गौरव, अभिमान और सनक के चक्रव्यूह के ज़रिए पहलगाम आतंकी हमला ही नहीं, उड़ी, पुलवामा या पठानकोट
आतंकी हमले से जुड़े सवाल, ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से सरकार बच निकली है। ज़रूरी सवालों को उठाना, चुनी हुई सरकार को
उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही याद दिलाना, इन लोकतांत्रिक परंपराओं को आपराधिक कृत्य के रूप में प्रचारित
करने वाली सरकार अब इस परंपरा को देशद्रोह घोषित करने पर तुली है।
अगर यह सब देशद्रोह है, तब मोदी, शाह समेत तमाम बीजेपी-आरएसएस के लोग, पहले यह क्यों कर चुके हैं? और आज भी जहाँ ग़ैरबीजेपी
सरकारें हैं वहाँ वे ऐसा देशद्रोह क्यों कर रहे हैं? मुंबई हमले पर मनमोहन
सरकार को घेरकर बीजेपी ने देशद्रोह क्यों किया था? दरअसल मोदी सत्ता
देश की जनता को गुमराह कर रही है। राष्ट्रीय सुरक्षा पर वह अपनी जवाबदेही और ज़िम्मेदारी
से भागकर ख़ुद ही देश और उसकी जनता के साथ द्रोह कर रही है।
आज केंद्र की बीजेपी
सरकार और उसके कार्यकर्ता उन लोगों को निशाना बना रहे हैं, जो पहलगाम हमले में
सुरक्षा-व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ राष्ट्रद्रोह
और सामाजिक वैमनस्य फैलाने जैसे गंभीर आरोपों में एफ़आईआर दर्ज़ की जा रही हैं।
पहलगाम आतंकी हमले
में सुरक्षा में चूक को लेकर, ख़ुफ़िया संस्थाओं की नाकामी, गृह मंत्री की ज़िम्मेदारी या केंद्र सरकार की जवाबदेही को लेकर तीख़े सवाल पूछना
देशद्रोह कैसे हो गया? इस मामले में पीएम मोदी की आलोचना करना देशद्रोह कैसे हो गया?
वे ख़ुद को भले ही
नॉन बायोलॉजिकल मानते हो, लेकिन वे है नहीं। भारत के भीतर आतंकी हमला हुआ है, तो जनता मोदीजी की
ही तो आलोचना करेगी, उनसे ही सवाल पूछेगी, युगांडा या ज़िम्बाब्वे की सरकार से थोड़ी न पूछेगी? ऐसा थोड़ी न होगा
कि पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश नेहरूजी से सवाल पूछे? सवाल तो मोदीजी से
ही पूछे जाएँगे न? आलोचना उनकी ही होगी न? ज़िम्मेदार और जवाबदेह वही तो हैं।
क्या
मुंबई हमले पर मनमोहन सरकार को घेरकर बीजेपी ने देशद्रोह किया था?
26 नवंबर 2008 को मुंबई पर हुए आतंकी हमले ने देश को हिलाकर रख दिया। 166 लोग मारे गए और पूरे
देश में हाहाकार मच गया। पाकिस्तान से आए आतंकियों, जिनमें अजमल कसाब शामिल था, ने ताज होटल और ओबेरॉय ट्राइडेंट जैसी जगहों को निशाना बनाया।
सिविलियन इलाक़े में कार्यवाही करने की वजह से सुरक्षा एजेंसियों को आतंकियों का ख़ात्मा
करने में कई दिन लगे।
तब भी तत्कालीन मनमोहन
सरकार से तीख़े सवाल पूछना, उसे ज़िम्मेदारी और जवाबदेही की याद दिलाना, उसकी आलोचना करना, इन कामों को देश में रोका नहीं गया था। और ना ही मनमोहन सरकार ने इसका इस तरह
दमन करने की कोशिश की थी, जैसे आज मोदी सरकार कर रही है।
उस समय भी देश को एकजुटता
