पार्ट 2...
कोरोना सरकार के हत्थे चढ़ा है! पता नहीं उसको कि यहाँ उसे कचहरियों के कागजों में ही निपटा दिया जाएगा। सरकारी
आँकड़ों में दिखेगा तब जाकर पता चलेगा न भविष्य में। कोरोना को अपने संक्रमण पर घमंड
होगा, किंतु उसे पता नहीं कि सरकारी कागजों की ताक़त और आँकड़ों का
खेल उसे भी संक्रमित कर देगा।
सबसे पहले हम पार्ट 1 को संक्षेप में देख लेते हैं।
सीधी सी बात यह कि ऐसी महामारियों के दौरान
कोई भी विकासशील देश हो, उसके पास सही और सटीक आँकड़े हो यह तत्काल मुमकिन नहीं है। भारत
जैसे विकासशील देशों के साथ ऊपर वाली जो समस्या है उसके साथ जुड़ी हुई दूसरी समस्या
है सरकारों की शैली। पुराने पन्ने पलट लीजिए हमारे देश के, प्राकृतिक आपदाएँ हो, मानव सर्जित विपदाएँ हो, अचानक से हो जाने वाली व्यापक स्तर की दुर्धटनाएँ हो, नवजात शिशुओं की मौतों के सालाना मामले हो, कुछ भी हो, हमारे यहाँ आँकड़े रहस्यमयी ही होते हैं!!!
एक सच यह भी है कि तत्कालीन मोदी सरकार दूसरी सरकारों से किसी प्रकार से अलग नहीं है।
यूं कह लीजिए कि वह पूर्व सरकारों से भी ज्यादा ढीठ है! डाटा को लेकर यह सरकार जितने
विवाद उत्पन्न कर चुकी है,
पिछले सालों में इसके ऐसे उदाहरण नहीं मिलेंगे
आपको।
आँकड़े कम करके दिखाना तो दूसरी बात है। पहली
बात यह कि जब आपके पास सही में सही आँकड़ा नहीं होगा तब आप खुद को ज्यादा जोखिम की
तरफ ले जाएँगे। गरीब बस्तियों में लोग अपनी जीवन शैली के चलते कोरोना से सुरक्षित हैं
वाला तर्क कुछ हद तक सही है। किंतु वहाँ टेस्टिंग का क्या हाल है, ट्रेसिंग को लेकर क्या स्थिति है, यह रिसर्च भी ज़रूरी है। वायरस से कौन संक्रमित है, यह प्राथमिकता है।
डब्ल्यूएचओ ने साफ साफ कहा कि लॉकडाउन पर्याप्त
नहीं है, वह कोई उपाय नहीं है, ज्यादा से ज्यादा जाँच करें, संक्रमित लोगों को ढूंढे और इलाज करें। लॉकडाउन को लेकर डब्ल्यूएचओ
ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह कोई उपाय नहीं है। डब्ल्यूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अधानोम
ने कहा कि ऐसे मामलों को ढूँढना, अलग-थलग करना, जाँच करना और इसका निशान पता करना ही सबसे बढ़िया और सबसे तेज़
तरीक़ा है। न सिर्फ़ बेहद सामाजिक आर्थिक पाबंदियों से बचने के लिए, बल्कि इसे फैलने से रोकने के लिए भी।
बिना संपुर्ण टेस्टिंग किए यह कह देना कि वह
इलाका, वह शहर, वह सोसायटी, वह गाँव, कोरोना की चपेट से बचने में सफल हुआ, यह किस हद तक सही है? सबूत नहीं है तो रोग नहीं
है! सुपर वायरस वाली महामारी में यह दलील व्हाट्सएप विश्वविद्यालय का सिलेबस हो सकता
है, वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का नहीं। सबूत न हो, रोग तो है ही।
भारत और अमेरिका की सरकारों ने दुनिया को चौंका
दिया है। देखिए उन दिनों को,
जब भारत आधिकारिक रूप से अपनी क्षमता का 30 प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहा! उधर अमेरिका, जिसके पास उन दिनों 75 हज़ार रोजाना टेस्ट की
क्षमता थी, कर रहा था 3000 से 4000 के बीच!!! टेस्ट करने में भारत और अमेरीका, दोनों ने एक महीने का महत्वपूर्ण वक्त गंवा दिया। सज़ा आम लोग
भुगतेंगे। दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष चुनावी राजनीति और सत्ता के गलियारों में
बिजी रहे! डब्ल्यूएचओ अपना आख़िरी और सबसे बड़ा अलार्म बजा चुका था। दुनिया के अधिकतर
देशों में तैयारियां शुरू हो गई थी, बड़े बड़े कार्यक्रम रद्द
हो रहे थे। इधर अमेरिका और भारत के राष्ट्राध्यक्ष, लाखों लोगों की भीड़ इक्ठ्ठा कर अहमदाबाद में रैली कर रहे थे!!!
