गली मोहल्ले या सड़क पर होने वाली
व्हाट्सएप सरीखी बेतुकी बातों जैसे तर्क और भाषा का इस्तेमाल करते करते अब दुनिया
के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के उप राष्ट्रपति, राज्यपाल, केंद्रीय
मंत्री, सांसद, सरीखे
लोग असामान्य और असंवैधानिक बातें कहने लगे हैं। हालाँकि अब यह सब इतना ज़्यादा
चौंकाने वाला नहीं लगता। क्योंकि इन्हें टोकने की जगह चुप्पी धारण करने वाले
प्रधानमंत्री बेतुकी और अपुष्ट चर्चा के नायक के रूप में बहुत पहले से उभर चुके
हैं, साथ
ही स्थापित परंपराओं को धत्ता भी बता चुके हैं।
फर्स्ट क्लास कंट्री थर्ड क्लास लीडर्स।
मर्हुम बक्षी बाबू का यह कथन फिर एक बार सरकार के प्रतिनिधि साबित कर रहे हैं। यूँ
तो बहुमत प्राप्त सरकारें सदैव न्यायपालिका के ऊपर हावी होना चाहती है। इसका
इतिहास सार्वजनिक है और इसी ख़राब परंपरा को नरेंद्र मोदी शासित सरकार ने बहुत
पहले से अपनाया हुआ है।
ताज़ा विवाद की बात करें तो 11
अप्रैल 2025
के दिन देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फ़ैसले को सार्वजनिक किया। मामला था
राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों के ऊपर निर्णय लेने में देरी
का। मामला तमिलनाडु से संबंधित था। मामले का फ़ैसला 8
अप्रैल 2025
को ले लिया गया था और 11 अप्रैल 2025 को सार्वजनिक किया
गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फ़ैसला सचमुच ऐतिहासिक था।
राज्य विधानसभाओं के विधेयकों पर
राज्यपालों को कार्रवाई के लिए समयसीमा तय करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार
निर्देश दिया कि राष्ट्रपति को ऐसे विधेयकों पर, राज्यपालों से प्राप्त होने की तारीख़
से तीन महीने के भीतर फ़ैसला लेना होगा। अदालत ने अनुच्छेद 201
के तहत समय पर कार्रवाई पर ज़ोर दिया और विधायी प्रक्रियाओं में बेवजह देरी पर
चेतावनी दी।
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल
आर. एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ
सुरक्षित रखने की कार्रवाई को अवैध और त्रुटिपूर्ण ठहराया। जबकि वे विधेयक पहले ही
राज्य विधानसभा द्वारा पुनर्विचारित किए जा चुके थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट
ने अनुच्छेद-142
का इस्तेमाल करके वर्षों से लंबित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की 'अनुमति
प्रदान की गई' मानकर
पारित कर दिया।
अपने लंबे फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने
कहा कि यदि कोई संवैधानिक प्राधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन उचित समय के भीतर
नहीं करता है, तो
न्यायालय हस्तक्षेप करने में असमर्थ नहीं रहेंगे। पीठ ने कहा कि बिना किसी वैध
कारण या आवश्यकता के राष्ट्रपति द्वारा निर्णय में देरी करना संविधान के उस मूल
सिद्धांत के विरुद्ध होगा जिसके अनुसार किसी भी शक्ति का प्रयोग मनमाने ढंग से
नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने सख़्त लहज़े में कहा
कि जैसा कि हमने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को किसी भी विधेयक पर 'पूर्ण
वीटो' का
अधिकार नहीं है, वैसे
ही यही मानक राष्ट्रपति पर भी लागू होता है, संविधान में यह नियम स्पष्ट है कि ऐसी
असीमित शक्तियाँ किसी भी संवैधानिक पद पर नहीं हो सकतीं।
इस फ़ैसले के महज़ कुछ दिनों के बाद देश
के उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में कुछ ऐसा कहा, जिससे
विवाद खड़ा हो गया। 17 अप्रैल 2025 के दिन उप
राष्ट्रपति ने कहा, "ऐसी
स्थिति नहीं हो सकती जहाँ आप भारत के राष्ट्रपति को आदेश दें और वो भी किस आधार पर?"