की ज़रूरत थी और ऐसे समय में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी 28 नवंबर को मुंबई पहुँचे।
आतंक के ख़िलाफ़ सैन्य ऑपरेशन चल रहा था। और इस बीच नरेंद्र मोदी ने ओबेरॉय ट्राइडेंट
के बाहर प्रेस कॉन्फ्रेंस की और केंद्र की मनमोहन सरकार पर जमकर निशाना साधा।
उन्होंने कहा, "कल राष्ट्र के नाम
प्रधानमंत्री का संदेश निराशाजनक था। पहली बार पाकिस्तान ने समुद्री मार्ग से आतंकवाद
का ऑपरेशन किया। मैंने कहा था कि जब्त बोटों का दुरुपयोग होगा। यह कितना गंभीर मसला
है। प्रधानमंत्री तत्काल सभी मुख्यमंत्रियों की मीटिंग बुलाएँ। नेवी, कोस्ट गार्ड को मज़बूत
करें।"
मुंबई
हमले के दूसरे दिन बीजेपी ने अख़बारों में चुनावी विज्ञापन देकर विवादास्पद ढंग से
वोटों की राजनीति की थी
मुंबई हमले को हुए
महज़ दूसरा दिन था। मुंबई में आतंकियों के विरुद्ध भारतीय सेना और एनएसजी का ऑपरेशन
जारी था। और इस बीच 28 नवंबर को, बीजेपी ने एक और विवादास्पद कदम उठाया।
इस दिन दिल्ली के अख़बारों
में उनके विज्ञापन छपे, जिनमें मनमोहन सरकार को कमज़ोर बताते हुए मुंबई हमले को रोकने में नाकामी का आरोप
लगाया गया। इन विज्ञापनों में बीजेपी को वोट देने की अपील थी, क्योंकि 29 नवंबर को दिल्ली,
9 नवंबर और 4 दिसंबर को राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने थे!
इस दिन अख़बारों
में ख़ून से लाल रंग में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन प्रकाशित किए, जिन पर लिखा था, "क्रूर आतंकवादी अपनी इच्छा से हमला करते हैं। कमज़ोर सरकार।
अनिच्छुक और अक्षम। आतंकवाद से लड़ें। भाजपा को वोट दें।"
हालाँकि दिल्ली की
जनता ने इस प्रवृत्ति को नकार दिया और शीला दीक्षित तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं।
राजस्थान में बीजेपी ही सत्ता में थी, लेकिन वहाँ भी जनता ने उन्हें सत्ता से
बेदखल कर दिया।
बीजेपी और आरएसएस की
घोर चुनावजीवी प्रवृत्ति को इसी बात से समझा जा सकता है। मुंबई आतंकी हमला, मुंबई में भारतीय
सेना और एनएसजी का आतंकियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन जारी था। और इस समय बीजेपी ने चुनावी
विज्ञापन छपवाए थे! जिसमें मुंबई हमले के लिए केंद्र सरकार को जवाबेदह बताया गया
था, साथ ही कमज़ोर या
नकारा भी।
उस समय देश
पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद से लड़ रहा था, मुंबई में आतंकियों के विरुद्ध सैन्य
कार्रवाई चल रही थी, और ऐसे समय में भी तत्कालीन सरकार की तीख़ी
आलोचना या उससे जवाबदेही माँगने के लिए मोदी या उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ कोई एफ़आईआर
दर्ज नहीं की गई, न देशद्रोह के आरोप लगाए गए। जबकि आज सवाल पूछने वालों पर कार्रवाई की जा रही
है!
मुंबई
हमले के बाद देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में खड़े होकर देश से माफ़ी माँगी
थी, मोदीजी
या अमित शाह से ऐसी उम्मीद देश क्यों न करे?