दुनिया भर से जो रिसर्च सामने आए, एक बात साफ कही गई कि यदि मृत्यु दर कम रखना है तो जाँच बड़े
पैमाने पर होनी चाहिए। रिसर्च यह भी चेतावनी देते हैं कि कोई इस मुगालते में ना रहे
ये यह वायरस इतने या उतने उम्र वालों को ही प्रभावित करेगा। इसीलिए जाँच का दायरा हर
स्तर पर होना चाहिए।
एक द्दश्य इन दिनों काफी आम हो चुका है। सरकार चाहे किसी भी राज्य की हो, कहती है कि कल 7 लोग मरें, किंतु श्मशान में 70 शव जलाए जा रहे होते हैं! तमाम राज्यों में स्वतंत्र
मीडिया, लोग या विपक्ष वाले वीडियो बनाते हैं। फिर सरकार कहती है कि
सच है कि 70 को जलाया गया, किंतु वे शव दो-तीन दिन
पुराने हैं! मारे गए लोगों का आँकड़ा और श्मशानों में जलाए जा रहे शवों का आँकड़ा मेल नहीं
खा रहा।
इसको लेकर कितने उदाहरण देंगे आप? अनेका अनेक मामले हैं। सैकड़ों उदाहरण हैं। 24 जुलाई 2020 की तारीख़ के आसपास का हैदराबाद के तेलंगाणा
का उदाहरण ही ले लीजिए। यहाँ 21 जुलाई को सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 7 लोगों की मौतें हुई थीं। किंतु ईएसआई के श्मशान में 30 से ज्यादा शव जलाए जा रहे थे। सरकार ने पल्ला झाड़ते हुए वही
रट्टा मार लिया कि दो से तीन दिन पुराने शव थें, मरीज़ों के शव को ट्रांसपोर्ट करने में मुश्किलें पेश आ रही हैं! अपने इस बयान में सरकार
ने माना था कि 50 शव जलाए गए थे उस दिन।
लेकिन आजकल सरकारें आँकड़ों से खेलते समय आँकड़ों का मैनेजमेंट ही ठीक से नहीं
कर पा रहीं। तेलंगाना के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक 17 जुलाई को 7, 18 जुलाई को 6, 19 जुलाई को 6, 20 जुलाई को 7 और 21 जुलाई को 7 लोगों की मौत कोरोना से
हुई थी। इन सबका टोटल कर लें तो आँकड़ा पहुंचता है 33 पर। सरकार के 50 वाले आँकड़े से दूर! लाजमी है कि वहाँ केवल एक ही श्मशान घाट नहीं होगा, दूसरे भी होंगे, जहाँ दूसरे शवों को जलाया
गया होगा। ऐसे में मरने वालों का आँकड़ा और शवों को जलाने का आँकड़ा, दोनों का अंतर और ज्यादा होगा। ऐसा भी नहीं है कि कोरोना का
इलाज तेलंगाना में केवल एक ही अस्पताल में हो रहा है। दूसरे अस्पतालों में भी हो रहा
है, और वहाँ के संभवित मृत्यु आँकड़ा बढ़ा देगा।
इसी महीने का गुजरात के राजकोट शहर का आधिकारिक डाटा देख लीजिए। राजकोट के सिविल
अस्पताल का डाटा बताता है कि यहाँ कोरोना के चलते 36 लोगों की मौतें हुई है। लेकिन म्यूनिसिपल कमिश्नर इससे उलटा बता रहे हैं। वे कह
रहे हैं कि शहर में 24 मौतें हुई हैं और उसमें भी कोरोना की वजह से 9 लोग ही मारे गए हैं।
राज्य कोई भी हो, उसकी सरकारें चाहे किसी भी दल की हो, तमाम जगहों पर आँकड़ों का खेल सरैआम चल रहा है। उधर भारत कोरोना
वायरस से होने वाली मौतों के लिहाज से दुनिया का तीसरा सबसे बुरी तरह से प्रभावित देश
बन गया है। इधर भारत सरकार कम मौतों के आँकड़े बताकर अपनी पीठ थपथपा रही है! कह रही है कि भारत में
दूसरे देशों के तुलना में मृत्यु दर काफी कम है।
