सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा आपातकाल के बाद से अब तक शायद सबसे निचले स्तर पर है...
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ताक़त का क्रूर प्रदर्शन है... यह प्रतिष्ठित संस्था ख़ुद
को नीचा दिखा रही है... सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन ठीक से काम नहीं कर रहा, यदि ठीक नहीं किया
गया तो लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा... सुप्रीम कोर्ट की स्थिति ज्वालामुखी की तरह है...
भारतीय लोकतंत्र के पतन के लिए अनेक पहलू ज़िम्मेदार हैं, किंतु इसमें निश्चित
रूप से अदालत की केंद्रीय भूमिका रही है... न जाने ऐसे कितने कथन हैं जो देश के बुद्धिजीवी
समाज ने संविधान और लोकतंत्र की अभिरक्षक ऐसी न्यायापालिका को लेकर पिछले कुछ सालों
में कहे हैं।
पिछले कुछ समय के दौरान बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे न्यायपालिका की साख पर सवाल
उठाए जा चुके हैं। उपरांत बहुमत प्राप्त सरकारें सदैव न्यायपालिका के ऊपर हावी होना
चाहती हैं। इसका इतिहास सार्वजनिक है। इसी ख़राब परंपरा पर चलते हुए आज देश के उप राष्ट्रपति, राज्यपाल, केंद्रीय मंत्री, सांसद, सरीखे लोग न्यायपालिका
और न्यायाधीशों के ऊपर असामान्य और उग्र आक्रमण करने लगे हैं। हालाँकि इस असामान्य
घटनाक्रम के दौरान नज़र सिर्फ़ न्यायपालिका के ऊपर है।
जैसा कि तमाम सर्वेक्षणों
के ज़रिए सबको पता है कि भारत में आम नागरिक जिन इक्का दुक्का संस्थानों पर सबसे ज़्यादा
भरोसा करते हैं उसमें देश की सर्वोच्च अदालत भी शामिल है। नेताओं से उम्मीदें होती
तो अलग अलग सर्वेक्षण बताते कि नागरिक नेताओं पर भी भरोसा करते हैं। लेकिन सबको पता
है कि नागरिकों को सरकारों, पुलिस, जाँच संस्थान, चुनाव आयोग, किसी पर वैसा भरोसा नहीं है, जैसा सेना और सुप्रीम कोर्ट पर है।
ताज़ा घटनाक्रम को
देखे तो, देश के उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़, बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे, राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा, क़ानून मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री, आदि ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में, देश की न्यायपालिका को लेकर, सर्वोच्च अदालत के फ़ैसलों के बारे में, और अंत में सीमा पार करते हुए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया संजीव खन्ना का नाम लेकर
उन्हें जिस तरह गृह युद्ध का अपराधी कहा है, यह असामान्य है।
दरअसल, कईं विशेषज्ञों का
मानना है कि यह विवाद केवल व्यक्तिगत बयानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बड़े
राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा हो सकता है। अभय दुबे जैसे अनेक विश्लेषक मानते हैं कि जैसा
कि तमाम बहुमत प्राप्त सरकारों ने चाहा, नरेंद्र मोदी सरकार भी शायद चाहती है कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार की जी-हुज़ूरी
करे।
संवैधानिक पदों पर
विराजमान शख़्सियतों द्वारा देश की न्यायपालिका को लेकर जिस तरह का असामान्य, अति उग्र और बेतुकी
आलोचनाओं का दुर्लभ द्दश्य दिखाई दे रहा है, इस द्दश्य के इतर अज्ञानी दलीलों के साथ देश के उप राष्ट्रपति ने एक ताज़ा घटनाक्रम
को भी याद किया है।
उप राष्ट्रपति धनखड़
ने कहा, "हाईकोर्ट के जज के दिल्ली घर से जले नोट मिलने के बाद भी एफ़आईआर नहीं होती। ये
घटना किसी आम आदमी के घर में होती तो बिजली की गति से कार्रवाई होती। लेकिन यहाँ बैलगाड़ी
की रफ़्तार से भी कार्रवाई नहीं हो रही है।"
उन्होंने कहा, ''विधानसभा का चुनाव
हो या लोकसभा का, हर सांसद, विधायक और उम्मीदवार को अपनी संपत्ति घोषित करनी होती है, लेकिन वे (जज) ऐसा
कुछ नहीं करते। कुछ लोग करते हैं और कुछ नहीं।"
दरअसल पिछले कुछ सालों
से न्यायपालिका को लेकर बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिससे न्यायपालिका की साख दाँव पर लगी। अंदर ही अंदर बहुत कुछ चल रहा होगा, किंतु यह सार्वजनिक
तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज ने अचानक उस ऐतिहासिक प्रेस वार्ता को आयोजित
किया।
12 जनवरी 2018, स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक दिन यह भी रहा, जब सरकार, मीडिया से लेकर देश का नागरिक तक सकते में आ गया था। इस दिन सुप्रीम कोर्ट
के 4 प्रमुख और वरिष्ठ जजों ने एक प्रेस वार्ता आयोजित कर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन
चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा पर मनमानी करने का आरोप लगाया!
यह ऐसी घटना थी जिसकी
किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज, जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रंजन गोगोई
और जस्टिस मदन बी लोकुर ने लुटियंस इलाके में स्थित 4-तुगलक रोड बंगले पर
एक अनिर्धारित संवाददाता सम्मेलन किया। यह एक अप्रत्याशित घटना थी, क्योंकि अब तक सुप्रीम
कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश ने मीडिया को सार्वजनिक रूप से संबोधित नहीं किया था।
सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज देश के इतिहास में पहली बार
मीडिया के सामने आए और कहा, "सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन ठीक तरह से काम नहीं कर रहा है, यदि संस्था को ठीक नहीं किया गया तो लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा।"
·
"चीफ़ जस्टिस उस परंपरा से बाहर जा रहे हैं जिसके तहत महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय
सामूहिक तौर पर लिए जाते रहे हैं",
·
"चीफ़ जस्टिस केसों के बँटवारे में नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं",
·
"सुप्रीम कोर्ट की अखंडता को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मामलों को चीफ़ जस्टिस
बिना किसी वाजिब कारण के उन बेंचों को सौंप देते हैं जो उनकी पसंद की हैं",
·
"संस्थान की छवि बिगड़ी है, हमने सीजेआई को चिट्ठी लिखी थी लेकिन उसका कोई जवाब नहीं मिला",
·
"सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था सही नहीं चल रही",
·
"यहाँ बहुत कुछ ऐसा हो रहा है"
... यह उस ऐतिहासिक
प्रेस वार्ता के कुछ अंश थे।
मज़े की बात यह कि
इन चारों जजों ने सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था और चीफ़ जस्टिस पर सवाल उठाए थे, आरोप लगाए थे, तत्कालीन सरकार या
मंत्री पर कुछ भी नहीं कहा था। लेकिन सरकार और सरकार के प्रवक्ताओं ने मीडिया में
आकर चीफ़ जस्टिस का बचाव किया और उन चारों जजों की अति आक्रमक भाषा में आलोचना की! जबकि इस मामले में चारों जजों ने सरकार को लेकर कुछ भी नहीं कहा था। यह द्दश्य कथा के 'भीतरी पटद्दश्य' को सामने ला रहा था।
इस ऐतिहासिक घटना के
बाद कौन से अंश अवशेष बने और कौन से शेष रह गए यह कोई नहीं जानता! इस घटना के बाद संस्था के भीतर क्या सकारात्मक हुआ, कोई नहीं जानता। यहाँ
भी पुल गिरा, लेकिन गिरा क्यों, इसका जवाब नहीं मिला।
दीपक मिश्रा तय समय
पर सेवानिवृत्त हो गए। उनकी जगह प्रेस वार्ता में शामिल जस्टिस रंजन गोगोई वरिष्ठता
के चलते देश के सीजेआई बने। कुछ महीनों के बाद सुप्रीम कोर्ट की एक महिला कर्मचारी
ने उन पर यौन उत्पीड़न करने की कोशिश का आरोप लगाया। महिला कर्मचारी को नौकरी से
निकाल दिया गया और मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ उनके पति और रिश्तेदारों को भी अपनी
नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
जब शिकायकर्ता महिला
अपनी शिकायतों को लेकर सार्वजनिक तौर पर आईं और सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजों को ख़त
लिखकर यौन उत्पीड़न के बारे में विस्तार से बताया तब गोगोई ने आनन-फानन में छुट्टी
के दिन इस मामले की सुनवाई रखी और सभी परंपराओं को ताक पर रखकर ख़ुद इस मामले की सुनवाई
शुरू की! जब उनके इस क़दम की
चारों तरफ़ आलोचना होने लगी तो उन्होंने मामले की सुनवाई के लिए जस्टिस एसए बोबडे के
नेतृत्व में एक पैनल का गठन किया।
जस्टिस बोबडे ने रंजन
गोगोई को इस मामले में क्लीन चिट दे दिया और सुनवाई को सार्वजनिक तौर पर करने से यह
कहते हुए मना कर दिया कि इसकी ज़रूरत नहीं है। जिस तरह से इस मामले को निपटाया गया
उसे लेकर ख़ूब आलोचना हुई। जो आंतरिक जाँच कमेटी आरोपों की जाँच के लिए बनाई गई
थी, उसकी रिपोर्ट की कॉपी
शिकायकर्ता को कभी नहीं दी गई! इस पूरी प्रक्रिया
में पारदर्शिता और न्याय का बुनियादी सिद्धांत नहीं अपनाया गया!
कुछ दिनों तक मामला
चर्चा में रहा और फिर यह विषय भी जैसे तैसे पूरा होता नज़र आया। शिकायतकर्ता को फिर
से सुप्रीम कोर्ट की नौकरी पर वापस बुला लिया गया और उनके पति और रिश्तेदार की भी नौकरी
वापस की गई। जस्टिस रंजन गोगोई भी सेवानिवृत्त हुए और सेवानिवृत्ति के महज़ चार
महीने बाद सरकार ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बना दिया!
रंजन गोगोई ने अयोध्या भूमि विवाद, रफ़ाल विमान सौदा और एनआरसी जैसे बेहद महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करने वाली
पीठ की अध्यक्षता की थी, जिसके न्यायिक फ़ैसलों ने बौद्धिक समाज को अचंभित और निराश किया।
ऐसा नहीं है कि
रंजन गोगोई ही पहले प्रसिद्ध न्यायमूर्ति थे जिन्हें सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद
सरकार ने कोई पद बाँटा हो। अगस्त 2014 में पी सदाशिवम को चीफ़ जस्टिस के पद से रिटायर होने के बाद केरल का राज्यपाल
नियुक्त किया गया था। उन्होंने
तुलसीराम प्रजापति मामले में अमित शाह को क्लीन चिट दिया था।
रफ़ाल विमान सौदे का मामला और अदालती कार्रवाई तथा फ़ैसला भी ख़ूब चर्चा में
रहा। इस मामले में कोर्ट ने ज़्यादा क़ीमत पर रफ़ाल सौदे के आरोप
की जाँच को ज़रूरी नहीं बताया था! इससे कई सवाल जिनके
जवाब मिलने थे, वो नहीं मिले। सरकार के लिए यह बड़ी राहत की बात थी क्योंकि वो इस सौदे को लेकर
कोई पारदर्शी रुख़ नहीं अपनाना चाहती थी।
जहाँ 100 से ज़्यादा लड़ाकू विमान ख़रीदने थे उस सौदे में अचानक बदलाव हुआ। 35 से 36 विमान ख़रीदी पर
बात रुक गई। किंतु सबसे ज़्यादा विवादास्पद था प्रति विमान क़ीमत में 4 से 5 गुना बढ़ोतरी! एचएएल, जिसके पास दशकों का अनुभव था उसे सौदे से बाहर निकाल कर अचानक ही दिवालिया
बन चुके अनिल अंबानी की नयी नवेली कंपनी रिलायंस डिफ़ेंस को काम देने का सरकारी
निर्णय रहस्य बना रहा!
याचिकाकर्ताओं ने इस
मामले में बड़े स्तर पर साज़िश रचकर राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का आरोप
लगाया था। आरोप लगाया गया था कि रफ़ाल बनाने वाली कंपनी दासौ पर अनिल अंबानी की कंपनी
का पक्ष लेने के लिए दबाव बनाया गया था।
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में देश की जानी-मानी वक़ील इंदिरा जयसिंह ने स्पष्ट रूप से कहा था, "सुप्रीम कोर्ट की स्थिति ज्वालामुखी की तरह है।" रूल ऑफ़
लॉ- जस्टिस इन दि डॉक शीर्षक से आयोजित इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई
के एक सवाल के जवाब में इंदिराजी ने जवाब दिया था, "हां,
बेंच फिक्सिंग हक़ीक़त है और इसके ज़रिए कोर्ट के फ़ैसलों को प्रभावित करने की कोशिश
की जाती है।"
न्यायपालिका के राजनीतिकरण
पर पूछे गए सवाल के जवाब में इंदिरा जयसिंह ने कहा था, "जजों की नियुक्त करते
समय ही राजनीति की जाती है और ऐसे लोगों को जज बनाया जा सकता है जिनके तहत मामलों में
फ़ैसलों को अपने पक्ष में प्रभावित किया जा सके।"
जिन चार जजों ने वो
प्रेस वार्ता आयोजित की थी उनमें से एक रंजन गोगोई भी थे, जब तत्कालीन चीफ़
जस्टिस पर ख़ास मामलों में पसंदीदा बैंच का एक आरोप भी लगा था। यही रंजन गोगोई ख़ुद
सीजेआई बने तो शायद उन्होंने इस स्थिति को नहीं बदला होगा। तभी तो साल 2019 में सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने तत्कालीन चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई को चिट्ठी लिखकर पूछा था कि अडाणी
समूह से जुड़े मामले जस्टिस अरूण मिश्रा की अदालत में क्यों लिस्ट किए जा रहे हैं?
