पीएम
मोदी का अपना एक ऐसा अमृतकाल, जहाँ सवाल पूछने पर सज़ा दी
जाएगी, ज़िम्मेदारी-जवाबदेही और किए गए वादों को याद दिलाने पर देशद्रोह
लगा दिया जाएगा! सालों
बाद भी सरकार भले पुलवामा हमले के आरडीएक्स का पता न लगा पाई हो, लेकिन उससे सवाल पूछा तो वे आपका पाकिस्तान कनेक्शन अवश्य ढूँढ
लेंगे!
पीएम
मोदी ने अपनी सत्ता के दौरान ऐसे अनेक मौक़े और मामले प्रदान किए हैं, जिससे स्पष्ट होता गया कि उनके इस कथित अमृतकाल का भीतरी काला
साया यही है। देश के सैनिक हो, देश का सम्मान बढ़ाने वाली
देश की बेटियाँ हो, भारत को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने वाला चेहरा हो, किसान हो, कोई भी हो, वे तब तक ही मोदी सत्ता के लिए सम्माननीय बने रहेंगे जब तक
वे सरकार से सवाल न करें।
सरकार
को उसके वादे या ज़िम्मेदारी याद दिलाई तो इनमें से कोई भी हो, सब के सब देशद्रोही और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बन जाएँगे! शायद सरकारी ऐलान हुआ है कि सरकार को नागरिक नहीं सिर्फ़ गूँगे
वोटर चाहिए।
यूँ तो असहमति और लोकतांत्रिक
अधिकारों को नुक़सान पहुँचाने के लिए भारत की लगभग तमाम सरकारें थोड़ी या बहुत बदनाम
हो चुकी हैं। वो कहते हैं न कि अच्छाई कभी अच्छाई को प्रभावित नहीं कर सकती, लेकिन एक बुराई दूसरी
बुराई को प्रभावित कर ही जाती है। शायद इसी तर्ज़ पर मोदी सत्ता इस बदनामी को अपनी
शान समझकर पूर्व सरकारों को भी अच्छी साबित करती जा रही है!
यूँ तो साल 2014 में ही, पूत के पाँव पालने
में, इसी अनुभव के आधार पर मोदी सरकार के लिए कहा जाने लगा था कि - कांग्रेस कभी नहीं
जाती, जो सत्ता में आता है वही कांग्रेस बन जाता है! तमाम सरकारें अपने आलोचकों को दबाने की कोशिश करती हैं, किंतु इन कोशिश में
वे अपना 'दमन' नज़र नहीं आने देतीं। मोदी सत्ता बिना शर्म के और निष्ठुर तरीक़े से अपना यह रूप
बारबार दिखाती है! शायद उसे इसमें अपनी शान नज़र आती है!
देखा जाए तो ऐसा देशद्रोह
तो स्वयं नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस, अनेक बार कर चुके हैं। जब वे केंद्र में सत्ता पर नहीं थे तब वे विविध राष्ट्रीय
या प्रादेशिक मुद्दों पर बड़े बड़े विरोध प्रदर्शन और आंदोलन खड़े कर तत्कालीन सरकारों
को घेर चुके हैं। और आज जहाँ जहाँ ग़ैर बीजेपी सरकारें हैं, वहाँ वहाँ कर ही तो
रहे हैं।
जिस चेहरे को सरकार घेरना चाहती थी, हिंसा की घटना के बाद मिले मौक़े को जैसे कि सरकार ने लपक लिया
है?