उप राष्ट्रपति ने कहा, "संविधान
के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है।
जिन जजों ने राष्ट्रपति को आदेश दिया कि यही अब देश का क़ानून होगा, वे
संविधान की ताक़त को भूल गए हैं। अगर अनुच्छेद 145(3) के तहत किसी चीज़ को संरक्षित किया जाता
है तो जजों का वह समूह इससे कैसे निपट सकता ह? हमें अब इसके लिए भी संशोधन करने की
ज़रूरत है।"
देश के उप राष्ट्रपति ने अपने संवैधानिक पद की गरिमा को भूलते हुए
यहाँ तक कह दिया कि, "अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक शक्तियों के
ख़िलाफ़ एक परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका को 24x7 उपलब्ध है।"
देश के उप राष्ट्रपति का कहना था कि
अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकती। भारत के उप राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक
और उच्च स्तर के पद पर होते हुए भी जगदीप धनखड़ ने जो कहा और जो दलील दी, वह
वाक़ई गली-मोहल्ले के मैसेज सरीखी निराधार और अज्ञानी स्तर की थी।
यहाँ सामान्य ज्ञान रखने वाले तमाम
नागरिकों को पता है कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश दे सकती हैं। किंतु इतनी सीधी
बात देश के उप राष्ट्रपति को नहीं पता हो यह वाक़ई उनका और भारत देश का दुर्भाग्य
है।
जगदीप धनखड़ शायद 2016
के दो ऐतिहासिक मामले भूल चुके हैं। एक था उत्तराखंड मामला, दूसरा
था अरुणाचल मामला।
देश के उप राष्ट्रपति भूल चुके हैं कि नैनीताल
हाईकोर्ट ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय को ग़लत ठहराते हुए कहा था कि राष्ट्रपति द्वारा लिया गया वो
फ़ैसला कोई राजा का फ़ैसला नहीं है, जिसकी समीक्षा नहीं हो सकती।
उस फ़ैसले में हाईकोर्ट ने कहा था कि लोग ग़लत फ़ैसले ले सकते हैं, चाहे वो राष्ट्रपति हो या
कोई जज... भारत में संविधान के ऊपर कोई नहीं है, यहाँ संविधान ही सर्वोच्च
है, राष्ट्रपति राजा नहीं है
कि उसके आदेश को बदला ना जा सकें।
देश के उप राष्ट्रपति को अरुणाचल के
ऐतिहासिक मामले का भी ज्ञान नहीं है। यहाँ उत्तराखंड की तरह राष्ट्रपति शासन लग
चुका था। फ़र्क़ यह था कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन जारी था, नयी
सरकार की नियुक्ति नहीं हुई थी। जबकि अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लगा और उसके बाद
नयी सरकार बन चुकी थी, जो 7 महीने पुरानी भी हो चुकी थी।
अरुणाचल मामले में देश की सर्वोच्च
अदालत ने जो फ़ैसला दिया था वो ऐसे मामलों में अब तक का सबसे सख़्त फ़ैसला माना
जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने "हम घड़ी की सुइयाँ वापस कर सकते हैं", इन शब्दों के साथ राष्ट्रपति शासन के
बाद बनी नयी सरकार को अवैध या असंवैधानिक सरकार घोषित किया था। इतना ही नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने नयी सरकार द्वारा 7 महीनों में लिए गए तमाम फ़ैसलों को
वापस मूल स्थिति में लाने का और पुरानी सरकार को बहाल करने का आदेश दिया था।
अरुणाचल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, राज्यपाल को केंद्र सरकार
के एजेंट के तौर पर काम करना नहीं होता, राज्यपाल को संविधान के
तहत काम करना चाहिए। अदालत ने कहा था, "हमें अधिकार प्राप्त हैं
कि हम समय को पीछे ले जाए। जब लोकतंत्र की हत्या हो
रही हो तब अदालतें ख़ामोश नहीं बेठ सकतीं।"
उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के जीवन काल
के दौरान ही तो उत्तराखंड और अरुणाचल मामले हुए थे। वे इतने ऊंचे पद पर पहुँचे हैं
तो इनसे उम्मीद की जाती है कि उनके पास ज़रूरी मूलभूत ज्ञान होगा।
उप राष्ट्रपति धनखड़ पद संभालने के बाद
से लगातार सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना करते रहे हैं। देश के उप राष्ट्रपति का
ऐसा व्यवहार दुर्लभ द्दश्य है!