न्यायपालिका के ऊपर
राजनीतिक हमले तथा न्यायपालिका के ऊपर नियंत्रण की कथित कोशिश के आरोपों के बीच यह
भूला नहीं जा सकता कि इधर पिछले कुछ समय में अदालतों में ऊँची कुर्सी पर बैठे माननीय
न्यायाधीशों ने जैसे फ़ैसले सुनाए हैं, जैसी टिप्पणियाँ की हैं, वे हैरान करने वाली हैं।
कन्हैया कुमार पर राजद्रोह के मुक़दमे की सुनवाई करने वाली जज ने अपने फ़ैसले की शुरुआत हिंदी फ़िल्मी गाने 'मेरे देश की धरती सोना
उगले, उगले हीरे मोती' से की थी! जज साहिबा ने कन्हैया कुमार को अंतरिम
ज़मानत देते हुए मनोज कुमार से देशभक्ति की प्रेरणा लेने की नसीहत भी दी थी!
राजस्थान हाइकोर्ट
के रिटायर्ड जज साहब ने एक मिथक को सच बताते हुए कहा था, "मोर के आँसू से चुग
कर मोरनी गर्भवती होती है।" जज साहब ने मोर को
राष्ट्रीय पक्षी बनाने के पीछे इस वजह को ज़िम्मेदार बताया था! इन्होंने तो यह भी कहा था कि, "मेरे लिए पुराण विज्ञान से ऊपर हैं।" इन्होंने गाय को राष्ट्रीय पशु बनाए जाने का सुझाव दिया था और इसके लिए तमाम धार्मिक
ग्रंथों और वेदों का हवाला दिया था!
एक मुख्य न्यायाधीश ने दमनकारी क़ानून के तहत जेल में बंद माँ से मिलने के लिए तड़प रही एक बेटी से कहा
कि वह ठंड से बचे! एक दूसरे न्यायाधीश ने यकायक हुए लॉकडाउन
की वजह से बेरोज़गार हुए प्रवासी मज़दूरों से कहा कि उन्हें वेतन की माँग नहीं करनी
चाहिए क्योंकि उन्हें थोड़ा बहुत खाना तो मिल ही रहा है!
कोविड काल में लॉकडाउन के दौरान हज़ारों-लाखों प्रवासी
मज़दूर बिना रोज़गार के भूखे पेट अपने घर की तरफ़ निकल राष्ट्रीय राजमार्गों पर पैदल
चल कर जाने को मजबूर हुए थे। तब इनके लिए इंतज़ाम का आदेश देने के लिए एक याचिका डाली
गई थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "हम उन्हें पैदल चलने से कैसे रोक सकते हैं? कोर्ट के लिए यह मॉनिटर
करना असंभव है कि कौन पैदल चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है।"
मगर, मद्रास हाईकोर्ट को
दया आ गयी। उसने कहा कि सभी राज्यों को इस दौरान प्रवासी मज़दूरों को मानवीय सुविधा
देनी चाहिए थी। केंद्र और तमिलनाडु सरकार को नोटिस जारी करते हुए मद्रास हाईकोर्ट
ने कहा था कि प्रवासी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को देखकर किसी के लिए भी आँसुओं पर
काबू पाना मुश्किल है, यह मानव त्रासदी से कम नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय
और प्रांतीय न्यायालयों का एक ही समस्या को देखने का अलग-अलग तरीक़ा बहुत कुछ उजागर
करता दिखा।
2020 में नागरिकता क़ानून पर जारी विरोध के बीच देश के मुख्य न्यायाधीश को यह कहते
हुए रिपोर्ट किया गया कि, "अगर प्रदर्शनकारियों को सड़क पर ही विरोध करना है तो अदालत में आने की ज़रूरत नहीं
है।" सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, "नागरिकता संशोधन क़ानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर हम तब तक सुनवाई
नहीं करेंगे, जब तक इस क़ानून को लेकर हो रहीं हिंसा की घटनाएँ बंद ना हो जाएँ।"
हिंसा हो रही है या होने की संभावना है इसलिए अदालत न्याय नहीं करेगी! यह ग़ज़ब तर्क था! तब तो अदालत को यह
कहते हुए देखने की भी चाहत है कि दागी भरे पड़े हैं इसलिए शपथ ग्रहण नहीं हो सकता।
सबरीमाला का मुद्दा - वे हिंसा कर सकते हैं इसलिए हम उनके ख़िलाफ़
आदेश नहीं देंगे। जामिया का मुद्दा - वे हिंसा कर रहे हैं इसलिए हम उनका पक्ष नहीं
सुनेंगे। नागरिकता क़ानून मसला - पहले हिंसा रुकवाइए तभी हम आपको सुनेंगे। आश्चर्य
की बात यह थी कि अदालत यह बात तब कह रही थी जबकि अभी यह तय भी नहीं हुआ था कि हिंसा
किसने की थी!
जुलाई 2020 के दौरान अररिया सामूहिक दुष्कर्म मामले में ज़िला अदालत ने पीड़िता और उसके दो सहायकों को कोर्ट के अवमानना
का आरोप लगा कर जेल भेज दिया था। जिसके साथ दुष्कर्म हुआ उसीको अदालत ने जेल भेज
दिया था! वो भी कोर्ट की अवमानना
के आरोप में!
दरअसल, पीड़िता का बयान
जब कमरे के अंदर सुनाया जा रहा था तब जज ने अपने मुँह पर रूमाल बाँधा हुआ था और वे
जो बोल रहे थे वह पीड़िता को समझ नहीं आ रहा था। पीड़िता ने उनसे निवेदन किया और उन्हें
अवगत कराया कि उनके मुँह पर रूमाल बँधा है इसलिए वे जो बोल रहे हैं वह पूरी तरह समझ
नहीं आ रहा। पीड़िता की इतनी सी बात जज ने नहीं सुनी और बिना रूमाल हटाए पीड़िता
का बयान पढ़ा और बाद में बयान के नीचे दस्तख़त करने के लिए कहा। पीड़िता ने फिर कहा
कि आपने जो बोला वो मुझे समझ नहीं आया, इसलिए दस्तख़त कैसे करें?
दुष्कर्म की पीड़िता अपनी वाजिब दिक्कत बताती रहीं, लेकिन जज अड़ गए! जज ने बोल दिया, "क्यों तुमको हम पर भरोसा नहीं है?
बदतमीज़ लड़की तुमको कोई तमीज़ नही सिखाया है?" जज साहब यहीं नहीं
रूके, उन्होंने पीड़िता और उसके दो सहायकों को कोर्ट की अवमानना के आरोप में और सरकारी
कामकाज में बाधा डालने के आरोप में जेल भेज दिया!
सुप्रीम कोर्ट की ये राय है कि, "रेप सर्वाइवर के साथ सहानुभूति और हमदर्दी भरा बर्ताव किया जाना चाहिए क्योंकि
वो मानसिक सदमे की स्थिति से गुज़र रही होती है। उसे फौरन काउंसिलिंग, क़ानूनी मदद, मेडिकल, सामाजिक और कुछ मामलों
में आर्थिक मदद की ज़रूरत होती है।" पीड़िता की मानसिक स्थिति, अदालती और पुलिस कार्रवाई का दबाव, उसके साथ हुआ जधन्य अपराध, ज़िला अदालत ने मानवीय संवेदना भी नहीं दिखाई, ना ही सामान्य समझदारी का परिचय दिया!
न्यायपालिका की चौखट
पर आकार लेने वाले न्यायिक संवेदनहीनता के इस मामले ने तूल पकड़ा और इसकी गूँज राष्ट्रीय
स्तर तक जा पहुँची। इस मामले में इंदिरा जय सिंह, प्रशांत भूषण, वृंदा ग्रोवर, रेबेका जॉन, मुकुल तलवार समेत
देश भर के 376 जाने-माने वक़ीलों ने पटना हाईकोर्ट को चिठ्ठी लिख अनुरोध किया कि पीड़िता और
उसके दो सहयोगियों को तत्काल रिहा किया जाए।
इसी साल एक और जज साहब ने एक चूटकी सिंदूर की क़ीमत समझा दी थी! गुवाहाटी हाईकोर्ट ने जुलाई 2020 में तलाक़ के एक मामले कि सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर कोई
औरत मांग में सिंदूर न लगाए और सुहाग की निशानी 'शाका-पोला' (चूड़ियाँ) पहनने से इनकार करे तो इसका मतलब है कि वो अपनी शादी की इज़्ज़त नहीं
करती और उस शादी में रहना नहीं चाहती, ऐसी औरत से पति तलाक़ लेना चाहे तो कोर्ट इस तलाक़ को मंज़ूर करती है। क़ानून
व संविधान नहीं बल्कि पितृसत्ता और व्यक्तिगत मान्यता टिप्पणी में छलक रही थी!
आज कल देश के उप राष्ट्रपति, मंत्री या सांसद सरीखे संवैधानिक लोग जिस प्रकार से सुप्रीम
कोर्ट, न्यायपालिका और सीजेआई का नाम लेकर बोल रहे हैं। ग़ज़ब बात
यह कि इसमें न्यायपालिका को अपनी अवमानना नहीं लगती, ना वे किसी और मामले की तरह ज़िद पर अड़ती है कि आपने हमारा
अपमान किया इसलिए अभी हम यह करेंगे या यह नहीं करेंगे। न्यायपालिका कह देती है कि ऐसा
तो चलता रहता है, हमारा ध्यान इस पर नहीं है!
आम जनमानस में न्यायपालिका
के इस तरह का रवैये से कोई हकारात्मक संदेश तो बिलकुल नहीं जाएगा। यही अदालत देश
को सख़्त फ़ैसले प्रदान कर स्थापित करती है कि आलोचना करना अपराध नहीं है। और यही अदालत
अपनी सफ़रगाथा के विवादास्पद रवैये को सुनना नापसंद करती है!
साल 2020 में जाने माने
वक़ील प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया था, "जब भविष्य के इतिहासकार पिछले 6 वर्षों को देखेंगे कि औपचारिक आपातकाल के बिना भी भारत में लोकतंत्र कैसे नष्ट
कर दिया गया है तो वे विशेष रूप से इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को चिह्नित
करेंगे, और विशेष रूप से अंतिम 4 प्रधान न्यायाधीशों की भूमिका।"
उनका दूसरा ट्वीट सीजेआई
को लेकर था जिसमें एक तसवीर में वह नागपुर में एक हार्ले डेविडसन सुपरबाइक पर बैठे
हुए दिखे थे। यह ट्वीट 29 जून 2020 को पोस्ट किया गया था। इस ट्वीट में भूषण ने कहा था, "ऐसे समय में जब नागरिकों
को न्याय तक पहुँचने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करते हुए वह सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन
मोड में रखते हैं, चीफ़ जस्टिस ने हेलमेट या फ़ेस मास्क नहीं पहना।"
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान ले लिया और प्रशांत भूषण पर अवमानना
की कार्रवाई शुरू कर दी! ट्वीटर इंडिया से
अदालत ने पूछ लिया कि अवमानना की कार्रवाई शुरू होते देखने के बाद भी भूषण के ट्वीट
आपने क्यों नहीं हटाए। प्रशांत भूषण ने नोटिस का विस्तार से तर्कसंगत जवाब दिया। जवाब
अस्वीकार किया गया। कार्रवाई शुरू हुई। प्रशांत भूषण ने कह दिया कि माफ़ी नहीं माँगूगा, जो कहा वह क्यों कहा
है इसका जवाब दिया है, आप सज़ा दे दीजिए।
यह कोविड-19 लॉकडाउन का समय था।
अदालत ने स्वत: संज्ञान लेने के बाद इतनी ज़ल्दबाजी दिखाई कि मामले की सुनवाई वर्चुअली
शुरू कर दी! बता दें कि इस मामले
की सुनवाई तीन सदस्यीय खंडपीठ कर रही थी, जिसमें जस्टिस अरूण कुमार मिश्रा (अध्यक्ष), जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी शामिल थे।
अगस्त 2020 में अदालत ने प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी क़रार दिया। अदालत के इस फ़ैसले पर अनेक वरिष्ठ वक़ीलों तक ने सवाल उठाए। बार एसोसिएशन
ऑफ़ इंडिया ने कहा कि इससे आख़िर में सुप्रीम कोर्ट की ही प्रतिष्ठा को नुक़सान होगा।
कई बुद्धिजीवियों ने कहा कि प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराकर शीर्ष अदालत ने
अपनी गरिमा को गिराया है।
"सत्य सूली पर चढ़ेगा, यह सुकरात काल है!"... "सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला
ताक़त का क्रूर प्रदर्शन है"... "यह भारतीय लोकतंत्र के लिए काला दिन है"...
"यह प्रतिष्ठित संस्था ख़ुद को नीचा दिखा रही है"... "जिन्हें असहमती
और आलोचना के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए वहीं से यह फ़ैसला निराश करता है"...
