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Kandahar Hijack 1999: कंधार विमान अपहरण मामला, शताब्दी के आख़िरी क्षणों का वो खौफ़नाक घटनाक्रम

 
नोटः कंधार विमान अपहरण का यह विवरण मीडिया रिपोर्ट्स, इस घटना से जुड़े रहे लोगों की किताबें, उनके बयान आदि पर आधारित है। हमनें यहाँ प्रयास किया है कि जो ज़्यादा विश्वसनीय माने जाते हो उन्हीं विवरणों को शामिल किया जाए। इस घटनाक्रम से जुड़े अनेक सवाल हैं, जिसे एक ही लेख में सम्मिलित करना संभव नहीं है।
 
दुनियाभर के न्यूज़ चैनलों पर उस दिन एक द्दश्य चल रहा था। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नागरिक विमान अपह्त अवस्था में एक हवाई अड्डे पर था। अपहरण किए गए विमान के आसपास सैन्य या सुरक्षा बलों के वाहन होने चाहिए थे, लेकिन थी तो एक साइकिल, जिस पर सवार कोई आदमी उस विमान के चक्कर काट रहा था!
 
यह कहानी इंडियन एयरलाइंस के उस विमान की है, जिसका उड़ान भरने के बाद अपहरण कर लिया गया और फिर उसे चार विभिन्न देशों के आसमान में उड़ाने के बाद, तीन देशों के एयरपोर्ट पर उतारने के बाद कंधार ले जाया गया! कई पहलुओं के अलावा यह विमान अपहरण इसलिए भी ज़्यादा जाना जाता है, क्योंकि यह सबसे लंबे समय तक चलने वाली घटना थी। अपहर्ताओं ने सात दिनों तक विमान को क़ब्ज़े में रखा था।
 
सिर्फ़ साल ही नहीं, शताब्दी के आख़िरी दिन थे। पूरी दुनिया नयी शताब्दी के स्वागत के लिए उत्सुक थी। जश्न की तैयारियाँ तमाम जगहों पर चल रही थीं। भारत में भी। किंतु ठीक उसी समय, कुछ ऐसा हुआ, जिसने भारत के इतिहास में एक खौफ़नाक पन्ना जोड़ दिया।
 
नयी सदी के आगमन की तैयारियों के बीच इधर भारत कारगिल युद्ध से उबरने की कोशिश कर रहा था। साल 1999 का दिसम्बर महीना चल रहा था। 24 तारीख़ थी, दिन था शुक्रवार। घड़ी में साढ़े चार बजने वाले थे। नेपाल स्थित काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट से इंडियन एयरलाइंस की फ़्लाइट संख्या आईसी 814 (वीटी-ईडीडब्ल्यू) नई दिल्ली के लिए उड़ान भरने को तैयार थी।
 
आईसी 814 में जो यात्री सफ़र कर रहे थे उनमें ज़्यादातर भारतीय नागरिक थे, जो नेपाल में छुट्टी बिताने के बाद भारत वापस लौट रहे थे। उपरांत कुछ विदेशी यात्री भी विमान में थे। कुल मिलाकर 176 पैसेंजर्स और पायलट समेत क्रू के 15 लोग इस विमान में उस समय थे। फ़्लाइंग कमांडर कैप्टन देवीशरण ने नई दिल्ली के लिए उड़ान भर दी। कॉकपिट में उनके साथ थे फ़्लाइट इंजीनियर अनिल कुमार जग्गिया और को-पायलट राजिंदर कुमार।
यह एक घंटे और चालीस मिनट की छोटी, नियमित उड़ान थी, जिसे चंद मिनटों के बाद एक ऐसी स्थिति का सामना करना था, जिसके बाद समूचा भारत देश सन्न होने वाला था।
 
सब कुछ सामान्य ही था। एयर होस्टेस यात्रियों को हल्का नाश्ता देने में व्यस्त थीं। शाम पाँच बजे के बाद जैसे ही आईसी 814 इंडियन एयरस्पेस में दाखिल हुआ, पाँच नकाबपोश हथियारबंद लोग विमान पर अपना नियंत्रण ले चुके थे। इनमें से एक इब्राहिम अतहर पिस्टल लेकर कॉकपिट में घुसा और कैप्टन देवीशरण को गनपॉइंट पर ले लिया। बाकी चार ने यात्रियों को धमकाना और मारना शुरु कर दिया।
 
बताया जाता हैं कि इंडियन एयरलाइंस फ़्लाइट 814 का अपहरण भारतीय मानक समय के अनुसार लगभग 05:30 बजे विमान के भारतीय हवाई क्षेत्र में प्रवेश के कुछ ही समय बाद कर लिया गया था।
 
भारत सरकार के अनुसार अपहर्ताओं की पहचान इस प्रकार थीं: इब्राहिम अतहर, बहावलपुर, पाकिस्तान; शाहिद अख़्तर सईद, कराची, पाकिस्तान; सन्नी अहमद काज़ी, कराची, पाकिस्तान; मिस्त्री ज़हूर इब्राहिम, कराची, पाकिस्तान तथा शकीर, सुक्कुर, पाकिस्तान।
 
क्रू मेंबर्स में से किसी एक ने बाद में मीडिया से कहा था, "मैंने कैप्टन और कॉकपिट के दूसरे मेंबर्स को ड्रिंक्स ऑफर करने का मन बनाया। उन्हें चाय-कॉफ़ी देने के बाद जैसे ही मैं कॉकपिट से बाहर निकला तो बाहर का दृश्य बदल चुका था। कुछ लोग चेहरे पर मास्क लगाए हुए थे और उन्होंने मुझ पर अपनी बंदूक तान दी। मैंने इंटरकॉम पर कैप्टन को सावधान करना चाहा, लेकिन असफल रहा।"
 
तभी अपहर्ताओं में से एक कॉकपिट में घुस आया और उसने कैप्टन को डराना शुरू कर दिया। वो पायलट को बार बार एक दिशा की तरफ़ विमान उड़ाने के लिए कहने लगा। इतनी देर में भारी हथियारों से लैस अन्य चार अपहर्ताओं ने पूरे विमान पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनकी आवाज़ पूरे विमान में सुनाई दे रही थी। वो बार बार यात्रियों के सामने रखे भोजन को नीचे गिरा देने के लिए बोल रहे थे। सभी यात्रियों ने अपना भोजन नीचे रख दिया।
 
देवीशरण ने मुख़्य अपहर्ता से पूछा, "आप लोग क्या चाहते हैं?" जवाब मिला, "विमान को लखनऊ के रास्ते लाहौर ले चलो।" कैप्टन देवीशरण ने समझाने की कोशिश की, बताया कि विमान में लाहौर तक का तेल नहीं है, जानबूझकर विमान की रफ़्तार भी कम कर दी। लेकिन बदले में धमकी मिली। विमान को उड़ा देने की धमकी।
सभी यात्रियों को अपनी बैठक बदलने के लिए मज़बूर किया गया। बच्चों को अलग कर दिया गया। सभी साथी यात्रियों को एक दूसरे से अलग बैठा दिया गया। कैप्टन ने कॉकपिट से घोषणा की, "मैं आपका कैप्टन बोल रहा हूँ। हमारा विमान हाईजैक हो चुका है। आप सभी यात्री कृपया संयम से काम लें और अपहर्ताओं की बात मान लें।"
 
