"तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा, यह अब पुराना हो गया; नया वाला इस प्रकार है, तुम मुझे चंदा दो, मैं तुम्हें धंधा दूँगा", "इलेक्टोरल बॉन्ड तो सिर्फ़ झांकी है, पीएम केयर फंड अभी बाकी है", "देश को स्वीस बैंकों
का रिकॉर्ड दिखाने की बात करने वाले एसबीआई का स्टेटमेंट दिखाने में ही डर गए", "बैंकों के सारे काम
डिजिटल हो रहे हैं, बस इलेक्टोरल बॉन्ड का महाकाव्य एसबीआई ने ताम्रपत्र पर लिख रखा था"... सोशल
मीडिया पर इन दिनों इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर तंज़ कुछ ऐसे हैं।
यूँ तो भारतीय मीडिया की असीम कृपा के चलते तत्कालीन मोदी सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड
के अचंभित करने वाले विवाद से भी बच निकली है! सोशल मीडिया पर छिटपुट सवाल उठ रहे हैं, किंतु भारतीय मीडिया इन सारे सवालों और विवादों से तत्कालीन
सरकार को बाहर निकालने में सफल हो चुका है।
अधुरे, अनसुलझे और नकार दिए
गए सवालों के कारण मोदी सरकार को इस बात के लिए भी याद किया जाना चाहिए कि उसने भ्रष्टाचार
के राक्षस के मुँह को क़ानूनी बुर्के से ढांप दिया है। उसने इंदिरा काल के भ्रष्टाचार
की अराजकता को वैधता प्रदान कर दी है और उसे ऐसा रूप दे दिया है कि भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार
बन गया है। और सरकार की इस सफलता के पीछे भारतीय मीडिया का ख़ासा योगदान है, जिसने सरकार के चरणों
में साष्टांग दंडवत प्रणाम करके उलटी गंगा में हाथ घोएँ, जहाँ सवाल विपक्ष
से होते हैं, सरकार से नहीं!
इलेक्टोरल बॉन्ड के
बारे में जितनी भी जानकारियाँ और कहानियाँ अब तक देश के सामने हैं, कहा जा सकता है कि
जिसने भी यह योजना बनाकर मोदी और अरुण जेटली को थमाई थी, उसका दिमाग़ किसी
तस्कर या डाकू से भी अधिक तेज़ रहा होगा।
1 फ़रवरी 2017 के दिन बजट में बॉन्ड का प्रावधान लाया गया था और तभी से आरबीआई, एडीआर के जगदीप
छोकर, पूर्व चुनाव आयुक्त, चुनावी विशेषज्ञों से लेकर संबंधित तमाम जानकारों ने इस पर घोर आपत्ति जताई थी।
जनवरी 2018 में बॉन्ड स्कीम लागू कर दिया गया।
पाँच प्रकार के बॉन्ड
लाए गए थे। 1 हज़ार, 10 हज़ार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपये के। ये बॉन्ड कोई भी व्यक्ति या संस्था किसी भी राजनीतिक दल को दे
सकते थें। पहले वह इन्हें ख़रीदे और फिर जिसे चाहे उसे दे दें। ख़रीदार का नाम बिलकुल
गोपनीय रखने की सहूलियत! उपरांत यह बॉन्ड सिर्फ़
सरकारी बैंक- स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया बेचता था।
1 फ़रवरी 2017 से पहले किसने किस दल को कितना चंदा दिया, उसकी पूरी तो नहीं किंतु बहुत सारी जानकारी एडीआर और दूसरों तक पहुंचती थीं और
फिर वे विश्लेषण कर इसे देश के सामने रखते थे। मोदी सरकार ने यह रास्ता ही बंद कर दिया!
किसी राजनीतिक दल को
कितने बॉन्ड मिले हैं, उसे केवल चुनाव आयोग को बताना था, और चुनाव आयोग को यह किसीको नहीं बताना था! पहले 20 हज़ार से ज़्यादा की रकम वाला चंदा बताना होता था। वैसे तब भी सारे दल धांधली
करते थे। लेकिन चुनावी बॉन्ड की यह योजना धांधली के सिवा कुछ निकला ही नहीं।
आपको पाँच-पचास की आय हुई हो या ख़र्चा, आपको सारी जानकारी
सरकार तथा उसके विभिन्न विभागों को देनी होगी। आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप पूरी
पारदर्शिता से अपने पैसे कमाए और ख़र्च करें। सरकार की जब भी इच्छा होगी, वह आपसे पूरा ब्यौरा
मांग सकती है और आपको देना होगा। लेकिन मोदी सरकार के मुताबिक़ यह नियम, यह क़ानून राजनीतिक
दलों को लागू नहीं होता! ट्रस्ट या फाउंडेशन वाले तो विदेशी चंदे पर फँस ही जाएँगे, लेकिन ये राजनीतिक
दल पाकिस्तान के नाम पर जीतकर पाकिस्तान से भी चंदा ले सकते हैं, बीफ़-मीट पर राजनीति
कर उनसे ही बॉन्ड डकार सकते हैं!
पहले 20 हज़ार से ज़्यादा
की रकम के चंदे पर धांधली होती थी, जिसे रोकने की जगह राजनीतिक दलों को इस झूठ से बचाने के लिए मोदी सरकार ने एक
बड़े झूठ का आविष्कार कर लिया! फ़रवरी 2017 में इस स्कीम के लिए
प्रावधान आया, स्कीम लागू हुई जनवरी 2018 में। किंतु जो जानकारी निकल कर आ रही है उसके मुताबिक़ जनवरी 2018 और जनवरी 2024 के बीच 16,518 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे गए थे और इसमें से ज़्यादातर राशि राजनीतिक दलों को चुनावी फंडिग के तौर पर
दी गई थी, जिसमें सबसे ज़्यादा, यूँ कहे कि बहुत ही ज़्यादा हिस्सा बीजेपी का था, उसके बाद टीएमसी, कांग्रेस और मुट्ठीभर
अन्य दलों को।
2017 में जब यह विवादित योजना आई तभी आरबीआई, पूर्व चुनाव आयुक्त, एडीआर से जुड़े लोग, अर्थतंत्र और भ्रष्टाचार
की समझ रखनेवाले जानकार, बचे-खुचे निष्पक्ष नागरिक और विलुप्त प्रजाति में शामिल हो चुके बचे-खुचे पत्रकार, सभी ने आपत्ति ज़ाहिर
की थी। उनका कहना था कि कई फ़र्ज़ी कंपनियाँ और पैसे वाले अपनी काली कमाई का यहाँ इस्तेमाल
करेंगे और गोपनीयता की आड़ में रिश्वत, ज़बरन वसूली और उगाही का एक वैध और क़ानूनी रास्ता खुलेगा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश
के बाद मज़बूरी में जो कुछ और जितना कुछ सार्वजनिक हुआ, यह सारे आरोप सच साबित
हो चुके हैं।
लगता है कि मोदी सरकार
ने भ्रष्टाचार की सड़क को सरपट बना दिया है! लाखों-करोड़ों के बॉन्ड ख़रीदने वालों के नाम बैंक तो छिपाए रखता है, लेकिन वे ख़ुद जाकर
नेताओं को अपने नाम बता देते हैं। यूँ कहे कि नेताओं को पता ही है कि उन्हें कौन दान
देगा, या किससे लिया जाना है। अब तक जो जानकारी सार्वजनिक हुई है, यह सिर्फ़ भ्रष्टाचार
ही नहीं, किंतु ज़बरन वसूली सरीखा लगता है। ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं को सामने रखकर चंदे के रूप में उगाही की गई हो ऐसा द्दश्य
प्रथम नज़र में सामने आने लगा है।
इलेक्टोरल बॉन्ड पर
हम जैसे नागरिक भले ही अपने फेफड़े फाड़ लें, किंतु भारतीय मीडिया की असीम कृपा के चलते ज़्यादातर भारतीयों के लिए यह कोई मुद्दा
है ही नहीं! देशभक्ति वही, जो मोदीजी करवाएँ!
