आज 1 जून 2024 है। 2024 लोकसभा चुनाव का आख़िरी मतदान दिवस। शाम के 8 बजने को है। मतदान
ख़त्म होने के कुछ देर बाद ही एग्जिट पोल आना शुरू हो चुके हैं। एग्जिट पोल क्या आएँगे, क्या कहेंगे, यह घारणा कुछ दिनों
पहले से ही बाज़ार में दौड़ रही है। और इन एग्जिट पोल का क्या हाल होगा यह 4 जून की तारीख़ तय
करेगी। हमसे कई दिनों से हमारे पाठक जो आकलन माँग रहे हैं उसे हम आज यहाँ स्पष्ट रूप
से रख रहे हैं।
आकलन रखने से पहले सदैव की तरह दो बातें फिर से लिख रहे हैं। पहली – चुनाव के चरण चाहे जितने भी हो, वह सिर्फ़ दो चरणों में ही होता है, पहले वे (नेता) आपके चरणों में होते हैं और फिर हम (नागरिक)
उनके चरणों में। दूसरी – चुनाव और नतीजे नागरिकों
को कुछ नहीं सिखाते, उनसे नेताओं को अक्ल
आती है, नागरिकों को नहीं।
अब मुख्य बात सीधे सीधे रख देते हैं। इस चुनाव का हमारा आकलन दिखा रहा है कि नरेंद्र
मोदी और बीजेपी 230 से 240 के बीच लोकसभा सीट जीतते हुए दिखते हैं। हास्यास्पद लगे, अजीब लगे, जो भी लगे, हम इतना यक़ीन दिलाते
हैं कि 4 जून के बाद बहुत कुछ लगेगा। नरेंद्र मोदी और बीजेपी अपने दम पर, अकेले, हमारे आकलन और विश्लेषण
के मुताबिक़ 230 से 240 सीट जीत पाएँगे। दूसरे दल क्या जीतेंगे, क्या हारेंगे, यह बात करने के लिए फ़िलहाल समय नहीं है। सदैव की तरह, (साफ़ कहे तो चुनावी नतीजों के बारे में पाँचवी बार) स्पष्ट करते हैं कि इस आँकड़े
और इस आकलन के पीछे ठोस जानकारी और ठोस विश्लेषण है और इसकी क्वांटिटी और क्वालिटी, दोनों बहुत अधिक मात्रा में है।
हमने इससे पहले चार बार चुनावी नतीजों के बारे में नतीजों के पूर्वानुमान को लेकर
लेख सार्वजनिक किए हैं। 2019 लोकसभा चुनाव, 2017 और 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव और 2017 यूपी विधानसभा चुनाव। हम तमाम चुनावों के समय नतीजों का आकलन नहीं लगाते, किंतु जिन चुनावों में पूरा डाटा उपलब्ध हो, ठोस विश्लेषण हो और उस पर तमाम तरह से सोच-विचार करने के बाद
भरोसा आता हो, उन्हीं नतीजों के पूर्वानुमान
को हम लेखित रूप से प्रकट करते रहे हैं। और इसीलिए चारों बार पूर्वानुमान सही निकले
थे। यह पाँचवी बार है। मुख्य दल को मिलने वाली अनुमानित सीटें, कुछ ख़ास उम्मीदवारों, सीटों या ख़ास राज्यों का विश्लेषण इसमें शामिल रहता है। हमें 1.2 प्लस मिलियन की व्यूअरशिप
इसी भरोसे की बदौलत मिली है और इसलिए हम अतिविश्वसनीय अनुमानों पर ही लिखते हैं, ताकि यह भरोसा बना रहे।
नरेंद्र मोदी या बीजेपी
कितनी सीटें जीतते हुए दिखते हैं?
