अपने बुद्धिहीन लठैतों से भारत माता की
जय के नारे लगवाना और उन नारों के पीछे न्याय की गुहार लगा रही मृत बच्चों की
माताओं की आवाज़ को बंद करा देना। ताक़तवर सत्ता के आगे बेबस और लाचार जनता की
गुहार को दफ़नाने का यह अंदाज़ असल में राजनीति और राष्ट्रवाद के मिश्रण का क्रूर
चेहरा है।
"आप एजेंडे के साथ आए
हैं, बैठ
जाइए", "पता है, आप
ख़ास एजेंडे के साथ आए हैं", "ये
बहन ख़ास एजेंडे के साथ आए हैं, उनकी बातों पर ध्यान
नहीं देना चाहिए" - गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा न्याय के लिए तरस रही
पीड़ित जनता को इन शब्दों के साथ सार्वजनिक ढंग से अपमानित करना, न्याय
माँग रही महिलाओं के मुँह जबरन बंद कराना और उन्हें बाहर कर देना, यह
सिर्फ़ निराशाजनक ही नहीं है, बल्कि अमानवीय, अभद्र
और ग़ैरज़िम्मेदार व्यवहार है।
जो हादसा राज्य भर में चर्चा का विषय
बना हो, जिस
हादसे में अनेक बेकसूर बच्चे जान गँवा चुके हो, जिसकी
जाँच में कोताही और भ्रष्टाचार के साथ साथ पैसे की ताक़त के दुरूपयोग का वातावरण
पनप चुका हो, ऐसे मामले में हादसे के पीड़ित परिवार
की महिला के साथ किसी राज्य के मुख्यमंत्री का ऐसा व्यवहार किसी सभ्य, शिक्षित
और लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य कैसे हो सकता है?
गुजरात के मुख्यमंत्री स्तर के
संवैधानिक व्यक्ति का जनता के साथ ऐसा व्यवहार, वो
भी सार्वजनिक मंच पर, उपरांत बहुचर्चित
हरणी नाव हादसे जैसी संवेदनशील घटना की पीड़िताओं के साथ! वह पीड़िताएँ, जो
उस मुख्यमंत्री की इस मामले में नाकामी और अक्षमता के चलते न्याय से कोसों दूर
थीं। उन्होंने न्याय की गुहार लगाई। मुख्यमंत्री ने न्याय देना तो दूर है, उलटा
उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया!
गुजरात के वर्तमान सीएम भूपेंद्र भाई
पटेल को स्थानीय मीडिया में अत्यंत कोमल स्वभाव का इंसान बताया जाता था। सीएम साहब
ने सरेआम ऐलान कर दिया कि जी नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ!
इससे पहले गुजरात के पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल भी अपनी अभद्रता और अहंकारी
भाषा का परिचय अनेक बार दे चुके हैं।
सोचिए, अगर भारत के विकसित राज्य के
मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री स्तर के संवैधानिक पद धारण करने वाले व्यक्ति इस
प्रकार से पीड़ितों के साथ, आम नागरिकों के साथ, महिलाओं के साथ आपत्तिजनक आचरण कर जाते
हैं, तो
फिर जिन राज्यों में जनता की सुखाकारी और शिक्षा का स्तर निम्न है, वहाँ
ये नेता लोग क्या क्या कर जाते होंगे?
सवाल यह भी बनता है कि ये लोग सार्वजनिक
रूप से इतनी अभद्रता कर जाते हैं, इतने अहंकारी दिख जाते हैं, तो फिर निजी रूप से जनता के लिए इनके
विचार क्या होंगे? समझा
जा सकता है कि यदि राज्य सरकार के मुखिया सरीखे लोग इस प्रकार अमानीय और
ग़ैरज़िम्मेदारी दिखाई देते हैं, तो फिर इनके नीचे जो आते हैं, वहाँ क्या हालात होंगे?