देवीशरण के पास विमान का रुख लाहौर की तरफ़ मोड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं था। लेकिन लाहौर की तरफ़ से साफ़ कह दिया गया कि आप पाकिस्तान एयरस्पेस में नहीं घुस सकते। यात्री डरे हुए थे। आगे क्या होने वाला है किसी को कोई अंदाज़ा नहीं था। बार बार विमान को उड़ा देने की धमकी दी जा रही थी।
 
मुख़्य फ़्लाइट अटेंडेंट ने बाद में बताया था, "एक नकाबपोश, चश्माधारी आदमी ने विमान को बम से उड़ा देने की धमकी दी थी और कैप्टन देवीशरण को पश्चिम की ओर उड़ान भरने का आदेश दिया था।"
 

कैप्टन अपहर्ता को ये विश्वास दिलाने में नाकाम रहा कि विमान के अंदर इतना ईंधन नहीं है कि विमान को लाहोर तक उड़ाया जा सके, जो कि अपहर्ताओं का पहला पसंदीदा गंतव्य स्थान था। कैप्टन के अनुसार, "उसने मुझसे पुछा कि हमारे पास कितना ईंधन है? मैंने कहाँ कि सिर्फ़ इतना की दिल्ली तक उड़ सकें। तब उसने पुछा कि ऐसा कैसे संभव है? अगर आपातकालीन स्थिति में विमान को निर्धारित स्थान पर नहीं उतारा जा सकता, तो तुम्हारे वैकल्पिक स्थान कोन से होंगे?"
 
कैप्टन कहते हैं, "उसके द्वारा ऐसा पूछने पर मैं आश्चर्यचकित रह गया। हाईजैकर जानते थे कि इस स्थिति में हमारे विकल्प बॉम्बे या अहमदाबाद हैं। इसीलिए मैंने कहा, अहमदाबाद। तब हाईजैकर को थोड़ा गुस्सा आया और उसने मुझसे कहा कि जब तुम बॉम्बे और अहमदाबाद तक उड़ सकते हो, तो लाहौर क्यों नहीं? लाहौर तो बॉम्बे और अहमदाबाद की तुलना में दिल्ली से बहुत नज़दीक़ है।"
 
आईसी-814 अभी भी पश्चिम की तरफ़ एक अनजान गंतव्य की और उड़ रहा था। इधर कैप्टन ने अपहर्ताओं की नज़र से बचते हुए जोख़िम उठाकर इंडियन एटीसी को आपातकालीन संदेश भेजना शुरू किया, जिससे उन्हें ये बात पता चल सके कि आईसी-814 का अपहरण हो चुका है।
कहा जाता है कि विमान के चालक दल के सदस्यों ने विमान हाइजैक होने की सूचना ओपन फ्रीक्वेंसी पर  दी थी। ओपन फ्रीक्वेंसी पर सूचना देने का मतलब होता है कि ऐसी सूचना आसपास उड़ान भर रहे सभी विमानों तक भी पहुंच जाती है। यदि वास्तव में ओपन फ्रीक्वेंसी पर सूचना दी गई थी तो उस वक़्त पटना से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर दिल्ली आ रहा विशेष विमान भी आसपास से ही गुज़र रहा था। ज़ाहिर है कि सूचना उस विमान तक भी पहुंची होगी।
 
बहरहाल इस कहानी को छोड़ते हैं कि आईसी 814 के चालक दल सदस्यों ने ओपन फ्रीक्वेंसी पर सूचना दी थी या नहीं। इतना तो तय है कि कैप्टन का आपातकालीन संदेश एटीसी को मिल चुका था।
 
उधर कॉकपिट में अभी भी बहस जारी थी। अपहर्ता विमान को लाहौर लेकर जाना चाहते थे। कैप्टन के पास जो बहाने थे, सारे ख़त्म हो चुके थे। अभी कारगिल लड़ाई को मुश्किल से 6 महीने ही बीते थे, ऐसे में पाकिस्तान के एयरस्पेस में दाखिल होना कैप्टन के लिए भी ख़तरे की घंटी थी।
 
अब तक देश को औपचारिक तौर पर कुछ नहीं पता था, किंतु कुछ देर से सही, कैप्टन देवीशरण का मैसेज सरकार तक पहुंचा - "विमान हाईजैक हो चुका है, और हमारे पास कुछ ही समय का फ्यूल बचा है, कृपया हमें लाहौर उतरने की अनुमति दिलाएं, वे हमें मार डालेंगे।"
 
और फिर ज़ल्द ही यह ख़बर आग की तरह पूरे भारत में फैल गई। देश भर में हडकंप मच गया। तब देश में एनडीए शासित अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे ब्रजेश मिश्रा। शरद यादव सिविल एविएशन मिनिस्टर थे। अगले दिन 25 दिसम्बर को तत्कालीन प्रधानमंत्री का जन्म दिन था, जिसके उपलक्ष में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन था। तमाम कार्यक्रमों को तत्काल रद्द कर दिया गया। तत्काल क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप (सीएमजी) की रचना की गई।
 
सीएमजी की अध्यक्षता कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार ने की। अन्य सदस्यों में रॉ के तत्कालीन प्रमुख एएस दुलत, एनएसजी के प्रमुख निखिल कुमार, उप प्रधान मंत्री और गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, विदेश मंत्री जसवंत सिंह, नागरिक उड्डयन मंत्री शरद यादव और वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण शौरी थे। बैठक का आयोजन एनएसए ब्रजेश मिश्रा ने किया।
बाद में शरद यादव ने मीडिया से कहा, "वो सब आसमान में हैं, और पायलट के सिवा कोई कम्युनिकेशन नहीं है, आतंकियों के पास एके-47 हैं या पिस्टल हैं, कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है। मैं कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। फ़्लाइट में जो यात्री हैं, उनकी सुरक्षा हमारी पहली प्राथमिकता है।"
 
तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीस सीएमजी का प्रमुख हिस्सा नहीं थे, और आगे उनकी क्या भागीदारी रही इसके बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है।

शाम 6:30 बजे के आसपास इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन ने विमान को लाहौर में उतारने की अनुमति मांगी, लेकिन साफ़ मना कर दिया गया। लेकिन अब तक देवीशरण अपहर्ताओं को विमान अमृतसर में लैंड कराने के लिए राज़ी कर चुके थे।

 
विमान का ईंधन तेज़ी से ख़त्म हो रहा था। अपहर्ता किसी भी क़ीमत पर भारतीय ज़मीन पर उतर कर भारत के सुरक्षा बलों को कोई मौक़ा नहीं देना चाहते थे। उधर लाहौर एटीसी अपह्त विमान को अपने यहाँ लैंड कराने के लिए तैयार नहीं था।
 
विमान काफ़ी देर अमृतसर के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऊपर मंडराता रहा और आख़िरकार क़रीब 7 बजकर 5 मिनट के आसपास लैंड हुआ। कैप्टन से अपहर्ताओं की शर्त यही थी कि सिर्फ़ ईंधन भरने के लिए ही विमान लैंड होगा। विमान लैंड होते ही कैप्टन ने राहत की सांस ली। उन्हें भरोसा था कि अब सभी सुरक्षित हैं और भारत सरकार कुछ न कुछ करेगी।
 