जैसे ऊपर लिखा वैसे
230 से 240। मोदी और बीजेपी किसी
भी हालत में 250 से अधिक नहीं जाएँगे। वे नीचे गिरे तो 220 से भी नीचे जा सकते हैं। किंतु आख़िरी आकलन यही है कि 230 से 240।
फिर से स्पष्ट करते
हैं कि इसके पीछे ठोस जानकारी और ठोस विश्लेषण है और उसकी क्वांटिटी और क्वालिटी अधिक
मात्रा में है। बहुत सारा डाटा और उसका विश्लेषण आख़िरी आँकड़ा दर्शाता है 230 से 240।
इस चुनाव में नतीजों
की संभावनाओं का जो विश्लेषण है उसमें कमाल यह है कि अब की बार राज्य स्तर और सीटों
के स्तर पर आँकड़ें उपलब्ध हो पाए हैं और पता चल सकता है कि किन राज्यों में बीजेपी
को कितना नुक़सान और किन राज्यों में कितना फ़ायदा होने की संभावना है।
मुख्य रूप से गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा, यह चार राज्य बीजेपी के आँकड़े को बढ़ाने में सह्योग देते दिख
रहे हैं। ये चार राज्य बीजेपी को बहुत नीचे गिरने से रोक सकते हैं। वहीं राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, ये चार राज्य बीजेपी को बहुमत से नीचे ले
जाने में प्रमुख योगदान देते हुए दिख रहे हैं। किसान आंदोलन से प्रभावित राज्यों में
बीजेपी को नुक़सान होता हुआ दिख रहा है। दिल्ली में हो सकता है कि बीजेपी शायद एकाध
सीट गँवा दे। पंजाब में बीजेपी का खाता खुलता नहीं दिख रहा।
कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, वगैर जगहों से बीजेपी के लिए अच्छी ख़बर मानी
जा सकती है। हालाँकि यहाँ होने वाला फ़ायदा उतना नहीं है कि दूसरी जगहों पर होने वाला
नुक़सान मिट जाए। इसी इलाक़े में तमिलनाड़ु में बीजेपी के लिए काफ़ी दिक्कत है। आंध्र
प्रदेश में टीडीपी, जो बीजेपी की सह्योगी है, अच्छा करती दिख रही है। लगभग तमाम आकलन बताते हैं कि टीडीपी
आंध्र में अच्छा करेगी। बहुमत नहीं मिलने की अवस्था में बीजेपी को अपने सह्योगियों
की तरफ़ देखना होगा, ऐसे में बिहार से नीतीश कुमार कितनी सीटें
ले आते हैं, इसका कोई विश्वसनीय आकलन उपलब्ध हो नहीं पाया
है।
दूसरी तरफ़ केरल में
शायद पहली बार बीजेपी खाता खोलने जा रही है। उसे यहाँ एकाध-दो सीटें मिल सकती हैं, जो बहुत बड़ी सफलता मानी जाएगी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी
नरेंद्र मोदी को न केवल रोक रही है, बल्कि 2019 के मुक़ाबले कुछ नुक़सान भी दे रही है। मध्य प्रदेश में कोई
ख़ास परिवर्तन होगा ऐसा दिख नहीं रहा, पिछली बार यहाँ बीजेपी ने 29 में से 28 सीटें जीती थीं।
गुजरात में बीजेपी
2 से 3 सीटें गँवा दे ऐसी
संभावना है। पिछली बार बीजेपी ने यहाँ सभी 26 सीटें जीती थीं। बीजेपी गुजरात में कितनी सीटें गँवाएगी इसका ठीक ठीक अंदाज़ा
लगा पाना मुश्किल है। अगर बीजेपी 2-3 सीट से कम सीटें गँवाती है, तो इसका अर्थ यह होगा कि देश भर में बीजेपी
के ख़िलाफ़ जो मुद्दे और सवाल उठे, वह यहाँ रूपाला-क्षत्रिय विवाद के चलते चुनावों
के दौरान जगह नहीं बना पाए। गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला है, और यहाँ कोई भी सीट गँवाना बीजेपी के लिए बुरी ख़बर होगी।
महाराष्ट्र में बीजेपी
12 से 13 सीटें गँवा सकती है।
नरेंद्र मोदी और बीजेपी के उन राजनीतिक कारनामों की वजह से बाजी हाथ से जा सकती है।