तारीख़ थी 2
मई 2025।
गुजरात राज्य के 65वें
जन्मदिन के बाद महज़ पहला ही दिवस। मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल द्वारा इस दिन
वडोदरा के दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में 1156 करोड़ रुपये के
विकास कार्यों का उद्घाटन और लोकार्पण कार्यक्रम आयोजित किया गया था।
इस कार्यक्रम में दो पीड़ित महिलाएँ
मुख्यमंत्री को अपना परिचय देने लगीं और न्याय पाने के लिए मुख्यमंत्री से गुहार
लगाने लगी। ये महिलाएँ कोई और नहीं बल्कि वे पीड़ित थीं जिन्होंने वडोदरा हरणी नाव
हादसे में अपने बच्चों को खो दिया था।
हरणी नाव हादसे की बात करें तो 18
जनवरी 2024
के दिन यह हादसा हुआ था, जब वडोदरा के वाघोडिया रोड स्थित न्यू सनराइज स्कूल से छात्र
पिकनिक के लिए निकले थे। वडोदरा स्थित हरणी झील में नौका विहार करते समय नाव पलटने
के कारण 12
बच्चे और 2
महिला शिक्षकों की मौत हो गई। क्षमता से अधिक लोगों को बिठाने, लाइफ़
जैकेट के बिना नौका विहार कराने तथा कुछ कोताहियों के चलते ये मौतें हुई थीं।
इस हादसे के कुछ समय पहले ही मोरबी झूला पुल हादसा, सूरत तक्षशिला अग्निकाँड, राजकोट गेम जोन अग्निकाँड,
आदि ने पूरे गुजरात को झकझोर दिया था। इन हादसों की जाँच में भी सवाल उठे थे तथा
इन हादसों के पीड़ित भी न्याय के लिए इधर उधर भटक रहे थे। ऐसे में हरणी नाव हादसे
ने फिर पूरे राज्य को चिंता में डाल दिया।
यहाँ भी नगरनिगम ने झील के विकास की
परियोजना का ठेका निजी फर्म को दिया था। निजी फर्म ने उपठेका किसी और को दिया होगा, जैसा
कि तमाम मामलों में होता है। सरकारी परियोजना का कॉन्ट्रैक्ट लेने वाले लोग, ठेका
लेने की प्रक्रिया, ठेका लेने के बाद नियमों को धत्ता बताना, हादसे
में जवाबदेही से निकलने के पैंतरे, हादसे के बाद अंदरूनी पर्ते, कोताही, लापरवाही, भ्रष्ट आचार, हर
मामले की तरह यहाँ भी स्थितियाँ बहुत अलग तो नहीं रही होगी।
आनन फ़ानन में एसआईटी (स्पेशल
इन्वेस्टिगेशन टीम) का गठन किया गया। बड़े बड़े पुलिस अधिकारियों और क्राइम ब्रांच
के अफ़सरों को लेकर एसआईटी बनाई गई। 18 आरोपियों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की
गई। बाद में कुल 20
आरोपियों के नाम शामिल थे। नतीज़ा वही, जैसा हर एसआईटी जाँच में होता है।
इनमें से 4
महिला आरोपियों को कुछ महीनों के बाद ज़मानत मिल गई। कुछ समय के पश्चात 10
अन्य आरोपियों को ज़मानत दी गई। फिर कुछ समय के बाद 5
और आरोपी जेल से रिहा हो गए। हादसे के तुरंत बाद वहीं सस्पेंशन वाला द्दश्य, फिर
कुछ महीने बाद नौकरी पर वापसी, उपरांत आरोप और प्रतिआरोप। न्याय की बात तो दूर रही, पीड़ितों
को मुआवज़ा राशि का आदेश भी अदालत को देना पड़ा!
लाज़मी है कि दोनों महिलाएँ दूर मंच पर
खड़े मुख्यमंत्री सुन पाए इसलिए तथा न्याय न मिलने पर निराश होकर अपनी आवाज़ को
ज़रा ऊँचा कर मुख्यमंत्री से न्याय माँग रही थीं। सत्ता को ऊँची या नीची तो
क्या, अब
तो आवाज़ तक पसंद नहीं है!