मुंबई हमले के बाद
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 11 दिसंबर 2008 को संसद में खड़े होकर देश से माफ़ी माँगी थी। उन्होंने बाक़ायदा संसद के भीतर, ऑन रिकॉर्ड, सार्वजनिक रूप से, ख़ुद की ज़िम्मेदारी, जवाबदेही और नाकामी
को स्वीकार किया था।
उन्होंने कहा था, "मैं पूरे देश से माफ़ी
माँगता हूँ, क्योंकि हम इस तरह की घटना को रोकने में असफल रहे।"
नरेंद्र मोदी या अमित
शाह 2014 से अब तक किसी भी नाकामी को, अपनी ज़िम्मेदारी को, जवाबदेही को इस तरह कभी स्वीकार करते नहीं दिखे हैं। उलटा नरेंद्र मोदी पर, 'सवालों से भागने वाले
प्रधानमंत्री', 'ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से दूर भागने वाले प्रधानमंत्री', आदि के लेबल चिटके
हुए हैं।
मुंबई
हमले के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और देश के गृह मंत्री से इस्तीफ़े ले लिए गए
थे, पीएम
मोदी से ऐसी उम्मीद देश वैसे भी नहीं करता है
मुंबई हमले के बाद
देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने संसद में खड़े होकर देश से माफ़ी
माँगी थी। इतना ही नहीं, देश के तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री
विलासराव देशमुख से इस्तीफ़े ले लिए गए थे।
मनमोहन सिंह ने संसद
में खड़े होकर देश से माफ़ी माँगी, अपने गृह मंत्री तथा महाराष्ट्र में कांग्रेस शासित सरकार के मुख्यमंत्री से इस्तीफ़े
लिए। जाँच हुई, अजमल कसाब को दुनिया के सामने पेश कर उसके पाकिस्तानी होने का सबूत दिया गया, और मुक़दमे के बाद
उसे फाँसी दी गई। उपरांत पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के निर्यातक के रूप
में बेनकाब करने के मामले में सफल कूटनीतिक कदम उठाए।
पीएम मोदी अपने राजनीतिक
जीवन में इस तरह की ऊंची और ज़िम्मेदारी भरी कार्यशैली दिखाएँगे इसकी उम्मीद देश में
किसी को नहीं है! क्योंकि देश शायद जानता है कि मोदीजी के पास ऐसा कलेजा भी नहीं
है और ना ही वे ऐसी उँची परंपरा के निर्वाहक हैं।
रही जाँच की बात, पठानकोट एयर बेस
पर पाकिस्तान की बदनाम संस्था आईएसआई को जाँच का न्यौता देकर नरेंद्र मोदी पहले ही
अपनी अनुभवहीनता या कंगाल कार्यशैली को उजागर कर ही चुके हैं! रही बात नाकामियों की, 2014 के बाद वे अनेक मोर्चों पर, अनेक मामलों में, अनेक नीतियों में, नाकाम साबित हो चुके हैं, किंतु देश से माफ़ी माँगना, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करना, जवाबदेही तय करते हुए अपने मुख्यमंत्री या गृह मंत्री से इस्तीफ़ा लेना, इसकी उम्मीद देश भी
नहीं करता।
अपनी
सरकार से सवाल पूछने से या उसकी आलोचना करने से यदि पाकिस्तान को मदद मिलती है तो बीजेपी, मोदी और आरएसएस के लोग ऐसी मदद अनेक बार क्यों
कर चुके हैं?
2008 मुंबई हमले के बीच नरेंद्र मोदी ने आतंक के ख़िलाफ़ चल रहे ऑपरेशन के बीच गुजरात
से निकलकर मुंबई पहुँच कर प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी और तत्कालीन सरकार से सीधे सवाल पूछ
उसे कमज़ोर क़रार दिया था। इतना ही नहीं, तब बीजेपी ने दिल्ली चुनाव में आतंकी हमले का सार्वजनिक इस्तेमाल भी किया था
बाक़ायदा विज्ञापन छपवाकर बीजेपी को वोट देने की अपील की थी!
सत्ता और उनके कुछ
लोग कहते हैं कि सरकार की आलोचना से पाकिस्तान को मदद मिलती है। तो क्या मुंबई हमले
के बाद बीजेपी के बयानों और विज्ञापनों से पाकिस्तान को फ़ायदा हुआ था? क्या फ़ायदा हुआ था?
जब दुश्मन हमला कर
देश को धर्म और संप्रदाय के आधार पर बाँटना चाहता है और देश का नेतृत्व दुश्मन की इसी
चाहत को पूरी करना नज़र आता है, तब पाकिस्तान को कोई फ़ायदा नहीं होता?
