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Dire side of Advance India: वे ख़बरें जिसने देश की संवेदनशीलता को कटघरे में खड़ा किया... क्या हमने आहत होने की आदत डाल दी है?

 
आहत होना... दुखी होना... हम इन सीमाओं को लांध चुके हैंशायद अब आहत होने वाली या दुखी करने वाली ख़बरें हमारे कमरों तक आती रहती हैं... जाती रहती हैं?
 
अक्सर प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक हम हमारी संवेदनशीलता या नैतिकता पर सवाल उठाने का फ़र्ज़ निभाया करते हैं। सड़क पर मर रहे इंसान को ताकते रहते सभ्य समाज के सभ्य लोग अब उस मीडिया की तरह है, जो किसी भी दृश्य को कैमरे में शूट करने पर आमादा है। हम उस दौर में प्रवेश करते जा रहे हैं, जहाँ लोगों को मदद करने वाली कोई ख़बर ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाएगी, बजाए पीड़ितों की ख़बर के।
 
अगस्त 2016 के दौरान उत्तर प्रदेश के बहराइच से एक ख़बर तस्वीरों के साथ आई। सरकार की मुफ़्त इलाज वाली बेहतर योजना होने के बाद कथित रूप से रिश्वत न देने के कारण एक माँ के सामने उसका बीमार बेटा कृष्णा मर गया। कहा गया कि सुई लगाने के लिए कर्मचारी ने बीस रुपये माँगे जो उसके पास नहीं थे। वो मिन्नतें करती रहीं, किंतु वार्ड में मौजूद किसी का दिल नहीं पसीजा। उस माँ की आँखों के सामने उसका बेटा मर गया। सड़क पर अपने बच्चे को गोद में लेकर रोती-विलपती उस माँ की तस्वीर झकझोर गई।
सच ये भी था कि लोगों को अल्पकाल के लिए झकझोरने के बाद यह महज़ एक ख़बर बन कर रह गई। हर मामलों में होता है वैसे ही पूरे देश में ख़बर फैलने के बाद "कारवाई के नाम पर कारवाई" की गई। कारवाई के प्रचलित इतिहास के तर्ज़ पर ही पहले लापरवाही से इनकार किया गया और फिर कर्मचारी का तबादला।
 
उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले से एक और तस्वीर आई। ज़िला अस्पताल में जब पूनम का इलाज नहीं हुआ तो उसे भगा दिया गया। पूनम अस्पताल से बाहर आई और पैदल चलने लगी। टीबी की मरीज़ पूनम को अस्पताल वालों ने कहा कि तुम्हें टीबी है, तुम्हारा इलाज नहीं होगा। दो किमी ही चल पाई थी और उसके शरीर ने जवाब दे दिया। सड़क के किनारे लेट गई। गनीमत है कि राहगीरों की नज़र पड़ गई और डॉक्टर को बुला लिया। फुटपाथ पर ही उसका इलाज हुआ। हालत सुधरी तो उसने हालात के बारे में बयाँ किया। जब अधिकारियों को पता चला कि लोगों को मालूम हो गया है, तो रात को ही एंबुलेंस भेज दिया। जिसमें कोई डॉक्टर नहीं था! अधिकारी एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे।
 
अगस्त 2016 के अंत में उड़ीसा से ऐसी तस्वीरें आईं, जिसने सिर शर्म से झुका दिया। थोड़े दिन सही, लेकिन सिर शर्म से झुका ज़रूर रहा। उड़ीसा के बालासोर ज़िले से एक तस्वीर आई। बालासोर ज़िले के सोरो के एक स्वास्थ्य केंद्र में, केंद्र का स्वीपर एक महिला के शव पर खड़ा है और उसके पैर को मोड़ कर शरीर का हिस्सा तोड़ रहा है। जिससे शव को जैसे तैसे मोड़ कर गठरी में बांधा जा सके। उसके बाद दो कर्मचारी इस मुड़े गए शव को कपड़े में बंद करके बांस के दोनों सिरे से लटका देते हैं और फिर शव को ले जाते हैं।
24 अगस्त, 2016 के दिन बालासोर से 30 किमी की दूरी पर स्थित सोरो में एक महिला ट्रेन की चपेट में आ गई थीं। उसकी मौत हो गई। ये महिला 76 साल की थी, जिनका नाम सालामनी बेहरा था। शव को सोरो के स्वास्थ्य केंद्र तक पहुँचा दिया। वहाँ प्राथमिकी के बाद अब शव को बालासोर केंद्र तक पहुँचाना था। बेहरा के शव को बालासोर ज़िला अस्पताल तक ले जाने के लिए एंबुलेंस उपलब्ध नहीं थी। शव को सारा स्टेशन तक पहुँचाने के लिए ऑटो के बारे में सोचा गया। लेकिन कहा गया कि ऑटो का किराया महंगा पड़ रहा था। कोई भी ऑटो वाला इसके लिए तैयार नहीं था और जो तैयार थे वो 3,500 रुपए मांग रहे थे, किंतु उन्हें इस काम के लिए सिर्फ़ 1,000 रुपए ख़र्च करने का आदेश था।