लाज़िमी तौर पर भारत सरकार चाहती थी कि विमान ज़्यादा से ज़्यादा देर अमृतसर एयरपोर्ट पर खड़ा रहे, ताकि वक़्त मिल जाए। अमृतसर पुलिस तैनात की गई। पंजाब के पूर्व चीफ़ कमांडो जेपी बिरदी के अनुसार, "हमें बताया गया था कि एनएसजी आ रही है और तब तक कोई भी कदम न उठाए जाएँ और विमान को एयरपोर्ट पर रोक के रखें।"
बातचीत करने की कोशिश और ईंधन भरने में जानबुझ कर अधिक समय व्यतीत किया जा रहा था। इधर ये देरी अपहर्ताओं को नागवार गुज़र रही थी।
 
आतंकवादी पायलट को बार बार टेक ऑफ के लिए कह रहे थे और पायलट एटीसी से ईंधन की गुहार लगा रहे थे। दिल्ली से निर्देश थे कि विमान को किसी भी तरह अमृतसर में रोक कर रखा जाए। तय तो यह भी किया गया कि ईंधन का एक टैंकर इस तरह खड़ा कर दिया जाए कि विमान को टेक ऑफ का रास्ता न मिले।
 
अमृतसर में विमान को लैंड हुए बहुत समय बीत चुका था और अब तक अपहर्ताओं को ईंधन का किसी प्रकार को कोई इंतज़ाम होता हुआ भी नहीं दिखाई दे रहा था। इस बीच वह टैंकर रवाना हुआ, जिसे विमान के रास्ते में खड़ा करने का आयोजन था। टैंकर का ड्राइवर बहुत तेज़ी से टैंकर ले जा रहा था। एटीसी ने ड्राइवर से टैंकर कम स्पीड पर चलाने के लिए कहा। लेकिन ड्राइवर ने ज़ोर से ब्रेक मारा और टैंकर खड़ा ही हो गया।
 
कॉकपिट से आतंकवादियों को ये दिखा कि एक तेज़ रफ्तार ट्रक एयरक्राफ्ट की तरफ़ आते आते अचानक रुक गया है। अपहर्ताओं का संदेह अब यक़ीन में बदल गया कि भारतीय इस विमान पर क़ब्ज़ा करने का कोई अभियान शुरू कर रहे हैं।
 
अपहर्ताओं ने कैप्टन को विमान उड़ाने का आदेश दिया। यह तर्क कि विमान में ईंधन न के बराबर है, किसी काम का नहीं रहा। विमान में 25 साल के रुपिन कात्याल थे। वे अपनी पत्नी रचना कात्याल के साथ वापस दिल्ली लौट रहे थे।
 
जब कैप्टन ने अपहर्ताओं का आदेश नहीं माना तो एक अपहर्ता ने रुपिन कात्याल को चाकुओं से गोद दिया। बुरी तरह से उनकी छाती पर वार किए गए। क्रू मेंबर ने जब यह दृश्य देखा तो उनके पाँव की ज़मीन खिसक गई। अपहर्ताओं ने फिर आदेश दिया कि अब की बार अगर विमान नहीं उड़ाया तो सबसे पहले कैप्टन को गोली मार दी जाएगी और फिर एक-एक कर सारे यात्रियों को।
इतना सारा समय अमृतसर में बर्बाद हो चुका था। अब भी भारत की तरफ़ से कोई ठोस कार्रवाई, कोई योजना शुरू नहीं हुई थी! कैप्टन को समझ आ गया कि अब ये लोग सबको मारना शुरू कर देंगे।
 
अपहर्ताओं ने अनिल जग्गिया के सिर पर पिस्टल रख उल्टी गिनती शुरू कर दी और कैप्टन देवीशरण से टेक ऑफ करने को कहा। आख़िरकार बिना फ्यूल लिए एक बार फिर विमान ने उड़ान भरी। वक़्त था शाम 7 बजकर 51 मिनट।
 
भारत अपने अपह्त विमान को बचाने का एकमात्र और शायद आख़िरी मौक़ा खो चुका था। कोई न कोई गतिविधि शुरू हो जानी चाहिए थी, लेकिन कुछ नहीं हो पाया। अमृतसर हवाई अड्डे पर स्थित अधिकारियों से लेकर देश के एनएसए ब्रजेश मिश्र, सभी हाथ घिसते रह गए। ठोस कार्रवाई की बात तो दूर है, भारत को अपह्त विमान को लेकर प्राथमिक जानकारियाँ भी हासिल नहीं हो सकी।
 
24 दिसंबर 2020 के दिन द क्विंट में चंदन नंदी की रिपोर्ट में लिखा गया है, "24 दिसंबर 1999 को शाम का समय था। मैं तत्कालीन उप प्रधान मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के निजी सचिव दीपक चोपड़ा के विशाल कमरे में बैठा था। अचानक उसके डेस्क पर लाल RAX (प्रतिबंधित क्षेत्र एक्सचेंज) टेलीफ़ोन की घंटी बजी। चोपड़ा ने फ़ोन उठाया और कुछ ही सेकंड में उनका चेहरा फीका पड़ गया। फ़ोन करने वाले इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक श्यामल दत्ता थे।"

"यह क्या है? मैंने चोपड़ा से पूछा, जो अपनी कुर्सी से आडवाणी के सागौन-पैनल वाले कमरे में जाने के लिए उठे। चोपड़ा ने आडवाणी के बड़े कक्ष में प्रवेश करने से पहले बुदबुदाते हुए कहा, वहाँ अपहरण हो गया है। इस बीच, गंभीर दिखने वाले दत्ता तेज़ी से डिप्टी पीएम के कमरे में चले गए। कुछ ही समय में यह ख़बर फैल गई कि फ्लाइट आईसी-814 का अपहरण कर लिया गया है।"
 
रिपोर्ट में आगे लिखा गया था, "सरकार को लकवा मार गया था। सुरक्षा प्रतिष्ठान के प्रमुख योग्य लोगों में से कोई भी, एनएसए ब्रजेश मिश्रा, दत्ता, दुलत, 25 दिसंबर की शाम को अमृतसर राजा सांसी हवाई अड्डे पर उतरने पर विमान को स्थिर करने का निर्णय नहीं ले सका। इन लोगों के पैर अचानक मिट्टी के हो गए थे। यहाँ तक कि 'लौह पुरुष' आडवाणी भी चुप हो गए थे। राजनीतिक नेतृत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा नौकरशाही की मुख़्य चिंता यह थी कि यात्रियों को नुकसान पहुँचाने वाली कोई भी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।"
"लेकिन गड़बड़ियों का सिलसिला अगले दिन भी जारी रहा जब सीएमजी की बैठक सफदरजंग हवाई अड्डे पर राजीव गांधी भवन में हुई। जब मिश्रा गंभीर चेहरे और तनी हुई भौंहों वाले लोगों की बैठक में शामिल हुए तो मतभेद पैदा हो गए। जो बात समझ से परे थी वह थी सीएमजी पर शीर्ष आईएएस अधिकारियों की मौजूदगी। अपहरण के बाद सुरक्षा प्रतिक्रिया के बारे में उन्हें क्या समझ थी? लेकिन 26 दिसंबर 1999 की बैठक में मिश्रा ने जिस तरह से दादागिरी की, वह आडवाणी को नागवार गुज़री।"
 