एक की व्यथा आवास से संबंधित थी, दूसरी महिला हरणी नाव हादसे में मारे गए अपने बच्चे के संबंध
में बात कर रही थीं।
जब ये पीड़ित सार्वजनिक रूप से
मुख्यमंत्री के सामने अपनी बात रखने लगे तो सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें जबरन बैठा
दिया। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्रीजी, जो मूल रूप से नेता ही होते हैं और भाषण करने के आदि होते हैं, सुनने
के नहीं, वे
अपने भाषण के बीच इस तरह के द्दश्य से नाराज़ हो गए। किसी को अपेक्षा नहीं थी
कि गुजरात के मुख्यमंत्री स्तर का व्यक्ति इन दो महिलाओं के साथ गुस्से में बात
करेगा, उन्हें
सार्वजनिक रूप से अपमानित करेगा!
मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने अपने मृत बच्चों के लिए न्याय माँग
रही इन महिलाओं के साथ सार्वजनिक रूप से चिल्लाकर और अशोभनीय तरीक़े से कहा, "अभी आप बैठ जाइए।" मुख्यमंत्री ने इन महिलाओं पर आरोप लगाते
हुए यहाँ तक कह दिया कि, "आप एक ख़ास एजेंडे के तहत आए हैं, इसलिए बैठ जाइए।"
स्वाभाविक सी बात है कि यदि सरकार ने और
प्रशासन ने हरणी नाव दुर्घटना पर ज़ल्दी से और निष्पक्ष तरीक़े से जाँच की होती तो
राज्य की जनता को इस तरह से न्याय के लिए भीख नहीं माँगनी पड़ती। स्वाभाविक सी
बात है कि यदि इस जनता को सरकार ने पहले सुना होता, उनसे
मिले होते, तो
यह जनता इस तरह मुख्यमंत्री से मिलने के लिए समय की माँग नहीं करती।
दरअसल, हरणी नाव हादसे के बाद सरकार और प्रशासन
ने जाँच के नाम पर ढिलाई बर्ती, लीपापोती की, तभी तो इनसे न्याय माँगा गया था। न्याय दिया जाएगा - यह
भरोसा सरकार ने अपनी जनता को दिया होता तो यह होता ही नहीं।
भूपेंद्र पटेल ने महिलाओं की बात सुनने
के बजाय उन पर सीधे आरोप लगाते हुए कहा, "आप
किसी ख़ास एजेंडा को लेकर आए हैं। बहन, ऐसा नहीं हो सकता।
ऐसी बात मत कीजिए। बाद में मिलिए।" पीड़ित महिलाओं ने
तुरंत कहा, "हम
शांतिपूर्वक ही मिलना चाहती थीं। पिछले डेढ़ साल से संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन कोई
हमें मिलने नहीं दे रहा है।"
लेकिन मुख्यमंत्रीजी ने एक नहीं सुनी! वे लगातार एक ही बात, "आप
ख़ास एजेंडे के साथ आईं हैं", यही बात पकड़ कर यही दलील दागने लगे! मुख्यमंत्री ने तो वहाँ मौजूद लोग, जिसमें
बहुत ही अधिक तादाद उनके अपने कार्यकर्ताओं की थी, को
कह दिया कि इन पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है!
जब ये महिलाएँ बोल रही थीं तो सुरक्षाकर्मियों और महिला पुलिस
कर्मचारियों ने महिला का मुँह बंद कर दिया और उसे बोलने से रोक दिया! फिर
दोनों महिलाओं को हॉल से बाहर ले जाया गया। इस दौरान दोनों महिलाओं और उनके पतियों
को भी क्राइम ब्रांच ने हिरासत में लिया! बाद
में पूछताछ के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
सबसे पहले तो मुख्यमंत्री भूपेंद्र
पटेल को स्पष्ट करना चाहिए कि पीड़ित महिलाएँ कौन से एजेंडा के साथ आई थीं? अगर
उन्होंने अब तक अपने राज्य को पुख़्ता रूप से नहीं समझाया है कि उन पीड़िताओं के
एजेंडा क्या थे, तो
फिर भूपेंद्र पटेल को शर्म आनी चाहिए। इसलिए, क्योंकि अपने मृत बच्चों के लिए
न्याय माँगना 'एजेंडा' कैसे
हो गया?