आतंकवाद से लड़ने के
लिए एकजुटता ज़रूरी है और भारत ने वह एकजुटता सदैव दिखाई है। पहलगाम आतंकी हमले
के बाद भी पूरा देश और देश का विपक्ष सरकार और पीएम मोदी के साथ था। लेकिन पीएम कहाँ
थे? चुनावी रैली में और बॉलीवूड कलाकारों के साथ! ना सर्वदलीय बैठक में पहुँचे! और ना ही विशेष सत्र
बुलाया! जबकि चीन युद्ध के बीच नेहरू ने सत्र बुलाने की
ज़िम्मेदारी का निर्वाहन किया था।
आतकंवादी हमले के बाद
सरकार की आलोचना करना, जवाबदेह और ज़िम्मेदार मंत्रियों या प्रधानमंत्री को कटघरे में खड़ा करना, इससे दुश्मन को नहीं
बल्कि अपने ही देश को मदद मिलती है। दरअसल, एकजुटता, गौरव, अभिमान या स्वाभिमान के नाम पर सवालों और आलोचनाओं का दमन करना देश से द्रोह समान
है।
पहलगाम
आतंकी हमले के बाद पीएम मोदी ने कौन सी ग़ैरज़िम्मेदारियाँ दिखाई?
यूँ तो पहलगाम आतंकी
हमला ही नहीं, इससे पहले हुए उड़ी, पुलवामा या पठानकोट जैसे बड़े आतंकी हमलों के बाद भी पीएम मोदी अपनी इस ग़ैरज़िम्मेदार
शैली का प्रदर्शन किया है। कैसे भुलाया जा सकता है कि पुलवामा हमले के बाद उसी दिन
तुरंत देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी रैली कर रहे थे!
पहलगाम
हमले के बाद मोदी सरकार ने क्या किया?
·
22 अप्रैल 2025 के आतंकी हमले के बाद अपनी विदेश यात्रा बीच में छोड़ भारत
लौटने वाले पीएम ने चुनावी रैली की
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मुंबई
जाकर बॉलीवूड कलाकारों के साथ घंटों तक बतियाते रहे
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सर्वदलीय
बैठक बुलाई गई, लेकिन पीएम मोदी इसमें शामिल नहीं हुए
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29 अप्रैल 2025 तक पीएम ने देश को संबोधित नहीं किया
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सरकार
ने सुरक्षा चूक मानी, लेकिन किसी मंत्री या अधिकारी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया
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विपक्ष
की संसद का विशेष सत्र बुलाने की माँग को अनसुना किया
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पाकिस्तान
का नाम लेकर उसे ज़िम्मेदार ठहराने से सरकार ने परहेज किया
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आतंकी
हमले के बाद बीजेपी के नेता और कार्यकर्ताओं ने सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने की कोशिश
की
22 अप्रैल 2025 को बेसरन में जब आतंकी हमला हुआ तब पीएम मोदी विदेश यात्रा पर थे। हमले की ख़बर
मिलते ही उन्होंने अपना वो दौरा तुरंत रद्द कर दिया और भारत की तरफ़ रवाना हो गए। भारत
पहुँचने के बाद बिहार चले गए! वहाँ 24 अप्रैल को मधुबनी में चुनावी मौड़ में रैली को संबोधित किया! वहाँ जाकर पाकिस्तान को चेतावनी वाला भाषण दिया!
इतने बड़े आतंकी हमले
के बाद वे एक सप्ताह तक देश को संबोधित करने सामने नहीं आए! हालाँकि इस बीच बिहार में चुनावी रैली की और मुंबई में बॉलीवूड कलाकारों के
साथ घंटों बतियाते ज़रूर नज़र आए! जबकि मुंबई हमले के
महज़ दो दिन बाद तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने देश को संबोधित किया था।
पूरा देश एकजुट हो
चुका था और देश के तमाम विपक्षी दलों ने मोदी शासित सरकार के साथ खड़े होने का ऐलान
कर दिया था। लेकिन 29 अप्रैल 2025 तक पीएम ने देश को संबोधित नहीं किया! यहाँ तक कि सर्वदलीय
बैठक बुलाई गई, लेकिन पीएम मोदी इस बैठक में शामिल तक नहीं हुए!