2017 से ही चुनावी बॉन्ड पर ढेरों सवाल थें, आपत्तियाँ थीं। 2019-20 के दौरान कोविड19 के समय पीएम केयर फंड वाला अति विवादित कदम आया, जहाँ भी मोदी सरकार
ने देश के इस फंड के बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया! इससे पहले, जनवरी 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को लागू कर दिया गया।
जिसे लोकतंत्र का सबसे
बड़ा उत्सव कहा जाता है उस चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा सबसे बड़ा मसला, यूँ कहे कि सबसे बड़ा
आर्थिक मसला, मोदी सरकार ने इसे कालीन के नीचे छुपाने के भरसक प्रयास किए। जो चीज़ जनता के
लिए है, जनता के द्वारा है, उसीको जनता से छिपाने की हर मुमकिन कोशिश हुईं! चुनाव आयोग पर अनेक इल्ज़ाम लगे।
एसबीआई ने जानकारी साझा करने से मना कर दिया!
बॉन्ड की वैधता पर
सवाल उठाते हुए एडीआर, कॉमन कॉज़ और मार्कसवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत पाँच याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम
कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। साल आया 2024। इस साल 15 फ़रवरी के दिन सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक
व ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया। राष्ट्रवाद और देशभक्ति के आड़ में चल रहे कथित गोरख
धंधे को यह बड़ा झटका था।
सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई
से इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी साझा करने के लिए कहा। एसबीआई को 12 अप्रैल 2019 से अब तक की पूरी
जानकारी 6 मार्च 2024 की तारीख़ तक मुहैया कराने के लिए कहा और चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह इसे 13 मार्च 2024 की शाम तक अपने वेबसाइट
पर प्रदर्शित करें।
एसबीआई ने सुप्रीम
कोर्ट में गुहार लगाई। कहा कि बैंक के लिए इतनी ज़ल्दी सारी जानकारी इक्ठ्ठा करना और
उसे चुनाव आयोग तक पहुंचाना संभव नहीं है। एसबीआई ने सुप्रीम कोर्ट से तीन महीने की
मोहलत मांगी। एसबीआई ने समय सीमा 30 जून 2024 तक बढ़ाने के लिए कहा। लाज़िमी था कि तब तक लोकसभा चुनाव ख़त्म हो जाते।
यह भी लाज़िमी है कि
एसबीआई ने ऐसी मोहलत अपने आप नहीं मांगी होगी। एसबीआई की तरफ़ से वरिष्ठ वकील हरीश
साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट में ख़ूब दलीले दीं, बहुत प्रयत्न किए। कहा कि जो बॉन्ड जारी हुए हैं उसकी जानकारी इक्ठ्ठा करने में
समय लग सकता है।
एसबीआई और उनके वकील
हरीश साल्वे की इस ग़ज़ब दलील का सोशल मीडिया पर ख़ूब मख़ौल उड़ा। इन दिनों सोशल मीडिया
पर यह तंज़ ख़ूब चला कि बैंकों के सारे काम डिजिटल हो रहे हैं, बस इलेक्टोरल बॉन्ड
का महाकाव्य एसबीआई ने ताम्रपत्र पर लिख रखा है!
6 मार्च वाली तारीख़ बीत गई और एसबीआई अदालत में गुहार लगाती रही। स्वाभाविक तौर
पर सुप्रीम कोर्ट ने भी एसबीआई के इस तर्क को ख़ारिज किया और 11 मार्च 2024 के दिन सख़्त लहज़े
में कहा कि एसबीआई कल तक ही पूरी जानकारी दें और 15 मार्च तक चुनाव आयोग उस जानकारी को सार्वजनिक करें।
सुनवाई के दौरान संविधान
पीठ की अध्यक्षता कर रहे चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, "आप (एसबीआई) कह रहे
हैं कि दानदाताओं और राजनीतिक पार्टियों की जानकारी सील कवर के साथ एसबीआई की मुंबई
स्थित मुख्य शाखा में है और मैचिंग प्रक्रिया में समय लगेगा। लेकिन हमने आपको मैचिंग
करने के लिए कहा ही नहीं था। हमने सिर्फ़ स्पष्ट डिस्कलोजर मांगा था।"
संविधान पीठ के सदस्य
जस्टिस खन्ना ने हरीश साल्वे से कहा, "आपने बताया कि इलेक्टोरल बॉन्ड की पूरी जानकारी एक सील कवर लिफ़ाफ़े में रखी गई
है, तो ऐसे में आपको सिर्फ़
सील कवर खोलकर जानकारी देनी है।" चीफ़ जस्टिस ने एसबीआई को फटकार लगाते हुए कहा, "हमने 15 फ़रवरी को आदेश दिया
था और आज 11 मार्च है। ऐसे में बीते 26 दिनों में आपने क्या किया?" वकील हरीश साल्वे ने एक और मौक़ा पाने
की कोशिश में कहा, "अगर आप (अदालत) मैचिंग नहीं चाहते हैं तो हम तीन हफ़्ते में पूरी जानकारी दे सकते
हैं।"
हालाँकि सुप्रीम कोर्ट
ने सारी दलीलों को ख़ारिज कर दिया और कहा, "आपको कल, यानी 12 मार्च तक मांगी गई तमाम जानकारी देनी ही होगी। साथ ही चुनाव आयोग उसे 15 मार्च तक सार्वजनिक
कर दें।" अदालत ने चेतावनी दी कि तय समय सीमा में निर्देशों का पालन नहीं करने
पर बैंक के ख़िलाफ़ अवमानना की कार्रवाई की जा सकती है।
तीन महीने मांगने वाली
एसबीआई ने उस शाम को ही चुनाव आयोग को जानकारी दे दी!!! और आयोग ने उसे अगले दिन अपने वेबसाइट पर अपलोड कर दिया। हालाँकि एसबीआई ने जो
जानकारी दी थी, उसमें से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ ग़ायब थीं! बॉन्ड का यूनिक नंबर साझा नहीं किया गया था! तमाम जानकारी साझा करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को याद दिलाया जाने लगा। मामला
फिर अदालत पहुंचा।
बॉन्ड की पूरी जानकारी
नहीं आने पर राजनीतिक दलों से पूछा गया तो, बीजेपी ने कहा कि चंदा देने वालों के नाम का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया! टीएमसी-जेडीयू ने कहा कि उनके पार्टी दफ़्तर में अज्ञात लोग आए और सीलबंद लिफ़ाफ़े
में इलेक्टोरल बॉन्ड दे गए, हमें नहीं पता कि ये चंदा किसने दिया!!! कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सभी ने लगभग चुप्पी ही साधे रखी!
19 मार्च 2024 के दिन बीबीसी हिंदी में प्रकाशित एक रिपोर्ट की माने तो, बीजेपी को 6986 करोड़ रुपये, टीएमसी को 1397 करोड़, कांग्रेस को 1334 करोड़, बीआरएस को 1322 करोड़, बीजेडी को 944 करोड़ और डीएमके को
656 करोड़ रुपये बतौर
चंदा मिले थे।
इस बीच भारत की इंडस्ट्री
बॉडी पूरी जानकारी सार्वजनिक करने के ख़िलाफ़ दिखाई दी! अंग्रेज़ी अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट में
एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) ने याचिका लगाकर कहा कि अगर पूरी
जानकारी सार्वजनिक की जाती है तो इससे भारत के हितों पर असर होगा। द इंडियन एक्सप्रेस
के मुताबिक़ एसोचैम के अलावा फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स (फ़िक्की) और
कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने भी पूरी जानकारी साझा नहीं करने के लिए
कहा था।
7 दिनों तक माथापच्ची चलती रही। आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को फिर से बाध्य
किया कि वह पूरी जानकारी साझा करें और साथ ही हलफ़नामा दें कि अब किसी प्रकार की कोई
जानकारी छुपाई नहीं गई है।
अब बढ़ते हैं उस महत्वपूर्ण
हिस्से की तरफ़। इलेक्टोरल बॉन्ड की जो जानकारियाँ सामने आईं, इसने स्पष्ट रूप से
सवाल उठाया कि क्या यह योजना वसूली और भ्रष्टाचार की उस्तादी योजना थी? अनेक गंभीर सवाल उठे।
अनेक अचंभित करने वाले डाटा सामने आए। तत्कालीन मोदी सरकार कटघरे में खड़ी हुई।
दूसरी तरफ़ इस बीच भारतीय मीडिया ने इस 'उस्तादी योजना' का पर्दाफ़ाश होने
के बाद अपना पूरा ज़ोर इस पर लगाया कि अपने 'उस्ताद' की बदनामी न हो! मीडिया ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर लगभग लगभग ना के बराबर रिपोर्टींग की! अनाप-शनाप मुद्दों पर कार्यक्रम चलाने वाला मीडिया इस कथित महाघोटाले की तरफ़
आँखें मुंद बैठ गया! किसी न्यूज़ चैनल ने, किसी एंकर ने, किसी पत्रकार ने बॉन्ड पर कोई विशेष कार्यक्रम नहीं किए और इस तरह अपने उस्ताद
की साख़ और इज़्ज़त बचाने के लिए काम करता रहा!
