“A Year with Pandemic and Political Tragedy”
साल ट्वेंटी ट्वेंटी। सन 2020। ये साल ताउम्र याद रहेगा। महामारी का साल... मजदूरी और नौकरी छूटने का साल... महानगरों की बेरुखी का साल... घरों में बंद रहने का साल... घर तक पहुंचने के लिए सड़कों पर भटकते रहने का साल... भटकते हुए कुचलकर मारे जाने का साल... दोपहर के खाने के लिए सुबह से लाइन लगाने का साल... कारोबार ठप होने का साल... भूखे मर जाने का साल... अरसे तक बनी रहेगी 2020 की ये टीस। महामारी का ये साल... महामारी के बीच कमतर राजनीति का ये साल... अलविदा 2020...
सन 2020 की ये यादें, उसकी तस्वीरें ताउम्र याद रहेगी। वो खाली सड़कें, अपने अपने घरों में कैद वे लोग, खंडहर से लगने वाले वे शहर, बिना दर्शकों के स्टेडियम, दुनिया के बड़े नेताओं से लेकर आम लोगों के मास्क से ढंके चेहरे। सुबह सुबह दुकानों पर लगने वाली लंबी-लंबी कतारें, गर्मजोशी से मिलने जुलने वाले भारत में वह दूरियाँ, स्कूलों का वो बंद हो जाना, सड़कों का वो सन्नाटा, किसानों की वह दिक्कतें, अपने अपने घर पहुंचने के लिए सड़कों पर मजदूरों का वह हुजूम, भूख से तड़पते वो बच्चे, रोते विलपते लोग। महामारी ने वह सब कुछ उजागर किया। सरकारों की नाकामी, लोगों के असली चेहरे, साथ ही मानवता के जिंदा होने का एहसास भी।
निश्चित रूप से यह साल महामारी और तालाबंदी का साल था। तालाबंदी के दौरान प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक वापसी के दुखदायी नजारों का साल था। बड़ी संख्या में लोगों के काम-धंधे चौपट हो गए और नौकरियाँ छूट गईं। परिघटना यह भी थी कि देश की अर्थव्यवस्था सिरे से ढह गई।
किंतु इससे पहले, इसके बीच और इसके बाद भी भारत में जो चीजें हुई, जो घटनाएँ घटती रहीं, हम उन सारी यादों को संजोते हुए आगे बढ़ते हैं।
दिल्ली का वो चुनाव, ऐसे दंगलों से देश विश्वगुरु बन सकता तो फिर पाकिस्तान कब का बन गया होता
यूं तो भारत में हर चुनाव प्रचार कमतर स्तर का ही होता है। किंतु दिल्ली का 2020 का वह चुनाव। चुनाव का वह प्रचार। नायक देश को कुछ न कुछ दे जाता है, किंतु इस चुनाव प्रचार में जो हुआ, कहा लिखा गया कि ऐसा कमतर चुनाव प्रचार केंद्रीय स्तर के नेता कर सकते हैं, तो फिर देश को जो मिलेगा वह ना ही मिले तो अच्छा है। दिल्ली चुनाव प्रचार। ‘प्रजा’ का तो पता नहीं, किंतु ‘नागरिक’ पूछने लगे कि क्या 'अच्छे दिन' ऐसे ही होते हैं? पूछा जाने लगा कि जो सत्ता भारत को विश्वगुरु बनाने का दावा करती हो वो सत्ता काम और नीतियों की जगह पाकिस्तान - बिरयानी - हिंदू - मुसलमान - गोली मारो जैसी पटरी पर अपनी रेल क्यों दौड़ाती रही?
चुनाव के दरमियान सबसे आपत्तिजनक आचरण देश की सत्ताधारी पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं का ही रहा। ये नेता छोटे-मझोले कार्यकर्ता होते तो कोई कह सकता था कि नासमझ लोगों ने उन्मादी आचरण करके राजधानी की चुनावी राजनीति का माहौल ख़राब किया। किंतु उन्मादी आचरण करने वालों में यहाँ तो केंद्रीय मंत्री, सांसद और बड़े-बड़े नेता ही शामिल रहे! ये सब लोग हर सीमाओं को लांधते रहे।
चुनाव के दरमियान सबसे आपत्तिजनक आचरण देश की सत्ताधारी पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं का ही रहा। ये नेता छोटे-मझोले कार्यकर्ता होते तो कोई कह सकता था कि नासमझ लोगों ने उन्मादी आचरण करके राजधानी की चुनावी राजनीति का माहौल ख़राब किया। किंतु उन्मादी आचरण करने वालों में यहाँ तो केंद्रीय मंत्री, सांसद और बड़े-बड़े नेता ही शामिल रहे! ये सब लोग हर सीमाओं को लांधते रहे।
कोई 'गद्दारों को गोली मारने' का नारा लगवा रहा था, कोई सरकार बनते ही 'शाहीन बाग को उठवाने' की घोषणा कर रहा था, कोई अपने ‘इलाके की मस्जिदों को गिरवाने' का संकल्प दोहरा रहा था, तो कोई ‘वो लोग आपके धरों में घुसकर बलात्कार करेंगे’ वाले डर को दौड़ा रहा था। कुछ महाबली नेताओं ने तो सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलनकारियों को देश-विरोधी, आतंकी और पाकिस्तान-परस्त या पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाला कह डाला! चुनाव दिल्ली का था और बातें कुछ दूसरी ही हो रही थी!!! स्वयं पीएम मोदी ने कह दिया कि, “शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन संयोग नहीं है, एक प्रयोग है।” देश के गृहमंत्री ने शाहीन बाग को बड़ा मुद्दा बना दिया।
Delhi Elections 2020 : मोदीजी, चाहे तो आप 400 सीटें ले लीजिए, लेकिन भाषा अच्छी दे दीजिए... दिल्ली टाइप दंगल से देश विश्वगुरु बन सकता तो पाकिस्तान कबका बन गया होता
केंद्रीय सत्ता का ‘खास ढंग का चुनाव प्रचार अभियान’ निर्वाचन आयोग के समक्ष उभरे बड़े संकट से भी जुड़ा। 2020 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी के लोकप्रिय और प्रमुख नेताओं की हरकतें पूर्व चुनावी प्रचारों से भी ज्यादा अशिष्ट, उन्मादी और घोर सांप्रदायिक थी। देश की सत्ताधारी पार्टी ने राजधानी, या यूं कहे कि एक शहर की विधानसभा के चुनावी प्रचार में जिस तरह की शर्मनाक हरकतें कीं, उस समूची सियासी-धींगामुश्ती को सामान्य आचरण नहीं कहा जा सकता।
बिरयानी बदनाम हुई मोदीजी आपके लिए! स्वादिष्ट और बेहद लोकप्रिय भोजन बिरयानी को एक धर्म विशेष से ही नहीं जोड़ा गया, बल्कि उसे पाकिस्तानी खाना कह कर प्रचारित किया गया!!! ऐसी तसवीर खींची गई मानो बिरयानी खाना देशद्रोह हो!!! घोर ज़हरीलापन या घौर विषैलापन वाला प्रचार-प्रसार करने के बाद जब शर्मनाक हार हुई तो गृहमंत्री कम डिप्टी प्रचारमंत्री अमित शाह ने कह दिया कि गोली मारो और भारत-पाक मैच जैसे बयानों से हमारे नेताओं को बचना चाहिए था।
सोशल मीडिया पर कही पर एक लाइन दौड़ रही थी, जो कूछ यूं थी - देश का माहौल वेलकम मूवी जैसा हो गया है। केंद्र में उदय शेट्टी, यूपी में मजनू भाई, अमेरिका में आरडीएक्स सर और दिल्ली में डॉ. घुंगरू सेठ!!! नयी राजनीति इतनी सी ही हैं!
दिल्ली चुनाव के बाद दिलवालों की दिल्ली में खौफनाक दंगे, प्यारे भारत को राजनीति ने लहूलुहान कर दिया
केंद्रीय सत्ता का ‘खास ढंग का चुनाव प्रचार अभियान’ निर्वाचन आयोग के समक्ष उभरे बड़े संकट से भी जुड़ा। 2020 के दिल्ली चुनाव में बीजेपी के लोकप्रिय और प्रमुख नेताओं की हरकतें पूर्व चुनावी प्रचारों से भी ज्यादा अशिष्ट, उन्मादी और घोर सांप्रदायिक थी। देश की सत्ताधारी पार्टी ने राजधानी, या यूं कहे कि एक शहर की विधानसभा के चुनावी प्रचार में जिस तरह की शर्मनाक हरकतें कीं, उस समूची सियासी-धींगामुश्ती को सामान्य आचरण नहीं कहा जा सकता।
बिरयानी बदनाम हुई मोदीजी आपके लिए! स्वादिष्ट और बेहद लोकप्रिय भोजन बिरयानी को एक धर्म विशेष से ही नहीं जोड़ा गया, बल्कि उसे पाकिस्तानी खाना कह कर प्रचारित किया गया!!! ऐसी तसवीर खींची गई मानो बिरयानी खाना देशद्रोह हो!!! घोर ज़हरीलापन या घौर विषैलापन वाला प्रचार-प्रसार करने के बाद जब शर्मनाक हार हुई तो गृहमंत्री कम डिप्टी प्रचारमंत्री अमित शाह ने कह दिया कि गोली मारो और भारत-पाक मैच जैसे बयानों से हमारे नेताओं को बचना चाहिए था।
सोशल मीडिया पर कही पर एक लाइन दौड़ रही थी, जो कूछ यूं थी - देश का माहौल वेलकम मूवी जैसा हो गया है। केंद्र में उदय शेट्टी, यूपी में मजनू भाई, अमेरिका में आरडीएक्स सर और दिल्ली में डॉ. घुंगरू सेठ!!! नयी राजनीति इतनी सी ही हैं!
दिल्ली चुनाव के बाद दिलवालों की दिल्ली में खौफनाक दंगे, प्यारे भारत को राजनीति ने लहूलुहान कर दिया
राजनीति की कृपा से इसी महीने हुआ दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार सांप्रदायकिता, धार्मिक भेदभाव, उक्साना, भड़काना, डराना आदि की सीमाओं को लांध गया था। फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिलवालों की दिल्ली को राजनीति ने आखिरकार लहूलुहान कर ही दिया।
कहते हैं कि 1984 में सिखों के खिलाफ दंगों के बाद यह दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी थी दिल्ली में, जब दिल्ली डरावनी लगने लगी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली एक ही दिन में अचानक से जलने लगी। वो भी तब जब अमेरिका के राष्ट्रपति अपनी पत्नी, पुत्री और दामाद समेत दिल्ली में थे!!! मीडिया बतला रहा था कि परिंदा भी बिना इजाज़त घुस नहीं सकता, इतनी भारी सुरक्षा है अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए। उस स्थिति को ही सोचिए, दिल्ली के एक इलाके में दुनिया का सबसे ताक़तवर शख्स अपने परिवार समेत भारत का मेहमान बना हुआ था और दिल्ली के दूसरे इलाके में हिंसा और हत्या का वो दौर चल रहा था, जिसमें एक ही दिन में अनेक नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है!!!
कहते हैं कि 1984 में सिखों के खिलाफ दंगों के बाद यह दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी थी दिल्ली में, जब दिल्ली डरावनी लगने लगी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली एक ही दिन में अचानक से जलने लगी। वो भी तब जब अमेरिका के राष्ट्रपति अपनी पत्नी, पुत्री और दामाद समेत दिल्ली में थे!!! मीडिया बतला रहा था कि परिंदा भी बिना इजाज़त घुस नहीं सकता, इतनी भारी सुरक्षा है अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए। उस स्थिति को ही सोचिए, दिल्ली के एक इलाके में दुनिया का सबसे ताक़तवर शख्स अपने परिवार समेत भारत का मेहमान बना हुआ था और दिल्ली के दूसरे इलाके में हिंसा और हत्या का वो दौर चल रहा था, जिसमें एक ही दिन में अनेक नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है!!!
Riots in Delhi : 'संयोग' था या फिर 'प्रयोग'? इसकी ‘प्रेरणा’ या तो मोदी-शाह से ली गई, या केजरीवाल-सिसोदिया से, या फिर सोनिया-राहुल से... दंगे बिना मंच के हो भी कैसे सकते हैं?
24 फरवरी 2020 का दिन था। राजधानी दिल्ली में हिंसा बढ़ने लगी। दोपहर के बाद दंगों ने बड़ा रूप धारण कर लिया। डीसीपी और एसीपी स्तर के अधिकारियों को लोहे की ग्रील फांदकर अपनी जानें बचानी पड़ी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्यारी राजधानी दिल्ली में एक ही दिन में 10 नागरिकों की जानें चली गई। पीटने की वजह से नहीं बल्कि इनमें से ज्यादातर को गोलियों से मार दिया गया था!!! ये दंगे चलते रहे। पुलिस की शैली पर भी सवाल उठे। अगले 4 दिनों में दिल्ली में दंगों के चलते मारे गए लोगों की तादाद 40 के ऊपर पहुंच चुकी थी। 300 से ज्यादा लोग जख्मी हुए। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला यह था कि मारे गए या घायल हुए लोगों में से आधे से ज्यादा लोगों को बंदूक की गोलियां लगी थी!!!
दंगाइयों ने देश की राजधानी में पब्लिक स्कूलों को कब्जे में किया! लाइब्रेरी, बेंच तक जला दिए! स्कूलों को बाकायदा लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल किया गया था! आम आदमी पार्टी का पार्षद ताहिर हुसैन और बीजेपी का नेता कपिल मिश्रा, दोनों ने नाम प्रारंभिक तौर पर खुलकर सामने आए।
तीन-चार दिनों के भीतर दिल्ली में सरेआम सैकड़ों गोलियां चली!!! खुलकर गोलियां चली, पेट्रोल बम फेंके गए, आगज़नी हुई, नृशंष तरीके से हत्याएं हुई, लूंटपाट हुई। गाड़ियां, पेट्रोल पंप, दुकानें, घर, सरकारी संपत्ति, निजी संपत्ति, मंदिर, मस्जिद सब कुछ आग में फूंक दिया गया। दर्जनों नागरिक मारे गए। कई पुलिस कर्मियों की भी मौत हो गई। एक आईबी कर्मी की भी हत्या कर दी गई। दंगे ने सैकड़ों हिंदू-मुस्लिमों को अपने ही शहर में शरणार्थी बना दिया! या तो पुलिस थी नहीं, या फिर वो मूकदर्शक बनी देखती रही। चार दिनों तक देश की राजधानी जलती रही।
सरकार गिराना बनाना ज्यादा ज़रूरी था, कोरोना महामारी की अंतिम चेतावनी के बाद भी भारत में राजनीति आगे रही, महामारी के खिलाफ जागरूकता पीछे चली गई!
24 फरवरी 2020 का दिन था। राजधानी दिल्ली में हिंसा बढ़ने लगी। दोपहर के बाद दंगों ने बड़ा रूप धारण कर लिया। डीसीपी और एसीपी स्तर के अधिकारियों को लोहे की ग्रील फांदकर अपनी जानें बचानी पड़ी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्यारी राजधानी दिल्ली में एक ही दिन में 10 नागरिकों की जानें चली गई। पीटने की वजह से नहीं बल्कि इनमें से ज्यादातर को गोलियों से मार दिया गया था!!! ये दंगे चलते रहे। पुलिस की शैली पर भी सवाल उठे। अगले 4 दिनों में दिल्ली में दंगों के चलते मारे गए लोगों की तादाद 40 के ऊपर पहुंच चुकी थी। 300 से ज्यादा लोग जख्मी हुए। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला यह था कि मारे गए या घायल हुए लोगों में से आधे से ज्यादा लोगों को बंदूक की गोलियां लगी थी!!!