किंतु भारत में कम मृत्यु दर की पूरी कहानी का चक्र कह रहा है कि कई राज्यों में
बड़े पैमाने पर मौतों की रिपोर्टिंग नहीं हो रही है! कई राज्यों में डबलूएचओ के दिशानिर्देशों के उलट संदेहास्पद
मामलों को गिना नहीं जा रहा है। कुछ राज्य कोविड 19 मरीजों में पहले से मौजूद बीमारियों को वजह बताकर मौतों को वायरस से होनी वाली
मौत नहीं मान रहे! स्वास्थ्य से जुड़े मामलों की पत्रकार प्रियंका पुल्ला की छानबीन के मुताबिक गुजरात
और तेलंगाना बड़े पैमाने पर मामलों को गिनती से बाहर करते दिखाई दे रहे हैं।
सबसे बड़ा खेल अब भी टेस्टिंग को लेकर ही है। जिस तरह से देश में बहुत ही कम आबादी
का टेस्ट हो रहा है, उस हिसाब से तस्वीर साफ आना नामुमकिन है। भारत में चार में से
एक मौत की वजह ही कागजों में दर्ज होती है।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के ऊमेन सी कुरियन कहते हैं, "निश्चित तौर पर मौतों की कम गिनती हो रही है क्योंकि हमारे यहां
एक कमजोर सर्विलांस सिस्टम है। लेकिन, सवाल यह है कि किस पैमाने
पर हम कम गिनती कर रहे हैं।"
यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के बायोस्टैटिस्टिक्स और एपीडेमियोलॉजी के प्रोफेसर भ्रमर
मुखर्जी कहते हैं, "यह पता लगाना मुश्किल है कि किस पैमाने पर मौतों की कम गिनती
हो रही है क्योंकि इसके कोई ऐतिहासिक आंकड़े नहीं हैं और इस अवधि में अतिरिक्त मौतों
की कोई गणना नहीं है।"
मौतों की कम गिनती केवल भारत तक सीमित नहीं है। जुलाई में 28 देशों के मौत के आंकड़ों से पता चला कि कोविड-19 से मरने वालों के दर्ज़ आंकड़े के मुकाबले कम से कम 1,61,000 ज्यादा लोगों की मौत कोरोना वायरस के दौर में हुई है। भारत
इस सर्वे में शामिल नहीं था।
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरोंटो के प्रभाष झा कहते हैं कि ज्यादा आमदनी और अच्छे मेडिकल
सर्टिफिकेशन वाले देशों तक में विश्लेषणों से पता चलता है कि रोजाना मरने वालों की
संख्या को 30-60 फीसदी तक कम गिना जा रहा है। झा ने भारत के महत्वाकांक्षी मिलियन
डेथ स्टडी की अगुवाई की है। डॉ. झा कहते हैं, "अगर भारत में कोविड-19 से मरने वालों की सही तरह से गिनती ही नहीं की जाएगी तो यहां
इस बीमारी का ग्राफ़ नीचे कैसे लाया जा सकेगा?"
जब यह महामारी खत्म हो जाएगी तब कोरोना वायरस से हुई मौतों की संख्या ही एकमात्र
जरिया होगा, जिससे पता चलेगा कि अलग-अलग देशों ने इस बीमारी में किस तरह
से लड़ाई लड़ी और वे कितने सफल रहे। कम आँकड़ों का खेल तस्वीर गलत पेश करेगा।
गुजरात के स्थानिक अख़बार दिव्य भास्कर का एक रिपोर्ट है। रिपोर्ट में दावा किया
गया है कि मई महीने के बाद अहमदाबाद के बोडकदेव और चांदलोडिया इलाके में 452 पॉज़िटिव मामले मिले, जिसमें बोडकदेव में 190 मामले और चांदलोडिया में 262 मामले पॉज़िटिव मिले थे। किंतु उसके बाद आधिकारिक रूप से दोनों इलाके के मामले
सार्वजनिक किए गए तब आँकड़ा था 297!