 
कर्मियों को निर्देश दिए गए कि वे चलकर ही शव को स्टेशन तक पहुँचा दे। स्वास्थ्य केंद्र में शव काफी देर तक पड़ा रहा। काफी वक़्त गुज़र जाने की वजह से शव ठीक से मुड़ नहीं पा रहा था। स्वीपरों ने शव को तोड़ दिया और मोड़ कर गठरी में बंद कर दिया और उसे बांस के दोनों सिरे से लटका कर स्टेशन तक पहुँचाया। इन तस्वीरों ने भारत की तथाकथित संवेदना को कटघरे में खड़ा कर दिया। उड़ीसा ह्यूमन राइट्स कमीशन के चेयर पर्सन बीके मिश्रा ने इस घटना पर स्वतः संज्ञान लेते हुए रेलवे पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल और बालासोर के ज़िला कलेक्टर को नोटिस भेजकर जाँच रिपोर्ट चार हफ़्तों में भेजने के लिए कहा।
इसी दौरान एक तस्वीर मध्य प्रदेश से आई, जहाँ तत्कालीन मुख़्यमंत्री शिवराज सिंह बाढ़ पीड़ित इलाकों का दौरा करने पहुँचे थे। तस्वीर में पानी में शिवराज को उठाते हुए पुलिस कर्मी दिखे। इस तस्वीर ने हमारे तथाकथित सेवकों और सुरक्षा कर्मियों की मज़बूर स्थितियों को फिर एक बार उजागर किया। तस्वीर में पानी का स्तर घुटने के नीचे दिखाई दे रहा था। लेकिन फिर भी मुख़्यमंत्री को पुलिस कर्मी गोद में उठाकर ले जा रहे थे! हेलीकॉप्टर से दौरा करने वाले नेताओं की ज़मीनी हक़ीक़त फिर एक बार सामने आई। कहा जा सकता है कि हेलीकॉप्टर वाला दौरा लोगों ने काफी देखा था, लेकिन शिवराज सिंह "गोद वाला दौरा" दिखा गए।

जन्माष्टमी के दिन आई तस्वीर ने देश को अब जाकर सचमुच झकझोर दिया। उड़ीसा के कालाहांडी से ये ख़बर आई। इसकी तस्वीरों ने मीडिया, नागरिकता से लेकर नौकरशाही और सरकारी व्यवस्था को, जो कि पहले से ही कटघरे में खड़े थे, अपराधी घोषित कर दिया। तस्वीरें देख कर लगा कि यह आदमी कंधे पर अपनी बीवी की लाश ले कर आपके हमारे ड्राइंग रूम में घुस आया है।
 
दाना मांझी अगर अपनी पत्नी की लाश को चादर-चटाई में बांध कर कंधे पर नहीं लादता, तो शायद उड़ीसा राज्य की कोई ख़बर राष्ट्रीय मीडिया में जगह नहीं बनाती। उड़ीसा का दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश कंधे पर लाद कर बारह किमी तक पैदल चलता रहा। साथ में उसकी बेटी चलती रही। दाना मांझी अपनी बीमार पत्नी को गाँव से साठ किलोमीटर दूर भवानीपटना के सरकारी अस्पताल लेकर आए थे। मांझी की पत्नी अमांग देई को टीबी हो गया था। 24 अगस्त की रात उनकी पत्नी ने दम तोड़ दिया। उसके पास पत्नी को वापस घर ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। अस्पताल से मदद मांगी पर किसी ने सुनी नहीं।
आज से 55 साल पहले जब दशरथ मांझी सड़क के अभाव में पत्नी को अस्पताल नहीं पहुँचा पाया और पत्नी की मौत हो गई तो दशरथ मांझी ने व्यवस्था से कोई मदद नहीं मांगी और भीमकाय पहाड़ को काटकर सड़क बना डाली। दशरथ मांझी की कहानी को सिल्वर स्क्रीन के ज़रिए पूरी दुनिया ने देखा। वहीं कालाहांडी के दाना मांझी ने भी कुछ ऐसी ही खुद्दारी दिखाई। कहा गया कि सरकारी व्यवस्थाओं से पहले से परेशान मांझी ने उसके बाद ज़्यादा गिड़गिड़ा कर मदद मांगना ज़रूरी नहीं समझा। उसने पत्नी को कंधे पर लाद लिया और अपनी बेटी के साथ पैदल निकल पड़ा।
 
लोगों ने जब देखा कि कोई कंधे पर लाश लिए यूँ चला जा रहा है, तो सवदा नामक जगह पर पीतांबर नायक नाम के एक आदमी ने उसे रोका और मदद करने का भरोसा दिया। तभी गाँव के कुछ लोगों ने मीडियाकर्मी को फ़ोन कर बताया और कलेक्टर को भी सूचना दी। मीडिया वालों के पहुँचने के घंटे भर के भीतर एंबुलेंस भी पहुँच गया! 6 घंटे तक दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश को लादे चल चुके थे।

 
यहाँ पर भी कार्रवाई के नाम पर कार्रवाई हुई। हालाँकि इस बार कार्रवाई में लापरवाही से इनकार करने के लिए पीड़ित दाना मांझी पर ही आरोप लगाए गए! कालाहांडी की ज़िलाधिकारी बृंदा देवराजन ने कहा कि क़रीब 2 बजे बिना बताए वह शव को लेकर चले गए, अगर मदद मांगी होती तो हम मदद करते। डीएम ने यह भी कहा कि अस्पताल के स्टाफ ने उन्हें बताया कि दाना मांझी ने शराब पी रखी थी। अब सवाल ज़िलाधिकारी के गोलमोल जवाब के सामने भी पूछा जा सकता था कि अस्पताल के कैंपस से बिना किसी प्रमाणपत्र के कोई लाश लेकर कैसे निकल गया? क्या कर्मचारियों ने भी शराब पी रखी थी?
 
