसे अनुमान ज़रूर थे, किंतु अंतिम नतीजों में बीजेपी यहाँ सिर्फ़ 33 सीटें ही जीत सकी! यह पिछली शताब्दी के नतीजों से भी ख़राब प्रदर्शन है।
नरेंद्र मोदी अपनी
ख़ुद की सीट इस तरह जीते कि वे देश में 225वें क्रम पर चले गए! बीजेपी और आरएसएस
की राजनीति का मुख्य केंद्र, अयोध्या, यहाँ बीजेपी हार गई! इतना ही नहीं, वाराणसी के आसपास
की लगभग तमाम सीटें बीजेपी ने गँवा दी! उत्तर प्रदेश में स्मृति ईरानी समेत बीजेपी के कई प्रमुख चेहरे इन चुनावों में
बुरी तरह से हारे हैं।
नरेंद्र मोदी की गारंटी
को लोगों ने कुछ इस तरह नकारा कि एक दर्जन से ज़्यादा केंद्रीय मंत्री तक चुनाव हारे
स्पष्ट है कि यदि नीतीश
कुमार (जेडीयू) और चंद्रबाबू नायडू (टीडीपी) साथ नहीं देते तो तीसरी बार प्रधानमंत्री
बनने का सौभाग्य नरेंद्र मोदी को नहीं मिलता। हाल यह रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार
के 15 केंद्रीय मंत्री चुनाव हारे हैं!
बीजेपी यूपी में 33 सीटें ही जीत सकी! यह यूपी में बीजेपी के सबसे ख़राब प्रदर्शन में शामिल है। राम मंदिर की राजनीति
से देश भर में अपनी ज़मीन मज़बूत करने वाली बीजेपी राम जन्म भूमि अयोध्या (फैज़ाबाद)
से भी चुनाव हार गई!
अमेठी से स्मृति ईरानी, लखीमपुर खीरी से अजय
मिश्रा टेनी, खूंटी झारखंड से अर्जुन मुंडा तक चुनाव हारे। बाड़मेर से कैलाश चौधरी इस तरह चुनाव
हारे कि वे तीसरे क्रम पर चले गए! तिरुवनंतपुरम से राजीव
चन्द्रशेखर, चंदौली यूपी से महेन्द्र नाथ पांडे, मोहनलालगंज यूपी से कौशल किशोर, मुजफ्फरनगर यूपी से संजीव बालियान, अट्टिंगल केरल से वी मुरलीधरन, नीलगिरी तमिलनाडु से एल मुरुगन, फतेहपुर यूपी से साध्वी निरंजन ज्योती, जालना महाराष्ट्र से राव साहब दानवे, आरा बिहार से आरके सिंह, कूच बिहार पश्चिम बंगाल से निशीथ प्रमाणिक, बांकुरा पश्चिम बंगाल से सुभाष सरकार जैसे मंत्री चुनाव हारे
हैं! और इनमें से अधिकांश बहुत बुरी तरह हारे हैं!
नरेंद्र मोदी अकेले
चुनाव नहीं लड़ रहे थे, उनके साथ उनके तीन और साथी दिखाई दे रहे थे
पहली बात - यह लोकसभा
चुनाव नरेंद्र मोदी अकेले नहीं लड़ रहे थे। उनके साथ तीन और प्रमुख साथी दिखाई दे रहे
थे। पहला - पूंजीपतियों का अगाध घन, दूसरा - भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया और तीसरा - ईडी, सीबीआई, आईटी, इसी से लेकर अनेक
संवैधानिक तथा जाँच संस्थाएँ।
अमूमन भारत के राजनीतिक
इतिहास में जब भी कोई उम्मीदवार बतौर प्रधानमंत्री लड़ा है, तब तब उसके पीछे यह
तीन प्रमुख साथी रहे ही हैं। इंदिरा गांधी ने भी इन तीन साथियों का ख़ूब इस्तेमाल किया
था। इंदिरा गांधी के सिवा दूसरों ने भी कम या ज़्यादा इस्तेमाल किया है। किंतु नरेंद्र
मोदी ने जिस तरह से, जिस स्तर के साथ, जिस मात्रा में, इन तीन साथियों का इस्तेमाल किया, वह भारतीय राजनीति की पहली और अब तक की एकमात्र घटना है। जानकारों की माने तो, जिन मुद्दों के आधार
पर इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने वह फ़ैसला दिया था, ऐसे या इसके क़रीब
पाए जाए ऐसे कारनामे नरेंद्र मोदी एक से अधिक बार कर चुके हैं।
कांग्रेस के शासन काल
में टाटा, बिड़ला से लेकर अंबानी जैसे उद्योग घरानों को लेकर कुछ या बहुत कुछ हो चुका है, जिसका ज़िक्र आप किसी
न किसी प्रमाणित लेख या किताब में पाएँगे। मोदीजी के शासन काल में अडानी और अंबानी
को लेकर हुआ है। देश की संवैधानिक-जाँच संस्थानों के दुरूपयोग का लंबा इतिहास है। मीडिया
को नियंत्रित करने की कोशिश तमाम ने की है। किंतु नरेंद्र मोदी ने इन सबमें जिस तरह
का प्रदर्शन किया है, वह अपने आप में अभूतपूर्व है। इन सबमें मोदीजी ने एक नया तथा दाग़दार रिकॉर्ड
स्थापित किया है।
कहा जाता है कि इन्होंने
इन तीन साथियों की मदद से वह सारे अनैतिक और घटिया राजनीतिक काम इस हद और इस स्तर तक
किए, जिसकी पूर्व में मिशाल नहीं मिलती। तमाम विभिन्न संस्थानों को, तमाम पूर्वस्थापित
पारदर्शिता और परम्पराओं को, तमाम लोकतांत्रिक प्रकियाओं को, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया को, इन्होंने जिस स्तर तक अपनी मुठ्ठी में भींचा, वह अप्रत्याशित है। इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी उस्तादी योजना को