हर ऐरे-ग़ैरे मुद्दे
पर मोदी का मास्टर स्ट्रोक का रट्टा मारने वाला मीडिया चुप रहा! बचे-खुचे लोग बोलते रहे, जिन्हें मुख्य धारा के मीडिया ने कोई जगह नहीं दी!
इक्का दुक्का संगठन
और व्यक्तिओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट पहुंचना, केंद्र सरकार और एसबीआई के विचित्र तर्क और बहाने, सुप्रीम कोर्ट की
अभूतपूर्व सख़्ती और स्पष्ट आदेश, बहुत सारी माथापच्ची के बाद जानकारियाँ बहार आईं।
जानकारी बाहर आने के
बाद सबसे पहला सवाल "जाँच और रेड, बॉन्ड की ख़रीद और कॉन्ट्रैक्ट के आवंटन के समय" पर ही उठा। पहली ही नज़र
में पूरा मामला "काला धन", "ज़बरन वसूली", "संस्थाओं के दुरुपयोग" और "भ्रष्टाचार की उस्तादी योजना", इन्हीं के आसपास ठहर
गया।
एसबीआई के पहली खेप
में जारी किए गए डाटा का विश्लेषण करने पर कई तरह के पैटर्न नज़र आएँ। कुछ ऐसे पैटर्न, जिनकी वजह से इलेक्टोरल
बॉन्ड योजना को देश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला तक कहा जाने लगा।
उपलब्ध डाटा को ध्यान
से देखने पर ऐसे कई उदाहरण मिलें, जहाँ किस साल किसी प्राइवेट कंपनी पर एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट (ईडी) या आयकर
विभाग की छापेमारी हुई और उसके कुछ ही दिन बाद उस कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे! ऐसे भी उदाहरण मिलें, जिनमें किसी कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे और कुछ दिन बाद उस पर छापेमारी हुई
और उसके बाद कंपनी ने फिर इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे!
कुछ मामले ऐसे भी मिले, जिसमें इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदने के कुछ वक़्त बाद ही किसी निजी कंपनी को कोई बड़ा सरकारी प्रोजेक्ट मिल
गया! एक तरफ़ रेड, दूसरी तरफ़ चंदा, यह पैटर्न पहली ही नज़र में कुछेक मीडिया लेखों में दर्ज किया गया। आरोप लगे कि
ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई जैसी जाँच एजेंसियाँ वसूली एजेंट बन कर काम कर रही थीं।
संयोग या प्रयोग? छापेमारी, चुनावी चंदे और कॉन्ट्रैक्ट का पैटर्न
संयोग है या प्रयोग? 2020 में प्रधानमंत्री
द्वारा दागा गया वह विवादास्पद सवाल इस बार उन्हीं की तरफ़ लौट आया। सवाल उठे कि ईडी
और आईटी विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों द्वारा छापेमारी के तुरंत बाद कई कॉर्पोरेट
घरानों और व्यापारिक संस्थाओं द्वारा चुनावी बॉन्ड ख़रीदना, यह कैसा संयोग था? या चुनावी चंदे का
कोई नया प्रयोग था?
साफ़ कर दें कि यह
पैटर्न और यह विश्लेषण निष्पक्ष जाँच के विषय हैं। दरअसल, पूर्व सरकारों के
दौरान घोटाले के आरोप किसी पैटर्न और किसी विश्लेषण के आधार पर ही लगाए जाते रहे हैं।
तथ्यों, सबूतों, निष्पक्ष जाँच, आदि के बाद तो 2जी स्कैम के भी सारे आरोपी बरी हो चुके हैं!
बीबीसी हिंदी पर 20 मार्च 2024 के दिन प्रकाशित राघवेंद्र राव की रिपोर्ट में कुछ पैटर्न और विश्लेषण को सामने लाया गया है। इस रिपोर्ट में कुछ
कंपनियाँ और उनसे जुड़ी घटनाओं का विश्लेषण कुछ यूँ पेश किया गया है-
फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड - इस कंपनी ने अक्टूबर 2020 और जनवरी 2024 के बीच 1368 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे थे। इसी दौरान, 2 अप्रैल 2022 को ईडी ने लॉटरी घोटाला
मामले में इस कंपनी की 409.92 करोड़ की चल संपत्ति अटैच कर दी। 7 अप्रैल 2022 को कंपनी ने 100 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। 11 अप्रैल 2023 को कंपनी ने फिर 60 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे।
11 और 12 मई 2023 को प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्डरिंग एक्ट के प्रावधानों के तहत ईडी ने फ्यूचर गेमिंग
के अध्यक्ष सैंटियागो मार्टिन और अन्य लोगों के चेन्नई में आवासीय परिसरों और कोयंबटूर
में व्यावसायिक परिसरों में तलाशी अभियान चलाया। तलाशी के दौरान क़रीब 457 करोड़ रुपये की चल/अचल
संपत्ति बरामद की गई। 6 जुलाई 2023 को कंपनी ने फिर 62 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड ख़रीदे।
टोरेंट पावर लिमिटेड - इस कंपनी ने 7 मई 2019 और 10 जनवरी 2024 के बीच 106.5 करोड़ रुपए के चुनावी
बॉन्ड ख़रीदे थे। 7 मार्च 2024 को इस कंपनी ने कहा कि उसे पीएम-कुसुम योजना के तहत 1,540 करोड़ रुपये की 306 मेगावाट की सौर परियोजनाएँ
स्थापित करने के लिए महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लिमिटेड से कॉन्ट्रैक्ट
मिला है। 9 जनवरी 2024 को इस कंपनी ने 15 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। 10 जनवरी 2024 को कंपनी ने 10 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे।
यशोदा सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल - इस कंपनी ने 4 अक्टूबर 2021 और 11 अक्टूबर 2023 के बीच 162 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे थे। कंपनी पर 22 दिसंबर 2020 को आयकर विभाग की रेड हुई थी। 4 अक्टूबर 2021 से इस कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने शुरू किए।
औरोबिन्दो फ़ार्मा - इस कंपनी ने 3 अप्रैल 2021 और 8 नवंबर 2023 के बीच 51 करोड़ रुपए के बॉन्ड
ख़रीदे। 10 नवंबर 2022 को कंपनी के निदेशक पी सरथ चंद्र रेड्डी को ईडी ने मनी लॉन्डरिंग मामले गिरफ़्तार
कर लिया। 15 नवंबर 2022 को कंपनी ने पाँच करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। साल 2022 में 5 जनवरी और 2 जुलाई के बीच भी कंपनी
ने 19.5 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे थे। नोट करें कि यह वही शख़्स हैं, जो दिल्ली लीकर पॉलिसी
मामले में फँसे, फिर सरकारी गवाह बने। वही मामला, जिसमें दिल्ली के शिक्षा मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक गिरफ़्तार हो चुके हैं।
शिरडी साई इलेक्ट्रिकल्स - 18 दिसंबर 2023 को इस कंपनी की कडप्पा
स्थित फैक्टरी में आयकर विभाग की रेड हुई। 11 जनवरी 2024 को 40 करोड़ रूपए के बॉन्ड ख़रीदे।