न्याय माँग रही माँ
को जबरन बाहर किया जाता है, वह रोती-विलपती रहती है, पूछती है कि क्या हम
आतंकवादी हैं? वह पीड़ित माँ अपने चुने हुए
मुख्यमंत्री को अपनी वेदना, अपनी दिक्कत, अपनी
पीड़ा बताना चाहती थीं। न्याय नहीं मिला तो न्याय के लिए गुहार
लगाना चाहती थीं। भूपेंद्र पटेल को साक्ष्यों और आधारों के साथ बताना चाहिए कि
इसमें इनका क्या विशेष एजेंडा था?
एजेंडा था... एजेंडा था... राज्य के
सीएम द्वारा स तरह हवा में चिल्लाने का कोई मतलब नहीं है।
आप साक्ष्यों और आधारों के साथ कहिए कि क्या एजेंडा था और सच सामने लाइए।
ऐसा आप नहीं कर पाते तो यही कहा जाएगा कि बहरी और असंवेदशील सरकार की प्रमुख
मशीनरी पुलिस ने उस कार्यक्रम में इस माँ के मुँह को हाथों से बंद करना चाहा और
ज़बरन बाहर कर दिया।
न्याय माँग रही पीड़ित महिलाओं के मुँह
जबरन बंद कराने का ग़ैरज़िम्मेदार, अमानवीय और अभद्र व्यवहार करने के बाद मुख्यमंत्री भूपेंद्र
पटेल भद्रता का भाषण देते हुए कहने लगे, ''जब भी हम किसी
कार्यक्रम में आए हैं, इस तरह से प्रस्तुति देना हमारे सभ्य शहर को शोभा नहीं देता।''
मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल द्वारा
सार्वजनिक रूप से अशोभनीय, अभद्र, अमानवीय
और ग़ैरज़िम्मेदार व्यवहार करने के बाद भद्रता का भाषण देना
उनके ही कद को एकदम से निम्न स्तर की तरफ़ ले जाने के समान था। दूसरों को सलाह
देते हुए मुख्यमंत्री को मैट्रिक पास समझ देनी चाहिए कि आपकी सरकार ने न्याय नहीं
दिया तो यह बात आपको शोभा नहीं देती, आप थोड़ी सी शर्म रखिए और दूसरों को
उपदेश देने की आदत धारण करने की जगह अपनी ग़लतियों को देख लीजिए।
जिन महिलाओं ने अपने बच्चे खो दिए हो, जिनकी गुहार कहीं सुनी
नहीं जा रही हो, जिन्हें डेढ़ साल बाद भी न्याय नहीं मिला हो, जब वे अंततः मुख्यमंत्री
के कार्यक्रम में अपनी बात रखने आती हैं, तब उन्हें चुप रहने को
कहा जाता है, उन पर ख़ास एजेंडे जैसा बेतुका आरोप लगाया जाता है, उनका मुँह ढक दिया जाता
है, यह किस प्रकार की
कार्यशैली, संस्कार और नैतिकता है?
एक राज्य के मुख्यमंत्री से पीड़ित माँ
के लिए इस प्रकार के अपमानजनक शब्द और इस प्रकार के असंवेदनशील और
ग़ैरज़िम्मेदाराना व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी। आम जनता किससे न्याय माँगेगी? चुनी
हुई सरकार से ही तो मागेगी। सीएम साहब से सवाल बनता है कि क्या गुजरात की जनता
न्याय माँगने के लिए युगान्डा की सरकार से गुहार लगाएगी?