इस रिपोर्ट में ज़िक्र है, "स्पष्ट रूप से नाराज, भूरे रंग के बंदगला सूट और काले चमड़े के जूते पहने हुए उप प्रधान मंत्री, इंतज़ार कर रहे पत्रकारों की आँखों में देखने में असमर्थ होकर, बैठक छोड़कर चले गए।"
 
अमृतसर में विमान लगभग 45 मिनट तक खड़ा रहा, किंतु भारत कोई ठोस कार्रवाई शुरू नहीं कर पाया! दिल्ली से लगातार फ़ोन आ रहे थे कि कैसे भी करके विमान को रोक कर रखें। लेकिन कब तक और कैसे? आपसी तालमेल का इतना अभाव था कि अधिकारी "सिर कटे चिकन" की तरह इधर-उधर दौड़ते रहे! एनएसजी कमांडो का जो दल आने वाला था, उसका सचमुच क्या हुआ, वे समय पर पहुंचे थे या नहीं, अगर ना तो क्यों नहीं पहुंचे और अगर हा, तो फिर उन्हें किसने कार्रवाई करने से रोका और क्यों, बहुत सारे सवालों के जवाब एक सरीखे नहीं थे।
 
द प्रिंट के मुताबिक़ पंजाब पुलिस प्रमुख सरबजीत सिंह ने सीएमजी को कहा था कि आतंकवाद विरोधी अभियानों में प्रशिक्षित कमांडो विमान पर हमला कर सकते हैं। लेकिन उन्हें हरी झंडी नहीं मिली। शायद दिल्ली से प्राथमिकता यही थी कि एनएसजी कमांडो कार्रवाई करेंगे।
 
द प्रिंट की इस रिपोर्टमें अक्षोभ गिरिधरदास दावा करते हैं कि अमृतसर में विमान के लैंड करने से पहले ही एनएसजी को तैयार रहने के लिए कहा गया था। वे दावा करते हैं कि शाम 7 बजे के आसपास एनएसजी तैयार थें, किंतु उन्हें सीएमजी ने जाने के लिए सूचित किया तब तक शाम 7-30 के पार का समय हो चुका था। इसके चलते एनएसजी को दिल्ली से उड़ान भरने में 15 मिनट और लगें। हालाँकि, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एनएसजी के कमांडो दिल्ली से उड़ान भर ही रहे होंगे, और तभी इधर अपहर्ता विमान को अमृतसर से उड़ा चुके थे! 
 
सीएमजी ने पहले 100 महत्वपूर्ण मिनटों को यूँ ही जाने दिया। सीएमजी ने अमृतसर हवाई अड्डे पर अपह्त विमान उतरा तब तक का क़रीब पौने घंटे का समय बिना कोई ठोस कार्रवाई किए गुज़ार दिया और फिर वह विमान अमृतसर हवाई अड्डे पर इतने ही समय रुका रहा, तब भी सीएमजी ने कोई बढ़िया तालमेल नहीं दिखाया, ना ही कोई फ़ैसला लिया।
अमृतसर हवाई अड्डे वाले मामले पर तक़रीबन 20 साल बाद रिटायर्ड मेजर कुलदीप सिंह ने मेल टुडे में एक लेख लिखकर कुछ बातें बताई थीं। कुलदीप सिंह तब अमृतसर में तैनात सेना की एक टुकड़ी की कमान संभाल रहे थे।
 
बकौल कुलदीप सिंह, "उस दिन शाम 7 बजे हमारे एक सीनियर ऑफिसर ने हमे फ़ोन करके एयरपोर्ट की तरफ़ कुछ विशेष तैयारी करने को कहा, और पूरा माजरा समझाया। हम तब कारगिल युद्ध के बाद अलर्ट पर ही रहते थे। 3 टैंक भी हमारे पास थे, जो एयरपोर्ट ऑपरेशन के लिए काफ़ी थे। हमने तत्काल उनको एयरपोर्ट के दक्षिणी तरफ़ के नाले की ओर से एक क्रॉसिंग प्वाइंट पर तैनात भी करवा दिया। तक़रीबन 7 बजकर 5 मिनट पर आईसी 814 अमृतसर में उतरा और 7 बजकर 51 मिनट तक एयरपोर्ट पर रुका रहा। 7 बजकर 40 मिनट से ये ख़बरें आने लगीं कि अपहर्ताओं ने यात्रियों को मारना शुरू कर दिया है। हम आगे की कार्रवाई के लिए आदेश का इंतज़ार करते रहे, लेकिन हमें सरकार या सेना, किसी भी तरफ़ से कोई आदेश नहीं मिला। 7 बजकर 51 मिनट पर फ्लाइट टेक ऑफ होते ही हमारा ऑपरेशन बंद हो गया।"

 
विमान एक बार फिर आसमान में था और उसका रास्ता पाकिस्तान की तरफ़ था। विमान पाकिस्तान की तरफ़ जा तो रहा था, लेकिन पाकिस्तान किसी भी क़ीमत पर उसे अपनी ज़मीन पर उतरने नहीं देना चाहता था। पाकिस्तान की तरफ़ से लगभग लगभग संदेश यही निकल कर आ रहा था कि दुनिया में कहीं भी उतर जाओ, पाकिस्तान में नहीं।
 
कुछ ही देर बाद विमान लाहौर के आसमान में था। किंतु अब हालात और मुश्किल हो चुके थे। लाहौर एटीसी ने विमान को वहाँ उतारने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। कैप्टन शरण बार बार गुहार लगा रहे थे, किंतु लाहौर एटीसी ने हर बार मना किया।
 
लाज़िमी है कि कारगिल लड़ाई को ख़त्म हुए अभी कुछ महीने ही हुए थे और पाकिस्तान भारत के इस अपह्त विमान के साथ या आतंकवादियों के साथ अपने देश का नाम जोड़ना नहीं चाहता था। पाकिस्तान ने अपनी हवाई यातायात सेवाओं को बंद कर दिया। इतना ही नहीं, लाहौर एयरपोर्ट की बत्तियाँ बुझा दी गईं!
अनुमति अभी भी नहीं थी। लेकिन कैप्टन देवीशरण के पास कोई रास्ता नहीं था, सिवाय विमान उतारने के। तेल अब वाक़ई कुछ ही मिनट का था।
 
कैप्टन ने विमान की ऊँचाई कम करते हुए लाहोर में नीचे की और आना शुरू किया। कैप्टन कोई ऐसी जगह ढूंढ रहे थे, जहाँ लैंड कराया जा सके। उन्हें ऐसी एक जगह दिखी, जहाँ एयरपोर्ट की तरह रोशनी थी। वे विमान को उसी तरफ़ नीचे ले गए। जैसे ही वे नीचे आए, उन्होंने देखा कि वो तो एक बहुत व्यस्त रोड़ था! बड़ी मुश्किल के बाद विमान थोड़ा ऊपर आ पाया।
 
दूसरी तरफ़ यह द्दश्य देखने के बाद पाकिस्तानी अधिकारियों को समझ आ गया कि अगर पायलट को अनुमति नहीं दी गई, तो भारतीय और विदेशी यात्रियों से भरा यह अपह्त विमान पाकिस्तान में ही क्रैश हो जाएगा।
 
