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Deshbhakti vs Divaliyapan : समस्या सरहद पर नहीं है, ना ही दिल्ली की सरकारों में है, समस्या अंधभक्ति में है




सेना के साथ खड़े होना और सरकार के साथ खड़े होना... इन दोनों में इतना ही अंतर है जितना देशभक्ति और दिवालियापन में होता है। सच ही तो है... समस्या ना ही सरहद पर है और ना ही दिल्ली की सरकारों में है। लंबीचौड़ी सार्थक चर्चा के बाद अंतिम सिरा तो यही है कि समस्या अंधभक्ति वाले ट्रेंड में है। सोचिए, आप सरहद पर फंसे हो, गोलियां चल रही हो, सिर छुपाने की जगह मुश्किल से मिल रही हो। इन हालातों में वहां नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, प्रियंका गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, अखिलेश हो। साथ में एक जवान खड़ा हो, बंदूक लेकर। इस हालात में आपका भरोसा किस पर होगा? इसका जवाब आपके पास है तो फिर समझ जाइए कि आप जिनके भाषणों, वादों और वचनों पर भरोसा करते हैं वो सारे बागड़बिल्लें भी इस हालात में उसी एक जवान के पास जाएंगे, जो वहां बंदूक लेकर खड़ा है।

(तय किया था कि यह लेख सेना की पाकिस्तान में कार्रवाई हो जाए उसके बाद ही पोस्ट होगा। भारतीय सेना बड़ी कार्रवाई करेगी यह तो खुल्ले तौर पर तय ही था। इसलिए कार्रवाई के बाद लेख पोस्ट करने का सोचा था। ऐसा इसलिए, क्योंकि सेना तो अपना काम करती है किंतु सरकारें, विपक्ष और उनके उनके समर्थक क्यों नहीं करते यह सवाल जिंदा रहे। देशभक्ति का मतलब यह नहीं है कि सेना के जवान शहीद होते रहे और देश रोता रहे। इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा जाता है। लेकिन 1971 की उस जंग और ऐतिहासिक विजय के तले कई सवाल इंदिरा सरकार के बारे में गायब हो गए थे। वो सवाल जो वाकई महत्वपूर्ण थे। कारगिल के दौरान भी कुछ ऐसा ही हाल रहा, जहां विजय के उन्माद के तले सवाल मर गए। उरी हमले के बाद 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी यही हाल रहा। ऑपरेशन ब्लू स्टार की नौबत ही क्यों आई थी यह कभी सोचते नहीं, बल्कि उस अभियान में सेना की रणनीतियां, बहादुरी आदि की चर्चा कर करके मूल सवालों को दो गज जमीन के नीचे गाड़ देते हैं)

नोट – यह लेख पोस्ट कर रहा हूं तब तक जिसकी उम्मीद थी वो कार्रवाई हो चुकी है। आगे भी कुछ होता रहेगा। हम उसी शक्ल में लेख को देखते हैं, जैसा वो था। - - - सैन्य बल हो या फिर अर्धसैन्य बल... वो नेता नहीं है कि बोलकर कुछ करेंगे। वो तो करेंगे ही। वो नेता नहीं है कि नहीं करेंगे। वो अपना काम करेंगे। बदला लेंगे वाली घोषणा नहीं करेंगे, बल्कि अपने तरीके से बदला ले भी लेंगे। वो तो हमेशा अपना काम ठीक तरह से करते आए हैं, और करेंगे ही। हा, यह सैन्य कार्रवाई है, कोई फास्ट फूड नहीं है। सेना पलट वार तो करेगी ही। सेना के पलट वार के तले मूल सवालों को छुपा देने की शैली को ही लठैतपन बोलते है। इसीलिए याद रखे कि समस्या ना ही सरहद पर है, ना ही दिल्ली में है, मूल समस्या अंधभक्ति वाले ट्रेंड में है।  

मैं ज्यादातर तो किसी भी नेता की तारीफ नहीं कर सकता। शर्म आती है इसमें। किसी एक कोने में कर दूंगा। लेकिन मौटे-मौटे तौर पर तारीफ नहीं करूंगा। नोट करे कि मैं सरकार का नहीं बल्कि सरकारों का आलोचक हूं। इसे विद्रोही, अराजकता, देशद्रोही, संकुचित मानसिकता वगैरह माने तो मुझे कोई समस्या नहीं है। आप कुतर्क करे तो इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं है। उन्हें हम लोगों ने कुछ अच्छा करने के लिए बिठाया है। वो कुछ अच्छा कर ले तो उन्होंने हम पर कोई उपकार नहीं कर दिया। और लंबी-चौड़ी सार्थक चर्चा के बाद एक सच यह भी है कि आप उनसे कुछ अच्छा करवाना चाहते हैं तो आपको उनसे सवाल करने ही पड़ेंगे। उनकी आलोचना तो करनी ही पड़ेगी। एक नागरिक होने में और किसी पार्टी की पूंछ होने में फर्क ज़रूर होता है। फैन्स होना, फोलोअर्स होना... ये सारी राजनीतिक बीमारियां है।

अंधभक्त कहे या लठैत कहे, शादी किए हुए समर्थक कहे या पार्टेड़ी इश्कबाज कहे, इन पर हम पहले ही लिख चुके हैं। यह अंधभक्ति चलती भी रहेगी, यह भी एक कड़वा सच है। इस प्रक्रिया को कोई नहीं बदल सकता, क्योंकि वो खुद बदलना नहीं चाहते। लेकिन जब सेना की बात आए तब इन सबके फर्जी राष्ट्रवाद का ढोल कितना पोलम-पोल है यह लिखने में कोई हर्ज नहीं। नोट करे कि इनमें भाजपाई भी शामिल है, आपिये भी, कांग्रेसिये भी, सपाई भी, बसपाई भी, टीएमसी वाले भी... सारे के सारे वो पार्टेड़ी इश्कबाज शामिल है, जो एकदूसरे पर देशद्रोह का इल्ज़ाम लगाकर खुद को देशभक्त साबित करने के गटरछाप प्रयत्नों में लगे हुए होते हैं।

पहली कड़वी बात जिस पर ज्यादातर असहमत ही होंगे। लेकिन सालों की सार्थक चर्चा के बाद सच्ची बात तो यही होगी कि यहां कोई नेता जनसेवा के लिए नहीं है, कोई देशसेवा के लिए नहीं है। यहां कोई राम नहीं है और कोई रहीम नहीं है। ऐसा क्यों इस पर हम पहले के लेखों में कई बार लिख चुके हैं, उदाहरण दे चुके हैं, तर्क के साथ इसे सच के निकट भी ले जा चुके हैं। लिहाजा दोबारा इस पर लिखने की ज़रूरत नहीं है। हां... आगे सच के निकट जाने की यह कृपा नेता लोग बरसाते रहेंगे इसकी गारंटी ज़रूर है। समझ लीजिए कि नेता के लिए देश वो देश नहीं होता जो आपके लिए होता है।

नेता खराब ही होते हैं, लेकिन अपने वाला नेता अच्छा है और सामने वाला बुरा। यह कुछ सालों पहले का दौर था। आज हमारे भारत का कड़वा सच यह है कि सारे के सारे बुरे ही होते हैं ऐसा लोग मानने लगे हैं। बस यह साबित करने में जुटे रहते हैं कि हमारे वाला कम बुरा है, सामने वाला जितना ज्यादा बुरा नहीं है!!! यह कमतर राजनेताओं का दौर है। यह छगन और मगन जैसे नेताओं का दौर है, जहां छगन कहता है कि मगन ने तो 100 किलोग्राम के काले काम किए थे, हमने तो 90 किलोग्राम ही किए है! दूसरों से 10 किलोग्राम कम किए है इसका गर्व व्याप्त है!!! पप्पू, फेंकू और खुजली के इस दौर में भारत विश्वगुरु बनने का सपना भी देख लेता है, क्योंकि हैप्पीनेस इंडेक्स में हमें दूसरों से आगे निकलना है।

देशभक्ति और दिवालियापन... इन दोनों में अंतर होता है
देशभक्ति या दिवालियापन को लेकर हम पहले लिख चुके हैं। लिखते लिखते ये भी लिख चुके हैं कि इस अंतर को पार्टी से इश्क किए इश्कबाजों ने समय समय पर साबित भी किया हुआ है। सीधी बात... देशभक्ति का मतलब यह नहीं है कि सरकार का समर्थन करो। सरकार का विरोध देशभक्त बनने का सबसे पहला कदम है।

कांग्रेस काल में भी आतंकी हमले होते थे। भाजपा काल में भी हुए। मुंबई हमला हुआ तो कांग्रेस के लठैत कहा करते थे कि यह राजनीति का समय नहीं है, एकजुट होने का समय है। फिर भाजपा की सरकार में पठानकोट हुआ, अमरनाथ हुआ, सुकमा हुआ, उरी हुआ, पुलवामा हुआ... भाजपा के लठैत कांग्रेस के समर्थकों का संवाद उधार ले आए!!! सेना के साथ खड़े होना और सरकार के साथ खड़े होना, इन दोनों प्रक्रियाओं की व्याख्या बदली जा चुकी है अब तो। आतंकी हमला हो, सेना के जवानों की शिकायतें हो, उनकी ज़रूरतें हो... कुल मिलाकर सेना का कोई भी मामला हो, उनके साथ खड़े होना का मतलब यह नहीं है कि जो सरकार दिल्ली में बैठी है उस पर सवाल ना करे।

