आहत होना...
दुखी होना... हम इन सीमाओं को लांध चुके हैं, शायद अब आहत होने वाली या दुखी करने
वाली खबरें हमारे कमरों तक आती रहती हैं... जाती रहती हैं?
अक्सर प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक हम हमारी संवेदनशीलता या नैतिकता पर सवाल उठाने का
फर्ज निभाया करते हैं। सड़क पर मर रहे इंसान को तांक रहे सभ्य समाज के सभ्य लोग अब
उस मीडिया की तरह है जो किसी भी दृश्य को कैमरे में शूट करने पर आमादा है। हम उस
दौर में प्रवेश करते जा रहे हैं, जहां लोगों को मदद करनेवाली कोई खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाएगी, बजाय पीड़ितों की खबर के।
अगस्त 2016 के दौरान उत्तरप्रदेश
के बहराइच से एक खबर तस्वीरों के साथ आई। सरकार की मुफ्त इलाज वाली बेहतर योजना होने
के बाद कथित रूप से रिश्वत न देने के कारण एक माँ के सामने उसका बीमार बेटा कृष्णा
मर गया। कहा गया कि सुई लगाने के लिए कर्मचारी ने बीस रुपये मांगे जो उसके पास नहीं
थे। वो मिन्नतें करती रही, लेकिन वार्ड में मौजूद किसी का दिल नहीं पसीजा। उस माँ की आंखों के सामने उसका बेटा मर गया।
सड़क पर अपने बच्चे को गोद में लेकर रोती-विलपती उस माँ की तस्वीर झकझोर गई। हालांकि
सच ये भी था कि लोगों को अल्पकाल के लिए झकझोरने के बाद यह महज एक खबर बन कर रह
गई। हर मामलों में होता है वैसे ही पूरे देश में खबर फैलने के बाद “कारवाई
के नाम पर कारवाई” की गई। कारवाई के प्रचलित इतिहास के तर्ज पर ही
पहले लापरवाही से इनकार किया गया और फिर कर्मचारी का तबादला।
उत्तरप्रदेश के आगरा जिले से एक
और तस्वीर आई। ज़िला अस्पताल में जब पूनम का इलाज नहीं हुआ तो उसे भगा दिया गया। पूनम अस्पताल से बाहर आई और पैदल चलने लगी।
टीबी की मरीज़ पूनम को अस्पताल वालों ने कहा कि तुम्हें टीबी है, तुम्हारा इलाज नहीं
होगा। दो किमी ही चल पाई थी और उसके शरीर ने जवाब दे दिया। सड़क के किनारे लेट गई। गनीमत
है कि राहगीरों की नज़र पड़ गई और डॉक्टर को बुला लिया। फुटपाथ पर ही उसका इलाज हुआ।
हालत सुधरी तो उसने हालात के बारे में बयां किया। जब अधिकारियों को पता चला कि लोगों
को मालूम हो गया है, तो रात को ही एंबुलेंस भेज दिया। जिसमें कोई डॉक्टर नहीं था!!! अधिकारी
एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे।
अगस्त 2016 के अंत में उड़ीसा से ऐसी तस्वीरें आई, जिसने सिर शर्म से झुका दिया। थोड़े दिन सही, लेकिन सिर शर्म से
झुका ज़रूर रहा। उड़ीसा के बालासोर जिले से एक तस्वीर आई। बालासोर जिले के सोरो में,
एक स्वास्थ्य केंद्र में, केंद्र का स्वीपर एक महिला के शव पर खड़ा है और उसके पैर
को मोड़ कर शरीर का हिस्सा तोड़ रहा है। जिससे शव को जैसे तैसे मोड़ कर गठरी में बांधा
जा सके। उसके बाद दो कर्मचारी इस मुड़े गए शव को कपड़े में बंद करके बांस के दोनों सिरे से लटका देते हैं और फिर शव को ले जाते हैं। 24 अगस्त, 2016 के दिन बालासोर से
30 किमी की दूरी पर स्थित सोरो में एक महिला ट्रेन की चपेट में आ गई थी। उसकी मौत हो
गई। ये महिला 76 साल की थी, जिसका नाम सालामनी बेहरा था। शव को सोरो के स्वास्थ्य
केंद्र तक पहुंचा दिया। वहां प्राथमिकी के बाद अब शव को बालासोर केंद्र तक पहुंचाना
था। बेहरा के शव को बालासोर ज़िला अस्पताल तक ले जाने के लिए एंबुलेंस उपलब्ध
नहीं थी। शव को सारा स्टेशन तक पहुंचाने के लिए ऑटो के बारे में सोचा गया। लेकिन
कहा गया कि ऑटो का किराया महंगा पड़ रहा था। कोई भी ऑटो वाला इसके लिए तैयार नहीं था
और जो तैयार थे वो 3,500 रुपए मांग रहे थे, लेकिन उन्हें इस काम के लिए सिर्फ 1,000
रुपए खर्च करने का आदेश था। कर्मियों को निर्देश दिए गए कि वे चलकर ही शव को
स्टेशन तक पहुंचा दे। स्वास्थ्य केंद्र में शव काफी देर तक पड़ा रहा। काफी वक्त गुजर
जाने की वजह से शव ठीक से मुड़ नहीं पा रहा था। स्वीपरों ने शव को तोड़ दिया और मोड़ कर
गठरी में बंद कर दिया और उसे बांस के दोनों सिरे से लटका कर स्टेशन तक पहुंचाया। इन
तस्वीरों ने भारत की तथाकथित संवेदना को कटघरे में खड़ा कर दिया। उड़ीसा ह्यूमन राइट्स
कमीशन के चेयरपर्सन बीके मिश्रा ने इस घटना पर सुमोटो लेते हुए रेलवे पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल और बालासोर के ज़िला कलेक्टर को नोटिस भेजकर जांच रिपोर्ट चार हफ़्तों में भेजने
के लिए कहा।
इसी दौरान एक तस्वीर मध्यप्रदेश
से आई, जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बाढ़ पीड़ित इलाकों का दौरा करने पहुंचे
थे। तस्वीर में पानी में शिवराज को उठाते हुए पुलिस कर्मी दिखे। इस तस्वीर ने हमारे
तथाकथित सेवकों और सुरक्षा कर्मियों की मजबूर स्थितियों को फिर एक बार उजागर किया।
तस्वीर में पानी का स्तर घुटने के नीचे दिखाई दे रहा था। लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री
को पुलिस कर्मी गोद में उठाकर ले जा रहे थे! हेलीकॉप्टर से दौरा करने वाले नेताओं की
जमीनी हकीकत फिर एक बार सामने आई। कहा जा सकता है कि हेलीकॉप्टर वाला दौरा लोगों ने काफी देखा था, लेकिन शिवराज सिंह “गोद वाला दौरा” दिखा
गए!