यह प्रतिक्रियाएँ देश के जानेमाने और प्रसिद्ध वक़ीलों, बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों, संपादकों, स्वतंत्र विश्लेषकों की थी।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ पूर्व जजों तक ने इस फ़ैसले पर अपनी असहमती सामने रखी। मामले की सुनवाई में ज़ल्दबाजी और वर्चुअली सुनवाई को लेकर पूर्व जजों ने आलोचना
की। क़ानून और संविधान के अनेक विशेषज्ञों ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के व्यवहार
को बहुत निराशाजनक, चौंकाने वाला और चिंताजनक बताया। प्रशांत भूषण अवमानना मामले को लेकर कुछेक विश्लेषकों
ने कहा कि यह क़रीब 100 साल पहले हुई गाँधी ट्रायल की याद दिलाता है।
सुप्रीम कोर्ट के 450 वक़ीलों ने मामले पर अपना विरोध जताते हुए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के प्रेसिडेंट
से मुख़ातिब होकर स्टेटमेंट जारी किया। बार एंड बेंच डॉट
कॉम के अनुसार, वक़ीलों ने कोर्ट के व्यवहार के बारे में स्टेटमेंट में लिखा, "यदि देश का सर्वोच्च
न्यायालय, जो हमारे संवैधानिक मूल्यों की प्राणवायु है, उस मामले में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं करता है, जहाँ वह ख़ुद भी एक
पक्ष है, और निष्पक्षता या आत्मविश्वास को बनाए रखने में विफल रहता है तो इससे क़ानून के
शासन पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव अपरिवर्तनीय होंगे..."
इसी महीने मशहूर इतिहासकार
रामचंद्र गुहा ने न्यायपालिका की मौजूदा स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट के जजों के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी, जिसे 'इंडियन एक्सप्रेस' ने प्रकाशित किया। बता दें कि गुहा ने इस चिठ्ठी में लोकतंत्र और न्यायपालिका की
ख़राब स्थिति के लिए कांग्रेस, बीजेपी, राजनेता, नौकरशाही, न्यायपालिका आदि को अपने अपने हिस्से के ज़िम्मेदार बताया था।
रामचंद्र गुहा ने एक इतिहासकार और एक सामान्य नागरिक की हैसियत से लिखी उस चिठ्ठी
में स्पष्ट कहा कि मैं सुप्रीम कोर्ट के कामकाज के प्रति लोगों के घटते विश्वास से
चिंतित हूँ। वे कह गए कि भारतीय लोकतंत्र के पतन के लिए अनेक पहलू ज़िम्मेदार हैं, किंतु इसमें निश्चित
रूप से अदालत की केंद्रीय भूमिका रही है।
गुहा ने लिखा था कि लोकतंत्र के पतन को रोकने के लिए हाल के वर्षों में अदालत ने
कुछ नहीं किया है। उन्होंने यूएपीए जैसे क़ानून, इस दौरान अदालत का
व्यवहार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बड़े मामलों की सुनवाई में देरी करना, कश्मीर के बच्चों
और छात्रों का मानवाधिकारों से वंचित रहना, लंबे समय तक इंटरनेट बंद रहना, जैसे मसलों का ज़िक्र किया।
कोविड-19 के दौरान सत्ता के
केंद्रीकरण का ट्रेंड, सरकार और उसकी व्यक्ति आधारित प्रवृत्तियाँ, मीडिया की स्वतंत्रता का हनन, जजों द्वारा सेवानिवृत्ति
के तुरंत बाद राज्यपाल पद या राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार करना, समेत अनेक विषयों
का ज़िक्र कर रामचंद्र गुहा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा आपातकाल के बाद
से अब तक शायद सबसे निचले स्तर पर है।
इस तथ्य को तो कई पूर्व न्यायाधीश तक उजागर कर चुके हैं कि सेवानिवृत्ति
से कुछ महीने पहले कईं न्यायाधीशों के फ़ैसले अचानक चौंकाने वाले होते रहे हैं। सेवानिवृत्ति
के समय कुछेक न्यायाधीश किसी बड़े मामले पर फ़ैसला टालते नज़र भी आ जाते हैं!
फ़रवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में तीसरे क्रम पर आने वाले जस्टिस अरूण मिश्रा
ने पीएम मोदी की जमकर तारीफ़ कर विवाद छेड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस इस प्रकार का व्यवहार करे यह अपने आप में विवादित है।
जस्टिस मिश्रा ने न केवल तारीफ़ की, बल्कि जमकर तारीफ़ की! उन्होंने पीएम मोदी को 'बहुमुखी प्रतिभा के धनी', 'अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तारीफ़-ए-क़ाबिल', 'ग्लोबल लेवल की सोच वाले नेता' बताया और मन भर के पीएम की प्रशंसा की!
इससे पहले 2019 में जस्टिस अरूण मिश्रा की अदालत में ही अडाणी समूह से जुड़े मामलों के पहुँचने
को लेकर सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने तत्कालीन चीफ़ जस्टिस को चिठ्ठी लिखी थी। इसी साल जस्टिस मिश्रा ने उस संविधान पीठ की अगुवाई करने से पीछे हटने से मना
कर दिया था जिसमें उनके अपने ही एक फ़ैसले पर पुनर्विचार किया जाना था!
जस्टिस पीएन भगवती ने साल 1980 में जब इंदिरा गांधी को आम चुनावों में उनकी अप्रत्याशित कामयाबी के लिए चिट्ठी
लिखकर बधाई दी तो कई हलक़ों में उनकी आलोचना हुई थी। जस्टिस अरूण मिश्रा द्वारा पीएम मोदी के लिए तारीफ़ो के पूल बाँधे जाने की बार
एसोसिएशन ने भी निंदा की।
साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट
ने 'न्यायिक जीवन में मूल्यों का पुनर्कथन' शीर्षक से एक चार्टर
जारी किया। इस चार्टर में कहा गया है, "सभी जजों को हमेशा इस बात को लेकर सचेत रहना चाहिए कि लोगों की निगाह उन पर रहती
हैं और उनसे ऐसा कोई कार्य या कोई चूक नहीं होनी चाहिए जो उनके पद और उनकी गरिमा को
शोभा नहीं देती हो।"
किसी जज का कहीं कोई
झुकाव हो तब भी यह संवैधानिक ज़िम्मेदारी है ही ऐसी कि इस ज़िम्मेदारी के साथ जुड़े
लोगों को अपने विचार, अपनी पसंद, अपना झुकाव, अपने तक ही सीमित रखना होता है, उसकी सार्वजनिक पैरवी करने से केवल किसी जज पर नहीं बल्कि पूरे सिस्टम को लेकर
ग़लत संदेश चला जाता है।
जिस तरह कहा जाता है कि न्याय सिर्फ़ होना नहीं चाहिए बल्कि
हो रहा है यह दिखना भी चाहिए। बिलकुल इसी तरह न्यायपालिका से जुड़े ज़िम्मेदार पदों
को निष्पक्ष, स्वतंत्र और न्यायिक शिष्टाचारी होना भी चाहिए, और वे ऐसे हैं यह दिखना भी चाहिए।
मार्च 2020 का महीना था। नागरिकता
क़ानून विरोध के दौरान सुप्रीम कोर्ट के किसी रवैये से नाराज़ होकर सामाजिक कार्यकर्ता
हर्ष मंदर ने कह दिया कि हमें सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा नहीं है। बदल में सुप्रीम कोर्ट
तुरंत नाराज़ हो गया और कह दिया कि आपने सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ बयान दिया है, इसलिए हम अभी आपको
नहीं सुनेंगे।
यहाँ पिछले कुछ महीनों में देश के उप राष्ट्रपति, मंत्री, सांसद, मुख्यमंत्री सरीखे
लोग न जाने कितनी बार सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका का अपमान कर चुके हैं, चीफ़ जस्टिस का
नाम लेकर उन्हें गृह युद्ध का अपराधी कह चुके हैं, किंतु सुप्रीम कोर्ट कहता है कि
संस्थान की आलोचना होती रहती है, हम ऐसी चीज़ों पर ध्यान नहीं देते!
पूरा यक़ीन है कि किसी
जज का नाम लेकर कोई आम नागरिक या किसी निष्पक्ष विवेचक ने टिप्पणी की होती तो उसके
ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई शुरू हो चुकी होती। यहाँ देश के प्रमुख न्यायाधीश का नाम
लेकर बाक़ायदा कहा गया कि वे (सीजेआई) गृह युद्ध करा रहे हैं। लेकिन ऐसी गंभीर टिप्पणी
करने के बाद भी ना कोई क़ानूनी कार्रवाई, ना कोई सख़्त क़दम! बहुत देर से अगर कोई सख़्त कार्रवाई होती है तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संदेश
ही होगा।
बात क़रीब डेढ़ दशक पुरानी है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की सुनवाई
करते हुए कुछ जजों की ईमानदारी और नीयत पर बेहद मुखर अंदाज़ में काफ़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ
की थीं। 26 नवंबर 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे बड़े इस हाईकोर्ट से क्षुब्ध होकर कहा था, "शेक्सपियर ने अपने
मशहूर नाटक 'हेमलेट' में कहा है कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है। यही बात इलाहाबाद हाईकोर्ट
के बारे में भी कही जा सकती है। यहाँ के कुछ जज 'अंकल जज सिंड्रोम' से ग्रस्त हैं।"
सुप्रीम कोर्ट के इस
आक्रोश की वजह यह थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाते हुए
बहराइच के वक़्फ़ बोर्ड के ख़िलाफ़ एक सर्कस कंपनी के मालिक के पक्ष में एक अनुचित
आदेश पारित कर दिया था, जबकि यह मामला हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के अंतर्गत आता था। इस मामले के पहले से
भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पास कई गंभीर शिकायतें थीं, जिनको लेकर उसने अपना
आक्रोश ज़ाहिर करने में कोई कोताही नहीं की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ''इस हाईकोर्ट के कई जजों के बेटे और रिश्तेदार वहीं वक़ालत कर रहे हैं और वक़ालत
शुरू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर वे करोड़पति हो गए हैं, उनके आलीशान मकान
बन गए हैं, उनके पास महंगी कारें आ गई हैं और वे अपने परिवार के साथ ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी
जी रहे हैं।"
अपने ऊपर सुप्रीम कोर्ट
की इन सख़्त टिप्पणियों से आहत इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी छवि और गरिमा की दुहाई देते
हुए एक समीक्षा याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से इन टिप्पणियों को हटाने की गुज़ारिश
की थी। सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2010 को न सिर्फ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट की याचिका को निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया था, बल्कि उसने और ज़्यादा
तल्ख़ अंदाज़ में कहा था, ''देश की जनता बुद्धिमान है, वह सब जानती है कि कौन जज भ्रष्ट है और कौन ईमानदार।'' सुप्रीम कोर्ट ने
कहा था, ''इलाहाबाद हाईकोर्ट को उसकी (सुप्रीम कोर्ट की) टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया जताने
के बजाए आत्मचिंतन करना चाहिए।''
हालाँकि न्यायपालिका
में भ्रष्टाचार नया मामला नहीं है। पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में जस्टिस वी. रामास्वामी
से लेकर अभी हाल के वर्षों में सिक्किम हाईकोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस पी.डी. दिनाकरण
और कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस सौमित्र सेन तक के कई उदाहरण हैं, जिनमें निचली अदालतों
से लेकर उच्च अदालतों तक के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।
नवंबर 2010 में
गुजरात हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस एस. जे. मुखोपाध्याय ने तो अपने ही मातहत कुछ जजों
के भ्रष्टाचरण पर बेहद सख़्त टिप्पणी करते हुए कहा था, ''गुजरात
में न्यायपालिका का भविष्य संकट में है, जहाँ पैसे के बल पर कोई भी फ़ैसला ख़रीदा जा सकता है।''
इसी दौरान जबलपुर
(मध्य प्रदेश) हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच के कुछ जजों के बारे में भी कुछ ऐसी ही शिकायतें
ग्वालियर अभिभाषक संघ के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट को भेजी थी। इससे पहले देश के
पूर्व क़ानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दाखिल कर देश के आठ
पूर्व प्रधान न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। सुप्रीम कोर्ट ने उलटे
शांति भूषण पर दबाव डाला था कि वे अपने इस हलफ़नामे को वापस ले लें!