देशभक्ति और दिवालियापन के अंतर को लेकर हमने इससे पहले दो लेख लिखे थे। इस लेख में जो दृष्टिकोण है उसे ठीक से समझने के लिए पहले वाले दो लेख पढ़ ले।

पहला जो लेख था उसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें - Deshbhakti vs Divaliyapan : देशभक्ति या दिवालियापन?
देशभक्ति विरुद्ध दिवालियापन के साथ साथ युद्ध के बजाय युद्धोन्माद जगानेवाले मीडिया को लेकर भी हमने वही लिखा था जो उन दिनों का सच था, जो हर मामलों का सच होता है। इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें Media War : डिजिटल इंडिया के डिजिटल मीडिया की डिजिटल जंग
युद्ध और युद्धोन्माद का वो ताज़ा दौर भी हमने देखा, जो सदैव तमाम सरकारें हम नागरिकों को दिखाती रहती हैं, और हम देखते रहते हैं। इस आर्टिकल को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें - War Presentation : युद्ध से किसी को परहेज नहीं है... लेकिन युद्ध का ऐसा प्रचार और प्रसार क्यों?
हम इन चार लेखों के मूल दृष्टिकोण को लेकर आगे चलते हैं। जिनकी पूंछ पार्टियों में फंसी है उन दोगलों के लिए यह काम की चीज़ नहीं है, इसे नोट कर ले।

सेना के साथ खड़े होना और सरकार के साथ खड़े होना, यह दोनोें अलग अलग प्रक्रियाएँ है
एक सीधी सी बात। विपक्षी लठैत हो या सत्ता दल के लठैत, बहुत हद तक संभावना यह है कि सारे के सारे सेना के साथ नहीं बल्कि अपने अपने राजनीतिक स्पेस के साथ खड़े थे। दोनों तरफ से आईटी सेल एक्टिव हो चुके थे। देशभक्ति के लिए नहीं बल्कि एकदूसरे को नीचा दिखाने के लिए।

बड़े सलीके से हम पहले ही देख चुके हैं कि, वतन से मोहब्बत दिल से होती है, लेकिन राजनीति से लगाव दिमाग से ही होना चाहिए। देशभक्ति और दलभक्ति का अंतर हम मिटा देते हैं उसमें कोई दो राय नहीं है। इसे लेकर ही हमने पहले भी ज़िक्र किया था कि, क्या देशभक्ति का मतलब यह मान लिया गया है कि शहीदी पर रोना? उन्हें शहीद होना ना पड़े उस दिशा में हमारे नागरिकी प्रयत्न कम ही होते हैं। इसे देशभक्ति कहे या दिवालियापन? सरहदों पर खड़ा रहकर कोई अपनी छाती पे हमारे लिये गोलियां झेलता रहे यही हमारी देशभक्ति है? उनकी मुश्किलें, परेशानियां, ज़रूरतें... इन सब मसलों पर हम खुलकर क्यों नहीं आते?”

हमने पहले ही देखा कि हमारी देशभक्ति कितनी चाइनीज टाइप, मौकापरस्त और पसंदीदा एंगल वाली है। सेना के साथ खड़े होना, इसका मतलब यह नहीं होता कि दिल्ली से सवाल मत करो। आज-कल माहौल ऐसा ही है कि कुछ भी हो, दिल्ली से सवाल मत करो। दिल्ली से सवाल मत करो तो सेना के साथ खड़े हो, यह तर्क ही अपनेआप में गटरछाप दलील है।

राजनीति नहीं करनी चाहिए, यह कहते कहते राजनीति करने की शुरुआत स्वयं पीएम मोदी ने कर दी थी!!! यह कहकर कि पाकिस्तान समझ ले कि यह नई सरकार है, नई नीतियां है, पुराना दौर नहीं है। जिन्होंने कहा था कि राजनीति नहीं करनी चाहिए उन्होंने ही पिछली सरकार-नयी सरकार वाला गाना गाया!!! जब उन्होंने ही स्वयं शुरू किया तो फिर यह ग्रीन सिग्नल ही था। समर्थकों ने भी राष्ट्रवाद को वोट में परिवर्तित करने का बैकुंठ उत्थान शुरू कर दिया। भाजपा के नेता, जिनमें ढेरों स्थानिक प्रवक्ता भी शामिल थे, कहने लगे कि राष्ट्रभावना को वोट में परिवर्तित करो!!! आम आदमी पार्टी के समर्थक लिखने लगे कि आतंकवाद का काल केजरीवाल!!! कांग्रेस के समर्थक तो करने वाले ही थे, क्योंकि उनके काल में मोदीजी घंटे भर भी नहीं रूकते थे, चूड़ियां भेजी जाती थी। कांग्रेसी समर्थकों ने भी मौका लपक लिया और राजनीतिक खीज निकालने लगे। देशभक्ति के नाम पर दलभक्ति करने का मौका सबने ही तो लपक लिया था।

राजनीति अपने तेवर में आ गई। तिरंगा... हमने पहले ही लिखा है कि अब केवल तिरंगा आसमान नहीं छूता, उसके नीचे दबे मकसद भी आसमान चीरकर आगे निकल जाया करते हैं! अगर सभी देश के साथ खड़े होते तो मूल मुद्दे यूं सालों से सेना और भारत को प्रताड़ित कर रहे ना होते। सभी अपनी अपनी संभावना तलाशने लगे, जैसा हमेशा होता है।

आक्रोश जायज है... पागलपन नहीं। मैं यह लेख बहुत देर से लिख रहा हूं। क्योंकि पता है कि उस समय लोगों में आक्रोश था, जो पागलपन के कुछ कुछ नजदीक था। उन दिनों शहीदों के साथ खड़े होने वाला देश था। कुछ ही दिन गुजरे हैं, बताइए अब कौन याद कर रहा है? अब सारे चुनावी मोड़ में चले जा चुके हैं। शहीदों के साथ खड़े तो हम हो गए, लेकिन शहीदों के परिजनों की किसने सोची थी? शायद किसीने नहीं। मीडिया ने उसी तरह काम किया, जैसे कोई कंपनी अपने उत्पाद को बेचने के लिए करती है। शहीदों के परिजनों की तस्वीरें, घटना के जगह की तस्वीरें, रोते हुए चेहरे, विलपते हुए परिजन... सब कुछ दिखाया। मीडिया ने इसलिए नहीं दिखाया था कि देश के लोगों में देशभावना जग जाए। मीडिया ने इसलिए दिखाया था कि देश विजुअल देखता रहे। व्यूअर बढ़े। हम सबने वो देखा। देशभावना जगी थी हमारी, आहत भी हुए, दुखी भी हुए, रोए भी होंगे हम। लेकिन आज क्या है? लिखने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन वही है जो देशभक्ति या दिवालियापन सीरीज वाले लेखों में हम लिख चुके हैं। लिहाजा अब लिखने की ज़रूरत नहीं है। इतना ही लिखना है कि जायके में थोड़ा कड़वा है, वर्ना सच का कोई जवाब नहीं।

वो सब हमने कर लिया, जो हमेशा करते हैं। हम युद्ध चाहते हैं या फिर युद्धोन्माद, यह सवाल हमने फिर एक बार खड़ा कर दिया। डिजिटल मीडिया की डिजिटल जंग भी हो चुकी है। एंकरों ने स्टूडियो में बैठे बैठे युद्ध कर लिया, मिसाइल दाग दिए!!! नेताओं ने रैलियों से भाषण झाड़ दिए। फिर एक बार खुली छूट दे दी, जैसे पहले दिया करते थे।

एक चाक चौबंद हाईवे पर विस्फोटक से भरी गाड़ी कैसे आ गई, सीआरपीएफ की हवाई यात्रा की विनती क्यों नकार दी गई, काफिले में जो पहले से तय नियम थे उसको नजरअंदाज क्यों किया गया... यह सवाल क्यों नहीं हो सकते? अभी हवाई यात्रा की इजाज़त दे दी गई है, शर्ते लागू है यह नोट करे। इजाज़त दे दी गई है यह अच्छी खबर है, प्रशंसा होनी चाहिए इस फैसले की, भले शर्ते लागू है। लेकिन सवाल तो बदलने नहीं चाहिए। कमियां रह गई थी तो उस पर चर्चा करने से आसमान तो टूट नहीं पड़ता। फ्रेंडली मीडिया और आईटी सेल, प्रवक्ताओं और लठैतों, सबने मिलकर इस सवाल को देशद्रोह साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर एक बार माहौल ऐसा था, जैसे कि सेना के साथ खड़ा होना, इसका मतलब यह था कि सरकार से सवाल ना करे।

