जिसे सबसे बड़े राजनीतिक दल के चाणक्य के रूप में योजनाबद्ध तरीक़े से प्रसिद्ध
किया गया हो, उसी चाणक्य के ऊपर
कुछ ख़बरें सवाल उठाने लगे, तब उन ख़बरों से पीछा छुड़ाना चाहिए ऐसी कोई अलिखित परंपरा
होगी मीडिया के भीतर। मीडियापंती इसीको कहते होंगे। पिछले अनेक वर्षों का मीडिया इतिहास
यही इशारा करता है। यूँ तो राजनीति में मुर्दों को जलाया नहीं करते, उन्हें दफ़्न दिया
जाता है। ताकि जब भी ज़रूरत हो, कंकाल दोबारा बाहर
निकाला जा सके। किंतु यहाँ बात राजनीति की नहीं, बल्कि मीडिया की है।
सीबीआई कोर्ट के स्पेशल
जज लोया की मृत्यु का मामला, सोहराबुद्दीन मुठभेड़
मामला, तुलसीराम प्रजापति
मुठभेड़ मामला, इशरत जहां मुठभेड़
मामला, को-ऑपरेटिव सेक्टर
मामला... ये सारे इतिहास दर्शाते हैं कि नहीं छपने से ख़बर मर नहीं जाती है और छप जाने
से अमर भी नहीं हो जाती है। शायद इसलिए, क्योंकि ख़बरें मैनेज होती हैं, मरती नहीं हैं। बस ऐसी ख़बरों को ज़िंदा होने
के इंतज़ार में अपने किरदारों के आस-पास मंडराते रहना पड़ता है। मरती हैं, मगर फिर
ज़िंदा हो जाती हैं। अजीब फ़ितरत है इन ख़बरों की।
सबको पता है कि जज
लोया की मृत्यु का मामला लगभग खारिज़ हो चुका है। महत्वूर्ण यह है कि खारिज़ होने से
पहले ही इसे भुलाया जा चुका है। इसमें अमित शाह की भूमिका के आरोपों को तो छोड़ दीजिए, जज लोया की कथित संदिग्ध मृत्यु वाले एंगल
को भी खारिज़ किया जा चुका है। फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामलों में अमित शाह बरी किए जा चुके
हैं। मीडिया राहत की सांस ले चुका है, क्योंकि उसे नहीं पूछने
का अभ्यास नहीं करना है।
वैसे ऐसे अनेका अनेक
मामले भुलाए जा चुके हैं, खारिज़ हो चुके हैं।
किंतु जब सब कुछ ख़त्म सा हो चुका होता है, कहीं से अचानक ऐसे
मामलों में कोई न कोई सुगबुगाहट होने लगती है! नहीं पूछने का अभ्यास मीडिया को दौबारा करना पड़ता है। पता नहीं चलता कि ख़बरों
का पीछा हो रहा है या ख़बरें ख़ुद ही पीछा कर रही हैं।
फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले
में दिसंबर 2014 में अमित शाह और तीन आईपीएस अफ़सरों के बरी हो जाने के बाद मीडिया चुप रह गया।
सीबीआई ने कहा कि वो ऊपरी अदालत में अपील करेंगे। लेकिन फिर सीबीआई अपील करना ही भूल
गई! ना सीबीआई ने अपील की, ना मीडिया ने सवाल
किया। ख़बर मर गई। हमेंशा के लिए दफ़्न हो गई। कमज़ोर विपक्ष सहम गया या फिर कुछ दूसरी
वजहें थीं, पता नहीं चल पाया।
उधर पूर्व सरकार के दौरान हुआ टूजी का कथित घोटाला अदालत में टिक नहीं पाया और सीबीआई
की जाँच को स्पेशल कोर्ट के जज ने कोरियोग्राफी कह दिया! सारे आरोपी बरी हो गए!