कल्पतरु प्रोजेक्ट्स इंटरनेशनल लिमिटेड - इस कंपनी ने 7 अप्रैल 2023 और 10 अक्टूबर 2023 के बीच 25.5 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। 7 अप्रैल 2023 को इस कंपनी ने 10 करोड़ रूपए के बॉन्ड ख़रीदे। 5 जुलाई को कंपनी ने फिर 10 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। 4 अगस्त 2023 को आयकर विभाग ने इस कंपनी पर छापेमारी की, जो अगले कई दिन तक चली। 10 अक्टूबर 2023 को कंपनी ने 5.5 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे।
माइक्रो लैब्स - इस कंपनी ने 10 अक्टूबर 2022 और 9 अक्टूबर 2023 के बीच 16 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। 6 जुलाई 2022 को इस कंपनी पर इनकम टैक्स विभाग की रेड हुई। 10 अक्टूबर 2022 को कंपनी ने 6 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। 15 नवंबर 2022 को कंपनी ने फिर एक बार 3 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे।
हीरो मोटोकॉर्प - इस कंपनी पर 23 से 26 मार्च 2022 के बीच आयकर विभाग
की छापेमारी हुई। कंपनी ने 7 अक्टूबर 2022 को 20 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे।
एपीसीओ इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड - इस कंपनी ने 15 जनवरी 2020 और 12 अक्टूबर 2023 के बीच 30 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। 10 जनवरी 2022 को कंपनी ने 10 करोड़ रूपए के बॉन्ड ख़रीदे। कुछ ही दिन बाद जनवरी 2022 में ही इस कंपनी को
एक अन्य कंपनी के साथ जॉइंट-वेंचर में 9000 करोड़ रुपए की लागत वाला वर्सोवा-बांद्रा सी लिंक बनाने का कॉन्ट्रैक्ट मिला।
डॉ रेड्डीज़ लैब - इसने 8 मई 2019 और 4 जनवरी 2024 के बीच 80 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। 12 नवंबर 2023 को आयकर विभाग ने इस कंपनी से जुड़े लोगों और उनके सहयोगियों पर अवैध नक़द लेनदेन
के मामले में छापेमारी की। 17 नवंबर 2023 को इस कंपनी ने 21 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। 4 जनवरी 2024 को कंपनी ने 10 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे।
ऋत्विक प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड - इस कंपनी के फ़ाउंडर आंध्र प्रदेश से राज्यसभा के बीजेपी सांसद सी.एम. रमेश हैं।
द हिंदू की एक विस्तृत रिपोर्ट के मुताबिक़ रमेश की कंपनी ने कुल 45 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे। सबसे पहले उन्होंने 5 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे। इसके कुछ ही दिन बाद उनकी कंपनी को हिमाचल प्रदेश
में सन्नी हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के लिए ईपीसी (इंजीनियरिंग, प्रॉक्यूरमेंट एंड
कंस्ट्रक्शन) का ठेका मिला। इसके दो महीने बाद उन्होंने 40 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। ये कंपनी उत्तराखंड में तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट
में भी शामिल थी। ये कंपनी तब चर्चा में आई थी, जब जोशीमठ में इसकी परियोजनाओं के नज़दीक़ के घर और सड़कें धंसने लगी थीं।
मेघा इंजीनियरिंग - हैदराबाद स्थित मेघा
इंजीनियरिंग ने पाँच साल के समय में कुल 966 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे। 11 अप्रैल 2023 को इस कंपनी ने 100 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे। एक महीने के भीतर उसे महाराष्ट्र में करोड़ो रुपये का
कॉन्ट्रैक्ट मिल गया। अक्टूबर 2019 में आयकर विभाग के अधिकारियों ने मेघा ग्रुप
पर छापे मारे थे। ईडी ने भी कंपनी की जाँच की थी।
इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने
वाली वे कंपनियाँ, जिन पर हुई थी जाँच एजेंसियों की कार्रवाई
16 मार्च 2024 के दिन बीबीसी हिंदी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सबसे ज़्यादा बॉन्ड
ख़रीदने वालों में कई ऐसी कंपनियाँ शामिल हैं, जिनके ख़िलाफ़ ईडी और इनकम टैक्स विभाग की कार्रवाई हुई हो! फ्यूचर गेमिंग, वेदांता लिमिटेड, मेघा इंजीनियरिंग जैसी कंपनियाँ सबसे ज़्यादा बॉन्ड ख़रीदने वालों में शामिल हैं।
इंडियन एक्सप्रेस ने
अपनी एक ख़ास रिपोर्ट में कहा है कि सिर्फ़ यही कंपनियाँ नहीं, क़रीब दस कंपनियों
की बॉन्ड ख़रीदारी में भी यही पैटर्न दिखता है! अख़बार लिखता है कि आरपीएसजी की हल्दिया
एनर्जी, डीएलएफ, फ़ार्मा कंपनी हेटेरो ड्रग्स, वेलस्पन ग्रुप, डिवीस लेबोरेट्रीज और बायोकॉन की किरण मजूमदार शॉ ने काफी बॉन्ड ख़रीदे हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक़, इलेक्टोरल बॉन्ड की
बड़ी ख़रीदार हल्दिया एनर्जी पर सीबीआई ने 2020 में भ्रष्टाचार का मुकदमा दर्ज किया था। हल्दिया एनर्जी ने
2019 से लेकर 2024 के बीच 377 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे।
अख़बार लिखता है कि
डीएलएफ शीर्ष बॉन्ड ख़रीदारों में शामिल है। उसने 130 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे हैं। सीबीआई ने डीएलएफ ग्रुप
की कंपनी न्यू गुड़गांव होम्स ग्रुप डेवलपर्स के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया था। ये केस
1 नवंबर को 2017 में सुप्रीम के निर्देश
के बाद दर्ज किया गया था। 25 जनवरी 2019 को सीबीआई ने कंपनी के गुरुग्राम के दफ़्तर और कई ठिकानों पर छापेमारी की थी।
सीबीआई की ये कार्रवाई कंपनी को जमीन आवंटन में कथित अनियमितता की जाँच के सिलसिले
में हुई थी। इन कार्रवाइयों के बाद डीएलएफ ने 9 अक्टूबर 2019 से इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने शुरू किए। कंपनी ने कुल 130 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे।
फ़ार्मा कंपनी हेटेरो ड्रग्स भी सबसे ज़्यादा बॉन्ड
ख़रीदने वाली कंपनियों में शामिल है। इस कंपनी ने अपनी सहयोगी कंपनी हेटेरो लैब्स और
हेटेरो बायोलैब्स के ज़रिए 60 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे। ये कंपनी 2021 से इनकम-टैक्स डिपार्टमेंट की निगरानी में थी। अक्टूबर 2021 में आयकर विभाग ने