2002 से 2004 के दौरान सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रहे वी. एन. खरे ने अपने एक इंटरव्यू
में कहा था, ''जो लोग यह दावा करते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है, मैं उनसे सहमत नहीं। मेरा मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह नासूर ऐसा है जिसे छिपाने
से काम नहीं चलेगा, इसकी तुरंत सर्जरी करने की आवश्यकता है।''
बहुमत प्राप्त सत्ता हर संस्थानों को मुठ्ठी में भींचना चाहती है। सत्ता का स्वाद निरंतर मिलता रहे इसलिए भी, तथा अन्य अनेक कारणों से भी। न्यायपालिका से तमाम सरकारें असहमत
होती हैं। किंतु सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव संवेदनशील और गंभीर स्थिति की
तरफ़ जाता दिखे तब न्यायपालिका की ज़िम्मेदारी अहम हो जाती है। क्योंकि वे संविधान
के अभिरक्षक हैं।
अतिलोकप्रिय और बहुमत प्राप्त जवाहरलाल नेहरू सरकार के ऊपर भी न्यायपालिका को लेकर
विविध आरोप लगाए जा चुके हैं। स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ा बहुमत प्राप्त करने वाले
राजीव गांधी ने भी न्यायपालिका के ऊपर हावी होना चाहा। अब नरेंद्र मोदी भी यही कोशिश
में हैं ऐसा तमाम विश्लेषणों में लिखा-कहा मिल जाएगा। गठबंधन सरकारें भी इस मामले में दूध की धुली हुई नहीं हैं।
यूँ तो नरेंद्र मोदी
जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी से उनका इस बारे में व्यवहार जगज़ाहिर है। केंद्र
में सत्ता प्राप्त करने के बाद बतौर भारत के प्रधानमंत्री उनका पहला प्रसिद्ध टकराव
पूर्व सीजेआई टी. एस. ठाकुर के साथ हुआ। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि ठाकुर इस दौर
के आख़िरी सीजेआई थे, जिन्होंने हर वक़्त याद दिलाया कि मैं हूँ।
जनवरी 2018 में एक छोटा सा लेकिन
युगान्तकारी मौका आया जब सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने अभूतपूर्व रूप से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायिक प्रशासन और प्रबंधन की
बातें सार्वजनिक कर दीं! ऐसा नहीं है कि
पिछले कुछ सालों में अदालतों ने कुछ न किया हो। अलग अलग अदालतों ने और स्वयं सुप्रीम
कोर्ट ने भी इस अवघि के दौरान अनेक ऐसे फ़ैसले सुनाए, जो नींव का पत्थर
माने गए।
इसी अवधि के दौरान
एक अदालत ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति
शासन लगाने के निर्णय को ग़लत ठहराते हुए कहा था, "राष्ट्रपति द्वारा
लिया गया वो फ़ैसला कोई राजा का फ़ैसला नहीं है, जिसकी समीक्षा नहीं
हो सकती।" हाईकोर्ट ने कहा था, "लोग ग़लत फ़ैसले ले
सकते हैं, चाहे वो राष्ट्रपति हो या कोई जज... भारत में संविधान के ऊपर कोई नहीं है, यहाँ संविधान ही सर्वोच्च
है, राष्ट्रपति राजा नहीं
है कि उसके आदेश को बदला ना जा सकें।"
इसी अवधि के दौरान
अरुणाचल मामले में देश की सर्वोच्च अदालत ने जो फ़ैसला दिया था वो ऐसे मामलों में
अब तक का सबसे सख़्त फ़ैसला माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने "हम घड़ी की सुइयाँ
वापस कर सकते हैं", इन शब्दों के साथ राष्ट्रपति शासन के बाद बनी नयी सरकार को अवैध या असंवैधानिक
सरकार घोषित किया था! इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने नयी सरकार द्वारा 7 महीनों में लिए गए तमाम फ़ैसलों को वापस मूल स्थिति में लाने का और पुरानी सरकार
को बहाल करने का आदेश दिया था!
हाल ही के समय में देश की सर्वोच्च अदालत ने अनुच्छेद-142 का इस्तेमाल करके
वर्षों से लंबित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति की 'अनुमति प्रदान की गई' मानकर पारित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने
कहा था, "यदि कोई संवैधानिक प्राधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन उचित समय के भीतर नहीं करता
है, तो न्यायालय हस्तक्षेप
करने में असमर्थ नहीं रहेंगे।"
ऐसे अनेक मामले पिछले एक दशक में अलग अलग अदालतों की चौखट से
ज़रूर आए, जिसने न्याय और लोकतंत्र की मूल अवधारणा को मिट्टी में मिलने
नहीं दिया। किंतु यहाँ जो असंख्य उदाहरण हैं उससे वह मूल अवधारणा बार बार डिगती भी
रही। जिन मामलों में कार्यपालिका के ख़िलाफ़ स्टैंड लेना पड़ रहा हो वहाँ किसी दूसरे
पर ज़िम्मेदारी डाल देना, मामले
लंबित होना, संज्ञान न लेना, जैसे द्दश्य लोगों ने महसूस किए।
सबरीमाला पर 2018 का सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला प्रगतिशील था, इसमें महिलाओं को
मंदिर के अंदर जाने की इजाज़त दी गई। पर बाद में जब केरल
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को लागू करना चाहा तो बीजेपी की केंद्र सरकार ने
अयप्पा के भक्तों का साथ दिया। वे अमित शाह ही थे, जिन्होंने कहा था
कि हमें सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मंजूर नहीं है। अमित शाह और क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के वक़्त ही
कह गए कि, "अदालतें फ़ैसले ऐसे दे कि जिन पर सरकारें अमल कर सके और लोगों से भी करवा सकें।
कुछ दिनों तक मामले को बड़ी बेंच को सौंपने के बहाने लटकाए रखा गया। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर स्टे तो नहीं दिया, पर यह कहा कि यह अंतिम
फ़ैसला नहीं है और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़ी याचिका पर निर्देश
देने से इनकार कर दिया!
अयोध्या मामले में अदालत सालों तक कहती रही कि यह हमारे लिए ज़मीन के टुकड़े का
मामला है, हम आस्था के द्दष्टिकोण से नहीं लेकिन संविधान के नज़रिए से ही इसे देखते रहेंगे।
अंतिम फ़ैसला देते समय अदालत ने कह दिया कि यह आस्था का प्रश्न भी है! अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँटने का
इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय शांति बनाए रखने को देखते हुए व्यावहारिक नहीं है! जबकि उस फ़ैसले को कईं क़ानूनविदों ने अंतिम फ़ैसले से ज़्यादा व्यावहारिक
माना था।
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या
मामले में शांति की धारणा पर चलते हुए फ़ैसला दिया! एक पक्ष को व्यावहारिक लगा, एक को बिलकुल नहीं लगा। जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय ज़्यादातर व्यावहारिक
मान लिया गया था। इसी फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साल 1949 और 1992 में हिंदु पक्ष के
कृत्य को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया। लेकिन इस ग़ैरक़ानूनी कार्य के लिए ज़िम्मेदार किसी
को क़रार नहीं दिया गया!
कोरोना महामारी की
वजह से प्रवासी मज़दूरों की स्थिति उलट-पलट गई है, उनके पास काम नहीं है, आय का दूसरा कोई साधन नहीं है, बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहुँच नहीं है, घर लौटने का कोई ज़रिया नहीं है, इन स्थितियों की तरफ़ ध्यान दिलाते हुए इन्हें मदद कर देने की याचिकाओं को स्वीकार
करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया और उन याचिकाओं
पर स्थगन लगा दिया!
अदालत ने टिप्पणी कर दी कि, "सरकार उन मजदूरों को दो वक़्त का खाना मुहैया करा रही है तो और क्या करे?" अदालत की एक टिप्पणी
यह भी थी कि, "रेलवे लाइन पर सो रहे मजदूर यदि कुचल कर मारे गए तो इस तरह की घटनाओं को कैसे रोका
जा सकता है?"
इस मामले में सुप्रीम
कोर्ट ने स्वत: संज्ञान बहुत बाद में लिया! कोविड काल के दौरान सत्ता के केंद्रीकरण को रोकने में सुप्रीम कोर्ट की नाकामी
को अनेक पूर्व जजों, वक़ीलों और बुद्धिजीवियों ने रेखांकित किया है।
इसी दौर में सॉलिसिटर
जनरल ने अजीब तर्क दिया था कि प्रवासी मज़दूरों का पलायन फ़ेक न्यूज़ की वजह से हुआ! इससे अजीब यह था कि अदालत ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया और मीडिया से कहा कि वे ज़िम्मेदारी से रिपोर्टिंग करें!
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के
लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के मामले में अदालतों की भूमिका बड़ी लचीली
रही। एक ही प्रकार के मामले में अलग अलग प्रकार की व्याख्या करना, या तो मामले पर बहुत ही अधिक देर से सुनवाई के लिए तैयार होना, समेत अनेक कोण इसमें निराशाजनक रहे।
ऐसे एक-दो से भी अधिक
संवेदनशील मामले आए इस दौरान, क़ानून बने, जिसकी संवैधानिकता को अदालत में चुनौती दी गई। पर लगा कि बहुत सतही कारणों
को आगे करके अदालत इससे जैसे कि बच रही हो।
और इस दौरान सरकारें
(केंद्र और विविध राज्यों की सरकारें) जनता के शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने की निर्मम
कोशिश करती रही, हिंसा संबंधित और दूसरे क़ानूनों को आगे धर कर आंदोलनकारियों की ग़लतियों को बड़ा
रूप देती रही और अहसमति के सुर को कुचलती रही। शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को हिंसक तरीक़ों
से कुचलने की कोशिश की गई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा कि वह विरोध प्रदर्शन
करने वालों से बदला लेंगे और आज़ादी का नारा लगाना राजद्रोह माना जाएगा!
सरकारें अपनी मुख्य मशीनरी, पुलिस तंत्र, का बेजा इस्तेमाल करती रही, सत्ता की ताक़त के दम पर चुन चुन कर लोगों को क़ानूनी कार्रवाईयों में फँसाती
रही, आंदोलनकारियों और विरोध कर रही जनता पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, राजद्रोह और गुन्डा
एक्ट के तहत आरोप लगाए गए! छात्र आंदोलन हो या
कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन, नागरिकता संशोधन क़ानून विरोध हो या कुछ और, थोड़ा सा मौक़ा मिलने पर प्रदर्शनकारियों को औपनेविशक काल के
क़ानूनों का इस्तेमाल कर जेल भेजती रही!
अनेक ऐसे मौक़े आए, अनेक ऐसे उदाहरण हैं, मीडिया हो या नागरिकी
अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो या लोकतंत्र की बुनियाद, सरकारें निर्ममता
से काम इसलिए कर पाईं, क्योंकि अदालतें पूर्ण रूप से तथा सही समय पर सक्रिय होती नहीं दिखी।
भीमा कोरेगाँव जैसे
अनेक दूसरे छोटे-मोटे मामले देखे गए, जिसमें असहमति के अधिकार को हानि और यूएपीए क़ानून का दुरुपयोग की ख़ूब चर्चा
हुई। बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार, आलोचक, विश्लेषक जैसे अनेक लोग पिछले कुछ काल में ख़ूब प्रताडित हुए, जेल में सड़ते रहे।
देखा गया कि ज़मानत का अधिकार या तो नसीब नहीं हुआ, या इतनी मुश्किल से
और इतनी देरी से मिला, कि आख़िर में न्यायिक प्रक्रिया ही कटघरे में खड़ी होती दिखी।
इस बीच नवंबर में एक मामले में ऐसा निर्णय आया, जिसके बाद पूरे सम्मान के साथ अदालत को पूछा गया कि - मी लॉर्ड, 'व्यक्तिगत आज़ादी' सिर्फ़ अर्णब के लिए
क्यों?
आर्किटेक्ट अन्वय नाइक
और उनकी माँ की आत्महत्या के मामले में गिरफ़्तार पत्रकार अर्णब गोस्वामी की रिहाई
पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए 'व्यक्तिगत आज़ादी' की सुरक्षा की बात
कही और आगे कहा कि अगर शीर्ष अदालत आज इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करती है तो यह विनाश
के रास्ते पर ले जाने वाला होगा। अदालत ने यह भी कहा कि सभी हाईकोर्ट के लिए यह संदेश
है कि वे 'व्यक्तिगत आज़ादी' की सुरक्षा को बरक़रार रखने के लिए अपने न्यायिक अधिकारों का प्रयोग करें।
अनेक मामलों में सुनवाई के लिए तैयार नहीं होने वाली अदालत द्वारा
अर्णब गोस्वामी मामले में तुरंत सुनवाई करने का मसला भी विवाद में रहा। धारा 370 जैसे कई अन्य बहुत ज़रूरी मामलों पर सुनवाई में देरी हो रही
थी, किंतु रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी के मामले में
त्वरित सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ज़मानत दे दी!
सुप्रीम कोर्ट बार
एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने कोर्ट के महासचिव को पत्र लिखकर अर्णब गोस्वामी
की रिहाई की याचिका पर तुरंत सुनवाई किए जाने का विरोध किया। दुष्यंत दवे ने पत्र
में लिखा था, "एक ओर जहाँ हज़ारों लोग उनके मामलों की सुनवाई न होने के कारण जेलों में पड़े हैं, वहीं दूसरी ओर एक
प्रभावशाली व्यक्ति की याचिका को एक ही दिन में सुनवाई के लिए लिस्ट कर लिया गया।"
बता दें कि सत्ताधारी
पार्टी बीजेपी ने विवादित पत्रकार अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को राष्ट्रीय मुद्दा
बना दिया था! देश के गृह मंत्री से लेकर पार्टी के
राष्ट्रीय अध्यक्ष तक गोस्वामी के पक्ष में ट्वीट कर चुके थे। जबकि अर्णब की गिरफ़्तारी
दो लोगों की आत्महत्या के मामले में पीड़ित परिवार द्वारा न्याय दिलाने के लिए पुलिस
से की गई अपील के बाद हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट की इस
टिप्पणी के बाद बुद्धिजीवियों ने जेलों में बंद कुछ लोगों का ज़िक्र किया और पूरे
सम्मान के साथ अदालत से पूछा कि क्या इन लोगों की भी कोई 'व्यक्तिगत आज़ादी है या नहीं और अगर है तो उन्हें इससे क्यों वंचित रखा
गया है?
पत्रकार अर्णब गोस्वामी
के मामले में व्यक्तिगत आज़ादी की टिप्पणी करने के बाद बुद्धिजीवियों ने व्यक्तिगत
आज़ादी के असमान पालन पर सवाल उठाए। ऐसे अनेक मामले रहे, जिसमें कईयों को ये
व्यक्तिगत आज़ादी नहीं मिली!