दंगाइयों ने देश की राजधानी में पब्लिक स्कूलों को कब्जे में किया! लाइब्रेरी, बेंच तक जला दिए! स्कूलों को बाकायदा लॉन्च पैड की तरह इस्तेमाल किया गया था! आम आदमी पार्टी का पार्षद ताहिर हुसैन और बीजेपी का नेता कपिल मिश्रा, दोनों ने नाम प्रारंभिक तौर पर खुलकर सामने आए।
तीन-चार दिनों के भीतर दिल्ली में सरेआम सैकड़ों गोलियां चली!!! खुलकर गोलियां चली, पेट्रोल बम फेंके गए, आगज़नी हुई, नृशंष तरीके से हत्याएं हुई, लूंटपाट हुई। गाड़ियां, पेट्रोल पंप, दुकानें, घर, सरकारी संपत्ति, निजी संपत्ति, मंदिर, मस्जिद सब कुछ आग में फूंक दिया गया। दर्जनों नागरिक मारे गए। कई पुलिस कर्मियों की भी मौत हो गई। एक आईबी कर्मी की भी हत्या कर दी गई। दंगे ने सैकड़ों हिंदू-मुस्लिमों को अपने ही शहर में शरणार्थी बना दिया! या तो पुलिस थी नहीं, या फिर वो मूकदर्शक बनी देखती रही। चार दिनों तक देश की राजधानी जलती रही।
सरकार गिराना बनाना ज्यादा ज़रूरी था, कोरोना महामारी की अंतिम चेतावनी के बाद भी भारत में राजनीति आगे रही, महामारी के खिलाफ जागरूकता पीछे चली गई!
जो सरकार लोगों को कह रही थी जागरूक बनें, जो सरकार सबसे मोबाइल फोन में बोल रही थी कि दो गज की दूरी रखे, वही सरकार कोरोना की अंतरराष्ट्रीय चेतावनी के बाद भी सोती रही! सोते रहने वाला आदमी जाग कर दूसरों को कहे कि जागते रहो, तो इसका मतलब क्या होता है यह मैट्रिक पास तक को पता होना चाहिए।
जनता कर्फ़यू के चंद घंटों के आसपास कमलनाथ सरकार गिर गई, शिवराज सीएम बने। जनता कर्फ़यू के बावजूद यहां से सामूहिक जश्न की तस्वीरें आई! एक सच्ची और प्रमाणित तस्वीर में तो सीएम शिवराज सिंह चौहान, नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ खड़े दिख रहे थे!!! इन दिनों फ़ोन कॉल, टीवी, इंटरनेट के माध्यम से सरकार देश के हर नागरिक से एहतियात रखने को, दूरी बनाए रखने को कह रही थी और इधर एमपी में बीजेपी नेता एक-दूसरे से गले मिलने से बाज़ नहीं आ रहे थे!!!
जनता कर्फ़यू के चंद घंटों के आसपास कमलनाथ सरकार गिर गई, शिवराज सीएम बने। जनता कर्फ़यू के बावजूद यहां से सामूहिक जश्न की तस्वीरें आई! एक सच्ची और प्रमाणित तस्वीर में तो सीएम शिवराज सिंह चौहान, नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ खड़े दिख रहे थे!!! इन दिनों फ़ोन कॉल, टीवी, इंटरनेट के माध्यम से सरकार देश के हर नागरिक से एहतियात रखने को, दूरी बनाए रखने को कह रही थी और इधर एमपी में बीजेपी नेता एक-दूसरे से गले मिलने से बाज़ नहीं आ रहे थे!!!
Corona in India : अगर डरने की जरूरत नहीं है तो हल्के में भी लेने की जरूरत नहीं है
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का गिराया जाना सबसे बड़ी मिसाल है। स्वतंत्र पत्रकारों ने खुलकर लिखा कि वहां सरकार गिराने की कवायद पूरी करने के लिए लॉकडाउन के एलान में भी देरी की गई, जबकि कोरोना का संक्रमण तेजी से फैलना शुरू हो चुका था। कांग्रेस शासित कमलनाथ की सरकार गिराने और बीजेपी शासित शिवराज सिंह की सरकार बनाने हेतु मध्य प्रदेश में जिस तरह से नेताओं तथा उनके सैकड़ों समर्थकों का हुजूम उमड़ता रहा इन दिनों, वह प्रख्यात पंक्ति याद आ गई कि राजनीति में जो मूर्ख नहीं वो किसी काम का नहीं।
डब्ल्यूएचओ के सबसे बड़े और अंतिम अलार्म के बावजूद केंद्र सरकार लाखों लोगों को इक्ठ्ठा कर विदेशी नेता का चुनाव प्रचार हमारे यहाँ करती रही!
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का गिराया जाना सबसे बड़ी मिसाल है। स्वतंत्र पत्रकारों ने खुलकर लिखा कि वहां सरकार गिराने की कवायद पूरी करने के लिए लॉकडाउन के एलान में भी देरी की गई, जबकि कोरोना का संक्रमण तेजी से फैलना शुरू हो चुका था। कांग्रेस शासित कमलनाथ की सरकार गिराने और बीजेपी शासित शिवराज सिंह की सरकार बनाने हेतु मध्य प्रदेश में जिस तरह से नेताओं तथा उनके सैकड़ों समर्थकों का हुजूम उमड़ता रहा इन दिनों, वह प्रख्यात पंक्ति याद आ गई कि राजनीति में जो मूर्ख नहीं वो किसी काम का नहीं।
डब्ल्यूएचओ के सबसे बड़े और अंतिम अलार्म के बावजूद केंद्र सरकार लाखों लोगों को इक्ठ्ठा कर विदेशी नेता का चुनाव प्रचार हमारे यहाँ करती रही!
यूं तो दिसंबर 2019 से ही डब्ल्यूएचओ दुनिया के देशों को इस वायरस से अवगत करा रहा था। फिर 30 जनवरी 2020 को उसने पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न की घंटी बजा ही दी। यह डब्ल्यूएचओ का सबसे अंतिम और सबसे ऊंचा अलार्म था। उसकी जो स्थापित नियमावली है उस हिसाब से किसी ऐसी बीमारी को पैनडेमिक, यानि वैश्विक महामारी की सूची में डालना सबसे बड़ा अलार्म नहीं माना जाता। बल्कि उस बीमारी को पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न के तहत घोषित करना गंभीर और अंतिम चेतावनी मानी जाती है। जो 30 जनवरी 2020 को ही हो गया था।
डब्ल्यूएचओ द्वारा सबसे अंतिम और सबसे ऊंचे होर्न के बजाने के बाद भी सरकार सोती रही!!! पूरा फरवरी महीना और मार्च का करीब करीब आधे से ज्यादा महीना घोर लापरवाही में बीता!!! भारत सरकार ने 13 मार्च 2020 के दिन कहा था कि वैश्विक महामारी की स्थिति नहीं है!!! किसी को पता नहीं है कि सरकार ने, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं ने किस आधार पर यह दावा कर दिया था कि कोरोना से डरने की ज़रूरत नहीं है! सरकार और उनके प्रवक्ता तो उन दिनों कोरोना को लेकर चेताने वालों पर गरियाते थे! वे तो इन दिनों बाकायदा कह रहे थे कि भारत में तो कोरोना को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है!
डब्ल्यूएचओ द्वारा सबसे अंतिम और सबसे ऊंचे होर्न के बजाने के बाद भी सरकार सोती रही!!! पूरा फरवरी महीना और मार्च का करीब करीब आधे से ज्यादा महीना घोर लापरवाही में बीता!!! भारत सरकार ने 13 मार्च 2020 के दिन कहा था कि वैश्विक महामारी की स्थिति नहीं है!!! किसी को पता नहीं है कि सरकार ने, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं ने किस आधार पर यह दावा कर दिया था कि कोरोना से डरने की ज़रूरत नहीं है! सरकार और उनके प्रवक्ता तो उन दिनों कोरोना को लेकर चेताने वालों पर गरियाते थे! वे तो इन दिनों बाकायदा कह रहे थे कि भारत में तो कोरोना को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है!
Corona & Government Blunders : यदि भारत के वे नागरिक समाज के अपराधी हैं तो फिर भारत सरकार उस सामाजिक अपराध की आका है
इस स्थिति में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति और अगले राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप जैसे विदेशी नेता का चुनाव प्रचार यहाँ लाखों लोगों को इक्ठ्ठा करके किया जा रहा था! बाकायदा अहमदाबाद के स्टेडियम में सैकड़ों लोगों को इक्ठ्ठा किया गया! अहमदाबाद की सड़कों पर दूसरे सैकड़ों लोगों का लाया गया! गुजरात के कोने कोने से सरकारी कर्मचारियों, सरकारी शिक्षकों का हुजूम सरकार के छुपे हुए आदेश और सहूलियत के दम पर निकल पड़ा! गुजरात के सबसे बड़े शहर अहमदाबाद में भारत के सेलेब्रिटीज़ और गुजरात के कलाकारों को बुलाया गया! जमकर जश्न मनाया गया!
सोचिए, डब्ल्यूएचओ अपना आख़िरी और सबसे ऊँचा अलार्म बजा चुका था और हमारे यहाँ केंद्र सरकार बाकायदा आलीशान और चकाचौंध वाला चुनावी जश्न मना रही थी! वह भी विदेशी चुनाव का जश्न, विदेशी नेता के लिए! और यही सरकार और इसी सरकार के नायक गाहे बगाहे टेलीविजन पर आकर अचानक से लॉकडाउन का एलान कर देते हैं! फिर महीनों तक समूचे देश को बार बार आकर उपदेश देते हैं कि जागरूक बने, दो गज की दूरी रखे वगैरह वगैरह! इतनी लापरवाही अगर शीर्ष नेतृत्व में हो तो फिर सिस्टम को कोसने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
2020 का ये साल... लोकतंत्र पर हमलों और हमलों के खिलाफ लड़ने का ये साल
इस स्थिति में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति और अगले राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप जैसे विदेशी नेता का चुनाव प्रचार यहाँ लाखों लोगों को इक्ठ्ठा करके किया जा रहा था! बाकायदा अहमदाबाद के स्टेडियम में सैकड़ों लोगों को इक्ठ्ठा किया गया! अहमदाबाद की सड़कों पर दूसरे सैकड़ों लोगों का लाया गया! गुजरात के कोने कोने से सरकारी कर्मचारियों, सरकारी शिक्षकों का हुजूम सरकार के छुपे हुए आदेश और सहूलियत के दम पर निकल पड़ा! गुजरात के सबसे बड़े शहर अहमदाबाद में भारत के सेलेब्रिटीज़ और गुजरात के कलाकारों को बुलाया गया! जमकर जश्न मनाया गया!
सोचिए, डब्ल्यूएचओ अपना आख़िरी और सबसे ऊँचा अलार्म बजा चुका था और हमारे यहाँ केंद्र सरकार बाकायदा आलीशान और चकाचौंध वाला चुनावी जश्न मना रही थी! वह भी विदेशी चुनाव का जश्न, विदेशी नेता के लिए! और यही सरकार और इसी सरकार के नायक गाहे बगाहे टेलीविजन पर आकर अचानक से लॉकडाउन का एलान कर देते हैं! फिर महीनों तक समूचे देश को बार बार आकर उपदेश देते हैं कि जागरूक बने, दो गज की दूरी रखे वगैरह वगैरह! इतनी लापरवाही अगर शीर्ष नेतृत्व में हो तो फिर सिस्टम को कोसने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
2020 का ये साल... लोकतंत्र पर हमलों और हमलों के खिलाफ लड़ने का ये साल
सांप्रदायिकता और जातीय नफ़रत का नशा इस साल भी गहराता गया। चकाचौंध वाले विकास और संकुचित राष्ट्रवाद की चाशनी में डूबा हुआ नफ़रती एजेंडा आगे बढ़ता रहा। भारतीय लोकतंत्र के संकट की चर्चा भारत ही नहीं, भारत के बाहर भी होती रही। ब्रिटेन की मशहूर पत्रिका 'द इकॉनॉमिस्ट’ ने लिखा कि भारत एक पार्टी वाला देश बनने की ओर आगे बढ़ रहा है। दूसरे अंतरराष्ट्रीय अखबारों और पत्रिकाओं ने भी करीब करीब इसी प्रकार से आलोचनात्मक लेख छापे।
इस साल भी सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल का द्दश्य फिका नहीं पड़ा। सीबीआई, एनआईए, ईडी, इनकम टैक्स, पुलिस, पैसे आदि के दम पर सरकार ने अपने विरोधियों को दबाने-कुचलने की कोशिश नहीं छोड़ी। भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को बेहतर बनाने का दावा करने वाली मोदी सरकार के बारे में दुनियाभर की नामी पत्रिकाओं, संस्थाओं और मीडिया ने गंभीर सवाल उठाए। हर सवाल को भारत के खिलाफ साजिश बताकर काट दिया गया।
ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत दुनिया के 165 देशों में सीधे दस पायदान नीचे खिसक गया। मीडिया स्वतंत्रता में भारत फिसड्डी साबित हुआ। मानवाधिकार की सूची में नीचे जाता रहा। इन तमाम चिंताओं के बाद भी नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत के बयान से जाहिर हो गया कि केंद्र सरकार लोकतंत्र के खिलाफ और सख्त होने का इरादा रखती है।
अमिताभ कांत ने कह दिया कि भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है। नरेंद्र मोदी जैसे शासकों के काल में सरकार की मनशा ब्यूरोक्रेसी के बयानों से भी जानी समझी जाती है। कई दफा होता है कि सरकार की योजनाओं का अंदाजा ब्यूरोक्रेसी देश को अपने बयानों से देती रहती है। आर्थिक सुधार और लोकतंत्र एक साथ नहीं चलेंगे वाला अंदाज! मैं देश नहीं बिकने दूंगा वाले पुराने एलान के बीच यह ताजा संकेत था कि देश की संपत्ति और सरकारी सेवाओं को देशी व विदेशी कॉरपोरेट के हाथों में सौंपने का इरादा ज्यादा मजबूती के साथ आगे बढ़ेगा।
जेएनयू मामले में जिन कथित अपराधियों की पहचान हुई थी उनमें से किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। दूसरी तरफ भड़काऊ भाषण देने के मामले में दूसरे अनेक लोगों को गिरफ्तार किया गया, महीनों तक जेल में ठूंस दिया गया। अंत में अदालत सरकार को झूठे और तथ्यहिन मुकदमें दायर करने को लेकर फटकार लगा गई। सैकड़ो मामले इस साल भी हुए, जिसमें अपराध साबित नहीं हुआ। उधर अनेक राज्यों में बीजेपी के दिग्गज नेता सरैआम भड़काऊ भाषण देते रहे, उन पर कुछ नहीं हुआ। दिल्ली दंगे मामले में तो कमाल हो गया। जिन बीजेपी नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिये थे, जिनके वीडियो थे, उन पर एक जज ने मुकदमा दायर करने को कहा। नेताओं पर मुकदमा दायर नहीं हुआ, बल्कि जज का रातोरात ट्रांसफर हो गया! उधर सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, स्टूडेंट को चुन चुनकर जेल में ठूँसा गया।
ग्रेटा थनबर्ग टूलकिट मामला हो या सरकार के कामकाज को लेकर दूसरी अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ हो, बदले में भारत की केंद्रीय सत्ता ने जिस प्रकार से अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं, जिस तरह का रवैया अपनाया सत्ता ने, भारत की तो नहीं किंतु मोदी सरकार की साख सिरे से गिर गई। दिशा रवि मामला या नताशा नरवाल, देवांगना कलिता मामला, हर उस मामले में मोदी सत्ता ने उन बुद्धिजीवियों को सही साबित कर दिया, जो कहते रहे कि यह संशोधित आपातकाल है। दिल्ली दंगा हो, किसान आंदोलन हो, सीएए एनआरसी विरोध आंदोलन हो, सरकार की नीतियों के खिलाफ दूसरे विरोध प्रदर्शन हो या कुछेक मीडिया हाउस व स्वतंत्र पत्रकारों की सत्ता के खिलाफ आलोचना हो, हर मसले पर केंद्र सरकार ने लोकतंत्र, लोगों के संवैधानिक अधिकारों, किसी लोकतंत्र में किसी सरकार का सार्वजनिक रवैया, सब चीजों को हानि पहुंचायी।
उधर कोरोना काल में न सिर्फ संसद और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं और सूचना का अधिकार जैसे कानूनो को कमजोर बनाने का काम जारी रहा, बल्कि इस दिशा में कोरोना के नाम पर कुछ नए प्रयोग भी किए गए। कोरोना का मुकाबला करने के नाम पर कई चीजें लागू की गई।
अफसोस की बात यह रही कि न्यायपालिका भी कई मामलों में मौन रही। कई मामलों में सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलती रही। कई मामलों में न्यायपालिका से नागरिकों की आख़िरी आश टूटती रही।
सीएए, एनआरसी, जेएनयू, सरकार की नीतियाँ, मीडिया पर नियंत्रण, सांप्रदायिक नीतियों का विरोध, किसान आंदोलन समेत कई मुद्दों को लेकर भारत तपता रहा। इन मुद्दों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। कोई गलत हो सकता है, कोई सही। किंतु सरकार और उनके मंत्रियों ने जिस तरह से आंदोलनकारियों को लेकर रवैया अपनाया, जिस तरह के बिगड़े बोल के तीर चलाए, वह अप्रत्याशित था। उधर सरकारों को पसंद ना हो ऐसे रिपोर्ट छापने पर मीडिया, स्वतंत्र पत्रकारों पर तरह तरह के मामले दर्ज होते रहे। राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग का चलन घटने के बजाए बढ़ता रहा। आलोचकों को दबाने के लिए पिछले साल से भी आगे बढ़ने में सरकार ने गुरेज नहीं रखा। शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे स्वतंत्र लोगों पर, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पुलिस के जरिए मामले दाखिल होते रहे, उन्हें जेल भेजा जाता रहा। बिना संसद में चर्चा किए तरह तरह के नीति नियम क़ानून लागू होते गए। अध्यादेश के जरिए सरकार नहीं चलनी चाहिए, सर्वोच्च न्यायालय की इस नसीहत को सरकार ने कोरोना काल में काढ़े के साथ घोल कर पी लिया!