मीडिया पर देखकर किसी को नहीं लगता था कि यह शख्स, जो छह घंटे से अपनी पत्नी के शव को लिए जा रहा है वो शराब के नशे में है। क्या उसने शराब के नशे में पत्नी के शव को इस तरह लपेटा होगा, बांधा होगा, कंधे पर लादा होगा? उसके पास दवा के पैसे नहीं थे। उसके पास दूसरे अस्पताल तक ले जाने के पैसे नहीं थे, क्या ये सच्चाई नहीं हो सकती है? उसके साथ उसकी बेटी भी थी। 6 किलोमीटर तक वो "व्यवस्थाओं के शव" को कंधे पर ढो कर चलता रहा। देखने वालों ने भी यह नहीं कहा कि उसने शराब पी रखी थी।
 
27 अगस्त 2016 के दिन पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के सरकारी मेडिकल कॉलेज से आग की ख़बर आई। इस हादसे में तीन लोग मारे गए। 50 से ज़्यादा मासूम बच्चे इस हादसे में हताहत हुए। आग की वजह से इतनी अफरा तफरी फैल गई कि लोग अपने स्वजनों को, जो वहाँ इलाज के लिए भर्ती थे, अपने कंधे पर डालकर उन्हें बचाने के लिए दौड़ने लगे। बच्चों के वार्ड में भी आग फैली और कई बच्चे हताहत हुए।
हर ऐसे हादसे के बाद यहाँ पर भी सबसे पहला मरहम आया मुआवज़े के रूप में। मुआवज़े के नाम पर हमें जितनी राशि बाँटनी पड़ती है, उतनी उसी काम में ख़र्च की जाती तो शायद मुआवज़े की राशि भी कम देनी पड़ती और मुख्य रूप से लोगों की ज़िंदगियाँ ख़तरे में नहीं आती। अस्पतालों में लोग इलाज कराने जाते हैं, लेकिन वहीं पर ऐसे हादसे होने की सैकड़ों ख़बरें आती रहती हैं।
 
इन्हीं दिनों मध्य प्रदेश से फिर एक बार वैसी ही तस्वीर सामने आई। बस में बैठे परिवार में एक महिला की रास्ते में ही मौत हो गई। और फिर पूरे परिवार को शव के साथ बीच रास्ते में ही उतार दिया गया। मध्य प्रदेश के दामोल इलाके में यह हादसा हुआ। दरअसल, रामसिंह लोधी की पत्नी मल्लीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। लेकिन उसके पाँच दिन बाद उनकी पत्नी की तबियत बिगड़ने लगी। रामसिंह उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए एक प्राइवेट बस में बैठे। उनकी पत्नी और वे, इसके अलावा उनके साथ नवजात शिशु तथा उनकी माँ थीं।

 
अस्पताल जाते वक़्त बीच रास्ते में रामसिंह की पत्नी ने दम तोड़ दिया। अब उनकी पत्नी मल्लीबाई शव बन चुकी थी। बस के ड्राइवर ने बीच रास्ते में बस रोक दी और उन्हें नीचे उतरने के लिए कहा गया। उन्होंने कई मिन्नतें की, लेकिन किसी का दिल हिंदुस्तानी नहीं रहा। पूरे परिवार को बीच रास्ते में उतार दिया गया। पाँच दिन के नवजात शिशु और उसकी मृत माँ का लिहाज तक नहीं किया गया। परिवार रास्ते में खड़ा रहा। रामसिंह के हाथों में उनका पाँच दिन का नवजात शिशु था और सड़क पर उनकी पत्नी का शव पड़ा था। वो रोते रहे, विलपते रहे। सड़क से गुज़र रहे मृत्युंजय हज़ारी और राजेश पटेल ने इन्हें देखा और उन्होंने पुलिस को जानकारी दी। हज़ारी इस घटना के साक्षी बने और उन्होंने पुलिस थाने में शिकायत दायर कर ड्राइवर का लाइसेंस तथा बस का परमिट रद्द करने की मांग की।
 
कानपुर से भी दाना मांझी की कहानी फिर से दोहराई गई। कानपुर के लाला लाजपतराय अस्पताल में भर्ती एक मासूम की मौत हो गई। इंतेहा यह थी कि अस्पताल ने अब तक बच्चे को एडमिट भी नहीं किया था और उसे स्ट्रेचर भी नहीं दिया गया था। लिहाजा उस बच्चे की अपने पिता के कंधे पर ही मौत हो गई। बुखार से जूझ रहे अंश को अस्पताल लाया गया। यहाँ अंश के पिता को कहा गया कि वो बच्चे को मेडिकल सेंटर तक ले जाए। एक वार्ड से दूसरे वार्ड में मरीज़ को पहुँचाने के लिए स्ट्रेचर तक की सहूलियत नहीं थी। उसे जिस मेडिकल सेंटर ले जाने को कहा गया वो यहाँ से 250 मीटर की दूरी पर था। मज़बूर पिता ने अपने बच्चे को कंधे पर उठाकर ही जाना मुनासिब समझा।
 