कंपनी के कई ठिकानों पर छापेमारी की और 140 करोड़ रुपये से ज़्यादा का कैश बरामद किया। 550 करोड़ की बेहिसाबी आय का भी पता लगा था।
डिवीस लैबोरेट्रीज देश की सबसे बड़ी
एपीआई मैन्युफैक्चरर्स में शामिल है। इस कंपनी 2023 में 55 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे। कंपनी के ठिकानों पर 14 से 18 फ़रवरी तक इनकम टैक्स
के छापे पड़े थे।
बायोकॉन की शॉ ने 6 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे हैं। जून 2022 में बायोकॉन की बायोलॉजिक्स
एसोसिएट के वाइस प्रेसिडेंट एल प्रवीण कुमार को सीबीआई ने रिश्वतखोरी के एक मामले में
गिरफ़्तार कर लिया था।
इसी तरह वेलस्पन
ग्रुप ने भी अपनी कई सहयोगी कंपनियों के साथ मिलकर 55 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे थे। कंपनी ने 2019 से 2024 के बीच कई किस्तों में बॉन्ड ख़रीदे। पहली ख़रीदारी अप्रैल 2019 में हुई थी। इससे
पहले जुलाई 2017 में आयकर विभाग ने ग्रुप के कुछ ठिकानों पर छापेमारी की थी।
ग़ज़ब बात यह कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए उन कंपनियों ने भी चंदा दिया, जिनका न तो मुनाफ़ा
है न क़ारोबार! मुनाफ़ा अठन्नी, चंदा रुपया!!! ग़ौरतलब है कि इससे पहले बीजेपी और कांग्रेस, दोनों विदेशी फंड मामले में
कोर्ट से फटकार खा चुके हैं। बीजेपी बीफ़ और मीट उत्पाद करने वाली कंपनी से दो-दो
बार फंड ले चुकी है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ चेन्नई ग्रीन वुड्स और मध्य प्रदेश वेस्ट मैनेजमेंट
ने सामूहिक रूप से मई 2019 और अक्टूबर 2023 के बीच 111 करोड़ रुपये से अधिक के चुनावी बॉन्ड ख़रीदे। इन कंपनियों के अध्यक्ष वाईएसआरसीपी
सांसद अयोध्या रामी रेड्डी हैं। रेड्डी हैदराबाद की रैमकी ग्रुप के मुखिया हैं। कंस्ट्रक्शन
कंपनी चेन्नई ग्रीन वुड्स ने जनवरी 2022 में 40 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे। इससे पहले इनकम टैक्स ने जुलाई 2021 में रैमकी ग्रुप के
ठिकानों की तलाशी ली थी और बेहिसाब लेनदेन से जुड़े कथित आपत्तिजनक दस्तावेज़ भी ज़ब्त
किए थे।
आरपी-संजीव गोयनका
समूह की कंपनी धारीवाल इंफ्रास्ट्रक्चर ने जुलाई 2021 और अक्टूबर 2023 के बीच, 115 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे, जिनमें से 95 करोड़ रुपये के अक्टूबर 2022 में ख़रीदे गए थे। 2022 में सीबीआई ने कथित अनियमितताओं को लेकर सीईएससी लिमिटेड (आरपी-एसजी समूह की एक
सहायक कंपनी, जिसमें धारीवाल एक सहायक कंपनी है) सहित कई संस्थाओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज
की थी।
तेलंगाना की माय
होम इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड ने जुलाई और नवंबर 2023 के बीच 24.5 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे। इसी की दो सहायक कंपनियों टेलपुर टेक्नोसिटी ने 20 करोड़ रुपये और एक्वा
स्पेस डेवलपर्स ने 15 करोड़ रुपये के बॉन्ड ख़रीदे। जुलाई 2023 तक इस ग्रुप ने कुल 60 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड ख़रीदे। 2019 में इस ग्रुप पर आयकर विभाग के छापे पड़े थे।
आदित्य बिड़ला ग्रुप
की प्रमुख सीमेंट कंपनी अल्ट्राटेक सीमेंट ने 35 करोड़ रुपये के चुनावी
बॉन्ड ख़रीदे। इनकी ख़रीदारी अक्टूबर 2019 से लेकर 2020, 2022 और नवंबर 2023 तक की गई। इस कंपनी पर भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) ने छापे मारे थे। इस
कंपनी को सीजीएसटी के नोटिस भी भेजे गए थे। बाद में इसी कंपनी की रश्मि सीमेंट और अन्य
फ़र्मों ने करोड़ों के चुनावी बॉन्ड ख़रीदे।
हैदराबाद स्थित मेघा
इंजीनियरिंग ने पाँच साल के समय में कुल 966 करोड़ रुपये के बॉन्ड
ख़रीदे। अक्टूबर 2019 में आयकर विभाग के अधिकारियों ने मेघा ग्रुप
पर छापे मारे थे। ईडी ने भी कंपनी की जाँच की थी।
दवा टेस्ट में फ़ेल
वो फ़ार्मा कंपनियां, जिन्होंने ख़रीदे करोड़ों के इलेक्टोरल बॉन्ड
26 मार्च 2024 के दिन बीबीसी हिंदी में छपी इस चौकाने वाली रिपोर्ट के मुताबिक़, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, मलेरिया, कोविड या दिल की बीमारियों
का इलाज करने वाली कई प्रचलित दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल होते रहे और जिन कंपनियों की
दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदकर
राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर दिए।
नोट करें कि ड्रग
टेस्ट फ़ेल होना, इसका यहाँ अर्थ यह है कि इन कंपनियों की दवा बाज़ार में बिक रही
थी और अलग अलग ज़गहों से नमूने एकत्रित कर जाँच की गई। इस रिपोर्ट में उन कंपनियों
के नाम समेत कई अचंभित करने वाली जानकारियाँ पेश की गई थीं।
इनमें पहला नाम था, टोरेंट फ़ार्मास्यूटिकल
लिमिटेड। इस कंपनी का रजिस्टर्ड दफ़्तर गुजरात के अहमदाबाद में है। रिपोर्ट की माने
तो, साल 2018 से 2023 के बीच इस कंपनी की
बनाई तीन दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए। ये दवाएँ थीं डेप्लेट ए 150, निकोरन आईवी2 और लोपामाइड।
डेप्लेट ए 150 दिल का दौरा पड़ने
से बचाती है। निकोरन आईवी2 दिल के कार्यभार को कम करती है। लोपामाइड का इस्तेमाल अल्पकालिक या दीर्घकालिक
दस्त के इलाज के लिए किया जाता है। इस कंपनी ने 7 मई 2019 और 10 जनवरी 2024 के बीच 77.5 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे, जिसमें से 61 करोड़ सत्ताधारी पार्टी बीजेपी को दिए गए। कंपनी ने कांग्रेस के अलावा सिक्किम
क्रान्तिकारी मोर्चा को भी फंड दिया।
दूसरा नाम था - सिप्ला
लिमिटेड। सिप्ला लिमिटेड का रजिस्टर्ड दफ़्तर मुंबई में है। साल 2018 से 2023 के बीच इस कंपनी की
बनाई दवाओं के सात बार ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए। इन दवाओं में आरसी कफ़ सिरप, लिपवास टैबलेट, ओन्डेनसेट्रॉन और
सिपरेमी इंजेक्शन शामिल थी। सिपरेमी इंजेक्शन में रेमडेसिविर दवा होती है, जिसका इस्तेमाल कोविड
के इलाज में किया जाता है। लिपवास का इस्तेमाल कोलेस्ट्रॉल कम करने और हृदय रोगों के