जो बच्चे उस हादसे में मारे गए वे यदि
किसी राजनेता या उद्योगपति के होते तो? जबकि यहाँ साल-डेढ़ साल बाद भी सरकार
जाँच-जाँच खेल रही है। न्याय माँग रही माँ को साल-डेढ़ साल से इधर उधर भटकाया
जा रहा है, उससे
कोई मिल नहीं रहा।
सीएम साहब ख़ास एजेंडे शब्द का बार बार
इस्तेमाल करते रहे। उन्हें समझना चाहिए था कि जनता का क्या एजेंडा होगा? न्याय
से कोसों दूर माँ का क्या एजेंडा होगा? जनता को तो अपनी व्यथा कहनी है, पीड़ा
बतानी है और अपेक्षा है कि सुनने के बाद न्याय मिलेगा। इसके सिवा कौन सा एजेंडा
रहा होगा यह सीएम को आधारों के साथ बताना चाहिए।
अपने संतानों को गँवाने वाली माँ इधर
उधर भटकायी जाती है, व्यथित है। हो सकता है कि उसकी प्रस्तुति का तरीक़ा ग़लत
हो। लेकिन उसे इस चौखट पर लाने के लिए ज़िम्मेदार सरकार और प्रशासन ही तो है।
सौम्य और संवेदनशील स्वभाव के बताए जा रहे सीएम ने उस भ्रम को स्वयं ही तोड़ दिया
है।
बाद में मुख्यमंत्री भड़क गए और कार्यक्रम में मौजूद अपनी पार्टी
बीजेपी के कार्यकर्ताओं से कहा, "वह बहन एक ख़ास एजेंडे के साथ आए हैं। हमें उनकी बातों पर ध्यान
देने की ज़रूरत नहीं है।" और फिर कार्यक्रम में मौजूद उन कार्यकर्ताओं ने
भारत माता की जय के नारे लगाए। 'भारत माता की जय' के नारों के पीछे दोनों पीड़ित महिलाओं की न्याय की गुहार दब गई, मर गई!
कोताही, भ्रष्टाचार
और लीपापोती वाली जाँच के चलते न्याय से दूर, अपने मृत बच्चे के
लिए न्याय माँग रही पीड़ित महिला को अपमानजक शब्दों के साथ स्वयं राज्य के
मुख्यमंत्री द्वारा चुप करा देना और अंत में भारत माता की जय के नारे लगाना, इसका
तुक क्या है? इसमें देशभक्ति वाली 'समझ' नहीं
बल्कि राष्ट्रवाद की 'सनक' की बू आ रही है।
अपने बुद्धिहीन लठैत कार्यकर्ताओं के
दवारा भारत माता की जय के नारे लगवाए गए और मृत बच्चों की माताओं की आवाज़ को मार
दिया गया! यह असल में दर्शाता है कि इन राजनीतिक
दलों को, इनकी
सरकारों को और इनके प्रशंसकों व अनुयायियों को भारत माता या भारत देश से इत्ता सा
भी लेना-देना नहीं है। वे तिरंगे और राष्ट्रवाद की आड़ में असल में उसी राष्ट्रीय
ध्वज को और उसी देश को नुक़सान पहुँचा रहे हैं।
गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा सार्वजनिक
रूप से किया गया यह अनैतिक आचरण तथा उसके बाद भारत माता की जय के नारे के नीचे मृत
बच्चों की माताओं की आवाज़ को मार देना, सरकार के प्रशंसकों और सरकारी लठैतों
द्वारा इस शर्मनाक घटना को नज़रअंदाज़ कर देना, यही तो देशभक्ति और
राष्ट्रवाद के बीच का असली अंतर है।
देशभक्ति में समझ होती है, जबकि
राष्ट्रवाद में सनक। देशभक्ति संस्कार है, राष्ट्रवाद महज़ एक
भावना। याद रखें कि संस्कार भीतर होते हैं और चिरकालीन भी। भावना का उफ़ान पल भर
का होता है, बिलकुल अस्थायी।
अंत में तो देशभक्ति समाज को और देश को एकजुट करती है, जबकि
राष्ट्रवाद एक समाज में अनेका अनेक समाज का तथा एक देश में किसी दूसरे देश का सृजन
करता है। तभी तो सरदार पटेल ने ऐसे राष्ट्रवाद को मूर्खता और टैगार ने नशे की शीशी कहा
था।
पूरी घटना के बाद पुलिस ने महिला के पति
को हिरासत में लेकर पूछताछ की!