बहुचर्चित मामलों की
बात करें तो, दिल्ली के एक पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन को एक दिन हाथरस की दुष्कर्म पीड़िता
के गाँव जाते समय गिरफ़्तार कर लिया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन पर बेहद ख़तरनाक
क़ानून यूएपीए लगा दिया! कप्पन लंबे समय तक
जेल में रहे। उनकी रिहाई के लिए उनके वक़ीलों ने सुप्रीम कोर्ट का रूख़ किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट
ने उनसे सही अदालत में जाने के लिए कहा।
सामाजिक कार्यकर्ता
सुधा भारद्वाज के ऊपर भी यूएपीए लगा दिया गया और वे 800 से अधिक दिनों तक
जेल में बंद रहीं। 79 साल के वरवर राव पर भी यूएपीए लगा दिया गया और वे भी 800 से भी ज़्यादा दिनों
तक जेल में बंद रहे। राव का परिवार अदालत से कह चुका है कि उनकी स्थिति ऐसी है कि वह
ख़ुद टॉयलेट तक नहीं जा सकते लेकिन बावजूद इसके उन्हें ज़मानत नहीं मिली!
आदिवासियों के अधिकारों
के लिए लड़ने वाले 83 साल के स्टेन स्वामी को भी यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया गया और वह महीनों तक
जेल में रहे। वे गंभीर पार्किंसन रोग से पीड़ित थे और इस वजह से अपने हाथों से उठाकर
कुछ खा-पी नहीं सकते थे। इसलिए उनकी ओर से पानी पीने के लिए स्ट्रा के इस्तेमाल की
इजाज़त अदालत से माँगी गई, लेकिन हाईकोर्ट ने इस पर फ़ैसला करने के लिए 21 दिन का वक़्त लिया! ज़मानत तो नहीं मिली।
आसिफ़ सुल्तान भी 800 से ज़्यादा दिनों
तक जेल में बंद रहे। यूएपीए लगाकर गिरफ़्तार किए गए उमर खालिद 48 दिनों से जेल में
हैं। पत्रकार प्रशांत कनौजिया को 80 दिन तक जेल में रहना पड़ा। इसी तरह से जेएनयू के छात्र शरजील इमाम, जामिया के छात्र मीरान
हैदर, इशरत जहाँ, ख़ालिद सैफ़ी, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल में जैसे छात्रों को भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा।
ऐसे अनेक छात्र, सामाजिक कार्यकार, आलोचक, पत्रकार, लेखक, आदि लंबे समय तक जेल में बंद रहे और व्यक्तिगत आज़ादी सिर्फ़ अर्णब गोस्वामी की
सुरक्षित रही और अर्णब को सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत दे दी!
जस्टिस ए. पी. शाह ने एक व्याख्यान में कहा था, "सुप्रीम कोर्ट ने न्याय
करने के अपने बुनियाद हक़ को त्याग सा दिया है।" जम्मू-कश्मीर में हज़ारो-लाखों लोगों और अनेक बच्चो व छात्रों को इंटरनेट के बहुत
लंबे शट डाउन ने हद से ज़्यादा दिक्कतों में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में
ढिला रवैया कई मंचों से आलोचना का पात्र बन गया। कश्मीर समेत अनेक ऐसे मसले आए, जिसमें कहा गया कि
अदालत अपनी भूमिका को छोड़ रही है।
अपारदर्शी मास्टर ऑफ़
रोस्टर सिस्टम पूरे काल के दौरान सबसे बड़ी वजह और सबसे बड़ा विवादित सवाल बना रहा।
जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ ने 1985 में कहा था, "निष्पक्ष न्यायपालिका को बहुत बड़ा ख़तरा बाहर से नहीं, अंदर से ही है।"
सितंबर 2020 में
जस्टिस ए. पी. शाह ने कहा था, "मुझे लगता है कि हमारे समय की सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली
घटना है - सुप्रीम कोर्ट का पतन।" जस्टिस एपी शाह ने कहा था, "सुप्रीम
कोर्ट ने न्याय करने के अपने बुनियादी हक़ को त्याग सा दिया है।"
जस्टिस एपी शाह ने कहा था, ''सुप्रीम कोर्ट का पतन संयोगवश नहीं हुआ, यह सोच समझ कर तैयार की गई एक बड़ी रणनीति का हिस्सा है। यह इस तरह किया गया कि कार्यपालिका पूरी सत्ता अपने हाथ में ले ले और अपने राजनीतिक
अजेंडे को आगे बढ़ाए।''
संविधान विद्वान गौतम भाटिया ने लिखा, "उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे संस्थान से जिसका मुख्य काम लोगों के बुनियादी
हक़ों की सुरक्षा करना था, उससे गिर कर ऐसा संस्थान बन गया है, जो कार्यकारी की भाषा बोलता हो, जिसे कार्यकारी से
अलग करना मुश्किल हो गया हो।" (द वायर, 16 मार्च 2019)
शिक्षाविद् प्रताप भानु मेहता ने कहा, "हाल के इतिहास से हमने यह सीखा है कि लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट कैसे काम करता
है, इस मामले में हम ग़लतफ़हमी के शिकार हुए हैं। हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट
ने हमें बुरी तरह निराश किया, राजनीतिक आज़ादी न
होने से काम टालने, नहीं करने की इच्छा और उत्साह की कमी से ऐसा हुआ है।" (इंडियन एक्सप्रेस, 12 दिसंबर 2019)
राजनीतिशास्त्री सुहास पलसीकर ने 'भारतीय राज्य का उत्पीड़क
में तब्दील होना' लेख में कहा, "उत्पीड़क में बदलने की यह राजनीतिक तब्दीली इतनी आसानी से नहीं हुई होती यदि न्यायपालिका
ने मुँह फेर कर दूसरी ओर नहीं देखा होता।" (इंडियन एक्सप्रेस 4 अगस्त)
नवंबर 2021 में देश भर के 200 से ज़्यादा बुद्धिजीवियों ने सीजेआई एनवी रमना को ख़त लिखकर देश के कुछ अहम मसलों
पर सुनवाई करने के लिए कहा था। इनमें अनुच्छेद 370 से संबंधित मामले, राजद्रोह क़ानून, यूएपीए का लगातार दुरूपयोग, पेगासस जासूसी मामला, कृषि क़ानूनों, चुनावी बॉन्ड, आधार से जुड़े मामले, रफ़ाल लड़ाकू विमान सौदा और सीएए जैसे मसले
शामिल थे।
नवंबर 2020 में प्रताप भानु मेहता ने भारतीय न्यायपालिका के मौजूदा संदर्भ में लोकतांत्रिक
बर्बरता का मुद्दा उठाते हुए 'इंडियन एक्सप्रेस' में एक लेख लिखा। 'सत्य हिन्दी' में उसकी अनुवाद रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस लेख का शीर्षक था - न्यायिक बर्बरता
की ओर बढ़ रहा है सुप्रीम कोर्ट!
इसमें 'बर्बरता' शब्द को समझाते हुए
न्यायपालिका से जुड़े फ़ैसलों में मनमानी का अधिक प्रदर्शन, जजों के निजी विचार
और सनक का हावी हो जाना, आदि दुर्गुणों को इंगित किया गया था। लेख में वर्तमान वातावरण को अपरोक्ष रूप से शामिल कर इस बात की चर्चा की गई थी
कि नागरिक अधिकारों और असहमति रखऩे वालों की सुरक्षा ठीक से नहीं हो पाती, जबकि राज्य की सत्ता
का सम्मान बढ़ जाता है!
इस लेख में ज़िक्र किया गया था कि जब अदालतें अपने प्रति ही
काफ़ी चिंतित दिखाई देने लगे, वह
किसी डरे हुए सम्राट की तरह व्यवहार करे, ख़ुद की गंभीर आलोचना से असहज महसूस करे, उसकी भव्यता उसकी अवमानना के अधिकार से चलने लगे, दूसरी तरफ़ राज्य अपनी ही जनता के एक वर्ग के साथ शत्रु की
तरह व्यवहार करे तब गंभीर संकेत मिलने लगते हैं।
लेख में लिखा था, "... अदालत ने उन मामलों
की सुनवाई समय पर करने से इनकार कर दिया, जो लोकतंत्र की संस्थागत प्रतिबद्धता के लिए ज़रूरी हैं। उदाहरण
के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला। यह अब किसी से छुपा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट या
कई हाईकोर्ट में ज़मानत देने या उससे इनकार करने के मामले में नए स्तर की मनमानी होने
लगी है।"
सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुम्बडे, उमर ख़ालिद, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल, वरवर राव, सिद्दीक़ी कप्पन, स्टेन स्वामी, प्रशांत कनौजिया, वांगखेम, धवल पटेल, उमेश कुमार जैसे मामलों
का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ज़िक्र इसमें भी था। वरवर राव का उल्लेख कर लिखा गया, "क्रूरता का इससे अधिक
प्रदर्शन कोई सोच नहीं सकता है।"
न्यायपालिका के एक व्यवहार - इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित
इस लेख में एक जगह लिखा गया था, "बीच-बीच में स्वतंत्रता के सिद्धान्तों की महानता के उदाहरण
भी आएँगे, बीच-बीच में योग्य वादियों को राहत भी दी जाएगी, ताकि इस संस्थान के ऊपर सम्मान का एक महीन आवरण चढ़ा रहे, लेकिन दूसरी ओर रोज़मर्रा के कामकाज में यह और सड़ता ही जाएगा।"
जनवरी 2021 में जब सेंट्रल विस्टा
प्रोजेक्ट के संबंध में जनहित याचिका दायर हुई तब सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला दिया
था उसका एक अंश ये भी था, "अदालतों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे सरकार के फ़ैसलों से असहमति रखने वाले
संगठनों और सिविल सोसाइटी के लोगों के लिए सुनवाई करके अपना क़ीमती वक़्त ख़राब करें।"
इसमें कोई दो राय नहीं
कि जनहित याचिका, आरटीआई समेत तमाम उपयोगी प्रक्रियाओं में कुछ निहायत राजनीतिक लोग इनका दुरूपयोग
करते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि असहमति रखने वालों की सुनवाई अदालत
को वक़्त की बर्बादी लगे! राजनीतिक
एजेंडे वाली याचिकाओं और याचिकाकर्ताओं को रोकने के तरीक़े और रास्ते अदालतों के पास
होंगे, बल्कि हैं।
याद रखना चाहिए कि हमारे देश में न्यायिक इतिहास में मील के पत्थर समान अनेक फ़ैसले
जनहित याचिका की ही देन थी। सेंट्रल विस्टा पर
जनहित याचिका सौ फ़ीसदी राजनीतिक होगी, किंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि जनहित याचिका वक़्त की बर्बादी के रूप में
चिन्हित की जाए।
ऐतिहासिक किसान आंदोलन, जो केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ा गया था, में भी शुरुआती समय
में किसानों ने अदालती कार्रवाई का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया था। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर किसानों ने औपचारिक तौर पर कोई सवाल नहीं
उठाया था, लेकिन इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट नहीं जाने का उनका फ़ैसला निश्चित ही इस आशंका
से प्रेरित माना गया कि वहाँ उनके साथ इंसाफ़ नहीं होगा!
किसानों और सरकार के
बीच आठ दौर की बातचीत हुई, जो बेनतीजा रही। इसके बाद कृषि मंत्री ने आंदोलनकारी किसानों से कह दिया, "अगर आपको हमारे बनाए
क़ानून मान्य नहीं हैं तो आप सुप्रीम कोर्ट चले जाइए।"
किसान आंदोलन के समय
किसानों के भीतर इंसाफ़ नहीं हो पाने का यह डर यूँ ही नहीं था। दरअसल, इस आंदोलन से पहले
और इस दौरान भी, कुछ ऐसे बड़े नागरिक अधिकार संबंधी आंदोलन हो चुके थे या हो रहे थे। इस दौरान
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया से लेकर सत्ता और प्रशासन, साथ ही सत्ता संचालित
सोशल मीडिया, सभी की भूमिका अत्यंत विवादित दिखाई दे रही थी।
ऐसा माहौल था, जैसे कि तमाम आंदोलनों को, आंदोलनकारियों को, उनकी माँगों को, साथ ही शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को मेनस्ट्रीम मीडिया और सत्ता संचालित सोशल
मीडिया समुदाय की मदद से योजनाबद्ध तरीक़े से बदनाम किया जा रहा हो। साथ ही अनाप शनाप आरोप लगाकर प्रदर्शनों में शामिल लोगों को अदालती कार्रवाईयों
में उलझाया जा रहा था, या तो जेल भेजा जा रहा था।
कोरोना महामारी का ख़तरा और आम जनता को हो रही परेशानी के कारण आगे करके अनेक विरोध
प्रदर्शनों को या तो कमज़ोर किया जा चुका था, या ख़त्म। जबकि उन्हीं दिनों राजनीतिक रैलियाँ, यहाँ तक कि
चुनाव भी कराए गए थे!
अलग अलग जन आंदोलनों
की सुनवाई में अदालत की टिप्पणी इन दिनों एक यह भी होती थी - आंदोलन के लिए सार्वजनिक
स्थलों को बाधित नहीं किया जा सकता। शाहीन बाग़ की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने
तो एक समिति गठित करके आंदोलन ख़त्म करने के लिए बीच का कोई रास्ता निकालने का आग्रह
किया था!