जन्माष्टमी के दिन आई तस्वीर ने
देश को अब जाकर सचमुच झकझोर दिया। उड़ीसा के कालाहांडी से ये खबर आई। इसकी तस्वीरों
ने मीडिया, नागरिकता से लेकर नौकरशाही और सरकारी व्यवस्था को, जो कि पहले से ही
कटघरे में खड़े थे, अपराधी घोषित कर दिया। तस्वीरें देख कर लगा कि यह आदमी कंधे पर अपनी
बीवी की लाश ले कर आपके हमारे ड्राइंग रूम में घुस आया है। दाना मांझी अगर अपनी पत्नी
की लाश को चादर-चटाई में बांध कर कंधे पर नहीं लादता, तो शायद उड़ीसा राज्य की कोई
खबर राष्ट्रीय मीडिया में छायी नहीं रहती। उड़ीसा का दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश कंधे
पर लाद कर बारह किमी तक पैदल चलता रहा। साथ में उसकी बेटी चलती रही। दाना मांझी
अपनी बीमार पत्नी को गांव से साठ किलोमीटर दूर भवानीपटना के सरकारी अस्पताल लेकर आए
थे। मांझी की पत्नी अमांग देई को टीबी हो गया था। 24 अगस्त की रात उनकी पत्नी ने दम
तोड़ दिया। उसके पास पत्नी को वापस घर ले जाने के लिए पैसे नहीं थे। अस्पताल से मदद मांगी पर किसी ने सुनी नहीं।
आज से 55 साल पहले जब दशरथ मांझी
सड़क के अभाव में पत्नी को अस्पताल नहीं पहुंचा पाया और पत्नी की मौत हो गई तो दशरथ
मांझी ने व्यवस्था से कोई मदद नहीं मांगी और भीमकाय पहाड़ को काटकर सड़क बना डाली। दशरथ
मांझी की कहानी को सिल्वर स्क्रीन के जरिये पूरी दुनिया ने देखा। वहीं कालाहांडी के
दाना मांझी ने भी कुछ ऐसी ही खुद्दारी दिखाई। कहा गया कि सरकारी व्यवस्थाओं से पहले
से परेशान मांझी ने उसके बाद ज्यादा गिड़गिड़ा कर
मदद मांगना ज़रूरी नहीं समझा। उसने पत्नी को कंधे पर लाद लिया और अपनी बेटी के साथ पैदल
निकल पड़ा। लोगों ने जब देखा कि कोई कंधे पर लाश लिये यूं चला जा रहा है, तो सवदा नामक
जगह पर पीतांबर नायक नाम के एक आदमी ने उसे रोका और मदद करने का भरोसा दिया। तभी गांव
के कुछ लोगों ने मीडियाकर्मी को फोन कर बताया और कलेक्टर को भी सूचना दी। मीडिया वालों
के पहुंचने के घंटे भर के भीतर एंबुलेंस भी पहुंच गया! 6 घंटे
तक दाना मांझी अपनी पत्नी की लाश को लादे चल चुके थे।
यहां पर भी कार्रवाई के नाम पर
कार्रवाई हुई। हालांकि इस बार कार्रवाई में लापरवाही से इनकार करने के लिए पीड़ित
दाना मांझी पर ही आरोप लगाए गए! कालाहांडी की ज़िलाधिकारी ब्रुंडा देवराजन
ने कहा कि करीब 2 बजे बिना बताए वह शव को लेकर चले गए। अगर मदद मांगी होती तो हम मदद
करते। डीएम ने यह भी कहा कि अस्पताल के स्टाफ ने उन्हें बताया कि दाना मांझी ने शराब
पी रखी थी। अब सवाल ज़िलाधिकारी के गोलमोल जवाब के सामने भी पूछा जा सकता था कि अस्पताल
के कैंपस से बिना किसी प्रमाणपत्र के कोई लाश लेकर कैसे निकल गया? क्या कर्मचारियों
ने भी शराब पी रखी थी? मीडिया पर देखकर किसी को नहीं लगता था कि
यह शख्स, जो छह घंटे से अपनी पत्नी के शव को लिये जा रहा है वो शराब के नशे में है।
क्या उसने शराब के नशे में पत्नी के शव को इस तरह लपेटा होगा, बांधा होगा, कंधे पर
लादा होगा? उसके पास दवा के पैसे नहीं थे। उसके पास दूसरे अस्पताल
तक ले जाने के पैसे नहीं थे, क्या ये
सच्चाई नहीं हो सकती है? उसके साथ उसकी बेटी भी थी। 6 किलोमीटर
तक वो “व्यवस्थाओं के शव” को कंधे पर
ढो कर चलता रहा। देखने वालों ने भी यह नहीं कहा कि उसने शराब पी रखी थी।
27 अगस्त 2016 के दिन पश्चिम
बंगाल के मुर्शिदाबाद के सरकारी मेडिकल कॉलेज से आग की खबर आई। इस हादसे में तीन
लोग मारे गए। 50 से ज्यादा मासूम बच्चे इस हादसे में हताहत हुए। आग की वजह से इतनी
अफरा तफरी फैल गई कि लोग अपने स्वजनों को, जो वहां इलाज के लिए भर्ती थे, अपने कंधे
पर डालकर उन्हें बचाने के लिए दौड़ने लगे। बच्चों के वार्ड में भी आग फैली और कई
बच्चे हताहत हुए। हर ऐसे हादसे के बाद यहां पर भी सबसे पहला प्रचलित मरहम आया
मुआवजे के रूप में। मुआवजे के नाम पर हमें जितनी राशिया बांटनी पड़ती है, उतनी उसी