उसके बाद 2018 में सुप्रीम कोर्ट
के चार वरिष्ठ जज ऐतिहासिक रूप से देश के सामने आकर न्यायतंत्र और लोकतंत्र को बचाने
की अपील कर रहे थे! ऊपर से इसी साल सीबीआई
के अधिकारी ख़ुद ही एकदूसरे पर अपील किए जा रहे थे! आधी रात को सीबीआई में तख़्तापलट का ग़ज़ब काम भी हो गया!
उधर चुप्पी आराम से
आराम कर रही थी! तभी निरंजन टाकले ने कारवाँ पत्रिका में
अमित शाह के मामले को सुन रहे जज लोया की मौत से जुड़े सवालों को छाप दिया। ख़बर ज़िंदा
हो गई। मीडिया ने ख़बरों का पीछा न करने का अभ्यास फिर एक बार दोहराया। कुछ महीनों
बाद ख़बर फिर मर गई। अदालत के भीतर जज लोया की मौत को सामान्य मौत करार दिया गया। इस
बार लगा कि अंतिम रूप से सब कुछ ख़त्म हो गया है। कुछ महीनों तक सारी ख़बरें मर गईं।
लेकिन फिर एक बार वो तमाम ख़बरें अचानक से ज़िंदा होने लगी। समझ नहीं आया कि तमाम ख़बरें
एक साथ मरती हैं, तो फिर एक साथ ज़िंदा
भी कैसे होती हैं? एक साथ मरना और एक साथ ज़िंदा होना, क्या कोई ऑक्सीजन मास्क निकालता और लगाता
रहता है?
इन सारी ख़बरों को
देखते ही मीडिया मर जाता है। जज लोया की मौत का मामला चुप्पी के सबसे बड़े मामलों में
से एक मामला था। किसी छिटपुटिये मामले को लेकर देश को महीनों तक उबालते रहने वाला मीडिया
किसी संवेदनशील मामले में कैसे और क्यों चुप हो जाता होगा यह बिना रिसर्च के समझा जा
सकता है।
संक्षेप में लिखे तो,
जज का नाम था बृजगोपाल लोया। सीबीआई के स्पेशल कोर्ट के जज बृजगोपाल लोया अनेक मामलों
की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें सोहराबुद्दीन
एनकाउंटर मामला एक हाई प्रोफ़ाइल मामला था, जिस मामले में बीजेपी
के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मुख्य आरोपी थे। वे उस समय देश के दूसरे सबसे ताक़तवर शख़्स थे, जो बाद में देश के
गृह मंत्री भी बने।
नागपुर में 1 दिसंबर 2014 की सुबह जज लोया की
मौत हो गई थी। बहन सवाल उठाती रहीं। किसी ने नहीं सुना। फिर 2017 में अचानक से कारवाँ
पत्रिका ने इस मामले को हाथों हाथ लिया। 2018 के साल तक यह मामला अनेक गलियों से गुज़रता रहा। कई सारे चौंकाने वाले बयान, दावे, तथ्य, यू टर्न, बहुत कुछ होता रहा। फिर यह मौत एक सामान्य मौत करार दी गई।
आरुषि के सुलझे हुए
हत्याकाँड मामले को मीडिया इतना उलझा देता है कि आज के दिन तक ज़्यादातर नागरिक उन फ़िल्मी
कहानियों पर यक़ीन ज़्यादा करते हैं, और उस हत्याकाँड को सुलझाने में अहम योगदान देने
वाले डॉ. तीरथ दास डोगरा के बयान पर कम! डॉ. तीरथ दास डोगरा मीडिया के सामने कह चुके हैं कि उनकी पत्नी मीडिया की फ़ेक
ख़बरों पर ज़्यादा भरोसा किया करती थीं, जबकि वे ख़ुद उस हत्याकाँड
को सुलझा चुके थे!
