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War and Politics: राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीति? युद्ध का प्रचार और प्रसार कैसे जायज़ माना जाए?

 
युद्ध या आक्रमण जायज़ व शांति के लिए अतिआवश्यक प्रक्रिया है। किंतु दोनों परिस्थितियों में उसका प्रचार और प्रसार किस हद तक जायज़ है? एक देश का मतलब आप क्या समझेंगे? यदि देश का मतलब समझेंगे तभी तो युद्ध का मतलब समझ आएगा।
 
पड़ोसी देश को सख़्त सैन्य प्रतिक्रिया देने से पहले या युद्ध करने से पहले उस सैन्य प्रतिक्रिया या युद्ध का ऐसा प्रचार-प्रसार किस हद तक जायज़ है? सैन्य प्रतिक्रिया के सबसे अहम हिस्से 'गोपनीयता' का अचार बना देना राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं है?
 
ऐसी जंग दुनिया में शायद ही कम हुई होगी, जहाँ जंग से पहले जंग का इस हद तक प्रेजेंटेशन किया जाता हो! लोगों को पुराने ज़माने में व्यस्त रखने वाली यह सरकार शायद उसी पुराने ज़माने की तरह 'सावधान' बोलकर सैनिक हमला करना चाहती थी!
 
मोटे तौर पर अवलोकन कर लें तब भी, दुश्मन पर किसी भी प्रकार की सैनिक प्रतिक्रिया से पहले अतिगोपनीयता बर्ती जाती है। लेकिन हमारे यहाँ उसका ठीक उल्टा हुआ! दुश्मन को दिनों पहले बताया गया कि हम ये ये कर सकते हैं, ऐसे ऐसे कर सकते हैं, इतना इतना कर सकते हैं!
 
भारतीय सेना हमेशा से सक्षम रही है। सरकारें बदलती रहती हैं। सरकारें आती रहती हैं, जाती रहती हैं। लेकिन सेना नहीं बदलती। उसे सरकारों से उतना मतलब भी नहीं होता। उसे जब हथियारों की कमी थी, तब भी वो लड़ी थी। भारतीय सेना पर किसी को तनिक भी संदेह नहीं हो सकता।
लेकिन दुनिया की कोई भी सेना हो, दुनिया का कोई भी मुल्क हो, सैन्य क्रिया की अपनी एक अलग दुनिया होती है। 'गोपनीयता' सैन्य प्रतिक्रिया का सबसे पहला और सबसे अहम हिस्सा है। लेकिन यहाँ हमारे नेता माइक पर दुश्मन को इलाक़े से लेकर वक़्त तक की जानकारियाँ देने में जुट गए हो, ऐसा माहौल बना था! कोई भी सरकार इतनी बचकाना कैसे हो सकती है?
 
हमारे प्रधानमंत्री संभावित सैन्य प्रतिक्रिया की घोषणा पिछली बार की तरह इस बार भी चुनावी सभा से करते हैं! राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय को, विशेषत: जब वो संवेदनशील स्थिति में हो तब, यूँ सड़क पर खोलकर बैठ जाना, यह सहज नहीं है।

 
देश के प्रधानमंत्री आतंकी हमले के बाद अपनी विदेश यात्रा को रोक कर वापस भारत लौटते हैं। भारत लौटकर जो भी ख़ुफ़िया बैठक की हो या फ़ैसले लिए हो, लेकिन वापस लौटने के बाद वे जाते कहाँ है? जाते हैं बिहार, मधुबनी में। एक चुनावी टाइप रैली को संबोधित करने! वहाँ से वे संभावित सैन्य प्रतिक्रिया को लेकर 'ज़रूरत से ज़्यादा भाषणबाजी' करते हैं। गोपनीयता के मूल पहलू का नाश करने की शुरूआत करते हैं।
 