काम में खर्च की जाती तो शायद मुआवजे की राशि भी कम देनी पड़ती और मुख्य रूप से
लोगों की जिंदगियां खतरे में नहीं आती। सोचिए, अस्पतालों में लोग इलाज कराने जाते
हैं, लेकिन वहीं पर ऐसे हादसे होने की सैकड़ों खबरें आती रहती हैं।
इन्हीं दिनों मध्यप्रदेश से फिर एक
बार वैसी ही तस्वीर सामने आई। बस में बैठे परिवार में एक महिला की रास्ते में ही मौत
हो गई। और फिर पूरे परिवार को शव के साथ बीच रास्ते में ही उतार दिया गया।
मध्यप्रदेश के दामोल इलाके में यह हादसा हुआ। दरअसल, रामसिंह लोधी की पत्नी
मल्लीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। लेकिन उसके पांच दिन बाद उनकी पत्नी की तबियत
बिगड़ने लगी। रामसिंह उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए एक प्राइवेट बस में बैठे। उनकी
पत्नी और वे, इसके अलावा उनके साथ नवजात शिशु तथा उनकी माँ थी। अस्पताल जाते वक्त
बीच रास्ते में रामसिंह की पत्नी ने दम तोड़ दिया। अब उनकी पत्नी मल्लीबाई शव बन
चुकी थी। बस के ड्राइवर ने बीच रास्ते में बस रोक दी और उन्हें नीचे उतरने के लिये
कहा गया। उन्होंने कई मिन्नतें की, लेकिन किसी का दिल हिंदुस्तानी नहीं रहा। पूरे
परिवार को बीच रास्ते में उतार दिया गया। पांच दिन के नवजात शिशु और उसकी मृत माँ
का लिहाज तक नहीं किया गया। परिवार रास्ते में खड़ा रहा। रामसिंह के हाथों में उनका
पांच दिन का नवजात शिशु था और सड़क पर उनकी पत्नी का शव पड़ा था। वो रोते रहे,
विलपते रहे। सड़क से गुजर रहे मृत्युंजय हजारी और राजेश पटेल ने उन्हें देखा और
उन्होंने पुलिस को जानकारी दी। हजारी इस घटना के साक्षी बने और उन्होंने पुलिस थाने
में शिकायत दायर कर ड्राइवर का लाइसेंस तथा बस का परमिट रद्द करने की मांग की।
कानपुर से भी दाना मांझी की
कहानी फिर से दोहराई गई। कानपुर के लाला लाजपतराय अस्पताल में भर्ती एक मासूम की
मौत हो गई। इंतेहा यह थी कि अस्पताल ने अब तक बच्चे को एडमिट भी नहीं किया था और
उसे स्ट्रेचर भी नहीं दिया गया था। लिहाजा उस बच्चे की अपने पिता के कंधे पर ही मौत
हो गई। बुखार से जूझ रहे अंश को अस्पताल लाया गया। यहां अंश के पिता को कहा गया कि
वो बच्चे को मेडिकल सेंटर तक ले जाए। एक वार्ड से दूसरे वार्ड में मरीज़ को
पहुंचाने के लिए स्ट्रेचर तक की सहूलियत नहीं थी। उसे जिस मेडिकल सेंटर ले जाने को
कहा गया वो यहां से 250 मीटर की दूरी पर था। मजबूर पिता ने अपने बच्चे को कंधे पर
उठाकर ही जाना मुनासिब समझा। दाना मांझी तो अपनी पत्नी का शव उठा कर चला, लेकिन यह
पिता अपने जिंदा बच्चे को कंधे पर उठाकर आननफानन में मेडिकल सेंटर पहुंचने के लिए चल पड़ा। लेकिन पिता के कंधों पर ही अंश ने दम तोड़ दिया।
अस्पताल का दावा था कि बच्चे की मौत
उससे पहले हो चुकी थी, जब उसके
पिता उसे लेकर उनके पास पहुंचे थे। अस्पताल के मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. आरसी गुप्ता
ने कहा, "हमने उसे दाखिल
किया था, हमने पाया कि दिल की धड़कन नदारद
थी, नब्ज़ नदारद थी, आंखों की पुतलियां फिरी हुई थीं और फैल चुकी थीं। हमें उसकी हालत देखकर ही
पता चल रहा था कि उसकी मौत हमारे पास लाए जाने से दो-तीन घंटे पहले ही हो चुकी थी...।"
कर्नाटक के मुनीराबाद रेलवे स्टेशन
पर यह दृश्य जिसने देखा सहम गया। यह वाक़या अगस्त के अंत का था। दरअसल, 3 साल का एक मासूम अपने मृत माता-पिता के
पास खेल रहा था। उसे जरा भी अंदाजा नहीं था कि उसके सिर से माता-पिता का साया उठ चुका
है। वह लाशों के पास घंटों खेलता रहा। सूचना मिलने पर पुलिस पहुंची तब पूरे मामले का खुलासा
हुआ। मृतक की पहचान इराना तलवार (50 साल) और मंजुला (40 साल) के रूप में की गई। परिवार
गडग से हुलिगेमा मंदिर घूमने आया था। मासूम घंटों तक यह सोचकर खेलता रहा कि मम्मी-पापा
सो रहे हैं। इस बीच, एक यात्री को आशंका हुई तो उसने बच्चे से बात करने की कोशिश की।
देवराज यहां-वहां खेलने लगा। कुछ अन्य यात्रियों को आशंका हुई तो उन्होंने नब्ज टटोली
