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Parallel Justice: न्यायपालिका स्वत: संज्ञान सभी स्वतंत्रता नायकों पर ले यही कामना, ताकि नायकों और न्याय का सम्मान बना रहे


"हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का मज़ाक न बनाए…", "यदि आपने भविष्य में इस तरह की टिप्पणी की तो हम स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करेंगे..." - यह देश के सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक मामले में आरोपी व्यक्ति को बरी करते हुए दी गई चेतावनी थी।
 
मामले में जिस स्वतंत्रता सेनानी की बात हो रही थी वह थे विनायक सावरकर। वह शख़्सियत जो विशेषत: महाराष्ट्र में अधिक लोकप्रिय हैं, महाराष्ट्र के बाहर भी इनके प्रशंसक हैं। सावरकर के बारे में जो ऐतिहासिक विवाद हैं वह सर्वविदित हैं। अंग्रेज़ों के सामने माफ़ीनामा और ब्रितानी जेल से इनकी रिहाई तथा ब्रितानी पेंशन के हक़दार बने सावरकर का वह इतिहास अनगिनत बार अनेक पुस्तकों और लेखों में लिखा-पढ़ा जा चुका है।
 
25 अप्रैल 2025 के दिन देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सावरकर मामले में अभियुक्त को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी देते हुए रिहा किया। इस मामले में जो व्यक्ति अभियुक्त था वह कोई आम नागरिक नहीं था, ना ही कोई सामान्य नाम था। जो व्यक्ति अभियुक्त थे वे थे भारत के प्रतिपक्ष के नेता और देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के प्रमुख नेता राहुल गांधी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सावरकर के ख़िलाफ़ अपनी टिप्पणी को लेकर अदालत में इन पर मामला चल रहा था।
 
दूसरी तरफ़ अनेकों बार कुछेक संगठनों और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भारत के प्रमुख स्वतंत्रता नायकों के बारे में अति आपत्तिजनक, अति अपमानजनक, अति भ्रमित, इतिहास और तथ्यों से कोसों दूर, टिप्पणियाँ लगातार कर चुके हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी इस प्रवृत्ति के सबसे ज़्यादा शिकार हुए हैं। किंतु न्यायपालिका ने कभी इस तरह से स्वत: संज्ञान लिया हो और ऐसे किसी को चेतावनी दी हो ऐसा मामला नज़र नहीं आता।
 
इस स्थिति में कामना यही है कि न्यायपालिका स्वत: संज्ञान हर उस अपमान पर ले, जो गाँधीजी समेत तमाम स्वतंत्रता नायकों का लगातार किया जाता है और इसी प्रकार तमाम को सख़्त शब्दों में चेतावनी दे। ताकि न्यायपालिका की देश के स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान के सार्वजनिक भाव को फैलानी की जो इच्छा है उसकी पूर्ति हो पाए, साथ ही हमारे महान नायकों और न्याय, दोनों का सम्मान बना रहे।
इस मामले को देखे तो, राहुल गांधी ने अपनी 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान 2022 में महाराष्ट्र में सावरकर के बारे में कुछ टिप्पणियाँ की थीं, जिन्हें सावरकर के समर्थकों और हिंदूवादी संगठनों ने अपमानजनक माना। इसके बाद लखनऊ की एक अदालत में उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की गई, और जाँच के आदेश दिए गए।
 
अपनी टिप्पणियों में राहुल गांधी ने सावरकर से जुड़े उन ऐतिहासिक विवादों का ज़िक्र किया था, जो अनेक पुस्तकों और लेखों में अनेक बार लिखे-पढ़े जा चुके हैं। इन ऐतिहासिक बातों को याद करते हुए राहुल गांधी ने कथित तौर पर रहा था कि सावरकर ब्रिटिश के नौकर थे और उन्होंने अंग्रेज़ों से पेंशन ली थी।
 
अधिवक्ता नृपेंद्र पांडे द्वारा दायर राहुल गांधी के ख़िलाफ़ एक शिकायत में दावा किया गया था कि राहुल गांधी ने समाज में नफ़रत फैलाने के इरादे से विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश का नौकर कहा और यह कि उन्होंने ब्रिटिश से पेंशन ली थी।
 
यह मामला लखनऊ की एक अदालत में चल रहा था। लंबे इंतज़ार के बाद राहुल गांधी मामले में राहत की माँग लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुँचे थे। राहुल गांधी ने तब सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 4 अप्रैल को राहत देने से इनकार कर दिया था।