बिहार में चुनावी टाइप रैली करने के बाद वे मुंबई जाकर बॉलीवूड सेलिब्रिटीज़ के साथ घंटों तक बतियाते हैं। लेकिन वही प्रधानमंत्री इस मसले से संबंधित सर्वदलीय बैठक में हिस्सा लेने नहीं पहुँचते! जबकि उन्हें वहाँ हर हाल में पहुँचना चाहिए था। जीएसटी जैसे नियमित टैक्स सुधार जैसे छोटे मसले पर आधी रात को संसद का विशेष सत्र बुलाकर तामझाम करने वाले पीएम मोदी इस संवेदनशील मसले पर संसद के विशेष सत्र बुलाने की तमाम दलों की माँग को अनसुना कर जाते हैं!
युद्ध के दौरान हमला करने के आदेश भी बंद लिफ़ाफ़े में दिए जाते हैं, जबकि यहाँ सड़क पर भाषण के ज़रिए लिफ़ाफ़े को फाड़ कर फेंका जा रहा था! युद्ध जैसे विषय को आप सड़क पर कैसे छेड़ सकते हैं? युद्ध का प्रचार करने निकले हो ऐसा मंज़र स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्या आप इस देश की सेना को बिना गंभीरता के इस्तेमाल करना चाहते हैं?
 
फ़रवरी 2019 का वो घटनाक्रम कैसे भूला जा सकता है? पुलवामा में भारतीय सेना पर आतंकी हमले के बाद 26 फ़रवरी को भारतीय सेना ने ज़बरदस्त पलटवार किया था। 1971 के बाद पहली बार भारतीय सेना ने शांतिकाल के दौरान सीमा पार जाकर इस स्तर पर आतंकी कैंप का सफाया किया था।
 
किंतु उस घटना क्रम में भी वही प्रचार-प्रसार देखा गया था। उन दिनों एयर स्ट्राइक से पहले पीएम, सरकार के मंत्री, सभी इसी प्रकार सड़कों पर युद्ध के भाषण देते थे! भारतीय सेना ने तो अपना काम कर दिया, किंतु भूलना नहीं चाहिए कि भारत द्वारा की गई एयर स्ट्राइक के 24 घंटे भी बीते नहीं थे और पाकिस्तानी सेना ने भारत में घुसकर प्रतिक्रिया दी थी! वह चौंकाने वाला घटनाक्रम था!

 
उन दिनों भी प्रचार-प्रसार के बाद भारत ने सैन्य कार्रवाई की और कुछ घंटों के भीतर दुश्मन के फ़ाइटर जेट हमारी सीमा के भीतर घुस कर बम गिरा गए! भारत ने तो आतंकी कैंप पर कार्रवाई की थी, दुश्मन ने हमारे सैन्य बेस के आसपास बम गिरा दिए थे। भारत का एक फ़ाइटर जेट नष्ट हुआ, भारत का एक फ़ौजी अफ़सर बंदी बना लिया गया था।
 
संभावित सैन्य प्रतिक्रिया का प्रचार-प्रसार उन दिनों 2019 में भी हुआ था। याद है कि पुलवामा आतंकी हमले के तुरंत बाद जहाँ विपक्षी नेता अपने कार्यक्रम और रैलियाँ रद्द कर रहे थे, इससे इतर पीएम मोदी और गृह मंत्री चुनावी प्रचार में बिज़ी थे!
पुलवामा हमला हुआ और उसके बाद पीएम मोदी के भाषणों, रैलियों को लेकर सवाल उठे तो भारत सरकार ने ही कहा था कि सिग्नल नहीं मिल रहे थे इसलिए पीएम को सूचना देरी से मिली। सोचिए, 21वीं सदी के दौरान किसी देश के, भारत जैसे बड़े देश के पीएम काफ़िले के साथ कहीं पर निकलते हैं, काफ़िले में संचार व्यवस्था के लिए अलग से उपकरण वाली गाड़ियाँ और सहूलियतें होती हैं, देश का सबसे आधुनिक कम्यूनिकेशन सिस्टम लेकर चलता है भारत के पीएम का काफ़िला, और उन्हें ही सिग्नल नहीं मिले!
 
पुलवामा हमले से पहले भी, तथा बाद में भी, कोविड-19 जैसी महामारी के बीच भी, पहलगाम आतंकी हमले के पहले और बाद में भी, पीएम मोदी को चुनावी प्रचार-प्रसार का कितना शौक है यह देश ने देखा ही है।
 
कोविड-19 के दौरान 'जान है तो जहान है' का नारा देश को देकर वे ख़ुद 'चुनाव में ही तो बसी मेरी जान है' का सूत्र धारण करके रैलियाँ संबोधित कर रहे थे! 2019 में सैन्य कार्रवाई के बाद की चौंकाने वाली स्थितियों के बीच लोगों ने सोशल मीडिया में जो तंज़ कसा था वह सच ही था कि बात सेना के नायक विंग कमांडर की थी, लेकिन देश का नायक बूथ कमांडर बना हुआ था!