12 अक्टूबर 2020 के दिन मृगांक पटेल की एक मीडिया रिपोर्ट की माने तो गुजरात
सरकार के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक राज्य में कोरोना के 86 मरीज़ वेंटिलेटर पर हैं, किंतु सरकारी व निजी अस्पतालों के रिपोर्ट खँगालने पर पता चलता है कि 596 मरीज़ वेंटिलेटर पर हैं! इसमें बायपेप वाले मरीजों की गिनती नहीं हुई है इसे दर्ज करें।
इस रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात सरकार कह रही है कि राज्य में 15,717 एक्टिव मामले हैं और 86 मरीज़ वेंटिलेटर पर हैं।
किंतु अहमदाबाद, सूरत,
वड़ोदरा, राजकोट, मोरबी, पोरबंदर, गीर सोमनाथ और अमरेली के स्वास्थ्य विभाग के आँकड़ों के मुताबिक इन शहरों में कुल
मिलाकर 596 मरीज़ वेंटिलेटर पर हैं। निजी अस्पतालों के आँकड़े का अनुमान
टोटल को 110 तक बढ़ा देता है। मृगांक पटेल की इस रिपोर्ट में कौन से शहर
के कौन से अस्पताल में कितने मरीज़ हैं उसका पूरा ब्यौरा दिया गया है। इस ब्यौरे में
सरकारी व निजी, दोनों अस्पतालों का डाटा शामिल है।
यहाँ कई सारे वोर्ड में रोजाना 3 हज़ार से 10 हज़ार तक के टेस्ट का टार्गेट दिया गया है। मीडिया डाटा मांगता
है तब अधिकारी कुछ कहने से इनकार कर देते हैं। जवाब एक ही होता है कि बहुत कम मामले
मिले हैं। जबकि माइक्रो कंटेटमेंट में तब्दील होने वाले इलाकों का आँकड़ा बढ़ता ही
जा रहा है! इतना ही नहीं, यहाँ डॉकटरों के पॉज़िटिव होने के मामले भी बढ़ते ही जा रहे हैं।
शहर के शारदाबहन, एलजी और एसवीपी अस्पताल, तीनों के कुल मिलाकर 60 डॉकटर संक्रमित पाए गए हैं।
साफ है कि टेस्टिंग और टेस्टिंग
के तरीके भी बड़ा रोल अदा कर रहे हैं। मेडिकल रिकॉर्डस के मुताबिक पीसीआर टेस्ट बहुत ज़रूरी
है और वे ठीक तरीके से करना उससे भी ज्यादा ज़रूरी है। एंटीजन टेस्ट के मुकाबले दो
से तीन गुना ज्यादा मामले ढंग से पीसीआर टेस्ट किए जाए तो पाए जाते हैं।
इन दिनों भारत में रैपिड एंटीजन टेस्ट काफ़ी तेज़ी से बढ़े हैं जिनके नतीजे कम पुख़्ता
होते हैं। कई कोरोना पॉज़िटिव लोग भी इस टेस्ट में नेगेटिव निकल सकते हैं जबकि काफ़ी
पुख़्ता माने जाने वाले वाले आरटी-पीसीआर टेस्ट की संख्या घटी है। क़ायदे से ये नहीं
होना चाहिए। इस बीमारी के विशेषज्ञों के मुताबिक मामला बीमारी से ज्यादा राजनीतिक हो
चला है। डाटा बताता है कि दिल्ली और महाराष्ट्र में बाकी राज्यों के मुक़ाबले बेहतर
तरीके से टेस्ट किए जा रहे हैं। लगभग उसी स्टैंडर्ड से जो अंतरराष्ट्रीय स्टैंडर्ड
है। इसलिए इन राज्यों में आरटी-पीसीआर टेस्ट में पॉज़िटिविटी रेट काफ़ी है। लेकिन वहाँ
केंद्र का राजनीतिक दल सत्ता में नहीं है। लिहाजा इस सच को खुलकर बताने से विशेषज्ञ
भी खुद को असमजंस में फंसा महसूस कर रहे हैं।
दरअसल रैपिड एंटीजन टेस्ट आसानी से हो जाता है और नतीजा भी जल्दी आता है। लेकिन