जज लोया मृत्यु मामले
में भले ही अंतिम रूप से तमाम आरोपों को खारिज़ किया गया हो, किंतु इस अवधि के दौरान ढेरों सवाल थे, कई संदिग्ध चीज़ें थीं, किंतु मीडिया दूसरी दुनिया में था। अदालती
प्रक्रिया चली, अंत में इस मौत को
सामान्य मौत करार दिया गया। किंतु तब तक बहुत सारी चीज़ें, बहुत सारे दावे, रिपोर्ट, तथ्य, सवाल, बहुत कुछ था। लेकिन मीडिया का बटन किसी ने
दबा के रखा था, जो उसका वो भोंपू, जो यूँ तो बिना वजह के बजता रहता है, बजा ही नहीं!
इस अदालती प्रक्रिया
और फ़ैसले के बाद भी, आज भी अचानक से जज लोया मृत्यु मामले में कहीं कोने में कुछ न कुछ
ख़बरें छपती रहती हैं। कभी कोई याचिका डालता है, कभी कुछ और। ख़बर बेचारी
ना ही मर पाती है, ना ठीक से जीवन जी
पाती है!
2018 के साल का नवम्बर महिना चल रहा था। सोहराबुद्दीन, कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर मामले की सुनवाई चल रही थी। उसी कोर्ट में, जहाँ जज लोया हुआ करते थे। दो आईपीएस अफ़सर
अमिताभ ठाकुर और संदीप तामगड़े ने कोर्ट से कहा कि वे अपनी जाँच, जुटाए हुए सबूतों और चार्जशीट में लिखी बातों
पर क़ायम हैं। इन्होंने कोर्ट के भीतर अमित शाह, डीजी वंजारा, राजकुमार पांडियन और दिनेश एमएन को मुख्य
साज़िशकर्ता बताया। तामगड़े ने कोर्ट में बताया कि सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति फ़र्ज़ी मुठभेड़ अपराधियों और नेताओं की मिलीभगत का परिणाम है।
तामगड़े ने कोर्ट में
कहा कि जाँच के दौरान मिले पुख्ता सबूतों के आधार पर ही सभी के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दायर
किया गया था। इस दौरान अहमदाबाद में पॉपुलर बिल्डर पर फायरिंग मामले का भी ज़िक्र हुआ।
तामगड़े ने कहा कि चार्जशीट में जिन अज्ञात लोगों और वाहन का ज़िक्र था उसकी जाँच सीबीआई
ने की ही नहीं!
तामगड़े ने कोर्ट
से कहा कि राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, मार्बल व्यापारी विमल पाटनी, हैदराबाद के
आईपीएस सुब्रमण्यम और एसआई श्रीनिवास राव से पूछताछ के बाद ही इनके ख़िलाफ़ चार्जशीट
फ़ाइल की गई थी। इस अधिकारी का कहना था कि जब तुलसी को अहमदाबाद पेशी पर ले जाया जा
रहा था, तब जो पुलिस की टीम बनाई थी उसका गठन एक साज़िश के तहत हुआ था। नोट करें कि
गुलाबचंद कटारिया, अमित शाह और विमल पाटनी
इस मामले में बरी हो चुके हैं।
तामगड़े ने बताया कि
हैदराबाद के आरोपी एसआई श्रीनिवास राव से संबंधित 19 दस्तावेज़ ज़ब्त किए गए थे, मगर कोर्ट रिकॉर्ड चेक किया तो एक ही दस्तावेज़ मिला! 18 दस्तावेज़ गायब हो चुके थे! अमित शाह, गुलाब चंद कटारिया और विमल पाटनी से जो बयान
लिए गए थे, वो भी कोर्ट में रिकॉर्ड में नहीं मिले! जब संदीप तामगड़े से बचाव पक्ष के वकील ने पूछा कि तुलसी केस में 9 आरोपी बरी हो चुके
हैं, आपके पास इनके ख़िलाफ़ साज़िश साबित करने के कोई सबूत नहीं थे? संदीप ने कहा कि सबूत
थे, आपकी बात ग़लत है।
चार साल तक यह मामला
सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चला था। 38 में से 16 आरोपी बरी हो चुके थे। अमित शाह भी उनमें से एक थे। उनके अलावा आईपीएस डीजी वंजारा, दिनेश एमएन और राजकुमार पांडियन भी बरी हो
गए थे। सीबीआई ने इस केस को ऊपरी अदालत में चुनौती भी नहीं दी और किसी ने सीबीआई से
पूछा भी नहीं!