हालाँकि कार्यक्रम समाप्त होते ही मुख्यमंत्री ने दोनों महिलाओं को मिलने के लिए
बुलाया और उनकी प्रस्तुति सुनी। किंतु इस बारे में कोई जानकारी सामने नहीं आई है
कि उस बैठक के बाद महिलाओं की समस्या का कोई समाधान निकला या नहीं।
प्रशांत दयाल वडोदरा के स्थानीय पत्रकारचिंतन श्रीपाली के साथ बातचीत में बताते हैं कि बाद में इन दोनों महिलाओं को
पुलिस थाने और फिर क्राइम ब्रांच तक ले जाया गया। चिंतन बताते हैं कि वडोदरा
क्राइम ब्रांच थाने में आगे और पीछे, दो दरवाज़े हैं। बक़ौल चिंतन, जब किसी अपराधी या मामले को गुप्त रखना
हो तब पिछला दरवाज़ा इस्तेमाल होता है। चिंतन का दावा है कि इन महिलाओं को पिछले
दरवाज़े से अंदर ले जाया गया!
वे बताते हैं कि महिलाओं से उनकी केसरी सारी के बारे में पूछताछ की
गई! कहाँ
से लाए, किसने दी, क्यों लाए, किसीने आपको बहकाया है क्या, आप घर से कितने बजे निकले, क्यों निकले थे!
पीड़ित महिलाओं से भूपेंद्र दादा की पुलिस ने ऐसे सवाल किए!
न्याय-व्याय की बात सीएम ने उन महिलाओं से की या नहीं की, पुलिस ने न्याय का भरोसा
दिया या नहीं, इसकी जानकारी कहीं पर नहीं है।
उल्लेखनीय है कि हरणी नाव हादसे को 469
दिन बीत चुके हैं। फिर भी पीड़ित परिवारों को कोई न्याय नहीं मिला है। यूँ तो ऊपर
जिन हादसों का ज़िक्र किया उनमें भी न्याय कहाँ मिला है?
जनता को बार-बार आश्वस्त करने वाली
गुजरात सरकार अब तक इन पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने में विफल रही है! गृह राज्य मंत्री और अब मुख्यमंत्री तक
नये नये नारे गढ़ते रहते हैं। नारों से जनता का जी भर जाता है। हम बार बार लिख
चुके हैं कि असल में नारे ही मुद्दों की हत्या करते हैं।
हादसे को डेढ़ साल बीत गया है, लेकिन
विकसित राज्य की नारों वाली सरकार अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर पाई है! अगर कोई उन्हें उनकी ज़िम्मेदारी याद
दिलाता है तो वे अपने लठैतों को छोड़ देते हैं!
ये लठैत भारत माता की जय की सनक फैलाकर समझदारी और न्याय की हत्या कर देते हैं! हद यह हो गई है कि अब तो पीड़ित लोगों
के मुँह जबरन बंद कराए जाते हैं, ताकि उनकी भी आवाज़ बंद की जा सके!
राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल अपने ग़ैरज़िम्मेदार और
अहंकारी व्यवहार को अनेक बार प्रदर्शित कर चुके हैं। एक बार तो वे नीट के मुद्दे
लेकर मिलने आए अभिभावकों को सरेआम कह गए थे कि मैं आपका नौकर नहीं हूँ, मुझे किसीकी बात नहीं
सुननी। जब विजय रूपाणी गुजरात के सीएम थे तब 1 दिसंबर 2017 के दिन दिवंगत बीएसएफ
जवान अशोक तड़वी की बेटी को सीएम की रैली से जबरन घसीट कर बाहर किया गया था, जो प्रशासन की वादाख़िलाफ़ी
से नाराज़ होकर वहाँ पहुँची थीं।
सच ही है कि अब सरकारें बुलडोज़र और
अपराधियों के जुलूस की नौटंकी करने वाली सरकारें सी हैं। यहाँ भी लोगों को ख़ुश
करने के लिए पुलिस सुबह किसी अपराधी का सार्वजनिक जुलूस निकालती है और उसी दिन उसी
शहर में दूसरे अनेक अपराध हो चुके होते हैं!
यहाँ भी किसी एक मामले में अपराधी का घर या घर का कुछ हिस्सा बुलडोज़र या हथौड़े
से तोड़ कर दूसरे तमाम अतिक्रमणों और अवैध निर्माणों के सवाल को दफ़्न किया जाता
है!