पिछली बार बीजेपी ने यहाँ 23 सीटें जीती थी। महाराष्ट्र में बीजेपी को नुक़सान होना तय है। यह नुक़सान बड़ा
भी होगा यह आकलन मिल रहा है। यहाँ कांग्रेस-शिवसेना और एनसीपी, इनमें से कौन ज़्यादा सीटें लाएगा यह देखना दिलचस्प होगा। बीजेपी
को नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कारनामों, मराठा आरक्षण आंदोलन और शिवसेना-एनसीपी के
प्रति भावनात्मक वातावरण के चलते बड़ा नुक़सान हो सकता है।
राजस्थान भी नरेंद्र
मोदी को चौंका सकता है। यहाँ बीजेपी 8 से 10 सीटें गँवा सकती है। किसान आंदोलन का असर एक ख़ास हिस्से पर देखा जा सकता है।
राजस्थान के बाँसवाड़ा से ही नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव को पूर्ण रूप से हिंदू-मुसलमान
में बदल दिया था। हरियाणा तो वैसे ही नरेंद्र मोदी से नाराज़ है। यहाँ बीजेपी का नुक़सान
50 फ़ीसदी तक जा सकता
है।
उत्तर प्रदेश इस पूरे
खेल में सबसे ज़्यादा अचंभित कर रहा है। यहाँ बीजेपी अपने पुराने दिनों में वापस लौट
सकती है। बीजेपी 50 तक पहुंच सकती है और यदि 50 से नीचे गई तो भी यहाँ आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अखिलेश ने इस बार जिस तरह टिकट
बाँटे हैं उसकी प्रशंसा राजनीतिक विश्लेषकों में भी है। दूसरी तरफ़ बीजेपी ने यहाँ
टिकट बाँटने में ग़लती कर दी है ऐसा मतदाताओं का भी मत है। टिकट बँटवारा और रणनीति
लागू करने में एकाधिकारवाद यहा नुक़सान कर सकता है। यूपी की राजनीति में एक दूसरा दिलचस्प
पहलू भगवान श्री राम से जुड़ा माहौल-आंदोलन-राजनीति भी है। यूपी का इतिहास दर्शाता
है कि जब जब देश में राम मंदिर का उबाल आया, तब तब बीजेपी यहाँ नीचे आई! या तो सीटें कम आईं, या वोट प्रतिशत गिरा।
स्मृति ईरानी के सामने
राहुल गांधी की जगह उनके पुराने कार्यकर्ता के.एल. शर्मा को उतारकर मोदी मीडिया की
भाषा में कांग्रेस ने मास्टर स्ट्रोक ही खेल लिया है। कांग्रेस के इस कदम से स्मृति
ईरानी वीआईपी सीट के कवरेज वाले माहौल से दूर हैं। उन्हें वो कवरेज मिल नहीं रहा। उपरांत
स्मृति ईरानी का गुस्सैल स्वभाव और अहंकारी कार्यशैली से अमेठी के लोग और बीजेपी के
कार्यकर्ता तक ख़ुश नहीं है। स्मृति ईरानी अपनी सीट निकाल पाएगी या नहीं इस पर संदेह
है। वो हार सकती हैं।
वहीं अयोध्या, जो राम मंदिर आंदोलन का केंद्र है, वहाँ से लेकर रॉबर्ट्सगंज तक बीजेपी के ख़िलाफ़ माहौल ज़मीन
पर दिख रहा है। सबसे बड़ा दावा वाराणसी को लेकर है, जहाँ बीजेपी के सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। पिछली बार क़रीब 5 लाख वोटों से जीतने
वाले मोदी यहाँ मुश्किल में दिख रहे हैं! हमें पता है कि मोदी ढाई सौ से नीचे चले जाएँगे यह फ़िलहाल हास्यास्पद लग रहा
होगा, और ऐसे में नरेंद्र मोदी वाराणसी से मुश्किल
में, यह तो हवा-हवाई बातें लग रही होगी। नरेंद्र
मोदी यहाँ से जीत ज़रूर जाएँगे, किंतु वह जीत इतनी दमदार मानी नहीं जा रही।
अगर मोदी वाराणसी से जैसे तैसे जीत भी गए, तब भी वह वाराणसी वाले इलाक़े में अकेले बीजेपी
उम्मीदवार होंगे, जो जीतेंगे। क्योंकि वाराणसी से सटी सीटों
पर बीजेपी बहुत बुरी तरह से फँसी हुई दिख रही है!