 
अतिगोपनीय तरीक़ों से युद्ध या सीमित आक्रमण किया जाता है। उसकी योजनाएँ अतिगुप्त होती हैं। लेकिन अब की बार साल 2025 में भी माइक हाथ में पकड़ कर भाषण दिए जा रहे थे। पीएम, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री सरीखी संवैधानिक शख़्सियतें संभावित सैन्य प्रतिक्रिया को लेकर भाषण दे रहे थे।
 
नरेंद्र मोदी सरकार की छवी कुछ ऐसी है कि लोग तंज़ कसते हैं कि ये लोग तो रफ़ाल का एकाध नट-बॉल्ट भी देश में आएगा तो जश्न मना लेंगे! हम देश नहीं झुकने देंगे...। इन फ़िल्मी संवादों के वक्ता से पूछना चाहिए कि पहले कब झुका था यह देश? पहले भी तो नहीं झुका था। थोड़ा बहुत कंधार जैसी घटनाओं के समय झुकता रहा होगा।
रक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी ने बीबीसी हिंदी के लिए 2019 में लिखा था कि एक ज़माने में एक बहुत ही पुरानी व्यवस्था मान्य थी जिसके मुताबिक़ ऐसी लड़ाईयाँ सेनाओं के बीच हुआ करती थीं और उसका पूरी दुनिया और देश के बीच तमाशा नहीं बनाया जाता था। इस वजह से अगर दो मुल्क़ों के रिश्तों में तनाव को कम या ज़्यादा करना होता था तो सेनाएँ गुप्त ढंग से उचित कदम उठाती थीं। अंग्रेज़ी में इसे 'एस्केलेशन लैडर' कहते हैं, जिसके आधार पर दो देशों के बीच जंगी हालातों का जायज़ा लिया जाता है। लेकिन जब आप इस पूरी व्यवस्था को राजनीतिक स्तर पर पूरे देश और दुनिया में एक अभियान बना देते हैं तो तनाव कम या ज़्यादा करने के लिए जो कदम गुप्त ढंग से उठाए जाते हैं, वह नहीं हो सकते हैं।
 
अजय लिखते हैं कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि साल 2016 के बाद से एस्केलेशन लैडर सेनाओं के हाथ से बाहर निकल गया है। 2016 से पहले भी सर्जिकल स्ट्राइक जैसे क्रॉस बॉर्डर ऑपरेशन होते थे। इनकी मंजूरी राजनीतिक नेतृत्व ही देता था। लेकिन सार्वजनिक रूप से उनका प्रचार नहीं किया जाता था।
 
अब की बार भी देश सरकार के साथ था, विपक्ष सरकार के साथ था, लेकिन सरकार कहाँ थी? तभी तो पूछा गया था कि आप युद्ध करने जा रहे हैं या राजनीति? संभावित सैन्य प्रतिक्रिया के बारे में बार बार भाषणबाजी करके आप दुश्मन को आगाह नहीं कर रहे थे?
 

भारत तीव्र सैन्य प्रतिक्रिया करेगा यह तय था। इस बीच कुछ दिनों बाद, पीएम मोदी ने भारतीय सेना को दिया फ्री हैंड - यह ख़बर भारत में दिनों तक तामझाम के साथ घूम रही थी। सैन्य कार्रवाई का आयोजन कौन करेगा, वक़्त कौन तय करेगा, यह ख़बर सार्वजनिक कर दी गई थी।
 
पाकिस्तान के ट्वीट यहाँ आ सकते हैं तो फिर, भारत कर रहा है ज़बरदस्त तैयारी - भारत की ऐसी  मेनस्ट्रीम ख़बरें वहाँ तक नहीं पहुँची होगी? प्रधानमंत्री के हवाले से ख़बरे छप रही थी कि जवाबी कार्रवाई का तरीक़ा, समय, टार्गेट, आदि अधिकार सेना को दे दिए गए हैं। यानी, भारत सरकार और भारत की सेना क्या कर रही है यह बैठे बिठाए दुश्मन को पता चल रहा था।
नोट करें कि हमें (आम नागरिकों को) हमारी किस सैन्य चौकी पर कौन मेजर, कर्नल तैनात है यह पता नहीं होता, लेकिन यह जानकारी दुश्मन के पास ज़रूर होती है। ठीक वैसे ही उनकी जानकारी हमारी सेना के पास होती है। दोनों को पता होता है कि किस परिस्थिति में कौन से संभावित ठिकाने टार्गेट हो सकते हैं।
 