सोशल मीडिया में एक सवाल यह भी तैर रहा था कि हमारे यहां विरोध प्रदर्शनों के दौरान पाकिस्तानी झंडे जलाए जाते हैं, यह झंडे कहां से आते हैं? मुझे पता है कि सवाल में देशभक्ति नहीं है, दलभक्ति है। साथ में यह भी पता है कि झंडे जलाने वाली प्रक्रिया में भी कुछ कुछ ऐसा ही है। लेकिन सवाल थोड़ा थोड़ा तो जायज है। हमारे यहां ऐसे पाकिस्तानी झंडे कहां से मिल जाते हैं, जिसको खरीदकर फिर जलाया जाए!!! कश्मीर या दूसरे इलाकों में पाकिस्तानी झंडे फहराने का देशद्रोह होता है, कहीं पर पाकिस्तानी झंडे जलाने का देशप्रेम होता है। इन दोनों समुदायों को पाकिस्तानी झंडे मिलते कहां से हैं? यह सवाल बेतुका तो है, लेकिन कुछ कुछ तुकबंदी भी है इसमें।

रही बात उन दलीलों की, जिसमें कहा जाता है कि इतने इतने देश हमारे साथ खड़े हैं। यह दलील मैंने बहुत काल से देखी है। हर सरकारों के दौरान देखी है। और हर बार यह ज़रूर देखा है कि तमाम देश साथ ही खड़े रहते हैं। कहीं पर भी आतंकी हमला हो, कोई देश यह तो नहीं कहेगा न कि अच्छा हुआ। निंदा तो होगी ही, साथ खड़े होने के खोखले भाषण होंगे ही। काले कोट वालों ने ही तो आतंकवाद के नासूर को पाला है। आतंकवाद के इतिहास के अनछूए पन्ने खोलकर देख ले एक बार। तमाम राष्ट्रों के कारनामे खुलते जाएंगे। खैर, उस पर फिर कभी देखेंगे। लेकिन जब भी कहीं पर हमला होगा, सारे उस देश के साथ खड़े तो होंगे ही। संवेदना प्रकट करेंगे, निंदा करेंगे। सालों से देखता हूं कि सारे के सारे आतंकवाद के खिलाफ खड़े हैं। लेकिन आतंकवाद है कि रूकने का नाम नहीं लेता!!! उल्टा उन आतंकवादियों को विकास का टॉनिक वहीं से मिलता है, जहां से उनके खिलाफ घोषणाएँ होती हैं!!! इन शोर्ट... पुलवामा पर तमाम देशों की जो प्रतिक्रियाएँ आई है, आगे भी ऐसे ही रिकॉर्डेड संवाद बजते रहेंगे। चाहे भारत से जुड़े मसले हो, या किसी और के।

सुरक्षा में चूक हुई थी, तय नियमों का पालन नहीं हुआ था, इन सवालों को गायब करने का मतलब और मकसद देशभक्ति है या दिवालियापन?
1990 के बाद से खयाल रखा जाता था कि काफिलों में जवानों और वाहनों की तादाद ज्यादा नहीं होनी चाहिए, ऐसे में इन नियमों को पीडीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार ने क्यों बदला था यह सवाल क्यों नहीं हो सकता? गठबंधन सरकार कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत चली थी, जैसा होता है। लेकिन नियम बदलना कौन सा कॉमन मिनिमम प्रोग्राम था? राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसले को इस तरह बदल देना मजबूर सरकार की मजबूरी तो नहीं होनी चाहिए थी। सरकार गिर गई, राष्ट्रपति शासन लगा, राज्यपाल बोस थे, तो फिर बदले हुए नियम को दोबारा क्यों नहीं बदला गया, यह भी सवाल क्यों नहीं हो सकता? यह सवाल पूछना ही मेरे लिए सेना के साथ खड़ा होने की प्रक्रिया का पहला कदम है। मैं सरकारों के साथ खड़ा होने की गधापंति नहीं कर सकता। दूसरे सवाल बाद में, लेकिन इस पहले सवाल का कोई सीधा जवाब हो ही नहीं सकता यह पता है। सवाल नीदरलैंड की सरकार से तो पूछ नहीं सकता। घाटी में जिसकी सरकार थी और दिल्ली में जिसकी सरकार है उसीसे तो सवाल पूछना बनता है।

याद रखना चाहिए कि जम्मू-श्रीनगर हाईवे उन सड़कों में शामिल है जहां देश के सबसे कड़े सुरक्षा मानक लागू हैं। इस हाईवे पर सभी आम गाड़ियों की कड़ी जांच की जाती है। आख़िर विस्फोटक से भरी कोई गाड़ी हाईवे की कड़ी सुरक्षा को चकमा कैसे दे सकी ये सवाल तो उठता ही है?

हमला हुआ तब कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा है। यानी कि खुली छूट तो पहले से ही केंद्र सरकार के पास है। उन्होंने वहां अपना आदमी बिठाया है, जिसे राज्यपाल कहते हैं। राज्यपाल को वही करना है जो ऊपर से कहा जाता है। क्योंकि बीच में कोई प्रदेश सरकार तो है नहीं। राज्यपाल खुद कहते हैं कि सुरक्षा में चूक हुई है। वो खुद कहते हैं कि 2500 जवानों का काफिला लेकर नहीं निकला जाता। वो कहते हैं कि हाईवे की सुरक्षा को लेकर जो तय प्रक्रिया है उसका पालन नहीं हुआ। लेकिन फिर खबर आती है कि राज्यपाल को हटाया जाएगा!!! जो मूल सवाल है उसे दफनाकर गटरछाप चीजों पर डिबेट करवाने का काम मीडिया को बखूबी आता है। क्योंकि इन्हें पिछली सरकारों के काल से ही यह बुरी आदत है। वे वो सवाल नहीं उठाते जिससे सरकारों को परेशानी हो। 

अभी कुछ दिनों पहले ही हाउज द जोश वाला दृश्य चल रहा था देश में। इतने सारे आतंकी हमले हुए हैं मोदी सरकार के दौरान, लेकिन फिर भी रक्षा मंत्री कह रही थी कि कोई आतंकी हमला नहीं हुआ है!!! और फिर पुलवामा की घटना हो गई। नोटबंदी से आतंकवादियों की कमर टूट गई थी। सोचिए बिना कमर के आतंकवादियों ने हमला किया था, कमर के साथ किया होता तो क्या क्या होता? और क्या कहे अब।

डिजिटल हो चुका मीडिया डिजिटल जंग करने में माहिर हो चुका है, विस्फोटक के किलोग्राम का आंकड़ा बिना जांच के फैलाने की बेवकूफी, उधर कार को लेकर चुप्पी, मूल सवालों को दफनाकर दकियानूसी चर्चा करना मीडिया की आदत है या आदेश?
वैसे इस बीच एक सवाल यह भी आया था, जो सरकार के लिए नहीं बल्कि मीडिया के लिए था। मीडिया ने उस शाम से बोलना शुरू कर दिया कि 350 किलो विस्फोटक था। फिर दूसरे दिन की सुबह से कहा जाने लगा कि 80 किलो विस्फोटक था। जबकि हमले के दूसरे दिन दोपहर के बाद एनआईए पहुंची थी। जांच शुरू हो रही थी, कोई रिपोर्ट भी नहीं थी। लेकिन गज़ब है कि विस्फोट हो जाने के बाद हमारे यहां मीडिया के पास ऐसी कौन सी तकनीक थी जिसमें तय कर लिया गया कि विस्फोटक इतने किलो का था!!! वो भी एनआईए की जांच से पहले ही!!! समझ नहीं आता कि धमाका हो चुका है, फिर भी धमाके के किलोग्राम का आंकड़ा मीडिया कैसे तय कर पाता होगा?

मान लेते हैं कि मीडिया के पास जादुई छड़ी होगी, जिससे बिना फोरेंसिक जांच के, बिना एनआईए की तफ्तीश के, मीडिया ने डिसाइड कर लिया कि बम में विस्फोटक इतने किलोग्राम का था। लेकिन वही मीडिया अब तक यह तय नहीं कर पाया था कि इस्तेमाल की गई गाड़ी किसकी थी? हमले के करीब दो सप्ताह बाद कार कौन सी थी यह पता चल पाया था, लेकिन घंटे भर में विस्फोटकों का वजन मीडिया ने तय कर लिया था!!! पठानकोट हमले के कई सवाल अब भी अनसुलझे हैं। उल्टा अगवा होने का दावा करनेवाला वो पुलिस अधिकारी भ्रष्टाचार के दूसरे मामले में जेल भेजा जा चुका है!!! अमरनाथ हमले के सवाल अब भी सिर उठा रहे हैं। पुलवामा के जवाब नहीं मिल सकते। पहले लिखा वैसे, इंदिरा गांधी का जमाना हो या राजीव गांधी का, वाजपेयी का दौर हो या वर्तमान में नरेन्द्र मोदी का दौर, सैन्य कार्रवाईयों के बाद उनकी सरकारों के खिलाफ जो सवाल थे वो छोड़ दिए गए। परिणाम क्या मिला था सब जानते हैं।

