लोकतंत्र में जनता ज़िद पर उतर आती है, किंतु सरकारों को समझदारी दिखानी चाहिए। जैसे जनता की तमाम
माँगें ठीक और पूरी करने योग्य नहीं हो सकती, बिलकुल वैसे ही सरकारों को भी समझना चाहिए कि वादे भी ऐसे करें
जो ठीक हो और पूरे करने योग्य हो।
रही बात आंदोलनों की, स्वतंत्रता के पश्चात हुए अनेक सफल-अर्ध सफल आंदोलन तीन मुख्य व्यावहारिक चीज़ें
दर्शाते हैं। पहली - किसी दूसरे को परेशानी न हो और अशांति उत्पन्न न हो इस तरह अपनी
माँगों को आगे बढ़ाइए, वर्ना सामाजिक सहकार की कमी महसूस होगी। दूसरी - आंदोलन किसी भी मुद्दे को लेकर
किया जा रहा हो, किंतु संविधान- क़ानून और सरकार को आप की ग़लती के ज़रिए मौक़ा मत दीजिए, वर्ना वह आपको कहीं
के नहीं रहने देंगे। तीसरी - भागते भूत की चोटी पकड़ना सीख जाइए।
लेह लद्दाख मामले में जो भी दिखाई दे रहा है, सत्ता के वादे, दिखाए गए सपने, पूरे होने का इंतज़ार, आंदोलन, विरोध, प्रदर्शन, हिंसा, राष्ट्रद्रोह के आरोप, मुख्य चेहरे की गिरफ़्तारी।
तमाम घटनाक्रम में जनता की ज़िद को जितना आगे किया जा रहा है, सरकारों की समझदारी
पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
लेह लद्दाख में शांतिपूर्ण
तरीक़े से चल रहे आंदोलन के बीच जो हिंसा हुई वह स्वीकार्य बिलकुल नहीं हो सकती। मामला
कोई भी हो, हिंसा नीतिगत भी नहीं है, साथ ही क़ानून और संविधान का उल्लंघन भी है।
हिंसा से समाधान तो
नहीं मिलता, उलटा मक़सद और माँग की बदनामी हो जाती है। ठीक वैसे ही, जो मुद्दे व्यापक
और संवेदनशील हो, उसमें हिंसा के बाद सरकार के द्वारा बर्ती जा रही सख़्ती से भी समाधान नहीं मिलता, उलटा सरकार की नियत
और नीति, दोनों की बदनामी हो जाती है।
लोकतंत्र में जनता
ज़िद करती है, सरकारों को समझदारी दिखानी चाहिए। जो मामला समझदारी के साथ शांतिपूर्वक हल किया
जा सकता हो, उसके लिए सत्ता को ज़िद पर क्यों अड़ जाना? मोदी सरकार हो, मनमोहन सिंह की सरकार हो या पूर्व सरकारें हो, देखा गया है कि मामले तब ज़्यादा बिगड़े जब सरकारों ने अपनी
समझदारी छोड़ी और ज़िद पर अड़ी।
जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद
370 निष्प्रभावी हुए बहुत
समय बीत चुका है। तब सत्ता और उसकी सोशल मशीनरी ने जिस तरह के सपने दिखाए थे, जो माहौल बनाया था, जो वादे किए थे, तभी सरकार को समझना
चाहिए था कि वादे ऐसे करें जो ठीक हो और पूरे किए जा सकें ऐसे हो। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करते
समय उन दिनों सत्ता और सत्ता से जुड़ी सोशल मशीनरी ने जिस तरह के दावे किए थे, बड़बोलेपन के साथ
जो वचन दिए थे, वह वाक़ई अति था, साथ ही चंटपन के आसपास भी।
निसंदेह, उनमें से कुछ ऐसे
थे जिन्हें समय रहते पूरा किया जा सकता था। उन्हें पूरा कर लिया गया होता तो जनता के
बीच, कुछ भी नहीं किया गया, वाला भाव नहीं पनपता। इस हिसाब से लेह लद्दाख का आंदोलन आज जिस मोड़ पर खड़ा है, उसमें जितना दोष जनता
का देखा जा रहा है, उतना सरकार का भी है।
मामले
का संक्षिप्त पूर्वार्ध
अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर
से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया। उस समय जम्मू कश्मीर और लद्दाख को दो अलग अलग केंद्र
शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया था। वादा किया गया कि दोनों विभाजित प्रदेशों
को ज़ल्द पूर्ण राज्य बना दिया जाएगा।
उस समय प्रसिद्ध क्लाइमेट
एक्टिविस्ट और शिक्षाविद् सोनम वांगचुक समेत लेह और लद्दाख के कईं निवासियों ने इस
कदम का स्वागत किया था। समय बीता और जम्मू और कश्मीर संघ शासित प्रदेश को विधानसभा
मिली और उसने अपनी पहली चुनी हुई सरकार भी बनाई। लेकिन लद्दाख केंद्र शासित ही रहा।
पूर्ण राज्य के दर्जे के साथ लद्दाख को लेकर कुछ माँगें अब भी लंबित थीं।
एक साल के भीतर ही
केंद्र के प्रत्यक्ष शासन के तहत राजनीतिक रिक्तता और स्थानीय लोगों के हितों की अनदेखी
के कारण असंतोष बढ़ने लगा। लंबित माँगों को लेकर यहाँ लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल
डेमोक्रेटिक एलायंस (केडीए) की अगुवाई में छोटे-मोटे प्रदर्शन होते रहे। केंद्र सरकार
ने माँगों पर चर्चा के लिए दिसंबर 2023 में एक उच्च-स्तरीय समिति गठित की।
एलएबी और केडीए ने
2024 तक अलग अलग माँगों को लेकर केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय और प्रशासन से बातचीत की। इसके बाद 2024 में यह एक महत्वपूर्ण
आंदोलन में बदल गया। एलएबी और केडीए, दोनों संगठनों की बैठक अक्टूबर 2025 के महीने में केंद्र सरकार के साथ होने वाली थी।
उधर लोकतांत्रिक तरीक़े
से किए जा रहे प्रयत्नों के अनुसार सरकार पर दबाव डालने के लिए एलएबी और केडीए के नेतृत्व
ने 10 सितंबर 2025 के दिन 35 दिनों की भूख हड़ताल शुरू की। सोनम वांगचुक इस भूख हड़ताल में सह्योग करने हेतु
शामिल हुए।
लद्दाख
की चार सूत्रीय माँगें
1. लद्दाख के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा
2. संविधान की छठी अनुसूची के तहत लद्दाख को शामिल करना, ताकि इसकी जनजातीय
स्थिति सुरक्षित रहे
3. अलग लोक सेवा आयोग: बेरोजगारी के मद्देनज़र लद्दाख के लिए एक अलग लोक सेवा आयोग
की स्थापना
4. दो संसदीय सीटें: ताकि केंद्र में अधिक प्रतिनिधित्व हो
लद्दाख की पहली माँग, राज्य के दर्जे की
माँग, का सरकारी जवाब यह रहा कि लद्दाख को पहले ही वह संघ शासित प्रदेश का दर्जा मिल
चुका है, जो वह जम्मू-कश्मीर का हिस्सा होने के दौरान माँग रहा था। यानी केंद्र ने राज्य
का दर्जा देने से अप्रत्य इनकार कर दिया।
दूसरी माँग, छठी अनुसूची अनुच्छेद
244 के तहत परिभाषित है।
इसके तहत जनजातीय क्षेत्रों जैसे असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा को अधिक स्वायत्तता प्रदान मिलती है, ऐसी ही स्वात्तता
लद्दाख के लोग भी चाहते हैं। यह अनुसूची क्षेत्र के आदिवासी समुदायों को भूमि, जंगल, पानी, संस्कृति और संसाधनों
की रक्षा के लिए स्वायत्त प्रशासनिक अधिकार देती है।
तीसरी और चौथी माँग, ख़बरों के मुताबिक़
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इन चार माँगों में से आख़िरी दो माँगों - अलग लोक सेवा आयोग
और एक के बजाय दो लोकसभा सीटों पर चर्चा करने पर सहमति जताई थी।
पूर्ण
राज्य का दर्जा
जब अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया
गया तब भी अनधिकृत रूप से यह वातावरण तैयार किया गया था कि ज़ल्द ही लद्दाख को पूर्ण
राज्य का अधिकार मिल जाएगा। अनुच्छेद के निष्प्रभावी होने से जो कुछ स्पेशल स्टेटस
खोने का मलाल लोगों में था, वह पूर्ण राज्य की आश के चलते जश्न में तब्दील हो गया था।
लद्दाख को पूर्ण राज्य
और विधानसभा देने का आश्वासन दिया गया था। बीजेपी ने साल 2019 के अपने चुनावी घोषणापत्र
में और बीते वर्ष लद्दाख हिल काउंसिल चुनाव में भी लद्दाख को राज्य का दर्जा और छठी
अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था।
कुछ समय गुज़रा और
पूर्ण राज्य का वादा याद दिलाया जाने लगा तो सरकारी जवाब यह रहा कि लद्दाख को पहले
ही वह संघ शासित प्रदेश का दर्जा मिल चुका है, जो वह जम्मू-कश्मीर का हिस्सा होने के दौरान माँग रहा था। यानी केंद्र ने राज्य
का दर्जा देने से अप्रत्य इनकार कर दिया।
State Border Politics: असम मिज़ोरम का सरहदी बवाल देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बीच का अंतर भी दर्शाता है
पूर्ण राज्य का वादा
पूरा नहीं होने पर यहाँ विधानसभा का गठन नहीं हुआ और इससे स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व
सुनिश्चित नहीं हो पाया। बीजेपी या बीजेपी शासित केंद्र सरकार इस संबंध में ठोस रूप
से आगे नहीं बढ़ रही है ऐसा भाव यहाँ लोगों में पनपने लगा। लोगों को लगने लगा कि बीजेपी
और सरकार अपने वादों से मुकर रही है। नये सवेरे की उम्मीदों ने नाराज़गी का रूप लेना
शुरू किया।
पूर्ण राज्य के दर्जे
की माँग 'सरलता' और 'संस्कृति' से भी जुड़ती है। दरअसल वर्तमान केंद्र शासित प्रदेश व्यवस्था में नौकरशाही भी
एक मुद्दा है। वर्तमान व्यवस्था में अफ़सर केंद्र से नियुक्ति होकर आते हैं और वे लद्दाख
की संस्कृति और जीवन के बारे में नहीं जानते, लिहाज़ा उतने संवेदनशील और स्वाभाविक नहीं होते। पिछले छह वर्षों में लद्दाख में
गैज़ेटेड पोस्ट पर कोई नई नियुक्ति नहीं हुई है।
छठी
अनुसूची की माँग
संविधान की छठी अनुसूची
के तहत लद्दाख को शामिल करना, ताकि इसकी जनजातीय स्थिति सुरक्षित रहे। यह अनुसूची क्षेत्र के आदिवासी समुदायों
को भूमि, जंगल, पानी, संस्कृति और संसाधनों की रक्षा के लिए स्वायत्त प्रशासनिक अधिकार देती है। लद्दाख
की 97% आबादी आदिवासी है।
भारतीय संविधान के
अनुच्छेद 244 के तहत छठी अनुसूची स्वायत्त प्रशासनिक प्रभागों में स्वायत्त ज़िला परिषदों के
गठन का प्रावधान करती है, जिनके पास एक राज्य के भीतर कुछ विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता होती है।
ज़िला परिषदों में
कुल 30 मेंबर होते हैं। 4 मेंबर्स को राज्यपाल नियुक्त करते हैं। छठी अनुसूची के मुताबिक़ ज़िला परिषद की
अनुमति से ही क्षेत्र में उद्योग लगाए जा सकते हैं। छठी अनुसूची अनुच्छेद 244 के तहत जनजातीय क्षेत्रों
जैसे असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा को अधिक स्वायत्तता प्रदान मिलती है। ऐसी ही स्वात्तता लद्दाख
के लोग भी चाहते हैं।
स्वायत्त ज़िला परिषद
(एडीसी) ज़मीन के इस्तेमाल, विरासत क़ानूनों और सामाजिक रीति-रिवाजों का प्रबंधन करते हैं। एडीसी को विधायी, कार्यकारी और वित्तीय
शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें टैक्स वसूलने और स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन की क्षमता शामिल है। एडीसी
राज्य के क़ानूनों को अधिगृहित करने वाले क़ानून बना सकते हैं, हालाँकि इसके लिए
राज्यपाल की मंजूरी ज़रूरी है।
हाल ही में लद्दाख
में पाँच नए ज़िलों की घोषणा की गई - साम, नुब्रा, चांगथांग, जांस्कर और द्रास। स्थानीय निवासी चांगथांग को 'संकट का प्रतीक' बताते हैं! चौराहों पर चर्चा है कि चांगथांग में पवन और सौर ऊर्जा तथा खनन की परियोजनाएँ
आने वाली हैं और इसमें बाहरी मजदूर आएँगे, जो डोमिसाइल प्राप्त कर क्षेत्र की जनसंख्या और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को स्थायी
रूप से बदल देंगे, जिससे क्षेत्र और अनुसूचित जनजातियों की मूल पहचान और परंपराएँ प्रभावित होंगी।
लद्दाख एक संवेदनशील
हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र का हिस्सा है जो पहले ही वैश्विक जलवायु संकट झेल रहा है।
आंदोलनकारी छठी अनुसूची के तहत 'पर्यावरण संरक्षण' की तत्काल माँग करते रहे हैं।
अलग
लोक सेवा आयोग की माँग, बेरोजगारी
का मुद्दा
केंद्र शासित प्रदेश
बनने से पहले लद्दाख के लोग जम्मू कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन में गैज़ेटेड पदों के
लिए अप्लाई कर सकते थे, लेकिन 2019 में उस ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद ये सिलसिला बंद हो गया। वर्ष 2019 से पहले नॉन गैज़ेटेड
नौकरियों के लिए जम्मू कश्मीर सर्विस सेलेक्शन बोर्ड भर्ती करता था और उसमें लद्दाख
के उम्मीदवार भी होते थे। लेकिन अब ये नियुक्तियाँ कर्मचारी चयन आयोग की ओर से की जा
रही हैं।
यह आयोग एक संवैधानिक
निकाय है जो केंद्र सरकार के लिए भर्तियाँ करता है। अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने
से लेकर आजतक लद्दाख में बड़े स्तर पर नौकरियों के लिए नॉन-गैज़ेटेड भर्ती अभियान नहीं
चलाया गया, जिसे लेकर लद्दाख के युवा नाराज़ चल रहे थे।
लद्दाख प्रशासन ने
अक्टूबर 2023 में अपने आधिकारिक बयान में बताया था कि केंद्र शासित प्रदेश में भर्ती करने की
प्रक्रिया जारी है। लेकिन ज़मीनी रूप से लेह और लद्दाख में बेरोजगारी और सरकारी भर्ती
की धीमी गति ने भी युवाओं को नाराज़ किया। इसी वजह से अलग सेवा आयोग की माँग शुरू हुई।
हाल के सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार, लद्दाख में 26.5% ग्रैजुएट बेरोजगार हैं। आँकड़ों से पता चला कि अंडमान और निकोबार में सबसे अधिक
33% बेरोजगारी है, जबकि लद्दाख 26.5% के साथ सभी राज्यों
और संघ शासित प्रदेशों में दूसरे स्थान पर सबसे ख़राब स्थिति में है।
जब दिसंबर 2024 में केंद्र सरकार
के साथ बातचीत शुरू हुई, तो मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सरकार की ओर से लद्दाखियों के लिए नौकरियों में 95% आरक्षण का प्रस्ताव
था।
अलग लोक सेवा आयोग
का मुद्दा रोजगारी मात्र से नहीं जुड़ा है। स्थानीय लोगों का कहना यह रहा है कि लद्दाख
का अपना पब्लिक सर्विस कमीशन स्थापित किया जाए, ताकि स्थानीय युवाओं को उनकी योग्यतानुसार रोजगार मिले और प्रशासन में बाहरी अफ़सरों