'तमिलनाडु
राज्य बनाम राज्यपाल' फ़ैसले की आलोचना करने के चक्कर में देश के उप राष्ट्रपति ने
काफी विवादित लहज़ा धारण किया है।
देश के उप राष्ट्रपति कह रहे हैं कि जिन
लंबित विधेयकों को अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल कर
सुप्रीम कोर्ट ने पारित कर दिया वह काम न्यायालय नहीं कर सकता, वह
काम राज्यपाल और राष्ट्रपति का है। तो फिर सवाल उप राष्ट्रपति से है कि राज्यपाल, जिसका
काम संविधान संमत व्यवहार करना है वह अगर केंद्र सरकार के अधीन काम करके राज्य की
विधायी व्यवस्था को बाधित करने का प्रयास करे तब संविधान और लोकतंत्र का प्रथम
रक्षक, सुप्रीम
कोर्ट, मुकदर्शक
बनकर संविधान और लोकतंत्र के ख़िलाफ़ काम करे?
देश के उप राष्ट्रपति जैसा संवैधानिक पद
धारण करने वाले धनखड़ से सवाल बनता है कि अगर देश के संधीय ढाँचे को चोट पहुँचाई
जा रही हो तब सुप्रीम कोर्ट को कैसे फ़ैसले देने चाहिए? अगर
एक चुनी हुई विधायिका, जो नागरिकों के लिए क़ानून बनाने के लिए संवैधानिक रूप से
बाध्य है, के
कार्यों को रोक दिया गया हो, अगर संवैधानिक पदों पर बैठे लोग संविधान के अनुच्छेदों के
माध्यम से संविधान का ही गला घोंटने लगें, ऐसी स्थिति से निपटने के लिए सुप्रीम
कोर्ट स्वयं को किसी नेता की भाँति पतली गली से निकाल ले?
इसके कुछ दिनों बाद उप राष्ट्रपति धनखड़
ने 22
अप्रैल 2025
के दिन इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान न्यायपालिका की भूमिका की
याद दिलाई। उप राष्ट्रपति के द्वारा दागी गई यह दलील व्हाट्सएप विश्वविद्यालय
सरीखी थी। क्योंकि अगर न्यायपालिका ने कथित रूप से लोकतंत्र और संविधान के ख़िलाफ़
उन दिनों काम किया था, तो उप राष्ट्रपति को अब ऐसी चाहत नहीं रखनी चाहिए कि
न्यायपालिका वहीं कथित ग़लती या असंवैधानिक कामकाज को दुहराने में मदद करे।
देश के उप राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट द्वारा तमिलनाडु राज्यपाल
मामले में फ़ैसला देते समय जो उल्लेख किया था उस उल्लेख को कैसे भूल गए? सुप्रीम कोर्ट ने मोदी
सरकार के दो कार्यालय ज्ञापनों का उल्लेख किया था। दरअसल इस विषय के संदर्भ में 4 फ़रवरी 2016 को गृह मंत्रालय ने सभी
मंत्रालयों और विभागों को दो कार्यालय ज्ञापन (OM) जारी किए थे, जिसमें राष्ट्रपति की
स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखे गए राज्य विधेयकों के शीघ्र निपटान के निर्देश थे।
उप राष्ट्रपति महोदय इसी मोदी सरकार
द्वारा जो कार्यालय ज्ञापन लिखित रूप से जारी किए गए थे, उसे
कैसे भूल गए? सुप्रीम
कोर्ट ने इस मामले में जो फ़ैसला दिया है वह फ़ैसला दरअसल इसी ज्ञापन को सहायक
कारक है।
सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला देते समय
स्पष्ट उल्लेख किया कि पहले कार्यालय ज्ञापन में स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के