जाहिर है कि जानकारियां बदल सकती है। लेकिन मीडिया का काम खबरों की पुष्टि करके फिर जानकारी परोसना होता है। लेकिन हमारा मीडिया और वाट्सएप यूनिवर्सिटी, इन दोनों में कोई फर्क नहीं रह गया है! पुलवामा हमले के कुछ दिनों पहले एबीपी न्यूज़ पर शाम को पौने सात बजे के आसपास एक ब्रेकिंग न्यूज़ आती है। राष्ट्रीय राफइल्स के काफिले पर हमले की खबर। लिखते हैं कि बड़ा आतंकी हमला... आरआर के जवानों पर आतंकियों ने किया हमला...। महज चार-पांच मिनट खबरें चलती हैं। आदत के मुताबिक चैनल बदल कर देखते हैं। देखने के लिए कि दूसरी जगह पर कोई जानकारी मिल जाए। लेकिन किसी भी न्यूज़ चैनल पर यह खबर थी ही नहीं!!! फिर वेबसाइट पर न्यूज़ देखने की कोशिशें की। शायद वहां कुछ जानकारी हो। लेकिन किसी भी वेबसाइट पर यह खबर नहीं थी!!! फिर सोचा कि अब तो एबीपी न्यूज़ ही देखना पड़ेगा। चैनल बदलकर और वेबसाइट में सन्नाटा देखने के बाद एबीपी न्यूज़ दोबारा ऑन किया। इस दौरान पांच-सात मिनट गुजर चुके थे। लेकिन क्या देखता हूं। वहीं से आतंकी हमले की खबरें गायब थी!!! उसके बाद करीब आधे घंटे तक थोड़ी थोड़ी देर के लिए एबीपी न्यूज़ चेक करता रहा। लेकिन उन्होंने खुद जिस न्यूज़ को ब्रेक किया था, वो खबर फिर उन्होंने ही नहीं दिखाई थी!!!

22 जनवरी 2018 की वो शाम याद है। आज तक चैनल था। किसी गली या नुक्कड़ के वाट्सएप सरीखी रिपोर्टिंग करते हुए दो साल पुराना एक वीडियो लोगों को परोस दिया था इन्होंने!!! पाकिस्तानी सेना ने मोर्टार फायर किया... पाकिस्तानी सेना आम नागरिकों को निशाने पे ले रही... यहां है सबूत... इन शीर्षकों का इस्तेमाल करते हुए चैनल ने देश को बताया कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिकों को नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तानी मोर्टार फायर द्वारा लक्षित किया गया है। बाद में पता चला कि वे जिस वीडियो को दिखा रहे थे वो दो साल पुराना वीडियो था, जिसे यूट्यूब पर लाखों लोग पहले ही देख चुके थे!!!

1 मई 2017 को आज तक, जी न्यूज़, एबीपी न्यूज़ और इंडिया टीवी ने एक खबर दिखाई थी। सबने डिजिटल श्रृंगार के साथ न्यूज़ का तड़का दिखाया और कहा कि भारतीय सेना ने किरपान और पिम्पल की पाकिस्तानी चौकियों को उड़ाया...। बाद में पता चला कि मीडिया वाले जिन दो चौकियों को उड़ाने की खबरें देश को परोस रहे थे वे चौकियां भारत की ही थी!!! भला कोई सेना अपनी ही चौकियों को क्यों उड़ाएगी?  

एयर स्ट्राइक के बाद भी मीडिया ने इसी तरह काम किया। जो सेना ने कहा ही नहीं था मीडिया ने वो भी कह दिया!!! जब सेना ने कुछ नहीं किया था तब भी मीडिया कुछ कर जाता था, अब जब किया है तो मीडिया को आउट ऑफ कंट्रोल तो होना ही था। जो वीडियो, जो तस्वीरें फेक थी, दिनभर लगभग सभी चैनलों ने वही वीडियो और वही तस्वीरें चलाई!!!

वाट्एसप यूनिवर्सिटी और हमारा मीडिया, दोनों का काम एकसरीखा हो चुका है। पहले खबरों की पुष्टि करने के लिए लोग न्यूज़ चैनल देखा करते थे। आजकल चैनलों की खबरें पुष्ट है या नहीं इसके लिए दूसरी जगहों पर जाना पड़ता है! मीडिया को लेकर हम अलग संस्करण लिख चुके हैं। किसी घटना के बाद जानकारियां बदल सकती है। लेकिन जो मूल सवाल होते हैं उन्हें दफनाकर अनाप-शनाप मुद्दों पर डिबेट कराना मीडिया का ट्रेंड नहीं है, बल्कि कुछ और होता है। दरअसल, टीवी को जो भोग लगेगा, प्रसाद के रूप में देश को वही मिलेगा!!!

यह मीडिया है। यहां स्टूडियो से जंग की तैयारियां चलती है, उधर जंग का नायक शांति पुरस्कार लेकर घर लौटता है!!! जब शांति होती है तो तोप पर बैठकर फोटूं खींची जाती है, जब तोप की ज़रूरत आन पड़ी तो शांति पुरस्कार लिया जाता है!!! माँ कसम बदला लेंगे... यह मीडिया की या सरकार की भाषा कैसे हो सकती है, अगर सचमुच बदला लेना ही है। ऐसा इसलिए लिखना पड़ता है, क्योंकि हर वक्त अंत तो राम-लखन की कहानी से ही हो जाता है! पानी बंद किया जाएगा यह घोषणा पुलवामा हमले के बाद गडकरीजी करते हैं। तो फिर यह सवाल क्यों नहीं हो सकता कि पठानकोट के बाद भी यही घोषणा हुई थी। यह घोषणा नई है या फिर पिछली घोषणा में अमल ही नहीं हुआ था, या घोषणा का कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू होना है? दूसरे दिन गडकरी कहते हैं कि हमने ड्राफ्ट तैयार किया है, अंतिम फैसला पीएम लेंगे!!! जबकि अगले दिन कह चुके थे कि काम शुरू हो चुका है!!! काम शुरू हो चुका है तो अंतिम फैसला लेना बाकी है ऐसा क्यों? मूल सवाल यह कि पठानकोट के बाद यही घोषणा हुई थी तो फिर नये सिरे से घोषणा क्यों? सवाल राजनाथ सिंह से भी पूछना बनता है। क्योंकि आज से 3 साल पहले इन्होंने कहा था कि अगले 2 साल में पाकिस्तान से सटी सीमा सील करने का काम पूरा हो जाएगा। उसका क्या हुआ कोई नहीं पूछता। 3 साल पहले इन्हीं मंत्रियों का बयान था कि अगले साल पीओके में तिरंगा फहरा देंगे। अब वही मंत्री वही संवाद रिपीट कर रहे हैं। सवाल तो कई सारे हैं। चलिए, उनकी पुरानी घोषणाएँ छोड़ देते हैं, लेकिन ताज़ा सवालों को नहीं पूछने का कोई अध्यादेश जारी हुआ है क्या?
सूरक्षा में चूक कैसे हो गई... यह सवाल क्यों नहीं हो सकता? इतना सारा विस्फोटक कैसे आया? काफिले में वाहनों की तादाद इतनी ज्यादा क्यों रखी गई? जम्मू-कश्मीर में काफिले को लेकर चलने के लिए जो सुरक्षा के नियम है उन नियमों को ताक पर क्यों रखा गया? एक खास बस ही क्यों निशाने पर थी? सुरक्षा को कैसे भेदा गया? ये सब चीजें डिबेट के लायक नहीं है क्या? पाकिस्तान को सबक सिखाना एंकरों का काम नहीं है, सेना का काम है। लेकिन मीडिया डिबेट देखकर लगता है कि सेना को युद्ध करना नहीं आता होगा, इन रक्षा विशेषज्ञों को ही ज्यादा समझ होती होगी!!! लगता है कि प्रधानमंत्री भी अग्नि मिसाइल दागने के लिए किसी एंकर को ही बुलाते होंगे। हर हमलों के बाद एक ही घिसी-पीटी चीजें, एक ही टाइप का टाइम पास। चीन के पास इतना सैन्य बल है, भारत के पास इतना है और पाकिस्तान के पास इतना। मिसाइल के पुर्जे-पुर्जे का नॉलेज दोबारा ठूंस दिया जाता है। एंकर स्टूडियो से लाहोर जीत लेते हैं। मूल सवाल चर्चा में होते ही नहीं।

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने पुलवामा हमले के पहले एक निजी न्यूज़ चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि पाकिस्तान और आतंकबादी बड़ी कार्रवाई कर सकते हैं। इंटेलिजेंस इनपुट तो होंगे ही, लेकिन राज्यपाल सरीखा आदमी बाकायदा हमले के दिनों पहले ही ऐसी आशंका प्रकट कर देता है। फिर भी कुछ नहीं रोका गया था। यह डिबेट के लायक विषय नहीं है क्या? राज्यपाल सरीखा आदमी बाकायदा दिनों पहले सार्वजनिक रूप से बड़ी आतंकी कार्रवाई के बारे में बोलता है तो फिर यह सामान्य सी बात थी क्या? दो दशक का सबसे बड़ा आतंकी हमला होने के बाद इन सब चीजों पर चर्चा करने के बजाय अनाप-शनाप डिजिटल श्रृंगार परोसने का मकसद क्या है?