ख़तरे को कम करने के लिए किया जाता है। ओन्डेनसेट्रॉन का इस्तेमाल कैंसर कीमोथेरेपी, रेडिएशन थेरेपी और
सर्जरी के कारण होने वाली मतली और उल्टी को रोकने के लिए किया जाता है।
इस कंपनी ने 10 जुलाई 2019 और 10 नवम्बर 2022 के बीच 39.2 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। इनमें से 37 करोड़ के बॉन्ड बीजेपी को दिए गए और 2.2 करोड़ के कांग्रेस को।
तीसरा नाम था - सन
फ़ार्मा लेबोरेटरीज़ लिमिटेड। इसका मुख्यालय मुंबई में है। साल 2020 और 2023 के बीच छह बार इस
कंपनी की बनाई गई दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए। टेस्ट में फ़ेल होने वाली दवाओं में
कार्डीवास, लैटोप्रोस्ट आई ड्रॉप्स, और फ़्लेक्सुरा डी शामिल थीं। कार्डिवास का इस्तेमाल उच्च रक्तचाप, हृदय से संबंधित सीने
में दर्द (एनजाइना) और हार्ट फेलियर इलाज के लिए किया जाता है।
15 अप्रैल 2019 और 8 मई 2019 को इस कंपनी ने कुल 31.5 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। ये सारे बॉन्ड कंपनी ने बीजेपी को दिए।
चौथा नाम था - ज़ाइडस
हेल्थकेयर लिमिटेड। इसका मुख्यालय मुंबई में है। साल 2021 में बिहार के ड्रग
रेगुलेटर ने इस कंपनी की बनाई गई रेमडेसिविर दवाओं के एक बैच में गुणवत्ता की कमी की
बात कही थी। रेमडेसिविर का इस्तेमाल कोविड के इलाज में किया जाता है।
10 अक्टूबर 2022 और 10 जुलाई 2023 के बीच इस कंपनी ने 29 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। इसमें से 18 करोड़ रुपए बीजेपी को, 8 करोड़ रुपए सिक्किम क्रान्तिकारी मोर्चा और 3 करोड़ रुपए कांग्रेस को दिए गए।
पाँचवा नाम था - हेटेरो
ड्रग्स लिमिटेड और हेटेरो लैब्स लिमिटेड। इसका मुख्यालय तेलंगाना के हैदराबाद में
है। साल 2018 और 2021 के बीच इस कंपनी की बनाई गई दवाओं के सात ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए। ड्रग टेस्ट में
फ़ेल हुई दवाओं में रेमडेसिविर इंजेक्शन, मेटफॉरमिन और कोविफोर शामिल थीं। रेमडेसिविर और कोविफोर का इस्तेमाल कोविड के
इलाज में किया जाता है, जबकि मेटफॉरमिन का इस्तेमाल डायबिटीज़ या मधुमेह के लिए होता है।
हेटेरो ड्रग्स लिमिटेड
ने 7 अप्रैल 2022 और 11 जुलाई 2023 को 30 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। ये सारे बॉन्ड तेलंगाना की बीआरएस पार्टी
को दिए गए। हेटेरो लैब्स लिमिटेड ने 7 अप्रैल 2022 और 12 अक्टूबर 2023 को 25 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। इसमें से 20 करोड़ रुपए के बॉन्ड बीआरएस को और 5 करोड़ के बॉन्ड बीजेपी को दिए गए।
छठा नाम था - इंटास
फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड। इसका मुख्यालय गुजरात के अहमदाबाद में है। जुलाई 2020 में इस कंपनी की बनाई
गई दवा एनाप्रिल का ड्रग टेस्ट फ़ेल हुआ। एनाप्रिल का इस्तेमाल उच्च रक्तचाप और हार्ट
फ़ेलियर के इलाज के लिए किया जाता है। इस दवा को दिल का दौरा पड़ने के बाद भी दिया
जाता है।
इस कंपनी ने 10 अक्टूबर 2022 को 20 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। ये सारे बॉन्ड बीजेपी को दिए गए।
सातवाँ नाम था - आईपीसीए
लैबोरेट्रीज़ लिमिटेड। इसका मुख्यालय मुंबई में है। अक्टूबर 2018 में इस कंपनी की बनाई
गई दवा लारियागो टेबलेट का ड्रग टेस्ट फ़ेल हुआ। लारियागो का उपयोग मलेरिया की रोकथाम
और उपचार के लिए किया जाता है।
10 नवम्बर 2022 और 5 अक्टूबर 2023 के बीच इस कंपनी ने 13.5 करोड़ रुपए के बॉन्ड ख़रीदे। इसमें से 10 करोड़ रुपए के बॉन्ड बीजेपी को दिए गए और 3.5 करोड़ के बॉन्ड सिक्किम क्रान्तिकारी मोर्चा पार्टी को दिए गए।
आठवाँ नाम था - ग्लेनमार्क
फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड। इसका मुख्यालय मुंबई में है। साल 2022 और 2023 के बीच इस कंपनी की
बनाई गई दवाओं के छह ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए। इनमें टेल्मा एएम, टेल्मा एच और ज़िटेन
टेबलेट शामिल थी। टेल्मा एएम और टेल्मा एच का इस्तेमाल उच्च रक्तचाप के इलाज में किया
जाता है। ज़िटेन टेबलेट का इस्तेमाल डायबिटीज़ के इलाज के लिए किया जाता है।
इस कंपनी ने 11 नवम्बर 2022 को 9.75 करोड़ रुपए के बॉन्ड
ख़रीदे। ये सभी बॉन्ड बीजेपी को दिए गए।
बीबीसी हिंदी की इस
रिपोर्ट के मुताबिक़, इन आठों कंपनियों में से ज़ाइडस हैल्थकेयर लिमिटेड के अलावा सभी कंपनियों के ड्रग
सैंपल महाराष्ट्र फ़ूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने लिए थे। ज़ाइडस हैल्थकेयर लिमिटेड
की बनाई दवा की गुणवत्ता पर सवाल बिहार के ड्रग रेगुलेटर ने उठाए थे।
उपरांत हम ऊपर देख
चुके हैं कि यशोदा सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, डॉ रेड्डीज़ लैब और ऑरबिन्दो फ़ार्मा ने छापेमारी की घटनाओं के आसपास ही बॉन्ड
ख़रीदे थे। ऐसा नहीं है कि छापेमारी या ड्रग टेस्ट फ़ेल वाली फ़ार्मा कंपनियों ने ही
बॉन्ड ख़रीदे हो। नैटको फ़ार्मा, एमएसएन फ़ार्माकेम लिमिटेड, यूजिया फ़ार्मा स्पेशलिटीज़, अलेम्बिक फ़ार्मास्युटिकल्स, एपीएल हेल्थकेयर लिमिटेड आदि फ़ार्मा कंपनियों ने भी बॉन्ड ख़रीदे थे।
के. सुजाता राव, जो भारत सरकार के
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की सचिव के तौर पर काम कर चुकी हैं, कहती हैं, "बदले में कुछ हासिल
करने की उम्मीद (क्विड प्रो क्वो) के बिना कोई किसी राजनीतिक दल को पैसा क्यों देगा? फ़ार्मा कंपनियों
को कौन नियंत्रित करता है? नियंत्रण सरकार का होता है। अगर किसी कंपनी ने सत्ता में किसी पार्टी को पैसा
दिया है, तो इसका मतलब है कि ये स्पष्ट रूप से उनसे फ़ायदा लेने के लिए किया गया है। ये
एक अलग मुद्दा है कि क्या सरकार ने चंदा देने वाली कंपनी को कोई फ़ायदा पहुँचाया या
नहीं।"
विशेषज्ञों का कहना
है कि इस बात की जाँच होनी चाहिए कि इन फ़ार्मा कंपनियों की दवाओं का परीक्षण में फ़ेल
होने के बाद क्या हुआ? क्या उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई शुरू की गई? क्या उन पर आरोपपत्र दायर किया गया था?
