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Satire and Journalism Fear: गुजरात मॉडल, यहाँ भी निर्भय पत्रकारिता और व्यंग से डरने वाली सरकार है? जो बुलडोज़र और जुलूस वाले पर्दे से बहुत कुछ छिपाती है?


अवैध निर्माण के जंगल के बीच किसी एक मामले में बुलडोज़र की एंट्री कराने से तथा अनगिनत अपराधों के बीच किसी एक मामले में सार्वजनिक जुलूस का शो करने से बहुत सारे असली मुद्दों पर पर्दा डाला जा सकता है। पहले सरकारें असली मुद्दों को दफ़्न करने के लिए सांप्रदायिकता और राष्ट्रप्रेम की शीशी सूँघाती थी, अब मामला लोगों के 'फ़ौरी तौर पर मनोरंजन' कराने तक पहुँच गया है!
 
लोगों को ख़ुश करने के लिए पुलिस सुबह किसी अपराधी का सार्वजनिक जुलूस निकालती है और उसी दिन उसी शहर में दूसरे अनेक अपराध हो चुके होते हैं, लेकिन 'समझ' की जगह लोगों की 'सनक' ऐसी कि सुबह निकाला गया जुलूस दिन भर हुए अपराधों को ढक देता है! किसी एक मामले में अपराधी का घर या घर का कुछ हिस्सा बुलडोज़र या हथौड़े से तोड़ कर दूसरे तमाम अतिक्रमणों और अवैध निर्माणों के सवाल को दफ़्न किया जा सकता है!
 
जिस गुजरात को प्रगतिशील, शांत, सहिष्णु और व्यापार के लिए अनुकूल राज्य माना जाता है, जहाँ की पुलिस देश की शीर्ष पाँच पुलिस में से एक है, वहाँ राज्य के प्रतिष्ठित अहमदाबाद शहर के भीतर, राज्य के दूसरे बड़े शहर सूरत, राजकोट, वडोदरा, उपरांत गोंडल, जूनागढ़, सुरेंद्रनगर, भरूच आदि जगहों पर, क़ानून और व्यवस्था की कुछ इस तरह धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं कि वरिष्ठ पत्रकार लोग और विश्लेषक 'असहाय', 'कमजोर', 'विवश', 'अतिगंभीर', जैसे शब्दों से क़ानून और व्यवस्था को इंगित करने पर मजबूर हैं।
 
दिनदहाड़े, सरेआम, बीच सड़क पर अपराधियों के गुटों द्वारा क़ानून और व्यवस्था को कुचलना, तलवार जैसे हथियारों के साथ निकलना, बेकसूर नागरिकों पर हमले करना, जिसके साथ विवाद हो उसे बिना क़ानून के भय के सरेआम निर्मम तरीक़े से जान से मार देना, पुलिस को ट्रक से रौंदना, उन्हें वाहन से उड़ाना, हिंट एंड रन, दुष्कर्म के क़िस्से, भ्रष्टाचार के चलते पुल या इमारतों का ढहना और लोगों का मरना, शराब, जुआ, ड्रग्स, राजनीति- पुलिस और अपराधी, शिक्षा माफिया, खनन माफिया, नक़ली अदालत, नक़ली पुलिस, नक़ली अधिकारी, नक़ली बैंक, आप गिनते गिनते थक जाएँगे।
 
जवाब में यहाँ भी 'बुलडोज़र' और 'सार्वजनिक जुलूस' के सरकारी पर्दें आजमाए जाते हैं! जो बाक़ायदा आजमाते हैं वे भी, और जिन्हें यह पसंद है वे भी, कोई भी यह बता नहीं सकता कि यह संपूर्ण समस्या का समाधान कैसे है?
 
इन सबका स्थायी समाधान सालों से नहीं मिला और बावजूद इसके यहाँ भी कई मामले ऐसे हैं, जहाँ सरकार आलोचना या सवालों से डरती मालूम पड़ती है। या फिर सवालों तथा समस्याओं से बचने के लिए दूसरे शिगूफ़ों का सहारा लेती है और बच निकलती है।
 
राज्य के प्रतिष्ठित शहर अहमदाबाद के वस्त्राल इलाक़े में 13 मार्च 2025 के दिन अपराधियों ने सड़क पर तलवारों के साथ हुड़दंग मचाया। किसी ने उसका वीडियो लिया और वीडियो बाज़ार में आया तब पुलिस और सरकार को लगा कि अब कुछ नया करना होगा।
 
'बुलडोज़र' और 'जुलूस' वाले इलाज इससे पहले से ही किए जा रहे थे। इन दोनों सरकारी और पुलिस कार्रवाई के बाद भी इस प्रकार के मामले अहमदाबाद समेत दूसरे शहरों में रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। फिर आनन फानन में आदेश, निर्देश, अपराधियों की सूची बनाओ, अगले 100 घंटे में ये करेंगे, वो करेंगे, चला। कुछ किया भी गया। कुछ दिन तक न्यूज़ चैनलों पर चला भी। अभी महीना पूरा हो चुका है, जनता के दिमाग़ से अपराध और समाधान, दोनों लुप्त होने के कगार पर है।
 
इस बीच गुजरात के एक पुराने और वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर ने शराब के अवैध अड्डों की सूची सार्वजनिक की तो पुलिस अड्डों और अपराधियों तक पहुँचने की जगह न्यूज़ चैनल की ऑफ़िस पहुँच गई और पाँच घंटे तक पत्रकारों से पूछताछ की!
 
समस्या और स्थिति को गुजरात के कुछेक पत्रकारों ने अपनी स्टोरी में बिना भय के चलाया। जिसे हम यहाँ देखते हैं। उनकी स्टोरी और बातचीत गुजराती में थी, जिसे हम यहाँ हिंदी में अनुवाद करके समझने का प्रयास करते हैं।
 
गुजरात पुलिस हो गई असहाय और कमज़ोर, जानिए ये हैं वजहें
शराब के अड्डों पर न्यूज़ स्टोरी करने के बदले जिस पत्रकार की क्राइम ब्रांच ने पूछताछ की उनका नाम प्रशांत दयाल है, जो गुजरात में अपराध, राजनीति और पुलिस से संबंधित रिपोर्टींग का बहुत पुराना और जानामाना चेहरा है। जिन्होंने अनेक संवेदनशील मसलों पर किताबें लिखी हैं, जो अपनी बेख़ौफ़ पत्रकारिता को लेकर जाने जाते हैं। अपनी रिपोर्टींग की वजह से वे सदैव राजनेताओं और पुलिस के निशाने पर रहे हैं। इनकी तथा इनके साथियों की पूछताछ के बाद मामला गर्माया।
 
इससे पहले 18 मार्च 2025 के दिन 'नवजीवन न्यूज़ प्रशांत दयाल' चैनल पर एक न्यूज़ वीडियो यह भी आया। जिसका शीर्षक था - गुजरात पुलिस हो गई असहाय और कमज़ोर, जानिए ये हैं वजहें।
 
अपनी इस स्टोरी में प्रशांत दयाल ने देश की शीर्ष पाँच पुलिस में से एक गुजरात पुलिस, जिसका नाम मुंबई और दिल्ली पुलिस के बाद शान से लिया जाता था, वह इतनी असहाय, विवश और कमज़ोर क्यों हो गई है, इस पर अपना मत पाँच वजहों के साथ प्रकट किया।
 
हम इसका हिंदी अनुवाद देखते हैं:
 
प्रशांत शुरू करते हुए कहते हैं, "मैंने पुलिस का ऐसा रोब देखा है कि एक पुलिस सब इंस्पेक्टर भी यदि रास्ते पर दिख जाए तो लोग उसे सलाम किया करते थे। सलाम इसलिए नहीं करते थे कि लोग उससे डरते थे। उस सब इंस्पेक्टर को लोग इसलिए सलाम करते थे, क्योंकि लोगों को यक़ीन होता था कि यह पहला अधिकारी है जो मेरी, मेरे परिवार की तथा मेरे समाज की रक्षा करता है। इस सब इंस्पेक्टर को इतना सम्मान मिला करता था।"
 
"आज वक़्त बदल चुका है। वक़्त भी कुछ इस तरह बदला है कि आज एक आईपीएस अधिकारी सड़क पर दिख जाए तब आम आदमी उसे संदिग्ध नज़र से देखता है। जब आँखों के सामने यह अधिकारी होता है तब उसे 'साहब' नाम से संबोधित करता है और जब वह अधिकारी मुड़ता है तब उसे गाली भी मिलती है!"
 
"पुलिस का इतना निम्नीकरण क्यों हुआ? क्यों पुलिस पर लोगों का भरोसा टूट रहा है? क्यों अपराधी पुलिस पर हावी हो रहे हैं? क्यों अपराधी से डरकर पुलिस भाग रही है? क्यों सरेआम सड़क पर हथियारों के साथ लोग निकलते हैं? और यह पुलिस असहाय और कमज़ोर क्यों हो जाती है?"
 
सबसे पहली वजह ऐसी है कि,
"वक़्त बदल चुका है। पहले पुलिस की नौकरी में जो लोग आते थे वे मानते थे कि मैं जो ख़ाकी पहन रहा हूँ उसका मुझे अभिमान है। मुझे अभिमान है, फिर भले मैं कॉन्स्टेबल की पोस्ट पर तैनात हूँ, लेकिन कोई भी राजनेता मुझे गाली देने की हिम्मत नहीं कर सकता। यदि कोई राजनेता उसे गाली दे तो उस नेता की जिह्वा खींच लेने की हिम्मत उस कॉन्स्टेबल में हुआ करती थी, क्योंकि वह मानता था कि गाली मुझे नहीं दी जा रही, गाली इस ख़ाकी को दी जा रही है, और ख़ाकी का अपमान मैं किसी भी क़ीमत पर बर्दाश्त नहीं करूँगा।"
 
"इस वजह से गुजरात पुलिस में एक ऐसा भी दौर आया जब पुलिस की नौकरी आन, बान, शान और अभिमान के साथ की जाती थी। लेकिन अब वक़्त बदल चुका है। जो नयी पुलिस आयी है वह अपनी ख़ाकी का गौरव समझ नहीं रही। ये नयी पुलिस मानती है कि यह राजनेता बहुत शक्तिशाली जीव होता है, वह हमारा तबादला करा सकता है, हमें सस्पेंड करा सकता है। ऐसा पुरानी पुलिस में भी होता था, लेकिन वह पुलिस कहती थी कि ये राजनेता यदि हमारी इज्ज़त न करे, हमें सम्मान न दें, तो उसे जूते से मारने की हमारी तैयारी है।" (जूते से मारना, यह एक कहावत है। इस शब्द के इस्तेमाल का अर्थ डाँटना-डपटना हो सकता है।)
 