और पाया कि दोनों की मौत हो चुकी है। मौके पर पहुंचे पुलिसकर्मी भी अपने आंसू नहीं
रोक पाए।
वहीं सितम्बर महीने की शुरुआत में
भी ऐसी ही तस्वीर देखने के लिए मिली। बागपत की एक महिला अपनी तीन साल की बच्ची की
लाश गोद में लेकर ज़िला अस्पताल इमरजेंसी की चौखट पर बैठी थी। बुखार ने बच्ची की जान
ले ली थी। माँ उसका शव गांव ले जाना चाहती थी। विडंबना यह थी कि महिला के पास ढाई हज़ार
रुपये नहीं थे, तो निजी एंबुलेंस
चालक ने शव बागपत पहुंचाने से इनकार कर दिया। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की संवेदनहीनता
पर फिर सवाल उठे। क्योंकि सरकारी सिस्टम ने खुद को बेबस बताकर हाथ खड़े कर दिए थे।
मामला मेरठ ज़िला अस्पताल का था। बागपत जिले से करीब पांच किलोमीटर दूर गांव गौरीपुर
निवाड़ा निवासी इमराना की तीन साल की बेटी गुलनाद वायरल बुखार में तप रही थी। जिसका
यहां इलाज चल रहा था। एक रात करीब नौ बजे हालत बिगड़ने पर बच्ची को मेडिकल अस्पताल
रेफर कर दिया गया। जहां पहुंचते ही डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
करीब दो घंटे तक इमराना मेडिकल इमरजेंसी
के बाहर खड़ी सरकारी एंबुलेंस से बच्ची के शव को अपने गांव ले जाने की मिन्नत करती
रही। लेकिन उसने सिस्टम का हवाला देकर दूसरे जनपद में जाने से इनकार कर दिया। रात करीब
12 बजे इमराना प्राइवेट एंबुलेंस ड्राइवर को 200 रुपये देकर बच्ची के शव को लेकर ज़िला
अस्पताल पहुंची। जहां इमराना की माँ हमीदन थी। इमराना ज़िला अस्पताल की इमरजेंसी के
डॉक्टरों के पास अपनी बच्ची के शव को लेकर
पहुंची। इमराना बार-बार डॉक्टरों से गुहार लगाती रही कि उसकी बेटी में जान डाल दो।
डॉक्टरों ने साफ कहा कि अब बच्ची दुनिया छोड़ चुकी है। उसके बाद इमराना ने डॉक्टरों
से कहा कि उसकी बेटी की लाश को गांव में भिजवा दो। डॉक्टरों ने कहा कि निजी एंबुलेंस
किराये पर ले जाओ, इसके अलावा कोई संसाधन नहीं मिलेगा। महिला ने अस्पताल के बाहर खड़ी
एंबुलेंस के ड्राइवर से बात की तो उन्होंने किराये के 2500 रुपये मांगे। इमराना के
पास इतने पैसे नहीं थे। जिसके चलते वह रात भर अपनी बच्ची की लाश को गोद में लेकर इमरजेंसी
के बाहर बैठी रोती रही।
बेबस माँ कभी जोर-जोर से रोने लगती,
तो कभी खुद ही अपने आंसू पोंछ लेती। बेटी की लाश ले जाने के लिए कोई सुविधा नहीं थी।
सरकार दावा करती है कि प्रदेश में सरकारी एंबुलेंस चला रखी हैं, लेकिन इस माँ का दुर्भाग्य देखिए, उसके लिए कोई सुविधा काम नहीं आई। आरोप लगा
कि ज़िला अस्पताल में बच्ची को ठीक इलाज नहीं मिला। अस्पताल के डॉक्टरों ने खुद का पीछा
छुड़ाने की खातिर बच्ची को मेडिकल कॉलेज में रेफर किया। बाकी कसर सरकारी एंबुलेंस ने
पूरी कर दी।
हम सचमुच देखना चाहे और देखे तो
पाया जाता है कि संवेदनहीनता रुकने का नाम नहीं लेती। सरकारी व्यवस्थाओं से लेकर
मानवीय संवेदनशीलता का ढिंढोरा खूब पीटा जाता है। लेकिन ये दोनों किसी चुनावी
घोषणापत्र की तरह ही खोखले पाए जाते हैं। सितम्बर की शुरुआत में उड़ीसा से फिर एक
बार ऐसी ही तस्वीर सामने आई। उड़ीसा में एक मजबूर पिता को अपनी सात साल की बेटी का
शव लिए छह किलोमीटर तक पैदल चलने को मजबूर होना पड़ा, क्योंकि एंबुलेंस
के ड्राइवर ने उसे रास्ते में उतार दिया। सात साल की बरसा खोमडू को मिथाली अस्पताल
से मलकानगिरी अस्पताल ले जाया जा रहा था लेकिन रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। जब एंबुलेंस
के ड्राइवर को इस बात का पता चला तो एंबुलेंस से उतर जाने को कहा।
ड्राइवर की इस हरकत पर एक दुखी पिता
कुछ नहीं कह पाया और मजबूरन उतरकर पैदल चलने लगा। जब स्थानीय लोगों ने खेमुडू और उसकी
पत्नी को बेटी का शव लेकर पैदल चलते देखा तो कई लोगों ने उसके बारे में पूछा। इसके
बाद गांव वालों ने स्थानीय बीडीओ और चिकित्सा अधिकारियों से संपर्क किया। जिसके बाद
