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Pathankot & Officers: पठानकोट, आतंक, अफसर, राष्ट्रीय सुरक्षा के फेफड़ा फाड़ नारों के बीच अनसुलझे रह गए सारे सवाल


नारों से ही राजनीति मुद्दों की हत्या करती है। मुद्दे एक तरीके से मुर्दे बन जाते हैं। कुछ दूसरे गौरवों को सामने रखकर सवालों और समस्याओं को गाड़ देना ऑल टाइम हीट फॉर्मूला है। यूँ तो इस लेख का संबंध केवल पठानकोट आतंकी हमले से नहीं है। ना ही इसका संबंध उन अफसरों से ही जोड़ कर बैठे रहें, जिन पर आतंकियों के साथ साझेदारी के सनसनीखेज आरोप लगे। राष्ट्रीय सुरक्षा के फेफड़ा फाड़ नारों के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर तनिक भी मेहनत नहीं दिखती, तब कुछ घटनाओं से मूल मुद्दे को समझा जा सकता है।
 
तारीख़ थी 2 जनवरी 2016। जगह पंजाब का पठानकोट एयरफोर्स बेस। वक्त था तड़के करीब साढ़े तीन बजे। भारतीय सेना पर पाकिस्तान समर्थक आतंकियों के एक ग्रुप का बहुत बड़ा आतंकी हमला। एयरबेस पर हमला करने से पहले आतंकियों ने कथित रूप से एक आला अधिकारी को अगवा कर लिया था। अधिकारी का नाम था एसपी सलविंदर सिंह। वह गुरदासपुर के एसपी थे।

पठानकोट एयरबेस आतंकी हमला समूचे देश को चौंका गया था। भारतीय सेना पर हुआ यह सीधा हमला ही माना गया। साथ ही इस आतंकी हमले के बाद जो कुछ सामने आया, बचे खुचे नागरिकों के लिए सन्न होने का वक्त था। सैन्य अधिकारियों व पुलिस अधिकारियों की घोर लापरवाही सतह पर दिखने लगी। उधर जाँच एजेंसी के साथ ही स्वयं को कट्टर राष्ट्रवादी कहनेवाली नरेंद्र मोदी सरकार तक के रवैये ने ढेरों सवाल उठा दिए। पाकिस्तान की वो संस्था, जिसे आज तक जासूसी एजेंसी कम बल्कि टेरर प्लेटफॉर्म ज्यादा माना जाता है, उसे ही पठानकोट एयरबेस में प्रवेश देकर जाँच की इजाजत तक दे दी गई!!!


सब कुछ हुआ। एसपी लेवल का आला अधिकारी, उसका गाड़ी के साथ अगवा होना, उस अधिकारी के संदेहास्पद बयान, बहुत सारी चीजें हुई। एसपी साहब की एनआईए तक ने जाँच की। गलतियाँ, लापरवाही, सब कुछ हुआ था इस हमले के पूर्व और बाद में, जैसा कि हर बार होता आया है। किंतु समय श्रेष्ठ समाधान है। हुआ भी यही। समय बीता और लोग जल्दी से सब भूल कर नयी चीजों में गोते लगाने लगे। उस साल सर्जिकल स्ट्राइक और फिर तीन साल बाद एक दूसरे बहुत ही बड़े हमले के बाद एक एयर स्ट्राइक। समय बीता और सलविंदर सिंह को क्लीन चीट मिल गई। हो सकता है कि वे बेकसूर होंगे, तभी क्लीन चीट मिली होगी। किंतु जितने सवाल उठे, किसीके जवाब नहीं मिलने पर सामाजिक रूप से सवाल और गहरा जाते हैं। जाँच का मतलब यह नहीं कि किसी को अपराधी साबित कर दो, किंतु मामले से जुड़ी गुत्थियाँ सुलझाना भी एक तरीका होता है न।