"लेकिन अब यह नयी पुलिस इतनी भयभीत हो गई है, क्योंकि वह ऐसा मानती है कि यह राजनेता उनका माई-बाप है। इस तरह स्वयं पुलिस ने ही अपनी ख़ाकी की इज्ज़त और सम्मान को बरकरार रखने का काम छोड़ दिया है। इसी वजह से राजनेता हो या अपराधी, उनके ऊपर हावी होते हैं।" (माई-बाप शब्द का पत्रकार द्वारा इस्तेमाल मालिक या स्वामी होना दर्शाता है)
 
"इस राजनेता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप पुलिस कॉन्स्टेबल हैं या आईपीएस हैं। राजनेता आपके गले में पट्टा बाँधने के लिए तैयार हैं और आप भी वह पट्टा पहनने के लिए तैयार हैं। इसी कारण पुलिस की इज्ज़त नहीं रही। आप पैसे तो कमाते हैं, लेकिन आपको रातों को नींद नहीं आती, क्योंकि यह राजनेता और अपराधी आपका अपमान करते हैं और आपमें अब वह जिगरा और ज़मीर रहा नहीं है कि आप उसे मुँह पर थप्पड़ मार अभिमान के साथ नौकरी कर सकें।" (मुँह पर थप्पड़ मारना शब्द तीखी आलोचना या तीखी फटकार लगाने से संदर्भ रखता नज़र आता है)
 
दूसरी वजह,
दूसरी वजह में अपना मत रखते हुए प्रशांत कहते हैं, "गुजरात पुलिस ने ऐसे अधिकारी भी देखे हैं, जिसमें अतुल करवाल, एके सुरोलिया, पीके झा, सतीश वर्मा, एके सिंह जैसे अधिकारियों के नाम, जो आज पुलिस बल का हिस्सा नहीं हैं, किंतु आज भी रोब के साथ उनके नाम इसलिए लिए जाते हैं, क्योंकि इन सबने राजनेताओं को मर्यादा में रहने की शिक्षा दी। इन अधिकारियों के नाम से अपराधियों के साथ साथ राजनेता भी घबराते थे। इन राजनेताओं की संपूर्ण प्रामाणिकता ऐसी हुआ करती थी कि गृह मंत्री भी इन्हें फ़ोन करने से पहले चार बार सोचते कि अधिकारी को मैं ग़लत निर्देश दे सकता हूँ या नहीं।"
 
"लेकिन अब वक़्त बदल चुका है। अब एग्ज़ीक्यूटिव पोस्टींग के लिए आईपीएस अधिकारी लोग 'समझौता' करने के लिए तैयार हो चुके हैं और राजनेता इन अधिकारियों को पट्टा पहनाकर पट्टे की डोर खींचने लगे हैं। परिस्थितियाँ इसलिए बिगड़ी हैं, क्योंकि दरअसल आईपीएस अधिकारी पुलिस बल के सेनापति होते हैं और इन सेनापतियों को अब अपने पुलिस बल का अभिमान नहीं रहा है, इन सेनापतियों को उनके कंघे पर लगने वाले अशोक स्तंभ का अभिमान नहीं रहा है।"
 
"और इसी वजह से पहले अपराधी दौड़ाते हैं, फिर राजनेता भी दौड़ाते हैं। सब कुछ पोस्टिंग के लिए ही हो रहा है।"
तीसरी वजह,
तीसरी वजह पेश करते हुए प्रशांत बताते हैं, "किसी भी पुलिस बल में अधिक से अधिक तादाद कॉन्स्टेबल की होती है, हेड कॉन्स्टेबल की होती है। गुजरात पुलिस में भी 95 प्रतिशत कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल हैं। इनकी नज़रें अपने सेनापति की तरफ़ होती हैं। ये कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल भयभीत नहीं हैं, बलशाली लोग हैं इस दल के। यह पूरा दल वे ही चलाते हैं। किंतु इनकी नज़र सदैव अपने सेनापति की तरफ़ होती हैं।"
 
"उनका सेनापति किस राजनेता के दरबार में मुजरा करता है, उनका सेनापति किस अपराधी के सामने घुटनों पर बैठता है, सब कुछ वे लोग ध्यान से देख रहे होते हैं। और इसी वजह से वे समझ जाते हैं कि यदि उनका सेनापति ही भयभीत और कमज़ोर है, तो फिर हम क्यों लड़ें? इसलिए यह सेना अपने सेनापति को देख लड़ाई करना छोड़ देती है। यह स्थिति भयंकर है और फ़िलहाल गुजरात पुलिस इस स्थिति से गुज़र रही है।"
 
"क्योंकि सेनापति अब समझौता करने लगे हैं। सेनापति अब घुटने पर बैठने के लिए तैयार हैं। सेनापतियों के लिए सरकार उनकी माई-बाप है और सरकार जो कहेगी, भले ही वह ग़लत हो, हमें वह करना ही है। हम इनकार करना सीखे नहीं हैं। इस वजह से गुजरात पुलिस बेचारी और बेबस हो चुकी है।"
 
चौथी वजह,
अपने मत को चौथी वजह के रूप में पेश करते हुए प्रशांत कहते हैं, "आप कोई भी नौकरी करिए, आपसे किसी प्रकार की ग़लती का होना तय है। ग़लती मुझसे भी हो सकती है, आपसे भी हो सकती है। ऐसे में यदि आप पुलिस बल का हिस्सा है तब ग़लती होने की संभावना बहुत ही अधिक है।"
 
"किंतु गुजरात पुलिस में एक दौर ऐसा भी था जब इन लोगों को भरोसा था कि यदि हमसे कोई ग़लती होगी तो हमारा सीनियर अधिकारी हमें संभ्हाल लेगा, ग़लती होगी तो हमारा सीनियर आगे आकर ज़िम्मेदारी लेगा कि यह ग़लती उसकी है। आईपीएस अधिकारी को भरोसा होता था कि ग़लती होगी तो सरकार मुझे संभ्हाल लेगी। लेकिन अब वक़्त बदल गया है।"
 

"ज़िम्मेदारी किसी को नहीं लेनी है। कोई आपका नेता बनने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए पुलिस को समझ आ गया है कि ग़लती तभी होगी जब काम करेंगे, तो फिर काम करना ही नहीं है! हमारा पीआई, हमारा एसीपी, हमारा डीसीपी, हमारा कमिश्नर या हमारा एसपी हमारे साथ नहीं है। तो फिर इन भयभीत नेताओं के साथ हमें भी भयभीत हो जाने में दिक्कत नहीं है। इस वजह से ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ है।"
 
"इन परिस्थितियों में गुजरात पुलिस के जवानों ने स्वयं को कछुआ बना लिया है। वे ख़ुद को सिकुड़ कर बैठे हैं। गुजरात पुलिस एक ऐसे बारूद पर बैठी है जहाँ धमाका होगा तब भागने के (पीछा छुड़ाने के) सिवा पुलिस के पास दूसरा विकल्प नहीं रहेगा।"
 
"स्थिति अच्छी नहीं है। लेकिन स्थितियाँ पहले इतनी बुरी नहीं थी। 1998 में केसुभाई पटेल की सरकार बनती है, वह बात करनी है।"
 
पाँचवीं वजह,
प्रशांत कहते हैं, "केसुभाई पटेल की सरकार बनती है तब अहमदाबाद के नवा वाडज इलाक़े में स्थित वाडी स्कूल में, अभिभावकों और शिक्षा संस्थान के मध्य कुछ समस्या थी। अभिभावक लोग स्कूल पर इकट्ठे होने लगते हैं। इस वजह से नारणपुरा के सेकंड पुलिस इंस्पेक्टर जाधव वहाँ पहुँचते हैं। तभी अचानक पत्थरबाजी शुरू हो जाती है। इंस्पेक्टर जाधव वहाँ गिर पड़ते हैं। पुलिस को ऐसा लगता है कि पत्थरबाजी के कारण हमारे पुलिस इंस्पेक्टर की जान चली गई है। फिर पुलिस पागल बन जाती है। इस घटना के तुरंत बाद वहाँ आईपीएस अधिकारी पहुँच जाते हैं। इनमें आशीष भाटिया, सतीश वर्मा, एके सुरोलिया और अतुल करवाल थे।"
 
"यह इलाक़ा अहमदाबाद की साबरमती विधानसभा का था। साबरमती के विधायक, यतिन ओझा, जो भाजपा के विधायक थे, वे वहाँ पहुँचते हैं। पुलिस जिस तरह से वहाँ आपा खो चुकी थी, वे (यतिन ओझा) वहाँ पहुँचकर पुलिस अधिकारियों को माँ-बहन की गालियाँ बोलने की शुरुआत करते हैं। क्योंकि यतिन ओझा को उनके मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना था।"
 
"वहाँ उपस्थित आईपीएस अधिकारियों के लिए यह स्थिति असहनीय थी। कुछ वक़्त तक यतिन ओझा की गालियाँ सुनते रहे और फिर सतीश वर्मा, पीके झा, अतुल करवाल, आशीष भाटिया, हाथ में लाठी लेते हैं और यतिन ओझा को, जैसे कि किसी जानवर को मारते हैं वैसे मारकर अधमरा कर देते हैं। सत्ताधारी दल के विधायक को मारने की हिम्मत की गई थी, क्योंकि इन आईपीएस अधिकारियों को अपनी ख़ाकी पर अभिमान था। उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया कि सत्ताधारी दल का एक विधायक हमें गाली दे। हमारे अशोक स्तंभ का, हमारी ख़ाकी का अपमान करें।"

 
"इस घटना के बाद यतिन ओझा को अस्पताल ले जाया गया। वहाँ से वे केसुभाई पटेल के साथ बात करते हैं और इन पाँच आईपीएस अधिकारियों को सस्पेंड करने के लए कहते हैं। अगर आप सस्पेंड नहीं करेंगे तो मैं इस्तीफ़ा दे दूँगा। इस मामले की जाँच का ज़िम्मा गृह राज्य मंत्री हरेन पांड्या को दिया जाता है।"
 
"गृह राज्य मंत्री हरेन पांड्या रिपोर्ट देते हैं कि कसूरवार पुलिस नहीं हमारे विधायक हैं। उन्होंने पुलिस को जिस भाषा में गाली दी इस वजह से उन्हें पीटा गया। केसुभाई फ़ैसला लेते हैं कि मेरी पुलिस सच्ची है, मुझे पुलिस बल के साथ खड़ा रहना है। यतिन ओझा को कहा जाता है कि आपके फ़ैसले के लिए आपके लिए दरवाज़े खुले हैं और यतिन ओझा भाजपा से ही इस्तीफ़ा देते हैं। इस प्रकार अपने ही सत्तादल के विधायक को खोना केसुभाई ने पसंद किया, लेकिन अपनी पुलिस के साथ वे खड़े रहे। ऐसी हिम्मत अब किसमें है जो अपनी पुलिस के साथ खड़ा रहे, लड़े।"
 