गज़ब बात है कि पुलवामा हमले के एकाध सप्ताह बाद जब विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सरकार पर आरोप लगाते हुए पांच सवाल पूछे तो बदले में सरकार ने नेहरू-नेहरू वाला ऑल टाइम हिट जवाब दिया और साथ में कहा कि कांग्रेस को पता था कि हमला होने वाला है!!! इधर उनका ही राज्यपाल हमले के कई दिन पहले बाकायदा टेलीविजन पर कहता है कि हमला हो सकता है!!! हमला होने वाला है यह किसको पता था? सरकार कहती है कि कांग्रेस को पता था। उधर सरकार का ही बड़ा आदमी कहता है कि हमें, यानी सरकार को पता था। दरअसल, मूल सवालों के अनाप-शनाप जवाब देना हर सत्ता का काम हो चुका है। पहले की सरकार हो या वर्तमान सरकार हो, सारे ऐसे ही अनाप-शनाप जवाब देकर सवालों को कुचल देते हैं। लेकिन आगे सोचना चाहिए कि वो ऐसा क्यों कर पाते हैं? इस सवाल का अंतिम जवाब अंधभक्ति वाला गैंग ही होगा।

लठैतों का तो क्या है। कुछ दिनों तक कहेंगे कि नेताओं के काफिले में कुत्ता भी घुस नहीं सकता, सेना के जवानों के काफिले में इतनी बड़ी कार इतना सारा विस्फोटक लेकर कैसे घुस गई। लठैतों के सवाल अच्छे हैं, लेकिन नियत देशभक्ति से ज्यादा दलभक्ति की है। भाजपा और भाजपा विरोधी, तमाम लठैतों से पूछना चाहता हूं कि आपके पसंदीदा दलों ने चुनाव प्रचार के लिए सैकड़ों हेलीकॉप्टर बुक करवा के रखे हैं, आपने कौन सा विरोध किया है अब तक? तमाम दलों के नसीब में यह चीज़ हुई है। उनके नेता के हेलीकॉप्टर में खामियां आई है, क्रैश हुए हैं। उसके बाद इन तमाम ने आनन-फानन में नये हेलीकॉप्टर खरीद लिए थे। आप लठैतों ने कौन सी जागरूकता दिखाई थी उस वक्त? उधर एनएसजी पिछले 15-17 सालों से एक हवाई जहाज मांग रही है, अब तक पुरी नहीं हुई उनकी मांग। अनाप-शनाप मुद्दों पर मीडिया चलता है, क्योंकि इसी मुद्दों पर लठैत भी कूदा करते हैं।

सेना को छूट दे दी गई है... सेना को पहले से ही छूट थी तो फिर क्या छूट की दुकान खोलकर रखी है? जब मर्जी हो बांट दिया जाए
सेना को छूट दे दी गई है। ये वाला संवाद देश ने अनेकों बार सुना है। मनमोहन भी सुनाते थे, मोदी भी सुना रहे हैं। मनमोहन की माने तो उन्होंने ऐसी खूली छूट बहुत बार दी थी, मोदी भी ऐसी खुली छूट तीन-चार बार दे चुके थे, पिछले तीन-चार साल में!!! इस बार इन्होंने तीन रैलियां की और तीन दिनों में तीन बार खूली छूट दे दी!!! हम गधों को समझना चाहिए कि सेना को ओरल स्पीच देकर खुली छूट देना, इसका कोई तुक है ही नहीं।

एक प्रसंग था। आजादी के बाद का। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल भारतीय नौसेना के जहाज से होते हुए कहीं जा रहे थे। उन्हें दूर से वो इलाका दिखता है, जो उस समय भारत के नियंत्रण में नहीं था। सरदार पटेल जहाज के कप्तान से पूछते हैं कि क्या हमारे पास जहाज में इतना गोला-बारूद भरा है कि हम वहां हमला कर पाए। कप्तान कहता है कि जी, मुमकिन है यह। पटेल कहते हैं कि तो मैं तुम्हें आदेश देता हूं कि हमला कर दो। कप्तान थोड़ी देर बाद सोचकर कहता है कि हमें इसके लिखित आदेश चाहिए। पटेल थोड़ा हंसते हैं और कहते हैं कि ठीक है, हम तयशुदा जगह पर आगे चलते हैं। इस प्रसंग का मूल समझे। इसमें पटेल या जहाज का कप्तान, इन दोनों के बीच संवाद का मतलब समझे। इसमें किसीने एक दूसरे से सवाल नहीं पूछे थे। किसीकी भावना भी गलत नहीं थी। लेकिन युद्ध और युद्ध की चाहत, इन दोनों का अंतर था।

अब इसी प्रसंग को खुली छूट देता हूं वाले संवाद से जोड़कर देखे। ये सारी राजनीतिक बातें हैं, भाषण हैं। बिल्कुल वैसा, जैसा आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुआ था। अब आप कहेंगे कि इसमें आधार कहा से आया। लेकिन प्रक्रिया को समझने के लिए समझ लीजिए एक बार इसे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बैंक खाते और मोबाइल सिम कार्ड के लिए आधार अनिवार्य नहीं होगा, इसके लिए उपभोक्ता पर बैंक या मोबाइल कंपनियां दबाव नहीं डालेगी, वर्ना जुर्माना भरना पड़ेगा। इसके एक सप्ताह बाद भी लोगों को बैंकों या सिम कार्ड के लिए आधार नंबर देना पड़ रहा था। बैंक वाले जवाब दे रहे थे कि आदेश है, लेकिन हमें आरबीआई से कोई लिखित सर्कुलर नहीं आया है!!! (वैसे इस सुप्रीम आदेश के बाद आज भी लोग इसी जंजाल में फंसे हैं) इसको युद्ध के साथ रखा नहीं जा सकता। क्योंकि पता है कि युद्ध में कई चीजें ओरल भी होती है। लिखित नहीं। लेकिन कम से कम कई विभागों से, राष्ट्रपति के कार्यालय से कुछ कागजातों को गुजरना ही पड़ता है। युद्ध की घोषणा होने के बाद यह प्रक्रिया उतनी नहीं होती, लेकिन कुछ चीजों में तो अक्सर होती है। युद्ध एक अलग व्याख्या है। आप कुछ उदाहरण ले आएंगे कि उन चीज़ों में ओरल आदेश ही हुआ था सब। लेकिन युद्ध करना और हमला होने के बाद की परिस्थिति, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। पीएम कहे कि मैंने सेना को खूली छूट दी है, तो इसके मतलब क्या है इस पर भी लंबा-चौड़ा जंजाल है। किस बात की खूली छूट दी है यह पहला सवाल है। हमारी सरहदों के अंदर तो सेना को ऐसी परिस्थितियों में छूट होती ही है (चीन मामले में फिलहाल जो स्थिति है उसे छोड़कर)। लेकिन यह खूली छूट है क्या ये किसीको पता नहीं है। हमला हुआ उससे पहले से सेना को खुली छूट तो थी ही। यह दावा मैं नहीं करता, सरकार के नेताओं ने ही भाषणो में किए है। ऑपरेशन ऑल आउट से लेकर कई सारी फौजी चीजें चल रही थी वहां। कई सारे ऐसे बयान हैं, सैकड़ों बयान हैं, जिसमें सेना को खुली छूट जैसी चीजें अखबारों में चमकती थी। फिर यह खूली छूट क्या है ये सवाल तो तैरेगा ही।

अगर कोई यह कहना चाहता है कि इसको सार्वजनिक नहीं किया जा सकता तो फिर मूल बात पीएम ने ही क्यों सार्वजनिक कर दी थी? इसके लिए वॉर प्रेजेंटेशन वाला लेख ज़रूर पढ़ ले, जिसका लिंक ऊपर दिया है। फिर आगे बढ़े। हम कब जवाब देंगे और कैसे देंगे यह चीज़ सार्वजनिक नहीं हो सकती तो फिर जवाब देंगे ये सार्वजनिक करने का दिवालियापन क्यों? वॉर प्रेजेंटेशन वाले लेख में इसे लेकर हमने विस्तृत चर्चा की थी और देखा था कि भाजपा हो या कांग्रेस हो या कोई और हो, युद्ध या युद्धोन्माद को यूं रैलियों में या भाषणों में इस्तेमाल करना, इसे लेकर हमने पहले ही चर्चा कर ली है। लिहाजा दोबारा उसे ही पढ़ ले।

सारा देश और भाजपाई नेता कह रहे हैं कि चुनाव रोक दो, पहले पाकिस्तान को ठोक दो... लेकिन एक ही आदमी था उन दिनों, जो रैलियों पे रैलियां किए जा रहा था, पीएम से संपर्क हो नहीं पाया ये बात मजाकिया नहीं बल्कि गटरछाप तर्क है
चुनाव रोक दो, पहले पाकिस्तान को ठोक दो...। यह लाइन जो सोशल मीडिया पर चल रही थी उन दिनों, जिसे गुजरात के एक भाजपाई नेता ने भी भाषण में इस्तेमाल कर लिया था, देखा जाए तो लाजमी था। हर ऐसी घटनाओं के समय भावनाओं का उफान आना स्वाभाविक है। ज़रूरी भी है। खून ना उबले तो वो खून किस काम का। मैं इन चीजों को गलत नहीं मानता। गलत तो इसे मानता हूं कि यह उफान कुछ दिनों में हवा हो जाता है!!! समस्या ना हो तब समस्या के बारे में सोचा नहीं जाता!!! और हमारे यहां यही बड़ी समस्या है।