एक तरफ़ देश के तमाम
विपक्षी दल मोदी शासित सरकार को समर्थन दे रहे थे, एकजुटता का प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन सर्वदलीय
बैठक में स्वयं पीएम मोदी नहीं थे! ऐसा नहीं कि वे बहुत
ज़्यादा व्यस्त थे। वे बिहार में रैली कर चुके थे, मुंबई जाकर बॉलीवूड कलाकारों के साथ घंटों तक बतिया चुके थे, अलग अलग राज्यों में
घूम आए थे! लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बैठक में नहीं पहुँचे! जबकि उनको वहाँ हर हाल में होना ही चाहिए था।
इतना ही नहीं, विपक्ष की संसद
का विशेष सत्र बुलाने की माँग को अनसुना किया गया। जीएसटी जैसे टैक्स सुघार की
सामान्य घटना पर आधी रात को संसद का विशेष सत्र बुलाने वाले पीएम मोदी ने इस महत्वपूर्ण
मौक़े पर यह नहीं किया और उन्हें समर्थन दे रहे विपक्ष की माँग को अस्वीकार कर दिया।
चीन के साथ युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद का विशेष
सत्र बुलाया था, मोदीजी यह हिम्मत नहीं दिखा सके।
इतना ही नहीं, आतंकी हमले के बहुत
दिनों के बाद देर से राष्ट्र के नाम संबोधन किया। लेकिन पूरे संबोधन में पीएम मोदी
ने पाकिस्तान को हमले के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। उनके संबोधन में आश्चर्यजनक
रूप से यह नदारद था! उन्होंने अपने भाषण में पहलगाम आतंकी हमले के लिए सीधे
सीधे पाकिस्तान का नाम तक नहीं लिया!
आतंकी हमले के बाद
जहाँ सवाल, जाँच, ज़िम्मेदारी, जवाबदेही, कूटनीति, एकजुटता, सर्वपक्षीय समर्थन की बातें होनी चाहिए थी, बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सांप्रदायिक बातें कर वैमनस्य
फैलाने की कोशिश की। बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे समेत कईयों ने आतंकी हमले को धार्मिक, विभाजनकारी या सांप्रदायिक
कोण देने की कोशिश की। कुछ इलाक़ों में कश्मीरी
छात्रों, दुकानदारों या नागरिकों से मारपीट तक की गई।
शायद दुश्मन यही चाहता
था कि मामला धार्मिक, विभाजनकारी या सांप्रदायिक रूप ले। और निशिकांत दुबे जैसे बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं
ने दुश्मन की यह इच्छा पूरी करने में जैसे कि अपना योगदान दिया!
पूर्व सरकार के दौर
में, या फिर वर्तमान में जहाँ ग़ैर बीजेपी सरकारें हैं वहाँ, स्वयं मोदीजी, उनकी पार्टी बीजेपी
या उनकी मातृ पितृ संस्था आरएसएस, लगभग तमाम सरकारी नीतियों, सरकारी फ़ैसलों, सरकारी शैली की आलोचना कर चुके हैं, निरंतर सवाल पूछने का कर्तव्य निभा चुके हैं। इसका इतिहास जगज़ाहिर है।
आतंकी हमले हो, पाकिस्तान के साथ मसले हो या फिर चीन के साथ विवाद हो, सरहद से संबंधित घटनाक्रम
हो या सरहद के भीतर की चिंताएँ, इन मामलों पर सरकार या प्रधानमंत्री की आलोचना करना, उनसे सवाल पूछना, उसे उसकी ज़िम्मेदारी
और जवाबदेही से अवगत कराना, यह कोई देशद्रोह नहीं है, यह सबको पता है।
यह भी सबको पता है कि प्रधानमंत्री की आलोचना करना देश की आलोचना करना नहीं
होता। बीजेपी या आरएसएस में उनका शीर्ष नेतृत्व उनके लिए पूजनीय होगा, लेकिन देश
के लिए ऐसा नहीं है। सवाल और आलोचना लोकतांत्रिक देश का अभिन्न अंग है, यूँ कहे कि
आत्मा है।
किंतु मेनस्ट्रीम मीडिया को अपनी मुठ्ठी में भींच कर तमाम जायज़ सवालों, चिंताओं, लोकतांत्रिक परंपराओं
को धत्ता दिखाना, रोज़मर्रा की देश से जुड़ी राजनीति और पत्रकारिता, दोनों का गला घोंट
कर, भव्यता-दिव्यता-सुंदरीकरण को दिनचर्या बना देना, इस प्रकार का माहौल
महात्मा गाँधी, सरदार पटेल या शहीद भगत सिंह के सपनों से उलट देश निर्माण की प्रवृत्ति है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)