"यह स्थिति इसलिए बनी है, क्योंकि पुलिस अधिकारियों को पता है कि सरकार और राजनेता दावे तो करते हैं, लेकिन बाद में हमारा साथ छोड़ देते हैं। इसलिए पुलिस अब लोगों के लिए लड़ती नहीं है, लोगों के लिए बोलती नहीं है।"
 
अपराधियों को मार मार कर लंगड़ा करने वाली पुलिस उस अपराधी का जुलूस निकालती है तब समाज और मीडिया, सभी को लगता है कि देश में क़ानून और संविधान का राज चलता है। लेकिन इसी पुलिस के इन जुलूस वीडियो से ज़्यादा तो वह वीडियो घूमते रहते हैं जिसमें क़ानून और संविधान की धज्जियाँ उड़ती होती है।
 
हम अपराध, राजनीति और पुलिस का इतिहास नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। मुंबई स्थित वरिष्ठ अपराध पत्रकार आशु पटेल ने मुंबई के अंडरवर्ल्ड की घटनाओं पर दस्तावेज़-उपन्यास के रूप में 'विषचक्र' नामक पुस्तक लिखी है। इसमें (पेज संख्या 296) पटेल लिखते हैं:
 
"यदि पुलिस चाहे तो और जब चाहे तभी ज्यादातर गैंगस्टर गिरोह के नेता बन सकते हैं। पुलिस के सहयोग के बिना गिरोह चलाना लोहा चबाने के समान है। अब्दुल लतीफ़ को अहमदाबाद के कई पुलिस अधिकारियों का भी भरोसा मिला और यही वजह है कि लतीफ़ अहमदाबाद का डॉन बन सका।"
 
"लेकिन लतीफ़ पुलिस पर भारी पड़ गया और उसकी ज़िंदगी पूरी तरह से थम गई। ये बात तो सच है कि उस वक़्त लतीफ़ के सिर से पुलिस का छत्र हट गया था। उससे पहले लतीफ़ ने दो दशकों तक अहमदाबाद के कई भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों की जेबें भरी थीं।"
 
काम करने की जगह लफंगों को सरेआम मारने की रील बनाने वाली पुलिस के लिए प्रशांत दयाल ने क्या कहा
19 मार्च 2025 के दिन 'नवजीवन न्यूज़ प्रशांत दयाल' चैनल पर एक और न्यूज़ वीडियो आया, जिसका शीर्षक था - काम करने की जगह लफंगों को सरेआम मारने की रील बनाने वाली पुलिस के लिए प्रशांत दयाल ने क्या कहा।
 
हम इसका हिंदी अनुवाद देखते हैं:
 
प्रशांत कहते हैं, "हमारे यहाँ क़ानून का शासन है। अहमदाबाद के वस्त्राल इलाक़े में जो हुआ उसमें, जब अपराध की घटना हुई तब भी और जब अपराधियों का जुलूस निकाला गया तब भी, दोनों वक़्त क़ानून सिरे से ग़ायब था। आरोपियों ने सड़क पर निकल रहे बेकसूर आम नागरिकों को मारा। उसके बाद पुलिस और क़ानून व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे तो पुलिस ने ज़ल्दबाजी में कार्रवाई की, जिसमें आरोपियों के परिजनों के साथ, जिसमें महिलाएँ भी थीं, भी आरोपियों जैसा सलूक किया गया!"
 
"हम दोनों मामलों को अलग करते हैं। पहला मामला...। हम तीन हिस्से करते हैं। पहला मामला - रामोल में तलवार लेकर कुछ लोग आते हैं और आतंक फैलाते हैं। यह पहला मामला है। सबसे पहले तो कहना यह है कि अहमदाबाद के अंदर यह जो मामला हुआ वह पहली बार नहीं हुआ है। पिछले तीन महीने को देखे तो ऐसे आधा दर्जन मामले हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि, मैं स्पष्ट कहता हूँ, कि अपराधियों में अहमदाबाद शहर पुलिस का भय रहा नहीं है। भय नहीं रहा उसीका यह रिएक्शन है। और नागरिकों की स्थिति तो इतनी बुरी है कि वे पुलिस से भी डरते हैं, और अपराधियों से भी! नागरिकों को तो दोनों तरफ़ से भयभीत होना है।"
 
"यह मामला (वस्त्राल मामला) होने के बाद पुलिस जब काम करती दिखी तब दिक्कत क्या हुई कि वीडियो में जो आया उसे पुलिस बदनामी समझ रही है। मान लीजिए कि वीडियो बाज़ार में नहीं फैलता तो? तो फिर पुलिस की कार्रवाई ऐसी नहीं होती। पुलिस ने काम नहीं किया होता ऐसा नहीं, लेकिन पुलिस का आचरण ऐसा नहीं होता।"
 
"यानी मीडिया के पर्सपेक्टिव के मुताबिक़ पुलिस आचरण करने लगी। पुलिस की यह बात ग़लत है। दूसरी बात यह कि, अब हमें लोगों को दिखाना है कि हम काम कर रहे हैं। ऐसे में यह जो सार्वजनिक रूप से (आरोपियों को) मारने का हिस्सा है, मैं ऐसा कहूँगा कि नहीं मारना था ऐसा नहीं है, लेकिन यह जो प्रदर्शन हुआ, अब पुलिस भी रील बनाने लगी है! पुलिस का काम रील बनाना नहीं है। पुलिस का काम कार्रवाई करना है। यदि पुलिस ने अपना काम ठीक से किया होता तो उन्हें रील बनाने की ज़रूरत नहीं थी।"
 
"यह जो पूरा मामला है, लोग क्या मानते हैं और फिर (लोगों की मान्यता के अनुसार) सार्वजनिक धुलाई होती है, आज नहीं तो कल यह मसला अदालत में या मानवाधिकार आयोग में ज़रूर जाएगा, और अहमदाबाद पुलिस को उसका जवाब देना है।"
 
"मैं अपराधियों को मारा जा रहा है उसके ख़िलाफ़ नहीं हूँ। उसकी वजह समझाऊँ तो, बहुत सारे लोग कहते हैं कि यदि पुलिस ही क़ानून हाथ में लेगी और हाथों में डंडा लेगी तो फिर न्याय की ज़रूरत कहाँ हैं। क़ानून की परिभाषा के अनुसार यह (सवाल या आपत्ति) सच है।"

 
"दो-तीन उदाहरण से मामला समझते हैं। आपको (इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार से प्रशांत कहते हैं) एक बेटी हैं। आपकी बेटी को सड़क पर कोई परेशान करता है। आपने पुलिस में जाकर शिकायत की। आपने शिकायत की और पुलिस ने उसे पकड़ लिया। अब यह जमानती अपराध है। क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि जिस अपराध में 7 साल से कम सज़ा का प्रावधान है उन अपराधों में आरोपी को जमानत देनी होगी। तो फिर शिकायत के तुरंत बाद अपराधी बाहर आ जाएगा।"
 
"ऐसा होने पर आपके दिमाग़ में एक नागरिक के रूप में पूरा चित्र क्या बनेगा? यही कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। इस मामले को देखे, जिसमें तलवार लेकर कुछ लोग बाहर आए, यह भी जमानती अपराध है। अब उनकी हिम्मत इतनी बढ़ी कि वे हाथों में तलवार लिए सड़क पर निकले! किंतु क़ानून की जो मर्यादा है वह कुछ ऐसी है कि अपराधी को पकड़ो और उसे जमानत दो। पकड़ना और जमानत दे देना, इस मर्यादित प्रक्रिया की वजह से छोटे अपराधी बड़े बनने लगे।"
 
"उन्हें (अपराधियों को) क़ानून के बारे में जानकारी है। क़ानून की आपको या मुझे जानकारी नहीं है, इसलिए भी हम पुलिस से डरते हैं। लेकिन अपराधियों को तो जानकारी है। इस वजह से भी अपराधियों के भीतर क़ानून का डर कमज़ोर होता रहा।"
 
"इसीलिए मैंने अभी एक स्टोरी में कहा कि जो काम स्थानीय पुलिस सड़क पर करती है वही काम क्राइम ब्रांच बंद दरवाज़े के भीतर करती है। अनेक चीज़ें हैं जिसका प्रदर्शन नहीं होता। प्रदर्शन होना भी नहीं चाहिए। दरअसल ज़मीनी कार्रवाई होनी चाहिए थी और अपराधियों के बीच पुलिस का भय स्थापित होना चाहिए था।" (यहाँ ज़मीनी कार्रवाई का संदर्भ निरंतर, तत्काल और निष्पक्ष कार्रवाई से हो सकता है)
 
"अब आपका जो तीसरा सवाल है, यह सवाल कि लोगों के घर तोड़े गए। यह कार्रवाई भी आम जनता के बीच पुलिस की छवि का जिस तरह निम्नीकरण हुआ उसीका रिएक्शन है। इस कार्रवाई में सबसे बड़ी ग़लती जो मुझे दिखाई दे रही है, जब अहमदाबाद में इन आरोपियों के घर तोड़े जा रहे थे तब अहमदाबाद शहर के पुलिस कमिश्नर वहाँ उपस्थित थे। यह बड़ी ग़लती है और इसका जवाब अहमदाबाद शहर पुलिस को देना होगा।"
 
"जो अपराधी हैं उनके घर अवैध हैं, यह बात सच है। लेकिन वे लोग तलवार लेकर बाहर निकले तभी प्रशासन को पता चला कि यह घर अवैध हैं?"
 
इंटरव्यू लेने वाले एंकर प्रशांत दयाल को रोकते हुए कहते हैं - अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन कहता है कि घर तोड़ने की कार्रवाई का तलवार लेकर निकलने वाली घटना से रिश्ता नहीं है।
 
प्रशांत कहते हैं, "रिश्ता तो है। अगर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन यह दावा करता है कि रिश्ता नहीं है, तो फिर मैं उनको अहमदाबाद में 1 लाख निर्माणों की सूची दे सकता हूँ, जो अवैध हैं, जो सालों से नहीं टूट रही।"
 
वे आगे कहते हैं, "आपको (प्रशासन और पुलिस) तमाशा करना है। आम जनता को ख़ुश करना है। आज-कल लोगों को मज़ा आ रहा है। पूरी कहानी पब्लिक पर्सपेक्टिव पर लिखी जा रही है। लोग क्या करने से ख़ुश हो रहे हैं, वही करो!"
 