24 सितंबर से पहले भी, लेह और लद्दाख की जो माँगें हैं, वहाँ जनता की जो उम्मीदें हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर ख़बर नहीं बन पातीं, अगर इसके साथ सोनम वांगचुक का चेहरा न जुड़ा होता। वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त
पर्यावरणीय कार्यकर्ता हैं। साथ ही शिक्षाविद् भी। वे एक इंजीनियर और पर्यावरण कार्यकर्ता
हैं, जो लद्दाख की ज़मीन और संस्कृति बचाने के लिए दशकों से लड़ रहे हैं। इन्हें सन
2018 में रेमन मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
वांगचुक ने जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए 'आइस स्टूपा' तकनीक विकसित की, जो सर्दियों में पानी को संग्रहित करने का एक अभिनव तरीक़ा है। उनकी प्रेरणा से
बॉलीवुड फिल्म '3 इडियट्स' में आमिर ख़ान का किरदार 'फुनसुख वांगडू' बनाया गया था।
उनके द्वारा स्थापित
SECMOL (Students Educational and Cultural
Movement of Ladakh) स्कूल लद्दाखी छात्रों को मुफ़्त शिक्षा
देता है और HIAL (Himalayan Institute of
Alternatives Ladakh) में छात्रों को उनके प्रोजेक्ट्स के लिए
छात्रवृत्ति दी जाती है।
लद्दाख के लिए वांगचुक की जो माँगें हैं उसे सरकार तक पहुँचाने
के लिए उनका अब तक का तरीक़ा लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण रहा है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया तब उस फ़ैसले की उन्होंने खुलकर प्रशंसा
की थी और तब सत्ता से जुड़ी सोशल मशीनरी ने इस समर्थन और प्रशंसा को ख़ूब प्रचारित
भी किया था।
जैसे जैसे वांगचुक
लद्दाख की माँगों और केंद्र सरकार और बीजेपी द्वारा किए गए वादों को लेकर आगे आने लगे, उनके और उनकी संस्थाओं
के ख़िलाफ़ सत्ता ने जाँच शुरू कराने में देरी नहीं की और उनके विरुद्ध कई कार्रवाईयाँ
शुरू की गईं।
लंबे समय से लद्दाख
के लोग अपनी माँगों को लेकर लोकतांत्रिक तरीक़े से जिस लड़ाई को लड़ रहे थे, उसमें अचानक से हिंसा
हो गई और फिर सरकार को मौक़ा मिल गया। ऐसा नहीं है कि वांगचुक को 24 सितंबर 2025 की हिंसा के बाद ही
अचानक घेरा गया है। उन पर लंबे समय से सिकंजा कसने की कोशिश हो रही थी।
वांगचुक के ख़िलाफ़
सरकार ने जाँच शुरू करने की प्रक्रिया क़रीब दो महीने पहले ही शुरू कर दी थी। शांतिपूर्ण
आंदोलन में हिंसा के बाद उस कोशिश में तेज़ी और ज़ल्दबाजी दिखाई दी है।
सरकारी ऐलान - हिंसा के लिए वांगचुक ज़िम्मेदार, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणीय कार्यकर्ता और मैग्सेस
अवार्ड विजेता को देशद्रोही बताने में सरकार ने देरी नहीं की!
लद्दाख हिंसा के लिए
केंद्र सरकार ने उसी दिन सीधे तौर पर वांगचुक को ज़िम्मेदार ठहरा दिया। केंद्र सरकार
ने देर शाम को जारी एक बयान में कहा कि इस हिंसा के लिए सोनम वांगचुक ज़िम्मेदार हैं।
गृह मंत्रालय ने दावा किया कि वांगचुक ने अरब स्प्रिंग और नेपाल के जेन-जेड आंदोलनों
का ज़िक्र किया और उनके भड़काऊ भाषणों ने भीड़ को भड़काया। इसके कारण तोड़फोड़, आगजनी और पुलिस के
साथ हिंसक झड़पें हुईं।
गृह मंत्रालय ने दावा