किसी हत्या के मामले
की जाँच प्रक्रिया और अदालती दलीलों के दौरान ख़बरों की हत्या होने का मीडियाई सिलसिला
क़ायम रहा। नोट करें कि यह वही दौर था, जब सीबीआई के ही डीआईजी एमके सिन्हा ने बाक़ायदा
सीबीआई को सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन कहा था!
उड़ीसा कैडर के तथा
भुवनेश्वर में आईजी पुलिस के रैंक पर तैनात अमिताभ ठाकुर ने कहा कि इस एनकाउंटर के
पीछे राजनीति और अपराधियों का गठजोड़ काम कर रहा था। जाँच अधिकारी ने अहमदाबाद के किस
बिल्डर के साथ तथा एक आला पुलिस अधिकारी के साथ, किसने कितना आर्थिक व्यवहार किया उसका ब्यौरा दिया।
अमिताभ ठाकुर ने ही न्यायिक हिरासत में अमित शाह से पूछताछ की थी। 2006 में भी आईपीएस अफ़सर
गीता जौहरी ने 24 पेज की एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें बताया था कि
राज्य के गृह राज्य मंत्री अमित शाह ने क़ानून का मज़ाक उड़ाया है।
नयी शताब्दी के
शुरुआती समय में गुजरात में हत्या का एक मामला सामने आया था। दिन था 26 मार्च 2003। सुबह का समय था।
तब हम कॉलेज के बाद आगे की पढ़ाई हेतु अहमदाबाद में रहा करते थे। टेलीविज़न पर इस सनसनीखेज़
हत्या की ख़बर ठीक से दिखाई जाए उससे पहले लॉ गार्डन इलाक़े में हुई इस वारदात की
जानकारी वहाँ से थोड़ी दूर पालड़ी इलाक़े तक पहुंच चुकी थी, जहाँ हम रहा करते थे। हत्या
जिनकी हुई थी उनका नाम था हरेन पांड्या।
ये कोई सामान्य नाम
नहीं था। ना ही कोई सामान्य शख़्स था। आरएसएस के पुराने और रसूख़दार स्वयंसेवक, बीजेपी की गुजरात की राजनीति के पुराने और
अनुभवी नेता, जिनकी मीडिया के भीतर
ज़बरदस्त पैठ थी। इतना ही नहीं, वे गुजरात राज्य के
पूर्व गृह मंत्री थे। हरेन पांड्या गुजरात बीजेपी के भीतर नरेंद्र मोदी के ज़बरदस्त
राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे। दोनों सार्वजनिक रूप से 2001 में भिड़ चुके थे।
अहमदाबाद की एलिसब्रिज विधानसभा सीट के लिए नरेंद्र मोदी की ज़िद, अस्पताल में भर्ती होने का नरेंद्र मोदी का
नाटक और हरेन पांड्या का मोदी के लिए सीट खाली करने से इनकार। गुजरात की राजनीति में
यह प्रकरण बहुत नाटकीय था।
इतने बड़े नेता की
उस दिन सुबह सरैआम गोली मारकर हत्या कर दी गई! आज भी ये अजीब सा लगता है कि गुजरात जैसे बड़े, विकसित और सुरक्षित माने जाने वाले राज्य का पूर्व गृह मंत्री सरीखा शख़्स, जो उन दिनों राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय
भी था, एक सुबह वॉक के लिए
निकलता है और कोई अपराधी बाइक पर आकर उन्हें गोली मार देता है! उनकी वहीं मौत हो जाती है और अपराधी आराम से बच निकलते हैं! सालों बीत जाते हैं, मंत्रीजी की पत्नी
यहाँ वहाँ न्याय के लिए भटकती हैं। अपने ही राज्य के गृह मंत्री की हत्या की जाँच के
लिए जैसे कि कोई गंभीर नहीं दिखता था!