दाना मांझी तो अपनी पत्नी का शव उठा कर चला, लेकिन यह पिता अपने ज़िंदा बच्चे को कंधे पर उठाकर आनन फानन में मेडिकल सेंटर पहुँचने के लिए चल पड़ा। लेकिन पिता के कंधों पर ही अंश ने दम तोड़ दिया।
अस्पताल का दावा था कि बच्चे की मौत उससे पहले हो चुकी थी, जब उसके पिता उसे लेकर उनके पास पहुँचे थे। अस्पताल के मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. आरसी गुप्ता ने कहा, "हमने उसे दाखिल किया था, हमने पाया कि दिल की धड़कन नदारद थी, नब्ज़ नदारद थी, आँखों की पुतलियाँ फिरी हुई थीं और फैल चुकी थीं। हमें उसकी हालत देखकर ही पता चल रहा था कि उसकी मौत हमारे पास लाए जाने से दो-तीन घंटे पहले ही हो चुकी थी...।"
 
कर्नाटक के मुनीराबाद रेलवे स्टेशन पर यह दृश्य जिसने देखा सहम गया। यह वाक़या अगस्त के अंत का था। दरअसल, 3 साल का एक मासूम अपने मृत माता-पिता के पास खेल रहा था। उसे ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि उसके सिर से माता-पिता का साया उठ चुका है। वह लाशों के पास घंटों खेलता रहा। सूचना मिलने पर पुलिस पहुँची तब पूरे मामले का खुलासा हुआ। मृतक की पहचान इराना तलवार (50 साल) और मंजुला (40 साल) के रूप में की गई। परिवार गडग से हुलिगेमा मंदिर घूमने आया था।

 
मासूम घंटों तक यह सोचकर खेलता रहा कि मम्मी-पापा सो रहे हैं। इस बीच, एक यात्री को आशंका हुई तो उसने बच्चे से बात करने की कोशिश की। देवराज यहाँ-वहाँ खेलने लगा। कुछ अन्य यात्रियों को आशंका हुई तो उन्होंने नब्ज़ टटोली और पाया कि दोनों की मौत हो चुकी है। मौके पर पहुँचे पुलिसकर्मी भी अपने आँसू नहीं रोक पाए।
 
वहीं सितम्बर महीने की शुरुआत में भी ऐसी ही तस्वीर देखने के लिए मिली। बागपत की एक महिला अपनी तीन साल की बच्ची की लाश गोद में लेकर ज़िला अस्पताल इमरजेंसी की चौखट पर बैठी थी। बुखार ने बच्ची की जान ले ली थी। माँ उसका शव गाँव ले जाना चाहती थी। विडंबना यह थी कि महिला के पास ढाई हज़ार रुपये नहीं थे, तो निजी एंबुलेंस चालक ने शव बागपत पहुँचाने से इनकार कर दिया।
 
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की संवेदनहीनता पर फिर सवाल उठे। क्योंकि सरकारी सिस्टम ने खुद को बेबस बताकर हाथ खड़े कर दिए थे। मामला मेरठ ज़िला अस्पताल का था। बागपत ज़िले से करीब पाँच किलोमीटर दूर गाँव गौरीपुर निवाड़ा निवासी इमराना की तीन साल की बेटी गुलनाद वायरल बुखार में तप रही थी। जिसका यहाँ इलाज चल रहा था। एक रात क़रीब नौ बजे हालत बिगड़ने पर बच्ची को मेडिकल अस्पताल रेफर कर दिया गया। जहाँ पहुँचते ही डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
क़रीब दो घंटे तक इमराना मेडिकल इमरजेंसी के बाहर खड़ी सरकारी एंबुलेंस से बच्ची के शव को अपने गाँव ले जाने की मिन्नत करती रही। रात करीब 12 बजे इमराना प्राइवेट एंबुलेंस ड्राइवर को 200 रुपये देकर बच्ची के शव को लेकर ज़िला अस्पताल पहुँची। जहाँ इमराना की माँ हमीदन थी। इमराना ज़िला अस्पताल की इमरजेंसी के डॉक्टरों के पास अपनी बच्ची के शव को लेकर पहुँची। इमराना बार-बार डॉक्टरों से गुहार लगाती रही कि उसकी बेटी में जान डाल दो। डॉक्टरों ने साफ़ कहा कि अब बच्ची दुनिया छोड़ चुकी है।
 
उसके बाद इमराना ने डॉक्टरों से कहा कि उसकी बेटी की लाश को गाँव में भिजवा दो। डॉक्टरों ने कहा कि निजी एंबुलेंस किराये पर ले जाओ, इसके अलावा कोई संसाधन नहीं मिलेगा। महिला ने अस्पताल के बाहर खड़ी एंबुलेंस के ड्राइवर से बात की तो उन्होंने किराये के 2500 रुपये मांगे। इमराना के पास इतने पैसे नहीं थे। जिसके चलते वह रात भर अपनी बच्ची की लाश को गोद में लेकर इमरजेंसी के बाहर बैठी रोती रही।
 
बेबस माँ कभी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती, तो कभी खुद ही अपने आँसू पोंछ लेती। बेटी की लाश ले जाने के लिए कोई सुविधा नहीं थी। सरकार दावा करती है कि प्रदेश में सरकारी एंबुलेंस चला रखी हैं, लेकिन इस माँ का दुर्भाग्य देखिए, उसके लिए कोई सुविधा काम नहीं आई। आरोप लगा कि ज़िला अस्पताल में बच्ची को ठीक इलाज नहीं मिला। अस्पताल के डॉक्टरों ने खुद का पीछा छुड़ाने की ख़ातिर बच्ची को मेडिकल कॉलेज में रेफर किया। बाकी कसर सरकारी एंबुलेंस ने पूरी कर दी।
 