दूसरी गाड़ी का इंतज़ाम कराया गया। सीडीएमओ उदय मिश्रा ने इस कृत्य को 'अमानवीय' करार देते हुए कहा, 'जैसे ही
मुझे घटना का पता चला, मैंने तुरंत
ही दूसरी गाड़ी भेजी जिसने लड़की के परिवार वालों को उनके गांव पहुंचाया। एंबुलेंस
में मौजूद फार्मासिस्ट और अटेंडेंट के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई।’
सितम्बर 2016 के
प्रथम सप्ताह में मध्यप्रदेश के नीमच से इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई।
नीमच में एक शख्स ने पैसा नहीं होने पर अपनी पत्नी का दाह संस्कार कूड़े से किया।
यह कहानी एक आदिवासी शख्स जगदीश की थी, जिसकी पत्नी की मौत बीमारी के कारण हो गई थी।
आर्थिक तंगी के कारण जगदीश के पास अपनी पत्नी के दाह संस्कार के लिए लकड़ी खरीदने के
पैसे भी नहीं थे। जगदीश ने मदद के लिए नगर निगम से भी गुहार लगाई, लेकिन किसी ने उसकी
मदद नहीं की। जगदीश ने बताया कि उसे कई लोगों ने कहा कि पत्नी के शव को नदी में फेंक
दें। लेकिन उसने कूड़े, पॉलिथीन और रबड़ से अपनी पत्नी के शव को जलाने का फैसला किया।
उत्तरप्रदेश की एक
घटना में पिता को बेटी का शव अस्पताल से ले जाने के लिए भीख मांगने पर मजबूर होना
पड़ा। सितम्बर 2016 के प्रथम सप्ताह की यह घटना उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले
की थी। मितौली थानाक्षेत्र के सुआताली की रहने वाली अंजलि (14 साल) को तेज बुखार था।
उसे गुरुवार को ही मितौली स्वास्थ्य केंद्र लाया गया था। गंभीर हालत देखते हुए डॉक्टरों
ने उसे ज़िला अस्पताल रेफर कर दिया। मगर वहां पहुंचने तक अंजलि की मौत हो चुकी थी। अंजलि के पिता रमेश के पास अपनी बेटी का शव अस्पताल से घर ले जाने के लिए पैसे
नहीं थे। उन्होंने कुछ लोगों से वाहन का इंतज़ाम करने का अनुरोध किया, लेकिन किसी ने
मदद नहीं की। परेशान और लाचार रमेश अस्पताल के बाहर ही फुटपाथ पर बैठकर लोगों से पैसे
के लिए गिड़गिड़ाने लगे। रमेश की लाचारी का वीडियो जब समाचार चैनलों पर वायरल हुआ तो
प्रशासन हरकत में आया। मुख्य विकास अधिकारी अमितसिंह बंसल ने सफाई में कहा कि उन्होंने
लड़की के अस्पताल में भर्ती होने और इलाज से संबंधित दस्तावेज मंगाए हैं। बंसल ने कहा
कि यदि लड़की के पिता ने अस्पताल के स्टाफ को सूचित किया होता तो एंबुलेंस की व्यवस्था
हो जाती।
इसी सप्ताह मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में भी ऐसा ही मामला सामने आया। शहडोल के अमिल्हा गांव निवासी
70 वर्षीय महिला रामबाई काफी दिनों से बीमार चल रही थी। शुक्रवार सुबह इलाज के दौरान
कटहरी में रामबाई की मौत हो गई। रामबाई की बेटी के आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे कि वह
अपनी माँ के शव को घर ले जाने के लिए निजी वाहन का इंतज़ाम कर सकें। ऐसे में बेटी और
दामाद ने हर संभव जगह पर मदद की गुहार लगाई, लेकिन दोनों को शव वाहन नहीं मिला। ऐसे में इस परिस्थिति में बेटी और दामाद ने
आसपास के लोगों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें वहां से भी निराशा ही हाथ लगी। दोनों को
लगा कि किसी भी दर से उन्हें मदद नहीं मिलेगी तो उन्हें साइकिल पर ही शव ले जाने का
सख्त फैसला लेना पड़ा। बेटी और दामाद ने शव को साइकिल पर रखकर कटहरी से आमिल्हा गांव
तक 20 किलोमीटर का सफर तय किया।
ऐसा ही वाक़या गुजरात राज्य में भी सामने आया, जहां राजकोट एसटी स्टेशन पर एक परिवार अपने बच्चे के
शव के साथ घंटों तक बैठा रहा। दाहोद जिले का यह परिवार जूनागढ़ जिले के मानबीबली
गांव में रहता था। यहां पर ये परिवार श्रम कर अपना गुजारा किया करता था। उनके 11 साल
के बच्चे सुरेश की तबियत खराब होने पर उसे राजकोट शहर के सिविल अस्पताल में 8
सितम्बर के दिन भर्ती कराया गया। सुरेश की तबियत ठीक नहीं होने पर परिवार ने
अस्पताल से डिस्चार्ज ले लिया और अपने गांव जाने के लिए निकल पड़ा। लेकिन राजकोट