संभावित सैन्य कार्रवाई का दिनों तक प्रचार-प्रसार, अंदरूनी ख़बरों का सार्वजनिकरण, क्या इससे दुश्मन को मदद नहीं मिली होगी? पीएम, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, सचिव, सेना के अधिकारी, सुरक्षा सलाहकार, ये सब लोग कब मिले, क्यों मिले, क्या हुआ, सबका प्रसारण यूँ तो नहीं हुआ होगा।
 
फिर ख़बरें दुश्मन देश से भी आती हैं, जिसमें कहा जाता है कि वहाँ सरहद के गाँवों में क्या हालात है, क्या खाली हो रहा है, क्या हटाया जा रहा है, कितने महीने का राशन जमा किया जा रहा है। ऐसी ही ख़बरें हमारे यहाँ से आती हैं और वहाँ पहुँची होगी।

 
इस बीच स्वयं पीएम और दूसरे लोग माहौल में उन्माद बनाए रखते नज़र आते हैं। पीएम कहते हैं कि जिन्होंने यह कायराना हरकत की, उन्हें और उनके आक़ाओं को ऐसी सज़ा मिलेगी, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। ये करेंगे, वो करेंगे, टाइप भाषणबाजी रूकती नहीं! फिर कुछ दिनों तक सब शांत हो जाता है। फिर अचानक रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान कहते हैं कि देश जैसे चाहता है उसी भाषा में जवाब दिया जाएगा, हम साज़िश रचने वालों को सबक सिखाएँगे।
 
सेना को किसी छोटे अभियान में भी गोपनीयता, सटीक योजना, गणनायुक्त रणनीति की ज़रूरत होती है। किंतु यहाँ सरकार माहौल ऐसा खड़ा कर रही थी कि हम सरहद पार जाकर कुछ करने वाले हैं। प्रचार और प्रसार की ये नीति ग़ैरज़िम्मेदाराना चेष्टा ही है। जंग में प्रतिपक्ष को भनक तक नहीं लगनी चाहिए। आक्रमण में दुश्मन को अंदाज़ा नहीं होना चाहिए। लेकिन यहाँ एक ही चीज़ बोल बोल कर दुश्मन को पूरी तरह से आगाह करा दिया गया हो ऐसा माहौल था।
उस दौर को याद करिए। पाकिस्तान कारगिल के वक़्त सीमित लेकिन तेज़ आक्रमण करने में सफल हुआ था। उसकी वजह थी उनके द्वारा बरती गई गोपनीयता। दुश्मन किस फ़िराक़ में है यह आप को पता चल जाए उस परिस्थिति को आधी जीत कहा जाता है। मतलब कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था प्रतिपक्ष को आधी जीत सामने से दे रही थी?
 
युद्ध या सीमित आक्रमण या कोई अभियान, तीनों अवस्था में गोपनीयता कितनी ज़रूरी है यह समझने के लिए सैनिक होना ज़रूरी भी नहीं है। पूर्व घटनाएँ पढ़ने से भी गोपनीयता जीत में कितनी अहम है उसका ख़याल आ ही जाएगा। कहा जाता है कि केवल जीत लक्ष्य नहीं होता, बल्कि जीत कम से कम नुक़सान के साथ हो, यही किसी अभियान की प्रथम गणना होती है।
 
ख़ुफ़िया संस्थाओं की जानकारी, उनका आकलन, दुश्मन की ऑर्बिट जानकारी और गणना, सैन्य कार्रवाईयों का अहम हिस्सा होता है। ऐसे में दुश्मन की ख़ुफ़िया संस्थाओं को बैठे बैठे मूल जानकारियाँ मुहैया कराने की कुचेष्टा किस हद तक जायज़ हो सकती है? युद्ध की बात करना, फिर युद्ध के बादल बनाना, बार बार लगातार उसकी तीव्रता का ज़िक्र करना, संकल्प करना, संकल्प को सड़कों से दोहराना।
 
राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित विषय का प्रचार-प्रसार जायज़ है? किस हद तक जायज़ है? सैन्य कार्रवाईयों का राजनीतिकरण-सार्वजनिकीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं है? अपनी सेना को बड़े नुक़सान में झोंक कर सफलता हासिल करने के प्रयास क्यों?
 