केरल में बीजेपी का
खाता शायद खुल सकता है यह हर किसीके आकलन में है। और यह वाक़ई ऐतिहासिक होगा। किंतु
गुजरात में बीजेपी कुछ सीटें गँवा दे वह भी ऐतिहासिक ही होगा। पश्चिम बंगाल में ममता
बनर्जी बीजेपी को न केवल रोकती, बल्कि कुछ नुक़सान देती हुई दिखाई दे रही
हैं। इंडिया गठबंधन से अलग होकर लड़ने की नीति से ममता बनर्जी बीजेपी को होने जा रहा
फ़ायदा न केवल छिनती दिख रही हैं, बल्कि नरेंद्र मोदी जिसे अपना सबसे बड़ा रिकवरी
स्टेट गिनवा रहे हैं, उस दावे को भी झुठला सकती हैं।
चार-पाँच राज्य ऐसे
हैं, जहाँ बीजेपी को 2019 के मुक़ाबले फ़ायदा
हो सकता है। इसमें केरल और साउथ का एकाध स्टेट भी शामिल है। किंतु वह फ़ायदा इतना बड़ा
नहीं है कि दूसरी जगहों पर जो नुक़सान दिखाई दे रहा है उसे रिकवर कर पाए। चार-पाँच
राज्य उसकी इज़्ज़त अगर बचा भी लेंगे, तो दूसरे चार-पाँच राज्य उसे बहुमत के नीचे
लाकर पटक देंगे।
किसी भी हालत में बीजेपी
250 से ऊपर पहुंचती किसी
भी डाटा में दिख नहीं रही। वह 230-240 के आसपास गिर रही है। यानी बहुमत से दूर। अगर उन रिकवरी स्टेट (जो चार-पाँच हैं)
ने साथ नहीं दिया तो वह और नीचे गिरेगी, किंतु ऊपर जाने के तमाम रास्ते मोदीजी और
बीजेपी के लिए बंद दिखाई दे रहे हैं! वोट शेयर से लेकर संविधान, आरक्षण, महंगाई, बेरोजगारी, किसान आंदोलन जैसे मुद्दे मोदीजी और बीजेपी को नुक़सान दे रहे हैं।
वो नरेंद्र मोदी ही
हैं, जिन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र को ज़्यादा
से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने में योगदान दिया है! इस बार नरेंद्र मोदी के लिए बिना किसी भावनात्मक मुद्दे के, सारे हथकंड़े विफल
होते दिख रहे हैं। नरेंद्र मोदी के कांग्रेस के घोषणापत्र पर आधारहीन और हास्यास्पद
दावे के बाद वह घोषणापत्र ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की नज़र में आया। अब की बार 400 पार का नारा और साथ
ही बीजेपी के नेताओं के द्वारा संविधान बदलने के दावे ने बीजेपी को आख़िरकार फँसा ही
दिया। विपक्ष ने संविधान और आरक्षण को जोड़ दिया, जिसकी कोई काट मोदी के पास नहीं दिखाई दी, सिवा हिन्दू-मुसलमान-भेंस-मंगलसूत्र-मुजरा
के! विपक्ष ने भारत के एक ख़ास हिस्से के नागरिकों के बीच सवाल
डाल दिया कि मोदीजी और बीजेपी के पास 300 सीटें थीं तब भी उन्होंने सब कुछ किया है, तो फिर उन्हें 400 सीटें चाहिए क्यों? और फिर संविधान-आरक्षण का मुद्दा एक विशेष मतदाता वर्ग में चल
पड़ा।
उपरांत, 2014 और 2019 से यह चुनाव बहुत मायनों में भिन्न है। 2014 का चुनाव कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनाक्रोश और नयी आशा और नये वादों पर ऐतबार का चुनाव
था। 2019 का चुनाव राष्ट्रवाद, बालाकोट, पुलवामा आदि के साये में लड़ा गया चुनाव था। किंतु 2024 के चुनावों में नरेंद्र
मोदी और बीजेपी कोई भी वातावरण नहीं बना सके हैं और ना ही कोई मुद्दा उछाल पाए हैं।
यह चुनाव 'मुद्दाविहीन चुनाव' होने से संविधान, आरक्षण, महंगाई, बेरोजगारी, किसान आंदोलन जैसे मुद्दे हावि होते दिख रहे हैं। उपरांत कोई भी राष्ट्रीय या भावनात्मक
मुद्दा नहीं बन पाने के कारण यह चुनाव स्थानीय स्तर पर चला गया हो ऐसा आकलन सभी जगहों