हरेन पांड्या की पत्नी
जागृति पांड्या तथा हरेन पांड्या के पिता विठ्ठलभाई ने हत्या के तत्काल बाद तथा उसके
सालों बाद भी मीडिया, अदालत और सारी जगहों
पर एक ही दावा किया कि इस हत्या के पीछे नरेंद्र मोदी और अमित शाह का हाथ है।
दूसरी तरफ़ गुजरात पुलिस
और सीबीआई ने दावा किया था कि पाकिस्तान की आईएसआई, लश्कर-ए-तैयबा और दाऊद इब्राहीम ने मिल कर पांड्या की हत्या कराई है। 12 लोगों को गिरफ़्तार करके उन पर पांड्या की हत्या का आरोप लगाया जाता है। 8 साल तक जाँच चलती है। फिर 2011 सितंबर में, गुजरात हाईकोर्ट सभी आरोपियों को बरी कर देता
है! उसके बाद सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के उस फ़ैसले को पलटता है
और उन 12 में से 7 को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाता है!
इधर न्याय मांगने वाली
मंत्रीजी की पत्नी चुनावी राजनीति को आख़िरी हथियार मानकर बीजेपी के ख़िलाफ़ ही चुनाव
लड़ती हैं और हार जाती है। 2013 में वे पांड्या की हत्या के आरोप से बरी हुए असगर अली से मिलती हैं, जो उन दिनों हैदराबाद जेल में दूसरे मामले
में बंद था। कुछ सालों बाद इस मामले से कथित रूप से जुड़े शख़्स बीजेपी को केंद्र की
सत्ता तक पहुंचाते हैं, और वहीं से जागृति पांड्या को गुजरात बाल अधिकार आयोग का अध्यक्ष
बनाने के लिए प्रस्ताव आता है। कुछ दिनों की माथापच्ची के बाद जागृति पांड्या उस प्रस्ताव
को स्वीकार कर लेती हैं! फिर मामला भुला दिया
जाता है।
इस मामले में एक गवाह
था। गवाह नं. 207। नाम था आज़म ख़ान, जो अपराधी हैं। वह
विवादित मुठभेड़ में मारे गए सोहराबुद्दीन का साथी था। उसने नवम्बर 2018 को मुंबई कोर्ट में
बताया कि गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या डीजी वंजारा के आदेश पर की गई
थी। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़ आज़म ख़ान ने दावा किया था कि उसने साल 2010 में यह बात सीबीआई
को बताई थी, लेकिन अधिकारियों ने
उस वक़्त इस बात को अपने बयान में दर्ज करने से इनकार कर दिया था। ख़ान के मुताबिक़, ''जब मैंने हरेन पंड्या की हत्या के बारे में सीबीआई अधिकारी एनएस राजू को बताया, तो उन्होंने कहा कि नया विवाद मत खड़ा करो।''
डीएनए अख़बार और दूसरे
अख़बारों की रिपोर्ट के मुताबिक़ हरेन पांड्या की हत्या में सोहराबुद्दीन और तुलसीराम, दोनों किसी न किसी रूप से जुड़े थें, जिन्हें 2004 के बाद, वो साल जब केंद्र से
बीजेपी की विदाई हुई और कांग्रेस सत्ता पर पहुंची, गुजरात के भीतर विवादित तरीक़े से मुठभेड़ में मार दिया गया।
इन दिनों ख़ान उदयपुर
जेल में बंद था। 2010 में जब वह इस मामले में गवाह बना और बेल पर बाहर आया, तब उसे गोली मारी गई थी। ख़ान ने बताया कि प्रजापति
ने सोहराबुद्दीन की जानकारी दी थी, क्योंकि पुलिस का बहुत
दबाव था और उसने कहा था कि इसके बदले उसे छोड़ दिया जाएगा। जेल में प्रजापति ने ख़ान