हम सचमुच देखना चाहे तो दिखता है कि संवेदनहीनता रुकने का नाम नहीं लेती। सरकारी व्यवस्थाओं से लेकर मानवीय संवेदनशीलता का ढिंढोरा ख़ूब पीटा जाता है। लेकिन ये दोनों किसी चुनावी घोषणापत्र की तरह ही खोखले पाए जाते हैं।
 
सितम्बर की शुरुआत में उड़ीसा से फिर एक बार ऐसी ही तस्वीर सामने आई। उड़ीसा में एक मज़बूर पिता को अपनी सात साल की बेटी का शव लिए छह किलोमीटर तक पैदल चलने को मजबूर होना पड़ा, क्योंकि एंबुलेंस के ड्राइवर ने उसे रास्ते में उतार दिया। सात साल की बरसा खोमडू को मिथाली अस्पताल से मलकानगिरी अस्पताल ले जाया जा रहा था लेकिन रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। जब एंबुलेंस के ड्राइवर को इस बात का पता चला तो एंबुलेंस से उतर जाने को कहा।
ड्राइवर की इस हरक़त पर एक दुखी पिता कुछ नहीं कह पाया और मज़बूरन उतरकर पैदल चलने लगा। जब स्थानीय लोगों ने खेमुडू और उसकी पत्नी को बेटी का शव लेकर पैदल चलते देखा तो कई लोगों ने उसके बारे में पूछा। इसके बाद गाँव वालों ने स्थानीय बीडीओ और चिकित्सा अधिकारियों से संपर्क किया। जिसके बाद दूसरी गाड़ी का इंतज़ाम कराया गया।
 
सितम्बर 2016 के प्रथम सप्ताह में मध्य प्रदेश के नीमच से इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई। नीमच में एक शख्स ने पैसा नहीं होने पर अपनी पत्नी का दाह संस्कार कूड़े से किया। यह कहानी एक आदिवासी शख्स जगदीश की थी, जिसकी पत्नी की मौत बीमारी के कारण हो गई थी। आर्थिक तंगी के कारण जगदीश के पास अपनी पत्नी के दाह संस्कार के लिए लकड़ी ख़रीदने के पैसे भी नहीं थे। जगदीश ने मदद के लिए नगर निगम से भी गुहार लगाई, लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। जगदीश ने बताया कि उसे कई लोगों ने कहा कि पत्नी के शव को नदी में फेंक दें। लेकिन उसने कूड़े, पॉलिथीन और रबड़ से अपनी पत्नी के शव को जलाने का फ़ैसला किया।
उत्तर प्रदेश की एक घटना में पिता को बेटी का शव अस्पताल से ले जाने के लिए भीख मांगने पर मज़बूर होना पड़ा। सितम्बर 2016 के प्रथम सप्ताह की यह घटना उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले की थी। मितौली थानाक्षेत्र के सुआताली की रहने वाली अंजलि (14 साल) को तेज़ बुखार था। उसे गुरुवार को ही मितौली स्वास्थ्य केंद्र लाया गया था। गंभीर हालत देखते हुए डॉक्टरों ने उसे ज़िला अस्पताल रेफर कर दिया। मगर वहाँ पहुँचने तक अंजलि की मौत हो चुकी थी।
 
अंजलि के पिता रमेश के पास अपनी बेटी का शव अस्पताल से घर ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। उन्होंने कुछ लोगों से वाहन का इंतज़ाम करने का अनुरोध किया, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। परेशान और लाचार रमेश अस्पताल के बाहर ही फुटपाथ पर बैठकर लोगों से पैसे के लिए गिड़गिड़ाने लगे। रमेश की लाचारी का वीडियो जब समाचार चैनलों पर वायरल हुआ तो प्रशासन हरक़त में आया। मुख्य विकास अधिकारी अमित सिंह बंसल ने सफाई में कहा कि उन्होंने लड़की के अस्पताल में भर्ती होने और इलाज से संबंधित दस्तावेज़ मंगाए हैं। बंसल ने कहा कि यदि लड़की के पिता ने अस्पताल के स्टाफ़ को सूचित किया होता तो एंबुलेंस की व्यवस्था हो जाती।
इसी सप्ताह मध्य प्रदेश के शहडोल ज़िले में भी ऐसा ही मामला सामने आया। शहडोल के अमिल्हा गाँव निवासी 70 वर्षीय महिला रामबाई काफी दिनों से बीमार चल रही थी। शुक्रवार सुबह इलाज के दौरान कटहरी में रामबाई की मौत हो गई। रामबाई की बेटी की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह अपनी माँ के शव को घर ले जाने के लिए निजी वाहन का इंतज़ाम कर सकें। ऐसे में बेटी और दामाद ने हर संभव जगह पर मदद की गुहार लगाई, लेकिन दोनों को शव वाहन नहीं मिला। इस परिस्थिति में बेटी और दामाद ने आसपास के लोगों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें वहाँ से भी निराशा ही हाथ लगी। दोनों को लगा कि किसी भी दर से उन्हें मदद नहीं मिलेगी तो उन्हें साइकिल पर ही शव ले जाने का सख़्त फ़ैसला लेना पड़ा। बेटी और दामाद ने शव को साइकिल पर रखकर कटहरी से आमिल्हा गाँव तक 20 किलोमीटर का सफ़र तय किया।
 