"लोगों के मनोरंजन के लिए सरकार नहीं होती। लोगों का मनोरंजन करने के लिए पुलिस नहीं होती। जो भी अवैध निर्माण हैं वह टूटने ही चाहिए। फिर भले वह किसी मंदिर के संत का अवैध निर्माण हो, वह भी टूटना चाहिए। यहाँ तो आरोपी ने कुछ किया तो हमने उसका घर तोड़ा! आश्चर्य या मूर्खता, जो भी कहे, वह यह है कि जिन आरोपियों के घर तोड़े गए उन घरों के मालिक ये अपराधी थे ही नहीं! वे तो किराए पर थे! घर का जो मालिक था उसका मसले से लेना-देना नहीं था! उसका घर टूट गया!"

 
"तीसरी बात यह कि लोग बोल रहे हैं कि उसके परिवार को सज़ा मिलेगी तभी ये आरोपी सुधरेंगे। मैंने इस प्रकार के अपराधियों को देखा है। हितेश की भाषा में कहूँ तो सिगार वाले अपराधी। कौन माता-पिता यह चाहेंगे कि उसका बेटा डोन बने? किसी के माता-पिता यह नहीं चाहते। दाऊद के माता-पिता ने भी नहीं सोचा होगा, लतीफ़ के माता-पिता ने भी नहीं सोचा होगा कि हमारा लड़का अपराधी बने।"
 
"दरअसल 99 क़िस्से में ऐसे लड़के अपने माता-पिता की नहीं मानते, उनके नियंत्रण के बाहर होते हैं। अब उस लड़के के हिस्से की सज़ा, उस लड़के ने जो भी ग़लती (अपराध) की, उसकी सज़ा उसके माता-पिता को दी जाए, उसके परिवार को दी जाए? इस मामले में तो घर किसी और का टूट गया! जो मालिक था उसका घर टूट गया!"
 
"यह स्पष्ट है कि जो अवैध निर्माण हैं वे टूटने चाहिए। उस प्रक्रिया के लिए मेरी किसी प्रकार की असहमती नहीं है। किंतु पुलिस, आम जनता क्या सोचती है, लोगों को ख़ुश करने के लिए पुलिस कार्रवाई करती है, वहीं पूरी गड़बड़ है।"
 
वे बातचीत में कहते हैं, "घर ग़रीब या आम आरोपियों के टूटते हैं, अमीरों के नहीं।"
 
"मैंने कहा कि मैं 1 लाख अवैध निर्माणों की सूची दे सकता हूँ। वे नहीं टूटेंगे। सिर्फ़ ग़रीब या आम आरोपी नहीं, दरअसल जातियाँ भी देखी जाती हैं। हमारे देश में जाति के आधार पर भी फ़ैसले लिए जाते हैं। आप मुस्लिम हैं, आप दलित हैं, आदिवासी हैं, आपके यहाँ बुलडोज़र चलेगा। आप ब्राह्मण, पटेल, बनिये हैं, आपका अवैध निर्माण पक्का है, तो आपको क़ानूनन नोटिस मिलेगा, आपको इसके बाद अदालत तक पहुँचने के लिए वक़्त भी दिया जाएगा। इस मामले में तो किसी को अदालत तक पहुँचने का वक़्त ही नहीं दिया गया। पहले दिन वे तलवार लेकर निकले, दूसरे दिन आपने उन्हें पकड़ लिया और उसी दिन उसका घर तोड़ दिया।"
 
"क्यों? क्योंकि हमारी (पुलिस और प्रशासन की) इज्ज़त पर बात आई थी। इज्ज़त को फिर से स्थापित करने के लिए हमें किसी का घर तोड़ना था। जो भी अधिकारी, पुलिस के अधिकारी हो या कॉर्पोरेशन के अधिकारी, ये लोग जिस प्रक्रिया पर चल रहे हैं, उन्हें एक बात सोचनी चाहिए कि हमारा भाई होता, हमारा पिता होता, हमारे परिजन होते, तो इतनी ज़ल्दबाजी में क़ानूनी कार्रवाई का आग्रह हम रखते?"
 
"लेकिन ऐसा होता नहीं। दरअसल ग़लती दोनों पक्षकारों ने की है। पहले तो पुलिस सोती रहती है और फिर जब नींद से उठती है तो अतिशयोक्ति करती है।"
 
"ये लोग तलवार लेकर नहीं निकलते तो प्रशासन को पता था कि इनका निर्माण अवैध है? आपने (प्रशासन ने) मन बना लिया कि अब हमें ख़ुद को काम करते हुए दिखाना है।"
 
"रील बनाने के अलावा भी पुलिस काम कर सकती थी। पहले जब सोशल मीडिया नहीं होता था तब रील बनाए जाते थे? उस दौर में भी पुलिस तो काम करती ही थी। मैंने एक स्टोरी में कहा था कि उस दौर में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर मोटर साइकिल लेकर निकलता था तो छोटे-मोटे अपराधी भाग जाया करते थे। वह भय था। क़ानून का, अधिकारी का, डंडे का भय था। वह भय चला गया है।"
 
"अपराधियों में क़ानून का भय तो चला गया है, साथ ही पुलिस को अपने सिनियर्स का भय नहीं रहा। उसे भय नहीं है कि सिनियर पूछेंगे कि यह काम क्यों नहीं किया, ठीक से क्यों नहीं किया।"
 
"रामोल की बात करते हैं। रामोल के जो पीएसआई हैं, (नाम वीडियो में लिया गया है), वह कुछ ही वक़्त पहले, अहमदाबाद ज़िले में एक ज़हरीली शराब मामले में सस्पेंड किए जाते हैं। डायरेक्ट पीआई हैं। फिर उन्हें सरदारनगर पुलिस थाने में नियुक्त किया जाता है। डीजीपी का एक सर्कुलर है। जो डायरेक्ट पीआई होते हैं उन्हें उतना तजुर्बा नहीं होता। इस वजह से जब तक उसे तजुर्बा न मिले तब तक उसे फ़र्स्ट पीआई के पद पर नियुक्त नहीं करना है, उसे सेकंड पीआई के पद पर नियुक्त करना है। उस सर्कुलर का भी यहाँ ध्यान नहीं रखा गया!"
"ऐसा क्यों हुआ? थाने के अधिकारी को अपने सिनियर का भय क्यों नहीं रहा? क्योंकि, एक अलिखित बात ऐसी हुई, आपको कौन सा पुलिस थाना चाहिए उसका गुप्त टेंडरिंग होता है। अब कोई पुलिस अधिकारी पूछेगा कि आपके पास इस आरोप का क्या सबूत है? तो फिर कोई सबूत नहीं है। लेकिन यह नग्न सत्य है। सबको पता है कि अहमदाबाद में थाना चॉइस का टेंडरिंग सिस्टम शुरू हुआ है।"
 
प्रशांत आगे कहते हैं, "अब कोई (पुलिस कर्मी) टेंडर प्रक्रिया से थाने में आया है तो वह ऐसे क्यों आया है? वह रामलला की पूजा करने तो आया नहीं है। उसे टेंडर से तीन-चार गुना पैसे वसूल करने हैं। और जिसने टेंडर दिया है वह कैसे उसे सवाल पूछ सकता है? ऐसे बहुत सारे अंदरूनी मसले हैं, जिससे सिनियर्स का अपने थानों पर नियंत्रण नहीं रहा। और थाने को पैसे में दिलचस्पी है। उसे इन अपराधियों में दिलचस्पी नहीं है। उसे ज़मीन के मामले ले आईए, उसमें दिलचस्पी है। शराब-जुए के मामले लाओ, उसमें दिलचस्पी है। आम आदमी परेशान हो रहे हैं उस मामले में पुलिस को दिलचस्पी नहीं रही।"
 
अहमदाबाद शहर पूर्वी अहमदाबाद और पश्चिमी अहमदाबाद के रूप में भी जाना जाता है। दोनों क्षेत्रों में बसने वाले लोगों की आमदनी, आर्थिक स्थिति, आदि भिन्न हैं। इस मसले पर भी पुलिस कार्रवाई में भिन्नता के सवाल पर प्रशांत बताते हैं,
 
"यह नग्न सत्य है। किसी को समझ नहीं आता। यह माइंडसेट है। नदी का जो पश्चिमी इलाक़ा है, नारणपुरा, नवरंगपुरा, सैटेलाइट... जो लोग गुजरात के नहीं हैं उन्हें बताना पड़ेगा कि अहमदाबाद शहर के बीचोबीच साबरमती नदी बहती है। उसमें साबरमती का पानी नहीं आता! अब उस नदी में नर्मदा का पानी डाला जाता है! इस मामले में भी सरकार गाँवों को कैसे मूर्ख बनाती है? जब नर्मदा योजना आई, तब साबरमती को नर्मदा के पानी से भरने की कोई योजना नहीं थी। लेकिन अब जब आपने रिवर फ्रंट बनाया और नदी सूखी और खाली हो तो आप क्या करेंगे? यानी शहरों को समृद्ध करना है, गाँव भले मरते रहे! यह पहली मानसिकता है।"
 
"अहमदाबाद दो हिस्सों में बँटा हुआ है, पूर्व और पश्चिम। अहमदाबाद का जो पश्चिमी हिस्सा है, जिसमें नारणपुरा, नवरंगपुरा, सैटेलाइट, सिलज, जैसे इलाक़े हैं, और अहमदाबाद का जो पूर्वी हिस्सा है, जिसमें बापुनगर, गोमतीनगर, रखियाल, रामोल, आदि आते हैं, जहाँ अलग जनसमुदाय बसता है। पश्चिमी अहमदाबाद इलाक़ा श्रीमंत श्रेणी में गिना जाएगा, जहाँ श्रीमंत या हायर मिडिल क्लास लोग हैं। उससे भी आगे जाकर कहा जाए तो सवर्ण समुदाय बसता है। इस हिस्से में सवर्ण समुदाय का बहुमत है। यहाँ मुस्लिमों की तादाद बहुत कम है। जो पूर्वी हिस्सा है वहाँ ग़रीब बसते हैं, दलित हैं, मुस्लिम हैं, परप्रांतीय हैं, जो बाहर से गुजरात में रोजगार के लिए आए हैं।"

 
"अब जो माइंडसेट है वह सिर्फ़ लोगों में ही है ऐसा नहीं है। वह प्रशासन में भी है! नदी के दोनों तरफ़ रिवर फ्रंट है। पश्चिम में भी और पूर्व में भी। अब आप पूर्व की ओर जो डेवलपमेंट हैं उसे देखिए। पश्चिमी हिस्से की ओर सारी सहुलियतें हैं, जबकि पूर्वी रिवर फ्रंट पर ना के बराबर, रास्ता और एकाध बागीचा, इतना ही है! यह माइंडसेट है। अब पुलिस का भी यही माइंडसेट हैं। यहाँ पश्चिम की ओर जो बसते हैं, नारणपुरा, नवरंगपुरा, सैटेलाइट, आंबावाड़ी, वे श्रीमंत हैं, वे ब्राह्मण, पटेल, बनिये हैं, इसलिए उनके साथ डंडे की बात नहीं की जा सकती!"
 