प्रमुख हस्तियाँ, जिन्होंने व्यक्तिगत तौर पर बॉन्ड ख़रीदे
सार्वजनिक हुए डाटा
से पता चला कि अप्रैल 2019 से जनवरी 2024 के बीच कम से कम 333 लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर 358.91 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड ख़रीदे थे। अंग्रेज़ी अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस
अपनी एक ख़ास रिपोर्ट में लिखता है कि जिन 15 प्रमुख हस्तियों ने व्यक्तिगत तौर पर ये बॉन्ड ख़रीदे थे, वो बड़ी कॉर्पोरेट
कंपनियों से जुड़े हैं। अख़बार ने उन 15 लोगों के नाम प्रकाशित किए। बीबीसी हिंदी के लिए दिव्या आर्य ने भी इस संबंध
में एक रिपोर्ट प्रकाशित की।
इनमें सबसे पहला नाम
स्टील किंग के तौर पर प्रसिद्ध लक्ष्मी निवास मित्तल का था, जिन्होंने 35 करोड़ के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे थे। रिपोर्ट के मुताबिक़ उन्होंने साल 2019 के लोकसभा चुनाव के
दौरान 18 अप्रैल 2019 को ये बॉन्ड ख़रीदे थे।
के. आर. राजा, जिनका पूरा नाम कोलुमम रामाचंद्रन राजा है, इन्होंने साल 2023 में 25 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। मंत्रालय में दिए गए इनके डीआईएन के मुताबिक़ वो 21 कंपनियों में डायरेक्टर
हैं। इनमें से 7 कंपनियाँ रिलायंस समूह की हैं।
वहीं रिलायंस इंडस्ट्रीज़
लिमिटेड से जुड़े चार्टर्ड अकाउंटेंट लक्ष्मीदास वल्लभदास मर्चेंट ने साल 2023 में 25 करोड़ के बॉन्ड ख़रीदे।
इनके डीआईएन के मुताबिक़ वो 2 कंपनियों में पार्टनर और 18 कंपनियों में डायरेक्टर हैं। इन 18 कंपनियों में से 8 ऐसी हैं, जिनमें के. आर. राजा और मर्चेंट, दोनों डायरेक्टर हैं।
इंटरग्लोब इंटरप्राइज़ेज़
के ग्रुप मैनेजिंग डायरेक्टर तथा इंडिगो एयरलाइंस के मैनेजिंग डायरेक्टर राहुल भाटिया
ने अप्रैल 2021 में 20 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। फ़रवरी 2021 में राहुल भाटिया
की इंटरग्लोब एविएशन लिमिटेड कंपनी ने सेबी को 2.1 करोड़ रुपये का जुर्माना देकर कॉरपोरेट प्रशासन में कथित अनियमितताओं
की शिकायत का क़ानूनी निबटारा किया था। कंपनी ने उस वक्त ना अनियमितताएँ मानी थीं, और ना ही उनसे इनकार
किया था।
भारत की सबसे बड़ी
इलेक्ट्रिकल वायर और केबल्स बनाने वाली कंपनी पॉलीकैब इंडिया लिमिटेड के चेयरमैन और
मैनेजिंग डायरेक्टर इंदर ठाकुरदास जयसिंघानी ने साल 2023 में 14 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे। दिसंबर 2023 में पॉलीकैब इंडिया पर इनकम टैक्स विभाग की रेड हुई, जिसके बाद जनवरी 2024 में जयसिंघानी ने
कहा कि उन्होंने तहक़ीकात में पूरा सहयोग किया है और उन्हें अब तक विभाग से उसकी कोई
रिपोर्ट नहीं मिली है।
अजंता फ़ार्मासूटिकल्स
के ज्वाइंट मैनेजिंग डायरेक्टर राजेश मन्नालाल अग्रवाल ने साल 2022 में 7 और साल 2023 में 6 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल
बॉन्ड ख़रीदे।
12 कंपनियों में निदेशक हर्मेश राहुल जोशी और राहुल जगन्नाथ जोशी ने
साल 2022 और 2023 में 5-5 करोड़, यानी कुल 10 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड्स ख़रीदे।
10 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड्स ख़रीदने वालों में साल 2020 में राजू कुमार
शर्मा और साल 2019 में सौरभ गुप्ता का नाम है। सौरभ गुप्ता जयपुर स्थित 5 कंपनियों में पार्टनर
और 10 कंपनियों में निदेशक हैं।
इनके अलावा बड़े ख़रीदारों
में साल 2023 में 6 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाली बायोकॉन लिमिटेड और बायोकॉन बायोलॉजिक्स
लिमिटेड की एग्ज़क्यूटिव डायरेक्टर किरन मजूमदार शॉ भी हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला
सुरक्षित रखने के बाद भी छपे करोड़ों के इलेक्टोरल बॉन्ड
30 मार्च 2024 की एक मीडिया रिपोर्ट बताती है कि 31 अक्टूबर 2023 के दिन पाँच जजों की संविधान पीठ ने इस मामले पर सुनवाई शुरू की और 9 नवम्बर 2023 के दिन फ़ैसला सुरक्षित
रखा। किंतु कोर्ट का फ़ैसला सुरक्षित होने के बाद भी सरकार ने नए इलेक्टोरल बॉन्ड छापने
का काम जारी रखा!
आरटीआई के ज़रिए मिली
जानकारी के आधार पर बताया गया कि 8,350 इलेक्टोरल बॉन्ड की आख़िरी खेप साल 2024 में छाप कर उपलब्ध करवाई गई। ये खेप इस साल 21 फ़रवरी को सप्लाई की गई! सुप्रीम कोर्ट ने 15 फ़रवरी को इस योजना को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था।
आरटीआई सूचना के आधार
पर कहा गया कि बॉन्ड की योजना को चलाने वाले एसबीआई ने कमीशन के तौर पर सरकार से क़रीब
12 करोड़ रुपये (जीएसटी
मिलाकर) की मांग की, जिसमें से सरकार 8.57 करोड़ रुपये का भुगतान कर चुकी है। साथ ही बॉन्ड्स को नासिक की इंडिया सिक्योरिटी
प्रेस में छपवाने के लिए सरकार को 1.93 करोड़ रुपये (जीएसटी मिलाकर) का बिल मिला, जिसमें से 1.90 करोड़ रुपये का भुगतान किया जा चुका है।
यानी, जो पैसा गोपनीय तरीक़ों से आया, जिसका इस्तेमाल सत्ता की जंग के लिए होने
वाला था, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक दल करने वाले थे, उसका ख़र्चा जनता
के कंघों पर डाल दिया गया! एक ऐसी योजना, जिसमें गोपनीय तरीक़े से दान देने वाले किसी भी व्यक्ति या कंपनी से कोई सर्विस
चार्ज नहीं लिया गया। जिस योजना को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक क़रार दिया, उस योजना को चलाने
के लिए 13.98 करोड़ रुपये का ख़र्चा सरकारी ख़ज़ाने से, यानी टैक्स देने वालों
से, आसान शब्दों में कहें तो जनता के पैसे से किया गया!
यह मीडिया रिपोर्ट
आरटीआई कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा को जो आधिकारिक सूचना दी गई थीं, उसके आधार पर प्रकाशित
हुई थी।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम, जिसे सुप्रीम कोर्ट
ने असंवैधानिक घोषित किया, जिस स्कीम को लागू होने से पहले ही काला धन-चुनावी भ्रष्टाचार और संवैधानिक अधिकारों
का उल्लंघन करने वाली स्कीम बताया जा रहा था, जिसमें अऩेक सवाल उठे, अनेक विवादित पैटर्न दिखे, उस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया कि, "कोई व्यवस्था पूर्ण
नहीं हो सकती। कमियाँ हो सकती हैं। कमियों को सुधारा जा सकता है।" प्रधानमंत्री
मोदी ने कहा, "ये तो मोदी ने इलेक्टरोल बॉन्ड बनाया, जिससे आज आप ढूंढ़ पा रहे हो कि किसने बॉन्ड लिया, कहाँ दिया। नहीं तो
पहले तो पता ही नहीं चलता था। आज आपको इसका पता चल पा रहा है क्योंकि इलेक्टरोल बॉन्ड
थे।"
1 अप्रैल 2024 के दिन तमिलनाडु के समाचार चैनल थांथी टीवी के समक्ष प्रधानमंत्री मोदी ने यह
कहा। उनसे पूछा जा सकता है कि नोटबंदी (नोटबदली), भूमि अधिग्रहण, किसान क़ानून से लेकर आपके अनगिनत फ़ैसले अपूर्ण क्यों होते हैं? उनसे पलटकर कहा जा
सकता था कि सुप्रीम कोर्ट ने ज़बरन और सख़्त रवैया अपनाकर बॉन्ड की जानकारी सार्वजनिक
करवाई थी, वर्ना पहले तो थोड़ा बहुत पता चलता था, आज किसी को कुछ भी पता नहीं चल पाता।
वरिष्ठ पत्रकार और
रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य नितिन सेठी कहते हैं, "इस मामले में जो सत्ताधारी पार्टी है उसे यह पता चलता है कि किस पार्टी को कितना
चंदा मिल रहा है। क्योंकि वित्त मंत्रालय पूरी ख़बर रखता था कि इलेक्टोरल बॉन्ड कहाँ