से मिल रहा है। स्थानीय सांसदों, उनकी कार्यशैली जैसी चीज़ें उफ़ान पर है।
ग्रामीण इलाक़ों में
बीजेपी के ख़िलाफ़ माहौल स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। नोटबदली (नोटबंदी) की अप्रत्यक्ष
असर अब नुक़सान दे रही है! असंगठित क्षेत्र वालों
का रोजगार छिन गया और ढाँचा ढह गया, कोरोना काल में नौकरियाँ चली गईं, महंगाई बढ़ती गई। भूखे पेट भजन ना होवे गोपाला वाला द्दश्य देश
के कई राज्यों में दिख रहा है। 370 निष्प्रभावी होने के बाद भी बीजेपी लद्दाख में अपना कोई उम्मीदवार खड़ा कर नहीं
पाई और ना ही नोटबंदी, काला धन, 370, तीन तलाक़, नौकरियाँ, सर्जिकल स्ट्राईक, चीज़ों के दाम पर एक शब्द बोल पाई! बहुत जद्दोजहद के बाद भी नरेंद्र मोदी चुनाव को भावनात्मक मुद्दे की तरफ़ ले जाने
में असफल होते पाए गए हैं।
आकलन दिखाता है कि
10 साल की सरकार अपने
पूरे चुनावी प्रचार में अपनी किसी भी आर्थिक या सामाजिक नीति को प्रमुख चुनावी मुद्दा
बना नहीं सकी! वहीं, अब की बार ना कोई पुलवामा था, ना कोई बालाकोट। कुल मिलाकर, यह चुनाव मोदी का चुनाव था, किंतु मोदी का चुनाव नहीं रह गया! मोदीजी ने हर मुमकिन कोशिश ज़रूर की है, बेशुमार सभाएँ की हैं, सांप्रदायिकता के घेरे में चुनाव को ले जाने की तमाम कोशिश की
है, किंतु यह चुनाव मुद्दाविहीन रहा और विपक्ष ने जो मुद्दे उठाए
उसका कोई ठोस और आयोजनबद्ध प्रतिकार बीजेपी की तरफ़ से नहीं हुआ और जो नाराज़गी, तक़लीफ़, समस्याएँ थीं, वह सतह पर बनी रही। अगर मोदीजी अपनी नीतियों, अपने सरकार की सिद्धियों पर रहते तो कुछ चीज़ें बन सकती थीं।
मोटे तौर पर देखे तो
उत्तर भारत मोदीजी के लिए नुक़सानदेह साबित होता आकलन में पाया गया है। दक्षिण भारत
में कुछ नए द्वार खुल सकते हैं, लेकिन मामला बराबर का हो सकता है। पश्चिम
भारत बीजेपी के लिए घाटा लेकर आएगा ऐसे आकलन मिले हैं। पूर्वी भारत और मध्य भारत बीजेपी
की इज़्ज़त बचाने में योगदान दे सकता है।
आरएसएस चुनावों में
सक्रीय था या सचमुच निष्क्रिय था?
2024 के लोकसभा चुनाव में जब से दूसरा चरण समाप्त हुआ, तब से पूरा चुनाव पलटा हुआ तमाम के आकलन में दिखाई दे रहा है! और सबसे बड़ी चर्चा यही है कि आरएसएस सक्रिय था या नहीं था? यूँ तो आप बीजेपी के समर्थक या मोदी के भक्त पर भरोसा कर सकते
हैं! क्योंकि उनका स्तर कितना है यह सीधे सीधे पता चल जाता है। किंतु
आरएसएस के स्वयंसेवक रहस्यमयी होते हैं। वे बहुत कुछ छिपा कर रखते हैं। वे आरएसएस से
संलग्न बीजेपी शासित सरकार के प्रधानमंत्री की आलोचना तक कर लेते हैं। और इसका गर्व
भी करते हैं कि वे अपने प्रधानमंत्री की आलोचना करने की हिम्मत रखते हैं। हालाँकि नरेंद्र
मोदी की आलोचना कर लेते हैं, किंतु मोहन भागवत की नहीं करते!
बीजेपी समर्थक या मोदी
भक्त ज़ल्दबाजी दिखाते हैं, ज़्यादा राह नहीं देखते और ना ही बहुत ज़्यादा
ज्ञान रखते होते हैं। दूसरी तरफ़ संघ का कार्यकर्ता इससे बिलकुल उलट होता है। और इसीलिए
आरएसएस चुनावों में सक्रिय था या नहीं, इसका जवाब यही हो सकता है कि फ़िलहाल तो आरएसएस
स्वयं अपने मूल रूप में नहीं है। वह बहुत हद तक बदल चुका है। उसके स्वयंसेवक 2019 के चुनावों में वोट