विचारार्थ सुरक्षित विधेयकों पर निर्णय के लिए तीन महीने की समयसीमा तय की गई है, और
अत्यावश्यक अध्यादेशों के निपटान के लिए तीन सप्ताह की समयसीमा तय की गई है।
देश के उप राष्ट्रपति तीन महत्वपूर्ण बातें बिलकुल भूल गए हैं। पहली - इस देश
में संविधान सर्वोच्च शक्ति है, दूसरी - अदालतें राष्ट्रपति को आदेश दे सकती हैं, तीसरी - कोई भी संवैधानिक
व्यक्ति हो, चाहे वह राष्ट्रपति ही क्यों न हो, वह राजा नहीं होता।
अगर इतनी सिंपल सी बातें देश के उप
राष्ट्रपति को पता नहीं हैं तो फिर यह देश का दुर्भाग्य है कि उसे ऐसा उप
राष्ट्रपति मिला है जो अज्ञानी की तरह निराधार बातें करता है। देश के उप
राष्ट्रपति को कभी संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत खटकने लगता है, कभी
संविधान का अनुच्छेद-142।
उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बाद
बीजेपी के दिग्गज़ सांसद निशिकांत दुबे ने इनसे अनेक कदम आगे जाकर सुप्रीम कोर्ट
ही नहीं बल्कि सार्वजनिक रूप से देश के सीजेआई का नाम लेकर ही न्यायपालिका पर वीभत्स
आक्रमण किया। निशिकांत दुबे चार बार के सांसद हैं, एमबीए-पीएचडी हैं, आरएसएस से
जुड़े हुए हैं।
निशिकांत दुबे ने वक़्फ़ संशोधन विधेयक 2025
का मामला सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए चला गया उसके बाद इस मामले के संदर्भ
में बयान दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस विधेयक की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है, और
अदालत ने सरकार से इसके कुछ प्रावधानों को लागू न करने का आश्वासन माँगा था। दुबे
ने कोर्ट के इस रुख को अराजकता की ओर ले जाने वाला बताया और कहा कि यह धार्मिक
युद्धों को भड़काने का काम कर रहा है!
झारखंड के गोड्डा से बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कहा, "देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट ज़िम्मेदार
है। सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमा से बाहर जा रहा है। अगर हर बात के लिए सुप्रीम कोर्ट
जाना है, तो संसद और विधानसभा का कोई मतलब नहीं है, इसे बंद कर देना
चाहिए।" दुबे ने सीमा लाँधते हुए कहा, "इस देश में जितने 'गृह युद्ध' हो रहे हैं उसके ज़िम्मेदार केवल चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया संजीव
खन्ना साहब हैं।"
देश के उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने
तमिलनाडु राज्यपाल मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर जो कहा, तथा बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने वक़्फ़ संशोधन
विधेयक 2025
की सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के संदर्भ में जो कुछ कहा, दोनों
ने, यानी
कि देश के सांसद और देश के उप राष्ट्रपति, दोनों ने देश के
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी, कार्रवाई और फ़ैसलों
को 'न्यायिक
अतिक्रमण' क़रार
दिया!