और कितने के बिक रहे हैं और उनके पास नियमित रूप से स्टेट बैंक से ख़बर मिलती रहती
थी। इसलिए एक ख़ौफ़ था कि सत्तारूढ़ पार्टी को नहीं देंगे तो दिक्कत होगी और कई ऐसी
रिपोर्ट्स हैं कि कई ऐसी कंपनियाँ हैं, जो बीजेपी को नहीं देती थीं, लेकिन उन पर छापा पड़ा उसके बाद वो देने लग गईं।"
नितिन सेठी कहते हैं, "दूसरी बात, चुनाव आयोग और आरबीआई
ने पहले आशंका ज़ाहिर की थी, जिसे केंद्र सरकार ने नज़रअंदाज़ किया था कि ये कंपनियाँ अपने बड़े बही-खातों
में से पैसे नहीं देती हैं, बल्कि अपनी छोटी छोटी कंपनियों के रास्ते पैसे देती हैं और ये पैसा असल में किसका
है इसे आप पता नहीं कर सकते। यानी ये सफ़ेद है या काला धन है, पता नहीं लगाया जा
सकता।"
नितिन सेठी के अनुसार, "ऐसी कंपनियाँ भी हैं, जिनका अपना कोई धंधा या मुनाफ़ा नहीं है, फिर भी वो पार्टियों को चंदा दिये जा रही हैं! ऐसे कई व्यक्ति हैं, जो बड़ी कंपनियों से जुड़े हैं, लेकिन वो निजी तौर पर करोड़ों रुपये फंड
दे रहे हैं। ऐसी कंपनियां भी हैं, जो ऐसे समय चंदा तो दे रही हैं, जब कोई मक़सद स्पष्ट
नहीं है और न तो उनके पास इतना पैसा है, लेकिन वो कहीं और
से पैसा लाकर राजनीतिक दलों को गोपनीय तरीक़े से फंड दे जाती हैं! तो असल में यह क़ानून का जामा पहना कर भ्रष्टाचार को वैध बनाने का मामला है।"
उदाहरण देते हुए वो
कहते हैं, "दो कंपनियाँ ऐसी हैं, जिन्होंने बड़े पैमाने पर इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। एक है फ़्यूचर गेमिंग एंड होटल
सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड, जिसे लॉटरी किंग के नाम से पहचाने जाने वाले सैंटियागो मार्टिन चलाते हैं। इसका
कोई भी मुनाफ़ा नहीं है! इसका दफ़्तर भी नहीं
मिलेगा! उसने हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा चंदा
दिया! दूसरी है जानी मानी कंपनी रिलायंस, जिसने ख़ुद सीधे चंदा
नहीं दिया, बल्कि एक छोटी सी निजी मालिकाना वाली कंपनी के मार्फ़त राजनीतिक दलों को कई सौ
करोड़ रुपये चंदा दिया। उस कंपनी का आम तौर पर नाम तक पता नहीं चलेगा और ना ही उसका
कोई मुनाफ़ा है! यह कंपनी हज़ारों करोड़ रुपये का कारोबार
करती है, लेकिन उसका कहना है कि उसे कोई मुनाफ़ा नहीं होता! लेकिन वो फिर राजनीतिक दलों को कई सौ करोड़ रुपये का फंड दे देती है।"
आर्थिक मामलों के जानकार
जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक प्रोफ़ेसर अरुण कुमार, जिन्होंने काले धन और उसके अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर पर
"द ब्लैक इकॉनमी इन इंडिया" नाम की किताब भी लिखी है, वे बीबीसी हिंदी की इस रिपोर्ट में कहते हुए दर्ज होते हैं कि, "सवाल क्विड प्रो क्वो (कुछ हासिल करने के लिए कुछ देना) का उठता है। हमें पता है
कि देश में हर क़िस्म की अवैध गतिविधियाँ चलती हैं। ख़ासकर सत्तारूढ़ पार्टियाँ इनकम
टैक्स, ईडी का इस्तेमाल करती रही हैं, लोगों को निचोड़ने के लिए। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड का डाटा दिखा रहा है कि ये बहुत
ज़्यादा हो गया। पहले भी होता था, पर अब ये बहुत ज़्यादा हो गया है। जो सत्तारूढ़ पार्टी है वो इन एजेंसियों का इस्तेमाल
कर के पैसा उगलवाती है और विपक्ष पर दबाव बनाने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल किया
जाता है।"
इस पैटर्न को लेकर
सरकार के पक्ष में एक तर्क ये दिया गया कि सरकारी एजेंसियों ने निष्पक्षता से काम किया
और उन कंपनियों पर भी छापा मारने से नहीं हिचकीं, जिन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे थे।
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार
बीबीसी के समक्ष कहते हैं, "जिन पर भी आरोप होगा वो इसे रेशनलाइज (तर्कसंगत बनाना) तो करेंगे ही। एक तर्क ये
भी हो सकता है कि बॉन्ड ख़रीदने के बाद भी अगर रेड हुई, तो वो इसलिए हुई कि
पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए मिले धन से संतुष्ट नहीं थी और ज़्यादा धन चाहती थी।
ये हो सकता है कि अगर किसी ने पर्याप्त मात्रा में धन नहीं दिया है तो उसे और निचोड़ेंगे
और ज़्यादा पैसा निकलवा लेंगे। तो कुछ भी कहना मुश्किल है। क्योंकि दोनों तरह की संभावनाएं
हैं।"
वे कहते हैं, "अगर किसी कंपनी को
दस हज़ार करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट मिल रहा है, तो आप उसमें से 8-10 फ़ीसदी निचोड़ सकते हैं। इससे ये भी पता चलता है कि नौकरशाही को पता होता है कि
कौन कितना कमा रहा है और इसी जानकारी का इस्तेमाल उसे निचोड़ने में किया जाता है।"
योजना भले ही
असंवैधानिक घोषित हुई हो, किंतु यह वैध योजना में शामिल उस्तादी थी, किसी भी
पैटर्न या विश्लेषण को ग़ैर क़ानूनी साबित नहीं किया जा सकता?
यूँ तो यह एक ऐसा चक्र
है जिसे ग़ैर क़ानूनी साबित करना नामुमकिन सा है। सबूतों और तथ्यों के कथित रूप से
होने के बाद भी मनमोहन सरकार में हुए अनेक कथित घोटालों की जाँच का क्या हाल है, सभी देख ही रहे हैं।
थोड़ा बहुत
हो-हल्ला होगा, शायद कुछेक याचिका दायर होगी, अंतिम परिणाम सबको पता ही है! स्वाभाविक है कि इस मामले में भी देश और लोकतंत्र मज़बूत हो ऐसा कुछ भी नहीं निकलेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड
ख़रीदना ग़ैर क़ानूनी बात तो थी नहीं, क्योंकि ख़रीद के समय यह एक वैध योजना थी।
एक वैध स्कीम के तहत हुआ भुगतान भ्रष्टाचार नहीं है। भुगतान, वसूली, उगाही, फ़ायदा
लेना या पहुंचाना, ईडी, सीबीआई, आईटी विभाग, छापेमारी, बॉन्ड ख़रीद का पैटर्न, यह
सब विश्लेषण हैं। इसे अदालत में साबित करने के लिए जो चीज़ें ज़रूरी हैं, वह असंभव
है।
पूर्व में इस
मामले की प्रकृति से जुड़े अनके मौक़ों पर अदालती निगरानी में जाँच हो चुकी है। ख़ूँखार
मगरमच्छों की जगह बेचारी मछलियाँ क़ानूनी दंडा झेलती रही और मामले कमज़ोर होते चले
गए।
मूल सवाल तो यह भी
है कि पारदर्शिता और भ्रष्टाचार मुक्त वाले अच्छे दिन का सपना दिखाया गया था। लेकिन
आधार, एफडीआई से लेकर हर उस मामले में अंतिम हालात कुछ कुछ ऐसे ही हैं। 2014 में जितने ख़तरे बताकर
सरकार बदली गई, नयी सरकार ने उन तमाम ख़तरों को बाहें फैलाकर लागू किया है! संस्थाओं से पहले मीडिया की गरदन मरोड़ी गई और फिर सब आसान होता गया! अब तो ऐसे मामलों में नागरिक ही दिलचस्पी नहीं दिखाते!
इन मामलों में कौन चाहेगा जाँच को? ज़्यादा चंदा भले ही सत्ताधारियों को मिला हो, लेकिन रोटी का छोटा
सा टुकड़ा विपक्ष को भी मिला है। जाँच न सरकार चाहेगी, ना कोई भी राजनीतिक
दल। लाज़िमी है कि इससे जुड़े व्यावसायिक समुदाय तो क़तई नहीं चाहेंगे। जाँच से बचने
के लिए किया, उसकी ही जाँच कौन चाहेगा?
स्वाभाविक है कि इस मामले में भी देश और लोकतंत्र मज़बूत हो ऐसा कुछ भी नहीं निकलेगा।
वो ज़माना बीत गया, जब प्याज के दाम बढ़ने पर सरकारें गिर जाती थीं। वह दौर बीत गया, जब मीडिया लोगों को
जगाता था। अब तो आलम यह है कि अपने पसंदीदा नेता के ख़िलाफ़ भगवान राम भी चुनाव लड़
जाए, तो ये लोग कहेंगे कि राम ग़लत थे तभी तो 14 वर्ष के लिए घर से
निकाल दिए गए थे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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