"जबकि इस ओर ग़रीब बसते हैं। ग़रीबों की स्थिति इस देश में पहले से ऐसी ही है। ग़रीब यहाँ मरने के लिए ही तो जन्म लेता है। हमारे देश में ग़रीब होना बहुत बड़ा अभिशाप है। क्योंकि आपके साथ (ग़रीब के साथ) लोगों का आचरण बदल जाता है, सरकार की ट्रीटमेंट बदल जाती है। एक अपराधी यहाँ (पश्चिम में) कुछ करेगा तो उसे अलग तरह से ट्रीट किया जाएगा, और वह पूर्व में कुछ करेगा तो उसे अलग से ट्रीट किया जाएगा!"
 
(यानी, संपन्न परिवार के लोग अपराध करेंगे तो उसे अलग तरह से ट्रीट किया जाएगा और आम परिवार के लोग अपराध करेंगे तो उसे अलग तरह से ट्रीट किया जाएगा। जैसे कि शराब पीकर करोड़ों की गाड़ी से राह चलते लोगों को उड़ाने के मामले, संपन्न परिवारों के अतिक्रमण या अवैध निर्माणों के मामले, आदि)
 
"मैंने पहले कहा कि सार्वजनिक रूप से अपराधियों की 'सेवा' करने का जो मसला है, लोगों को ख़ुश करने के लिए किया गया प्रयास है। आज या कल, अहमदाबाद शहर के पुलिस कमिश्नर, और जितने भी चेहरे उस फुटेज में दिखाई दे रहे हैं, उन्हें जवाब देना है। हो सकता है कि ये ख़ुद आरोपी बनाए जाए!"
 
(सदंर्भ यह कहता है कि इससे पहले भी अनेक ऐसी पुलिस कार्रवाई में महीनों या सालों के बाद किसी न किसी पुलिस कर्मी या पुलिस अधिकारी को अदालती कार्रवाई के बाद भुगतना पड़ता ही है। राजनेता अपना चुनावी मेलजोल कर लेते हैं, उनके इशारे पर चलने वाले लोग आगे जाकर अकेले पड़ जाते हैं।)
 
"एक आरोपी ने हाईकोर्ट में रिट दायर की है, अपने घर के संदर्भ में रिट की है। लेकिन कोई इसे मानवाधिकार आयोग तक ले जाए तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।"
 
अनेक ऐसे अपराध हैं, जघन्य अपराध हैं, अतिगंभीर अपराध हैं, जिसमें पुलिस इस प्रकार एक्शन में आती हुई नहीं दिखती, किसी एकाध या किसी ख़ास मसले या किसी ख़ास वक़्त में ही क्यों पुलिस ऐसा करती है, इस मसले पर प्रशांत बताते हैं:
 
"इसे पुलिस की भाषा में बॉडी ऑफेंस कहा जाएगा। बॉडी ऑफेंस में पुलिस को त्वरित उत्तर देना है और आक्रामक रहना है। लेकिन आक्रामक ऐसे नहीं रहना है। सीधी भाषा में और खुलकर कहा जाए तो, जो चीज़ बेडरूम में होती है, वह वहीं होती है। वह सार्वजनिक रूप से नहीं हो सकती। पुलिस ने जो कुछ सार्वजनिक ढंग से किया, मैं ऐसा नहीं मानता कि पुलिस को ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन उसकी भी एक मर्यादा है। वह दरवाज़े के अंदर होनी चाहिए।"
 

"आपको लोगों को दिखाने के लिए न्याय नहीं करना है। आपको लोगों को अहसास दिलाना है कि न्याय हो रहा है। लोग बिना भय के, कोई बेटी अकेली रात में घूमने निकले, कोई अकेला रात को नौकरी पर जा पाए, नागरिक को भरोसा होना चाहिए कि मेरे व्हीकल को कोई टक्कर नहीं मारेगा, मुझे कोई लूटेगा नहीं। ऐसा एक शहर होना चाहिए। पुलिस इस तरह से रील बनाएगी उससे कुछ नहीं होगा।"
 
"रील बनाने के बाद अपराधी जेल में जाता है, फिर वापस आता है और लोगों के बीच जाकर कहता है कि क्या बिगाड़ लिया मेरा? अनेक मामले हैं, जिसमें ऐसी रील (वीडियो या फुटेज) छोटे अपराधियों को बड़ा बनने में मदद करती है।"
 
बॉलीवूड की फ़ील्म 'अब तक छप्पन', जिसमें नाना पाटेकर, जो इंस्पेक्टर दया नायक का अभिनय करते हैं, और एक मानवाधिकार पत्रकार के बीच जो फ़िल्मी द्दश्य है, जिसमें पत्रकार का पुलिस कार्रवाई का विरोध, पत्रकार का बटुआ चोरी होना और पुलिस द्वारा तत्काल उस बटुए को तथा चोर को पकड़ लेने का द्दश्य है, प्रशांत इसका ज़िक्र करते हुए बताते हैं,
 
"यह सच है। ऐसा होता है। लेकिन पुलिस का आचरण व्यक्तिगत भी होना चाहिए। (यानी सार्वजनिक नहीं) यह वास्तविक है। सब होता है। लेकिन मर्यादा में होना चाहिए।"
 
एक नागरिक के तौर पर लोगों को क्या सोचना-समझना चाहिए, इस बात पर वे कहते हैं,
 
"नागरिकों को जागरूक होना चाहिए। लेकिन यह आदर्शों की बात है। हम वह बात नहीं कर रहे। मेरे लिए मेरी ताक़त कौन है? मेरा भरोसा कौन है? मेरा भरोसा या मेरी ताक़त पुलिस है। लेकिन जब मुझे पुलिस पर ही भरोसा नहीं रहा कि पुलिस मेरी रक्षा करेगी, तो फिर मेरी हिम्मत ही नहीं बनेगी कि मैं मेरे इलाक़े के अपराधियों की जानकारी पुलिस को दूँ। पुलिस ने अपना भरोसा गवाया है और इसका ख़ामियाज़ा नागरिक भुगत रहे हैं।"
 
गुजरात में पिछले कुछ समय से न जाने कितने बेकसूर लोग बैमोत मारे गए। कभी पुल ढहने से, कभी आग से, कभी हिट एंड रन से। तमाम घटनाओं के आरोपी और अपराधी, किसी का ना कोई जुलूस निकला है, ना इनमें से किसी की संपत्ति पर बुलडोज़र चला है।
 
पत्रकार ने शराब के अवैध अड्डों की सूची दिखाई तो डींग हाँक रही पुलिस ने अड्डों की जगह पत्रकार की ऑफ़ीस का रूख किया
29 मार्च 2025 के दिन 'नवजीवन न्यूज़ प्रशांत दयाल' पर यह वीडियो आया, जिसका शीर्षक था - अहमदाबाद सीपी मलिक ने यू टर्न मारा, क्राइम ब्रांच के अधिकारियों पर फोड़ दिया ठीकरा।
 
हम इसका हिंदी अनुवाद देखते हैं:
 
इस वीडियो में प्रशांत स्पष्ट रूप से कहते हैं, "चोर को कहा जाए कि चोरी कर और पुलिस को कहा जाए कि जागते रहो, ऐसा अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर ने किया है।"
 
पूरे मामले को संक्षेप में समझाते हुए वे कहते हैं, "अहमदाबाद के गोमतीपुर इलाक़े में शराब के अड्डे बेख़ौफ़ चल रहे हैं, इस तरह की नवजीवन न्यूज़ पर की गई स्टोरी के बाद नवजीवन के पत्रकारों की पूछताछ शुरू होती है! लेकिन जब मामला गंभीर बनता दिखाई दिया उसके बाद अब अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर ने पल्टी मार ली और क्राइम ब्रांच के अधिकारियों के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया है।"
 
प्रशांत घटना को थोड़ा और समझाते हैं, "मामला यूँ है कि दिनांक 25 को नवजीवन को एक पत्र मिलता है, जिसमें दावा किया गया था कि अहमदाबाद के गोमतीपुर इलाक़े में 66 से ज़्यादा शराब के अड्डे बेख़ौफ़ चल रहे हैं। इस मामले में हमने स्टोरी की। स्टोरी में हमने स्पष्ट कहा था कि यह हमारा दावा नहीं है, हमें जो पत्र मिला है उसके संदर्भ में पुलिस को अब जाँचना है कि ऐसा हो रहा है या नहीं।"
 
"किंतु अड्डों को देखने से पहले अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर ने इस मामले में क्राइम ब्रांच को जाँच का ज़िम्मा दिया और दिनांक 26 को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के पुलिस इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) हमें फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि हमें जाँच करनी है और आपका स्टेटमेंट लेना है। 'पाँच घंटे तक' हमारा स्टेटमेंट लिया जाता है! यह स्थिति हुई।"
 
"यह मामला गांधीनगर तक पहुँचता है और गृह राज्य मंत्री संघवी इस मामले में मध्यस्थता करते हैं। इस मामले में वे संबंधित पुलिस अधिकारियों को सूचित भी करते हैं। अलग अलग माध्यमों के ज़रिए पुलिस की इस कार्रवाई की ख़ूब आलोचना हुई। नागरिकों ने पुलिस कमिश्नर की भी आलोचना की और कहा कि उन्हें अपराधियों की जाँच करनी थी या पत्रकार की?"
 