2 जनवरी 2016 का वो आतंकी हमला। भारत ही नहीं बल्कि एशिया के बड़े फौजी अड्डों में पठानकोट शामिल होता है। यहाँ आर्मीबेस और एयरबेस दोनों हैं। पठानकोट बेस पूर्व युद्धों में भी अपना नाम इतिहास में दर्ज करवा चुका है। यहाँ भारी हमलों में इस्तेमाल होने वाले फाइटर हेलीकॉप्टर और मीग फाइटर जेट सरीखे हथियार रखे जाते हैं। एयरफोर्स की 18 वींग्स मौजूद होती थीं वहाँ उन दिनों।
आतंकियों ने भारतीय सेना का यूनिफॉर्म पहना हुआ था। दावा है कि वे भारत-पाक बॉर्डर पर जो रावी नदी है उसी रास्ते से दाखिल हुए थे। कहा जाता है कि भारतीय इलाके में पहुंचने के बाद उन्होंने कुछ वाहनों को अगवा कर लिया था और फिर एयरबेस की तरफ आगे बढ़े। बेस केंपस की दीवार फाँदकर, ऊंचे घास वाले मैदान को पार कर वे उस जगह पहुंचे जहाँ सेना के जवान रहा करते हैं। और फिर भारतीय सेना तथा पाकिस्तान समर्थक इन आतंकियों का आमना सामना हुआ। पहले दिन तीन भारतीय जवानों ने अपना बलिदान दिया, दूसरे दिन आईईडी ब्लास्ट में चार भारतीय जवान वीर गति को प्राप्त हुए। तमाम हमलावरों को मार गिराया गया। भारतीय सुरक्षा बलों को स्थिति पूर्ण तरीके से नियंत्रण में है यह विश्वास दिलाने में चार दिन लगे थे।

पठानकोट एयरबेस पर हुए इस आतंकी हमले के तत्काल बाद भारतीय सेना और एनएसजी के बीच प्रतिक्रिया के तौर तरीकों को लेकर बहुत सारे विवाद उत्पन्न हो गए। कहा जाता है कि सैन्य इलाके में एनएसजी का होना ही भारतीय सेना को पसंद नहीं आया था। एनएसए अजीत डोभाल का हद से ज्यादा दखल भी सुर्खियां बना रहा। विवादों के बीच आतंकी हमले के तुरंत बाद एनएसजी को शामिल किया गया। पूरा ऑपरेशन करीब चार दिनों से कुछ अधिक समय तक चला। 2008 के मुंबई हमले के बाद भी इतना समय नहीं लगा था। एनएसजी और भारतीय सेना के बीच विवाद के साथ साथ दिल्ली सरकार, एनएसए और सेना के बीच के मतभेद खुल कर सामने आए।


आरोप लगा कि भारतीय सेना को छूद देने के बजाय छोटी से छोटी चीजें दिल्ली से नियंत्रित करने की सनक ने स्थिति को नियंत्रित करने में वक्त लगा दिया। केंद्र सरकार ने हालात इतने हास्यास्पद बना दिए कि हमले के दिन देर शाम को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए कह दिया कि मैं जवानों को बधाई देता हूँ, ये मानवता को बचाने की जंग थी। तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी सोशल मीडिया के जरिए देश को ऑपरेशन खत्म होने की जानकारी दे दी। और इसके बाद तीन से चार दिनों तक वहाँ ऑपरेशन जारी रहा!!! उसके बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर वहाँ पहुंचे। पूरा ऑपरेशन खत्म होने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथ अजीत डोभाल भी पठानकोट पहुंचे।

इस पूरे घटनाक्रम के बीच एसपी सलविंदर सिंह का गाड़ी समेत अगवा होना नाटकीय घटनाक्रम माना जाता है। शुरुआती कहानी के मुताबिक कथित रूप से आतंकियों ने बामियाल चौक के आसपास एक इनोवा कार को उसके ड्राइवर समेत अगवा किया। वह कार कुथलार पुल के पास बुरी तरह से क्षतिग्रस्त अवस्था में मिली। वह कार जो नागरिक चला रहा था, उसकी लाश झाड़ियों में मिली थी।
फिर आगे कोहलियां गांव के मोड़ पर आतंकियों को एसपी सलविंदर सिंह की गाड़ी बामियाल की तरफ से आती दिखी। दावे के मुताबिक फौजी कपड़ों में आतंकियों को बीएसएफ समझकर गाड़ी चला रहे सलविंदर के दोस्त राजेश ने हाथ देने पर गाड़ी रोक दी। आतंकियों ने एके-47 के दम पर एसपी, उसके दोस्त और खानसामे मदन गोपाल को बंधक बना लिया और एक बार फिर पठानकोट की तरफ बढ़ चले। नोट करें कि बीच में कई चेक पोस्ट आती हैं, जहाँ नियमों के मुताबिक किसी भी गाड़ी को चेक करना ही होता है। तब वहाँ आतंकी हमले को लेकर एलर्ट जारी किया गया था। किंतु वह भी नहीं हो पाया!