कई रक्षा अवलोकनकर्ताओं के अनुसार युद्ध-सेना और रणनीति की परंपराओं के साथ गंभीर मज़ाक हो रहा है। इस प्रकार की सरकारी शैली न सिर्फ़ आपकी संभावित सैन्य कार्रवाई पर भी प्रभाव डाल सकती है, बल्कि आपके विदेश नीति को भी प्रभावित करती है।
संभावित सैन्य प्रतिक्रिया के प्रचार-प्रसार से दुश्मन को आकलन करने में आसानी तो हुई ही होगी। और यह चीज़ किसी भी सैन्य प्रतिक्रिया के पहले नियम का ही नाश करती है।
 
तमाम को पता था कि पहलगाम हमले के बाद पूर्व में मोदी शासित सरकार द्वारा की गई सैन्य प्रतिक्रिया से ज़्यादा तीव्र सैन्य प्रतिक्रिया इस बार होगी। साथ ही ज़्यादातर को यह भी पता था कि बदले में दुश्मन द्वारा भी प्रतिक्रिया होगी ही होगी। इस लिहाज़ से गोपनीयता को लेकर गंभीरता धारण करनी चाहिए थी।

 
युद्ध और सेना का राजनीतिक इस्तेमाल आगे कौन से रंग दिखाएगा, कोई नहीं जानता। बस इतना पता है कि अच्छाई कभी दूसरी अच्छाई को प्रेरित नहीं कर सकती, किंतु बुराई अवश्य कर जाती है!
 
भारत ने अगर आतंकी हमले के बाद कोई 'संकल्प' लिया है तो फिर अति प्रचार-प्रसार करके उस संकल्प को स्टंट बनाने का काम क्यों करते हैं हम? 'गोपनीयता का सार्वजनिकरण' क्यों? दुश्मन को सरेआम आगाह करके स्वयं को होने वाला संभावित नुक़सान बढ़ाने की चेष्टा क्यों?
 
दुश्मन पर, उनके इलाक़ों पर सैन्य कार्रवाई करने की बातें सार्वजनिक रूप से करने के बाद, क्या दुश्मन आराम से बैठा रहेगा? वे आराम कुर्सी पर बैठकर इंतज़ार कर रहे होंगे कि भारत के युद्धक विमान आएँगे, मिसाइल आएँगे, बम गिराएँगे और हम गिरते हुए बम को हाथ में पकड़ कर कंचा कंचा खेलेंगे?
मेरे आने के बाद देश मजबूत हुआ है, यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन मेरे आने के बाद सेना मजबूत हुई है, सेना का मनोबल बढ़ा है, पीएम मोदी के ऐसे भाषण हंसकर नज़रअंदाज़ करने लायक नहीं है। 1949, 1965, 1971 के पूर्ण युद्ध से लेकर 1947, 1669, सियाचीन, 1999 के संघर्ष सेना ने अपनी मजबूती, अपने मनोबल, अपनी रणनीतियाँ और बहादुरी से ही जीते थे, डकवर्थ लुईस के नियम को लागू नहीं किया गया था!
 
राष्ट्रीय सुरक्षा के विषय पर राजनीति स्वीकार्य नहीं हो सकती। सेना भारत की है, ना कि किसी मोदी, इंदिरा की। भारत-पाकिस्तान विषय के जानकार बताते हैं कि दरअसल दोनों देशों की राजनीति को अपनी अपनी जनता के आगे विजेता के रूप में आना है। जीत का ढिंढोरा पीटना जायज़ मान ले, लेकिन लड़ने से पहले लड़ाई का ढिंढोरा कितना जायज़ है?
 
साहिर लुधियानवी की एक पंक्ति है... जंग तो ख़ुद ही एक मसला है, जंग क्या मसलों का हल देगी। लेकिन फिर भी जंग तो ज़रूरी ही है। जंग के बदले सीमित किंतु तेज़ हमला भी ज़रूरी है। किंतु एक बार तय करने के बाद उसका प्रचार और प्रसार बेहद ग़ैरज़रूरी है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)