जानकारों की माने तो, सिर्फ़ इसलिए एंटीजन टेस्ट ज़्यादा नहीं किए जाने चाहिए। पीसीआर
टेस्ट के लिए विशेषज्ञता और प्रशिक्षण ज़्यादा चाहिए होता है। अगर पीसीआर टेस्ट तय मानकों
के आधार पर नहीं किए गए तो कई ऐसे लोग नेगेटिव आने लगेंगे जो पॉज़िटिव हैं।
हैरानी की बात ये है कि भारत में दोनों ही तरह के टेस्ट में पॉज़िटिविटी रेट का
औसत क़रीब एक जैसा है! पीसीआर में 9% तो एंटीजन में 7%। जबकि विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। यही बता रहा है कि भारत में आरटी-पीसीआर
टेस्ट ठीक से नहीं हो रहे हैं। अगर एंटीजन टेस्ट में पॉज़िटिविटी रेट 7% है तो पीसीआर में दो से तीन गुना होना चाहिए। इसका मतलब है
कि अगर रोज़ एक लाख केस आ रहे हैं तो सही आंकड़े 2 से 2.5 लाख केस प्रतिदिन होने चाहिए। सवाल ये है कि क्या हम जानबूझ
कर ऐसा कर रहे हैं या हमसे टेस्ट को सही मानकों से करने में ग़लती हो रही है।
टेस्टिंग बढ़ाना ही एकमात्र उपाय है, लॉकडाउन कोई स्थायी उपाय
नहीं है। इस सच को भारत की सरकार ने महीनों के बाद माना ज़रूर। किंतु कमाल का मंजर
यह है कि टेस्टिंग बढ़ाने के बाद पॉज़िटिव मामले कम ही दिखे उसे लेकर जितना अंतरराष्ट्रीय
सामूहिक प्रयास हैं उसमें भारत की सरकार भी अपना योगदान दे रही हो ऐसा साफ साफ दिख
रहा है। टेस्टिंग बढ़ा दिए गए हैं, लेकिन तरीके और रंग तथा
ढंग वही हैं। कोरोना टेस्ट के टार्गेट दिए जा रहे हैं और टार्गेट पूरा करने के तरीके
चौंका रहे हैं।
मथुरा के बलदेव स्थित एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का मामला देख लीजिए। यहां
डॉ. राजकुमार सारस्वत की ड्यूटी लगी है कोरोना वायरस सैम्पलिंग में। डॉ. राजकुमार एक
लैब टेक्नीशियन को कोरोना टेस्ट के लिए अपना सैम्पल दे रहे हैं। एक या दो नहीं, पूरे अपने पूरे 14 सैम्पल उन्होंने दिए! लेकिन 14 सैम्पल क्यों? वीडियो में डॉक्टर साहब
कह रहे हैं, “सैंपल कम पड़ गए हैं, इसलिए अपने सैंपल करा रहा
हूं।”
यानी वो टेस्टिंग के अपने टारगेट से चूक गए थे। तो टारगेट पूरा करने के लिए उन्होंने
अपने ही 14 सैम्पल दे दिए! इस मामले की शिकायत की गई और जाँच के बाद शिकायत सही पाई गई! फर्ज़ी सैम्पल साबित भी
हो गया! किंतु इसके पीछे वजह जब पता चली तब जाकर पूरा मामला समझ आया। दरअसल सरकारी कर्मियों
पर ऊपर से प्रेशर यही बनाया जा रहा है कि सैम्पल दें। कर्मचारी टार्गेट पूरा नहीं कर
पाते तो तपाक से ऊपरवाले लोग कह देते हैं कि अपने सैम्पल दे दो, लेकिन सैम्पल दो! कहा जाता है कि आप नाम कहीं से चढ़ाइए, हमें इससे कोई मतलब नहीं है, सैम्पल भेज दीजिए, वर्ना हम आपके खिलाफ लेटर इशू कर देंगे!
सरकारी कर्मी डरते हुए कहते हैं कि सालाना रिपोर्ट में हमारी प्रगति रिपोर्ट भेजी
जाती है और अगर ये नेगेटिव लिख देंगे तो संविदा खत्म हो जाएगी। कुल मिलाकर जैसे कि
घोर लापरवाही करने को ऊपर से ही कहा जाता है!