इस वातावरण में न्यायपालिका के व्यवहार पर कईं पूर्व जज, वक़ील, बुद्धिजीवी
समुदाय अनेकों बार सवाल उठा चुके थे। ऐसे में अपनी माँगों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की
चौखट पर जाना किसानों को शुरुआत में जिस तरह से आशंकित कर गया, वह अपने आप में न्यायपालिका और लोकतंत्र के रिश्ते के लिए अत्यंत
चिंतित होने का पल था।
हालाँकि पूरे मसले
को अंत में तो सुप्रीम कोर्ट जाना ही था। मामला अदालत में गया और सुप्रीम कोर्ट ने
जनवरी 2021 में अगले आदेश तक तीनों कृषि क़ानून को लागू किए जाने पर रोक लगा दी और इन क़ानूनों
पर चर्चा के लिए एक समिति का गठन भी कर दिया। कोर्ट ने भूपिंदर सिंह मान, कृषि अर्थशास्त्री
अशोक गुलाटी, डॉ. प्रमोद कुमार जोशी (पूर्व निदेशक राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रबंधन), अनिल धनवत के नाम
कमिटी के सदस्य के तौर पर सुझाए।
किसान संगठन इस प्रकार
की समिति का गठन किए जाने के पक्ष में नहीं थे। और इसके पीछे कुछ व्यावहारिक कारण प्रथम
नज़र में ही दिखाई दिए। पहली बात यह कि यह मसला किसी हत्या, भ्रष्टाचार या हादसे
की जाँच का मामला नहीं था, जिसमें अदालतें अपने पूर्व अनुभवों और तय प्रक्रियाओं के आधार पर कमेटी गठित करती
हैं। यह कृषि क़ानून तथा दशकों से लंबित किसानों की माँगों से संबंधित मसला था। दूसरी
बात यह कि ऐसे मामलों में जो पक्ष, यानी अदालत, समाधान कराना चाहता है उसे शिकायतकर्ताओं से विचार विमर्श करना चाहिए था।
लेकिन अदालत ने
इन सब प्रक्रियाओं को नज़रअंदाज़ करके कमेटी गठित कर दी और इसमें शामिल किए जाने वाले
सदस्यों के नाम भी सुझाए! स्वाभाविक रूप से
किसान संगठनों ने कहा कि हमारे साथ विचार विमर्श किए बिना यह किया गया है। किसान
संगठऩों के वक़ील ने अपनी वाज़िब बात सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी और कहा कि यह एक आंदोलन
है और अब इस नये मुद्दे पर आंदोलन में शामिल संगठन बैठ कर कोई निर्णय मुझे सुनाएँगे
तभी मैं आपकों कोई यक़ीन दिला पाऊँगा।
किसानों के वक़ील ने
अदालत के सामने इस मुद्दे को रखा। बदले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "अगर किसान सरकार के
समक्ष जा सकते हैं तो कमिटी के समक्ष क्यों नहीं? अगर वो समस्या का
समाधान चाहते हैं तो हम ये नहीं सुनना चाहते कि किसान कमिटी के समक्ष पेश नहीं होंगे।"
तत्कालीन चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया ने किसान संगठनों से कहा,
"हमें समिति बनाने का अधिकार है। जो लोग वास्तव में हल चाहते
हैं वो कमेटी के पास जा सकते हैं।" सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "कोई भी ताक़त हमें
कृषि क़ानूनों के गुण और दोष के मूल्यांकन के लिए एक समिति गठित करने से नहीं रोक सकती
है। यह समिति न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा होगी। समिति यह बताएगी
कि किन प्रावधानों को हटाया जाना चाहिए, फिर वो क़ानूनों से निपटेगा।"
ज़्यादातर मामलों में अदालतें कहती नज़र आती हैं कि हमारा
काम बनाए गए क़ानूनों की संवैधानिकता जाँचना होता है। और यह कहकर वो उसी दायरे में
फ़ैसला सुनाती हैं। वह क़ानूनों के सामाजिक गुण और दोष का मूल्यांकन नहीं करती। अदालत
के पास ऐसा करने का संवैधानिक अधिकार यक़ीनन है, किंतु फिर वह इस अधिकार का
इस्तेमाल ऐसे तमाम मामलों में समांतर रूप से करती क्यों नहीं दिखाई देती?
सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन
को संभ्हालने के केंद्र सरकार के तरीक़े से नाराज़गी जताई और कहा, "आपने बिना पर्याप्त
राय-मशविरा किए हुए एक ऐसा क़ानून बनाया है जिसका नतीजा इस विरोध प्रदर्शन के रूप में
निकला है।" अदालत ने केंद्र सरकार से कहा, "हमें नहीं लगता कि केंद्र सरकार इस मामले को अच्छी तरह से हैंडल कर रही है। हमें
आज ही कोई क़दम उठाना होगा।"
इस संस्करण में सुप्रीम
कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए क़ानूनों को हॉल्ड पर ज़रूर रखा, लेकिन साथ ही जिस
समुदाय को केंद्र सरकार के द्वारा बनाए गए क़ानूनों से विरोध था उस समुदाय को यह कहा
कि अब हम समिति बनाते हैं उनके सामने आप जाइए, सरकार के समक्ष नहीं! यह वाक़ई नया रास्ता था।
इस मामले में एक अद्भुत
बात देखी गई। बात यह कि, इससे पहले अनेक बार तथा इस मामले के बाद भी
आज तक अनेकों बार, सत्ता से जुड़े लोग, मसलन देश के उप राष्ट्रपति, क़ानून मंत्री, सांसद, सत्ता पर शासित पार्टी के अध्यक्ष, जैसे लोग अनेक बार अदालत मर्यादा से बाहर जा रही है, यह अदालत का अधिकार
नहीं है, वह अधिकार कोर्ट का नहीं सरकार का है, सरीखे शब्दों के साथ आक्रमण कर चुके हैं।
किंतु सुप्रीम कोर्ट
द्वारा केंद्र सरकार के बनाए गए तीन क़ानूनों को हॉल्ड पर रख कर चर्चा करने हेतु समिति
बना देना, इस ग़ज़ब अदालती फ़ैसले पर केंद्र सरकार या उसके किसी चेहरे ने एक भी शिकायत नहीं
की, ना ना ही चुनी हुई सरकार और उसके अधिकार आदि का रोना रोया!
किसानों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा बना गई कमेटी को ख़ारिज कर
दिया। किसानों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की प्रस्तावित कमेटी के सभी सदस्य इन क़ानूनों
के पक्षधर हैं, उन्होंने कई बार इन क़ानूनों का समर्थन किया है और इसलिए उनकी
निष्पक्षता संदेह से परे नहीं है। पंजाब किसान यूनियन के एक नेता ने एनडीटीवी से कहा, "हम कमेटी को स्वीकार नहीं करेंगे, इसके सभी सदस्य सरकार के समर्थक हैं और कृषि क़ानूनों को उचित
ठहराते रहे हैं।"
सरकार सौ बार बुलाएगी, हम सौ बार जाएँगे, लेकिन एक ऐसी कमेटी, जिसके सदस्य इस क़ानून के पक्षधर हैं, उसके सामने हम जाकर क्या करेंगे? किसान पूछ रहे थे
कि आख़िर कमेटी का गठन करने से पहले हमसे बातचीत भी क्यों नहीं की गई?
भारतीय किसान संघ ने
कहा कि अदालत द्वारा गठित समिति में पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं है। अदालत ने
मध्यस्थता के लिए वैसे नाम चुने, जो इन क़ानूनों के पक्षधर माने जाते थे! इसने किसानों का भरोसा गँवा दिया। किसानों ने पूरी कार्रवाई को देखा और कहा, हमारी भलाई सोचने
के लिए बहुत शुक्रिया लेकिन समिति का जो जाल आपने बिछाया है हम उस पर नहीं बैठने वाले।
कमेटी अपना काम शुरू
करे उससे पहले इसके एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान ने कमेटी से इस्तीफ़ा दे दिया! समग्र माथापच्ची के अंत में कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होने पर भी
विवाद हुए। विवाद के बाद प्रकाशित हुई
रिपोर्ट में कई तथ्य, आँकड़े, सुझाव, हक़ीक़त आदि को नज़रअंदाज़ करने के विवाद भी
हुए!
इसी आंदोलन में एक
सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे वक़ील और देश के सॉलिसिटर जनरल तुषार
मेहता ने कहा था कि प्रदर्शनकारियों ने अपने आंदोलन में महिलाओं और बच्चों को सुरक्षा
कवच बनाया हुआ है। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विरोध करना नागरिकों का बुनियादी
हक़ है और लोग विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं।
किंतु इस टिप्पणी के उलट 11 जनवरी 2021 के
दिन चीफ़ जस्टिस बोबड़े ने सवाल किया था, "इस विरोध
प्रदर्शन में महिलाओं और बुज़ुर्गों को क्यों शामिल किया गया है?" उन्होंने कहा था, "हमें
यह जानकर अच्छा लगा कि बुज़ुर्ग, महिलाएँ
और बच्चे इस विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं होंगे।"
अदालत की सुनवाई के
दौरान यह टिप्पणी आलोचना के पात्र बनी। स्वाभाविक है कि आंदोलन में शामिल होने का
हक़ सबका है, उनके राजनीतिक विचार कुछ भी हो। आंदोलन का मुद्दा
सरकार द्वारा बनाए गए क़ानून का था, ना कि सरकार गिराने का।
कहीं भी, कभी भी, कैसे भी, आंदोलन करने का हक़
नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीक़े से चल रहे आंदोलन में शामिल होने
का हक़ तो संविधान ने महिलाओं को भी दिया है, बुज़ुर्गों को भी। आंदोलन में किसके शामिल होने से अच्छा लगा
या नहीं लगा, यह चौंकाने वाली अदालती टिप्पणी थी!
शाहीन बाग़ के धरने
से चर्चा में आईं 82 बरस की बिल्कीस दादी ने बीबीसी हिंदी के समक्ष कुछ यूँ कहा, "जब सवाल देश और उसके
मूल्यों को बचाने का आएगा, तो यक़ीन जानिए इसकी अगुवाई महिलाएँ ही करेंगी।" हरियाणा की महिला किसान
नेता सुदेश गोयल ने कहा था, "... हम यहाँ इसलिए हैं क्योंकि एक महिला के तौर पर हमें अपने अधिकारों का अच्छी तरह
से एहसास है।"
सुप्रीम कोर्ट द्वारा
महिला आंदोलनकारियों के बारे में इस प्रकार टिप्पणी करने पर हरियाणा की रहने वाली देविका
सिवाच ने कहा, "वो ये कैसे सोच लेते हैं कि हम औरतें कमज़ोर हैं? अगर हम मर्दों को
जन्म दे सकते हैं, तो हम अपनी लड़ाई भी लड़ सकते हैं।" श्रुति पांडेय का कहना था, "सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं
को लेकर जिस तरह की टिप्पणियाँ की हैं वो संवेदनहीन हैं। बल्कि सच तो ये है कि ये विचार
रूढ़िवादी है। हालाँकि ऐसी बातों से महिलाओं को कम और एक लोकतांत्रिक संस्था के तौर
पर सुप्रीम कोर्ट को ही अधिक नुक़सान होगा।''
आंदोलन में महिलाओं
की मौजूदगी पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई यह टिप्पणी प्रदर्शनकारियों को ही नहीं, चिंतको और लोकतंत्र
के समर्थकों को भी ख़ास पसंद नहीं आईं। ऐसी अप्रासंगिक और बेहद पुरातनपंथी सोच उस चौखट
से छलक जाए जहाँ इंसाफ़ का सबसे बड़ा मंदिर है, तब इसे न्यायपालिका की साख पर ही दाग़ माना गया।
अब तक तो होता यह रहा है कि कई मामलों में हाईकोर्टों के फ़ैसलों
को सुप्रीम कोर्ट पलटता रहा है, लेकिन
देश के न्यायिक इतिहास में वह दुर्लभ मौक़ा भी आया जब एक अति संवेदनशील मामले में सुप्रीम
कोर्ट के पूर्व में दिए गए आदेश के विपरीत किसी हाईकोर्ट ने आदेश दिया! मामला था सूचना के अधिकार
का।
संसद में जब यह क़ानून
पारित किया गया था तो उसमें विशेष तौर पर धारा 6(2) शामिल की गई थी। इस धारा के मुताबिक़ सूचना के लिए आवेदन करने
वाले व्यक्ति को इसके लिए कोई वजह देने की ज़रूरत नहीं होगी। बीच में जब इस धारा को
लेकर सवाल उठे तब सुप्रीम कोर्ट ने सूचना के अधिकार को जनता के मौलिक अधिकार के
रूप में परिभाषित किया था और कहा था कि इस क़ानून का इस्तेमाल करने, यानी कोई जानकारी
माँगने के लिए किसी को उसकी वजह बताने की ज़रूरत नहीं है।
पारिभाषिक तौर पर देखा जाए तो मौलिक अधिकार का अर्थ है कि अधिकार में कोई शर्त
निहित नहीं है। यानी किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों के इस्तेमाल के लिए उसकी
वजहें बताने की ज़रूर नहीं है। इस व्यवस्था के आधार
पर सूचना के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए में प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के
अधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट से मान्यता प्राप्त है।
लेकिन एक मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा पूर्व में दिए
गए फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना निर्णय सुना दिया! मामला यूँ था कि आरटीआई के तहत सीआईसी से राष्ट्रपति सचिवालय में हुई नियुक्तियों
के संबंध में जानकारियाँ माँगी गई थीं। सीआईसी ने जानकारी साझा करने से इनकार करते
हुए कहा था कि आवेदक ने सूचना माँगने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं किया है।
आवेदक ने हाईकोर्ट
में याचिका डाली। दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सीआईसी के निर्णय
को मान्य रखा, साथ ही अदालत में याचिका डालने वाले व्यक्ति पर 25 हज़ार का जुर्माना
भी लगा दिया। दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़ अब सूचना के अधिकार के तहत
सूचना माँगने वाले व्यक्ति को सूचना माँगने का मक़सद भी बताना होगा! क़ानून और सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा था, हाईकोर्ट ने इससे अलग ही कह दिया!