 
यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा जहाँ जस्टिस दीपांकर दत्ता और मनमोहन की पीठ ने मामले की सुनवाई की। जैसे ही मामला शुरू हुआ, जस्टिस दत्ता ने राहुल गांधी के उस बयान पर आपत्ति जताई जिसमें उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश का नौकर कहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को सावरकर के ख़िलाफ़ उनकी टिप्पणियों के लिए कड़ी फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा, "हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का मज़ाक न बनाएँ।" अदालत ने राहुल को मौखिक रूप से चेताया कि, "यदि आपने भविष्य में इस तरह की कोई टिप्पणी की तो आपके ख़िलाफ़ 'स्वतः संज्ञान' लेकर कार्रवाई की जाएगी।" यह कहते हुए अदालत ने राहुल गांधी को क़ानूनी राहत भी दे दी।
 
यह एक असामान्य क़दम है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट सामान्य रूप से व्यक्तिगत टिप्पणियों के मामलों में स्वत: संज्ञान लेने से बचता रहा है। अदालत ने सावरकर के सम्मान पर सख़्ती जताई, लेकिन महात्मा गाँधी पर कभी स्वत: संज्ञान लिया हो ऐसा कहीं मिलता नहीं।
 
अदालत ने 'असामान्य चेतावनी' ज़रूर दी, किंतु सावरकर के ख़िलाफ़ राहुल गांधी की टिप्पणियों को लेकर लखनऊ न्यायालय में उनके ख़िलाफ़ लंबित आपराधिक मानहानि की कार्यवाही पर रोक लगा दी।
 
पूरी सुनवाई के दौरान अदालत का वह तर्क असामान्य सा था, जिसमें उन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा वायसराय को लिखे गए पत्र का, इंदिरा गांधी द्वारा सावरकर के प्रशंसा पत्र का उदाहरण पेश किया।
 

सावरकर को लेकर ब्रिटिश पेंशन, माफ़ीनामा आदि ऐतिहासिक और पुराने विवादों को आधार बताकर उन्हें ब्रिटिश नौकर कहने के इस मामले में, लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस दत्ता ने पूछा कि क्या केवल इसलिए कि महात्मा गाँधी ने वायसराय को लिखे अपने पत्रों में 'योर फेथफुल सर्वेंट' शब्द का उपयोग किया था, उन्हें ब्रिटिश का नौकर कहा जा सकता है?
 
रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस दत्ता ने राहुल गांधी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता ए.एम. सिंहवी से पूछा, "क्या आपके मुवक्किल को पता है कि महात्मा गाँधी ने भी वायसराय को संबोधित करते हुए 'योर फेथफुल सर्वेंट' लिखा था? क्या आपके मुवक्किल को पता है कि जब उनकी दादी (इंदिरा गांधी) प्रधानमंत्री थीं तो उन्होंने भी उस स्वतंत्रता सेनानी (सावरकर) की प्रशंसा में एक पत्र भेजा था?"
जस्टिस दत्ता ने कहा, "इसलिए उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान नहीं देना चाहिए। आपने क़ानून का एक अच्छा बिंदु रखा है और आप स्टे के हक़दार हैं। यह हमें पता है। लेकिन हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाता। जब आपको भारत के इतिहास या भूगोल के बारे में कुछ नहीं पता...।"
 
जस्टिस दत्ता ने कहा, "वह (राहुल गांधी) एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। वह एक राजनीतिक दल के नेता हैं। आप इस तरह की परेशानी क्यों भड़काते हैं? आप अकोला जाते हैं और उस महाराष्ट्र में, जहाँ सावरकर की पूजा होती है, ऐसा बयान देते हैं? ऐसा न करें। आप यह बयान क्यों देते हैं?'
 

जस्टिस दत्ता ने कहा कि ब्रिटिश काल में कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज भी मुख्य न्यायाधीश को 'योर सर्वेंट' कहकर संबोधित करते थे। उन्होंने कहा, "इस तरह कोई नौकर नहीं बन जाता। अगली बार कोई कहेगा कि महात्मा गाँधी ब्रिटिश के नौकर थे। आप इस तरह के बयानों को प्रोत्साहित कर रहे हैं।"
 
हालाँकि जस्टिस दत्ता ने कहा, "हम आपको स्टे देंगे... लेकिन हम आपको ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान देने से रोकेंगे। स्पष्ट करें, कोई और बयान दिया तो हम स्वतः संज्ञान लेंगे और स्वीकृति का कोई सवाल नहीं! हम आपको हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में कुछ भी बोलने की अनुमति नहीं देंगे। उन्होंने हमें आज़ादी दी, और हम उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं?"
 