भारत के उप राष्ट्रपति भारत के सर्वोच्च
न्यायालय के फ़ैसले की 'उग्र
आलोचना' करें यही अपने आप में दुर्लभ द्दश्य
है।
उपरांत उप राष्ट्रपति आलोचना करने के चक्कर में सुप्रीम कोर्ट पर न्यायिक अतिक्रमण
जैसा आरोप लगा दें, सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक ताक़त को लोकतंत्र के ख़िलाफ़
परमाणु मिसाइल बता दें, संविधान संशोधन की बात बोल दें, यह अति दुर्लभ द्दश्य है, जो
मोदी सरकार ने प्रदान किया है। साथ ही, देश का दिग्गज़ सांसद
सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश का नाम लेकर उन्हें गृह युद्ध का अपराधी कह दें, यह
मोदी सरकार के स्तर का प्रतिबिंब है।
इसके बाद, बीजेपी के राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा ने अपना ख़ुद का नया संविधान
देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा, "भारत के संविधान के
अनुसार, कोई भी लोकसभा और राज्यसभा को निर्देशित नहीं कर सकता है और
राष्ट्रपति ने पहले ही इस पर अपनी सहमति दे दी है। कोई भी राष्ट्रपति को चुनौती
नहीं दे सकता क्योंकि राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं।"
बीजेपी के दोनों सांसदों के बयान से
पार्टी ने किनारा कर लिया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री
जेपी नड्डा ने एक्स पर इसको लेकर एक पोस्ट की। उन्होंने लिखा, "बीजेपी
सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा का
न्यायपालिका एवं देश के चीफ़ जस्टिस पर दिए गए बयान से भारतीय जनता पार्टी का कोई
लेना-देना नहीं है। यह इनका व्यक्तिगत बयान है, लेकिन
बीजेपी ऐसे बयानों से न तो कोई इत्तिफ़ाक़ रखती है और न ही कभी भी ऐसे बयानों का
समर्थन करती है। बीजेपी इन बयान को सिरे से ख़ारिज करती
है।"
जेपी नड्डा ने लिखा, "भारतीय
जनता पार्टी ने सदैव ही न्यायपालिका का सम्मान किया है, उनके
आदेशों और सुझावों को सहर्ष स्वीकार किया है। क्योंकि एक पार्टी के नाते हमारा
मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय सहित देश की सभी अदालतें हमारे लोकतंत्र का अभिन्न
अंग हैं तथा संविधान के संरक्षण का मजबूत आधार स्तंभ हैं। मैंने इन दोनों को और
सभी को ऐसे बयान ना देने के लिए निर्देशित किया है।"
बीजेपी के दिग्गज़ सांसद देश की
न्यायपालिका पर वीभत्स आक्रमण कर रहे थे और बीजेपी ने विवाद उठने के तुरंत बाद
ख़ुद को इन दोनों नेताओं के बयान से अलग कर लिया। इतना ही नहीं, बीजेपी
ने लिखित रूप से कहा कि उसने अपने नेताओं के इस तरह के बयान न देने के लिए निर्देश
दे दिए हैं।
निशिकांत दुबे की देश के सीजेआई के ऊपर
टिप्पणी विवाद खड़ा कर चुकी थी, दिनेश शर्मा के बकवास से पार्टी किनारा कर चुकी थी, जेपी
नड्डा बयान जारी कर न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दे चुके थे और दोनों सांसदों को
रुकने का निर्देश दे चुके थे।
और इसके बाद उप राष्ट्रपति धनखड़ ने 22 अप्रैल 2025 के दिन दिल्ली
यूनिवर्सिटी में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा, "सबसे सर्वोच्च संसद ही है, उससे ऊपर कोई अथॉरिटी
नहीं है... सांसद ही सब कुछ होते हैं, इनके ऊपर कोई नहीं होता।" देश के उप राष्ट्रपति ने फिर एक बार
व्हाट्सएपिया ज्ञान बाँटते हुए कहा, "संविधान कैसा होगा और
उसमें क्या संशोधन होने हैं, यह तय करने का पूरा अधिकार सांसदों को है। उनके ऊपर कोई भी नहीं
है।"
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष दोनों
सांसदों के बयानों से किनारा करते हैं, तो फिर उप राष्ट्रपति
के द्वारा न्यायपालिका के ऊपर किए गए अनर्गल प्रलापों का क्या? क्या
बीजेपी यह सही मानती है? अगर नहीं तो सुप्रीम कोर्ट की वीभत्स आलोचना कर रहे उप
राष्ट्रपति के बयानों से कम से कम असहमती तो बीजेपी को जतानी चाहिए थी।
जेपी नड्डा अपनी सरकार के क़ानून मंत्री को क्या कहेंगे? देश के क़ानून मंत्री का
कहना है कि जिस तरह न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप कर रही है वह
ठीक नहीं है। देश के क़ानून मंत्री कह जाते हैं, "अगर कल के दिन सरकार ने
भी न्यायपालिका के कार्य में हस्तक्षेप किया तब क्या होगा?"