करीब ढाई महीने तक चले लॉकडाउन के तहत लोगों के हर तरह के काम-धंधे बंद रहे लेकिन सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स की मदद से विपक्षी नेताओं को परेशान करने और विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का काम चालू रहा।
कोरोना के नाम पर एकाधिकार को बढ़ाने के नए नए प्रयोग
इस साल भी सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल का द्दश्य फिका नहीं पड़ा। सीबीआई, एनआईए, ईडी, इनकम टैक्स, पुलिस, पैसे आदि के दम पर सरकार ने अपने विरोधियों को दबाने-कुचलने की कोशिश नहीं छोड़ी। भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को बेहतर बनाने का दावा करने वाली मोदी सरकार के बारे में दुनियाभर की नामी पत्रिकाओं, संस्थाओं और मीडिया ने गंभीर सवाल उठाए। हर सवाल को भारत के खिलाफ साजिश बताकर काट दिया गया।
ग्लोबल डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत दुनिया के 165 देशों में सीधे दस पायदान नीचे खिसक गया। मीडिया स्वतंत्रता में भारत फिसड्डी साबित हुआ। मानवाधिकार की सूची में नीचे जाता रहा। इन तमाम चिंताओं के बाद भी नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत के बयान से जाहिर हो गया कि केंद्र सरकार लोकतंत्र के खिलाफ और सख्त होने का इरादा रखती है।
अमिताभ कांत ने कह दिया कि भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है। नरेंद्र मोदी जैसे शासकों के काल में सरकार की मनशा ब्यूरोक्रेसी के बयानों से भी जानी समझी जाती है। कई दफा होता है कि सरकार की योजनाओं का अंदाजा ब्यूरोक्रेसी देश को अपने बयानों से देती रहती है। आर्थिक सुधार और लोकतंत्र एक साथ नहीं चलेंगे वाला अंदाज! मैं देश नहीं बिकने दूंगा वाले पुराने एलान के बीच यह ताजा संकेत था कि देश की संपत्ति और सरकारी सेवाओं को देशी व विदेशी कॉरपोरेट के हाथों में सौंपने का इरादा ज्यादा मजबूती के साथ आगे बढ़ेगा।
जेएनयू मामले में जिन कथित अपराधियों की पहचान हुई थी उनमें से किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। दूसरी तरफ भड़काऊ भाषण देने के मामले में दूसरे अनेक लोगों को गिरफ्तार किया गया, महीनों तक जेल में ठूंस दिया गया। अंत में अदालत सरकार को झूठे और तथ्यहिन मुकदमें दायर करने को लेकर फटकार लगा गई। सैकड़ो मामले इस साल भी हुए, जिसमें अपराध साबित नहीं हुआ। उधर अनेक राज्यों में बीजेपी के दिग्गज नेता सरैआम भड़काऊ भाषण देते रहे, उन पर कुछ नहीं हुआ। दिल्ली दंगे मामले में तो कमाल हो गया। जिन बीजेपी नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिये थे, जिनके वीडियो थे, उन पर एक जज ने मुकदमा दायर करने को कहा। नेताओं पर मुकदमा दायर नहीं हुआ, बल्कि जज का रातोरात ट्रांसफर हो गया! उधर सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, स्टूडेंट को चुन चुनकर जेल में ठूँसा गया।
ग्रेटा थनबर्ग टूलकिट मामला हो या सरकार के कामकाज को लेकर दूसरी अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ हो, बदले में भारत की केंद्रीय सत्ता ने जिस प्रकार से अपनी प्रतिक्रियाएँ दीं, जिस तरह का रवैया अपनाया सत्ता ने, भारत की तो नहीं किंतु मोदी सरकार की साख सिरे से गिर गई। दिशा रवि मामला या नताशा नरवाल, देवांगना कलिता मामला, हर उस मामले में मोदी सत्ता ने उन बुद्धिजीवियों को सही साबित कर दिया, जो कहते रहे कि यह संशोधित आपातकाल है। दिल्ली दंगा हो, किसान आंदोलन हो, सीएए एनआरसी विरोध आंदोलन हो, सरकार की नीतियों के खिलाफ दूसरे विरोध प्रदर्शन हो या कुछेक मीडिया हाउस व स्वतंत्र पत्रकारों की सत्ता के खिलाफ आलोचना हो, हर मसले पर केंद्र सरकार ने लोकतंत्र, लोगों के संवैधानिक अधिकारों, किसी लोकतंत्र में किसी सरकार का सार्वजनिक रवैया, सब चीजों को हानि पहुंचायी।
उधर कोरोना काल में न सिर्फ संसद और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं और सूचना का अधिकार जैसे कानूनो को कमजोर बनाने का काम जारी रहा, बल्कि इस दिशा में कोरोना के नाम पर कुछ नए प्रयोग भी किए गए। कोरोना का मुकाबला करने के नाम पर कई चीजें लागू की गई।
अफसोस की बात यह रही कि न्यायपालिका भी कई मामलों में मौन रही। कई मामलों में सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलती रही। कई मामलों में न्यायपालिका से नागरिकों की आख़िरी आश टूटती रही।
सीएए, एनआरसी, जेएनयू, सरकार की नीतियाँ, मीडिया पर नियंत्रण, सांप्रदायिक नीतियों का विरोध, किसान आंदोलन समेत कई मुद्दों को लेकर भारत तपता रहा। इन मुद्दों को लेकर मतभेद हो सकते हैं। कोई गलत हो सकता है, कोई सही। किंतु सरकार और उनके मंत्रियों ने जिस तरह से आंदोलनकारियों को लेकर रवैया अपनाया, जिस तरह के बिगड़े बोल के तीर चलाए, वह अप्रत्याशित था। उधर सरकारों को पसंद ना हो ऐसे रिपोर्ट छापने पर मीडिया, स्वतंत्र पत्रकारों पर तरह तरह के मामले दर्ज होते रहे। राजद्रोह क़ानून के दुरुपयोग का चलन घटने के बजाए बढ़ता रहा। आलोचकों को दबाने के लिए पिछले साल से भी आगे बढ़ने में सरकार ने गुरेज नहीं रखा। शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे स्वतंत्र लोगों पर, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पुलिस के जरिए मामले दाखिल होते रहे, उन्हें जेल भेजा जाता रहा। बिना संसद में चर्चा किए तरह तरह के नीति नियम क़ानून लागू होते गए। अध्यादेश के जरिए सरकार नहीं चलनी चाहिए, सर्वोच्च न्यायालय की इस नसीहत को सरकार ने कोरोना काल में काढ़े के साथ घोल कर पी लिया!
करीब ढाई महीने तक चले लॉकडाउन के तहत लोगों के हर तरह के काम-धंधे बंद रहे लेकिन सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स की मदद से विपक्षी नेताओं को परेशान करने और विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने का काम चालू रहा।
कोरोना के नाम पर एकाधिकार को बढ़ाने के नए नए प्रयोग
सबसे पहले तो समूचे देश में तालाबंदी का फैसला बिल्कुल अचानक से लागू कर दिया गया। काला धन के खिलाफ ठोस कदम जैसा मामला नहीं था कि बिना किसी को पूछे, कहे लागू करने से कोई फायदा मिलने वाला हो। राज्यों के साथ ना कोई चर्चा हुई, ना कुछ दूसरा तीसरा। बस अचानक से तालाबंदी का एलान। महामारी क़ानून लागू कर दिया गया।
तालाबंदी से लेकर वैक्सीन के प्रस्तावित वितरण को लेकर किसी भी फैसले में राज्य सरकारों को शामिल नहीं किया गया। यही नहीं, विपक्षी राज्य सरकारों को ज़रूरी मदद मुहैया कराने में भरपूर कोताही बर्ती गई। राज्यों ने शिकायतें की तो सरैआम राज्यों को झूठा तक कह दिया गया।
तालाबंदी से लेकर वैक्सीन के प्रस्तावित वितरण को लेकर किसी भी फैसले में राज्य सरकारों को शामिल नहीं किया गया। यही नहीं, विपक्षी राज्य सरकारों को ज़रूरी मदद मुहैया कराने में भरपूर कोताही बर्ती गई। राज्यों ने शिकायतें की तो सरैआम राज्यों को झूठा तक कह दिया गया।
Corona in India : दिया तले ही अंधेरा! आख़िर सूचना और ज्ञान का इतना अकाल क्यों है?
अफसोस की बात यह रही कि न्यायपालिका भी कई मामलों में मौन रही। कई मामलों में सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलती रही। देश को पहली दफा ऐसी तालाबंदी को महसूस कर रहा था, उधर 370 निष्प्रभावी होने के बाद जम्मू-कश्मीर की जनता तो महीनों से अपने अपने घरों में कैद सी ही थी। दुनिया का सबसे लंबा इंटरनेट शटडाउन भारत के जम्मू-कश्मीर में ही लागू हुआ। जम्मू-कश्मीर में नागरिकी अधिकारों की सैकड़ो अर्जियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जिस प्रकार से तेजी दिखाई देनी चाहिए थी, नहीं दिखाई दी। ज़िला परिषद जैसे दुमछल्ले चुनावों में सत्ताधारी नेताओं को तमाम प्रकार की छूट दी गई थी, किंतु विपक्षी नेताओं तथा आम नागरिकों को किसी प्रकार की कोई इजाजत, सहूलियत ना सरकारी स्तर से आई, ना अदालत की दहलीज से।
बाज़ार से संबंधित फैसले, नीति, नियम, क़ानून झटके में लाए गए। किसानी, मजदूरी, श्रम से संबंधित क़ानूनों को आनन फानन में लागू कर दिया गया। निजीकरण, सरकारी संपत्ति को बेचना, जैसे कथित आर्थिक सुधार विवादित ढंग से लागू होते रहे। संसद यूं तो पूरे साल ठप रही, किंतु बिना संसद के देश साल भर चलता रहा। चुनाव हुए, दूसरे कार्यक्रम हुए, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट नहीं रुका। दूसरी तरफ संसद का कामकाज बंद हो गया। वह क़ानून लागू नहीं हुए, जिसके लिए एक समय देश ने लड़ाई लड़ी थी। किंतु वह चीजें लागू हो गई, जिसके खिलाफ देश को लड़ाई लड़नी पड़ रही है।
सरकार ने कोरोना महामारी का उपयोग सिर्फ संविधान के संघीय ढांचे को बिगाड़ने के लिए ही नहीं किया। उसने इस महामारी से निबटने में अपनी अक्षमता छुपाने के लिए देश के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने का काम भी किया, जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी और उसके प्रचार तंत्र तथा मीडिया के एक बड़े हिस्से ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की।
लव जिहाद का शिगूफा
अफसोस की बात यह रही कि न्यायपालिका भी कई मामलों में मौन रही। कई मामलों में सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलती रही। देश को पहली दफा ऐसी तालाबंदी को महसूस कर रहा था, उधर 370 निष्प्रभावी होने के बाद जम्मू-कश्मीर की जनता तो महीनों से अपने अपने घरों में कैद सी ही थी। दुनिया का सबसे लंबा इंटरनेट शटडाउन भारत के जम्मू-कश्मीर में ही लागू हुआ। जम्मू-कश्मीर में नागरिकी अधिकारों की सैकड़ो अर्जियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जिस प्रकार से तेजी दिखाई देनी चाहिए थी, नहीं दिखाई दी। ज़िला परिषद जैसे दुमछल्ले चुनावों में सत्ताधारी नेताओं को तमाम प्रकार की छूट दी गई थी, किंतु विपक्षी नेताओं तथा आम नागरिकों को किसी प्रकार की कोई इजाजत, सहूलियत ना सरकारी स्तर से आई, ना अदालत की दहलीज से।
बाज़ार से संबंधित फैसले, नीति, नियम, क़ानून झटके में लाए गए। किसानी, मजदूरी, श्रम से संबंधित क़ानूनों को आनन फानन में लागू कर दिया गया। निजीकरण, सरकारी संपत्ति को बेचना, जैसे कथित आर्थिक सुधार विवादित ढंग से लागू होते रहे। संसद यूं तो पूरे साल ठप रही, किंतु बिना संसद के देश साल भर चलता रहा। चुनाव हुए, दूसरे कार्यक्रम हुए, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट नहीं रुका। दूसरी तरफ संसद का कामकाज बंद हो गया। वह क़ानून लागू नहीं हुए, जिसके लिए एक समय देश ने लड़ाई लड़ी थी। किंतु वह चीजें लागू हो गई, जिसके खिलाफ देश को लड़ाई लड़नी पड़ रही है।
सरकार ने कोरोना महामारी का उपयोग सिर्फ संविधान के संघीय ढांचे को बिगाड़ने के लिए ही नहीं किया। उसने इस महामारी से निबटने में अपनी अक्षमता छुपाने के लिए देश के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने का काम भी किया, जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी और उसके प्रचार तंत्र तथा मीडिया के एक बड़े हिस्से ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की।
लव जिहाद का शिगूफा
लव जिहाद नाम का वह शिगूफा फिर बाज़ार में उतारा गया। मोदी सरकार की प्रथम पारी के दौरान जब तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह से लव जिहाद के बारे में पूछा गया था तब उन्होंने पत्रकारों से ही अपने अंदाज में पूछ लिया था कि ये लव जिहाद क्या है? उन्होंने तब जानकारी दी थी कि ऐसा कोई मामला गृह मंत्रालय की नजर में नहीं है। इस बीच कुछेक अदालतों में भी यह मामला आया, तब भी यही नतीजा निकला था कि ऐसी कोई चीज़ नहीं है। इस साल यूपी में योगी सरकार ने फिर एक बार यह हौव्वा खड़ा किया। आनन फ़ानन में धर्मांतरण से संबंधित एक क़ानून तक पारित कर दिया।
यूं तो 2005 के बाद से लव जिहाद का ये लव भूत उछल कूद कर रहा है। किंतु अब तक एक भी मामले को अदालत में साबित नहीं किया जा सका है। सुप्रीम कोर्ट तक ये मामला पहुंचा था, नतीजा ज़ीरो रहा। भूतपूर्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान के बाद एक दफा केंद्र शासित मोदी सरकार ने इस साल 2020 में कह या कि लव जिहाद का कोई भी मामला उसके संज्ञान में नहीं है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की अधीरता के बावजूद कोई मामला साबित नहीं किया जा सका।
क़ानून बनते ही यूपी मे अंतर धार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों को अलग किया जाने लगा, हिंदू लड़कियों से शादी करने वाले मुस्लिम लड़कों को जेल में डाला जाने लगा। उधर ऐसे तमाम मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गलत पाया और पुलिस व प्रशासन को फटकार लगाई। अदालत ने साफ लफ्जों में कह दिया कि कौन किससे शादी करेगा और किस धर्म को अपनाएगा ये व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, सत्ता प्रशासन और पुलिस दखन नहीं दे सकती। हालाँकि इससे योगी सरकार की शैली में कोई फर्क नहीं पड़ा।
हाथरस मामला
यूं तो 2005 के बाद से लव जिहाद का ये लव भूत उछल कूद कर रहा है। किंतु अब तक एक भी मामले को अदालत में साबित नहीं किया जा सका है। सुप्रीम कोर्ट तक ये मामला पहुंचा था, नतीजा ज़ीरो रहा। भूतपूर्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान के बाद एक दफा केंद्र शासित मोदी सरकार ने इस साल 2020 में कह या कि लव जिहाद का कोई भी मामला उसके संज्ञान में नहीं है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की अधीरता के बावजूद कोई मामला साबित नहीं किया जा सका।
क़ानून बनते ही यूपी मे अंतर धार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों को अलग किया जाने लगा, हिंदू लड़कियों से शादी करने वाले मुस्लिम लड़कों को जेल में डाला जाने लगा। उधर ऐसे तमाम मामलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गलत पाया और पुलिस व प्रशासन को फटकार लगाई। अदालत ने साफ लफ्जों में कह दिया कि कौन किससे शादी करेगा और किस धर्म को अपनाएगा ये व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, सत्ता प्रशासन और पुलिस दखन नहीं दे सकती। हालाँकि इससे योगी सरकार की शैली में कोई फर्क नहीं पड़ा।
हाथरस मामला
हाथरस मामला सभी को चौंका गया। एक दलित लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म सरीखा अपराध हुआ। मरने से पहले पीड़िता ने पूरा वाक़या बयान कराया, अपराधियों के नाम लिए। उधर यूपी सरकार ने खुलेआम कर दिया कि उस लड़की के साथ दुष्कर्म हुआ ही नहीं। बीजेपी के सांसदों और स्थानीय नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर प्रचारित किया कि ये ऑनर किलिंग का मामला है। पुलिस की मौजूदगी में पीड़ित परिवार को धमकी दी गई, लोकल डीएम ने मीडिया की उपस्थिति में परिवार को धमकाया। इतना ही नहीं रातोंरात लड़की के शव को पेट्रोल डालकर जला दिया। बाद में सीबीआई कोर्ट में साबित हुआ कि योगी सरकार ने झूठ बोला था। इस बार भी योगी सरकार को इससे रत्तीभर फर्क नहीं पड़ा।
मीडिया, जिसे रेंगने को कहा गया तो वह बेजान सी गुड़िया की भाँति पड़ा रहा!