किया कि वांगचुक ने कई नेताओं के अनुरोध के बावजूद अपनी हड़ताल जारी रखी और भ्रामक
बयानों से लोगों को गुमराह किया। हिंसा के अगले दिन, यानी 25 सितंबर को ख़बरें आईं कि केंद्र सरकार ने वांगचुक के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाया
है और मामले में तुरंत ही सीबीआई की एंट्री हो चुकी है। सीबीआई द्वारा वांगचुक और उनकी
संस्था के ख़िलाफ़ एफ़सीआरए के उल्लंघन की शुरुआती जाँच में तेज़ी की ख़बरें आईं।
वांगचुक, उनकी स्कूल और दूसरी संस्था के ख़िलाफ़ अलग अलग मामलों
में जो जाँच चल रही थी, हिंसा
की घटना के बाद इसमें एफ़सीआरए के मामले के संदर्भ में सीबीआई द्वारा तत्काल तेज़ी
की ख़बरें आने लगीं।
जाँच एफ़सीआरए, अर्थात, विदेशी योगदान (विनियमन)
अधिनियम के कथित उल्लंघन के मामले को लेकर थी और यह वांगचुक द्वारा स्थापित हिमालयन
इंस्टीट्यूट ऑफ़ अल्टरनेटिव्स लद्दाख और स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ़
लद्दाख से संबंधित थी। सीबीआई की यह कार्रवाई गृह मंत्रालय की शिकायत के आधार पर शुरू
की गई थी, जिसमें आवश्यक मंज़ूरी के बिना विदेशी योगदान को स्वीकार करना तथा उसके दुरुपयोग
का आरोप लगाया गया था।
सरकार और बीजेपी के आरोपों पर वांगचुक की प्रतिक्रिया, कहा - हिंसा से दुखी हूँ, लेकिन सरकार का उदासीन रवैया भी इसका एक कारण है
आंदोलन के दौरान हिंसा
होने के बाद, सोनम वांगचुक ने हिंसा से नाराज़ होकर अपना अनशन ख़त्म कर दिया और हिंसा को नासमझी
बताते हुए अपनी नाराज़गी जताई। वांगचुक ने राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची के लिए चल
रहा अपना आंदोलन भी स्थगित कर दिया।
सोनम वांगचुक ने सोशल
मीडिया पर तथा उसी दिन एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में युवाओं से अपील की कि वे हिंसा न करें।
उन्होंने ग़हरा दुख जताते हुए कहा कि शांतिपूर्ण तरीक़े से आंदोलन करने का मेरा संदेश
आज विफल हो गया।
वांगचुक ने साथ ही कहा कि पाँच सालों से चली आ रही बेरोज़गारी, सरकार द्वारा बहाने करके युवाओं को नौकरियों से बाहर रखना, लद्दाख को संरक्षण नहीं देना, यह सब भी हिंसा की वजहों में शामिल हैं। उन्होंने अपनी बात
रखते हुए कहा कि एक तरह से ये 'जेन
ज़ी' रिवॉल्यूशन था।
वांगचुक ने केंद्र
सरकार और बीजेपी के आरोपों को खारिज़ करते हुए कहा कि हिंसा का तात्कालिक कारण दो बुज़ुर्ग
प्रदर्शनकारियों का अस्पताल में भर्ती होना था, लेकिन अप्रत्यक्ष कारण युवाओं में पिछले पाँच वर्षों से जमा हुई कुंठा थी, क्योंकि उनकी शांतिपूर्ण
माँगों को नज़रअंदाज़ किया गया।
उन्होंने बाहरी ताक़तों
से फंडिंग मिलने के आरोपों को भी सिरे से खारिज़ किया और कहा कि यह हाल के महीनों में
उन्हें परेशान करने का हिस्सा है, जिसमें उनके स्कूल की सीबीआई जाँच भी शामिल है। वांगचुक ने कहा, "केंद्र शासित प्रदेश
में खुलेआम इतने भ्रष्टाचार के मामले हैं, लेकिन जाँच हमारे ऊपर हो रही है।"
वांगचुक को देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा बताते हुए गिरफ़्तार
कर जोधपुर जेल भेज दिया!