देश के क़ानून मंत्री इस तरह से बात
क्यों कर रहे हैं? सवाल
है कि क्या भारत का क़ानून मंत्री भारत की सर्वोच्च अदालत को धमकी दे रहा है? जेपी
नड्डा ने दावा किया कि उन्होंने अपने सांसदों को निर्देश दिए हैं कि वे ऐसे बयान न
दें। जेपी नड्डा का वह ट्वीट देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुमलों जैसा ही
निकला। क्योंकि इसके बाद भी दुबे रुके नहीं।
याद करिए साल 2020
के आख़िरी महीनों को। दूसरे धर्म और जाति वालों से से शादी, पटाखों
पर एक विशेष शहर में एक निश्चित समयावधि का प्रतिबंध, जजों
की नियुक्ति में विधायिका की भूमिका को कम करना, जाँचों की निगरानी करना, जैसे
मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की सोच के ख़िलाफ़ फ़ैसले दिए तब भी देश के तत्कालीन उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की
उपस्थिति में कह दिया था कि मौजूदा भारतीय न्यायपालिका कई मामलों में अपने
अधिकार-क्षेत्रों के दायरे से आगे बढ़ती नज़र आ रही है।
सितंबर 2021 में त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिप्लव देब ने कह दिया था
कि मुझे कई अधिकारियों द्वारा कहा गया है कि वे 'एक
ख़ास कार्य' नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करने से अदालत की अवमानना होगी, इससे क्यों डरें? उन्होंने कहा था, अदालत की अवमानना से डरे
नहीं... मैं यहाँ बाघ हूँ...।
ये लोग अभी संसद को सर्वोच्च बता रहे
हैं, इसी
प्रकार के लोग भविष्य में कभी न कभी यह भी कह जाएँगे कि संसद नहीं बल्कि सड़क
सर्वोच्च है, क़ानून
और संविधान सड़क पर लोग बनाए।
अदालत की चौखट से कईं ऐसे फ़ैसले पूर्व सरकारों के दौरान भी आते
रहे हैं, जिन्हें तत्कालीन सत्ता ने नापसंद किया। सत्ता से असहमति जताते हुए
अदालती फ़ैसलों की आलोचनाएँ भी होती हैं। यह सामान्य है। किंतु इस बार असामान्य यह
है कि देश के ऊंचे स्तर के संवैधानिक पद धारण करने वाले लोग, वरिष्ठ मंत्री, दिग्गज़ सांसद अति आक्रमक
शब्दों और बेतुके तर्कों के साथ न्यायपालिका और सीजेआई की आलोचना कर रहे हैं। और
इनमें कुछ तरीक़े हद पार करके वीभत्स भत्सर्ना श्रेणी में आ जाते हैं।
इसका जवाब यह नहीं हो सकता कि उन्होंने
भी किया था। छगन ने 100 किलोग्राम के काले काम किए थे तो मगन 90
किलोग्राम करेगा, छगन
से 10
किलोग्राम कम करेगा। इस प्रकार की दलील को स्वीकृत नहीं किया जा सकता। उसने हत्या
करते समय पीड़ित के शरीर पर चाकु के पचास वार किए थे, हमने
तो गला घोंट कर ही मारा है, चाकु से वार नहीं किए हैं, बिलकुल इस प्रकार की बेतुकी दलील इसका
जवाब नहीं हो सकती।
कुछ विश्लेषकों, जिसमें
प्रोफ़ेसर अभय दुबे भी शामिल हैं, का मानना है कि देश की न्यायपालिका के ऊपर इस तरह से आक्रमण
करना और फिर बीजेपी द्वारा औपचारिक किनारा कर लेना, यह सोची समझी रणनीति है, और
यह रणनीति आपत्तिजनक है। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि यह सब पहले से ही तय किया गया
होगा और ऐसे विवादित बयानों के बाद जो भी माहौल बना है, उसका
अंदाज़ा भी पहले ही लगाया गया होगा।