मीडिया, जिसे रेंगने को कहा गया तो वह बेजान सी गुड़िया की भाँति पड़ा रहा!
इंदिरा गाँधी के घोषित आपातकाल के संदर्भ में बीजेपी नेता आडवाणी ने मीडिया से कहा था कि आपको तो सिर्फ झूकने को कहा गया था, आप तो रेंगने लगे! नरेंद्र मोदी शासन में, जिसे अब संशोधित आपातकाल कहा जाने लगा है, मीडिया के बारे में कहा जाता है कि आपको तो सिर्फ रेंगने को कहा गया था, आप तो बेजान सी गुड़िया बन कर सोने लगे!!! सरकार के पक्ष में मीडिया ने खुलकर रिपोटिंग की। अनेका अनेक बार की। हर मुद्दे पर की। कोरोना महामारी के दौरान तबलीगी जमात मामले में मीडिया रिपोर्टींग का जो स्तर था, वह किसी व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के ग्रुप सरीखा निकला। जेएनयू मामला, सीएए एनआरसी विरोध मामला, किसान आंदोलन समेत दूसरे तमाम आंदोलनों में मीडिया ने पक्षपाती तरीके से रीपोर्ट पेश किए। कहा जाने लगा कि पहले अख़बार छपते थे और फिर बिकते थे, अब उससे उल्टा हो रहा है!
कंगना रनौत मामला हो या सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला, लव जिहाद हो या कोरोना पर रिपोर्टींग हो, मीडिया ने खुद को व्हाट्एसप का कोई लोकल ग्रुप ही साबित किया! राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की आलोचना होती तब मीडिया का एक खास हिस्सा बिना शर्म के केंद्र सरकार के साथ खड़ा हो जाता! सरकार से सवाल पूछने वालों को मीडिया सवाल करने लगा! अंतरराष्ट्रीय स्तर भारत सरकार की नीतियों की आलोचना होती तो मीडिया सत्ता से पहले कूद जाता और आलोचकों को भारत के खिलाफ षडयंत्रकारी बता देता!
कंगना रनौत मामला हो या सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला, लव जिहाद हो या कोरोना पर रिपोर्टींग हो, मीडिया ने खुद को व्हाट्एसप का कोई लोकल ग्रुप ही साबित किया! राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की आलोचना होती तब मीडिया का एक खास हिस्सा बिना शर्म के केंद्र सरकार के साथ खड़ा हो जाता! सरकार से सवाल पूछने वालों को मीडिया सवाल करने लगा! अंतरराष्ट्रीय स्तर भारत सरकार की नीतियों की आलोचना होती तो मीडिया सत्ता से पहले कूद जाता और आलोचकों को भारत के खिलाफ षडयंत्रकारी बता देता!
Media War : डिजिटल इंडिया के डिजिटल मीडिया की डिजिटल जंग
जब कहीं बीजेपी जीतती तो मीडिया के खास हिस्से का दिल दिन भर बाग बाग हो जाता, जीते के पीछे मोदीजी को लार्जर देन लाइफ बनाने की राजनीतिक प्रवृत्ति खुलकर मीडिया का वह हिस्सा करने लगता। कहीं बीजेपी हारती तो मीडिया का वह खास हिस्सा दिन भर दूसरे तरीके से रिपोर्टींग करने लगता। जैसे कि खास खयाल रख रहा हो कि मोदीजी की छवि को जरा भी नुकसान पहुंचना नहीं चाहिए! उस खास हिस्से में भारतीय मीडिया का बहुधा भाग शामिल रहता। चुनाव आते ही सत्ता के पक्ष में ट्वीट ट्रेंड कराने से लेकर सत्ता के पक्ष में वातावरण तैयार करने में मीडिया का वह हिस्सा खुलकर आगे रहने लगा! स्वतंत्र पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू कर दिया कि मीडिया का वह हिस्सा मीडिया बनकर काम नहीं करता, वह तो सत्ताधारियों का प्रवक्ता बनकर काम करता है!
मीडिया के इस खास हिस्से ने, उस खास हिस्से के एंकरों, पत्रकारों ने अनेक बार फेक न्यूज़ कैटेगरी तक की रिपोर्टींग की! अनेक बार काल्पनिक व अपुष्ट बातों को आगे बढ़ाया! मीडिया किसी की चाटूकारिता को बेबाक राय बताने लगा! विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सत्ता के आलोचकों को यह मीडिया तन कर सवाल पूछता, लेकिन सत्ता से सवाल करने का कर्तव्य इसे याद नहीं रहा! लगने लगा कि अपने आलोचकों को केवल सत्ता ही परेशान नहीं कर रही, सत्ता से पहले मीडिया इनके पीछे पड़ जाता है! सत्ता से सवाल या सत्ता की आलोचना का धर्म मीडिया का यह हिस्सा भूल गया।
कहा जाने लगा कि अगर भारत के मीडिया को सदैव के लिए तो नहीं, किंतु कुछ महीनों के लिए सत्ता अपनी मुठ्ठी से आजाद कर दे और अगर वह मीडिया कुछ महीनों के लिए अपने मूल कर्तव्यों के आधे हिस्से का भी काम कर दे, तो फिर महानायक के ताश के पत्तों का महल भरभरा कर गिर जाएगा और मोदीजी की सरकार भारत की अत्यंत खराब सरकारों की सूची में शामिल हो जाएगी।
महामारी के खिलाफ वह लड़ाई, जो हिंदू मुसलमान के नाम पर भी लड़ी गई!
जब कहीं बीजेपी जीतती तो मीडिया के खास हिस्से का दिल दिन भर बाग बाग हो जाता, जीते के पीछे मोदीजी को लार्जर देन लाइफ बनाने की राजनीतिक प्रवृत्ति खुलकर मीडिया का वह हिस्सा करने लगता। कहीं बीजेपी हारती तो मीडिया का वह खास हिस्सा दिन भर दूसरे तरीके से रिपोर्टींग करने लगता। जैसे कि खास खयाल रख रहा हो कि मोदीजी की छवि को जरा भी नुकसान पहुंचना नहीं चाहिए! उस खास हिस्से में भारतीय मीडिया का बहुधा भाग शामिल रहता। चुनाव आते ही सत्ता के पक्ष में ट्वीट ट्रेंड कराने से लेकर सत्ता के पक्ष में वातावरण तैयार करने में मीडिया का वह हिस्सा खुलकर आगे रहने लगा! स्वतंत्र पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू कर दिया कि मीडिया का वह हिस्सा मीडिया बनकर काम नहीं करता, वह तो सत्ताधारियों का प्रवक्ता बनकर काम करता है!
मीडिया के इस खास हिस्से ने, उस खास हिस्से के एंकरों, पत्रकारों ने अनेक बार फेक न्यूज़ कैटेगरी तक की रिपोर्टींग की! अनेक बार काल्पनिक व अपुष्ट बातों को आगे बढ़ाया! मीडिया किसी की चाटूकारिता को बेबाक राय बताने लगा! विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सत्ता के आलोचकों को यह मीडिया तन कर सवाल पूछता, लेकिन सत्ता से सवाल करने का कर्तव्य इसे याद नहीं रहा! लगने लगा कि अपने आलोचकों को केवल सत्ता ही परेशान नहीं कर रही, सत्ता से पहले मीडिया इनके पीछे पड़ जाता है! सत्ता से सवाल या सत्ता की आलोचना का धर्म मीडिया का यह हिस्सा भूल गया।
कहा जाने लगा कि अगर भारत के मीडिया को सदैव के लिए तो नहीं, किंतु कुछ महीनों के लिए सत्ता अपनी मुठ्ठी से आजाद कर दे और अगर वह मीडिया कुछ महीनों के लिए अपने मूल कर्तव्यों के आधे हिस्से का भी काम कर दे, तो फिर महानायक के ताश के पत्तों का महल भरभरा कर गिर जाएगा और मोदीजी की सरकार भारत की अत्यंत खराब सरकारों की सूची में शामिल हो जाएगी।
महामारी के खिलाफ वह लड़ाई, जो हिंदू मुसलमान के नाम पर भी लड़ी गई!
भारत के लोगों ने घरों में बंद रहकर सिर्फ कोरोना से ही लड़ाई नहीं लड़ी, उसने तो हिंदू मुसलमान वाली जंग का भी नजारा देख लिया। तबलीग़ी जमात के एक कार्यक्रम के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय को निशाने पर लेकर प्रचारित यह किया गया कि भारत में कोरोना की यह महामारी मुसलमानों की देन है और वे ही इसे पूरे देश में फैला रहे हैं! चंद मूर्ख धार्मिक लोगों की गलती की सज़ा पूरे समुदाय को भुगतनी पड़ी।
इसमें कोई शक नहीं कि तबलीग़ी जमात ने जो किया वह किसी द्दष्टिकोण से ठीक नहीं था। बिना संकोच के लिखा जा सकता है कि इस स्थिति में तबलीग़ी जमात का यह कारनामा मूर्खामी नहीं, बल्कि गुनाह सरीखा कृत्य ही था। सैकड़ों लोगों को दुनियाभर से बुलवाकर भारत के किसी एक इलाके में इकठ्ठा करना कोरोना काल में सामाजिक अपराध की चरमसीमा थी। देशभर से सैकड़ों मुस्लिम धर्मगुरु इक्ठ्ठा हुए, विदेशों से कई मुस्लिम धार्मिक प्रतिनिधि आएं। उपरांत देश-विदेश से कई दूसरे लोग भी पहुंचे। कोई प्रमाणित आंकड़ा तो नहीं है लेकिन कहा गया कि तादाद हजारों में थी। देशभर में सब कुछ बंद था। केंद्र सरकार की तरफ से सूचना जारी हो चुकी थी। राज्य सरकारें भी आदेश दे चुकी थी। पीएम देश को संबोधित कर बता चुके थे।
इसमें कोई शक नहीं कि तबलीग़ी जमात ने जो किया वह किसी द्दष्टिकोण से ठीक नहीं था। बिना संकोच के लिखा जा सकता है कि इस स्थिति में तबलीग़ी जमात का यह कारनामा मूर्खामी नहीं, बल्कि गुनाह सरीखा कृत्य ही था। सैकड़ों लोगों को दुनियाभर से बुलवाकर भारत के किसी एक इलाके में इकठ्ठा करना कोरोना काल में सामाजिक अपराध की चरमसीमा थी। देशभर से सैकड़ों मुस्लिम धर्मगुरु इक्ठ्ठा हुए, विदेशों से कई मुस्लिम धार्मिक प्रतिनिधि आएं। उपरांत देश-विदेश से कई दूसरे लोग भी पहुंचे। कोई प्रमाणित आंकड़ा तो नहीं है लेकिन कहा गया कि तादाद हजारों में थी। देशभर में सब कुछ बंद था। केंद्र सरकार की तरफ से सूचना जारी हो चुकी थी। राज्य सरकारें भी आदेश दे चुकी थी। पीएम देश को संबोधित कर बता चुके थे।
Corona Criminals : एक दिया अंधेरगर्दी की इस दुनिया के लिए भी हो! जमात उधर भी है, जमात इधर भी है!
यूं तो कहा गया कि तबलीग़ी जमात के लोग जमा हुए उसके बाद सरकार से सूचना जारी हुई, आदेश आए, पीएम ने संबोधित किया और लॉकडाउन हुआ। लेकिन फिर भी उन्होंने एक तरीके से सरकार को सह्योग नहीं दिया बाद में! उन्हें बाहर निकालने, अपने घर पहुंचाने के प्रयासों में वे प्रशासनिक प्रयासों से बचते नजर आए! राज्यों की पुलिस उन्हें ढूंढने में लग गई! धर्म की मूल समझ के हिसाब से तो उन्हें खुद ही सामने आना चाहिए और सह्योग देना चाहिए। लेकिन उन्हें ढूंढना पड़ रहा था! इतनी नासमझी क्यों, यह सवाल उठ खड़ा हुआ। उधर दिल्ली पुलिस, दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र शासित मोदी सरकार, सभी एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहे। किसी ने स्थिति को संभालने की सही कोशिश नहीं की। मीडिया की मदद से इस घटना को सांप्रदायिक रूप दे दिया गया! व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से लेकर सोशल मीडिया के दूसरे मंचों से फैलाया जाने लगा कि मुसलमानों ने कोरोना को फैला दिया है!