एसपी सलविंदर सिंह की माने तो आतंकी इस बात से बेखबर थे कि उन्होंने पंजाब पुलिस के अफसर को बंधक बनाया है। किंतु गाड़ी नीली बत्ती वाली थी, तो फिर आतंकी कैसे बेखबर हो सकते हैं इसका जवाब मिलना अभी बाकी था। दावे के मुताबिक सांबली गांव के पास आतंकियों ने सलविंदर और उनके खानसामे को कार से धक्का देकर नीचे गिरा दिया। जाँच एजेंसी का शक यह भी था कि पहली गाड़ी को अगवा कर आतंकी एक नागरिक ड्राइवर की हत्या कर देते हैं और दूसरी गाड़ी को अगवा कर दो लोगों को जिंदा क्यों छोड़ दिया जाता है?


सवाल यह भी था कि दो लोगों को जिंदा छोड़ा गया तो फिर तीसरा व्यक्ति, जिनका नाम राजेश था, जो एसपी के दोस्त थे, उन्हें पठानकोट बेस के बिल्कुल पास अकालगढ़ गांव तक क्यों लाया गया और फिर वहाँ उनका गला क्यों रेता गया? राजेश की माने तो उन्होंने गांव के गुरुद्वारा पहुंचकर अपनी जान बचाई थी।

एसपी सलविंदर सिंह देर रात को बिना अपनी निजी सुरक्षा के वहाँ क्या कर रहे थे, वो भी अपने दोस्त और अपने कूक के साथ, उसके जवाब ढूंढने हेतु एनआईए की 20 सदस्यों की टीम ने एसपी साहब की पूछताछ भी की थी। अगवा होने के बाद भी कार तमाम चेक पोस्ट बिना किसी दिक्कत से कैसे पार कर गई, उसे लेकर भी पूछताछ ज़रूर हुई होगी। एक घटना में किसी को मार देना, दूसरी घटना में किसी को छोड़ देना और उसी घटना में किसी को आखिर तक साथ रखना, इस नाटकीय घटनाक्रम को लेकर भी एसपी साहब से पूछा गया होगा। एनआईए के महानिदेशक शरद कुमार ने सलविंदर सिंह के बयानों में विरोधाभास की बात पर संदेह जताया था।
सलविंदर सिंह की उस रात दरगाह मुलाकात के दावे को लेकर भी विरोधाभास सामने आए थे। सलविंदर सिंह ने कहा कि वे पंज पीर दरगाह पर सिर नवाने आते रहते हैं, जबकि दरगाह के केयरटेकर सोम का कहना था कि उन्होंने सलविंदर सिंह को दरगाह में कभी देखा ही नहीं। दरगाह का केयरटेकर किसी श्रद्धालु को न देखे यह वाकई मुमकीन है, लेकिन जब वह श्रद्धालु एसपी जैसे बड़े कद का आदमी हो, दरगाह आते-जाते रहते हो और यह बात दरगाह के केयरटेकर को पता भी न चले, यह नाटकीय था।

दरगाह के केयरटेकर सोम ने दावा किया कि एसपी सलविंदर ने उसको 31 दिसंबर को शाम साढ़े आठ बजे फोन किया था और कहा था कि उनके आने तक दरगाह खुली रखे। जब सोम ने एसपी से कहा कि यह दरगाह बंद करने का वक्त है तो सलविंदर ने जोर देकर सोम से दरगाह खुली रखने के लिए कहा। सोम ने कहा था कि एसपी के दोस्त राजेश वर्मा ने उस दिन दरगाह का दो बार दौरा किया था। जबकि इससे पहले राजेश कुमार भी कभी दरगाह नहीं आए थे। गौर करने वाली बात यह भी थी कि आतंकवादियों के पाकिस्तानी ब्रांड एपकॉट के जूतों के निशान बामियाल क्षेत्र से मिले हैं, जो इस दरगाह के काफी करीब है।