देकर यही लिखते थे कि मैं मोदीजी को वोट कर आया। उसके कई पदाधिकारी और दूसरे बड़े लोग
अपनी वो पुरानी कार्यशैली और संस्कृति के तले जी नहीं रहे।
बीजेपी के राष्ट्रीय
अध्यक्ष जेपी नड्डा का बीच चुनाव वह चर्चित बयान बिना ऊपरी परमीशन के नहीं आया होगा।
आरएसएस का जो ढाँचा है, उस ढाँचे पर जो शख़्स या पदाधिकारी होते हैं, संघ से जुड़े लोगों को भारत की शिक्षा का ढाँचा जिस तरह से दे
दिया गया है, फ़िलहाल तो संघ चाहकर भी पूरी तरह सक्रिय
या पूरी तरह निष्क्रिय नहीं रह सकता! पूरी तरह सक्रिय रहने में भी उसकी मर्जी नहीं चल सकती, ना पूरी तरह निष्क्रिय होकर घर पर सो सकता है! मोदीजी के पास जो ताक़त है वह पूंजीपतियों के रास्ते मीडिया और अपनी ख़ुद की पार्टी
के ऊपर उन्हें नियंत्रण प्रदान करती है, जिस पर हम अलग लेख लिख चुके हैं। जब तक वह
ताक़त नहीं छूटती, संघ चाहकर भी सक्रियता या निष्क्रियता के
बारे में सौ फ़ीसदी सोच भी नहीं पाएगा। उसके अनेक स्वयंसेवक, अनेक पदाधिकारी इन चुनावों में बीजेपी की मदद कर रहे हैं।
1996 से 2024 तक ऐसा चुनाव कभी नहीं देखा
1996 के दौर में हमने राजनीति और चुनाव में दिलचस्पी लेना शुरू किया। वह दिलचस्पी इतनी
गहरी तो नहीं थी। 1996 से पहले के दौर के बारे में विशेषज्ञों और ज़मीनी शख़्सों से बहुत सुना और समझा।
हमने लेख के शीर्षक
में लिखा वैसे यह लोकसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक चुनाव के रूप में याद रखा जाएगा।
इस साल जनवरी से लेकर चुनाव शुरू हुए तब तक, यानी 19 अप्रैल 2024 तक, हर किसीके दिल-ओ-दिमाग़ में एक बात छपी हुई
थी कि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर बहुमत ले आएँगे। चर्चा यही थी कि अकेले दम पर 325 तक जाएँगे या 350 पार कर जाएँगे। यहाँ
बता दें कि अब की बार 400 पार पर कट्टर समर्थकों (भक्तों) के सिवा दूसरे लोग चर्चा नहीं करते थे। किंतु
इतना तय मानते थे कि 2019 के मुक़ाबले ज़्यादा सीटे अकेले दम पर ले आएँगे।
सामने पूरा विपक्ष
निसहाय अवस्था में लाचार सा खड़ा दिखाई देता था। नरेंद्र मोदी अकेले नहीं थे, उनके साथ था वो गोदी मीडिया, जिसने सालों से एक ऐसा वातावरण बना रखा था, जहाँ बातें और क़िस्से एक ही शख़्स के थे।
मोदी अकेले चुनाव नहीं लड़ रहे थे, उनके साथ वह मीडिया भी था, जो सत्ता के पक्ष में गाहे-बगाहे बोल रहा था और विपक्ष को कटघरे
में खड़ा कर रहा था। नरेंद्र मोदी की निम्न स्तर की और घटिया से घटिया बातों को यही
मीडिया किसी ब्रह्मवाक्य की तरह पेश करने का दायित्व जमकर निभा रहा था।
हर कोई जानता था कि
यह चुनाव सिर्फ़ मोदी नहीं लड़ रहे, बल्कि ईडी-सीबीआई-आईटी से लेकर हर जाँच संस्था
मैदान में है। ऐतिहासिक रूप से कमज़ोर दिख रहा चुनाव आयोग और इस बीच इलेक्टोरल बॉन्ड
का वो अभूतपूर्व खेल। सिर्फ़ बीजेपी के पास राजनीतिक फंड का बहुत ही ज़्यादा हिस्सा
पहुंच जाना, दूसरी तरफ़ राज्यों की सरकारों और शिवसेना
समेत अनेक राजनीतिक दलों को तोड़ना, इधर से उधर का वो लगातार खेल, बहुत कुछ था। कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक को जेल में डाल
दिया गया। मतदान शुरू होने से पहले तक इस चुनाव को 'निरस' या 'ठंडा चुनाव' कहा जाने लगा था।