अलग अलग राज्य सरकारों
तथा केंद्र सरकार द्वारा पत्रकारों, कार्टूनिस्ट, एक्टिविस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, कवि, बुद्धिजीवि, सामान्य नागरिक आदि पर लगाए गए राजद्रोह, देशद्रोह, गुन्डा एक्ट जैसे अतिगंभीर आरोपों पर अदालतें सख़्त टिप्पणियाँ तो करती नज़र आती
हैं, किंतु कुछ थमता नज़र नहीं आता!
कभी किसी सार्वजनिक मसलों की सुनवाई के दौरान हाई कोर्टों की टिप्पणियों को सर्वोच्च
अदालत अति सख़्त और ग़ैरज़रूरी तक बता देती है! कभी सर्वोच्च अदालत जो नहीं करती, जो नहीं देखती, अलग अलग हाई कोर्ट कर-देख जाती हैं!
विवादास्पद तरीक़े
से सरकारों द्वारा संचालित पुलिस मशीनरी की सामान्य लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों
की गिरफ़्तारी के बाद उनकी ज़मानत के फ़ैसले में 'अति विविधता' चौंकाती हैं। ऊपर उसकी चर्चा की है। कभी ख़राब स्वास्थ्य के आधार पर प्रज्ञा ठाकुर को ज़मानत
मिल जाती है, जो बास्केटबॉल, गरबा, क्रिकेट खेलती दिखी होती हैं! कभी गंभीर बिमारियों से पीड़ीत बुद्धिजीवी को ज़मानत तो दूर, स्वास्थ्य संबंधी
ज़रूरतों के लिए सुनवाई की तारीख़ तक नहीं मिलती!
किसानों और पत्रकार को कार से रौंद कर सरेआम उनकी हत्या कर देने
वाले व्यक्ति को ज़मानत मिल जाती है, उधर
आंदोलन में बेतुके आरोप लगाकर गिरफ़्तार किए गए किसान जेलों में सड़ते रहते हैं! आरोपी को ज़मानत की भेंट, गवाहों को सुरक्षा तक नहीं मिलती!
अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट
का फ़ैसला कई पूर्व जजों और वरिष्ठ क़ानूनविदों के लिए भी समझ से परे था। बिलकुल वैसे, जैसे अयोध्या, रफ़ाल, पेगासस जासूसी कांड, विविध जन आंदोलन, आदि पर समझ से दूर
रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2023 को जम्मू-कश्मीर से
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने से जुड़े
मामले पर अपना फ़ैसला सुनाया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय केंद्र सरकार के
पक्ष में दिया था। अदालत के फ़ैसले के बाद क़ानून के कई जानकारों ने कड़े शब्दों में
इस फ़ैसले की आलोचना की थी।
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले
को संघवाद के लिए बुरा असर पैदा करने वाला फ़ैसला बताते हुए कहा था, "ये कहना भी असल में
एक फ़ैसला ही है कि हम कोई निर्णय नहीं करेंगे।" उन्होंने कहा था कि अदालत ने
एक असंवैधानिक कृत्य को अनिश्चित काल के लिए जारी रखने की इजाज़त दे दी है।
सुप्रीम कोर्ट के ही दूसरे सेवानिवृत्त जस्टिस मदन लोकुर ने इस फ़ैसले को समझ से
परे बताते हुए कहा था कि कोर्ट इस मामले में लड़खड़ा गया है। उन्होंने कहा था, "मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने फ़ैसले की समीक्षा करनी चाहिए।"
सीनियर वक़ील और संवैधानिक
क़ानून के विशेषज्ञ फ़ली एस. नरीमन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, "मेरा निष्कर्ष है कि
सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला, अगर सियासी तौर स्वीकार्य भी है, तो संवैधानिक रूप से सही नहीं है।"
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने
से संबंधित अपने फ़ैसले के उपरांत यहाँ बहुत लंबे समय तक इंटरनेट बैन, प्रेस स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पूर्ण राज्य के आश्वासन
के बाद लंबे समय तक उस आश्वासन की पूर्ति न होना, शिक्षा का अधिकार
जैसे मसलों पर अदालती माहौल में कछुए सरीखी गति को लेकर भी निराशाएँ फैलती रही थीं।
किसान आंदोलन के
दौरान सुप्रीम कोर्ट में कभी सक्रियता और कभी चुप्पी का माहौल निराशाजनक माना गया।
कभी कोरोना महामारी का हवाला देते हुए इस मसले पर आश्चर्यजनक सक्रियता, कभी
पूरी तरह उदासनी होकर गरमी की छुट्टियों पर जाना! कभी सरकार को बाहर कर और आंदोलनकारी किसानों से मशविरा किए बिना समिति बनाना,
फिर उस समिति की रिपोर्ट का महीनों तक ठंडे बस्ते में पड़े रहना!
इसी समय के दौरान
अलग अलग हाई कोर्टों का कोविड महामारी के संदर्भ में आम जनता की सुखाकारी और
सुरक्षा हेतु अलग अलग राज्य सरकारों को फटकार लगाना, अति सख़्त टिप्पणियाँ करना और
बहुत सख़्त फ़ैसले देकर आदेश देना। उधर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनमें से कुछ फ़ैसलों
को रद्द करके यह कहना कि हाई कोर्टों को सख़्त टिप्पणियाँ करने से बचना चाहिए और
व्यावहारिक फ़ैसले और आदेश सुनाने चाहिए!
उधर सुप्रीम
कोर्ट ने इसी काल के दौरान अनेक मामलों में बेहत सख़्त टिप्पणियाँ की हैं, सख़्त
फ़ैसले भी सुनाए हैं। लेकिन सर्वोच्च अदालत हाई कोर्टों को कहती है कि आपको ऐसा
नहीं करना चाहिए! अलग अलग हाईकोर्टों ने अलग अलग राज्यों में सरकारों को ऑक्सीजन सिलेंडर,
एंबुलेंस, लॉकडाउन, चुनाव, चुनावी रैलियाँ, चुनाव आयोग, मरीज़ों का इलाज, काँवड
यात्रा, धार्मिक समागम, जैसे विषयों पर सख़्त आदेश दिए। लेकिन अनेक मामलों में
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को राहत दे दी। हालाँकि अनेक मामलों में नहीं दी
थी।
राजनीति में पीएम
मोदी अनेक मामलों में कहते हैं कि हरेक विषय पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, और फिर
वे ख़ुद तमाम चीज़ों में बेतुकी राजनीति की शुरुआत कर देते हैं! हम यह नहीं कह रहे कि माननीय सर्वोच्च अदालत भी वैसा बेतुका व्यवहार करती है,
जैसे राजनीति के नायक करते हैं।
यूँ तो चार शैली को लेकर चर्चा बहुत रही। प्रथम – अदालत
द्वारा तल्ख़ टिप्पणियाँ, दूसरा – तल्ख़ टिप्पणियों के इतर कोई दूसरा ही फ़ैसला,
तीसरा – टिप्पणियों के अनुसार ही सख़्त आदेश और सीधा अदालती फ़ैसला, चौथा – उन
आदेशों की अवमानना और फ़ैसलों का ज़मीन पर लागू हो न पाना। वैसे न्यायपालिका को
संवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वो अपने फ़ैसले को लागू करा सकती है। ऐसा न होने
पर वो राज्य के सचिव से लेकर मुख्यमंत्री तक को बर्खास्त कर सकती है।
किंतु इन चार शैली
में अंतर का उभरना चर्चा में ज़रूर रहता है। अदालत द्वारा की गई तल्ख़ टिप्पणियों से
आशान्वित होने वाला लोकतांत्रिक और बुद्धिजीव समुदाय अब ठहर कर सोचने लगा है।
क्योंकि तल्ख़ टिप्पणियाँ देना और फ़ैसले या आदेशों में उस भाव का नहीं होना,
यह बहुत बार देखा गया है।
कभी तल्ख़ टिप्पणियों के मुताबिक़ सख़्त और सीधे फ़ैसले अदालत की चौखट से आते
ज़रूर हैं, किंतु वे ज़मीन पर लागू नहीं होते और अदालती आदेशों की अवमानना तक हो
जाती है। न्यायपालिका के पास संवैधानिक अधिकार है कि वो अपने फ़ैसले
को लागू करने के लिए किसी भी सरकार को बाध्य कर सकें। किंतु ऐसा होता नहीं।
ताज़ा इतिहास देखे
तो वे अमित शाह ही थे जिन्होंने सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मानने से
इनकार कर दिया था। वे बीजेपी के बिप्लव देव ही थे जिन्होंने सरेआम कहा था कि अदालत
की अवमानना से ना डरें, मैं बैठा हूँ।
देश के तत्कालीन
उप राष्ट्रपति जगदीप घनखड़, बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे, राज्यसभा सांसद दिनेश
शर्मा, क़ानून मंत्री, बीजेपी शासित राज्य के मुख्यमंत्री, आदि हाल ही में देश की
न्यायपालिका को लेकर, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के बारे में आक्रामक रूप से
आपत्तिजनक तरीक़े से बोल चुके हैं।
तत्कालीन उप राष्ट्रपति धनखड़ ने तो सुप्रीम कोर्टे के एक
संवैधानिक अधिकार को परमाणु मिसाइल तक बता दिया था। त्रिपुरा के बीजेपी शासित
सरकार के मुख्यमंत्री बिप्लव देब ने कह दिया था कि अदालत की अवमानना से डरे नहीं,
मैँ यहाँ बाध जैसा बैठा हूँ। दिग्गज बीजेपी सांसद ने सीमा पार करते हुए चीफ़ जस्टिस
ऑफ़ इंडिया संजीव खन्ना का नाम लेकर उन्हें जिस तरह गृह युद्ध का अपराधी कह दिया
था।
इस माहौल में आम
जनता, चिंतक, बुद्धिजीवी समाज, लोकतंत्र के पक्षधर निराश होते गए। उधर इसी कालचक्र
में सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में तीसरे क्रम पर आने वाले जस्टिस अरूण मिश्रा
पीएम मोदी की मन भर के सार्वजनिक रूप से तारीफ़ करते हैं। फिर सेवानिवृत्ति के
बाद उन्हें मानवाधिकार आयोग का प्रमुख बनाया जाता है। वहाँ पहुँचने के बाद
मिश्राजी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को कहते हैं कि आपकी वजह से जम्मू-कश्मीर
में नये युग की शुरुआत हुई।
जबकि इसी कालचक्र
के दौरान सैंकड़ो बुद्धिजीवी, वक़ील, मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार, चिंतक, लेखक
अदालत को बाक़ायदा लिख बिनती कर चुके थे कि अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर कार्रवाई
तुरंत करें। क़रीब एक दर्ज़न मामले सुप्रीम कोर्ट में तीन-चार साल तक ठंडे बस्ते में
पड़े रहे। ये तमाम मामले लोकतंत्र, स्वतंत्रता और नागरिक
अधिकारों से जुड़े हुए थे, जिनकी रक्षा का दायित्व सुप्रीम कोर्ट का था।
माहौल कुछ यूँ बना, जैसे कि अदालत की सक्रियता जुबानी हो, और वह सक्रियता
कार्यवाहियों में ग़ायब हो। हरिद्वार की कथित
धर्म संसद का मामला, जहाँ मुसलमानों के नरसंहार का खुल्लमखुल्ला आह्वान किया गया
और शस्त्र उठाने का संकल्प दिलाया गया। इस मामले में अदालत की चौखट पर हुई
कार्रवाई ने निराश ही किया।
यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट हर जगह दखलंदाज़ी करने नहीं पहुँच सकता, मगर जहाँ संवैधानिक अधिकारों पर सीधी चोट की जा रही हो, वहाँ उसे आगे बढ़कर पहल करनी है, क्योंकि वह लोकतंत्र और संविधान की अभिरक्षक
है। ख़ास तौर पर ऐसे समय जब सत्ता, उसके जाँच संस्थान, पुलिस, प्रशासन, मानवाधिकारों से जुड़ी संस्थाएँ और चुनाव आयोग तक अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से
कतरा रहे हों।
एक ही मामले में अलग अलग अदालतों के अलग अलग फ़ैसले। कभी सालों बाद किसी फ़ैसले को पलटना। यह अदालती कार्रवाई का वो पहलू है जो आम
जनता के बीच सदैव चर्चा में रहता है। हो सकता है कि यह समस्या न हो, बल्कि समीक्षा हो।
किंतु जब एक ही मामले में एक ही बैंच के जज लोग अपनी क़ानूनी
समझ और संवैधानिक नज़रिए में अलग अलग मत लेकर फ़ैसला सुनाते हैं तब स्थापित संविधान
और लिखी गई क़ानूनी किताब को लेकर समझ में भिन्नता के साथ साथ किसी न्यायाधीश का अपना
वैचारिक झुकाव, ख़ुद की मान्यता, आदि की भी चर्चा होती है।
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने
का फ़ैसला हो, अयोध्या मामले में बार बार बदलते रहने वाले फ़ैसले हो, राजद्रोह, अवमानना या अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के मामले हो, दुष्कर्म के मामले हो, ऐसे अनगिनत मामले हैं और यह केंद्र स्तर से लेकर ज़िले स्तर तक की अदालतों में
दिखाई दिए हैं, जिसमें किसी मामले को लेकर क़ानूनी और संवैधानिक समझ में भिन्नता, वैचारिक झुकाव, मान्यताओं का प्रभाव, जैसे तत्व सार्वजनिक
चर्चा का हिस्सा बने।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक बार न्यायपालिका के रवैये को
लेकर भारी मन से किंतु कठोर भाषा में कहा था, "अदालतों में अब आमतौर पर फ़ैसले होते हैं, यह ज़रूरी नहीं कि
वहाँ न्याय हो।"
पद पर रहते हुए भारत के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ अपने सरकारी आवास पर
प्रधान मंत्री के साथ पूजा पाठ करते दिख जाते हैं! स्वाभाविक है कि अदालत में चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ मामले होते हैं और इस
प्रकार के माहौल से अदालती फ़ैसले को समाज द्वारा 'अलग निगाह से' देखा-समझा जाता है।
देश के यही प्रधान न्यायाधीश एक महत्वपूर्ण अदालती मामले पर कह देते हैं कि
मैंने भगवान से राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का समाधान ढूँढने की प्रार्थना की थी! उनका यह बयान देश में 'क़ानून और धर्म के ख़तरनाक कॉकटेल की सर्वोच्च स्वीकृति' थी। अर्थ यही निकला कि संविधान और लोकतंत्र के अभिरक्षक अब धर्म, भावना,
कल्पना, संस्कृति के चश्मे पहनकर फ़ैसला देते हैं! जो कि अपने आप में असंवैधानिक सा दिखता है।
इन्हीं वजहों से
ही जस्टिस चंद्रचूड़ पर सवाल उठते रहे कि उन्होंने हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर उचित कार्यवाही क्यों नहीं की? इलेक्टोरल बॉन्ड के
निर्णय में आरोपियों के ख़िलाफ़ जाँच क्यों नहीं बिठायी? सेबी की विश्वसनीयता को तार-तार करने वाली माधवी बुच पर कार्यवाही क्यों नहीं
की?