सवाल यह भी था कि भारत-पाक सीमा के एकदम निकट इस इलाके में एसपी सलविंदर बगैर हथियार के और अपनी निजी सुरक्षा के बिना कैसे चले गए? खासकर तब जब इलाके में पहले ही आतंकी अलर्ट जारी हो चुका था। सरहदी इलाकों में आतंकी अक्सर सेना का यूनिफॉर्म पहनकर या सरकारी पहचान वाली गाड़ी को साथ रखकर हमला करते रहते हैं, ऐसे में वह गाड़ी कैसे अकालगढ़ तक पहुंची यह नाटकीय क्रम था।

इस आतंकी हमले को लेकर एक पुस्तक तक प्रकाशित हो गया। पुस्तक का नाम है, ‘स्पाई स्टोरीज़: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ द आरएंडडब्ल्यू एंड द आईएसआई।दो ब्रिटिश पत्रकारों ने इसे लिखा है। उनके नाम हैं एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट क्लार्क। इस पुस्तक में उन दोनों ने सनसनीखेज दावे किए हैं। छोटी मोटी बातों पर भारत की अस्मिता और भारत के सम्मान के नारे देने वाली नरेंद्र मोदी सरकार ने इस पुस्तक को अभी तक भारत में बैन नहीं किया है और ना ही अपना कोई पक्ष रखा है।
पुस्तक में दावा है कि पठानकोट एयरबेस पर हुए आतंकी हमले में स्थानीय पुलिस अधिकारी शामिल थें। दावे के मुताबिक इन कथित भ्रष्ट अधिकारियों ने हमले से पहले एयरबेस का जायजा लेने में आतंकियों की मदद की थी। एक निश्चित रूट की पहचान की गई थी, जो आम तौर पर इस्तेमाल नहीं होता था। दावा है कि उसी रास्ते से हमले के लिए ग्रेनेड, मोर्टार और एके47 राइफ़ल जैसा असलहा ले जाया गया था। लिखित रूप से कहा गया है कि हमले की चैतावनी दी गई थी, फिर भी सुरक्षा बढ़ाई नहीं गई थी! उधर बॉर्डर पर फैंसिग के नारे राजनाथ सिंह ने दिए थे, लेकिन कोई काम तक नहीं हुआ था! कम से कम चार रिपोर्ट सूचित करते थे कि नदियाँ और सूखे नाले संवेदनशील हैं, किंतु वहाँ भी सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं हुआ था! लिखा गया है कि छह बार लिखित में कहा गया था, फिर भी अतिरिक्त गश्त नहीं रखी गई! सर्वेलियंस टेक्नोलॉजी और मूवमेंट ट्रेकर्स लगाए नहीं गए थे! पुस्तक में बीएसएफ के एक अधिकारी के हवाले से लिखा गया है कि जमीन पर फोर्स के बहुत कम जवान थे, ज्यादा जवानों की माँग की गई थी, किंतु उसे ध्यान पर नहीं लिया गया!

दावा यह है कि पठानकोट हमले के लिए 350 किलोग्राम विस्फोटक खरीदा गया था। खरीदी के एवज में पेमेंट जैश-ए-मोहम्मद ने किया था। लिखा गया है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों के साथ साथ लोकल सपोर्टस आतंकियों की मदद कर रहे थे। चौंकाने वाला दावा यह है कि एक पुलिस अधिकारी ने ही ऐसे इलाके की खोज की थी, जहाँ सुरक्षा के इंतजाम कमजोर होते थे, फ्लडलाइट बहुत कम हुआ करती थी, सीसीटीवी कैमरे का कवरेज नहीं था, साथ ही मोनिटरिंग के लिए कोई टेक्नोलॉजी नहीं थी। ऐसे रूट को नो-सर्विलांस स्पॉट कहा जाता है। दावे के मुताबिक स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने ही आतंकियों से साठगांठ कर उस जगह का पता लगाया था जहाँ से बेस कैंपस में घुसा जा सकता था। उन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों ने जगह की रेकी करके आतंकियों को ग्रीन सिग्नल दिया था।

उधर, कैंपस के पास एक बड़ा सा पेड़ था, जिसे भारत की ही एजेंसी के एक लिखित रिपोर्ट में ख़तरे के रूप में चिन्हित किया गया था। उसे हटाना सेना का काम था, जो रिपोर्ट के बाद भी हटाया नहीं गया था! यह लापरवाही का उदाहरण ही था।
 