चुनाव रोक दो, पहले पाकिस्तान को ठोक दो। नागरिकी भावना बिल्कुल गलत नहीं है और होनी भी चाहिए। उधर यह भी सच है कि सेना ऐसे काम नहीं करती जैसे कोई बॉक्सिंग मैच हो। उसने मुक्का मारा तो सामने हम भी मार ले। यह कोई गेम नहीं है। यह सरहद है, यह सेना है। मुक्का तो मारा ही जाएगा, लेकिन वक्त और मौके के हिसाब से।

लेकिन उन दिनों चुनाव रोक दो पहले पाकिस्तान को ठोक दो, यह देश की भावना थी। उधर पीएम मोदी थे कि रैलियां निपटाने में बिजी थे!!! भाजपा ने कहा है कि पीएम मोदी ने उस दिन इसको इतने फोन किए थे, ये किया था, वो किया था। वो तो हर पीएम करेगा ही, इसमें कोई प्रभावित करनेवाली शैली तो दिखती नहीं। जिस दिन हमला हुआ उस दिन, नोट करे कि हमला होने के बाद, पीएम मोदी, योगी आदित्यनाथ और अमित शाह, इन तीनों के भाषण हुए थे!!! तीनों ने रैलियां की थी!!! देश में तमाम जगहों से पहले से तय कार्यक्रम रद्द हो रहे थे, लेकिन ये तीनों कार्यक्रम में बिजी थे!!! यह सब इसके बाद भी रूका नहीं। शहीदों के शव उनके घर पहुंचे, उन्हें अंतिम बिदाई दी जाए उससे पहले तो पीएम, अमित शाह आदि ने दूसरी तीन-चार रैलियां निपटा दी थी!!! देश शोक में डूबा था। कई जगहों पर लोग शादियां रूकवा रहे थे या शादियां सादगी से करने का कार्यक्रम कर रहे थे, कई जगहों पर दूसरे कार्यक्रम रद्द कर दिए गए। लेकिन ऐसे शोक के समय में भी पीएम मोदी राजनीतिक कार्यक्रम तथा सरकारी कार्यक्रमों में अपने लिए वोट मांग रहे थे!!!

पुलवामा हमला, पिछले दो दशक का सबसे बड़ा हमला। समूचा देश सुन्न था। गम में था। सभी अपने अपने कार्यक्रम रद्द कर रहे थे। दिनों तक शांतिपूर्ण जुलूस निकले। लेकिन जिस दिन पुलवामा हमला हुआ, 40 के करीब जवान शहीद हुए, उसी रात 9 बजे के आसपास मनोज तिवारी एक कार्यक्रम में डांस कर रहे थे!!! डांस करके श्रद्धांजलि देना, इसे हमारे गुजरात में गेलसप्पाई कहते हैं। अमित शाह कर्नाटक में सभा कर रहे थे!!! इनके ट्वीट भी हैं। नरेन्द्र मोदी तो शहीदों के शव घर पर पहुंचे इससे पहले चार चुनावी रैलियां कर चुके थे!!! दो कार्यक्रम में शिरक्त कर चुके थे!!! इतना ही नहीं, भारत के एरियल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान ने भी जवाबी हमला किया, लेकिन फिर भी गृहमंत्री और प्रधानमंत्री चुनावी कार्यक्रमों में व्यस्त थे!!! जिनकी जिम्मेदारी है उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या? फोन करना ही इनकी जिम्मेदारी है?  

राजनीति नहीं करनी है वाली नसीहत देश की सड़कों पर दौड़ रही थी और उधर पीएम मोदी सरकारी कार्यक्रमों में युद्ध के भाषण दे रहे थे!!! राजनीतिक कार्यक्रमों में रैलियां करके भाषण झाड़ रहे थे!!! शहीदों के फोटो पीछे बैनर पर लगे है और देशभावना नामक हथियार का इस्तेमाल चुनावी राजनीति में खुल्लम-खुल्ला हो रहा है। क्या पीएम को राजनीति करनी है, दूसरों को नहीं करनी? यह देशभक्ति है या फिर दिवालियापन? झांसी में दिया गया पीएम मोदी का भाषण सुने। क्या उन्हें राजनीति करने की छूट है? सेना को खुली छूट है यह एलान वो मैदानी भाषणों में कर रहे हैं। किसी मैदान से ऐसी घोषणा करने का मतलब और मकसद, इन दोनों पर हम वॉर प्रेजेंटेशन वाले आर्टिकल में लिख चुके हैं। कुल मिलाकर सेना को छूट हो या ना हो, पीएम को राजनीति करने की छूट तो थी ही!!!

कांग्रेस ने डिस्कवरी चैनल और पीएम मोदी के शूटिंग का जो दावा किया है उसकी बात हम कर ही नहीं रहे। क्योंकि जो प्रमाणित नहीं है उसकी चर्चा हम छोड़ ही देते है। हम वही बात करते हैं जो हुआ था। रैलियां होती रही, भाषण होते रहे, उद्घाटन होते रहे। यह सब प्रमाणित मंजर थे। कांग्रेस का जो आरोप है उसको डस्टबिन में डाल देते है। लेकिन स्वयं सरकार ने कहा कि पीएम को हमले की सूचना देर से मिली थी!!! मौसम खराब था वाला बयान भी आया। मौसम खराब होने के बावजूद मोबाइल से उन्होंने हमले के बाद भी रैली को संबोधित किया था!!! उसमें पुलवामा हमले का कोई ज़िक्र नहीं था। हमले के घंटों बाद इन्होंने रेली को मोबाइल फोन से संबोधित किया, जिसमें अपनी उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार किया!!! यह कोई सामान्य सी बात नहीं है कि इतना बड़ा हमला हो जाए और उसके दो घंटे बाद पीएम खराब मौसम के बाद भी मोबाइल वाली चुनावी रैली करे!!! देश के पीएम को देरी से सूचना मिलना सामान्य सी बात मानकर नजरअंदाज क्यों किया जाए? सोचिए, खराब मौसम के बाद भी जमीन-आसमान एक करके मोबाइल फोन से रैली को संबोधित किया जाता है, लेकिन नायक को हमले की खबर खराब मौसम के चलते देरी से मिलती है!!! पुलवामा हमला पिछले दो-तीन दशक का सबसे बड़ा हमला था। इतने बड़े हमले के बाद भी सरकार खुद कहती है कि देश के पीएम को देर से सूचना मिली। एक तरीके से कहा जाए तो इतने बड़े हमले का देश के पीएम को पता तक नहीं था!!! कितने मिनटों तक इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। वैसे तो मीडिया में पीएम के सुरक्षा तंत्र और सूचना तंत्र को लेकर जबरदस्त डिजिटल श्रृंगार वाले कार्यक्रम चलते हैं। कहा जाता है कि सेकेंड के सौवें हिस्से में पीएम का तंत्र ये कर सकता है, वो कर सकता है। लेकिन यह कैसा तंत्र था कि पीएम को पिछले 20-30 सालों के सबसे बड़े हमले का पता ही नहीं था!!! डिजिटल इंडिया है या क्रिटिकल इंडिया। पीएम के काफिले के साथ संचार व्यवस्था को लेकर बहुत ही खास इंतज़ाम होते हैं। यह बिल्कुल बचपना वाली दलील तो नहीं बल्कि गटरछाप दलील है कि पीएम को देरी से सूचना मिली।

जब देश पर कोई मुसीबत आती है तो पुलिस की छुट्टियां रद्द हो सकती हैं, सेना के जवानों की छुट्टियां रद्द हो सकती हैं, लेकिन इनकी रैलियां रद्द नहीं हो सकती! देश सरकार से साथ खड़ा है, लेकिन सरकार कहां खड़ी है? वो तो चुनावी रैलियों में घूम रही है! सर्वदलीय बैठक बुलाई थी सरकार ने। सारे आए, लेकिन उसी सरकार का मुखिया नहीं आया!!! वो तो कहीं पर भाषण दे रहा था!!! यह बात सामान्य सी तो है नहीं। याद रखिए कि मुंबई हमला हुआ तब सरकार से पहले सीएम मोदी पहुंचे थे!!लेकिन पुलवामा हमला हुआ तो सरकार ने ही कहा कि पीएम मोदी को इसकी सूचना ही नहीं थी!!! उधर वंदे मातरम एक्सप्रेस रूक गई, लेकिन पीएम नहीं रूके!!! एक के बाद एक, धनाधन रैलियां चलती रही!!! शहीदों के ताबूत उनके घर भी नहीं पहुंचे थे और पीएम ने चार रैलियां भी निपटा दी थी!!! शहीदों के अग्निसंस्कार हो उससे पहले तो भाजपा ने दो गठबंधन का काम भी निपटा दिया, उधर कांग्रेस ने भी एक गठबंधन का काम खत्म कर लिया था!!! चिता ठंड़ी हो उससे पहले तो उस पाकिस्तान को 20 अरब डोलर की मदद करनेवाले प्रिंस को गले लगाकर मिल लिया, उससे कुछ प्रकार के समझौते भी कर लिए!!!