ऐसा ही वाक़या गुजरात राज्य में भी सामने आया, जहाँ राजकोट एसटी स्टेशन पर एक परिवार अपने बच्चे के शव के साथ घंटों तक बैठा रहा। दाहोद ज़िले का यह परिवार जूनागढ़ ज़िले के मानबीबली गाँव में रहता था। यहाँ पर ये परिवार श्रम कर अपना गुजारा किया करता था। उनके 11 साल के बच्चे सुरेश की तबियत ख़राब होने पर उसे राजकोट शहर के सिविल अस्पताल में 8 सितम्बर के दिन भर्ती कराया गया। सुरेश की तबियत ठीक नहीं होने पर परिवार ने अस्पताल से डिस्चार्ज ले लिया और अपने गाँव जाने के लिए निकल पड़ा। लेकिन राजकोट एसटी स्टेशन पर ही सुरेश ने अंतिम सांसें लीं।
 

परिवार के पास उतने पैसे नहीं थे कि वो एंबुलेंस में या किसी निजी वाहन में सुरेश के शव को मानबीबली गाँव तक ले जा सके। यह परिवार बस की राह देखते देखते सुबह से शाम 4 बजे तक स्टेशन पर बैठा रहा। एसटी कर्मियों और लोगों को पता चलने पर उन्होंने परिवार को आर्थिक मदद की और उसके बाद बच्चे के शव को उसके गाँव तक पहुँचाया गया।
 
2 अक्टूबर, 2016 के दिन ऐसी ही एक घटना फिर से गुज़रात से ही सामने आई। गुज़रात के डांग ज़िले के वघाई से यह वाक़या सामने आया। यहाँ एंबुलेंस को हासिल करने में विफल एक आदिवासी व्यक्ति को अपने बेटे का शव अपने कंधे पर ढोना पड़ा। जिसके बाद यह ख़बर सोशल मीडिया पर भी वायरल होने लगी। इसके बाद गुज़रात सरकार में हड़कंप मच गया। राज्य सरकार हरक़त में आई और उसने पीड़ित परिवार को मदद की।
 
वघाई में मजदूर का काम करने वाले केशु पांचरा अपने 14 वर्षीय बीमार बेटे मीनेष को शहर के सरकारी अस्पताल में ले गए थे। यह परिवार जनजाति बहुल दाहोद का रहने वाला था। डॉक्टरों ने बच्चे को अस्पताल लाए जाने पर मृत घोषित कर दिया। अस्पताल के पास शव वाहन नहीं था और केशु निजी वाहन का इंतज़ाम नहीं कर पाए। इसलिए उन्होंने खुद ही शव ले जाने की अनुमति मांगी। यह घटना दोपहर तब सामने आई जब सोशल मीडिया पर अपने बेटे का शव कंधे पर लिए एक आदिवासी व्यक्ति की तस्वीर फैल गई। ख़बर यह थी कि वघाई के सरकारी अस्पताल ने इस व्यक्ति के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था करने से इनकार कर दिया था।
हर राज्य की उन तमाम घटनाओं की तरह यहाँ भी पीड़ित को ही कटघरे में खड़ा करने के हर संभव प्रयास होते हुए दिखे। सरकारी बयान के अनुसार केशु ने डॉक्टर से कहा कि चूंकि वह पास में ही रहते हैं, तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। यह सरकारी बयान खुद-ब-खुद सरकारी व्यवस्थाओं के साथ मज़ाक ही था। क्योंकि, खुद सरकारी बयान में आगे जोड़ा गया था कि उन्होंने शव को उसके गाँव तक ले जाने के लिए भी व्यवस्था कर दी है।
 
अब यह तो वाक़ई अजीब था कि एक व्यक्ति अपने बच्चे का शव कंधे पर लाद कर निकलता है। कोई व्यक्ति इसे क्लिक करके सोशल मीडिया पर डालता है। उसके बाद ये तस्वीरें वायरल होती हैं। फिर सरकार तक ख़बर पहुँचती है और सरकार व्यवस्था करती है। इतनी सारी प्रक्रियाएँ ज़ल्द ही तो नहीं हुई होगी। स्वाभाविक है कि वक़्त तो लगा होगा इन सबमें। और सरकारी बयान में पल्ला झाड़ा गया कि पीड़ित ने खुद कहा कि वे पास में ही रहते हैं तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। यानी कि इतना सारा वक़्त गुज़रा और वो आदमी फिर भी पास ही में रहते हुए भी नहीं पहुँचा!
 