मीडिया की कृपा से तबलीग़ी जमात का ये संभवित गुनाह हिंदू मूसलमान की लड़ाई में बदल गया! मौलाना साद सामने नहीं आए तो सांप्रदायिक लड़ाई लड़ने वालों को मौका मिल गया। तबलीग़ी जमात के लोग सरकार और प्रशासन से बचकर निकलने लगे तो सोशल मीडिया को अवसर मिला। उधर सालभर ऐसी अनेक घटनाएँ दूसरे संप्रदायों में भी होती रही! मुसलमानों के संबंध में तबलीग़ी जमात की घटना के बाद अनेक जगहों पर सामूदायिक रूप से नमाज पढ़ने की कोशिशे, उधर गैर मुस्लिम समुदाय के धार्मिक लोग भी सामुहिक जमावड़े, सामूदायिक ढंग से कार्यक्रम करते रहे! सामान्य लोगों से लेकर नेता और उनके समर्थक गाहे बगाहे इक्ठ्ठा होकर अपने अपने निजी कार्यक्रम करते रहे! हिंदू मुसलमान की लड़ाई का वो द्दश्य, जो नागरिकी ढंग से सामाजिक अपराध था, वैसा अपराध सालभर दूसरे संप्रदाय के लोग भी करते रहे।
सालभर की बात तो छोड़िए, डब्ल्यूएचओ के सबसे ऊँचे अलार्म के बाद भी हमारे यहाँ अहमदाबाद में हजारों लाखों लोग इक्ठ्ठा हुए थे! उस सबसे अंतिम अलार्म के बाद भी कनिका कपूर के साथ वीवीआईपी लोग रात को गाना वाना बजाकर पार्टियाँ करते रहे थे! तालाबंदी के एलान के बाद तथा महामारी क़ानून के लागू होने के बाद पटना, हरिद्वार, मथुरा समेत दूसरी जगहों से गैर मुस्लिम संप्रदाय के लोगों के ऐसे कथित सामाजिक अपराध की रिपोर्टें सालभर छपती रही!
अंधविश्वास, टोटको, लोगों को मूर्ख बनाने का यह साल... जिसमें धार्मिक प्रतिनिधि, बाबा रामदेव, केंद्रीय नेताओं से लेकर सेलेब्रिटीज़ तक ने सह्योग किया
यूं तो कहा गया कि तबलीग़ी जमात के लोग जमा हुए उसके बाद सरकार से सूचना जारी हुई, आदेश आए, पीएम ने संबोधित किया और लॉकडाउन हुआ। लेकिन फिर भी उन्होंने एक तरीके से सरकार को सह्योग नहीं दिया बाद में! उन्हें बाहर निकालने, अपने घर पहुंचाने के प्रयासों में वे प्रशासनिक प्रयासों से बचते नजर आए! राज्यों की पुलिस उन्हें ढूंढने में लग गई! धर्म की मूल समझ के हिसाब से तो उन्हें खुद ही सामने आना चाहिए और सह्योग देना चाहिए। लेकिन उन्हें ढूंढना पड़ रहा था! इतनी नासमझी क्यों, यह सवाल उठ खड़ा हुआ। उधर दिल्ली पुलिस, दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र शासित मोदी सरकार, सभी एकदूसरे पर दोषारोपण करते रहे। किसी ने स्थिति को संभालने की सही कोशिश नहीं की। मीडिया की मदद से इस घटना को सांप्रदायिक रूप दे दिया गया! व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से लेकर सोशल मीडिया के दूसरे मंचों से फैलाया जाने लगा कि मुसलमानों ने कोरोना को फैला दिया है!
मीडिया की कृपा से तबलीग़ी जमात का ये संभवित गुनाह हिंदू मूसलमान की लड़ाई में बदल गया! मौलाना साद सामने नहीं आए तो सांप्रदायिक लड़ाई लड़ने वालों को मौका मिल गया। तबलीग़ी जमात के लोग सरकार और प्रशासन से बचकर निकलने लगे तो सोशल मीडिया को अवसर मिला। उधर सालभर ऐसी अनेक घटनाएँ दूसरे संप्रदायों में भी होती रही! मुसलमानों के संबंध में तबलीग़ी जमात की घटना के बाद अनेक जगहों पर सामूदायिक रूप से नमाज पढ़ने की कोशिशे, उधर गैर मुस्लिम समुदाय के धार्मिक लोग भी सामुहिक जमावड़े, सामूदायिक ढंग से कार्यक्रम करते रहे! सामान्य लोगों से लेकर नेता और उनके समर्थक गाहे बगाहे इक्ठ्ठा होकर अपने अपने निजी कार्यक्रम करते रहे! हिंदू मुसलमान की लड़ाई का वो द्दश्य, जो नागरिकी ढंग से सामाजिक अपराध था, वैसा अपराध सालभर दूसरे संप्रदाय के लोग भी करते रहे।
सालभर की बात तो छोड़िए, डब्ल्यूएचओ के सबसे ऊँचे अलार्म के बाद भी हमारे यहाँ अहमदाबाद में हजारों लाखों लोग इक्ठ्ठा हुए थे! उस सबसे अंतिम अलार्म के बाद भी कनिका कपूर के साथ वीवीआईपी लोग रात को गाना वाना बजाकर पार्टियाँ करते रहे थे! तालाबंदी के एलान के बाद तथा महामारी क़ानून के लागू होने के बाद पटना, हरिद्वार, मथुरा समेत दूसरी जगहों से गैर मुस्लिम संप्रदाय के लोगों के ऐसे कथित सामाजिक अपराध की रिपोर्टें सालभर छपती रही!
अंधविश्वास, टोटको, लोगों को मूर्ख बनाने का यह साल... जिसमें धार्मिक प्रतिनिधि, बाबा रामदेव, केंद्रीय नेताओं से लेकर सेलेब्रिटीज़ तक ने सह्योग किया
कहते हैं कि पढ़ने लिखने से जागरूकता आती है। 21वीं शताब्दी का ये समाज निश्चित रूप से पिछली शताब्दी से ज्यादा पढ़ा लिखा समाज है। किंतु इस साल इस पढ़े लिखे समाज को जिस प्रकार आसानी से मूर्ख बनाया गया, पढ़ने लिखने से जागरूकता आती है या चली जाती है, यह रिसर्च फिर करना ज़रूरी बन गया! वैसे बता दें कि पढ़ने लिखने से जागरूकता आती ही है, इसमें कोई संदेह नहीं। किंतु जब समाज भावनाप्रधान और विचारशून्य बनने लगे तब जागरूकता की शक्ति का लोप हो जाता है। राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, फेक न्यूज़ जैसे हथियार चलाकर लोगों को भावनाप्रधान और विचारशून्य बनाया जाता है। फिर वह समाज दिनभर सोशल मीडिया पर, व्हाट्सएप पर लगा रहता है। दिनभर वह समाज अनर्गल चीजें पढ़कर समझने लगता है कि उसके पास जानकारी का भंडार है!
इस साल दिया बाती की जगह पटाखे भी फोड़े गए, मोमबत्ती की जगह मशाल लेकर कोरोना को मारने नेताजी कूद पड़े, महिला नेता ने रिवोल्वर लेकर फायरिंग कर दी, थाली पीटते पीटते सड़क पर आ गए लोग! बेचारे चाइनीज़ वायरस को अंग्रेजी में गो कोरोना गो कह दिया गया!
इस साल दिया बाती की जगह पटाखे भी फोड़े गए, मोमबत्ती की जगह मशाल लेकर कोरोना को मारने नेताजी कूद पड़े, महिला नेता ने रिवोल्वर लेकर फायरिंग कर दी, थाली पीटते पीटते सड़क पर आ गए लोग! बेचारे चाइनीज़ वायरस को अंग्रेजी में गो कोरोना गो कह दिया गया!
Corona Fake News : दिग्गज नेता या सेलिब्रिटीज सरीखे महानुभाव ही क्यों फेक न्यूज़ साझा कर रहे हैं?
तबलीग़ी जमात के लोगों को जबरन अस्पताल ले जाना पड़ा। वहाँ वे कहने लगे कि उन्हें इलाज की ज़रूरत ही नहीं है। उनके धार्मिक प्रतिनिधि मौलाना साद के कथित वीडियो पुलिस के पास आए, जिसमें वे कहते दिखे कि मौत के लिए मस्जिद से ज्यादा अच्छी जगह कोई नहीं है, कोरोना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता!!! यह ईरान की एक घटना जैसा था, जिसमें वहां के सुप्रीम लीडर मौलवी मुहम्मद सईदी ने तो यहां तक कह दिया था कि धार्मिक जगहों पर आने से ऐसी बीमारियां ठीक हो जाती है!!!
हिंदू महासभा के स्वामी चक्रपाणी ने कह दिया कि कोरोना वायरस नहीं है बल्कि एक अवतार है!!! रामकथा के प्रचारक मोरारी बापू ने कह दिया कि यह तो चाइना की आइटम है, चिंता न करें, ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी! एक नेताजी पापड़ से कोरोना का इलाज करने चल पड़े! बर्तन और थाली की ध्वनि से वायरस को मारने का दावा होने लगा! सोशल मीडिया वाले साउंड बाइब्रेशन से और उधर टेलीविजन पर साबुन वाले साबुन से कोरोना को मारने लगे!
महानायक अमिताभ बच्चन नक्षत्र, शंख बजाना और काली शक्तियों वाला ट्वीट कर गए! कोविड 19 मक्खियों से भी फैल सकता है वाला ज्ञान बाँट गए! सुपरस्टार रजनीकांत ने वायरस के खत्म होने का समय ज्ञान बाँट दिया! मलयाली सुपरस्टार मोहनलाल साउंड वाइब्रेशन से कोरोना को मारने लगे! पुडुचेरी की राज्यपाल किरण बेदी ने मुर्गियों का वीडियो साझा करते हुए दावा किया कि इनका जन्म कोरोना वायरस की वजह से नकारे गए अंडों से हुआ है!
महामारी के दौरान हर जगह अंधविश्वास और वैज्ञानिकता का संघर्ष हुआ। कोरोना वायरस को बेअसर करने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसे फूडड़ प्रहसन रचे गए। आयुर्वेद में बताए गए वैज्ञानिक शोध कार्यों को बढ़ावा देने के बजाय एक खास हिस्सा इसका इस्तेमाल लोगों को अंधविश्वासी बनाने में करता है। गजब यह रहा कि शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व से लेकर शीर्ष धार्मिक प्रतिनिधि तक इस मूर्ख कार्यों को आगे बढ़ाने लगे! सेलेब्रिटीज़, पढ़े लिखे शिक्षक समुदाय सरीखे लोग तक मूर्खता के इस यज्ञ में अपना सह्योग देते नजर आए!
कारोबारी योगगुरू रामदेव को कोरोना की दवाई के नाम पर उन जड़ी-बूटियों को बेचने की छूट भी दी गई, जिनके कोरोना वायरस पर असर के कोई सबूत नहीं हैं! खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी कोरोना से लड़ने के लिए डॉक्टर, अस्पताल, एंबुलेंस, मुफ्त जांच और सस्ती दवाइयों पर चर्चा करने के बजाय योग, ध्यान और काढ़े पर ज्यादा जोर दिया!
तबलीगी जमात को कोसने वाले, उन्हें महामारी के अपराधी कहने वाले लोग साबित कर गए कि जमात उधर नहीं, इधर भी है। कोरोना से बचाव के लिए जारी तमाम दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज कर सामूहिक नमाज, मस्जिदों में इक्ठ्ठा होना, मंदिर का शिलान्यास, दीपोत्सव और गंगा आरती जैसे राजनीतिक एजेंडे वाले तमाम कर्मकांड धूमधाम से चलते रहे!
राज्य को धर्म से अलग रखने के संवैधानिक निर्देश की खिल्ली उड़ाते हुए प्रधानमंत्री भी इन आयोजनों में शिरकत करते रहे! मास्क पहनने और दो गज की दूरी रखने की उनकी नसीहत सिर्फ आम लोगों के लिए थी। बिहार सहित कई राज्यों में हुए चुनाव-उपचुनाव के दौरान भी कोरोना प्रोटोकॉल को नजरअंदाज करते हुए प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो होते रहे!
सिंपल सी बात थी कि कोरोना कोविड 19 का इलाज धर्म के पास नहीं है, विज्ञान के पास है। इतनी सिंपल सी बात से देश को दूर रखने का अपराध धर्म के प्रतिनिधियों से लेकर बाबा जैसे व्यवसायियों और अनपढ़ सरीखे नेताओं से लेकर पढ़े लिखे शिक्षकों और सेलेब्रिटीज़ ने भी किया!
हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे यहाँ कोरोना के पेशेंट कम हैं, एक्सपर्ट ज्यादा हैं! दुनिया कितनी पीछे थी। हम तो पापड़, अंग्रेजी नारे, मशाल, साउंड वाइब्रेशन, टैबलेट, साबुन तक से कोरोना को मार रहे थे! उधर बेचारी दुनिया अब भी टीका ढूंढ रही थी!
आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा माइग्रेशन... जब सड़कों पर मजदूर अपने परिवारों के साथ दर दर भटकते रहे
तबलीग़ी जमात के लोगों को जबरन अस्पताल ले जाना पड़ा। वहाँ वे कहने लगे कि उन्हें इलाज की ज़रूरत ही नहीं है। उनके धार्मिक प्रतिनिधि मौलाना साद के कथित वीडियो पुलिस के पास आए, जिसमें वे कहते दिखे कि मौत के लिए मस्जिद से ज्यादा अच्छी जगह कोई नहीं है, कोरोना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता!!! यह ईरान की एक घटना जैसा था, जिसमें वहां के सुप्रीम लीडर मौलवी मुहम्मद सईदी ने तो यहां तक कह दिया था कि धार्मिक जगहों पर आने से ऐसी बीमारियां ठीक हो जाती है!!!
हिंदू महासभा के स्वामी चक्रपाणी ने कह दिया कि कोरोना वायरस नहीं है बल्कि एक अवतार है!!! रामकथा के प्रचारक मोरारी बापू ने कह दिया कि यह तो चाइना की आइटम है, चिंता न करें, ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी! एक नेताजी पापड़ से कोरोना का इलाज करने चल पड़े! बर्तन और थाली की ध्वनि से वायरस को मारने का दावा होने लगा! सोशल मीडिया वाले साउंड बाइब्रेशन से और उधर टेलीविजन पर साबुन वाले साबुन से कोरोना को मारने लगे!
महानायक अमिताभ बच्चन नक्षत्र, शंख बजाना और काली शक्तियों वाला ट्वीट कर गए! कोविड 19 मक्खियों से भी फैल सकता है वाला ज्ञान बाँट गए! सुपरस्टार रजनीकांत ने वायरस के खत्म होने का समय ज्ञान बाँट दिया! मलयाली सुपरस्टार मोहनलाल साउंड वाइब्रेशन से कोरोना को मारने लगे! पुडुचेरी की राज्यपाल किरण बेदी ने मुर्गियों का वीडियो साझा करते हुए दावा किया कि इनका जन्म कोरोना वायरस की वजह से नकारे गए अंडों से हुआ है!
महामारी के दौरान हर जगह अंधविश्वास और वैज्ञानिकता का संघर्ष हुआ। कोरोना वायरस को बेअसर करने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसे फूडड़ प्रहसन रचे गए। आयुर्वेद में बताए गए वैज्ञानिक शोध कार्यों को बढ़ावा देने के बजाय एक खास हिस्सा इसका इस्तेमाल लोगों को अंधविश्वासी बनाने में करता है। गजब यह रहा कि शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व से लेकर शीर्ष धार्मिक प्रतिनिधि तक इस मूर्ख कार्यों को आगे बढ़ाने लगे! सेलेब्रिटीज़, पढ़े लिखे शिक्षक समुदाय सरीखे लोग तक मूर्खता के इस यज्ञ में अपना सह्योग देते नजर आए!