हम लोग अपने अपने हिस्से की देशभक्ति बांटने में लगे थे, उधर इन्होंने अपनी अपनी सींटे बांट ली। सभी अपने अपने हिस्से की देशभक्ति बांट रहे थे, उधर आरबीआई ने सरकार को हजारों करोड़ बांट दिए। हर आतंकी हमले के बाद एक ही नसीहत... इस पर राजनीति ना करें। क्योंकि इस पर राजनीति करने का एकाधिकार 'किसीका' है, जो सुरक्षित है।

सैनिक या अर्धसैनिक बलों के पेंशन को लेकर वाजपेयी सरकार को कोसा गया, लेकिन फिर कांग्रेस की सरकार दो बार आई, मोदी सरकार भी आई, इन्होंने उस मसले पर कुछ नहीं किया, तो क्या सारे गलत नहीं है?
हम नागरिकों की यह आदत बड़ी गज़ब की है। भूचाल से सावधान रहने की बातें हम तभी करते हैं जब भूचाल आ जाता है। कुछ दिनों बाद हम उस पर बात नहीं करते!!! हमारी यह आदत हर मसलों पर ऐसी ही है। सैन्य और अर्धसैन्य बल, इस व्याख्या और उसके साथ जुड़ी समस्याओं पर हम तभी बोलते हैं जब इन बलों के साथ कुछ दुखद घटित हो जाए। लंबी-चौड़ी चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है। एकदम तरोताज़ा इतिहास ही देख लीजिए। पुलवामा हमले के बाद ही हमने सैन्य बल - अर्धसैन्य बल - पेंशन - शहीद - मांगें - ज़रूरतें - काफिले के नियम... आदि आदि पर चर्चा की। कुछ ही दिन गुजरे हैं। अभी हम क्या कर रहे हैं? हम भूल चुके हैं उन मसलों को।

एक सीधा सवाल है। क्या भाजपा का अध्यक्ष कोई कांग्रेसी हो सकता है? जवाब आपको और मुझे पता है। तो फिर सीआरपीएफ और बीएसफ का नेतृत्व कोई आईपीएस कैसे करता है? दूसरी बात, कई गड़बड़झाले करके, कई गुनाह और कई संपत्तियां छुपाकर एक दागदार आदमी चुनाव लड़ता है, फिर जीतने के बाद अपने गड़बड़झालो में इज़ाफ़ा करता है, गुनाह बढ़ाता है, संपत्ति ज्यादा कमाता है। फिर उसे पेंशन मिलता है। पता नहीं उसने देश के लिए क्या किया कि उसे लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दे दिया जाता है! लेकिन सैन्य बलों और अर्धसैन्य बलों को पेंशन तो ठीक है, ठीक से खाना भी नहीं दे पाते है हम। ऊपर से वो खाने को लेकर शिकायतें करे तो उसके साथ क्या क्या होता है यह तो हमें पता होना ही चाहिए। कमाल की देशभक्ति है यह! कहते हैं कि सेना हमारी जान है, लेकिन उसी सेना से कोई खाने की शिकायतें करता है तो एक लठैत मोदी के साथ खड़ा हो जाता है और दूसरा राहुल गांधी के साथ!!! सेना के जवान के साथ खड़े होने का नाटक करके वो लठैतपन कर लेता है।

सांसद और विधायक, इन दोनों का भूतकाल, वर्तमानकाल... दोनों काल कितने काले हैं हम सबको पता है। हमारे देश में जितने सांसद और विधायक हैं, उनमें से बहुत बहुत बहुत ही ज्यादा तादाद में ऐसे नेता भरे पड़े हैं जिनका भूतकाल और वर्तमानकाल दोनों काले से काले हैं। इनको पेंशन मिलता है, लेकिन सेना के जवानों को नहीं। इसे लेकर चर्चा तब ही होती है जब पुलवामा जैसी दुखद घटनाएँ हो। आज ये चर्चा कोई नहीं करता। आज सब अपने अपने नेता के गुणगान में बिजी है। उन नेताओं के गुणगान में, जिनका सब कुछ काला ही है!!! उनको सफेद करने में सारे जुटे हैं। जवानों के पेंशन की चिंता का नाटक समाप्त हो चुका है।

वाजपेयी सरकार ने उनका पेंशन समाप्त किया था। पुलवामा हमले के बाद मोदी सरकार के विरोधी इसी चीज़ को लेकर हल्ला मचा रहे थे। कायदे से देखा जाए तो उनका हल्ला सच ही तो था। जितने मोदी समर्थक हैं, जो सेना के साथ खड़े थे, अगर वो सेना के साथ खड़े होते तो पेंशन बंद को लेकर उन्हें बोलना चाहिए था। लेकिन वो बोले नहीं। उधर मोदी विरोधियों के लिए भी सवाल है। सवाल यह कि ठीक हे कि वाजपेयी सरकार ने बंद कर दिया था उनका पेंशन, लेकिन उसके बाद एक बार नहीं किंतु दो-दो बार कांग्रेस शासित मनमोहन सरकार सत्ता पर थी। 10 सालों में उन्होंने पेंशन को दोबारा क्यों नहीं चालु किया? इसे लेकर मोदी विरोधी चुप थे। आगे कहानी और भी है। उसके बाद पिछले पांच सालों से मोदी सरकार सत्ता पर है। उन्होंने भी यह नहीं किया। कुल मिलाकर, सारे के सारे जवानों के पेंशन को लेकर आवाज उठाने की नौटंकी ही तो कर रहे हैं।

इमरान खान और नवजोत सिंह सिद्धू – उन दिनों दो ही लोग ऐसे थे जो कह रहे थे कि पुलवामा हमले में पाकिस्तान को दोषी ठहराया नहीं जा सकता... क्यों न सभी अपनी अपनी पार्टी के ऐसे नेताओं के खिलाफ ट्विटर पर ट्रेंड चला दे
नवजोत सिंह सिद्धू का पुलवामा हमले के बाद का बयान वाकई आपत्तिजनक बयान था इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि कुछेक लोगों के कारनामों की वजह से सभी पर सवाल उठाए नहीं जा सकते!!! सभी ने सच ही कहा कि इमरान खान से इनकी दोस्ती भारत के प्रति अपने उत्तरदायित्व से बड़ी हो चुकी है शायद। महाशय ने दोबारा कह दिया था कि वो अपने स्टैंड (बयान) पर कायम है। सिद्धू से पूछना चाहिए था कि कुछेक लोगों के कारनामों की वजह सभी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता तो फिर अपनी कांग्रेस पार्टी के नेताओं से कह दो कि भाजपा पर सवाल ना उठाए। क्योंकि वहां पर भी सारे बुरे नहीं है। कुछ अच्छे भी है। अगर कुछेक लोगों की वजह से सभी को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता तो फिर अपने हर भाषण में भाजपा पर नहीं बल्कि सिर्फ उस नेता पर उंगली उठाए और भाजपा को सार्वजनिक रूप से क्लीन चिट दे दें। जब वो भाजपा में थे तब भी उन्हें कांग्रेस के प्रति ऐसा ही करना चाहिए था, यदि उन्हें अपना स्टैंड इतना ही सही लगता है तो।

वैसे अकेले सिद्धू को कोसने का क्या मतलब रह जाता है? खास करके तब कि जब स्वयं भाजपाई नेता भी सेना के बारे में पहले आपत्तिजनक बयान दे चुके हो। अमित शाह ने कहा था कि हम सेना से भी ज्यादा जोख़िमभरा काम करते हैं। एक और भाजपाई नेता ने कहा था कि सेना में लोग मरने के लिए ही तो आते हैं। मनोहर पर्रिकर ने तो हदे पार करते हुए कह दिया था कि सेना का कारनामा आरएसएस की ट्रेनिंग का नतीजा है!!! योगी आदित्यनाथ का 12 मई 2017 का देवरिया दौरा, जहां वो शहीद हुए जवान के घर पहुंचे थे, काफी विवादों में घिरा हुआ दौरा बना था। योगी के पहुंचने से पहले शहीद के घर सोफा और एसी लगाए गए, योगी के निकलने के बाद निकलवाया गया!!! योगी आदित्यनाथ ने इसी साल जुलाई 2017 में भी यही बेशर्मी दोहराई थी। 8 जुलाई 2017 के दिन आदित्यनाथ शहीद साहब शुक्ला के घर पहुंचे थे। लाल कालीन बिछा दी गई थी, भगवा रंग के महंगे सोफा लगा दिए गए थे। विवाद तो होना ही था। शहीदीं को सम्मान देना है इन्हें, लेकिन फाइव स्टार तरीके से!!! 