आखिरकार लाहौर एटीसी ने विमान को लैंडिग की परमीशन दे दी। हवाई अड्डे की लाइटें ऑन कर दी गईं। हालाँकि परमीशन सिर्फ़ फ्यूल लेने तक की ही थी।
 
विमान अब पाकिस्तान की धरती पर उतर चुका था। पाकिस्तान ने किसी प्रकार का कोई जोखिम नहीं उठाया। घायल या घबराए यात्रियों को मेडिकल सुविधा देने की बात पर भी हवाई अड्डे से स्पष्ट कहा गया कि ईंधन लो और यहाँ से बाहर निकल जाओ। विमान में ईंधन भरा गया और रात साढ़े दस बजे आईसी 814 ने दोबारा टेक ऑफ किया। भारतीय मानक समय (आईएसटी) था 22:32 का।
 
इधर भारत में अब भी असमंजस वाली स्थिति थी! सरकार, अधिकारी, मंत्री, सुरक्षा सलाहकार, कहीं कोई तालमेल नहीं था और ना कुछ ठोस हो पाया था। दिल्ली एयरपोर्ट पर लोगों का जमावड़ा लगा था। भारतीय मीडिया से होते हुए पल पल की ख़बरें देश भर में फैल रही थीं।
 
लाहौर से टेक ऑफ करने के बाद अपहर्ता विमान को काबुल ले जाना चाहते थे। चूँकि अफ़ग़ानिस्तान के किसी हवाई अड्डे पर रात्रि के समय लैंडिग की व्यवस्था नहीं थी, विमान काबुल होते हुए मस्कट और फिर ओमान तक गया। लेकिन कहीं लैंड करने की परमीशन नहीं मिली।
25 दिसंबर 1999 की तारीख़ थी। क्रिसमस का दिन। आख़िरकार इस दिन सुबह क़रीब 2 या 3 बजे विमान दुबई में लैंड हुआ। अमृतसर में चुक जाने के बाद भारत ने यहाँ कमांडो कार्रवाई के लिए इजाज़त मांगी, किंतु दुबई सरकार ने इनकार कर दिया।
 
हालाँकि यहाँ ईंधन भरे जाने के एवज़ में 26 यात्रियों को रिहा करने पर समझौता हुआ। रिहा हुए ज़्यादातर यात्री बीमार, वृद्ध लोग एवं औरतें और बच्चे थे। साथ में रुपिन कात्याल का पार्थिव शरीर भी दुबई में उतारा गया। रिहा किए गए यात्रियों को वापस लाने मंत्री शरद यादव उसी दिन दुबई पहुंचे।
 
इसके बाद विमान ने अफ़ग़ानिस्तान में काबुल की तरफ़ उड़ान भरी। लेकिन काबुल एयरपोर्ट की तरफ़ से विमान को कंधार ले जाने के लिए कहा गया।
 
तारीख़ थी 26 दिसंबर, 1999। इस दिन सुबह क़रीब 8 बजे विमान ने कंधार हवाई अड्डे पर लैंड किया। यह इस अपह्त विमान का आख़िरी लैंडिग था।
 
24 दिसंबर की शाम हाईजैक किए गए इस विमान के चालक दल, कर्मी और यात्री अब तक अकल्पनीय अनुभवों से गुज़र चुके थे। काठमांडू नेपाल से नई दिल्ली के तक के चंद घंटों के सफ़र के लिए निकला यह विमान शताब्दी के आख़िरी दिनों में एक ऐसी स्थिति में फँस चुका था, जिसकी किसी को कल्पना नहीं थी।
 
काठमांडू से नई दिल्ली जाने की जगह यह विमान पहले अमृतसर पहुंचा। वहाँ भारत चुक गया। उसके बाद ये विमान लगभग लगभग क्रैश होते हुए बचा और लाहौर में मुश्किल स्थितियों में लैंड किया। वहाँ से काबुल जाने के लिए निकला यह विमान दुबई पहुंचा। वहाँ से निकलने के बाद फिर काबुल की तरफ़, और आखिरकार कंधार पहुंचा था।
 
उस जगह, जो तालिबानी आतंकवादियों का गढ़ थी। इसके बाद आईसी 814 विमान पूरे 6 दिनों यात्रियों की जेल बना रहा।
कंधार एयरपोर्ट बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के नज़दीक़ है, तो सबसे पहले क्वेटा में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के पत्रकार इकट्ठा होने शुरू हो गए। क्वेटा से जो पत्रकार सबसे पहले कंधार पहुंचे थे उनमें क्वेटा में बीबीसी पश्तो सेवा के संवाददाता अय्यूब तरीन शामिल थे। उनके बाद पहुँचने वालों में वरिष्ठ पत्रकार शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार और एएफ़पी से जुड़े प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र बनारस ख़ान भी शामिल थे।
 
अय्यूब तरीन ने बताया था कि पहले दिन वो कंधार के एक होटल में ठहरे। वे कहते हैं, "जब हम सहरी के लिए उठे तो होटल में लोग हमें घूरने लगे कि बिना दाढ़ी के ये जीव कहाँ से आए हैं। होटल में मौजूद लोग इस बात से बेख़बर थे कि किसी भारतीय विमान को अग़वा करके उनके एयरपोर्ट पर लाया गया है।"
 
शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार बीबीसी को बताते हैं, "मैंने एयरपोर्ट पर जो सबसे अजीबो-ग़रीब चीज़ देखी वह थी एक शख़्स का साइकिल पर एयरपोर्ट पर आना और उसी से विमान के इर्द-गिर्द चक्कर लगाना।"
 

बनारस ख़ान के मुताबिक़ वहाँ सुरक्षा इंतज़ाम देखने वाले लोग साइकिल या मोटर साइकिल पर ही गश्त करते थे! पत्रकार भी हैरान थे कि ऐसे मौक़ों पर तो बख़्तरबंद गाड़ियाँ और सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम होने चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था!
 
शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार के मुताबिक़ उनके सवाल करने के बाद बताया गया कि जो शख़्स ज़्यादातर साइकिल पर चक्कर लगाते थे वो एयरपोर्ट के इलाक़े के एसएचओ स्तर के अधिकारी हैं!
 