"इस तरह यह मामला गंभीर बना, इसलिए अब अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर जीएस मलिक ने यू टर्न लिया है। यू टर्न लेकर उन्होंने अहमदाबाद क्राइम ब्रांच को फँसा दिया है। अहमदाबाद पुलिस कमिश्नर ऑफ़िस ने एक ट्वीट किया है। ट्वीट क्या है, पहले यह देख लें।"
"उसमें (ट्वीट में) लिखा गया है कि एक यू ट्यूब चैनल के ऊपर अहमदाबाद के गोमतीपुर में शराब और जुए के अड्डों का वीडियो आने के बाद तत्काल पुलिस कमिश्नर ने इस क़िस्से में क्राइम ब्रांच को कहा कि इस मामले में क्या हक़ीक़त है इसकी जाँच करके, तथा इन शराब-जुए के अड्डों पर रेड करके, इस प्रवृत्ति को पूरी तरह से नष्ट करने का निर्देश है। उपरांत इस मामले में किसी पुलिस अधिकारी या कर्मी की लापरवाही है या नहीं, यह देखें। इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट माँगा गया। आदेश की कॉपी शामिल है।
 
यह एक उदाहरण है कि शहर पुलिस कमिश्नर ने क्या आदेश दिया था और सोशल मीडिया पर उसका क्या मतलब निकाला जा रहा है। अहमदाबाद शहर पुलिस किसी भी असामाजिक प्रवृत्ति को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए अत्यंत प्रतिबद्ध है।"
 
प्रशांत कहते हैं, "जो ट्वीट किया गया है, उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल तथा हर्ष संघवी को टैग किया गया है। अब विस्तार से बात करते हैं।"
 
"कमिश्नर दावा करते हैं कि उनके आदेश का ग़लत अर्थ निकाला गया है। हम अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर को पूछना चाहते हैं कि आदेश का ग़लत अर्थ निकाला गया है या फिर आप आपका सच तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं?"

 
"दिनांक 26 को, जब पुलिस इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) का हमें फ़ोन आता है, जिसे आप हमारे कॉल लॉग में देख सकते हैं और यदि अहमदाबाद पुलिस कमिश्नर देखना चाहते हैं तो। पुलिस कमिश्नर ने जो आदेश दिया था वह बहुत अजीब आदेश था। उसमें कहीं पर भी हमारे नाम का ज़िक्र नहीं था कि जाँच क्या करनी है। ज़िक्र यह था कि गोमतीपुर इलाक़े में जाँच करनी है, वहाँ शराब के अड्डे चल रहे हैं। और इस संदर्भ में तीन दिनों में जाँच कर पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट करना था।"
 
"हम अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर जीएस मलिक को पूछना चाहते हैं कि यदि गोमतीपुर के अड्डों की जाँच करनी थी तो 26 तारीख़ को दोपहर 1 बजे इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) हमें क्यों फ़ोन करते हैं, यदि आपका आदेश ऐसा नहीं था तब? आपका आदेश होगा, तभी एक पुलिस इंस्पेक्टर पत्रकार से पूछताछ करने की हिम्मत दिखा सकता था।"
 
"हमने जब उनसे बोला कि फ़िलहाल हम गांधीनगर हैं, शाम 4 बजे अहमदाबाद वापस आएँगे तब हम आपको स्टेटमेंट देने के लिए तैयार हैं, क्योंकि हमें कुछ भी छिपाना नहीं है। और पुलिस इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है), उनके साथ राइटर जयेश भाई और ज़ाकीर भाई, तीन अधिकारियों की एक टीम नवजीवन न्यूज़ पर पहुँचती है। इसके सीसीटीवी फुटेज हमारे पास उपलब्ध हैं।"
 
"अगर जीएस मलिक ऐसा कहते हैं कि उन्होंने नवजीवन न्यूज़ के पत्रकार प्रशांत दयाल की पूछताछ करने का आदेश नहीं दिया था, तो हम वह वीडियो (फुटेज) आपको दे सकते हैं। क्यों नवजीवन के दरवाज़े तक क्राइम ब्रांच की टीम पहुँचती है?"
"इस तरह, आपका लिखित आदेश अलग था और ज़ुबानी आदेश अलग था, इसका पता तब हमें चला जब हमारा स्टेटमेंट लिया जा रहा था तब हर 10 मिनट के अंतराल पर (नाम वीडियो में लिया गया है) बाहर जाकर सूचना प्राप्त कर लेते थे। यह सूचना आप दे रहे थे या कोई दूसरा, यह हमें पता नहीं है।"
 
"पाँच घंटे तक हमसे स्टेटमेंट लिया गया और आप कह रहे हैं कि आपको ऐसी जाँच करनी ही नहीं थी। इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) ने हमें एक समन भी दिया है, जिसे आप स्क्रीन पर देख रहे हैं। हमें समन दिया गया था कि एक दिन में हमें कहना है कि यह जानकारी हमारे पास कहाँ से पहुँची?"
 
"आप समन क्यों दे रहे हैं, जबकि आपने ऐसी जाँच के आदेश नहीं दिए थे! इसका अर्थ यही होता है कि या तो आप झूठ बोल रहे हैं, या आप क्राइम ब्रांच को फँसा रहे हैं। तीसरा यह भी हो सकता है कि क्राइम ब्रांच आपके नियंत्रण में नहीं है और जो पत्रकार रिपोर्टींग करता है उसे फँसाने का काम क्राइम ब्रांच करती है।"
 
"इन तीनों में से कौन सी बात सही है इसकी जाँच का ज़िम्मा अब किसी तीसरी एजेंसी को दीजिएगा। जिससे पता चले कि कौन सच्चा है, कौन झूठा। हमारे पास वो सीसीटीवी फुटेज है जिसमें क्राइम ब्रांच नवजीवन न्यूज़ के भीतर आती है, हमारे पास समन की कॉपी है, जिसके ऊपर हमने वक़्त भी लिखा है कि दोपहर 4 बजे हमें यह समन मिला है। उस समन की कॉपी क्राइम ब्रांच के पास है, जो रिसीव करके हमसे ली गई। हमारे पास सीसीटीवी फुटेज है। 4 बजे आने वाली क्राइम ब्रांच 9 बजे वापस जाती है!"
 
"इस तरह हमारे पास पर्याप्त सबूत हैं कि आप पुलिस के ख़िलाफ़ लिखने वाले पत्रकार को सबक सिखाना चाहते थे। और इसीलिए ही आपने यह कारनामा किया था। लेकिन अब मामला गंभीर हो चला है, मामला गांधीनगर तक पहुँचा है। सोशल मीडिया में इस संदर्भ में न्यूज़ चल रहे हैं। इस वजह से आपने यू टर्न ले लिया है! दिक्क्त नहीं। आख़िर में फँसा दिया है पुलिस इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) और उनकी टीम के सिनियर अधिकारियों को।"
 
"इसलिए गुजरात पुलिस के अधिकारियों को कहना है कि आपके सिनियर अधिकारी, जिनके कंधे पर अशोक स्तंभ होता है और आईपीएस लिखा होता है, वे जब आपको ग़लत आदेश दें, तब उनका ग़लत आदेश मानना मत। छुट्टी पर चले जाना या तबादला करा लेना। ग़लत आदेश का पालन करेंगे तो फँस जाएँगे। हम हाईकोर्ट तक पहुँचे नहीं हैं। यदि वहाँ पहुँचते तो जवाब इंस्पेक्टर (नाम वीडियो में लिया गया है) को देना होता। अभी अभी जिस तरह अहमदाबाद शहर के पुलिस कमिश्नर मामले से ख़ुद को बाहर कर देते हैं, तो फिर आपके साथ कोई नहीं होगा।"
 
"यह क्राइम ब्रांच को भी सबक है कि सुपारी लेने से पहले दस बार सोच लीजिएगा। ये राजनेता और ये सिनियर अधिकारी, आपके अपने कभी नहीं होंगे।"
 
पुलिस शिकायत ही नहीं लेती, क्या इसका जवाब हर्ष संघवी के पास है?
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि पुलिस को एफ़आईआर दर्ज करनी ही होगी। बावजूद इसके देश भर में ऐसी अनेक घटनाएँ मिल जाएगी, जहाँ शिकायतकर्ता की शिकायत पुलिस लेती ही नहीं है। न्याय पाने की प्रक्रिया के पहले कदम पर ही अन्याय महसूस होने लगता है!
 
कुछ समय पहले महिला पहलवानों का जो आंदोलन हुआ था, उसमें यह स्पष्ट रूप से देखा गया था। महिला पहलवानों की शिकायत को लेकर पुलिस एफ़आईआर दर्ज करें, यह आदेश सुप्रीम कोर्ट को देना पड़ा था! तब जाकर भारत के इन सितारों की शिकायत दर्ज की गई थी! गुजरात में हाल ही में एक प्रसिद्ध कलाकार देवायत खवड़ को लेकर भी यही द्दश्य देखा गया था।
 
मार्च 18 2025 के दिन 'जमावट क्लिप्स' चैनल पर गुजरात की जानीमानी पत्रकार देवांशी जोशी ने एक स्टोरी की, जिसका शीर्षक था - राज्य में ख़राब हो चुकी क़ानून-व्यवस्था की वजह क्या है, इसका जवाब हर्ष संघवी के पास है?
 
हम इसका हिंदी अनुवाद देखते हैं:
 
देवांशी कहती हैं, "गृह मंत्री हर्ष भाई संघवी आज विघानसभा के बाहर कांग्रेस की आलोचना कर रहे थे। कर्णाटक से तुलना की जाए तो सूरत में अपराध के आँकड़े कितने कम हैं यह बता रहे थे। वे कांग्रेस को जब जवाब देते हैं तब वे तुलना करते हुए जवाब देते हैं, यह उनकी राजनीति है और यह बिलकुल स्वाभाविक सी राजनीति है।"
 

"लेकिन जब हम सिर्फ़ गुजरात की बात करें, और तुलना करके देखे तो क्या हर्ष भाई के पास जवाब है कि पुलिस तो एफ़आईआर ही नहीं लेती! जब आपकी पुलिस शिकायत ही नहीं ले रही तो फिर आँकड़ा कहाँ से आएगा?"
 
देवांशी बताती हैं कि गुजरात में माहौल ख़राब हुआ है। वे कहती हैं, "गुजरात में इतना ख़राब माहौल पहले नहीं था। कोई भी इतना निरंकुश हो जाए कि कभी भी इस तरह तलवारें लेकर निकलने लगे, डंडे लेकर निकलने लगे! कभी भी, किसी को भी, किसी को मार देना है!"
 