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में न केवल राहुल गांधी की टिप्पणियों को गंभीरता से लिया, बल्कि यह भी साफ़ कहा कि स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान बनाए रखना राष्ट्रीय कर्तव्य है। और अदालत की यह नसीहत हर देशप्रेमी भारतीय को आत्मसात यक़ीनन करनी चाहिए। एक दूसरी चीज़ राजनेताओं को सीखनी चाहिए कि उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तिओं के बारे में बोलते समय सावधानी बरतनी चाहिए।
हालाँकि अदालत द्वारा अभियुक्त पक्ष को यह कहना कि - 'आपको भारत के इतिहास या भूगोल के बारे में कुछ नहीं पता', इस मामले में असंगत सा था। क्योंकि सावरकर के बारे में इतिहास ने जो लिखा है, वह सार्वजनिक है।
 
बात इस मामले की करें तो, क़ानूनी जानकारों के अनुसार यह सावरकर के कथित अपमान का मामला था। विपक्षी नेता ने सावरकर के बारे में जो टिप्पणियाँ की थीं, वह इससे पहले अनेक पुस्तकों, लेखों में तथ्यों और तर्कों के साथ लिखी गई हैं। विपक्षी नेता ने उन्हीं को आधार बनाया था, और वे सावरकर की बात कर रहे थे, तमाम स्वतंत्रता सेनानियों की नहीं।

 
अदालत का गाँधीजी या दूसरे लोगों द्वारा वायसराय को लिखे गए पत्रों का संबोधन, योर फेथफुल सर्वेंट, यह तर्क, इधर सावरकर मामला, उनके बारे में पुस्तकों और लेखों में वर्णित वह इतिहास, और उसके आधार पर उनकी आलोचना से इतना तार्किक रूप से मेल नहीं खाता कि पत्रों के संबोधन के आधार पर सावरकर के उस माफ़ीनामे, ब्रितानी पेंशन आदि ऐतिहासिक विवादों की काट के रूप में रख दिया जाए।
 
यूँ तो, माय लॉर्ड - यह शब्द ब्रितानी जजों से लेकर स्वतंत्र भारत के जजों तक के लिए अनेक बार इस्तेमाल किया जा चुका है। यह आम जनजीवन में बहुत औपचारिक रूप से बसा हुआ शब्द है और इसका इस्तेमाल करना यह नहीं दर्शाता कि इस्तेमाल करने वाले उन जजों को भगवान मानते थे या मानते हैं।
 
उपरांत पत्राचार में सामान्य शिष्टाचार या औपचारिक संबोधन, फिर भले वो हमारी सोच के मुताबिक़ ठीक न हो, किंतु वह सामान्य शिष्टाचार या औपचारिक संबोधन, इतिहास का कोई मजबूत तथ्य नहीं माना जा सकता।
सावरकर के बारे में ब्रिटिश नौकर वाली जो टिप्पणी दशकों से की जाती है, उस टिप्पणी में यदि सिर्फ़ नफ़रत है, अज्ञानता है, धृणा है, तब वह स्वीकार करने के लायक बात नहीं है। किंतु जब टिप्पणी के पीछे वह ऐतिहासक तथ्य और तर्क आधार के रूप में हैं, तब ग्लान भाव से उसे चर्चा में शामिल किया जाता रहा है।
 
सर्वप्रथम, अगर इतिहास के पन्नों से किसी लिखित तथ्य को ही आधार बनाना है, तो फिर सावरकर के उन विवादों के भी ऐतिहासिक लिखित तथ्य बताए जाते हैं, जिसे आधार बनाकर अनेक पुस्तकों या लेखों में उस विवाद को लिखा गया है। और उन्हीं तथ्यों को आधार बताकर दशकों से सावरकर की कड़ी आलोचना की जाती है।
 
स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मान - यह यक़ीनन किया जाना चाहिए। किंतु सिलेक्टीव रूप से क़तई नहीं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अनेक तथ्यों और सबूतों को दर्शाकर दिखाता है कि उन दिनों मतभेद या मनभेद सिर्फ़ गाँधीजी, नेहरू या पटेल के बीच ही नहीं थे, वो चीज़ तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष बाबू, लोकमान्य तिलक, सबके बीच थी।
 