क़ानूनी बुर्के से ढांप दिया गया। लोकतांत्रिक संस्थानों को मुठ्ठी में भींच कर पंगु
कर दिया गया। जाँच संस्थानों का काम जाँच करने का नहीं बल्कि विपक्षी नेताओं और पार्टियों
के ख़िलाफ़ राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने भर का रह गया।
इन्होंने मेनस्ट्रीम
मीडिया को कुछ इस तरह अपनी मुठ्ठी में भींचा कि मीडिया सत्ता के बदले विपक्ष से सवाल
पूछता रहा, सत्ता के झूठे दावों को ब्रह्मवाक्य की तरह पेश करता रहा! मीडिया ने मोदीजी के मिथकों को सच बताया! मीडिया ने उनके चेहरे को देवत्व प्रदान किया! मीडिया ने देश की तक़लीफ, परेशानी, सवाल, दिक्कत, सब कुछ गाड़ दिया! दुनिया भर में साल
दर साल ग्लोबल मीडिया रेंक में भारत का मीडिया बहुत पीछे होता गया। भारत का मीडिया
सत्ता दल के प्रवक्ता के रूप में जाना जाने लगा! देश के इतिहास में बाक़ायदा पहली बार न्यूज़ चैनल, न्यूज़ एंकर और दूसरे
पत्रकारों की एक सूची बनी, जो सत्ता के चमचे-कड़छे के रूप में प्रसिद्ध हो गए! भारत का मीडिया इतिहास में पहली बार 'गोदी मीडिया' के नाम से जाना जाने लगा, जिसने मोदीजी की घटिया से घटिया बातों को प्रशंसा के रूप में पेश किया!
एक राजनीतिक भाषण में
इस्तेमाल की गई पारम्परिक आलोचना को क़ानूनी जाल में फँसा कर भारत के प्रमुख विपक्षी
नेता की सांसदी छीन ली गई, सरकारी घर से बेदखल कर दिया गया। न सिर्फ़ विपक्षी दलों को, बल्कि अपने ही साथी
दलों को तोड़ दिया गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी जितने सीट पर देश भर में लड़ी, उसमें से 100 से 115 उम्मीदवार ऐसे थे, जो दूसरे दलों से
डरा-धमका कर तोड़े गए थे, जिनका बीजेपी-संघ से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था! लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए मुख्यमंत्रियों को जेल में डाल दिया गया। लोकसभा
चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस जैसे प्रमुख विपक्ष के बैंक खातों तक को सील करवा दिया।
ईडी-सीबीआई-आईटी की छापेमारी, फंडिंग और मोदीजी की वाशिंग मशीन का द्दश्य गाहे बगाहे चलता रहा।
इन्होंने पूरा लोकसभा
चुनाव अपने नाम पर ही लड़ा, अपने चेहरे पर ही लड़ा। यहाँ तक की बीजेपी के घोषणापत्र के शीर्षक में भी बीजेपी
का नाम नहीं था, वहाँ मोदी की गारंटी लिखा गया! सबसे ज़्यादा चुनावी सभाएँ इन्होंने ही की। पेट्रोल पंप, बस स्टेशन, सड़कें, पुलिया, वैक्सीन सर्टिफ़िकेट
से लेकर न जाने कहाँ कहाँ अपने फ़ोटो छपवाए। अपने तीन साथियों की कथित मदद से मीडिया
में ख़ुद को नायक और अंत में भगवान के तौर पर पेश किया। ऐतिहासिक रूप से विवादित प्रयासों
के बाद भी जिस तरह से बीजेपी लुड़की, जिस तरह से हाँफ़ते हाँफ़ते मोदीजी अपनी सीट जीते, जिस तरह से इनके दर्जनों
मंत्री हारे, यूपी में अयोध्या समेत अनेक सीटों पर जिस तरह से ऐतिहासिक धरातल प्राप्त किया, यह हार है, और यह सिर्फ़ और सिर्फ़
मोदीजी की ही हार है।
आख़िरी बात यह भी दर्ज होनी चाहिए कि यह भारत है और ज़्यादातर तो यहाँ कोई निरंतर
नहीं हारता, ना कोई निरंतर जीतता है। कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देखने वाले अपनी आँखों के
सामने कांग्रेस को फिर से उस ज़मीन को वापस लेते देख रहे हैं। विचारधारा की डींगे हाँकने
वाले अपनी आँखों के सामने मोदी और बीजेपी को पीडीपी के साथ, उद्धव ठाकरे और शिवसेना
को कांग्रेस के साथ बंधते हुए देख चुके हैं। पिछले 10 सालों में ऐसे ढेरों
उदाहरण हैं, जिन्हें यहाँ लिखने के लिए समय और जगह नहीं है। ये होगा या वह होगा, होगा ही होगा, लगा लो शर्त, इस तरह का जीवन जीने
का कोई तुक नहीं है। इतिहास के सामने यह तुक मूर्खता साबित होते हैं। राजनीति असीम
संभावनाओं का निर्मम खेल है। जिन संभावनाओं को लेकर हम रातों को जागते हैं, वे (नेता) आराम से
सो रहे होते हैं। और जब हम आराम से सोते हैं, वे रात को जागकर खेल कर चुके होते हैं। नेता निहायत घटिया क़िस्म
का जीव होता है, तभी तो उन्हें नेता कहा जाता है, वर्ना राजपुरूष न कहते।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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