जैसे ही 19 अप्रैल 2024 के दिन पहले चरण का
मतदान पूरा हुआ, देर रात के बाद जानकारियाँ सामने आने लगीं, तब हर उस विश्लेषक का दिमाग़ कुछ संदेह करने लगा। ज़मीन से जो
रिपोर्ट आईं उसने कुछ संदेह उत्पन्न किए। किंतु दूसरी तरफ़ गोदी मीडिया द्वारा जो माहौल
खड़ा किया गया था उस माहौल में उस संदेह पर यक़ीन कर पाना मुश्किल था।
उसके सप्ताह भर बाद, 26 अप्रैल को दूसरे चरण का मतदान हुआ। देर रात को ज़मीन से जो ख़बरें आईं, हर उस विश्लेषक के दिमाग़ को झटका लगने लगा। लगा कि कुछ तो अभूतपूर्व
हो रहा है! हर कोई एक दूसरे को मैसेज करने लगे कि कुछ
तो हो रहा है जो समझ में नहीं आ रहा! दूसरे चरण के बाद दिखने लगा कि ज़मीन पर कुछ तो ऐसा हो रहा है जो महज़ वोट प्रतिशत
के गिरने से भी ज़्यादा कुछ की तरफ़ इशारे कर रहा है।
वह दूसरा चरण ही था, जहाँ से निरस और ठंडा लोकसभा चुनाव अचानक दिलचस्प दिखने लगा, चुनाव में जान आने लगी। फिर 7 मई की तारीख़ आई। तीसरे चरण का मतदान। और इसी शाम सभी के सामने
स्पष्ट हो गया कि यह चुनाव तो जनता लड़ रही है!!! और इस तथ्य को बाद में बीच चुनाव कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन
खड़गे ने भी स्वीकार किया था कि यह चुनाव विपक्ष नहीं लड़ रहा, जनता लड़ रही है। माहौल ऐसा बना, मानो जनता निराश हो चुके विपक्ष को धक्के मार मार खड़ा कर रही
हो कि उठ जाओ, हम तुम्हें ही वोट कर रहे हैं!
और फिर तीसरे चरण के
बाद चुनाव ने एकदम से करवट ले ली! जो चुनाव ठंडा, निरस दिख रहा था, वहाँ जनता ने अपने तरीक़े से, अपने दम पर जान डाल दी! विश्लेषकों, ज़मीनी डाटा इक्ठ्ठा करने वाले अनेका अनेक
लोग और विपक्ष, सब ने पाया कि यह चुनाव तो जनता लड़ रही है! जैसे जैसे चुनाव आगे बढ़ा, नरेंद्र मोदी का वो तिलिस्म, गोदी मीडिया का वो प्रचार-प्रसार, सब कुछ ढहने लगा। जिस मोदी की बात को लोग सुना करते थे, उसी नरेंद्र मोदी की बातों का मज़ाक उड़ने लगा, लोग उन्हें अनसुना करने लगे। हालात यहाँ तक जा पहुंचे कि नरेंद्र
मोदी जो भी कहते उसका मखौल बनाया जाने लगा, वो जो करते उस पर लोग हँसने लगे।
एक निरस और ठंडे चुनाव
को, जो चुनाव एकतरफ़ा था उस चुनाव को, जनता ने अचानक ही पलट दिया! पाँचवे चरण के बाद सारे विश्लेषक कहने लगे कि बीजेपी बहुमत के नीचे जा सकती है
और फिर जल्द ही बीजेपी बहुमत के नीचे चली गई। हालात इतने स्पष्ट हो गए कि अब तो बाक़ायदा
राज्य और सीटें बताकर कहा जा सकता है कि बीजेपी कुल मिलाकर 230-240 के आँकड़े पर ठहर
जाएगी।
नरेंद्र मोदी की मुठ्ठी
में जीता-मरता गोदी मीडिया जो कहे, या उनके एग्जिट पोल जो कहे, चुनाव आयोग के द्वारा वोट प्रतिशत के आँकड़ों का सप्ताह या दस-दस
दिनों के बाद आने का विवाद हो या चुनाव आयोग द्वारा वोट प्रतिशत के सिवा दूसरी अनेक
महत्वपूर्ण जानकारियाँ सार्वजनिक न करने का विवाद हो, जितनी ठोस जानकारी और विश्लेषण हमारे पास पहुंचा है, वह अभूतपूर्व है। अभूतपूर्व इस तरह कि इस बार ज़मीन पर काम करने
वालों के पास राज्य वार, सीट वार ठोस जानकारी मौजूद है कि बीजेपी कहाँ
कहाँ जीत सकती है, कहाँ कहाँ हार सकती है!
बहुमत नहीं मिलने पर
नरेंद्र मोदी क्या करेंगे, या नरेंद्र मोदी के साथ क्या होगा?