8 नवम्बर 2016 के दिन पाँच सौ तथा एक हज़ार के पुराने नोट बंद किए जाने की ऐतिहासिक घोषणा के बाद भी इतिहास नहीं बदला। छोटी करेंसी का इंतज़ाम नहीं कर पाने की वजह से मेडिकल कॉलेज के चिकित्सकों ने मरीज़ का इलाज बंद कर दिया। आईसीयू में भर्ती मरीज़ का वेंटिलेटर हटा दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई। परिजनों ने हंगामा किया तो मेडिकल कॉलेज कर्मियों ने उन्हें पीटा और पुलिस के हवाले कर दिया। ये घटना 9 नवम्बर, 2016 की रात को एफएच मेडिकल कॉलेज में हुई। परिजनों ने अस्पताल प्रशासन पर आरोप लगाए, तो वहीं अस्पताल वालों ने मरीज़ के परिजनों पर आरोप लगाए।
इन्हीं दिनों बिहार के बेगूसराय में दुष्कर्म पीड़िता 5 साल की मासूम को एंबुलेंस के लिए घंटों भटकना पड़ा। क्योंकि एंबुलेंस चालक ने पाँच सौ और एक हज़ार के नोट लेने से इनकार कर दिया। दूसरी ओर लोग फ़ैसले को ऐतिहासिक दर्ज कराने में लगे थे, वहीं यहाँ वह पुराना इतिहास बदलता नजर नहीं आया।
साल बदल जाएँगे, लेकिन मंज़र नहीं बदलेंगे इसका यक़ीन हमारे राज्य हमें दिला ही देते हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी की वजह से मरीज़ों या नवजात शिशुओं की मौतों का हमारे यहाँ पुराना इतिहास है। ग़ज़ब है कि कभी हमारी चिकित्सा व्यवस्था ऑक्सीजन सिलेंडर लगाकर मुर्दों को ज़िंदा रखने का भगवान सरीखा काम करती नज़र आ जाती है, कभी यही व्यवस्था कहती है कि ऑक्सीजन की कमी की वजह से इतने मरीज़ अपनी जान गँवा बैठे।
 
जून 2017 के दौरान मध्य प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी की वजह से 17 मरीजों की मौत हो गई। इसी साल अगस्त 2017 के दौरान, देश के स्वतंत्रता दिन से महज कुछ घंटे पहले ही, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर स्थित अस्पताल में भी ऐसा ही दर्दनाक वाक़या हुआ, जहाँ कथित रूप से ऑक्सीजन की कमी के चलते दो दिनों में 30 से ज़्यादा बच्चे मारे गए। यहाँ महज 5 दिनों में ऑक्सीजन की कमी तथा दूसरी अन्य समस्याओं के चलते 60 से ज़्यादा मरीज़ मारे गए थे।
 
लिखने की ज़रूरत नहीं कि दोनों मामलों में अस्पताल से लेकर सरकार के तंत्र ने कौन कौन से मंत्र फूंके होंगे। इन्हीं दिनों रायपुर के सरकारी अस्पताल से भी ऐसी ही घटना सामने आई। उधर रांची के अस्पतालों में 117 दिनों में 164 बच्चे अपनी जान गँवा बैठे थे।
 
बच्चों का लटक कर नदी पार करके पढ़ने जाना, शवों की अंतिमयात्रा का पानी से होकर गुज़रना जैसी घटनाएँ हमारे कथित विकसित राज्यों में भी देखने के लिए मिली हैं। अपनी जान जोख़िम में डालकर, अस्थायी पुलियों से नदी पार कर रहे बच्चों की तस्वीरें सदैव देखने के लिए मिल जाती हैं। मानसून के वक़्त तो शवों को भी उफनते पानी से ले जाकर स्मशान तक पहुँचाया जाता है।
 
ये सभी वो वाक़ये हैं जिनमें सरकारी कमजोरियों के साथ साथ नागरिकी खोखलापन उभर कर सामने आता है। ये वो मंज़र हैं जहाँ सभी एक दूसरे को दोष देते रहते हैं। किंतु व्यवस्थाएँ तो अपने हालात को चीख़ चीख़ कर बयाँ कर ही जाती हैं। सरकारें या नौकरशाही के पास अपने अपने तर्क हैं और कदम उठाने वाली घोषणाएँ हैं या किसी समय कमेटी-समेटी बनाने वाले प्रचलित तरीक़े हैं। लोगों के पास सरकारों को भला-बुरा कहकर फ़र्ज़पूर्ति करने की परंपरा है। किंतु जिन्होंने इसे भुगता हो, वे सभी सरकारी-नागरिकी अभिगम के चलते निशब्द हो चुके होते हैं।
ये कुछ ऐसे ताज़ा उदाहरण हैं जो सरकारों और हम आम जनता की मिलीभगत के सबूत हैं। हर दिन और हर जगह ऐसे मामले मिल जाते हैं। कभी कभार इससे भी दुखद और कभी कभार ऐसे ही मंज़र वाले। यह मानना भी ग़लत होगा कि ये कुछेक राज्यों की समस्याएँ हैं। यह समझना होगा कि ये राज्यों की नहीं, बल्कि भारत की समस्याएँ हैं।
 
दुखद है... रुकना चाहिए... इसमें नया कुछ नहीं है... ऐसी प्रतिक्रियाएँ देने वाले भारतीय नागरिक भी मिल जाएँगे। सीमा पर जवान जान गँवाते रहते हैं, महंगाई बढ़ती रहती है, सरकारें वादाख़िलाफ़ी करती रहती हैं, भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता, ये तो सभी जगह चलता है इसमें हम क्या कर सकते हैं... ये सब नागरिकी भावनाएँ हैं, जो आम तौर पर देखने के लिए मिल जाती हैं।
 
हमारे यहाँ लावारिश शव मिलने की सैकड़ों घटनाएँ होती हैं। काग़ज़ पर इनके सम्मानपूर्वक निकाल की कई सारी व्यवस्थाएँ हैं और योजनाएँ भी हैं। लेकिन इन शवों को जिन तौर-तरीक़ों के साथ ले जाया जाता है वो सर्वविदित है। उन शवों पर जब कोई अधिकार लेकर नहीं आता तब इन शवों का निकाल और निकाल के तरीक़े भी कई अरसे से मीडिया की ख़बरों में छाये रहते हैं।
 