जिस तेज़ी के साथ सरकार
ने वांगचुक को जेल भेज दिया, यदि इसके आधे हिस्से की तेज़ी सरकार अपने ही द्वारा किए गए वादों को पूरा करने
में दिखाती, तो लद्दाख और लेह में जो कुछ हुआ वैसा नहीं होता।
बीबीसी रिपोर्ट के
अनुसार 26 सितंबर को वांगचुक को उनके गाँव उलेटोक्पो से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) के तहत गिरफ़्तार कर
लिया गया और उन्हें जोधपुर जेल भेज दिया गया।
यूँ तो मोबाइल पर पर्यावरण
के ज्ञानवर्धक वीडियो देखने वालों में से ज़्यादातर लोगों को कुछ सालों पहले तक सोनम
वांगचुक के बारे में इतना नहीं पता था। 3 इडियट्स के बाद भी नहीं। फ़िल्म सफल रही और जब लोगों को पता चला कि फ़िल्म के
हीरो आमिर ख़ान ने जिस फुनसुख वांगडू का किरदार निभाया था, उसकी प्रेरणा सोनम
वांगचुक थे, तब लोग कुछ अधिक जानने लगे।
आज से पहले जब भी सोनम वांगचुक का नाम सुना गया वो हमेशा तकनीकों
में नवाचार से जुड़ा होता था, लद्दाख
की ठंड से भारतीय सैनिकों को बचाने वाले सोलर टेंट बनाने से संबंध रखता था, शिक्षा
सुधार से जुड़ता था या फिर पर्यावरण के प्रति उनकी चिंताओं और उसके उपाय से जुड़ा होता
था। मैग्सेसे सम्मान से जुड़ा हुआ होता था।
इसी सोनम वांगचुक को
अमृतकाल में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा मानते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा
क़ानून लगा कर उन्हें जोधपुर जेल में बंद कर दिया! उनके भाषणों को भड़काऊ बताकर! जबकि धर्म संसद और चुनावी रैलियों में सरेआम
असंवैधानिक बातें करने वाले, लगातार भड़काऊ और सांप्रदायिक भाषण देने वाले आज समाज में आज़ाद घूम रहे हैं! क्योंकि उनमें से किसी ने सत्ता से सवाल नहीं किए हैं।
लद्दाख में तैनात, सर्दी से जूझते भारतीय
सैनिकों के लिए कभी सोलर टेंट बनाने वाले और लद्दाख में सरकारी शिक्षा को दुरुस्त करने
के लिए ऑपरेशन न्यू होप जैसे अभियान चलाने वाले सोनम वांगचुक आज राष्ट्रीय सुरक्षा
के लिए ख़तरा बन गए हैं!
सवाल करना और वादे याद दिलाना, वांगचुक की ये शैली अमृतकाल वाली सरकार को पसंद नहीं आई?
शायद वांगचुक भारत
के लिए नहीं लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के लिए परेशानी बन चुके थे। 2019 में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने
के बाद लद्दाख को जम्मू कश्मीर से अलग करके केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। बीजेपी
की सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि लद्दाख को न सिर्फ़ राज्य का दर्जा दिया जाएगा
बल्कि उसे छठी अनुसूची में शामिल भी किया जाएगा।
लेकिन जब सालों तक
मोदी सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया तो सोनम वांगचुक ने गांधीवादी तरीक़े से लद्दाख
के लिए काम करना शुरू किया। मार्च 2024 में उन्होंने लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और इसे छठवीं अनुसूची में शामिल
करने के लिए 21 दिनों तक भूख हड़ताल की।
अक्टूबर 2024 में वांगचुक ने लद्दाख
का वादा याद दिलाने के लिए लद्दाख से लेकर दिल्ली तक की लंबी पैदल यात्रा की, जिससे वे लद्दाख से
जुड़ी अपनी माँगों को लेकर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृह मंत्री से मिल सकें। लेकिन उन्हें किसी से भी मिलने नहीं दिया
गया! दिल्ली पुलिस ने सिंघु बॉर्डर से उन्हें हिरासत में ले लिया।
सोचिए, देश
को विश्वगुरू बनाने का चंटपना फैलाने वाले पीएम मोदी लंबी पैदल यात्रा करके
शांतिपूर्वक लद्दाख की माँगों के साथ आए हुए वांगचुक से नहीं मिले, लेकिन दूसरी तरफ़ उनकी वाहवाही करने वाले विराट कोहली, अक्षय कुमार- अनुपम खेर समेत दूसरे बॉलीवूड कलाकार, प्रधानमंत्री से बेरोकटोक मिल सकें! घंटों तक वे पीएम मोदी से बतिया सकें। बस, वांगचुक नहीं मिल पाए!