1 दिसम्बर 2017 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रुपाणी की रैली में शहीद की बेटी को घसीटकर बाहर निकाल दिया गया था। मामले ने तूल पकड़ा तो बेटी के लिए सरकार ने घोषणाएँ कर दी!!! एक और घटना थी। छत्तीसगढ़ के बीजपुर में नक्सलियों के साथ मुठभेड़ में भदोही जिले के बैरा गांव निवासी एसटीएफ जवान सुलभ उपाध्याय शहीद हो गए थे। भदोही के सांसद वीरेंद्र सिंह शहीद के शव के साथ फोटो खिंचवाने लगे। लोग भड़क गए और गो बैक के नारे लगने लगे थे। मोहन भागवत ने 11 फरवरी 2018 कुछ अति उत्साह में कह दिया था कि सेना को तैयार होने में छह-सात महीने लग जाते हैं, मेरे स्वयंसेवक तीन दिन में तैयार हो जाएंगे!!! ऐसा घटिया बयान देंगे तो फिर संघ के लोगों के ऊपर यही कंमेट आएगी कि भाई, सेना बाद में भेजना, ये लोग जल्दी तैयार हो जाते हैं इन्हें ही पैराशूट से बांधकर पाकिस्तान में फेंक दो।

पुलवामा के बाद ही भाजपा के बड़े बड़े नेताओं की जूते पहनकर शोक प्रक्ट करनेवाली तस्वीरें हंगामा मचा चुकी है। ठहाके लगाते हुए भाजपाई मंत्री सत्यपाल सिंह का सबको पता चल चुका है। भाजपा के अलावा दूसरे लोग भी सेना, शहीदी, शहीदों की अंतिमयात्रा, सभी मौकों पर आपत्तिजनक बयान दे चुके हैं। कभी जूते पहनकर शहीदों को अंतिम सलामी देना, कभी कुछ और। कांग्रेस के ही नेता थे, जिन्होंने 26-11 के बाद संदीप उन्नीकृष्णन ने घर पर विवादित काम कर दिया। नेताजी के पहुंचने से पहले सुरक्षा के नाम पर कुत्ते पहुंच गए, सुरक्षा चाकचौबंद करने के नाम पर। शहीद के परिजनों ने बाकायदा मीडिया के सामने नेताजी को झाड़ दिया तो उन्होंने बाद में कह दिया कि अगर उनका बेटा शहीद न हुआ होता तो कुत्ता भी घर सूंधने नहीं जाता। आजम खान का बेहद ही घिनौना बयान सभी को याद होगा। लेकिन आजम खान पर किसी राजनीतिक दल ने कोई शिकायत नहीं की है अब तक!!! उल्टा आजम खान के साथ तमाम दलों ने खाना ज़रूर खाया होगा, और खाते रहेंगे।

पुलवामा हमले के बाद रुड़की में शहीदों को श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम आयोजित हुआ, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेता वीरेन्द्र रावत पर जमकर नोट उड़े!!! बताइए, एक तरफ देश में शहीदों के लिए फंड एकत्र किया जा रहा था, इधर कांग्रेसी नेता पर उनके समर्थक नोट उड़ा रहे थे, वो भी शहीद वंदना कार्यक्रम में!!! बिहार की नीतीश सरकार के मंत्री भीम सिंह का बयान – पुलिस और सेना में लोग शहीद होने के लिए ही आते हैं, शहीदों के अंतिम संस्कार के बारे में ऐसा खास क्यां हो गया है। राजस्थान की वसुंधरा सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री कालीचरण सराफ – मुख्यमंत्री के पास कई काम हैं, वो फ्री नहीं है इसलिए अंतिम संस्कार में नहीं आए, मुझे भेज दिया। 1 जनवरी 2018 को सांसद नेपाल सिंह – सेना में लोग तो मरेंगे ही, गांव में झगड़ा होता है तब भी लोग मरते हैं। 10 जनवरी 2018 केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी – नौसेना हमेशा विकास कार्यों को रोकते आयी है। आजम खान और ओवैशी, जिनकी जुबान ही काली है, सेना को लेकर ऐसी टिप्पणियां कर चुके हैं जिसे यहां लिखा नहीं जा सकता। लेकिन इनके साथ सभी दलों के लोग चाय-नास्ता तो कर ही लेते हैं। कभी गठबंधन भी कर लेंगे।

कहने का मतलब यह है कि अपनी अपनी सरकारों को बचाने के लिए लठैत सेना मैदान में उतर जाती है। जबकि सारे के सारे हदें पार कर ही चुके हैं। कुछ लोग कहेंगे कि सिद्धू ने बयान दिया तो सिद्धू की बात होनी चाहिए, दूसरों की क्यों? अबे गधों... तुम सेना के साथ खड़े हो या अपनी अपनी सरकारों के साथ? अगर सच में सेना के साथ खड़े हो तो ट्विटर-फेसबुक या वाट्सएप पर आंदोलन चलाओ और अपनी मनपसंद पार्टी के ऐसे नेताओं को, जिन्होंने सेना को लेकर हदें पार की हैं, सभी को बाहर का रास्ता दिखा दो।

राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, अरविंद केजरीवाल सभी को सेना के साथ खड़ा होना ही है तो सबसे पहले अपने अपने ऐसे बागड़ बिल्लों को हमेशा के लिए फेंक दो बाहर। रही बात नवजोत सिंह सिद्धू की, कांग्रेसियों... आपके सिद्धू और पाकिस्तान के इमरान खान, यह दोनों ही ऐसे थे जो उन दिनों कह रहे थे कि पुलवामा हमले में पाकिस्तान को दोषी ठहराया नहीं जा सकता!!! क्या किए है अब तक आप इस पर? उल्टा शहीद वंदना कार्यक्रम में अपने ही नेता पर नोटों की बरसात ज़रूर कर दी थी!!!  

समापन
सैन्य बल हो या फिर अर्धसैन्य बल... वो नेता नहीं है कि बोलकर कुछ करेंगे। वो तो करेंगे ही। वो नेता नहीं है कि नहीं करेंगे। वो अपना काम करेंगे। बदला लेंगे वाली घोषणा नहीं करेंगे, बल्कि अपने तरीके से बदला ले भी लेंगे। वो तो हमेशा अपना काम ठीक तरह से करते आए हैं, और करेंगे ही। हां, यह सैन्य कार्रवाई है, कोई फास्ट फूड नहीं है। सेना पलट वार तो करेगी ही। लेकिन यह चर्चा बेईमानी है कि हमारी सरकार ने ये किया, उसकी सरकार ने वो किया। अबे लठैतों... आपकी सरकारों ने कुछ किया होता तो पाकिस्तान ही नहीं होता।

एक दूसरी बात भी कर लेते हैं। बॉलीवुड अदाकारा श्रीदेवी ने पारदर्शक वस्त्र धारण करके कहा था कि काटे नहीं कटते दिन और रात, कहनी थी जो दिल की बात... कथित रूप से अधिक मात्रा में शराब का सेवन करने वाली उस अदाकारा की मौत हो गई, फिर राष्ट्रीय शोक की घोषणा हुई!!! पता नहीं श्रीदेवीजी, शशि कपूरजी आदि ने देश के लिए कौन सा तीर मारा था कि तिरंगे में उनका शव लपेटा गया, राजकीय सम्मान मिला!!! क्या पता आज जो भ्रष्टाचार में लिप्त है उनके नसीब में भी तिरंगा हो।

जिन्हें इधर-उधर के कुतर्क करने की आदत है इन्हें डाल दो गटर में। हमने इस संस्करण का नाम ही यही दिया है कि – समस्या ना ही सरहद पर है, ना ही दिल्ली की सरकारों में है, समस्या अंधभक्ति में है। कांग्रेस का जमाना हो, भाजपा का हो या कोई और जमाना हो। एक सीन कन्फर्म है। पाकिस्तान को टीवी पर मुंहतोड़ जवाब देने का कार्य शुरू हो जाएगा। सोशल मीडिया पर ईंट से ईंट बजा दी जाएगी। नेता चुनावी रैलियों में फिल्मी हीरो की तरह संवाद बोलकर मामला संभालने की कोशिशों में लग जाएंगे।

दरअसल हमारे यहां ऐसे हर हमलों के बाद सोशल मीडिया हो, प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, हर जगह भावना के नाम पर देशभक्ति से ज्यादा दलभक्ति हावी रहती है यह एक दुखद सच है। हर जगह से ललकार उठती है। लेकिन इस ललकार में जवानों और देश की चिंता कम होती है, कुंठा ज्यादा होती है। गम ज़रूर होता है, भावनाएँ ज़रूर आहत होती हैं। लेकिन सीजनेबल होती है यह सारी चीजें। अगर सीजनेबल ना होती तो सामान्य दिनों में लोग उन चीजों पर चर्चा कर रहे होते जिन पर उन दिनों में होती रहती है। बिना गूगल सर्च किए पुलवामा हमले में मारे गए तीन शहीदों के नाम बताएं। पठानकोट, उरी या सुकमा हमलों में शहीद हुए जवानों के नाम ही बता दीजिए। क्या हुआ? भूल गए न?
(इंडिया इनसाइड, फरवरी 2019, एम वाला)