एक दौर था जब सरहदी इलाकों में अधिकारी अपनी पोस्टिंग रुकवाने के लिए जमीन-आसमान एक किया करते थे। आज कथित रूप से मामला उलट हो चुका है। आरोप लगते हैं कि अब सरहदी इलाके मलाईदार माने जाते हैं। सच क्या है और झूठ क्या है, नहीं पता। किंतु इससे संबंधित कई सारे मामले पूर्व से लेकर अब तक सामने आते रहे हैं।
इस आतंकी हमले के कुछ ही साल बाद एक और अधिकारी, डीएसपी दविंदर सिंह का सनसनीखेज मामला सामने आया। यह आला अधिकारी उन दिनों बेहद संवेदनशील श्रीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर तैनात था। अभी जून 2020 में ही डीएसपी साहब को जमानत मिल गई। जमानत संवैधानिक अधिकार है। किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर फेफड़ा फाड़ नारे दब गए, क्योंकि राष्ट्रवादी कहीं ओर गोता लगा रहे थे।
 
इस दूसरे मामले में डीएसपी दविंदर सिंह का नाम आना, उनकी भूमिका आदि को लेकर बहुत सारा बवाल मचा। उनके खिलाफ कुछ तथ्य मिलें। निलंबित भी किया गया उन्हें। दविंदर सिंह को उस वक्त गिरफ्तार किया गया था, जब वह 13 जनवरी 2020 को कथित रूप से तीन आतंकियों को अपनी गाड़ी में जम्मू लेकर जा रहे थे। जम्मू के बजाय दिल्ली जाने की योजना को लेकर भी बातें सामने आई। आरोप था कि वे हिज़बुल के आतंकी थे। उन पर आरोप लगा था कि इन आतंकवादियों को शोपियां से अपने घर जम्मू ले गए थे और अपने घर पर रात भर टिकाया था।

दविंदर सिंह को कुलगाम ज़िले के वानपोह से पकड़ा गया था। वह कथित रूप से हिज़बुल मुजाहिदीन के आतंकी नवीद बाबू और उसके एक साथी के साथ गाड़ी में थे। नवीद पहले स्पेशल पुलिस ऑफ़िसियल यानी एसपीओ था और बाद में वह आतंकी संगठन से जुड़ गया था। नवीद 2019 के अक्टूबर और नवंबर में उन 11 मज़दूरों की हत्या में शामिल था जो जम्मू-कश्मीर के नहीं थे और जिनकी अलग-अलग समय में हत्या की गई थी।


नोट करें कि दविंदर सिंह पर संसद हमले के मास्टरमाइंड अफजल गुरु के साथ भी संबंध होने के आरोप लगे थे। एक रिपोर्ट के अनुसार, दविंदर सिंह तब सुर्खियों आए थे जब 2013 में संसद पर हमले के दोषी अफज़ल गुरु द्वारा लिखे गए एक पत्र में दावा किया गया था कि दविंदर सिंह ने उसे एक पाकिस्तानी आतंकवादी को दिल्ली पहुँचाने, उसके लिए गाड़ी खरीदने में मदद करने और उसके वहाँ ठहरने की व्यवस्था करने को कहा था। संसद हमले में दोषी क़रार दिए गए अफजल गुरु को फाँसी दे दी गई थी।

दविंदर सिंह और नवीद की गिरफ़्तारी और पूछताछ के बाद पुलिस ने श्रीनगर और दक्षिणी कश्मीर में कई जगहों पर छापे मारे थे। पुलिस का दावा था कि इस छापे में उसने सिंह और आतंकवादी द्वारा जमा किए गए बड़ी मात्रा में घातक हथियार और गोला-बारूद बरामद किए थे। पुलिस के अनुसार, नवीद के कबूलनामे के बाद बादामी बाग़ कैंटोनमेंट में दविंदर सिंह के घर से पुलिस ने एके-47 राइफ़ल और दो पिस्तौल बरामद किए थे। पुलिस के मुताबिक उन्हें यह भी पता चला था कि दविंदर सिंह ने आर्मी के अपने आधिकारिक आवास पर आतंकवादियों को शरण दी थी।
1990 में बतौर सब-इंस्पेक्टर रिक्रूट हुए दविंदर सिंह पर नौकरी के दौरान जबरदस्ती वसूली के भी आरोप लगे थे और उन्हें कई बार निलंबित भी किया गया था। साल 2000 में श्रीनगर के रहने वाले 19 साल के युवा एजाज़ अहमद बज़ाज के अपहरण, प्रताड़ना और मौत के मामले में जिन चार पुलिस अफ़सरों पर आरोप लगे थे, उनमें दविंदर सिंह का भी नाम था। कश्मीर टाइम्स के मुताबिक़, दविंदर सिंह को टॉर्चर सिंहके नाम से भी जाना जाता था।