को बताया था कि उसे मार दिया जाएगा। कुछ दिनों बाद प्रजापति का एनकाउंटर हो गया।
द वायर ने इस हत्याकाँड, इसकी जाँच और मुकदमे की प्रक्रिया पर विस्तार
से लिखते हुए बताया कि हरेन पांड्या की हत्या के पहले उनकी सुरक्षा हटा ली गई थी। फिर
उनकी लाश मिली।
कोई हरेन पांड्या की
हत्या के बारे में बयान दे रहा था और मृत गृह मंत्रीजी की पार्टी के लोग चुप थे! आज़म ख़ान ने डीजी वंजारा के बारे में यह बात कही थी, जो दूसरे मामले में बरी हो चुके थे। यह वही
पुलिस अफ़सर हैं, जो गाहे बगाहे अति
विवादित और संगीन जुर्म के अपराधी आसाराम के गुणगान गाया करते थे! वही पुलिस अफ़सर, जो तत्कालीन सीएम नरेंद्र
मोदी के पसंदीदा थे। फिर जब उन्हें जेल में जाना पड़ा तो सार्वजनिक रुप से नरेंद्र
मोदी को बहुत बुरा कहा करते थे! फिर जेल से बाहर आए
तो नरेंद्र मोदी को प्रशंसा पुष्प अर्पण करते नज़र आते थे!
पसंदीदा चुप्पी ढेरों
सवाल उठाती है। अपनी ही पार्टी के गृहमंत्री जैसे बड़े नेता की हत्या के मामले में
इतना बड़ा दावा होता है, किंतु मीडिया ने सोचा
कि पार्टी ही चुप है तो फिर उसे बोलकर क्या फ़ायदा? एक राज्य के गृहमंत्री की हत्या की जाँच, हत्या के बारे में
सवाल, हत्या के बारे में
खुलासा। लेकिन मीडिया ने सोचा कि पार्टी के भीतर ही इतना डर है, तो फिर हम खामखा हिम्मतवाला क्यों बने?
गुजरात मॉडल की बात
बहुत होती है। बात से ज़्यादा तो मार्केटिंग होता है। सख़्त प्रशासन की बात होती है।
लेकिन ऐसा कैसे हो गया कि 2003 में राज्य के गृह मंत्री की हत्या होती है और क़रीब डेढ़ दशक बाद भी मामला ख़त्म नहीं हो पाता! मुख्य हत्यारा पकड़ा नहीं जाता। गुजरात हाईकोर्ट
जाँच एजेंसी की कड़ी आलोचना कर तमाम को बरी कर देता है, और फिर सुप्रीम कोर्ट में उनमें
से कुछ आरोपियों की सज़ा बरकरार रखी जाती है।
इस मामले में जिनकी
हत्या हुई उनकी पत्नी और उनके पिता के दावों को ध्यान में नहीं लिया जाता, ना ही पुलिस और जाँच एजेंसी अपने दावों को
पूरी तरह सिद्ध कर पाते हैं! कुछ रिपोर्टों में
लिखा गया कि कैसे एजेंसी ने सही तरीक़े से जाँच नहीं की थी। उसके बाद सीबीआई ने भी सिरे
से जाँच नहीं की। सीबीआई की तरफ़ से जाँच वाईसी मोदी कर रहे थे, जिन्हें 2017 में एनआईए का निदेशक बना दिया गया था।
फिर इस मामले में जो
नया मोड़ आया उस पर ना भाजपा बोली और ना मीडिया! मामले के गवाह का अदालत के भीतर क्या यह साधारण बयान था कि आईपीएस अफ़सर ने गृहमंत्री
की हत्या करवा दी! मृत गृह मंत्री की पार्टी के आलाकमान से
लेकर हर छोटा-मोटा नेता दूसरे अनेक मुद्दों पर फेफड़े फाड़ते हैं, लेकिन इस खुलासे के बाद उन्हें सांप सूंघ
गया! एक राज्य के बहुत पुराने, महत्वपूर्ण नेता और पूर्व गृह मंत्री सरीखे व्यक्ति की दिनदहाड़े सड़क पर हत्या
और हर खुलासों के बाद चुप्पी!