एसटी स्टेशन पर ही सुरेश ने अंतिम सांसें ली। परिवार के पास उतने पैसे नहीं थे कि वो एंबुलेंस में या किसी निजी वाहन में सुरेश के शव को मानबीबलीं गांव तक ले जा सके।
यह परिवार बस की राह देखते देखते सुबह से शाम 4 बजे तक स्टेशन पर बैठा रहा। एसटी
कर्मचारियों और लोगों को पता चलने पर उन्होंने परिवार को आर्थिक मदद की और उसके बाद
बच्चे के शव को उसके गांव तक पहुंचाया गया।
2 अक्टूबर, 2016 के
दिन ऐसी ही एक घटना फिर से गुजरात से ही सामने आई। गुजरात के डांग
जिले के वघाई से यह वाक़या सामने आया। यहां एंबुलेंस को हासिल करने में विफल एक आदिवासी
व्यक्ति को अपने बेटे का शव अपने कंधे पर ढोना पड़ा। जिसके बाद यह खबर सोशल मीडिया
पर भी वायरल होने लगी। इसके बाद गुजरात सरकार में हड़कंप मच गया। राज्य सरकार हरकत
में आई और उसने पीड़ित परिवार को मदद की। वघाई में मजदूर का काम करने वाले केशु पांचरा
अपने 12 वर्षीय बीमार बेटे मीनेष को शहर के सरकारी अस्पताल में ले गए थे। यह परिवार
जनजाति बहुल दाहोद का रहने वाला था। डॉक्टरों ने बच्चे को अस्पताल लाए जाने पर मृत
घोषित कर दिया। अस्पताल के पास शव वाहन नहीं था और केशु निजी वाहन का इंतज़ाम नहीं कर
पाए। इसलिए उन्होंने खुद ही
शव ले जाने की अनुमति मांगी। यह घटना दोपहर तब सामने आई जब सोशल मीडिया पर अपने बेटे
का शव कंधे पर लिए एक आदिवासी व्यक्ति की तस्वीर फैल गई। खबर यह थी कि वघाई के सरकारी
अस्पताल ने इस व्यक्ति के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था करने से इनकार कर दिया था।
हालांकि, हर राज्य की हर घटनाओं की तरह यहां भी पीड़ित को ही कटघरे में खड़ा करने के हर संभव प्रयास होते हुए दिखे।
सरकारी बयान के अनुसार केशु ने डॉक्टर से कहा कि चूंकि वह पास में ही रहते हैं, तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। यह
सरकारी बयान खुद-ब-खुद सरकारी व्यवस्थाओं के साथ मजाक ही था। क्योंकि, खुद सरकारी
बयान में आगे जोड़ा गया था कि उन्होंने शव को उसके गांव तक ले जाने के लिए भी
व्यवस्था कर दी है। अब यह तो वाकई अजीब था कि एक व्यक्ति अपने बच्चे का शव कंधे
पर लाद के निकलता है। कोई व्यक्ति इसे क्लिक करके सोशल मीडिया पर डालता है। उसके
बाद ये तस्वीरें वायरल होती है। फिर सरकार तक खबर पहुंचती है और सरकार व्यवस्था
करती है। इतनी सारी प्रक्रियाएँ जल्द ही तो नहीं हुई होगी। स्वाभाविक है कि वक्त तो
लगा होगा इन सबमें। और सरकारी बयान में पल्ला झाड़ा गया कि पीड़ित ने खुद कहा कि वे
पास में ही रहते हैं तो उन्हें
कोई दिक्कत नहीं होगी। यानी कि इतना सारा वक्त गुजरा और वो आदमी फिर भी पास ही में
रहते हुए भी नहीं पहुंचा!
बात यहां रुकती नहीं और शायद ही
किसी और घटना से रुकेगी। लिखना रुकेगा, पर वाक़्ये नहीं रुकेंगे। 8 नवम्बर 2016 के
दिन पांच सौ तथा एक हज़ार के पुराने नोट बंद किए जाने की ऐतिहासिक घोषणा के बाद भी
इतिहास नहीं बदला। छोटी करेंसी का इंतज़ाम नहीं कर पाने की वजह से मेडिकल कॉलेज के चिकित्सकों
ने मरीज़ का इलाज बंद कर दिया। आईसीयू में भर्ती मरीज़ का वेंटिलेटर हटा दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई। परिजनों ने हंगामा
किया तो मेडिकल कॉलेज कर्मियों ने उन्हें पीटा और पुलिस के हवाले कर दिया। ये घटना
9 नवम्बर, 2016 की रात को एफएच मेडिकल कॉलेज में हुई। परिजनों ने अस्पताल प्रशासन
पर आरोप लगाए, तो वहीं अस्पताल वालों ने मरीज़ के परिजनों पर आरोप लगाए। इन्हीं दिनों
बिहार के बेगूसराय में दुष्कर्म पीड़िता 5 साल की मासूम को एंबुलेंस के लिए घंटों भटकना
पड़ा। क्योंकि एंबुलेंस चालक ने पांच सौ और एक हज़ार के नोट लेने से इनकार कर दिया।
दूसरी ओर लोग फैसले को ऐतिहासिक दर्ज कराने में लगे थे, लेकिन कम से कम यह इतिहास
बदलता नजर नहीं आया।
साल बदल जाएंगे, लेकिन मंजर नहीं बदलेंगे इसका यकीन हमारे राज्य हमें दिला ही देते हैं। जून 2017 के दौरान मध्यप्रदेश