कारोबारी योगगुरू रामदेव को कोरोना की दवाई के नाम पर उन जड़ी-बूटियों को बेचने की छूट भी दी गई, जिनके कोरोना वायरस पर असर के कोई सबूत नहीं हैं! खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी कोरोना से लड़ने के लिए डॉक्टर, अस्पताल, एंबुलेंस, मुफ्त जांच और सस्ती दवाइयों पर चर्चा करने के बजाय योग, ध्यान और काढ़े पर ज्यादा जोर दिया!
तबलीगी जमात को कोसने वाले, उन्हें महामारी के अपराधी कहने वाले लोग साबित कर गए कि जमात उधर नहीं, इधर भी है। कोरोना से बचाव के लिए जारी तमाम दिशा-निर्देशों को नजरअंदाज कर सामूहिक नमाज, मस्जिदों में इक्ठ्ठा होना, मंदिर का शिलान्यास, दीपोत्सव और गंगा आरती जैसे राजनीतिक एजेंडे वाले तमाम कर्मकांड धूमधाम से चलते रहे!
राज्य को धर्म से अलग रखने के संवैधानिक निर्देश की खिल्ली उड़ाते हुए प्रधानमंत्री भी इन आयोजनों में शिरकत करते रहे! मास्क पहनने और दो गज की दूरी रखने की उनकी नसीहत सिर्फ आम लोगों के लिए थी। बिहार सहित कई राज्यों में हुए चुनाव-उपचुनाव के दौरान भी कोरोना प्रोटोकॉल को नजरअंदाज करते हुए प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो होते रहे!
सिंपल सी बात थी कि कोरोना कोविड 19 का इलाज धर्म के पास नहीं है, विज्ञान के पास है। इतनी सिंपल सी बात से देश को दूर रखने का अपराध धर्म के प्रतिनिधियों से लेकर बाबा जैसे व्यवसायियों और अनपढ़ सरीखे नेताओं से लेकर पढ़े लिखे शिक्षकों और सेलेब्रिटीज़ ने भी किया!
हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे यहाँ कोरोना के पेशेंट कम हैं, एक्सपर्ट ज्यादा हैं! दुनिया कितनी पीछे थी। हम तो पापड़, अंग्रेजी नारे, मशाल, साउंड वाइब्रेशन, टैबलेट, साबुन तक से कोरोना को मार रहे थे! उधर बेचारी दुनिया अब भी टीका ढूंढ रही थी!
आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा माइग्रेशन... जब सड़कों पर मजदूर अपने परिवारों के साथ दर दर भटकते रहे
महीने भर तक चुनावी जश्न, सरकारें बनाने गिराने का खेल और फिर अचानक से लॉकडाउन का एलान! सरकार की इस नीति के चलते इस साल सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुए तो वह थे मजदूर और कामगार। इस साल लॉकडाउन के बीच भारत की सड़कों पर जो द्दश्य सामने आया वह हमेशा याद रहेगा। समूचा भारत बंद था, लोग अपने अपने घरों में रामायण धारावाहिक का लुफ्त उठा रहे थे, सेलिब्रिटीज़ घरों से अपने अपने वर्कआउट के वीडियो डालकर लोगों का मनोरंजन कर रहे थे, पीएम मोदीजी तक योग के वीडियो डालकर समय बिता रहे थे और उधर भारत की सड़कों पर मजबूर मजदूर अपने परिवारों के साथ दर दर भटक रहे थे!
यह महानगरों की बेरुखी का साल था। यह आधुनिक और युवा भारत के उस घिनौने चेहरे के सामने आने का साल था, जो सोशल मीडिया में आदर्श नागरिक बनने का नाटक किया करता है। तालाबंदी के बाद कई राज्यों में मजदूर और दूसरे प्रवासी कामगार अपने अपने घरों को निकलने के लिए मजबूर हो गए। क्योंकि काम छिन गया था, पैसे मिल नहीं रहे थे, खाना नसीब नहीं हो रहा था। शहरों की दुनिया ने मुँह मोड़ लिया था। दो वक्त खाना उन्हें गाँव जाकर ही मिलना था। जिंदा रहने की कोशिश भारत की सड़कों पर यूं निकली, जैसे कि आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा माइग्रेशन हो रहा हो!
राज्यों ने सरहदें लगा दीं। वह भटकते रहे। अपने ही राज्य में एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाने के लिए लोग तरसते रहे! सात समंदर पार करना हो ऐसी दिक्कतों से रूबरू होते रहे। जिस पुलिस को कोरोना योद्धा कहा करते थे पीएम मोदी इन दिनों, उसी पुलिस के सामने हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते मजदूर और प्रवासी कामगार परिवार नजर आने लगे। रोते विलपते बच्चे, बेहाल माता पिता, भूख से तड़पते परिवार... भारत ने इन दिनों जो देखा वह अगर स्मृतिलोप का रोग ना होता तो बंद आँखें खोल देता।
अनेक जगहों पर निश्चित रूप से लोग मदद करते भी नजर आए। कई जगहों पर उनके लिए सेवा यज्ञ भी चले। सोशल मीडिया पर लोग ग्रुप बनाकर सड़कों पर आए और इन लोगों की मदद भी करने लगे। किंतु जो काम सरकारों का था, जो काम प्रशासन का था, सरकार-प्रशासन कहीं दूबक कर बैठ गए थे! एक आम नागरिक, एक आम एनजीओ, कोरोना काल में, लॉकडाउन के बीच और क़ानूनी बंदीशों के समय में कितनी मदद कर पाते? कितने हद तक जाकर कर पाते?
अपने घर जाने को निकले ये लोग बीच रास्ते में मरने लगे। ट्रेन इन्हें कुचलकर आगे बढ़ दी। कोई सैकड़ों किलोमीटरों तक पैदल चल दिया। कोई कच्चे रास्तों, खेतों, सूखी नदियों की तपती रेत में मर मर कर आगे बढ़ता रहा। कोई बीच रास्ते में दम तोड़ गया। कोई घर पहुंचकर बीमार होकर मर गया।
यूं कहे कि गुनाह पासपोर्ट का था, कसूरवार राशनकार्ड वाले हो गए! ये पूछ भी ना सकें कि विदेश से चंद लोगों को विमान से ले आए, हमें अपने ही देश में ऐसे बेहाल क्यों छोड़ गए?
किसानों का आंदोलन, जागो मोदी-शाह.. तुम्हारे सरकार आए हैं
यह महानगरों की बेरुखी का साल था। यह आधुनिक और युवा भारत के उस घिनौने चेहरे के सामने आने का साल था, जो सोशल मीडिया में आदर्श नागरिक बनने का नाटक किया करता है। तालाबंदी के बाद कई राज्यों में मजदूर और दूसरे प्रवासी कामगार अपने अपने घरों को निकलने के लिए मजबूर हो गए। क्योंकि काम छिन गया था, पैसे मिल नहीं रहे थे, खाना नसीब नहीं हो रहा था। शहरों की दुनिया ने मुँह मोड़ लिया था। दो वक्त खाना उन्हें गाँव जाकर ही मिलना था। जिंदा रहने की कोशिश भारत की सड़कों पर यूं निकली, जैसे कि आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा माइग्रेशन हो रहा हो!
राज्यों ने सरहदें लगा दीं। वह भटकते रहे। अपने ही राज्य में एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाने के लिए लोग तरसते रहे! सात समंदर पार करना हो ऐसी दिक्कतों से रूबरू होते रहे। जिस पुलिस को कोरोना योद्धा कहा करते थे पीएम मोदी इन दिनों, उसी पुलिस के सामने हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते मजदूर और प्रवासी कामगार परिवार नजर आने लगे। रोते विलपते बच्चे, बेहाल माता पिता, भूख से तड़पते परिवार... भारत ने इन दिनों जो देखा वह अगर स्मृतिलोप का रोग ना होता तो बंद आँखें खोल देता।
अनेक जगहों पर निश्चित रूप से लोग मदद करते भी नजर आए। कई जगहों पर उनके लिए सेवा यज्ञ भी चले। सोशल मीडिया पर लोग ग्रुप बनाकर सड़कों पर आए और इन लोगों की मदद भी करने लगे। किंतु जो काम सरकारों का था, जो काम प्रशासन का था, सरकार-प्रशासन कहीं दूबक कर बैठ गए थे! एक आम नागरिक, एक आम एनजीओ, कोरोना काल में, लॉकडाउन के बीच और क़ानूनी बंदीशों के समय में कितनी मदद कर पाते? कितने हद तक जाकर कर पाते?
अपने घर जाने को निकले ये लोग बीच रास्ते में मरने लगे। ट्रेन इन्हें कुचलकर आगे बढ़ दी। कोई सैकड़ों किलोमीटरों तक पैदल चल दिया। कोई कच्चे रास्तों, खेतों, सूखी नदियों की तपती रेत में मर मर कर आगे बढ़ता रहा। कोई बीच रास्ते में दम तोड़ गया। कोई घर पहुंचकर बीमार होकर मर गया।
यूं कहे कि गुनाह पासपोर्ट का था, कसूरवार राशनकार्ड वाले हो गए! ये पूछ भी ना सकें कि विदेश से चंद लोगों को विमान से ले आए, हमें अपने ही देश में ऐसे बेहाल क्यों छोड़ गए?
किसानों का आंदोलन, जागो मोदी-शाह.. तुम्हारे सरकार आए हैं
सरकार ने तीन दशकों से वैश्विक उद्योगपतियों की ओर से चल रही मांग को कोरोना की आड़ में एक झटके में पूरा कर दिया! मोदी सरकार ने अल्पकालीन मॉनसून सत्र के दौरान 5 अहम विधेयक पारित कराए। इसमें 3 किसानों, 1 मजदूरों व 1 कंपनियों से सीधे तौर पर जुड़े हैं। खेती-किसानी को कॉरपोरेट के हवाले कर देने वाले कानून पहले अध्यादेश की शक्ल में लाए गए और फिर संसद में उसे जोर-जबरदस्ती से पारित कराया गया! फिर बिना किसी को बताए संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित कर दिया गया!
किसानों ने इसका विरोध किया। सरकार से मांग की गई कि इन क़ानूनों पर दोबारा विचार किया जाए। सरकार ने किसानों की बिनती को ध्यान पर ही नहीं लिया। किसान पंजाब में प्रदर्शन करने बैठ गए। दिनों, सप्ताहों तक वहाँ किसानों का प्रदर्शन जारी रहा। केंद्र सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया। सरकार का ध्यान खींचने के लिए किसानों ने रेल रोको आंदोलन किया। पंजाब में रेल पटरीओं पर किसानों ने कब्ज़ा कर लिया। सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। उलटा सरकार ने किसानों पर मुकदमें दर्ज कर दिये। पंजाब के अलावा हरियाणा, राजस्थान, पूर्वांचल समैत दूसरे कई राज्यों के किसान अपने अपने तरीके से अपने यहाँ विरोध कर रहे थे। कोई सरकार ध्यान नहीं दे रही थी।
आखिरकार किसान मजबूर हो गया। फिर शुरु हुआ वह आंदोलन जो आजाद हिंदुस्तान में अब तक का सबसे लंबा किसान आंदोलन बन चुका है! किसान दिल्ली पहुंचे तो अनेक राज्यों के किसान अपनी अपनी सरकारों से बचते हुए साथ देने पहुंच गए। किसानों ने सीधे सीधे एलान करते हुए अपनी मांग जता दी और कह दिया कि सरकार क़ानून वापस ले। किसानों ने सीधे सीधे कह दिया कि इसके नीचे और इसके सिवा किसानों को कुछ और मंजूर नहीं है और न ही मंजूर होगा।
अपने अधिकारों के लिए दिल्ली आए किसानों के साथ निर्मम सुलूक किया गया। कोरोना संक्रमण के खतरे को नजरअंदाज करते हुए भीषण सर्दी में उन पर ठंडे पानी की बौछार की गई और आंसू-गैस के गोले छोड़े गए। देश के अन्नदाता को दिल्ली की सीमा में प्रवेश करने से रोका गया। यही नहीं, पंजाब और हरियाणा में उन किसानों के घरों पर इनकम टैक्स के छापे भी डलवाए गए! मोदी शासित सरकार ने अपने बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों का उपयोग करते हुए वहाँ के किसानों को दिल्ली तक पहुंचने से रोकने की कोशिशें तक की! गुजरात के कुछ किसान पहुंचने में सफल हो गए, किंतु कइयों को रोक दिया गया! कई राज्यों के किसानों को आंदोलन से दूर रहने की सख्त नसीहतें अलग अलग तरीकों से दी गई! इसे लेकर कुछेक लोकल अखबारों ने रिपोर्टींग भी की।
इतना ही नहीं, मोदी शासित सत्ता, उनके मंत्री, उनके नेता, मोदी सत्ता के समर्थक समेत गोदी मीडिया और कंगना रनौत जैसे चापलूस कलाकारों का इस्तेमाल कर मोदी सरकार ने किसानों के खिलाफ जमकर जहर फैलाया, जमकर वातावरण खराब करने की कोशिश कीं! गोदी मीडिया में, बीजेपी आईटी सेल में, बीजेपी और मोदी सत्ता के समर्थकों के व्हाट्सएप, फ़ेसबुक में किसानों के बारे में, किसान आंदोलन के बारे में गलत शलत खबरें चलाई गई! किसानों के बारे में गजब के फेक न्यूज़ फैलाए गए! देश के अन्नदाता को आतंकवादी तक कहा गया!!!
लेकिन किसानों ने हार नहीं मानी। जैसे जैसे सरकार की सख्ती बढ़ती गई, किसानों का हौसला बुलंद होता गया। सरकार व सरकार समर्थित अलग अलग प्रकार के समुदायों के आयोजित दुष्प्रचार से लड़ते हुए देश का अन्नदाता दिल्ली की सरहद पर डटा रहा। उसने कातिलाना ठंड झेली। उसने ठंड में अपनों की मौतों का गम भी झेला। देश के अन्नदाता ने देश की सरकार का वो चेहरा भी झेला, जो करीब करीब अड़ियल चेहरा था। देश के तात् ने देश के ही कुछ लोगों की बेरुखी भी झेली। किंतु किसान अपने धरों से बाहर आए थे, तभी से कुछ सोच कर आए थे। किसानों ने कह दिया कि वह वापस घर जाएँगे, लेकिन खाली हाथ नहीं जाएँगे। किसानों ने कह दिया कि सरकार यह ना सोचे कि किसान थक कर हार कर वापस चला जाएगा।
महिलाओं की क्रांति का ये साल, जब भारत की महिलाएँ आंदोलनों में सड़कों पर उतर आईं!