"ऐसा नहीं है कि ये लोग आदतन अपराधी हैं। वस्त्राल मामले में जब पुलिस ने रिएक्ट किया तब पुलिस ने बताया था कि लड़के (अपराधी) क्या कर रहे थे। कहा था कि लड़कों ने पुष्पा फ़िल्म देखी तो उन्हें लगा कि हम भी पुष्पा बन सकते हैं! मूवी... फ़िल्म... कितना बड़ा प्रभाव समाज के बीच पैदा करती है? इन लड़कों की ज़िंदगी बर्बाद हो गई। पुष्पा का अंधानुकरण कर पुष्पा बनने निकले थे! जेल में हैं। यह दिखाता है कि क्या हालत हो सकती है।"
 
"वड़ोदरा का वो रक्षित! जो सड़क पर आकर अनदर राउंड, अनदर राउंड, चीखता है! यह अनदर राउंड क्या है? पुलिस ने कहा कि उसके घर जाँच के दौरान पता चला कि अनदर राउंड एक फ़िल्म है! फ़िल्म में बार बार एक और राउंड नशे का, उसके घर में इसका पोस्टर लगा है, अनदर राउंड का! ये लोग किस तरह से इस प्रकार नशे की ज़द में आ चुके हैं?"
"ज़्यादातर जब गुनाह होते हैं तब आरोपी शराब के अत्यधिक सेवन या मानसिक नशे की हालत में पाए जाते हैं और गंभीर से गंभीर अपराधों को अंजाम देते हैं। वे यदि सचेत अवस्था में होते तो इस प्रकार के अपराध नहीं करते। बहुत दर्दनाक और गंभीर एक्सीडेंट होते हैं, उनमें यदि आरोपी सचेत अवस्था में होते तो इस प्रकार के अपराध नहीं करते। तो फिर नशा इतनी आसानी से क्यों उपलब्ध होता है?"
 
"अगर पुलिस वाक़ई अद्भुत काम कर रही है, शराब नहीं घुसने नहीं देती, ड्रग्स के मामलों में पुलिस अच्छा कर रही है, तो फिर बनासकाँठा के लड़कें क्यों ड्रग्स के चंगुल में फँस रहे हैं? क्यों सूरत में, वडोदरा में या अहमदाबाद में, कॉलेज जाने वाले बच्चे नशेड़ी बन रहे हैं? या ड्रग्स के पंजे में क्यों फँस रहे हैं? ड्रग्स मिल कैसे रहा है? होम डिलीवरी किस तरह से मिल रही है?"
 
"ये सारे सवाल गृह मंत्रालय के सामने हैं। एक है आपका मक़सद, और एक है होने वाला काम। एक है आपके द्वारा होने वाला, या आपके द्वारा दिए जाने वाला भाषण या बयान। एक है ज़मीन पर पुलिस क्या कर रही है। पुलिस का आचरण।"
 
"गृह मंत्री यहाँ आकर पुलिस को निर्देश, धमकी, देकर जाते हैं और इसीके समानांतर, दो दिन पहले भरूच से मामला सामने आता है कि पुलिस ने उस शख़्स पर शराब का अवैध व्यवसाय फिर से शुरू करने के लिए इतना दबाव डाला कि वो शख़्स चिठ्ठी लिख ख़ुद को मार गया! और पुलिस को पुलिस के ऊपर शिकायत दर्ज करनी की नौबत आन पड़ी!"
 
"और यह पहला, या अकेला या आख़िरी क़िस्सा नहीं है पुलिस का। अगर राज्य में ऐसी परिस्थितियाँ बनी हैं, पुलिस पहले बहुत महान हुआ करती थी और यकायक भ्रष्ट हो गई है, ऐसा नहीं है। जनता भी पहले बहुत महान थी और समाज सहसा भ्रमित हो गया है, ऐसा नहीं है। किंतु मामले बढ़ते जा रहे हैं! और ऐसे लोगों के बढ़ते जा रहे हैं, जो पारंपरिक रूप से अपराधी नहीं हैं!"
 

"अभिभावकों को कल्पना नहीं है कि उनके 15 से 18, या 20-25 साल के संतान क्या कर रहे हैं? राजनीति हो रही है। इसलिए मैंने इतने सारे सवाल पूछे उसमें से किसी सवाल का जवाब ठीक से नहीं मिलने वाला।"
 
देवांशी विश्लेषण करते हुए बताती हैं, "समाज की दिशा बदल रही है। समाज विकृत बन रहा है! लड़के बेलगाम हुए जा रहे हैं, बर्बर बन रहे हैं! गेम्स खेल खेल कर उन्होंने हिंसा को सामान्य सा बना दिया है कि होता है, हम किसी को मार सकते हैं! उनके लिए किसी का मर जाना गंभीर मामला ही नहीं रहा! वे नशे के चंगुल में फँस रहे हैं! बहुत सारे द्दष्टिकोण से समाज का मानचित्र यकायक पिछले 10 सालों में बदल चुका है!"
 
"बदलते माहौल में टक्कर लेने के लिए बदल रहा पुलिसिंग क्या है? पुलिस ने क्या नया किया है? वडोदरा का ही मामला। अभी वडोदरा के ही एक नागरिक का मुझे मैसेज आया। उन्होंने कहा कि शमशेर सिंह जब वडोदरा में सीपी थे तब उन्होंने 'क्लीन वडोदरा' नाम से एक व्हाट्सएप ग्रुप शुरू किया था। प्रति दो माह वे इस ग्रुप में वडोदरा के जितने जागरूक नागरिक हैं, उनसे संवाद किया करते थे, उनका फीडबैक लेते थे, SHE टीम को पूरी तरह एक्टिव किया था। वडोदरा की SHE टीम रोमियो गिरी करने वालों को रोकती थी। ड्रग्स के ख़िलाफ़ मिशन शुरू किया था।"
 
"अधिकारी बदलने पर सब कुछ क्यों बदल जाता है? सब कुछ उसी जगह वापस क्यों पहुँच जाया करता है? ये सवाल हैं। किसी शहर में एकाध अधिकारी कितना कुछ बदल सकता है इसकी मिसाल ख़ुद वडोदरा है। दूसरा कोई शहर या नागरिक को देखने-ढूंढने की ज़रूरत ही कहाँ है? कितना अत्यधिक ख़राब माहौल बन सकता है इसका जवाब भी गुजरात के ही बहुत सारे शहर देते हैं।"
 
"और इसीलिए इन सारे सवालों के जवाब ढूंढने हमें बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।"
 
डीजीपी सर, जिन कारोबार को पुलिस प्रोटेक्ट करती है ऐसे पुलिस वालों की सूची बनाइए
गुजरात में क़ानून और व्यवस्था के जो बुरे हालात दिखे उसके बाद गुजरात के डीजीपी को आनन फानन में कहना पड़ा कि 100 घंटे के भीतर हम एक्शन प्लान बनाएँगे। जानी मानी पत्रकार गोपी घांघर बताती हैं कि आदिवासी इलाक़े के एक शख़्स को हाल के दिनों में ही पुलिस के कथित अत्याचार के चलते ख़ुदकुशी करनी पड़ी। 'निर्भय न्यूज़ गोपी घांघर' पर इन्होंने वरिष्ठ पत्रकार नरेश ठक्कर से बात की, जिसका शीर्षक था - डीजीपी सर, जिन कारोबार को पुलिस प्रोटेक्ट करती है ऐसे पुलिस वालों की सूची बनाइए।
 
हम इसका हिंदी अनुवाद देखते हैं:
 
गोपी के साथ बातचीत में नरेश बताते हैं,
"जब डीजीपी स्वयं ऐसा बताते हैं कि ऐसे मामले गंभीर हैं और अगले सौ घंटे के भीतर ऐसे अपराधियों को ढूंढ कर बाहर लाएँगे। उसी वक़्त भरूच ज़िले में ऐसा हादसा होना, पुलिस के साथ संघर्ष के मामले, शराब बेचने वालों का पुलिस के साथ आचरण और पुलिस का उनके साथ आचरण, सार्वजनिक हो चुका है। बहुत ही गोपनीय बात अब सार्वजनिक हो चुकी है और वह बात यह है कि शराब के अड्डे के पीछे ज़्यादातर पुलिस वाले ही कहीं न कहीं शामिल होते हैं। हर जगह नहीं होगा, लेकिन ज़्यादातर ऐसा बाहर आता रहा है।"
 
"जिस आदिवासी शख़्स ने ख़ुदकुशी की उसने अपनी मृत्यु के पहले लिख कर कहा है कि उसे क्यों ख़ुदकुशी करनी पड़ रही है। और इस तरह का मामला कोई पहला मामला नहीं है। ऐसा अनेकों बार हो चुका है। और इसके पीछे दोषी राज्य सरकार या उसकी नीतियाँ हैं।"
 
"उसने (ख़ुदकुशी करने वाले शख़्स ने) लिखा है कि मैंने शराब का व्यवसाय छोड़ दिया है। उसके बाद, छह महीने के बाद भी मुझ पर दबाव बना कर कहा जा रहा है कि मैं शराब का व्यवसाय शुरू करूँ। मैंने शुरू नहीं किया तो कभी भी, आधी रात को चैकिंग के बहाने आ जाते हैं।"
 
बक़ौल नरेश ठक्कर, यह सिर्फ़ भरूच का मामला नहीं है बल्कि राज्यभर में अनेकों जगह पर ऐसे मसले को लेकर पुलिस महकमा दागदार स्थिति में आया है।
 
नरेश आगे कहते हैं, "क़ानून और व्यवस्था की स्थिति तो देखिए। वडोदरा में जो मामला हुआ, आपने देखा होगा, आरोपी हर हर महादेव बोलता है, वन मोर राउंड, उसकी गर्लफ्रेंड या किसी का नाम लेता है, कितनी निर्लज्जता! पुलिस का भय ही नहीं रहा! एक्सीडेंट्स..। सूरत का मामला देखिए। दुष्कर्म के मामले, कितने सारे! कुछ भी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा।" (एक्सीडेंट्स से संदर्भ राज्य में हाल के दिनों में हिट एंड रन के मामले को लेकर हो सकता है)
 
"यह अब तो स्पष्ट हो ही गया न? यही कि पुलिस का गुजरात में कोई रोब और ख़ौफ़ रहा नहीं है! ऐसे गुनाह निरंतर हो रहे हैं!"
 
"राज्य के गृह मंत्री क्या कर रहे हैं? उनकी आलोचना यूँ ही नहीं की जा रही। गृह मंत्रालय की विफलता गुजरात को धूमिल कर रही है। गुजरात में भाजपा के शासन को धूमिल कर रही है। बार बार भाजपा को अपना मुँह छिपाना पड़े ऐसी स्थिति का निर्माण किसने किया है? अपराधी बेलगाम हैं! किसी ट्रक के नीचे किसी पुलिस वाले को रौंद देते हैं, कोई पुलिस वाला किसी रैकेट में संलिप्त देखा जाता है!"
 
नोट करें कि आज से कुछ सालों पहले गुजरात पुलिस के एक अधिकारी को शामलाजी चेक पोस्ट पर अवैध शराब की खेप ले जा रहे एक ट्रक से कुचल दिया गया था! उन दिनों बहुत कुछ हुआ। हालाँकि किसी भी शराब व्यापारी, शराब के अड्डे वालों का सार्वजनिक जुलूस नहीं निकला था या किसी अपराधी के घर नहीं ढहाए गए थे! गुजरात पुलिस के पुलिस सब इंस्पेक्टर के ऊपर शराब माफिया द्वारा ट्रक चला कर कुचलकर उनकी हत्या कर देने का यह मामला पुलिस और सरकार, दोनों पर गंभीर सवाल उठा गया था।
 
वक़्त गुज़रा और यह मामला गुजरात भूल गया! उस घटना के बाद गुजरात के अलग अलग शहरों, गाँवों और इलाक़ों में पुलिस कर्मी के साथ वाहन द्वारा ऐसे हमले करने के प्रयास अनेकों बार हुए हैं!
 