में ऑक्सीजन की कमी की वजह से 17 मरीजों की मौत हो गई। इसी साल अगस्त 2017 के दौरान,
देश के स्वतंत्रता दिन से महज कुछ घंटे पहले ही, उत्तरप्रदेश के गोरखपुर स्थित
अस्पताल में भी ऐसा ही दर्दनाक वाक़या हुआ, जहां कथित रूप से ऑक्सीजन की कमी के
चलते दो दिनों में 30 से ज्यादा बच्चे मारे गए। यहां महज 5 दिनों में ऑक्सीजन की कमी
तथा दूसरी अन्य समस्याओं के चलते 60 से ज्यादा मरीज़ मारे गए थे। लिखने की ज़रूरत
नहीं कि दोनों मामलों में अस्पताल से लेकर सरकार के तंत्र ने कौन कौन से मंत्र फूंके
होंगे। इन्हीं दिनों रायपुर के सरकारी अस्पताल से भी ऐसी ही घटना सामने आई। उधर
रांची के अस्पतालों में 117 दिनों में 164 बच्चे अपनी जान गंवा बैठे थे।
बच्चों का लटक कर
नदियां पार करके पढ़ने जाना, शवों की अंतिमयात्रा का पानी से होकर गुजरना जैसी घटनाएँ हमारे कथित विकसित राज्यों में भी देखने के लिए मिली हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर,
अस्थायी पुलियों से नदियां पार कर रहे बच्चों की तस्वीरें सदैव देखने के लिए मिल
जाती हैं। मानसून के वक्त तो शवों को भी उफनते पानी से गुजाकर स्मशान तक पहुंचाया
जाता है।
ये सभी वो वाक़ये हैं जिनमें सरकारी कमजोरियों के साथ साथ नागरिकी खोखलापन उभर कर सामने आता है। ये वो
मंजर हैं जहां सभी एक दूसरे पर दोष ट्रांसफर करते रहते हैं। लेकिन व्यवस्थाएँ तो अपने
हालात को चीख-चीख कर बयां कर ही जाती है। सरकारें या नौकरशाही के पास अपने अपने
तर्क हैं और कदम उठाने वाली घोषणाएँ हैं या किसी समय कमेटियां बनाने वाले प्रचलित
तौरतरीके हैं। लोगों के पास सरकारों को भला-बुरा कहकर फर्जपूर्ति करने की परंपरा है।
लेकिन जिन्होंने इसे भुगता हो, शायद वो ही इसे समझ सकते हैं।
ये कुछ ऐसे ताज़ा उदाहरण हैं जो सरकारों और हम आम जनता की मिलीभगत के सबूत है। हर दिन और हर जगह ऐसे
मामले मिल ही जाते हैं। कभी कभार इससे भी दुखद और कभी कभार ऐसे ही मंजर वाले। यह मानना भी गलत होगा कि ये कुछेक राज्यों की समस्याएँ हैं। यह समझना होगा कि ये राज्यों की नहीं, बल्कि भारत की समस्याएँ हैं। ऐसे वाक़ये तो आये दिन मिल ही जाते हैं... दुखद
है... रुकना चाहिए... इसमें नया कुछ नहीं है... ऐसी प्रतिक्रियाएँ देने वाले भारतीय
नागरिक भी मिल जाएंगे। क्योंकि हमने एक मानदंड स्थापित कर दिया है कि... चलता
है लेकिन बदलना चाहिए। चलता है... और... बदलना चाहिए... दोनों एक दूसरे के विरुद्ध
दृष्टिकोण है और इसीलिए तो कुछ नहीं बदलता। सीमा पर जवान शहीद होते रहते हैं, महंगाई
बढ़ती रहती है, सरकारें वादाखिलाफी करती रहती हैं, भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता, ये
तो सभी जगह चलता है, हम क्या कर सकते हैं... ये सब नागरिकी भावनाएँ हैं, जो आम तौर पर
देखने के लिए मिल जाती हैं। वैसे कुछेक हैं जो कहते हैं कि रुकना चाहिए... खत्म होना
चाहिए। और शायद यही भावनाएँ इस देश की उम्मीदें हैं।
हमारे यहां लावारिश शव मिलने की
सैकड़ों घटनाएँ होती रहती हैं। कागज पर इनके सम्मानपूर्वक निकाल की कई सारी व्यवस्थाएँ हैं और योजनाएँ भी हैं। लेकिन इन शवों को जिन तौर-तरीकों के साथ ले जाया जाता है वो
सर्वविदित है। उन शवों पर जब कोई अधिकार लेकर नहीं आता तब इन शवों का निकाल और निकाल
के तरीके भी कई अरसे से मीडिया की खबरों में छाये रहते हैं। शायद हम जिसे पुराना भारत
कहते हैं उस भारत में भी अपने दुश्मनों के शवों को सम्मानपूर्वक रखा जाता था। उन शवों को लौटाने के या उनके निकाल करने के तरीकों में भी इंसानियत दिखाई देती थी। जबकि आज
शहर के कोल्ड रूम से निकाल की जगहों तक शव जिस तरह पहुंचाए जाते हैं, ये देखकर नहीं लगता कि हम उस पुराने भारत जितने सांस्कृतिक रहे हो। यहां एक अपराधी जेल से छूट
जाए तब उसे लेने के लिए 1,300 गाड़ियों का काफिला पहुंच जाता है, वहीं सैकड़ों दाना
मांझी हैं जिन्हें एंबुलेंस ना मिलने पर अपनों की लाश कंधों पर उठाकर सड़कों पर चलना
पड़ता है!