किसानों ने इसका विरोध किया। सरकार से मांग की गई कि इन क़ानूनों पर दोबारा विचार किया जाए। सरकार ने किसानों की बिनती को ध्यान पर ही नहीं लिया। किसान पंजाब में प्रदर्शन करने बैठ गए। दिनों, सप्ताहों तक वहाँ किसानों का प्रदर्शन जारी रहा। केंद्र सरकार ने ध्यान ही नहीं दिया। सरकार का ध्यान खींचने के लिए किसानों ने रेल रोको आंदोलन किया। पंजाब में रेल पटरीओं पर किसानों ने कब्ज़ा कर लिया। सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। उलटा सरकार ने किसानों पर मुकदमें दर्ज कर दिये। पंजाब के अलावा हरियाणा, राजस्थान, पूर्वांचल समैत दूसरे कई राज्यों के किसान अपने अपने तरीके से अपने यहाँ विरोध कर रहे थे। कोई सरकार ध्यान नहीं दे रही थी।
आखिरकार किसान मजबूर हो गया। फिर शुरु हुआ वह आंदोलन जो आजाद हिंदुस्तान में अब तक का सबसे लंबा किसान आंदोलन बन चुका है! किसान दिल्ली पहुंचे तो अनेक राज्यों के किसान अपनी अपनी सरकारों से बचते हुए साथ देने पहुंच गए। किसानों ने सीधे सीधे एलान करते हुए अपनी मांग जता दी और कह दिया कि सरकार क़ानून वापस ले। किसानों ने सीधे सीधे कह दिया कि इसके नीचे और इसके सिवा किसानों को कुछ और मंजूर नहीं है और न ही मंजूर होगा।
अपने अधिकारों के लिए दिल्ली आए किसानों के साथ निर्मम सुलूक किया गया। कोरोना संक्रमण के खतरे को नजरअंदाज करते हुए भीषण सर्दी में उन पर ठंडे पानी की बौछार की गई और आंसू-गैस के गोले छोड़े गए। देश के अन्नदाता को दिल्ली की सीमा में प्रवेश करने से रोका गया। यही नहीं, पंजाब और हरियाणा में उन किसानों के घरों पर इनकम टैक्स के छापे भी डलवाए गए! मोदी शासित सरकार ने अपने बीजेपी शासित राज्यों की सरकारों का उपयोग करते हुए वहाँ के किसानों को दिल्ली तक पहुंचने से रोकने की कोशिशें तक की! गुजरात के कुछ किसान पहुंचने में सफल हो गए, किंतु कइयों को रोक दिया गया! कई राज्यों के किसानों को आंदोलन से दूर रहने की सख्त नसीहतें अलग अलग तरीकों से दी गई! इसे लेकर कुछेक लोकल अखबारों ने रिपोर्टींग भी की।
इतना ही नहीं, मोदी शासित सत्ता, उनके मंत्री, उनके नेता, मोदी सत्ता के समर्थक समेत गोदी मीडिया और कंगना रनौत जैसे चापलूस कलाकारों का इस्तेमाल कर मोदी सरकार ने किसानों के खिलाफ जमकर जहर फैलाया, जमकर वातावरण खराब करने की कोशिश कीं! गोदी मीडिया में, बीजेपी आईटी सेल में, बीजेपी और मोदी सत्ता के समर्थकों के व्हाट्सएप, फ़ेसबुक में किसानों के बारे में, किसान आंदोलन के बारे में गलत शलत खबरें चलाई गई! किसानों के बारे में गजब के फेक न्यूज़ फैलाए गए! देश के अन्नदाता को आतंकवादी तक कहा गया!!!
लेकिन किसानों ने हार नहीं मानी। जैसे जैसे सरकार की सख्ती बढ़ती गई, किसानों का हौसला बुलंद होता गया। सरकार व सरकार समर्थित अलग अलग प्रकार के समुदायों के आयोजित दुष्प्रचार से लड़ते हुए देश का अन्नदाता दिल्ली की सरहद पर डटा रहा। उसने कातिलाना ठंड झेली। उसने ठंड में अपनों की मौतों का गम भी झेला। देश के अन्नदाता ने देश की सरकार का वो चेहरा भी झेला, जो करीब करीब अड़ियल चेहरा था। देश के तात् ने देश के ही कुछ लोगों की बेरुखी भी झेली। किंतु किसान अपने धरों से बाहर आए थे, तभी से कुछ सोच कर आए थे। किसानों ने कह दिया कि वह वापस घर जाएँगे, लेकिन खाली हाथ नहीं जाएँगे। किसानों ने कह दिया कि सरकार यह ना सोचे कि किसान थक कर हार कर वापस चला जाएगा।
महिलाओं की क्रांति का ये साल, जब भारत की महिलाएँ आंदोलनों में सड़कों पर उतर आईं!
राम मनोहर लोहिया के द्वारा कहा गया एक कथन है। उन्होंने कहा था कि अगर सड़के खाली हो गई तो संसद आवारा हो जाएगी। लोकतंत्र में विरोध, प्रदर्शन और आंदोलन की ज़रूरत को यह कथन दर्शाता है।
सीएए विरोध हो, एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन हो, शाहीन बाग का आंदोलन हो, किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन हो या विश्वविद्यालयों के भीतर के द्दश्य हो, इस साल भारत भूमि की महिलाओं और बच्चों ने आंदोलनों में सड़कों पर आकर एक नया द्दश्य और नयी समझ स्थापित कर दी! ये बात और है कि सत्ता के लिए यह सब उपद्रवी और कभी कभी आतंकवादी भी हो गए! किंतु यही सत्ता भारत भूमि की महिलाओं की शक्ति और ताक़त को नमन करने की राजनीति करती आयी है। अब की बार मोदी सरकार में महिलाओं ने उस शक्ति को जमीन पर दिखा दिया।
भारत के इन तमाम आंदोलनों में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया! शाहीन बाग का वह आंदोलन इस कदर सरकार के लिए चिंता का सबब बना कि सरकार के दिग्गजों की पेशानी पर चिंता की लक़ीरें दिखने लगी। सत्ता के लिए राहत की बात यह रही कि कोरोना के आगमन ने शाहीन बाग का आंदोलन खत्म कर दिया।
किंतु दूसरी तरफ दूसरे राज्यों में महिलाएँ दूसरे मुद्दों को लेकर काफी मुखर रहीं। कई महिलाओं को राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप लगाकर जेलों में ठूंसा गया! किंतु इन्होंने हार नहीं मानी। यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ हो, या फिर सामाजिक महिला कार्यकर्ताएँ हो, महिलाओं ने भारत के पुरुषों को बौना साबित कर दिया!
जब किसान घरों से पुरुष अपने अपने घर या गाँव छोड़कर दिल्ली चल पड़े, तो इन महिलाओं ने किसानी और खेती का काम संभाल लिया! गाँवों से वह तस्वीरें आने लगी, जहाँ महिलाओं ने अकेले दम पर गाँवों, परिवारों, किसानी और खेती का काम संभाल लिया! कहा कि उनके पति, भाई, दादा, चाचा भविष्य को बचाने जंग करने गए हैं और वह एक दूसरी जंग घर से लड़ रही हैं। वह समय भी आया जब औरतों ने आखिरकार गाँव घर छोड़ दिल्ली से सटी सरहदों पर ही डेरा डाल दिया!
अंत में किसान आंदोलन में वह तस्वीरें दिखी जिसने सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। महिलाएँ अपने पूरे परिवार के समैत सड़कों पर उतर आईं! दिल्ली से सटी सरहदों पर इन्होंने अपने गाँव बसा लिए! चूल्हा, रोटी, खाना, पानी, आंदोलन, विरोध... महिलाओं ने अपने घर के काम काज के साथ साथ अपने अधिकारों की रक्षा हेतु वह सब किया जो वाक़ई अद्भुत था!
वो बड़े नाम जिनकी वाणी ने जता दिया कि नाम बड़ा है लेकिन दर्शन छोटे हैं
सीएए विरोध हो, एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन हो, शाहीन बाग का आंदोलन हो, किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन हो या विश्वविद्यालयों के भीतर के द्दश्य हो, इस साल भारत भूमि की महिलाओं और बच्चों ने आंदोलनों में सड़कों पर आकर एक नया द्दश्य और नयी समझ स्थापित कर दी! ये बात और है कि सत्ता के लिए यह सब उपद्रवी और कभी कभी आतंकवादी भी हो गए! किंतु यही सत्ता भारत भूमि की महिलाओं की शक्ति और ताक़त को नमन करने की राजनीति करती आयी है। अब की बार मोदी सरकार में महिलाओं ने उस शक्ति को जमीन पर दिखा दिया।
भारत के इन तमाम आंदोलनों में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया! शाहीन बाग का वह आंदोलन इस कदर सरकार के लिए चिंता का सबब बना कि सरकार के दिग्गजों की पेशानी पर चिंता की लक़ीरें दिखने लगी। सत्ता के लिए राहत की बात यह रही कि कोरोना के आगमन ने शाहीन बाग का आंदोलन खत्म कर दिया।
किंतु दूसरी तरफ दूसरे राज्यों में महिलाएँ दूसरे मुद्दों को लेकर काफी मुखर रहीं। कई महिलाओं को राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप लगाकर जेलों में ठूंसा गया! किंतु इन्होंने हार नहीं मानी। यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ हो, या फिर सामाजिक महिला कार्यकर्ताएँ हो, महिलाओं ने भारत के पुरुषों को बौना साबित कर दिया!
जब किसान घरों से पुरुष अपने अपने घर या गाँव छोड़कर दिल्ली चल पड़े, तो इन महिलाओं ने किसानी और खेती का काम संभाल लिया! गाँवों से वह तस्वीरें आने लगी, जहाँ महिलाओं ने अकेले दम पर गाँवों, परिवारों, किसानी और खेती का काम संभाल लिया! कहा कि उनके पति, भाई, दादा, चाचा भविष्य को बचाने जंग करने गए हैं और वह एक दूसरी जंग घर से लड़ रही हैं। वह समय भी आया जब औरतों ने आखिरकार गाँव घर छोड़ दिल्ली से सटी सरहदों पर ही डेरा डाल दिया!
अंत में किसान आंदोलन में वह तस्वीरें दिखी जिसने सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। महिलाएँ अपने पूरे परिवार के समैत सड़कों पर उतर आईं! दिल्ली से सटी सरहदों पर इन्होंने अपने गाँव बसा लिए! चूल्हा, रोटी, खाना, पानी, आंदोलन, विरोध... महिलाओं ने अपने घर के काम काज के साथ साथ अपने अधिकारों की रक्षा हेतु वह सब किया जो वाक़ई अद्भुत था!
वो बड़े नाम जिनकी वाणी ने जता दिया कि नाम बड़ा है लेकिन दर्शन छोटे हैं
बिगड़े बोल प्रतियोगिता में हर साल भारत में नेतागीरी जीती हुई नजर आती है। इस साल कंगना रनौत नाम की बॉलीवुड अदाकारा ने नेताओं को भी कड़ी टक्कर दी! कंगना रनौत ने किसी एक राजनीतिक दल की चाटुकारिता के चक्कर में सारी सीमाओं को लाँध दिया!
नरेंद्र मोदी सरकार में वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने साल की शुरुआत से ही अपना खाता खोल दिया था। दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान गोली मारो... वाला नारा और सभा का वह द्दश्य अनुराग ठाकुर ने पेश किया! चुनाव प्रचार के दौरान इनकी वाणी काबू में नहीं रही। आखिरकार चुनाव आयोग ने आदेश दिया कि इन्हें प्रचारक की सूची से बाहर करे। सितंबर में बेवजह गाँधी-नेहरू परिवार पर कमेंट कर विवादों में फंसे।
नरेंद्र मोदी सरकार में वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने साल की शुरुआत से ही अपना खाता खोल दिया था। दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान गोली मारो... वाला नारा और सभा का वह द्दश्य अनुराग ठाकुर ने पेश किया! चुनाव प्रचार के दौरान इनकी वाणी काबू में नहीं रही। आखिरकार चुनाव आयोग ने आदेश दिया कि इन्हें प्रचारक की सूची से बाहर करे। सितंबर में बेवजह गाँधी-नेहरू परिवार पर कमेंट कर विवादों में फंसे।
Bigde Bol : नेताओं के बिगड़े बोल... इस कदर छा गये हम पर पॉलिटिक्स के साये, कि अपनी जुबां तक हिन्दुस्तानी ना रही
दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा भी विवादों से जुड़ गए। शाहीन बाग के आंदोलनकारियों को लेकर अतिआपत्तिनजक भाषा इस्तेमाल की और दो समुदायों के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर दी। वे आपके घरों में घुसेंगे, बहन-बेटियों के साथ... वाला भड़काऊ भाषण इन्हीं का था! उन्होंने मीडिया के साथ बातचीत में दिल्ली के सीएम को नक्सली और आतंकवादी तक बता दिया! अनुराग ठाकुर के बाद प्रवेश वर्मा को भी सूची से बाहर निकालने का फरमान चुनाव आयोग को जारी करना पड़ा।
कंगना रनौत और शिवसेना विवाद ने सालभर सुर्खिया बटोरीं। सुशांत सिंह राजपूत मौत मामला हो, बॉलीवुड ड्रग रैकेट हो, महाराष्ट्र की सत्ता हो, कंगना रनौत ने अपनी बात रखने के चक्कर में, या फिर किसी विशेष राजनीतिक दल की चापलूसी के चक्कर में अनेक बार मर्यादाएँ लाँधीं! मुंबई शहर की तुलना पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से की, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तक को सार्वजनिक रूप से बेढंग शब्द कहे, जया बच्चन के साथ उलझी, किसान आंदोलन को भला बुरा कहा, ट्विटर पर फेक न्यूज़ कैटेगरी में भी शामिल हो गई!
उधर शिवसेना के संजय राउत भी पीछे नहीं रहे। कंगना रनौत ने मर्यादाएँ लाँधी तो इन्होंने भी शालीनता की हदें तोड़ दीं! हाईकोर्ट को इन्हें शालीनता बनाए रखने की झिड़की देनी पड़ी!
त्रिपुरा के बिप्लव देव भी पूरे साल बिगड़े बोल को लेकर छाये रहे। महाभारत काल में इंटरनेट और सैटेलाइट होने, बेरोजगारों को पान की दुकान खोलने और गाय पालने की नसीहत देने ले लेकर जुलाई 2020 में सिखों-जाटों के खिलाफ आपत्तिजनक बातें करके विवादों में घिरे। इससे पहले असम और मणिपुर में कोविड 19 पॉजिटिव मामलों के गलत आंकड़े देने को लेकर भी आलोचना के शिकार हुए।
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ अपनी ही सरकार में मंत्री रह चुकीं और फिलहाल बीजेपी में जा चुकीं इमरती देवी को आइटम बता कर विवादों में फंसे! उधर बीजेपी की मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री कमल पटेल ने किसान आंदोलन के दौरान अवार्ड लौटा कर आंदोलन को समर्थन दे रहे लोगों पर आपत्तिजनक टीप्पणी कर दी। कमल पटेल ने तो इन लोगों को भारत माता को गाली देने वाले और देश को टुकड़े करने वाले लोग तक बता दिया! बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष भी सांप्रदायिक भाषा को लेकर विवादों में बने रहे। दिल्ली बीजेपी के नेता कपिल मिश्रा भी सूची में बने रहे।
नागरिकता संशोधन क़ानून विरोध आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन तक के दौरान आंदोलनकारियों के लिए राजनीति ने जिन लफ्ज़ों का इस्तेमाल किया वह अप्रत्याशित रहा! आंदोलन के दौरान जान गँवाने वाले किसानों के बारे में भी हरियाणा के कृषि मंत्री ने अत्यंत निम्न स्तर पर जाकर बयान दिया! किसान आंदोलन तथा किसानों को लेकर सत्ताधारी दल तथा उनके नेता व समर्थकों ने जिस प्रकार से गटरछाप लफ्जों का इस्तेमाल किया, सिरे से यकीन हो जाना चाहिए कि ऐसी गटरछाप सोच वाले लोग देश को विश्वगुरु तो क्या, एक औसत विद्यार्थी तक बना नहीं सकते।
साल 2020, ऐसे समय में कुछ हस्तियाँ बिछड़ गई जिन्हें बिल्कुल शांति से विदाई देनी पड़ी
दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा भी विवादों से जुड़ गए। शाहीन बाग के आंदोलनकारियों को लेकर अतिआपत्तिनजक भाषा इस्तेमाल की और दो समुदायों के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर दी। वे आपके घरों में घुसेंगे, बहन-बेटियों के साथ... वाला भड़काऊ भाषण इन्हीं का था! उन्होंने मीडिया के साथ बातचीत में दिल्ली के सीएम को नक्सली और आतंकवादी तक बता दिया! अनुराग ठाकुर के बाद प्रवेश वर्मा को भी सूची से बाहर निकालने का फरमान चुनाव आयोग को जारी करना पड़ा।
कंगना रनौत और शिवसेना विवाद ने सालभर सुर्खिया बटोरीं। सुशांत सिंह राजपूत मौत मामला हो, बॉलीवुड ड्रग रैकेट हो, महाराष्ट्र की सत्ता हो, कंगना रनौत ने अपनी बात रखने के चक्कर में, या फिर किसी विशेष राजनीतिक दल की चापलूसी के चक्कर में अनेक बार मर्यादाएँ लाँधीं! मुंबई शहर की तुलना पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से की, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तक को सार्वजनिक रूप से बेढंग शब्द कहे, जया बच्चन के साथ उलझी, किसान आंदोलन को भला बुरा कहा, ट्विटर पर फेक न्यूज़ कैटेगरी में भी शामिल हो गई!