नरेंद्र मोदी बिना
बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री बनेंगे तब वे जवाहरलाल नेहरू के उस रिकॉर्ड की बराबरी
नहीं कर पाएँगे। हालाँकि वे लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने वालों की सूची में
शामिल ज़रूर होंगे। फ़िलहाल तो आपको यह अतिशयोक्ति सा लग रहा होगा कि नरेंद्र मोदी
बीजेपी को बहुमत नहीं दिला पाएँगे। किंतु भरोसेमंद आकलन होगा तभी हम इसे लेख के रूप
में प्रकाशित कर रहे होंगे, वर्ना नहीं करते। ऊपर लिखा वैसे, आकलन के मुताबिक़ नरेंद्र मोदी बीजेपी को 230-240 के आसपास ले जा सकेंगे।
पहली बात तो यह कि
यह नरेंद्र मोदी की बड़ी राजनीतिक हार होगी। अनेक रिपोर्टों में दर्ज है कि चुनावों
के बीच नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने संघ के साथ बैठक में 325 सीटों का भरोसा दिया
था। इस भरोसे से लगभग 100 सीटें कम। बहुमत से बहुत नीचे। हम राजनीतिक विश्लेषक नहीं हैं, इसलिए दूसरे भरोसेमंद लोग जो कहते हैं वह लिखते हैं कि यदि बीजेपी
220 से नीचे जाएगी तब
आरएसएस मोदी के ऊपर नकेल कसने को तैयार हो सकेगा, वर्ना नहीं। यदि मोदी बीजेपी को 230-240 के आसपास रोक देते हैं, तो फिर आरएसएस के लिए चुप बैठकर समय के इंतज़ार
करने वाली रणनीति पर चलना तय है।
रही बात उस मुद्दे
की क्या नरेंद्र मोदी, जो 2001 से बहुमत की सरकार के आदि हैं, जो एकाधिकार के आदि हैं, जो लगभग तानाशाही रवैये से सरकार चलाते हैं, जो दूर दूर तक प्रतिस्पर्धी को या किसी ख़तरे तक को पसंद नहीं
करते, वह गठबंधन सरकार चला पाएँगे?
नरेंद्र मोदी के बारे
में गुजरात के एक समय के प्रसिद्ध क्राइम रिपोर्टर प्रशांत दयाल का एक कथन है, जो नरेंद्र मोदी की सही पहचान का दावा करता है। प्रशांत दयाल
का लेखन और कथन है कि – नरेंद्र मोदी ना ही हिन्दूवादी हैं, ना ही राष्ट्रवादी, वह तकवादी (मौक़ापरस्त) हैं। नरेंद्र मोदी (साथ ही नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, शरद पवार, सभी नेताओं को) समझना मुमकिन नहीं है। यदि नरेंद्र मोदी को सही के आसपास समझ सकते
हैं, तो वह गुजरात के वह अनेक पुराने पत्रकार हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को उनके उदयकाल से लेकर इस काल तक देखा
है। सारे पत्रकार अलग अलग अलंकारों के साथ लगभग लगभग एक ही बात कहते हैं कि नरेंद्र
मोदी अपने स्टैंड से पलटने में महारत रखते हैं, वे कभी भी, किसी भी समय, अपने तमाम रूप-रंग-दावों-वायदों-शैली, तमाम से पलट सकते हैं। बहुमत की सरकार चलाने के आदि नरेंद्र
मोदी, अपने तमाम बड़े बड़े दावों पर ताल ठोकने के
आदि नरेंद्र मोदी, गठबंधन की सरकार के लिए भी अपना रंग-रूप और ढंग बदल सकते हैं।
रही बात चाणक्य, मास्टर स्ट्रोक, जैसे शब्दों की, आपको समझना होगा कि
यहाँ भारत में हर पार्टी के पास अपना एक चाणक्य होता ही है। केवल मोदी ही नहीं, सभी राजनेता अनेकों बार अपना अपना मास्टर स्ट्रोक लगा चुके हैं।
यहाँ कोई अजेय नहीं होता। दूसरों की बात छोड़ दीजिए, स्वयं नरेंद्र मोदी अनेक बार विधानसभा चुनावों में हार चुके
हैं। जब तक जीत है तब तक सब कुछ सही और शानदार होता है, एक बार आप विफल होते हैं, तो फिर सारी चीजें और सारे सवाल उठने लगते हैं। हालाँकि राजनीति
में कभी कुछ स्थायी नहीं होता। जीतने वाले हारते हैं, हारने वाले जीतते भी हैं। हम नागरिकों को एक बात समझ लेनी चाहिए
कि जिन संभावनाओं को लेकर हम रातों को जागते हैं, वे (नेता) आराम से सो रहे होते हैं। और जब हम आराम से सोते हैं, वे रात को जागकर खेल कर चुके होते हैं।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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