इतिहास और दस्तावेज़ गवाह है कि भगत सिंह को फाँसी दिलवाने में अहम भूमिका उन बयानों ने निभाई थीं, जो उनके ही कुछ साथी क्रांतिकारियों ने अदालत में दिए थे। अर्थ यह कि उस महान स्वतंत्रता संग्राम में मतभेद या असहमतियों का माहौल सिर्फ़ अहिंसावादियों के मध्य ही नहीं बल्कि क्रांतिकारियों के बीच आपसी रूप से भी था।

 
ऐसी सामान्य और स्वाभाविक चीज़ें कोई मुद्दा नहीं है। किंतु सावरकर के बारे में पुस्तकों और लेखों में लिए गए दावे अनेक दूसरे घटनाक्रम, तथ्यों, आदि के इर्दगिर्द बुनकर लिखे गए थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अहिंसावादी और क्रांतिकारी, दोनों समुदायों के अंदर इस प्रकार के संवेदनशील मुद्दे या विवाद मिल जाएँगे।
इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम की जो बिलकुल निराधार, काल्पनिक, झूठी, अतार्किक, बाते हैं वह मसला सावरकर के इतिहास को लेकर नहीं है यह सबको पता है। उनकी दयायाचिका, माफ़ीनामा, ब्रितानी पेंशन या नज़रबंदी भत्ता, जेल से रिहाई के बाद का जीवन, सांप्रदायिक शैली, द्विराष्ट्र का सिद्धांत, सुभाष बाबू की योजना और आज़ाद हिंद फ़ौज के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ी सेना में हिंदुओं की भर्ती का विवाद, गाँधीजी की हत्या, आदि मामलों पर पुस्तकें और लेख लिखे गए हैं।
 
ठीक है कि घर की ईँटें ढहाने से घर ही ढह जाता है। किंतु एक स्वस्थ लोकतंत्र में स्वस्थ तरीक़े से आधारभूत आलोचना सदैव ज़रूरी है। किन्हीं मामलों में महात्मा गाँधी की आलोचना करना, सरदार पटेल- नेहरू- सुभाष बाबू- तिलकजी- सावरकर, आदि पर स्वस्थ, तार्किक और तथ्यात्मक चर्चा करना बुरा तो नहीं है। बुरा यह है कि उन पर अनाप-शनाप, निराधार, झूठी, काल्पनिक, आपत्तिजनक, अपमानजक, टिप्पणियाँ करना।
 
देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के ऊपर कट्टरवादी संगठनों, आरएसएस से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े दल, बीजेपी-आरएसएस के छोटे-मोटे नेता, कार्यकर्ता सबने अब तक जितनी आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की हैं, उसकी गिनती करना लगभग नामुमकिन है। क्योंकि यह अरसे से लगातार होता रहा है।

 
अति आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, अति अपमानजक, अति भ्रमित, अति काल्पनिक, इतिहास और तथ्यों की हत्या करने वाली बातें... महात्मा गाँधी इस प्रवृत्ति के सबसे ज़्यादा शिकार होने वाले स्वतंत्रता सेनानी हैं। लेकिन कभी भी अदालत ने इन टिप्पणियों पर स्वत: संज्ञान लिया हो, ऐसी घटना लगभग कहीं नज़र नहीं आती।
 
कट्टरवादी संगठनों ने, समुहों ने, उनके प्रतिनिधियों ने, गोडसेवादियों ने, अनेक राजनेताओं ने, महात्मा गाँधी को अनेक बार प्रताड़ित किया है। काल्पनिक, झूठी, कमजोर, अतार्किक, आपत्तिजनक टिप्पणियों और भाषा के सहारे प्रताड़ित किया है। ऐसा करते समय उनके मातृ-पितृ संगठनों की चुप्पी दर्शाती है कि यह नीचे से ऊपर तक योजनाबद्ध तरीक़े से किया जा रहा अपराध है।
तथाकथित धर्म संसदों में धार्मिक प्रतिनिधियों के द्वारा, राजनीतिक दलों के नेताओं या नेत्रियों द्वारा, देश के स्वतंत्रता संग्राम की एक धारा के प्रमुख नायक गाँधीजी के बारे में, यह सब दशकों से किया जा रहा है। अपनी विचारधारा और अपनी मान्यताओं के बीच में खड़े विशाल पर्वत को हटाने के लिए यह अरसे से किया जा रहा है। स्वत: संज्ञान कहा है?
 