उन दिनों कंधार में कड़ाके की ठंड थी। हवाई अड्डे के पास सर्दी से बचने के लिए कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं था, और ऐसे में सुरक्षा पर मौजूद तालिबान के कर्मचारी खुले मैदान में आग जला कर खुद को गर्म रखते थे।
अय्यूब तरीन का कहना था, "यह आग ज़्यादा दूर नहीं बल्कि विमान के बिलकुल क़रीब जलाई जाती थी। किसी भी विमान के इतने क़रीब आग जलाना किसी भी तरह से सही नहीं होता, लेकिन तालिबान को इस बात की बिलकुल भी परवाह नहीं थी और इस बात का ख़याल रखे बिना वे ऐसा करते थे।"
 
कारगिल युद्ध से अभी भारत उबरा ही था और कारगिल युद्ध में शुरुआती विफलता और भारी जानहानि के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कटघरे में थे। और इसी बीच यह घटनाक्रम शुरू हो गया था।
 
दिल्ली में तमाम मुलाकातों और बैठकों का सिलसिला चल रहा था। लेकिन ठोस कार्रवाई और आपातकाल योजना को लेकर भारत अमृतसर में सुनहरा मौक़ा गवा चुका था।
 
विमान अपहरण की सूचना मिलने के बाद क़रीब 50 से 55 मिनट का समय तथा अमृतसर हवाई अड्डे पर करीब 45 मिनट का समय बिना किसी ठोस योजना या कार्रवाई के बर्बाद हो चुका था। और इसके कारण वाजपेयी सरकार के पास पारंपरिक राजनयिक संबंधों की ओर रुख करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
 
प्रधानमंत्री वाजपेयी ने विमान में बंधक बने यात्रियों के रिश्तेदारों को प्रधानमंत्री आवास पर अंदर बुलाने और उन्हें सरकारी कोशिशें बताने के लिए कहा, तब तक समझौते की बातचीत शुरु हो गई थी। उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार थी। मुल्ला उमर और उनके विदेश मंत्री वकील अहमद मुत्तावकिल बातचीत कर रहे थे।
 
इधर दिल्ली में कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी का कोई वरिष्ठ मंत्री रिश्तेदारों से मिलने को तैयार नहीं था, तब तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह आगे आए। कंचन गुप्ता को साथ लेकर जसवंत सिंह पहुंचे तो भीड़ ने घेर लिया, कोई उन्हें सुनने को तैयार नहीं था।
हर बंधक स्थिति में होता है वैसे ही यहाँ पर भी बंधकों के परिजन आक्रोश में थे। लोग चिल्ला रहे थे। कोई बेहोश होकर गिर पड़ा, कोई चीख़ रहा था, कोई दहाड़ें मार कर रो रहा था। विपक्ष भी सरकार पर हमलावर था, भीड़ उन्माद में थी ही।
 
अपहरण संकट को निपटाने के लिए अफ़सरों के साथ क्रैक कमांडों का दस्ता चौथे दिन 27 दिसंबर को कंधार एयरपोर्ट पर उतरा। लेकिन अब काम का नहीं था। तालिबानी हुकूमत के साथ भारत के संपर्क स्थापित नहीं हुए थे, ना ही कोई कूटनीतिक पृष्ठभूमि थी।
 
तालिबानी अधिकारियों ने भारतीय अधिकारियों के साथ सहयोग करने और अपहर्ताओं एवं भारत सरकार के बीच तालिबानी हुकूमत की मध्यस्थी की भूमिका को पेश किया। भारत ने तो तालिबानी हुकूमत को मान्यता भी नहीं दी थी, ऐसे में भारत पहले से भी ज़्यादा मुश्किल स्थिति में फँस गया।
 
भारत का दस्ता वहाँ पहुंचा तो पता चला कि तालिबानी लड़ाके पोजीशन लेकर खड़े हैं। बातचीत के लिए वहाँ विवेक काटजू, अजीत डोभाल और सीडी सहाय मौजूद थे। काटजू इस ग्रुप की अगुवाई कर रहे थे, जो डोभाल से सात-आठ साल जूनियर थे और सीनियर जूनियर का फर्क कई और अफ़सरों में भी था। सवाल इस ग्रुप को लेकर भी उठता रहा कि इनमें ठीक कहा जाए वैसा तालमेल नहीं था!
 
तालिबानी लड़ाके विमान और यात्रियों की सुरक्षा के नाम पर विमान को घेरे हुए थे। आखिरकार तालिबानी मध्यस्थता के साथ समझौते की बातचीत शुरु हुई।
 
अपहर्ताओं ने मांगे रखीं। 200 मिलियन अमेरिकी डॉलर, आतंकवादी सज्जाद अफ़ग़ानी की लाश सौंपने और 35 आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रिहाई। आईबी के पूर्व विशेषनिदेशक तथा रॉ के पूर्व सचिव एएस दुलत ने द क्विंट के साथ बातचीत में कहा था कि अपहर्ताओं की प्रारंभिक मांग 105 आतंकवादियों की रिहाई थी।
इनमें से तीन आतंकवादियों के नाम मुख़्य थे। अपहर्ताओं की तरफ़ से एक नाम बार बार लिया जा रहा था कि मौलाना चाहिए। पहले तो अफ़सरों को अंदाज़ा ही नहीं था कि मौलाना है कौन? किसकी बात हो रही है? फिर बताया गया - मौलाना मसूद अज़हर, हरकत उल मुजाहिदीन का मुखिया।
 
मौलाना मसूद अज़हर 1994 से जम्मू जेल में बंद था। उसे 1994 में तब गिरफ़्तार किया गया था जब वह आतंकी संगठन हरकत उल अंसार के कुछ अंदरूनी झगड़ों को निपटाने वहाँ आया था। मसूद अज़हर को छुड़ाने के लिए एक और आतंकवादी संगठन अल-फरान 1995 में खड़ा हो गया था।
 
इधर कंधार हवाई अड्डे के हाल पर लौटे तो, शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार बताते हैं, "जिस तरह से वहाँ बहुत सारी मुश्किलें थीं, उसी तरह से वहाँ खाने-पीने की भी बहुत दिक़्क़तें थीं। शुरुआत में एक-दो दिन काफ़ी परेशानियाँ हुईं।"
 

अय्यूब तरीन बीबीसी को बताते हैं, "विमान में तालिबान की ओर से यात्रियों और अन्य लोगों को खाने-पीने का सामान भी भेजा जाता था। तालिबान का फ़ूड पैकेज एक प्लास्टिक का थैला होता था, जिसमें एक रोटी, एक चिकन लेग पीस और एक माल्टा होता था।"
 
वे बताते हैं, "विमान के यात्रियों ने खाने पर आपत्ति जताई कि वे हर समय यह खाना नहीं खा सकते हैं। इसके बाद यह हल निकला कि इस्लामाबाद से संयुक्त राष्ट्र (रेड क्रॉस) का एक विमान आता था, जिसमें फ़ाइव स्टार होटल का खाना होता था।"
 
बनारस ख़ान कहते हैं, "अपहरण के तीसरे दिन विमान का एयर कंडिशनिंग सिस्टम बंद हो गया। जब एयर कंडिशनर बंद हुआ तो यात्रियों की दिक़्क़तें बढ़ गईं।"
 
उन्होंने बताया, "भारतीय कर्मचारी कंधार एयरपोर्ट आ रहे थे तो उनके साथ भारतीय इंजीनियर्स भी थे। एक इंजीनियर को विमान में जाने को कहा गया और वो काम करके बाहर निकल आया। जब पत्रकारों ने उस इंजीनियर से अंदर के हालात पूछे तो उसने बस इतना बताया कि उसे वहीं ले जाया गया था जहाँ ख़राबी थी।"
भारतीय इंजीनियर ने पत्रकारों को बहुत कुछ नहीं बताया, लेकिन उसने कहा कि जो अपहर्ता हैं वे आम अपहर्ता नहीं हैं, क्योंकि उन्हें हवाई जहाज़ के बारे में भी बहुत सारी जानकारियाँ हैं।
 
शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार के मुताबिक़, "अपहर्ता विमान में सफ़ाई के लिए एक कर्मचारी को आने देते थे और वही यात्रियों का हाल जानने का ज़रिया था। वो शख़्स बाहर आकर बताता था कि विमान के यात्री किस परेशानी से गुज़र रहे हैं।"
 
पत्रकारों के मुताबिक़ सफ़ाई कर्मचारी को किसी भी यात्री से बात करने की अनुमति नहीं थी और उसे ज़ल्दी काम करके निकलने के लिए कहा जाता था।
 
पाँचवां दिन यात्रियों के लिए मुश्किल भरा दिन था। टॉयलेट्स ओवरफ्लो कर रहे थे, चेहरे सिर्फ़ कहने भर के लिए ज़िंदा थे।
 
तालिबान की हरकतों को देखकर लग रहा था कि वह डबल गेम खेल रहा है। एक तरफ़ तो वह कहता रहा कि विमान यात्रियों को कोई तंग करेगा तो हम अपहर्ताओं पर हमला कर देंगे, वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें कंधार में पनाह देकर भारत सरकार से बार्गेनिंग का अवसर भी अपहर्ताओं को मुहैया करा रहा था, साथ ही सुरक्षा घेरे के नाम पर आतंकियों और भारतीय बलों के बीच दीवार बनकर खड़ा रहा।
 
इधर भारत में अब भी स्थिति वही थी। सरकार पहले से ही अपनी 'अनुभवहीनता' की वजह से फँसती जा रही थी। बंधकों के परिजनों का गुस्सा और दुख, दोनों में वृद्धि होती जा रही थी। सैनिकों के परिजन, सर्वोच्च बलिदान देने वाले सैनिकों के परिजन अपनी भावना व्यक्त कर रहे थे, जो यही थी कि अब बलिदान देने का समय नागरिकों का है। सही भी था यह। किंतु व्यावहारिक रूप से यह मुमकिन नहीं था। स्थिति ऐसी थी, जिसे बहुत पहले से सरकार को संभालना था।
जब रॉ के तत्कालीन प्रमुख एएस दुलत खुलकर अपह्त विमान घटना में उन 100 मिनटों (अमृतसर में विमान के उतरने से पहले के 50-55 मिनट और अमृतसर हवाई अड्डे पर 45 मिनट) में कोई फ़ैसला नहीं ले पाने को लेकर बात करते हैं, तो हमें एक मूल तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि हम उस संगठन को दोषमुक्त नहीं कर सकतें, जिसका वे खुद उस समय नेतृत्व कर रहे थे।
 
अनेक रिपोर्टों में दर्ज है कि उस समय रॉ का नेपाल में दबदबा था और काठमांडू में उसका एक बड़ा स्टेशन था। बावजूद इसके इनके नेटवर्क को अपहरण के बारे में कोई सुराग नहीं था! अपहर्ताओं ने जो विमान हाईजैक किया था वह उन दिनों का सबसे साहसी कृत्य था और उसे बड़ी सटीकता और जानकारी के साथ अंजाम दिया गया था। किंतु जहाँ रॉ का एक बड़ा नेटवर्क कथित रूप से मौजूद था, वहीं से, और अगर मान भी लें कि ऐसा कोई नेटवर्क वहाँ नहीं था, तब भी अपने ही देश से सटे हुए देश में इतना बड़ा कारनामा हो जाता है, और फिर भी रॉ के पास इसके बारे में कोई सुराग नहीं था!
 
हालाँकि कुछेक विषयों पर भारतीय अधिकारियों ने वाक़ई अच्छा काम किया था। एएस दुलत के मुताबिक़ अपहर्ताओं की प्रारंभिक मांग 105 आतंकवादियों की रिहाई थी, जिसे तत्कालीन आईबी के विशेष निदेशक अजीत डोभाल और उनके तत्काल अधीनस्थ नेहचल सिंह संधू के नेतृत्व में वार्ताकारों की एक टीम द्वारा 35, 15 और अंत में 3 तक लाया गया। हालाँकि वे भी कहते हैं कि हमने अमृतसर में मौक़ा गवाया, उसके बाद हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। वे कहते हैं कि बातचीत में एक सफलता यह भी थी कि अधिकारी आँकड़े को 105 से 35 और फिर 3 तक ले आए, साथ ही अपहर्ताओं को कोई भी पैसा नहीं दिया गया था।
 
मीडिया रिपोर्ट की माने तो 28 दिसंबर को डील लगभग हो गई। तीन आतंकवादियों मौलाना मसूद अज़हर, मुश्ताक अहमद ज़रगर और अहमद उमर सईद शेख को छोड़ने पर बात तय हो गई।
 
जसवंत सिंह तीनों आतंकवादियों मसूद अज़हर, उमर सईद शेख और मुश्ताक ज़रगर को लेकर खुद कंधार गए। जसवंत सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, "मैंने तालिबानियों की सराहना की। उन्होंने जो किया उसके लिए उनका आभार व्यक्त किया। कम से कम उन्होंने समझौते के मुद्दे पर अपहर्ताओं से बातचीत को आगे बढ़ाया था। दो बातों पर सहमति बन चुकी थी। एक कि तीनों आतंकवादियों की पहचान की जाएगी और दूसरा कि उसके बाद सभी बंधक यात्री नीचे उतरेंगे।"
दूसरी तरफ़ अनेक विशेषज्ञ भारत सरकार की निष्क्रियता और बहानेबाजी पर भी सवाल उठाते हैं। कहा जाता है कि उन दिनों अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत थी और तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तथा उसके अधिकारियों को तालिबानी सरकार के बारे में पूरी जानकारी भी नहीं थी, साथ ही कूटनीतिक रिश्ते भी कायम नहीं थे।
 
एक दावे के मुताबिक़ तालिबानियों ने विमान और यात्रियों की सुरक्षा के बहाने अपहर्ताओं के आसपास एक ऐसा घेरा बना रखा था, जिसके चलते भारतीय दल या बल कोई भी विशेष अभियान नहीं चला पाएँ। वैसे भी भारत अपने घर में ही चुक गया था, तो फिर यहाँ मुमकिन नहीं था। उपरांत सरकार ने जिस दल को वहाँ भेजा था, उनमें भी आपसी तालमेल के अभाव के आरोप लगते रहे। अपहरण का यह सिलसिला सात दिनों तक चला, जिसमें भारत सरकार को हर मोर्चे पर पीछेहट करनी पड़ी।
 
बंधकों के परिवार वालों के दबाल वाले बहाने को बार बार पेश किया गया, किंतु विशेषज्ञों के मुताबिक़ ऐसी स्थिति में सरकार को जिस सूझबूझ, समझदारी और गोपनीयता के साथ काम करना होता है, वह तत्कालीन सरकार ने नहीं किया।
 
बार बार बंधकों के परिजनों का दबाव, इसी बहाने को आगे किया जाता रहा, जबकि दुनिया भर में पूर्व में जब जब ऐसी स्थितियाँ आई थीं, उनकी कहानियाँ ऐसी ही थीं। बहुत बहुत और बहुत ही कम किस्सों में बंधकों के परिजन ऐसा कहते दर्ज हुए होंगे कि भले मर जाए हमारे बेटे-बेटियाँ, हाईजैकर्स की मांगे मत मानो। ऐसा इतिहास सर्च नहीं किंतु रिसर्च के बाद ही मिल सकता है।
 