गुजरात में हरेन पांड्या
की हत्या से लेकर फ़र्ज़ी मुठभेड़ के अनेक मामले, यह वह दौर था जब अमित
शाह गुजरात राज्य के गृह मंत्री हुआ करते थे। केंद्र में सत्ता कांग्रेस के पास थी।
पी चिदंबरम केंद्रीय गृह मंत्री थे। और फिर अमित शाह और नरेंद्र मोदी के ऊपर सीबीआई
से लेकर देश का मीडिया टूट पड़ा। खोजी पत्रकारिता, देश को पल पल की जानकारी, लोकतंत्र, क़ानून जैसी बातों के साथ मीडिया स्वयं को
देश का रखवाला बताने लगा।
उन दिनों अमित शाह
गुजरात राज्य के कदावर नेता थे, राज्य के गृह मंत्री
थे, राज्य के दूसरे क्रम के ताक़तवर शख़्स थे।
साथ ही उस समय भी वे राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की परछाई माने जाते
थे। उन दिनों जब अख़बार पढ़ते, न्यूज़ चैनल देखते, तब यक़ीन नहीं होता था कि अमित शाह जैसे शख़्स को कोई जाँच एजेंसी जेल भेज सकती है! यक़ीन नहीं होता था कि इतने बड़े राज्य के गृह मंत्री को बाक़ायदा तड़ीपार किया
जा सकता है! ये वाक़ई अजब दौर था! अख़बारों में अमित शाह की पूछताछ, पूछताछ से परेशान अमित
शाह, पसीना पोंछते अमित
शाह, राज्य के कैपिटल सीटी
गाँधीनगर में सीबीआई के अस्थायी दफ़्तर के बाहर आम अपराधी की तरह डरे-सहमे बैठे हुए
अमित शाह, उनकी घंटों तक पूछताछ, बहुत सारी तस्वीरें और ख़बरें घूमती थीं।
सोहराबुद्दीन से
लेकर कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति
या फिर इशरत जहाँ का एनकाउंटर, जो गुजरात में ही हुए
थे, कई सारे चक्रव्यूह में फँसाए रखते हैं। 2002 से 2006 तक गुजरात में अनेक
एनकाउंटर हुए, जिसमें से पुलिस पर
31 ग़ैरक़ानूनी हत्याएँ
करने का आरोप लगा! कोई बाहर से नरेंद्र मोदी की हत्या करने
आया था, कोई गोधरा काँड का
बदला लेने आया था, सरीखी कहानियाँ इन
मुठभेड़ों से जुड़ती रहीं! 2006 के बाद ऐसी घटना क़रीब
क़रीब बंद ही हो गई और पूरा ध्यान विकास और गुजरात मॉडल पर रहने लगा!