शायद हम जिसे पुराना भारत कहते हैं उस भारत में भी अपने दुश्मनों के शवों को सम्मानपूर्वक रखा जाता था। उन शवों को लौटाने के या उनके निकाल करने के तरीक़ों में भी इंसानियत दिखाई देती थी। जबकि आज शहर के कोल्ड रूम से निकाल की जगहों तक शव जिस तरह पहुँचाए जाते हैं, देखकर नहीं लगता कि हम उस पुराने भारत जितने सांस्कृतिक रहे हो। यहाँ एक अपराधी जेल से छूट जाए तब उसे लेने के लिए 1,300 गाड़ियों का काफिला पहुँच जाता है, वहीं सैकड़ों दाना मांझी हैं जिन्हें एंबुलेंस ना मिलने पर अपनों की लाश कंधों पर उठाकर सड़कों पर चलना पड़ता है!
 
21वीं सदी में भी कई बार मीडिया ने दिखाया है कि लोरियों में ठूंस कर इन शवों को ले जाया जाता है। ये शव किसी का संतान होगा, किसी का पिता होगा, किसी की माता होगी...। उसने भी जैसे तैसे ज़िंदगी को जिया होगा, देश को सोचा होगा। शायद हम ज़रूरत से ज़्यादा आध्यात्मिक बन गए हैं, जहाँ मृत्यु के बाद सब समाप्त हो जाता है!!! गड्ढ़े खोदकर जिन शवों को दफनाया जाता है, उन्हें दूसरे दिन कुत्ते कुरेदते हो ऐसी तस्वीरें भी सामने आ चुकी हैं।
हर ऐसे मामलों हम नागरिक आहत होते हैं और सरकार को कोसते हैं। सरकार का भी नज़रिया साफ़ होता है। वह मुआवज़ा देती है, तबादलें करती है।
 
हम सभी के लिए ऐसी ख़बरें हमें आहत करती हैं। किंतु आहत होने वाली निरंतर घटनाओं ने हमारे आहत होने के स्वभाव को ही सख़्त बना दिया है। ऐसी ख़बरें मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ है, हम नागरिकों के लिए किसीको कोसने का मौका। डिजिटल इंडिया के नागरिकों के लिए ये शेयर करने वाली ख़बर या अपने लेखों में उड़ेलकर दुखी होने का कर्तव्यपालन करने का अवसरमात्र। ऐसी ख़बरें, वह तस्वीरें, चीख़ चीख़ कर  कहते हैं कि जी हां, इंडिया और भारत में फर्क है।
 
हमने यहाँ कुछेक ताज़ा ख़बरों को ही जगह दी है। उपरांत ये मानना ग़लत होगा कि ऐसा मंज़र केवल गिने चुने राज्यों में ही देखने के लिए मिलता होगा। भारत के लगभग तमाम राज्यों की सरकारी अस्पतालों में कुछ कुछ ऐसे ही मंज़र देखने के लिए मिलते हैं। कुछ प्रदेश वाले ज़रूर कह सकते हैं कि हमारे यहाँ लाश को ढो कर चलने वाली स्थिति नहीं है। और वे यह कहकर भारत की आधुनिकता का मजा ले सकते हैं।
 
ऐसे लोगों को समझना होगा कि भारत इक्का दुक्का प्रदेशों से बना देश नहीं है। ये मानना भी ग़लत होगा कि ऐसी तस्वीरें कुछ अवधि के दौरान ही देखी जाती होगी। सच तो यह है कि हमारी सरकारी व्यवस्था तथा हमारी नागरिकी संवेदनशीलता, दोनों को खोखला साबित करने वाली ऐसी तस्वीरें निरंतर जारी दुखद प्रक्रिया सी है।
 
मौत के बाद भी शव को इंसान होने का सम्मान प्राप्त नहीं हो पाता। हम निरंतर रूप से मानवता की मौत वाले शीर्षक से ख़बरें देख दूसरों को कोसने की आत्मसंतुष्टि प्राप्त कर लेते हैं। फिर ये ख़बरें मर जाती हैं, क्योंकि किसी नयी ख़बर को जन्म लेना होता है! कहा जाता है कि तस्वीरें लफ़्जों से ज़्यादा बयाँ कर जाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता ने जन्माष्टमी की रात इन तस्वीरों और ख़बरों को लेकर कहा था - इस ख़बर को मरना होगा, क्योंकि रात को कान्हा को जन्म लेना है।
 
हम नागरिक इन सब चीज़ों को शायद एक आदत बना चुके हैं। आहत होने की आदत है यह! आहत होने की आदत हम डाल चुके हैं! हम आहत ज़रूर होते हैं। इन तमाम ख़बरों के समय, महिला अपराधों के समय हम प्रेशर कुकर की तरह गर्म होने लगते हैं। जिसकी सीटी कभी न कभी ठंडी पड़ ही जाती है। हो सकता है कि दाना मांझी जैसी घटनाओं के बाद हमारी आहत होने की सीमा और ज़्यादा ऊँची हो जाए। शायद, आहत होना... दुखी होना... हम इन सीमाओं को लांध चुके हैं। अब तो आहत होने वाली या दुखी करने वाली ख़बरें हमारे कमरों तक आती रहती हैं... जाती रहती हैं!!!
 
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)