धारा 295 के तहत किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक मान्यताओं का अपमान करना या अपमान की कोशिश
करना दंडनीय अपराध है। लेकिन अक्टूबर 2024 में कर्नाटक
हाईकोर्ट के जस्टिस एम नागप्रसन्ना ने कहा था – मस्जिद में जय श्री राम के नारे
लगाने से किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है तो यह समझ से परे है।
धारा 295 के शब्दों को आगे कर जज साहिब ने अपनी बात को सही बताया, और
इस तरह संवैधानिक शब्दों की आड़ में उस धारा की आत्मा को मार दिया!
भारत का संविधान, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, ये सब कोई निजी
कर्मकाँड नहीं है, जिसे जब जी चाहा अपने तरीक़े से कर डाला। जब देश के सीजेआई के
आवास पर पीएम पूजा-पाठ करते हैं, देश के सीजेआई न्यायिक निर्णयों पर धर्म या निजी
आस्था के प्रभाव की बात करते हैं, तो यह सब प्रताप भानु मेहता के शब्दों में 'न्यायिक बर्बरता' सरीखा लगता है।
कभी किसी जज के घर
से अधजले नोट मिलते हैं। कभी कोई जज संदिग्ध तरीक़े से मृत्यु को प्राप्त होता है।
कभी कोई जज किसी नेता को अपने घर बुलाकर पूजा पाठ करते नज़र आता है। कभी कहता है कि
फलाँ फलाँ विवाद के समाधान के लिए मैं भगवान के सामने बैठा था! यहाँ जज लोग किसी नेता की सरेआम तारीफ़ करने से पीछे नहीं हटते।
कभी किसी मामले में
अदालत एक दिन कहती है कि यह जमीन के टुकड़े का मामला भर है। कभी कोई अदालत आगे जाकर
कहती है कि यह भावनात्मक मुद्दा है, जिसमें आस्था केंद्र बिंदु है। अदालतों में बेंच फिक्सिंग को लेकर विवाद होते
हैं। कभी कोई पुस्तक, कोई रचना, कोई व्यंग अदालत के लिए रचनात्मक है, कभी कुछ और! कभी कोई मामला भड़काऊ बन जाता है, कभी नहीं बनता!
यहाँ राजद्रोह और राष्ट्रदोह के मामले में फँसने वाला शख़्स
सत्ताधारी दल में बाक़ायदा शामिल हो सकता है, चुनाव लड़ सकता है, विधायक या सांसद बन सकता है, वहीं कोई मानहानि जैसे मामले में अपनी सांसदी गँवा देता है! यहाँ अदालत से असहमती कभी
अवमानना बन जाती है, कभी
सीजेआई को गृह युद्ध का अपराधी बताने का कृत्य नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है!
कोई अदालत कह देती है कि नाबालिग बच्ची के स्तनों को दबाना, उसके पायजामें के
नाड़े को तोड़ना दुष्कर्म की कोशिश नहीं है! दूसरी अदालत कहती है कि ऐसा नहीं होता। कभी कोई अदालत एक ही मामले में कोई
और फ़ैसला देती है, कोई दूसरी अदालत कोई दूसरा फ़ैसला देती है! एक ही प्रकार के मामले में क़ानून की समझ या क़ानून की व्याख्या यहाँ अलग अलग
होती है।
सावरकर पर दशकों से जो लिखा गया है वही टिप्पणी राहुल गांधी द्वारा की जाती है
और उस पर अदालत राहुल गांधी को फटकार लगाती है, मामले से रिहा करती
है लेकिन यह चेतावनी देते हुए कि अगर आगे से ऐसी टिप्पणी स्वातंत्र सेनानियों पर की
तो हम स्वत: संज्ञान लेंगे और सख़्त कार्रवाई करेंगे। न जाने कितनी बार देश के राष्ट्रपिता
महात्मा गाँधी पर मनगढंत, अनर्गल, अनैतिक टिप्पणियाँ हुई हैं, और यह निरंतर जारी है, अदालत का स्वत: संज्ञान यहाँ लागू क्यों नही होता?
देश के लिए अंतरराष्ट्रीय
मेडल जीतने वाली महिला खिलाड़ियों की एफ़आईआर दिल्ली पुलिस दर्ज नहीं करती। सुप्रीम
कोर्ट का आदेश है कि पुलिस को शिकायतकर्ता की एफ़आईआर दर्ज़ करनी होगी। बावजूद इसके
दिल्ली पुलिस ने इन महिला खिलाड़ियों की एफ़आईआर दर्ज़ नहीं की और इस देश में वो
दौर भी आया जब देश के लिए मेडल जीतने वाली इन महिला खिलाड़ियों को अपनी एफ़आईआर दर्ज़
कराने के लिए भी आंदोलन करना पड़ा! स्वत: संज्ञान तब भी किसी अदालत ने नहीं लिया था!
न जाने कितने मामलों
में, विशेषत: सरकार की आलोचना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, रचना, जैसे दूसरे भी अनेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट आदेश देता है, फ़ैसला सुनाता है।
बावजूद इसके सत्ता अपनी विशेष मशीनरी, जिसे पुलिस तंत्र कहते हैं, के ज़रिए किसी ख़ास व्यक्ति या समूह को फँसाती है। ऐसा नहीं है कि सत्ता ने या पुलिस ने अदालती फ़ैसलों को पढ़ा नहीं होगा। दरअसल
वे किसी को सज़ा दिलाना नहीं चाहते, वे तो उन्हें परेशान करना चाहते हैं, ताकि वो या उसके जैसे दूसरे लोग या समूह सत्ता से सवाल पूछ न सके।
फिर अदालत लंबी सुनवाई के बाद उस व्यक्ति या समूह को बरी कर देती है। कभी कभी सत्ता
या पुलिस को डाँट लगाती है। यह सब किसी धारावाहिक की तरह निरंतर चलता रहता है! अनेक अदालती फ़ैसलों के ख़िलाफ़ जाकर लोगों को परेशान किया जाता है। अदालतें
खाट पर लेटे दादाजी की तरह कभी-कभार कुछ टिप्पणी भर कर देती हैं। उधर सत्ता किसी उद्दंड
बच्चे की तरह अदालती बातों को अनसुना कर देती है।
अब द्दश्य कुछ ऐसा बन चुका है, जैसे कि अदालतें संज्ञान लेगी, सुनेगी, सख़्त
टिप्पणियाँ करेगी, आदेश देगी और सरकारें समय समय पर उस अदालती सुनवाईयों और आदेशों
को नज़रअंदाज़ करेगी! यानी, एक
तरफ़ क़ानून और संविधान की व्यवस्था में मानने वाले नागरिकों को अदालतें ख़ुश करेगी, दूसरी तरफ़ सनक और मनोरंजन में मानने वाले लोगों को सरकारें
ख़ुश करेगी!
भारत की न्यायपालिका
अनेक बार विवादों में घिरी है। जबलपुर एडीएम मामले में लगा कि अदालत बर्बाद हो गई।
उसके बाद अदालत की प्रतिष्ठा को स्थापित करने में कईं साल लग गए। इंदिरा गांधी के
काल में, विशेष रूप से आपातकाल संस्करण के चलते अदालत के गौरव का काफ़ी पतन हुआ। न्यायपालिका
को लोगों का भरोसा दोबारा हासिल करने में इसके बाद कईं साल लगे। भारतीय न्यायपालिका अनेक उतार-चढ़ाव से इसके बाद भी गुज़रती रही।
इंदिरा गांधी सरकार
ने जिस तरह से संस्थाओं को चौपट किया था, कुछ लोग उससे मौजूदा बर्बादी की तुलना कर सकते हैं। किंतु यह तुलना ग़लत है। इसलिए
ग़लत है, क्योंकि इंदिरा गांधी से संबंधित तमाम पुस्तक, लेख, विश्लेषण, डाटा, आदि पढ़ने से पता
चलता है कि अपने पुत्र संजय गांधी में फँसी इंदिरा ने न्यायपालिका पर सिकंजा बिना किसी
गहन सोच के, यूँ कहे कि नरेंद्र मोदी ने जिस तरह नोटबंदी (नोटबदली) लागू कर दी थी, वैसे ही कसा था।
जबकि आज हर उस संस्था को योजनाबद्ध तरीक़े से नष्ट किया जा रहा है जो किसी भी रूप
में कार्यपालिका को किसी तरह से उत्तरदायी ठहराता है। लोकपाल, मानवाधिकार आयोग, चुनाव आयोग, जाँच संस्थान, सूचना आयोग, अकादमिक जगत, प्रेस और मीडिया, सिविल सोसाइटी, शिक्षा संस्थान, जैसे मंचों का नियंत्रण एक विशेष वातावरण में हो रहा है। आरोप लगता है कि मौजूदा
सत्ता अपनी ताक़त का इस्तेमाल सोची समझी रणनीति के साथ कर रही है। और ऐसे में न्यायपालिका
की भूमिका अहम हो जाती है।
एक ज़माना था, जब कहा जाता था कि
आम आदमी की कहीं सुनवाई नहीं हो तो उसे पत्रकारिता की शरण लेनी चाहिए। उन दिनों अगर
अख़बार में संपादक के नाम पत्र भी छप जाता था तो नौकरशाही में हड़कंप मच जाता था। चुटकियों
में समस्या हल हो जाती थी। लेकिन जब पत्रकारिता भरपूर उद्योग हो गई तो उसकी साख पर
भी सवाल खड़े होने लगे। इसके बाद आम अवाम के सामने न्यायपालिका ही बचती थी।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जब भारतीय अदालतों
ने एक नागरिक के मौलिक तथा संवैधानिक हितों का संरक्षण किया और उसे राहत पहुँचाई। अपने
शुरूआती समय में सुप्रीम कोर्ट किसी दब्बू निष्क्रिय अदालत के रूप में दिखाई देती थी।
केशवानंद भारती मामले ने सुप्रीम कोर्ट की पहचान स्थापित की, जो इसके बाद कईं फ़ैसलों
की वजह से पुख़्ता बनी। किंतु इक्का दुक्का मामलों में वाहवाही और अनेका अनेक मामलों
में निराशा, सरीखा सरकारी व्यवहार न्याय के मंदिर में अप्रत्याशित है।
अलग अलग हाईकोर्ट और
सुप्रीम कोर्ट सरीखे मंच से यह बात आधिकारिक ढंग से कही जा चुकी है कि अदालतों का काम
सिर्फ़ फ़ैसले देना ही नहीं होता, वह उन फ़ैसलों को लागू कराने का संवैधानिक अधिकार धारण किए हुए हैं।
दरअसल अदालतों से अपेक्षा रखी जाती है कि वे टिप्पणियाँ या फ़ैसले ही न दें, बल्कि उसे लागू भी
कराए। किसी सुनवाई के दौरान सख़्त टिप्पणी या किसी मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला। सुनने
में टिप्पणियाँ अच्छी लगती हैं, वो सख़्त फ़ैसले अच्छे लगते हैं। किंतु अदालती आदेश या उसके फ़ैसले सही समय पर
लागू न हो पाए तो माथापच्ची का अंतिम नतीजा प्रक्रिया को मज़ाक वाला सिस्टम बना देता
है।
लोकतंत्र और संविधान में विश्वास करने वाले नागरिकों में सरकारी व्यवहार निराशा
पैदा करता है। ऐसे में उसकी नज़रें न्यायपालिका की तरफ़ होती है। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका
में जारी गड़बड़ियों से आम आदमी बेख़बर हो, लेकिन मुख्य रूप से दो वजहों से ये गड़बड़ियाँ कभी सार्वजनिक
बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। एक तो लोगों को न्यायपालिका की अवमानना के डंडे का डर
सताता है और दूसरे, अपनी तमाम विसंगतियों और गड़बड़ियों के बावजूद न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र
का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ़ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आख़िरी सहारा समझता
है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)