यानी, इन विश्लेषकों के मुताबिक़, जिस तरह से 2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार
के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने आरएसएस के बारे में जो
ऐतिहासिक बयान दिया था - "बीजेपी अब बड़ी हो गई है, हमें अब आरएसएस की ज़रूरत
नहीं है", तब सभी को जो यक़ीन था कि जेपी नड्डा ऐसा बयान अपने आप नहीं दे
सकते, उनसे वह बोलने के लिए कहा गया था, बिलकुल यही माहौल
विश्लेषक इस मामले में भी देख रहे हैं।
ये विश्लेषक मानते हैं कि न्यायपालिका
पर यह अचानक किया गया आक्रमण नहीं हो सकता, बल्कि यह योजनाबद्ध आक्रमण हो सकता है।
अभय दुबे का व्यक्तिगत मत है कि मोदी सत्ता देश की न्यायपालिका और न्यायपालिका के
आने वाले प्रमुख न्यायाधीशों के संदर्भ में यह करा रही है। कईं विशेषज्ञों का
मानना है कि यह विवाद केवल व्यक्तिगत बयानों तक सीमित नहीं है, बल्कि
यह एक बड़े राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा हो सकता है।
बार बार न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति सवाल उठा रहे हैं, लगातार संसद को सर्वोच्च बताया जा रहा
है, जो
कि सर्वोच्च है नहीं, सांसदों को असिमित अधिकार मिले हैं जैसे भ्रमित बयान दिए जा
रहे हैं, संविधान
में संशोधन की अनर्गल बातें, यह सब पाकिस्तान जैसे देशों की संस्कृति है, इसे
भारत में संस्कृति के रूप में थोपने का प्रयास कैसा राष्ट्रवाद है?
देश के उप राष्ट्रपति, देश के क़ानून मंत्री, देश के सांसद सुप्रीम कोर्ट की वीभत्स आलोचना कर रहे हैं। एक सांसद
बाक़ायदा सीजेआई का नाम लेकर सरेआम कह रहा है कि सीजेआई गृह युद्ध करा रहे हैं। यह
सब सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि देश का न्यायालय सरकार से सवाल पूछ रहा है, सरकार से असहमती जता रहा
है?
जैसा कि तमाम बहुतम प्राप्त सरकारों ने
चाहा, नरेंद्र
मोदी सरकार भी शायद चाहती है कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार की जी-हुज़ूरी करे। सभी
बहुमत प्राप्त सरकारों ने जैसे किया, मोदी सत्ता की भी
चाहत शायद यही हो सकती है कि वो संविधान को जैसे चाहे वैसे तोड़े-मरोड़े और जिसे
संविधान ने संविधान का अभिरक्षक बनाया है वह मूक दर्शक बनकर सरकार की हाँ में हाँ
मिलाता रहे, अगर
ऐसा नहीं किया तो न्यायपालिका को 'टारगेट' किया जाएगा।
असल में उप राष्ट्रपति, क़ानून
मंत्री या इन सांसदों को अलग से देखने की ज़रूरत है ही नहीं। बहुमत प्राप्त
सत्ता को दशकों तक सत्ता का स्वाद चखते रहने की ज़िद होती है। और इस ज़िद के
चलते वे इस प्रकार अपना असली आत्मदर्शन कराते रहते हैं।
सत्ता का स्वाद निरंतर चखने के लिए मिले
इसलिए तमाम संस्थानों को मुठ्ठी में भींचना है। जो मुठ्ठी में नहीं आए हैं उनके
लिए कोशिश जारी है। और यह कोशिश हर स्तर पर की जा रही है। सांसद जैसे निचले स्तर
से लेकर उप राष्ट्रपति जैसे उच्च स्तर तक। जैसे कि सरकार ही न्यायपालिका का काम
करना चाहती है।
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र और संविधान में आस्था
रखते हैं तो उन्हें निशिकांत दुबे से पूछ लेना चाहिए कि मुझे भी दिखाओ कि गृह
युद्ध कहाँ हो रहा है?