उधर प्रधानमंत्री मोदी के
परम मित्र डोनाल्ड ट्रंप भी गजब ढा रहे हैं। इन्होंने भारत पर सीधा सीधा आरोप लगा दिया
है कि भारत कोरोना वायरस से हुई मौतों के सही आँकड़े नहीं दे रहा। अरे पेट्रोल पंपजी, आपके लिए अहमदाबाद में कोरोना के बीच इतना बड़ा उत्सव किया, उसका तो लिहाज कर लिया करें। यूँ तो आजकल भारत और अमेरिका, दोनों जगहों पर चुनाव महत्वपूर्ण है, कोरोना नहीं।
अमेरिकी प्रेसिडेंशियल
डिबेट में डेमोक्रेटिक कैंडिडेट जो बाइडेन के साथ बहस के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति
डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में हुई मौतों के मुद्दे पर बोलते हुए चीन और रूस के साथ
भारत पर भी मौत का सही आंकड़ा नहीं देने का आरोप लगा दिया। ट्रंप ने अपनी नीतियों का
बचाव करते हुए कहा कि अगर वो वक्त पर लॉकडाउन नहीं लगाते तो इससे भी ज्यादा लोगों की
मौत होती। ट्रंप ने कहा कि जब आप आंकड़ों की बात करते हैं तो आपको क्या पता चीन में
कितने लोगों की मौत हुई है, रूस में कितने लोग मरे हैं या फिर भारत में कितने लोग मरे हैं, ये लोग सही आंकड़े
नहीं देते हैं।
डबल्यूएचओ के विशेषज्ञ
साफ लफ्जों में कहते हैं कि दर्ज किए जा रहे संक्रमण के मामलों की अपेक्षा असल संख्या
कहीं अधिक हो सकती है।
‘नमस्ते ट्रंप’ करने वाला भारत कोरोना कोविड 19 मामले में
अब दुनिया के प्रमुख तीन देशों में पहुंच चुका है!
‘नमस्ते कोरोना’ कर रहा है अब भारत! 24 फ़रवरी को भारत
में दो एक्टिव मामले घोषित हुए थे। भारत तब दिल्ली विधानसभा चुनावों में मस्त था और
उसके बाद दिल्ली के दंगों में व्यस्त! फिर मार्च
आया और ट्रंप बाबू आए। फिर जो हुआ वो जगजाहिर है।
अक्सर ऐसी रिपोर्टें
आती रही हैं कि जिन देशों ने टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन का रास्ता ‘गंभीरता’ से अपनाया उन्होंने कोरोना को अपेक्षाकृत बेहतर तरीक़े से नियंत्रित किया। भारत
पहले से ही पीछे रहा। टेस्टिंग को लेकर भारत देर से जागा। किंतु उसके बाद भी शुरुआती
दिनों में शिकायतें तो ये भी आ रही थीं कि जाँच रिपोर्टें एक-एक हफ़्ते में आ रही थीं।
जाँच रिपोर्ट जब इतनी देरी से आएँ तो फिर संक्रमित लोगों के ट्रेस किए जाने तक वे कितने
लोगों को संक्रमित कर चुके होते होंगे यह मैट्रिक पास आदमी तक समझ सकता है।
अब जबकि टेस्टिंग की
सुविधा बढ़ी और रिपोर्ट भी अपेक्षाकृत जल्दी आ रही है फिर भी टेस्टिंग के मामले में
भारत का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। हर दस लाख लोगों में से कितने लोगों की कोरोना जाँच
की गई, इस मामले में भारत 195 देशों में 115वें स्थान पर है। भारत में हर दस लाख जनसंख्या
पर सिर्फ़ 42 हज़ार 170 जाँच की गई है। यह आँकड़ा 15 सितंबर तक का है। इसकी तुलना में
दूसरे देशों का आँकड़ा देखिए। अमेरिका और रूस में 10 लाख की जनसंख्या पर 2 लाख 81 हज़ार
से ज़्यादा जाँच, स्पेन में 2 लाख 30 हज़ार, पेरू में 1 लाख 7 हज़ार, दक्षिण अफ़्रीका में 66 हज़ार, ब्राज़ील में 68 हज़ार जाँच की गई है।
अब भारत में जो जाँच की जा रही है उसमें भी एक दिक्कत यह है
कि एंटीजन टेस्ट का सहारा लिया जा रहा है। जबकि पीसीआर टेस्ट का परिणाम सटीक होता है।
मौतों के बारे में जानना है तो यही जाना जा सकता है कि कोई आधिकारिक जानकारी नहीं
है। जो जिंदा हैं वे सरकार की उपलब्धि है और जो मारे गए वे कोरोना के शिकार थे।
श्रृंखला जारी है...
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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