यानी कि बंधकों के परिजनों का दबाव वाला तर्कहीन दावा सरकार और उनके समर्थकों ने सदैव आगे किया। जबकि हर बंधक स्थिति में बंधकों के परिजनों का प्रथम रिएक्शन यही होता है, जो कंधार मामले में देखा गया। किंतु इसके बाद बंधकों के परिजनों को 'रीती' और 'नीति' के तहत संभालना, इसकी तरफ़ ना तो सरकार ने ध्यान दिया और ना ही इस स्थिति का सरकार के पास अनुभव था।
 
दरअसल, हरेक स्थिति के लिए कोई न कोई अनुभवी या विशेषज्ञ देश के पास होते ही हैं, किंतु सरकार स्वयं अनुभवहीन स्थिति में थी, साथ ही तालमेल का स्पष्ट अभाव था। इसके चलते जो अनुभव भारत में मौजूद था उसका पता सरकार लगा नहीं पाई। उपरांत बेहतर तालमेल के अभाव से एक के बाद एक ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना करने लगी।
दरअसल कारगिल में भारतीय सैनिकों ने अपने सर्वोच्च बलिदान देकर भारत के गौरव को अखंड रखा था, वर्ना उस मामले में भी शुरू से लेकर अंत तक तत्कालीन सरकार की अनुभवहीनता स्पष्ट रूप से दिखाई दी थी। यहाँ भी वही स्थिति बनी रही। सात दिनों का समय बहुत लंबा होता है, किंतु अनेक पल और अनेक मोर्चों पर सदैव के लिए सवाल उठ खड़े हुए, जिनके जवाब कभी नहीं मिले।
 
यह बिलकुल सच था कि भारत सरकार पर काफ़ी दबाव था। किंतु यह ऐसा तर्क नहीं है जिसे 'कारण' के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। सरकारों पर दबाव तो होता ही है, उन्हें मनोरंजन के लिए तो वहाँ बैठाया नहीं गया होता। दरअसल, जितने मौक़े इस अपहरण कांड में सरकार को मिले, वो सारे मौक़े सरकार गवा चुकी थी।
 
कंधार हवाई अड्डे पर मौजूद शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार कहते हैं, "वे (भारतीय अधिकारी) समझ गए थे कि वे फँस गए हैं और इससे निकलना मुमकिन नहीं है, जिसके कारण अपहर्ताओं के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़े और उन चरमपंथियों को रिहा करना पड़ा, जिनके लिए विमान का अपहरण किया गया था।"
 
शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार के अनुसार अपहरण संकट समाप्त होने तक भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह को दो बार कंधार एयरपोर्ट आना पड़ा था। एक बार वो बातचीत के सिलसिले में आए थे।
 
तारीख़ थी 31 दिसंबर। साल ही नहीं किंतु शताब्दी का आख़िरी दिन। दुनिया जब जश्न की तैयारियों में डूबी थी, इधर कंधार एयरपोर्ट पर भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह तीनों आतंकियों को लेकर पहुंचे। सात दिनों की माथापच्ची के बाद भारत ने मौलाना मसूद अज़हर, उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद ज़रगर को वापस लौटा दिया। अपहर्ताओं ने तीनों को पहचाना और विमान में मौजूद अपहर्ताओं को बताया गया कि सब ठीक है।
 
कुछ देर बाद एक-एक करके विमान से यात्रियों को उतारना शुरू कर दिया गया। किसी को भयंकर चोटें थीं, कोई ख़ून से लथपथ था, तो कोई लगातार कई दिनों से भूखा था। गनीमत थी कि लोग अब भी पूरी तरह ज़िंदा थे।
शहज़ादा ज़ुल्फ़िक़ार के अनुसार, "अपहरण संकट ख़त्म होने से पहले एक एंबुलेंस विमान के पास आकर खड़ी हुई। विमान के आगे की तरफ़ से पाँच नक़ाबपोश अपहर्ता उतरे और एंबुलेंस में दाख़िल हो गए।"
 
जिस अपह्त विमान से यात्रियों को उतारा जा रहा था और जिस दूसरे विमान में चढ़ाया जा रहा था, उसके बिलकुल पास पत्रकार थें, लेकिन उन्हें यात्रियों के पास जाने की इजाज़त नहीं थी।
 
उनका कहना था कि मौलाना मसूद अज़हर समेत रिहाई पाने वाले चरमपंथियों को उन्होंने देखा और शायद वे भी उसी एंबुलेंस में निकल गए, जिसमें अपहर्ता थे। पत्रकारों को यह पता नहीं चला कि वे लोग एयरपोर्ट से निकलकर किस ओर चले गए। हालाँकि अपहर्ताओं और रिहा होने वाले चरमपंथियों के लिए तालिबान अधिकारियों ने आदेश जारी किया कि वे दो घंटे में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दें।
 
पाँच अपहर्ताओं और तीन रिहा किये गए आतंकवादियों को कथित रूप से तालिबान द्वारा एक सुरक्षित मार्ग प्रदान किया गया। भारत और तालिबान के बीच न के बराबर संबंध थे, जो इस घटना के बाद लगभग पूरी तरह समाप्त हो गए। तालिबान द्वारा संदिग्ध भूमिका निभाए जाने को लेकर चर्चाएँ होती रहीं और फिर वक़्त गुज़रा, साथ ही वह चर्चाएँ समाप्त भी हो गईं।
 
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान तत्कालीन सरकार की 'अनुभवहीनता' तथा विभागों और अधिकारियों के बीच 'तालमेल का अभाव' स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। फ़ैसला सही समय पर नहीं ले पाने की वजह से तमाम मौक़े भारत चुक गया। उसके बाद जब भी सवाल उठे, सरकार तथा सरकार से जुड़े समर्थकों ने बंधकों के परिजनों का दबाव वाले बेतुके तर्क से ही जवाब दिया! जबकि इसके बार में हम ऊपर विस्तार से देख चुके हैं।
 
भुलना नहीं चाहिए कि कारगिल संघर्ष के बाद जाँच के नाम पर जो समिति बनाई गई थी, उसने दोषारोपण सेना पर ही कर दिया था! सन 2015 में कारगिल संघर्ष पर इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें कहा गया था कि उस वक़्त सेना की टुकड़ियों का ओवरएज (बुढ़े) कर्नल नेतृत्व कर रहे थे, जिसके कारण दुश्मनों को जवाब देने में देरी हुई! यह जवाब सिरे से ही तर्कहीन था।
 
सरकार आज तक कहती है कि बड़ी बहादुरी से हमने पाकिस्तानियों को खदेड़ दिया था, जबकि सवाल उठते हैं तो कहती है कि बूढ़े कर्नल नेतृत्व कर रहे थे! कंधार विमान अपहरण मामले में भी यही हुआ। अपनी अनुभवहीनता, अपना बेतुका तालमेल और असमंजस कार्यशैली को बचाने के लिए कह दिया कि बंधकों के परिजनों का दबाव था, देश का दबाव था, मीडिया का दबाव था, विपक्ष का दबाव था। दरअसल, सरकार और सरकार के लठैतों के मुताबिक़ किसी भी समय उनकी सरकार या उनके प्रिय नेताओं का कोई दोष नहीं होता!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)