गुजरात में भी व्यंग और निर्भय पत्रकारिता से डरने वाली राजनीति का प्रदर्शन हो चुका है। गुजरात के एक पुराने और
वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर ने शराब के अवैध अड्डों की सूची सार्वजनिक की तो पुलिस
अड्डों और अपराधियों तक पहुँचने की जगह न्यूज़ चैनल की ऑफ़िस पहुँच गई और पाँच
घंटे तक पत्रकारों से पूछताछ की!
सत्ता को शर्म आनी चाहिए कि उन्होंने
महात्मा गाँधी और सरदार पटेल के गुजरात को ऐसा राज्य बना दिया है, जहाँ
न्याय की माँग करने वाली महिलाओं तक को सरेआम अपमानित किया जाता है! अधिकारी और मंत्री पीड़ितों से मिलने
की भी ज़हमत नहीं उठाते, उनकी बात भी नहीं सुनते और जब वे सार्वजनिक मंच से अपनी बात
रखने की कोशिश करते हैं तो उन्हें सार्वजनिक रूप से एजेंडे वाले कहकर अपमानित किया
जाता है!
राज्य में क़ानून व्यवस्था के नाम पर
सिर्फ़ जुलूस और बुलडोज़र वाले नाटक किए जाते हैं, लेकिन जब आप ज़मीनी स्तर पर देखेंगे तो
पीड़ितों को न्याय नहीं मिल रहा है। सत्ता अब इतनी तो चालाक हो चली है कि
हज़ारों अन्याय करने के बाद वो एकाध न्याय कर देती है और फिर जनता भी इतनी नासमझ
हो चली है कि इस एकाध न्याय और हज़ारों अन्याय को सहर्ष स्वीकार कर लेती है।
गुजरात के प्रमुख अख़बारों और स्थानीय
न्यूज़ चैनलों से सवाल बनता है कि आप चिल्ला चिल्ला कर बतला रहे थे कि गुजरात के
मुख्यमंत्री अत्यंत ही कोमल हृदय वाले और द्दढ़ इरादे वाले हैं, तो
फिर इनका वो कोमल हृदय कहाँ गया जब उन्होंने इस संवेदनशील मसले पर ऐसा अमानवीय
व्यवहार किया? आप
चिल्लाते थे कि इनका इरादा द्दढ़ है, डेढ़ साल से न्याय देने में नाकामी किस प्रकार की द्दढ़ता हुई?
मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के इस रवैये
पर अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए पीड़िता ने बाद में पूछा,
"क्या हम आतंकवादी हैं? क्या हम अपराधी हैं? हमारा
एकमात्र दोष यह है कि हमने अपने बच्चों को खो दिया है..." गुजरात जैसे विकसित
राज्य में भी जनता के प्रमुख नौकर अपनी जनता को कीड़े मकोड़े समझते हैं और ख़ुद को
राजशाही के दौर का राजा!
वडोदरा संस्कारी नगरी होगी, बल्कि है, किंतु
नेता चाहे विधायक हो या सीएम, वह अपने संस्कार और
अपनी जवाबदेही शायद शपथ लेते समय ही किसी डिब्बे में छिपा देते हैं और फिर किसी न
किसी सार्वजनिक मंच से जनता के साथ अभद्र व्यवहार कर जाते हैं!
जनता परेशान होती रहती है, मरती
रहती है। मुआवज़े या न्याय की आश और अब चालाक नारों का मरहम राजनीति उसे देती रहती
है। अब उस राजनीति को इतना अहंकार है कि अब तो वह यह मानने लगी है कि जनता को सवाल
पूछना तो दूर है, न्याय माँगने तक का अधिकार नहीं है! न्याय की गुहार किसी को नहीं सुननी। ना
अधिकारी इसके लिए समय देंगे, ना मंत्री। ऐसे में
मुख्यमंत्री तो कहाँ से देंगे? फिर भी आपने किसी मंच
से न्याय की याचना कर ली तो इसे आपका अपराध माना जाएगा!
(इनसाइड इंडिया, एम
वाला)