उनकी पदयात्रा पर सरकार
के किसी प्रतिनिधि ने बात नहीं की, कोई महत्व नहीं दिया तो उन्होंने फिर लद्दाख के लोगों की मांगों को लेकर हाल ही
में 10 सितंबर 2025 को फिर से भूख हड़ताल शुरू की। 15 दिनों तक सरकार का कोई भी प्रतिनिधि वांगचुक से मिलने नहीं पहुँचा।
उन पर तथा उनकी संस्थाओं
पर जाँच के बहाने विविध मामले लगा दिए गए। इस बीच 24 सितंबर को लद्दाख के लोगों द्वारा एक मार्च निकाला गया, जो हिंसक हो गया और
जानहानि हुई। अभी तक साफ़ नहीं है कि हिंसा कैसे भड़की? बजाय इसके कि अपराधियों
को पकड़ा जाता, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सारा आरोप सोनम वांगचुक पर मढ़ते हुए कहा कि यह स्पष्ट
है कि भीड़ को सोनम वांगचुक ने अपने भड़काऊ बयानों के माध्यम से उकसाया।
इसके बाद अगले ही दिन
मंत्रालय ने सोनम वांगचुक द्वारा स्थापित संगठनों में से एक, SECMOL का विदेशी अंशदान
(विनियमन) अधिनियम (FCRA) लाइसेंस तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया और उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगा
दिया गया। केंद्र सरकार के अंतर्गत चलने वाला लद्दाख का प्रशासन फ़िलहाल शायद वांगचुक
का 'पाकिस्तान कनेक्शन' खोजने में लगा हुआ होगा।
बीजेपी और सत्ता की
सोशल मशीनरी वांगचुक को देशद्रोही सिद्ध करने में लग गई है। बांग्लादेश के मुख्य प्रशासनिक
सलाहकार मोहम्मद युनूस के साथ उनकी फ़ोटो और पाकिस्तान के अख़बार डॉन के कार्यक्रम
में उनकी भागीदारी की पोस्ट के माध्यम से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि उनकी
देशभक्ति संदिग्ध है।
जो बीजेपी कार्यकर्ता
और मोदी समर्थक वांगचुक को देशभक्त पर्यावरण कार्यकर्ता और देशभक्त वैज्ञानिक कहा करते
थे, वे आज उन्हें चीनी
एजेंट बता रहे हैं!
बीजेपी और आरएसएस के लिए देशप्रेम और देशद्रोह की परिभाषा उनकी
अपनी विचारधारा के समर्थन मात्र से ही जुड़ी है?
सोनम वांगचुक, जिसने कभी एक छड़ी
तक नहीं उठाई, उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा क़ानून लगा देना, जिससे 12 महीनों तक बिना ज़मानत
और ट्रायल के उन्हें जेल में बंद रखा जाए, उनका मनोबल तोड़ा जा सके, उन्हें उनकी माँगों से पीछे हटाया जा सके। यह किस टाइप का अमृतकाल है?