21वीं सदी में भी कई बार मीडिया ने
दिखाया है कि लोरियों में ठूंस कर इन शवों को ले जाया जाता है। ये शव किसी का संतान
होगा, किसी का पिता होगा, किसी की माता होगी... उसने भी जैसे-तैसे जिंदगी को जिया होगा, देश को सोचा होगा। शायद हम ज़रूरत से ज्यादा
आध्यात्मिक बन गए हैं, जहां मृत्यु के बाद सब समाप्त हो जाता है!!! गड्ढ़े खोदकर जिन शवों को दफनाया जाता है, उन्हें दूसरे दिन कुत्ते खुरेदते हो ऐसी तस्वीरें भी सामने आ चुकी हैं। हर ऐसे मामलों में हम नागरिकों का नजरियां तो बिल्कुल साफ होता
है। हम आहत होते हैं... फिर सरकार को कोसते हैं। सरकार का भी नजरिया साफ ही होता है।
मुआवजे दे दिये जाते हैं और तबादले किए जाते हैं। फिर... फिर क्या होता है?
शायद... फिर अगली ऐसी खबर का इंतज़ार किया जाता होगा... जिससे आहत होने की आदत
प्रबल होती चले।
ऐसी खबरों को दुखद बताया जाता है,
झकझोरने वाला बताया जाता है। लेकिन दुखी होना भी उसी प्रचलित देशभक्ति की तरह ही
अल्पकालीन होता होगा। हम सभी के लिए ये आहत करने वाली खबर होती है। लेकिन शायद
आहत होने वाली निरंतर घटनाओं ने हमारे आहत होने के स्वभाव को ही सख्त सा बना दिया
है। मीडिया के लिए यह ब्रेकिंग न्यूज़ होता है, वहीं हम नागरिकों के लिए ये सरकार
को कोसने का मौका बन जाता है। डिजिटल इंडिया के हम जैसे नागरिकों के लिए ये शेयर
करने वाली खबर या अपने लेखों में उड़ेलकर दुखी होने का कर्तव्यपालन करने का अवसरमात्र
बन जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो ये वाक़ये, जो अरसे से हर जगह हो रहे हैं, वे फिर
से तस्वीरों में देखने के लिए नहीं मिलते। ये तस्वीरें चीख-चीख कर ये कहती हैं कि जी
हां... इंडिया और भारत में फर्क है।
वैसे ऐसी तस्वीरें उन दिनों भारत
के कई राज्यों से आई। किंतु ये मानना गलत होगा कि ऐसा मंजर केवल गिने चुने राज्यों
में ही देखने के लिए मिलता होगा। भारत के लगभग तमाम राज्यों की सरकारी अस्पतालों में कुछ
कुछ ऐसे ही मंजर देखने के लिए मिलते हैं। कुछ प्रदेश वाले ज़रूर कह सकते हैं कि
हमारे यहां लाश को ढो कर चलने वाली स्थिति नहीं है। और वे यह कहकर भारत की आधुनिकता
का मजा ले सकते हैं। लेकिन उन्हें समझना होगा कि भारत इक्का दुक्का प्रदेशों से बना
देश नहीं है। ये मानना भी गलत होगा कि ऐसी तस्वीरें कुछ अवधि के दौरान ही देखी जाती
होगी। सच तो यह है कि हमारी सरकारी व्यवस्था तथा हमारी नागरिकी संवेदनशीलता, दोनों को खोखला साबित करने वाली ऐसी तस्वीरें निरंतर जारी दुखद प्रक्रिया सी है। मौत के
बाद भी शव को इंसान होने का सम्मान प्राप्त नहीं हो पाता। हालांकि हम आये दिन
मानवता की मौत की ब्रेकिंग न्यूज़ देखकर एक दूसरे को कोसने की आत्मसंतुष्टि प्राप्त
कर लेते हैं। फिर ये खबरें मर जाती हैं, क्योंकि किसी नयी खबर को जन्म लेना होता है!!! वहीं
एक ही सप्ताह में मध्यप्रदेश और उड़ीसा की तस्वीरें, जिसमें राजनेता और आम नागरिकों के
बीच के असली हालात बयां हो रहे थे, इसने भी कई सवाल खड़े कर दिए। कहा जाता है
कि... तस्वीरें लफ्जों से ज्यादा बयां कर जाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता ने
जन्माष्टमी की रात इन तस्वीरों और खबरों को लेकर कहा था कि – इस
खबर को मरना होगा... क्योंकि रात को कान्हा को जन्म लेना है।
किसी ऐसी खबरों से लेकर सड़क पर मर
रहे लोगों को छोड़ जाना... महिला अपराधों से लेकर किसी विलपते इंसान का दुख महसूस करना... इन सब चीजों को शायद हम एक आदत बना चुके हैं। आहत होने की आदत है यह! आहत
होने की आदत हम डाल चुके हैं! हम आहत ज़रूर होते हैं। इन तमाम खबरों के
समय, महिला अपराधों के समय हम प्रेशर कुकर की तरह गर्म होने लगते हैं। जिसकी सीटी
कभी न कभी ठंडी पड़ ही जाती है। हो सकता है कि दाना मांझी जैसी घटनाओं के बाद हमारी
आहत होने की सीमा और ज्यादा ऊंची हो जाए। शायद, आहत होना... दुखी होना... हम इन
सीमाओं को लांध चुके हैं, शायद अब आहत होने वाली या दुखी करने
वाली खबरें हमारे कमरों तक आती रहती हैं... जाती रहती हैं?
(इंडिया इनसाइड, मूल लेखन 28
अगस्त 2016, एम वाला)
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