उन्हें अपने सांसद से पूछ लेना चाहिए कि देश के सीजेआई किस तरह गृह युद्ध के
अपराधी हैं? वे
मंत्रियों और उप राष्ट्रपति तक के अनर्गल प्रलापों को रोकने की ताक़त तो रखते ही
हैं।
अगर सुप्रीम कोर्ट ने उन विचारों को
समर्थन नहीं दिया, जो
सत्ता में बैठे लोगों के विचार हैं, तो गृह युद्ध छिड़ जाएगा, ऐसा मानने वाले अपनों
को नहीं पूछते। फिर तो यह देश की न्यायपालिका को सरेआम अतिसंवेदनशील और अति गंभीर
धमकी देने वाला माहौल माना जाएगा।
क़ानून और संविधान सफ़ेदपोश लोगों का
ग़ुलाम बन कर काम करे - क्या नरेंद्र मोदी जैसे राजनेता यही चाहते हैं? क्या
उनकी बीजेपी यही चाहती है? वे जिस संस्था से आए हैं वह आरएसएस यही चाहता है? यदि
नहीं, तो ये लोग इस प्रकार के वीभत्स माहौल को रोकते हुए दिखाई देते, जो कि नहीं
दिखाई दे रहे।
अगर इन सबमें कोई अच्छे बौद्धिक स्तर
वाला हो तो इनसे कहिए कि अपनी असहमती या अपनी तीखी आलोचना को तर्क, तथ्य
और परंपरा की धार के साथ पेश करें। ताकि कम से कम उनकी बातें व्हाट्सएप सरीखी ना
होकर चर्चा के लायक विषय तो बन पाए।
सरकार जवाहरलाल नेहरू की हो, इंदिरा
गांधी की हो, वाजपेयी की हो, मनमोहन
सिंह की हो या नरेंद्र मोदी की हो, अमूमन सभी समय सत्ता
को नापसंद हो ऐसे अदालती फ़ैसलों के दौरान सत्ता की तरफ़ से न्यायपालिका के
ख़िलाफ़ नाराज़गी या असहमती जताई जा चुकी हैं। इंदिरा गांधी ने तो न्यायपालिका ही
नहीं, बल्कि
संविधान को ही ब्लॉक कर दिया था!
नरेंद्र मोदी के शासन में सत्ता को नापसंद हो ऐसे अदालती फ़ैसलों के बाद इस बार
जिस तरीक़े का व्यवहार चला है, वह भी सीमा को पार कर
गया है।
देश की सेना के लिए सेनाध्यक्ष चुनना हो
या भारत का प्रधान न्यायाधीश, राज्यपाल नियुक्त
करने हो या राष्ट्रपति, बहुमत प्राप्त
सत्ताएँ सदैव लोकतंत्र और संविधान की मूल समझ और भावना के ख़िलाफ़ जाकर काम करती
दिखती रही हैं। दरअसल तमाम सरकारों ने कुछ न कुछ, या बहुत कुछ, अच्छे काम किए होते
हैं, और
एक अच्छे काम के पीछे दस बुरे काम करने की इजाज़त जैसे कि ये लोग स्वयं कहीं न
कहीं से प्राप्त कर लेते हैं!
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)