उधर शिवसेना के संजय राउत भी पीछे नहीं रहे। कंगना रनौत ने मर्यादाएँ लाँधी तो इन्होंने भी शालीनता की हदें तोड़ दीं! हाईकोर्ट को इन्हें शालीनता बनाए रखने की झिड़की देनी पड़ी!
त्रिपुरा के बिप्लव देव भी पूरे साल बिगड़े बोल को लेकर छाये रहे। महाभारत काल में इंटरनेट और सैटेलाइट होने, बेरोजगारों को पान की दुकान खोलने और गाय पालने की नसीहत देने ले लेकर जुलाई 2020 में सिखों-जाटों के खिलाफ आपत्तिजनक बातें करके विवादों में घिरे। इससे पहले असम और मणिपुर में कोविड 19 पॉजिटिव मामलों के गलत आंकड़े देने को लेकर भी आलोचना के शिकार हुए।
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ अपनी ही सरकार में मंत्री रह चुकीं और फिलहाल बीजेपी में जा चुकीं इमरती देवी को आइटम बता कर विवादों में फंसे! उधर बीजेपी की मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री कमल पटेल ने किसान आंदोलन के दौरान अवार्ड लौटा कर आंदोलन को समर्थन दे रहे लोगों पर आपत्तिजनक टीप्पणी कर दी। कमल पटेल ने तो इन लोगों को भारत माता को गाली देने वाले और देश को टुकड़े करने वाले लोग तक बता दिया! बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष भी सांप्रदायिक भाषा को लेकर विवादों में बने रहे। दिल्ली बीजेपी के नेता कपिल मिश्रा भी सूची में बने रहे।
नागरिकता संशोधन क़ानून विरोध आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन तक के दौरान आंदोलनकारियों के लिए राजनीति ने जिन लफ्ज़ों का इस्तेमाल किया वह अप्रत्याशित रहा! आंदोलन के दौरान जान गँवाने वाले किसानों के बारे में भी हरियाणा के कृषि मंत्री ने अत्यंत निम्न स्तर पर जाकर बयान दिया! किसान आंदोलन तथा किसानों को लेकर सत्ताधारी दल तथा उनके नेता व समर्थकों ने जिस प्रकार से गटरछाप लफ्जों का इस्तेमाल किया, सिरे से यकीन हो जाना चाहिए कि ऐसी गटरछाप सोच वाले लोग देश को विश्वगुरु तो क्या, एक औसत विद्यार्थी तक बना नहीं सकते।
साल 2020, ऐसे समय में कुछ हस्तियाँ बिछड़ गई जिन्हें बिल्कुल शांति से विदाई देनी पड़ी
कोरोना महामारी के इस समय में भारत में कुछ ऐसी हस्तियों का निधन हो गया, जिन्हें मजबूरन बिल्कुल सादगी और शांति से विदाई देनी पड़ी। मतलब यह कि उन लोगों की अंतिम विदाई में ना उनके समर्थक या प्रशंसक शामिल हो पाए, ना उनकी अपने अपने क्षेत्रों में सेवाओं को देखते हुए उन्हें पूरे सम्मान के साथ भारत अंतिम विदाई दे पाया।
सिनेमा और अन्य क्षेत्र की कई नामचीन हस्तियों का निधन हो गया इस साल। कुछ का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया, तो कुछ को कोरोना वायरस ने हमसे छीन लिया। एक उभरते सितारे ने खुदकुशी भी कर ली।
इस साल देश के 13वें राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रणब मुखर्जी का देहांत हो गया। उनका सम्मान सभी राजनीतिक दलों में खूब रहा, जिन्हें तमाम राजनीतिक दलों के नेता आदर के साथ देखा करते थे। बाथरुम में गिरने से उन्हें ब्रेन इंज्यूरी हो गई थी। 21 दिनों तक जिंदगी और मौत के बीच झूलने के बाद उन्होंने 31 अगस्त 2020 को दम तोड़ दिया।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में खाद्य उपभोक्ता एवं संरक्षण मामलों के मंत्री और एलजेपी पार्टी के संस्थापक नेता रामविलास पासवान, जिन्हें राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता रहा, का भी इस साल निधन हो गया। 8 अक्टूबर 2020 को उनका निधन हुआ।
अहमद पटेल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, जिन्हें लुटिंयस राजनीति का कदावर राजनेता माना जाता था, करीब 40 सालों का राजनीतिक जीवन जीने के बाद इस साल दुनिया से चल बसे। 25 नवंबर 2020 को अहमद पटेल चल बसे।
भाजपा के संस्थापक नेताओं में शामिल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री और तेज तर्रार नेता जसवंत सिंह का भी इस साल 27 सितंबर 2020 के दिन निधन हो गया। उन्हें कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का हनुमान कहा जाता था।
बीजेपी के राज्यसभा के सदस्य और समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह इसी साल 1 अगस्त 2020 को चल बसे। उन्हें भारतीय राजनीति का मिडिल मैन से लेकर मिडिएटर तक कहा जाता था। स्यूटकेस मैन के नाम से पहचाने जाने वाले ये नेता राजनीति ही नहीं, फिल्मी दुनिया, क्रिकेट के सितारों से लेकर बिजनेस जगत तक, सभी जगह मधुर रिश्तों के लिए जाने जाते थे।
तीन बार असम के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तरुण गोगोई का 23 नवंबर 2020 को निधन हो गया। वह कोरोना वायरस से संक्रमित हुए थे। वायरस से ठीक होने के बाद की बीमारियों से वह जूझ रहे थे। उन्हें असम का शालीन और कद्दावर नेता माना जाता था।
बॉलीवुड के युवा और उभरते अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने 14 जून 2020 को आत्महत्या कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली। बांद्रा स्थित एक अपार्टमेंट में उनके घर में उनका शव छत से लटकता हुआ मिला। बिहार से आने वाले इस अभिनेता ने टेलीविजन में काम करने के बाद बॉलीवुड में बड़े बड़े सितारों के साथ काम करके अपनी एक अलग पहचान बनाई थी।
30 अप्रैल 2020 को बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता ऋषि कपूर का निधन हुआ। बोन मैरो कैंसर से पीड़ित यह अभिनेता बॉलीवुड के अत्यंत सफल और लोकप्रिय अभिनेता थे। राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज कलाकारों के बीच भी ऋषि कपूर ने अपनी एक खास पहचान बनाई थी।
साल 2011 में पद्म श्री तथा साल 2012 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित घाँसू अभिनेता इरफान खान इसी साल 29 अप्रैल 2020 को दुनिया से चल बसे। वह न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर से पीड़ित थे। राजस्थान से आने वाले इस अभिनेता ने अपनी प्रतिभा के दम पर लोगों के दिलों में अपनी एक खास जगह बना ली थी।
देश के जाने माने शायर और गीतकार राहत इंदौरी भी इसी साल अपने प्रशंसकों को छोड़ गए। कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। इंदिरा गाँधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों को अपने शेरों के जरिए लपेटने वाले इस शायर ने युवाओं की नब्ज़ टटोलकर महफिलों को रोशन किया, बॉलीवुड की फिल्मों के लिए बेहतरीन गीत लिखे। उनका वो बहुत पुराना शेर, सभी का ख़ून शामिल है यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है, कई सरकारों को चुनौती देता रहा। मैं जब मर जाऊँ तो मेरी अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना, जैसे शेर लिखने वाले राहत इंदौरी को आधुनिक भारत का क्रांतिकारी शायर माना जाता था।
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित और मशहूर बांग्ला अभिनेता सौमित्र चटर्जी का भी कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से इस साल निधन हो गया। उन्होंने करीब 40 दिनों तक जिंदगी से जंग लड़ी, लेकिन आखिरकार 15 नवंबर, 2020 को हार गए।
साल 2020। “A Year with Pandemic and Political Tragedy” कोरोना महामारी और राजनीतिक, संवैधानिक व क़ानूनी अफरातफरी का साल। बुद्धिजीवियों ने तथा वरिष्ठ स्वतंत्र दिग्गजों ने एक लफ्ज़ पेश किया। कहा कि यह संशोधित आपातकाल है। उधर समर्थकों के लिए ऐसा बिल्कुल नहीं है। दूसरी तरफ कोरोना महामारी ने इस साल मानव और विज्ञान की हेठी को तोड़ दिया। इंसान के अहंकार को चकनाचूर कर दिया। यह साल, इंसान से इंसान डरता रहा। तारीख़ें तो इतिहास में बहुत सी रहीं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ जब पूरा विश्व एक साथ थम सा गया। दहशत की लकीरें दिल्ली से लेकर वॉशिंग्टन, टोक्यो से लेकर केपटाउन, लंदन से लेकर मेलबर्न तक साफ़ खिंची दिखीं। नया साल नयी ऊर्जा, नयी आश लेकर आया है। भले ही यह साल इतिहास में सदैव के लिए याद रखा जाएगा, किंतु पहली बार है जब सभी बीते साल को सिरे से भूलने की कोशिश करेंगे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
सिनेमा और अन्य क्षेत्र की कई नामचीन हस्तियों का निधन हो गया इस साल। कुछ का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया, तो कुछ को कोरोना वायरस ने हमसे छीन लिया। एक उभरते सितारे ने खुदकुशी भी कर ली।
इस साल देश के 13वें राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रणब मुखर्जी का देहांत हो गया। उनका सम्मान सभी राजनीतिक दलों में खूब रहा, जिन्हें तमाम राजनीतिक दलों के नेता आदर के साथ देखा करते थे। बाथरुम में गिरने से उन्हें ब्रेन इंज्यूरी हो गई थी। 21 दिनों तक जिंदगी और मौत के बीच झूलने के बाद उन्होंने 31 अगस्त 2020 को दम तोड़ दिया।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में खाद्य उपभोक्ता एवं संरक्षण मामलों के मंत्री और एलजेपी पार्टी के संस्थापक नेता रामविलास पासवान, जिन्हें राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता रहा, का भी इस साल निधन हो गया। 8 अक्टूबर 2020 को उनका निधन हुआ।
अहमद पटेल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, जिन्हें लुटिंयस राजनीति का कदावर राजनेता माना जाता था, करीब 40 सालों का राजनीतिक जीवन जीने के बाद इस साल दुनिया से चल बसे। 25 नवंबर 2020 को अहमद पटेल चल बसे।
भाजपा के संस्थापक नेताओं में शामिल रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री और तेज तर्रार नेता जसवंत सिंह का भी इस साल 27 सितंबर 2020 के दिन निधन हो गया। उन्हें कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का हनुमान कहा जाता था।
बीजेपी के राज्यसभा के सदस्य और समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह इसी साल 1 अगस्त 2020 को चल बसे। उन्हें भारतीय राजनीति का मिडिल मैन से लेकर मिडिएटर तक कहा जाता था। स्यूटकेस मैन के नाम से पहचाने जाने वाले ये नेता राजनीति ही नहीं, फिल्मी दुनिया, क्रिकेट के सितारों से लेकर बिजनेस जगत तक, सभी जगह मधुर रिश्तों के लिए जाने जाते थे।
तीन बार असम के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तरुण गोगोई का 23 नवंबर 2020 को निधन हो गया। वह कोरोना वायरस से संक्रमित हुए थे। वायरस से ठीक होने के बाद की बीमारियों से वह जूझ रहे थे। उन्हें असम का शालीन और कद्दावर नेता माना जाता था।
बॉलीवुड के युवा और उभरते अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने 14 जून 2020 को आत्महत्या कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली। बांद्रा स्थित एक अपार्टमेंट में उनके घर में उनका शव छत से लटकता हुआ मिला। बिहार से आने वाले इस अभिनेता ने टेलीविजन में काम करने के बाद बॉलीवुड में बड़े बड़े सितारों के साथ काम करके अपनी एक अलग पहचान बनाई थी।
30 अप्रैल 2020 को बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता ऋषि कपूर का निधन हुआ। बोन मैरो कैंसर से पीड़ित यह अभिनेता बॉलीवुड के अत्यंत सफल और लोकप्रिय अभिनेता थे। राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज कलाकारों के बीच भी ऋषि कपूर ने अपनी एक खास पहचान बनाई थी।
साल 2011 में पद्म श्री तथा साल 2012 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित घाँसू अभिनेता इरफान खान इसी साल 29 अप्रैल 2020 को दुनिया से चल बसे। वह न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर से पीड़ित थे। राजस्थान से आने वाले इस अभिनेता ने अपनी प्रतिभा के दम पर लोगों के दिलों में अपनी एक खास जगह बना ली थी।
देश के जाने माने शायर और गीतकार राहत इंदौरी भी इसी साल अपने प्रशंसकों को छोड़ गए। कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। इंदिरा गाँधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की सरकारों को अपने शेरों के जरिए लपेटने वाले इस शायर ने युवाओं की नब्ज़ टटोलकर महफिलों को रोशन किया, बॉलीवुड की फिल्मों के लिए बेहतरीन गीत लिखे। उनका वो बहुत पुराना शेर, सभी का ख़ून शामिल है यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है, कई सरकारों को चुनौती देता रहा। मैं जब मर जाऊँ तो मेरी अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना, जैसे शेर लिखने वाले राहत इंदौरी को आधुनिक भारत का क्रांतिकारी शायर माना जाता था।
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित और मशहूर बांग्ला अभिनेता सौमित्र चटर्जी का भी कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से इस साल निधन हो गया। उन्होंने करीब 40 दिनों तक जिंदगी से जंग लड़ी, लेकिन आखिरकार 15 नवंबर, 2020 को हार गए।
साल 2020। “A Year with Pandemic and Political Tragedy” कोरोना महामारी और राजनीतिक, संवैधानिक व क़ानूनी अफरातफरी का साल। बुद्धिजीवियों ने तथा वरिष्ठ स्वतंत्र दिग्गजों ने एक लफ्ज़ पेश किया। कहा कि यह संशोधित आपातकाल है। उधर समर्थकों के लिए ऐसा बिल्कुल नहीं है। दूसरी तरफ कोरोना महामारी ने इस साल मानव और विज्ञान की हेठी को तोड़ दिया। इंसान के अहंकार को चकनाचूर कर दिया। यह साल, इंसान से इंसान डरता रहा। तारीख़ें तो इतिहास में बहुत सी रहीं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ जब पूरा विश्व एक साथ थम सा गया। दहशत की लकीरें दिल्ली से लेकर वॉशिंग्टन, टोक्यो से लेकर केपटाउन, लंदन से लेकर मेलबर्न तक साफ़ खिंची दिखीं। नया साल नयी ऊर्जा, नयी आश लेकर आया है। भले ही यह साल इतिहास में सदैव के लिए याद रखा जाएगा, किंतु पहली बार है जब सभी बीते साल को सिरे से भूलने की कोशिश करेंगे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)