समय समय बलवान। वक़्त बदला और हालात भी बदले। पूरा चक्र उलट गया। समय का पहिया कुछ ऐसे घुमा कि 2014 आते आते देश के अख़बार, देश के न्यूज़ चैनलों पर केंद्र की सत्ताधारी
पार्टी कांग्रेस के अनगिनत घोटालों और उन घोटालों में लिप्त मंत्री जगह पाने लगे। मीडिया
सब कुछ छोड़ छाड़ भ्रष्टाचार के मुद्दे को हाथों हाथ लेने लगा। हर दिन अख़बारों में
और चौबीसों घंटे न्यूज़ चैनलों पर, घोटाले ही घोटाले दिख
रहे थे। फिर तो अभूतपूर्व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला। बहुत कुछ हुआ।
तात्कालिक परिणाम यह
आया कि देश की सत्ता एक पार्टी के हाथों से किसी दूसरी पार्टी के हाथों में आ गई। अमित
शाह देश के गृह मंत्री तक बन गए। देश के दूसरे सबसे ताक़तवर शख़्स के रूप में उभरे। ख़ुद के साथ जो हुआ था, उसका गिन गिन कर बदला
लेते रहे। उस दौर में कांग्रेस के जो गृह मंत्री थे, उन्हें अपनी सत्ता अवधि के दौरान जेल भेज दिया। ख़ुद के ख़िलाफ़ जो मामले थें, सारे मामले खारिज़ होते गए। मामलों से जुड़े
लोग बाइज़्ज़त बरी हो गए। जो अख़बार, जो न्यूज़ चैनल 2014 से पहले फेफड़ा फाड़
रिपोर्टींग करते थे, क़रीब सारे के सारे
बदल गए!
अंतिम परिणाम यही आया
कि भ्रष्टाचार का मुद्दा, अनगिनत घोटाले, घोटालों में लिप्त मंत्री, सब कुछ हवा हो गया। वे भी बारी बारी बाइज़्ज़त बरी होने लगे। एकाध-दो मामलों में सख़्त कार्रवाई कर देश को बहला फुसला लिया गया। टूजी
मामले का अंतिम फ़ैसला, तमाम का बरी हो जाना, उस फ़ैसले को लिखने वाले जज ओपी सैनी की वो
टिप्पणी, सीबीआई जाँच को कोरियोग्राफी
कहना, सब कुछ हुआ। वो दौर
भी आया जब सीबीआई ने सीबीआई के ख़िलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक की। फिर आधी रात को दिल्ली स्थित
सीबीआई मुख्यालय घेरा गया! विवादित तरीक़े से
सीबीआई में तख़्तापलट हुआ! इससे पहले सुप्रीम
कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने इतिहास में पहली दफा सार्वजनिक प्रेस बुलाकर लोकतंत्र
और न्यायतंत्र के ख़तरे में होने की बात बोल दी थी!
जो मीडिया कुछ साल
पहले चक्रधारी का रूप धारण करते हुए आक्रामक बना हुआ था, वह डरा-सहमा बनकर कहीं छिप गया! गौरी लंकेश जैसी पत्रकार की दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई और उनकी हत्या
को सही ठहराने के लिए सोशल मीडिया पर अभियान तक चल पड़ा। एक ऐसे मीडिया ने जन्म लिया, जिस पर लोग हँसने लगे। गोदी मीडिया नाम का एक नया नाम सामने आया, और वो मीडिया तमाम
ज़रूरी मुद्दों और सवालों को छोड़ अपनी अनारकली को डिस्को ले जाने लगा। इस बीच एक राष्ट्रीय
चैनल पर एक दिन का प्रतिबंध भी लगा दिया गया। वो चैनल सत्ता के सामने नहीं झुका तो
उसे ख़रीद लिया गया।
जो मीडिया पहले ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों
के ख़िलाफ़ जंग लड़ता था, वह सब छोड़ छाड़ सास-बहू
में जंग कराने लगा! वो दौर भी आ गया, जब
न्यूज़ चैनलों पर आने वाली ख़बरें सही हैं या ग़लत, ये जाँचने के लिए लोग दूसरे प्लेटफॉर्म
पर जाने लगे! मीडिया, जो अब गोदी मीडिया
के नाम से जाना जाता था, उस पर अब फ़ेक न्यूज़
फैलाने के आरोप लगने लगे। हालात यहाँ तक जा पहुंचे कि मीडिया को बाक़ायदा सत्ताधारी
दल का प्रवक्ता कहा जाने लगा। उस पर चुटकुले बनने लगे। जो मीडिया कभी ख़बरों का पीछा
किया करता था, उन्हें ख़बरें मिलने लगीं तो वो ख़बरों से भागने लगा!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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