उसके बाद जून 2020 में इन्हें दिल्ली की एक अदालत ने जमानत दे दी। दिल्ली पुलिस चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई। पुलिस का दावा यह था कि दविंदर सिंह जम्मू-कश्मीर के अलावा आतंकियों को पंजाब और दिल्ली में भी अलग अलग तरह से मदद पहुंचाता था। पुलिस दावा करती रही कि दविंदर सिंह की पूछताछ में खुलासा हुआ था कि वह लंबे समय से आतंकियों की मदद कर रहा था।

हालाँकि एनआईए ने जुलाई 2020 में इस मामले में अदालत में चार्जशीट दाखिल किया था, जिसमें सिंह समेत पाँच लोगों पर अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रीवेन्शन एक्ट (यूएपीए) लगाया गया था। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने इस मामले में 3,604 पन्नों की चार्जशीट दायर की थी। इसमें दविंदर सिंह पर आरोप लगाया था कि उसने आतंकवादी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन की मदद की थी। चार्जशीट में यह भी कहा गया था कि दविंदर सिंह नई दिल्ली में स्थित पाकिस्तान उच्चायोग में अपने एक हैंडलर के लगातार संपर्क में थे, इसका नाम उन्होंने अपने मोबाइल नंबर में पाकी भाई के नाम से सेव किया था।

मामले को बंद करने के पूराने तौर तरीके कुछ ऐसे ही रहे हैं। कुछ लोग दलील दे सकते हैं कि भाई, कुछ मामलों में सचमुच राष्ट्रीय सुरक्षा का रहस्य छिपा होता है, तभी ऐसे मामले चूपचाप बंद किए जाते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के रहस्य वाली इस दलील में मूल रूप से तो यही दलील होती है कि कुछ अधिकारी रो, आईबी या ऐसी राष्ट्रसुरक्षा से जुड़ी रहस्यमयी प्रवृत्ति में जुड़े हुए होते हैं और इसलिए कभी कभी कुछ गलतियों से मामले बाहर आते हैं तब ऐसे मामलों को चूपचाप बंद करना पड़ता है। लेकिन इस दलील में बहुत ज्यादा वजन नहीं है। क्योंकि जब ऐसी प्रवृत्ति देश से बाहर, दूसरे देशों में पकड़ी जाए, तब तौर तरीके समझे जा सकते हैं। किंतु अपने ही देश में कुछ इसी तरह से मामले सामने आए, तब पूरी प्रक्रिया और उसके तौर व तरीके उस एंगल की पुष्टि दूर दूर तक नहीं करते। 

आज के समय जम्मू-कश्मीर में कोई निर्वाचित सरकार नहीं है। वह केंद्र शासित प्रदेश है। प्रजावहाँ जमीन खरीदने के चुटकुले व्हाट्सएप पर अब भी ढो रही है, ‘नागरिकप्रजा के साथ जो चुटकुले किए जा रहे हैं उसे देख रहे हैं। सरकार के ख़िलाफ कविता लिखना, कार्टून बनाना देशद्रोह है, लेकिन किसी जाँच एजेंसी द्वारा किसी पर देशद्रोह सरीखे लिखित आरोप, यह जमानत के काबिल जुर्म है! ऐसे मामलों के जानकार शंका यह प्रकट कर रहे हैं कि यह सारी प्रक्रिया एक ही चीज़ की तरफ इशारा करती है कि दविंदर सिंह के मामले को बंद किया जा सकता है। 

छगन के समय भी हुआ था, इसलिए मगन के वक्त में भी हो रहा है! कोई ज्यादा पूछे तो कह देना कि तुम्हारे समय में तो पुरुलिया में आसमान से असलहा बारूद बरसता था।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)