अगर वांगचुक देश के
लिए ख़तरा हैं, तो उनका तथाकथित एक भी भड़काऊ बयान सरकार सामने नहीं ला सकी है। वांगचुक के जिन
बयानों को सरकार भड़काऊ बता रही है, वह वैसे दिखाई नहीं देते।
पीएम मोदी को बता देना
चाहिए कि दिल्ली सरकार में मंत्री बनकर बैठे कपिल शर्मा का क्या होना चाहिए जिन्होंने
कैमरे पर दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में खुलेआम ना सिर्फ़ भड़काऊ बयान दिया था, बल्कि
दंगे को जमकर उकसाया भी था। केंद्र में मंत्री अनुराग ठाकुर का क्या जिन्होंने 'देश के गद्दारों को, गोली मारो ## को' वाला भाषण दिया था।
बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे का क्या जिन्होंने देश के तत्कालीन सीजेआई संजीव खन्ना
को देश में गृहयुद्ध का अपराधी कह दिया दिया था।
क्या देशप्रेम या देशद्रोह
की परिभाषा बीजेपी, आरएसएस या मोदी सरकार की प्रशंसा मात्र से जुड़ी हुई हैं? क्या मोदी, बीजेपी और आरएसएस, ये सब यही चाहते
हैं कि यदि लोगों को लगे कि सरकार उनकी बात नहीं सुनती, जो कि सुननी चाहिए, तब भी लोगों को गूँगा
बनकर अपना जीवन पूरा कर लेना चाहिए?
जब भारत का संविधान लोकतांत्रिक ढंग से नागरिकों को अपनी बात
रखने का अधिकार प्रदान करता है, प्रदर्शन
और आंदोलन का हक़ देता है, तो
ये लोग किस देश से आए हैं जिन्हें भारत और भारत की इस परंपरा से चिढ़ है? तब तो इन्हें ही किसी दूसरे देश चले जाना चाहिए।
आरएसएस, जो बीजेपी की मातृ
पितृ संस्था है, उसने शायद अपने स्वयंसेवक मोदी को यही सिखाया है कि देश को चलाने वाला सचमुच राजा
ही होता है। है स्वघोषित नॉन बायोलॉजिकल महोदय! देशप्रेम, देशद्रोह और अमृतकाल की आपकी समझ दरअसल आपकी मातृ पितृ संस्था
पर भी सवाल उठाती है।
जो सत्ता विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों से आगे आई, शायद वह इसकी ताक़त को जानती है
नरेंद्र मोदी, बीजेपी या आरएसएस।
हमारा निर्विवाद रूप से मानना है कि भारत में सत्ता के लिए कौन सर्वेष्ठ है उस
पर चर्चा हो सकती है, लेकिन बतौर विपक्ष बीजेपी से बेहतर कोई हो नहीं सकता।
आरएसएस और बीजेपी ने
भले स्वतंत्रता आंदोलन में चीटीं जितना भी योगदान नहीं दिया था, लेकिन स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद राजनीति और सत्ता की सरपट दौड़ में इन्हें विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों
का जितना अनुभव है, उतना किसी और को नहीं होगा। इनके पास राई का पहाड़ और पहाड़ की राई बनाने का जो
सिस्टम है, वह किसी दूसरे के पास कभी नहीं रहा!
इन्हें विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों का 'इम्पैक्ट' क्या होता है इसका पूरा ज्ञान है। प्याज़ के दाम भर
के मुद्दे पर वे सरकार गिरा सकने की क्षमता धारण किए हुए हैं। अपनी इसी ख़ूबी के ज़रिए
वे देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को इतिहास का बुरा दौर दिखा चुके हैं।
और शायद इन्हीं कारणों
से वे और उनके नायक मोदीजी एक ऐसा अमृतकाल पसंद करते हैं, जहाँ उन्हें सिर्फ़
और सिर्फ़ प्रशंसा पसंद है। आलोचना, सवाल, ज़िम्मेदारी, जवाबदेही से इनका रिश्ता नहीं लगता और कोई उन्हें यह रिश्ता याद दिलाने की कोशिश
करता है तो वह देश का दुश्मन बन जाता है।