"सूरत तो बेलगाम हो चुका है। गृह मंत्री वहाँ से है। वहाँ क़ानून और व्यवस्था की स्थिति क्या है? अहमदाबाद में खुली तलवारें लेकर बाहर आना, हथियारों की सरेआम नुमाइश करना! आईजी, डीजी, सब अहमदाबाद में ही तो हैं। पुलिस महकमे को जो दीमक लगी है उसे ठीक करने के लिए किसी जाँबाज़ अधिकारी की ज़रूरत है। और गृह मंत्रालय को भी ऐसा मंत्री चाहिए जिसकी सीधी नज़र राजनीतिक चहलकदमी या सेटिंग से दूर हो।"
वे कहते हैं कि अनेक मामलों में पुलिस ही अपराध में संलिप्त पाई गई, फिर सस्पेंशन वगैरह हुआ। समय बीतते ही सस्पेंड कर्मी वापस आ जाता है। सोशल मीडिया ही नहीं, बल्कि गली-मोहल्लों में लोग पूछते दिखे कि जिन आरोपियों और अपराधियों को सत्ताधारी दल संरक्षण देता है, उनके नाम पुलिस सूची में आएँगे या नहीं?
 
वे मूल सवाल उठाते हुए कहते हैं, "क़ानून और व्यवस्था के मसले पर डीजी स्तर से इस तरह की घोषणा सार्वजनिक रूप से करनी पड़ जाए यही स्थिति बहुत कुछ बयाँ कर जाती है।"
 
"गृह मंत्री कितने सफल हुए हैं और कितने विफल, यह केंद्र सरकार को भी देखना होगा।" वे कहते हैं, "गुजरात कितना शांतिपूर्ण राज्य कहा जाता था। लेकिन आज किस मामले में शांति दिखाई दे रही है? कहीं पर नहीं है।"
 
"सिविल अस्पताल में जाएँगे, सिर्फ़ भरूच नहीं लेकिन किसी भी सिविल अस्पताल में, और वहाँ कोई मामला आता है, किसी को गिरफ़्तार किया गया हो, एक्सीडेंट का मामला हो, वहाँ उसका इलाज़ करने वाला या पुलिस एफ़आईआर दर्ज करने वाला, यदि उसके मुँह को चेक किया जाएगा तो वह भी पिया हुआ मिलेगा!"
 
शराब संबंधित अपराध के मामले पर गोपी घांघर अपना मत प्रकट करते हुए कहती हैं कि इन अवैध व्यवसाय को संरक्षित राजनेता ही करते हैं। इस पर वे कहते हैं, "होगा ही बहन! गंगा का उद्भव कहाँ से हो रहा है यह सबको पता होता है। यह सब नियंत्रित कहाँ से होता है, निमंत्रित कहाँ से किया जाता है, चलाते हैं कौन, डिपार्टमेंट में तबादले का मसला पता नहीं है? मीडिया को सारी जानकारी है। कितने दाम, कहाँ के, होते हैं? कौन नहीं जानता इस देश में और गुजरात में?"
 
"क़ानून का रखवाला, पुलिस स्वयं, यह काम करने के लिए (शराब का अवैध व्यवसाय) किसी को प्रेरित करता हो, दबाव बना रहा हो, डिपार्टमेंट का पैसा कहाँ लगाया गया है? इस सरकार को नहीं पता? लोगों को नहीं पता? ढूंढ कर लाओ। बहुत सारे आयोग बनाए जाते हैं। इस मामले में क्यों आयोग का गठन नहीं होता? अगर होता है तो उसके निर्देश लागू क्यों नहीं होते?"
 
दरअसल बात सही भी है कि हमारे यहाँ आयोग या सीट का गठन करना एक फैशन सा हो चला है। इनके गठन के समय जाँच करने वाले सदस्य या अधिकारी ही विवादित होते हैं! आयोग या सीट को जिस प्रकार से जाँच करनी चाहिए वही नहीं होता। ऊपर से जो भी खानापूर्ति की गई हो, नतीजा- निष्कर्ष- रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होते।
 
गोपी घांघर स्पष्ट रूप से अपना सवाल रखती हैं, "बहुत सारे मामले ऐसे हैं, जिसमें भाजपा के ही विधायक, नेता या लोग आरोपी होते हैं। अंत में होता क्या है? पुलिस और राजनीति की मिलीभगत से पूरे मामले को शांत कर दिया जाता है। अंतिम पीड़ित तो आम आदमी ही होता है।"
 

नरेश जोड़ते हैं, "आम आदमी का जीवन अच्छे से चलता रहे उसकी ज़िम्मेदारी सरकार की है। किंतु आपने कहा वहीं कहता हूँ, गेहूँ में कंकड़ हो तो उसे ढूंढा जा सकता है, लेकिन गेहूँ और कंकड़ दोनों मिक्स हो गए हो, दोनों एकसरीखी मात्रा में हो, तो फिर आप किस तरह से अलग करेंगे? फ़िलहाल राजनीतिक स्थिति यह है कि आज जो अपराध होते हैं उसमें अपराधी के पीछे उसके गॉडफादर भी होते हैं, उसे बचाने वाले भी होते हैं।"
 
"सरकार वक़्त गुज़र जाए इसीलिए आयोग का गठन करती है! क्योंकि सरकार का मानना है कि नागरिकों की याददाश्त बहुत कम होती है।"
 
और यह सच ही तो है। कोई भी अपराध होता है तो उसमें आनन फानन में, यूँ कहे कि लोगों को दिखाने के लिए कि प्रशासन ने कार्रवाई की, कुछ दिनों के लिए बहुत कुछ होता है। मेनस्ट्रीम मीडिया, सोशल मीडिया, गली-मोहल्ले, सभी जगह माहौल जागरूकता वाला दिखाई देता है। फिर कुछ वक़्त गुज़रता है और लोग भूल जाते हैं। अब तो अपराधों में जाति, धर्म, पसंदीदा सत्ता, नापसंदीदा सत्ता, जैसे मूर्ख तत्व घुल मिल चुके हैं, फिर तो स्थिति बिगड़नी ही है।
 
नरेश कहते हैं, "75 साल के लोकतंत्र के बाद भी, 25 साल के भाजपा के गुजरात में शासन के बाद भी, गुजरात मॉडल होने के बाद भी, आज स्थायी समाधान क्या मिले हैं? कहीं पर कोई समाधान नहीं मिला है। हम सारे पत्रकार चर्चा करते हैं कि यह हादसा हुआ, सूरत में हुआ, वडोदरा में हुआ, राजकोट में हुआ, लेकिन नतीजा क्या मिला है?"
 
"जब (अपराध को) संरक्षण देने वाले सरकार के ही लोग होंगे, तो फिर अपराध का ख़ात्मा कैसे होगा? अनेक अपराधों में आप भगवद् गीता जैसे ग्रंथ लिख सकते हैं। राजनीति और अपराधियों के मेलजोल पर बहुत सारे पत्रकार बोलते रहते हैं। लेकिन प्रभाव कहाँ? जनता की भावना और दिक्कतों को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम हम हैं। लेकिन वह माध्यम कुछ कहेगा तब भी क्या होगा? क्योंकि सरकार के लिए तो वक़्त गुज़र गया, चुनाव आ गया, नये नये मुद्दे लाएँगे, नयी बाते कहेंगे, और इसी तरह चलता रहता है।"
 
एक आम आदमी के हवाले से नरेश दिलचस्प बात बताते हैं, "एक बंदे ने कहा कि नरेश भाई, अब तो दो प्रार्थना करनी है। एक, पुलिस के हत्थे न आए, दूसरी, अदालत में जाना न पड़े। मैंने उनसे कहा कि तीसरा मेडिकल का भी एड कर लें।"
 
उस व्यक्ति की बात को मंच पर रखते हुए नरेश आगे कहते हैं, "क़ानून की चौखट पर पहुँचे, गृह मंत्रालय का रास्ता नापे, या पुलिस की मदद लेने की सोचे, तो शिकायत करने वाला ज़्यादा परेशान होता है! अदालत में भी देख लीजिए। शिकायत करने वाले को उपस्थित रहना होगा। आरोपी चिठ्ठी लिख देगा तो उसे अगली तारीख़ मिल जाएगी। यह कौन सा और कैसा न्याय है?"
 
यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट है कि देश के तमाम छोटे-मोटे शहरों में और गाँवों तक में अवैध निर्माण हैं, नदियाँ मारकर इमारतें बनाई गई हैं, तालाबों को गायब कर शॉपिंग मॉल्स खड़े कर दिए गए हैं, हर गली-मोहल्ले-सड़कों पर अतिक्रमण हैं, प्राकृतिक निकाल को नष्ट करके निर्माण किए गए हैं, किंतु समझ की जगह सनक ऐसी कि तमाम तथ्यों को बेशर्मी के साथ नज़रअंदाज़ करके किसी एक क़िस्से में किसी अपराधी के घर या घर के किसी हिस्से को गिराने का बुलडोज़र एक्शन राष्ट्रनिर्माण या राष्ट्रसुरक्षा के रूप में देखा जाता है।
 
बुलडोज़र और सार्वजनिक जुलूस वाली संस्कृति आश्चर्यजनक नहीं लगती। क्योंकि यहाँ अपराध और अपराधियों को ही घर्म - जाति - उपजाति - पसंदीदा सत्ता - नापसंदीदा सत्ता, आदि के चश्मे से देखनी की 'सनक' ही संस्कृति बन चुकी है। अतिक्रमण या अपराध जैसी समस्याएँ यहाँ धर्म, जाति, उपजाति, पसंदीदा सत्ता, नापसंदीदा सत्ता के आसपास ही साँसें लेती हैं।
 
अपराध को रोकने का कर्तव्य निभा लिया जाए तो किसी पुलिस को अपराधियों के जुलूस निकालने की ज़रूरत ही कहाँ? सवाल यह भी बनता है कि अगर अतिक्रमण करना अपराध है तो फिर अतिक्रमण को होने देना क्या है? जब कार्रवाई फ़ौरी तोर पर मनोरंजन या फिर पब्लिक पर्सपेक्टिव तथा मीडिया पर्सेप्शन के हिसाब से होने लगे, तो फिर स्थायी समाधान मुमकिन कैसे होगा?
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)