यह दशकों से चल रहा है। बेख़ौफ़ और निरंकुश तरीक़े से चल रहा है। ऐसा करने वालों के मन में न भारतीय क़ानून का भय है, न अदालत का। और ना ही इतिहास की हत्या जैसे जघन्य अपराधभाव का। ऐसा करने वाले बेफ़िक्र हैं कि वे कुछ भी कहेंगे या करेंगे, उनका बाल भी बाँका नहीं होगा।
 
चिंतक और बुद्धिजीवी यह भी समझ रहे हैं कि दशकों से चल रही यह प्रवृत्ति केवल गाँधीजी के प्रति किसी ख़ास समुदाय की नफ़रत या धृणा मात्र नहीं है। बल्कि गाँधीजी के बहाने यह उदारवादी लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता, स्वस्थ देशभक्ति जैसे मूल्यों की योजनाबद्ध हत्या का प्रयास है।
 
सावरकर भारतीय इतिहास में एक विवादास्पद लेकिन महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। जहाँ एक वर्ग उन्हें हिंदुत्व के प्रणेता और स्वतंत्रता संग्राम के नायक के रूप में देखता है, वहीं एक वर्ग उनके विचारों को सांप्रदायिक मानता है। इस मामले में अदालती रुख को एक वर्ग स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान की रक्षा के रूप में देख रहा है, जबकि दूसरा वर्ग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश के रूप में।

 
सुप्रीम कोर्ट की इस मामले में टिप्पणी या चेतावनी कई मायनों में अहम है। यह स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान को राष्ट्रीय मूल्य के रूप में रेखांकित करती है। यह राजनीतिक नेताओं को ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के बारे में बोलते समय सावधानी बरतने की चेतावनी देती है।
उधर ऐसे अनेक मामले हैं, जिसमें अदालतें काफ़ी अच्छी टिप्पणियाँ देती तो हैं, लेकिन फ़ैसला या कार्रवाई से चिंतक और बुद्धिजीवी समाज निराश होता है। अदालत द्वारा इस मामले में की गई वह टिप्पणी - 'हम आपको हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में कुछ भी बोलने की अनुमति नहीं देंगे। उन्होंने हमें आज़ादी दी, और हम उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं?' - सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति समानांतर पालन की नागरिकी उम्मीदों से लबालब भी है।
 
सामान्य नागरिक के रूप में एक कामना यह भी है कि अदालत को राज्य या केंद्र स्तर पर शिक्षा नीति की आड़ के तले छात्रों को दी जाने वाली शिक्षा पुस्तकों में स्वतंत्रता नायकों का मनचाहा चित्रण समानांतर रूप से रुकवा देना चाहिए। अपने अपने राजनीतिक और सामाजिक एजेंडे, मान्यताओं और विचारों को, बिना तथ्य-तर्क-साक्ष्य के देश की शिक्षा के रूप में स्थापित करने का यह कृत्य भारत के इतिहास के साथ अपराध सरीखा है।
 
दरअसल, इस प्रकार के विषयों के बारे में, 
  • किसी भी नायक के बारे में किसी भी लोकतांत्रिक और रचनात्मक समाज को 'तमाम तरह की चर्चा' करती रहनी चाहिए।
  • हालाँकि 'तमाम तरह की चर्चा' में किसी भी नायक का तथ्यों और तर्कों के आधार पर समर्थन या विरोध होना चाहिए, साक्ष्यों और ठोस तर्कों के साथ उनकी आलोचना या प्रशंसा करनी चाहिए।
  • ऐसा करते वक़्त उस समाज को 'समय' और 'जगह' को विशेष रूप से देखना चाहिए।
  • नायकों के बारे में काल्पनिक, कमज़ोर, झूठी, कुतर्क, निराधार बातें नहीं करनी चाहिए।
  • अति और अल्प, दोनों नुक़सानदेह होते हैं। इस लिहाज़ से इन चर्चाओं में समाज को ना तो 'अति उदारवादी' रहना चाहिए, ना 'अति संकीर्ण'
  • इतिहास हर रंग और हर रूप का होता है। अपने अपने हिस्से के रंग और रूप को ही देखने की वृत्ति छोड़ इतिहास को हर रंग-रूप में देखने-समझने की अंदरूनी ताक़त लोकतांत्रिक समाज को विकसित करनी चाहिए।
  • किसी समाज या वर्ग के प्रतिनिधियों को, राजनेताओं या राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को, इन नायकों के ऊपर बोलते समय सावधानी बरतनी चाहिए। क्योंकि उनके द्वारा बोला गया हर सच या हर झूठ समस्त समाज, वर्ग, प्रदेश या देश को प्रभावित करता है।
  • और, संवैधानिक - लोकतांत्रिक और क़ानूनी रूप से इस विषय पर ग़लत हो रहा हो तब हर उस चीज़ को समानांतर रूप से निसंदेह रोकना चाहिए।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)