उन्हें नागरिक नहीं चाहिए, सिर्फ़ गूँगे वोटर चाहिए! अरे भाई तुम्हें मैग्सेसे से सम्मानित किया गया हो या नोबेल
से, तुम्हें ज्ञानपीठ मिला हो या साहित्य अकादमी, कीर्ति चक्र मिला हो या परमवीर चक्र, या कुछ और,
इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता! तुम तब तक ही अच्छे हो जब तक गूँगे हो। बहरों का इलाक़ा है
जरा ज़ोर से बोलो - इस चक्कर में मत पड़ना, वर्ना तुम्हीं ने तो कहा कि बहरों का इलाक़ा है! राजद्रोह, देशद्रोह, ईशनिंदा, जो
कुछ हो, सब के सब लगा देंगे तो बोलने के क़ाबिल ही नहीं रहोगे। बोलोगे
तो सुनेगा भी कौन? क्योंकि बहरों का इलाक़ा है।
पीएम मोदी को बताना
चाहिए कि उन्होंने देश में चल रहे किस आंदोलन को लेकर सकारात्मक रूख अपनाया? किस आंदोलन को उन्होंने
अपनी सत्ता के ख़िलाफ़ एक चुनौती के रूप में नहीं देखा? शायद उनके पास कोई
जवाब नहीं होगा। यूपीएससी, एसएससी जैसे अन्य छात्र आंदोलनों से लेकर किसान आंदोलन तक, महिला पहलवान खिलाड़ियों
के आंदोलन से लेकर लद्दाख आंदोलन तक, कौन सा ऐसा आंदोलन था जो सरकार के ख़िलाफ़ था? जवाब है एक भी नहीं।
अन्ना आंदोलन की तरह
बीते सालों में भारत में कोई भी आंदोलन सत्ता पलटने के लिए नहीं किया गया। आज लोग स्वाभाविक
नाराज़गी के साथ अपनी माँगों को लेकर सरकार के सामने आते हैं जिससे उनका मुद्दा सुलझ
जाए और वो अपने घरों में जाकर अपने काम कर सकें। सरकार से संघर्ष के लिए न किसी के
पास संसाधन हैं और ना ही वक़्त।
लेकिन हर नागरिक आंदोलन
को देशद्रोह से जोड़ देना, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बता देना, यह वो कह देता है, जो मुख्य धारा का मीडिया कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। पीएम ख़ुद को नॉन बायोलॉजिकल
बताते हैं, लेकिन वे है नहीं। उनके समर्थक लोग उन्हें दैवीय अवतार मानते हैं, लेकिन है नहीं। वे
पीएम हैं, देश नहीं हैं। किंतु वे येनकेन प्रकार से ख़ुद की आलोचना
को देश की आलोचना बताने लगते हैं।
मोदी सत्ता का जो रवैया
रहा है, वह अब सवालों और आलोचनाओं के दमन तक सिमित नहीं है। वे पिछले कुछ समय से आंदोलन
और विरोध प्रदर्शन जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ही ग़ैरज़रूरी और असंवैधानिक कदम
सरीखा बताने में जुटते दिखाई दे रहे हैं। आज वे 'जेन जी', यानी युवा पीढ़ी को ही अपराधी या मूर्ख समुदाय बताने से पीछे नहीं हट रहे, जिसे कभी वे ताक़त
बताते थे।
देखा
जाए तो वांगचुक का विचार डॉ. राम मनोहर लोहिया के हिमालय बचाओ विचार का ही विस्तार
और ज़मीनी प्रयोग है। उसमें भारतीय भूभाग की रक्षा के साथ ही हिमालय जैसी विलक्षण पारिस्थितिकी
की रक्षा का प्रयास भी है। पर मुश्किल है कि सत्ता के अहंकार और खोखले राष्ट्रवाद में
मदमस्त लोगों को न तो हिमालय समझ में आता है और न ही उसकी पारिस्थितिकी का महत्व। उनके
लिए मध्य भारत का दंडाकारण्य बड़ी कंपनियों के खनन का मैदान है, तो हिमालय एक बड़ी सैन्य छावनी।
देश
के नागरिकों को अपने अधिकारों की माँग के लिए देशभक्ति साबित करनी होगी, और देशभक्ति की अमृतकाल वाली परिभाषा इतनी सी है कि आप सत्ता
और सत्ता से जुड़े संगठन की आलोचना नहीं करेंगे, उनसे सवाल नहीं पूछेंगे, तथा उनकी विचारधारा के विपरित बात नहीं करेंगे।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)