की दखलअंदाज़ी ख़त्म हो सकें, जो लद्दाख को सिर्फ़ पनिशमेंट पोस्टिंग समझते हैं।
लेह और लद्दाख में
जो कुछ भी हुआ, उसके बाद अलग लोक सेवा आयोग और बेरोजगारी के मुद्दे पर अनेक स्थानीय नेताओं, विश्लेषकों, पत्रकारों आदि ने
जो कुछ कहा इसका सारांश यह रहा कि लेह में जो कुछ हो रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है, जो क्षेत्र अपनी ख़ूबसूरती, शांति और सादगी के
लिए प्रसिद्ध था वह सरकार के असफल संघ शासित प्रदेश प्रयोग के कारण हताशा और असुरक्षा
की चपेट में है।
दो संसदीय
सीटों की माँग
लद्दाख दो संसदीय सीटों
की माँग कर रहा है, ताकि केंद्र में अधिक प्रतिनिधित्व हो सकें। किंतु लद्दाख आज भी दिल्ली के नियंत्रण
में है और लेह-कारगिल के लिए अलग लोकसभा सीटें भी नहीं हैं।
दो संसदीय सीटों की
माँग, यानी कारगिल ज़िले से एक सांसद और लेह ज़िले से एक सांसद। मीडिया रिपोर्टों की
माने तो इस मुद्दे पर गठित उच्चस्तरीय समिति की बैठक में चर्चा हुई थी, जहाँ अधिकारियों ने
संकेत दिया था कि 2026 की जनगणना के बाद परिसीमन प्रक्रिया के दौरान इस मुद्दे पर विचार किया जाएगा।
यह मसला पूर्ण राज्य
की माँग से भी जुड़ा हुआ है। स्थानीय निवासी मानते हैं कि इससे लद्दाख में विधानसभा
का गठन हो सकेगा और स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा।
चार
सूत्रीय माँगों के सिवा भी लेह और लद्दाख के अन्य दर्द, पर्यावरण- पहचान और संस्कृति की चिंताएँ
लद्दाख की जो माँगें
हैं उनमें उपरोक्त चार मुख्य हैं। इसके अलावा भी लेह और लद्दाख के दूसरे दर्द हैं, जिसे अनदेखा करने
के आरोप केंद्र सरकार पर लगाए गए हैं।
लद्दाख में वर्तमान
समय में प्रशासनिक व्यवस्था में तीन शीर्ष पद हैं - उप राज्यपाल, पुलिस महानिदेशक और
मुख्य सचिव। ये तीनों जम्मू के हैं। बताया तो यह भी जाता है कि लद्दाख के भीतर शिक्षा
समेत कई विभागों में ज़्यादातर पद बाहरी लोगों को दिए गए हैं। आरोप लगाए जाते हैं कि
आर्थिक क्षेत्र में भी श्रीनगर, जम्मू और चंडीगढ़ के ठेकेदार अपने अच्छे राजनीतिक संबंधों का फ़ायदा उठा रहे हैं।
स्थानीय व्यापारियों की बाज़ार पर पकड़ कमज़ोर होती जा रही है।
'पर्यावरण' और 'संस्कृति' को लेकर लेह लद्दाख की जनता की चिंताएँ भी
कम नहीं है। लद्दाख का हिमालय क्षेत्र बेहद नाजुक है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ग्लेशियर
पिघलने पर क्या होता है इसके ज्ञानवर्धक वीडियो परोसने के सिवा इस मामले को लेकर कुछ
किया नहीं जा रहा।
'पानी की कमी' से लेह और लद्दाख के लोग जूझने लगे, जिसकी तरफ़ ना सरकार
ने ध्यान दिया और ना ही ज्ञानवर्धक वीडियो बनाने या देखने वालों ने। यहाँ की ख़ूबसूरती, सादगी और शांति को
आगे धर पर्यटन के वीडियो भी ख़ूब परोसे गए, बॉलीवूड वहाँ पहुँचा, फ़िल्में बनीं, फिर लोग पहुँचने लगे। नतीजा - पर्यावरण से छेड़छाड़ शुरू हुई और पर्यटन से कचरा
बढ़ा।
इस बीच अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी हुआ और
उससे जुड़ा भूमि धारण करने को लेकर एक नियम था वह भी निरस्त हो गया। हालाँकि सोशल मशीनरी
में चंटपना दिखा रहे कोई भक्त यहाँ ज़मीन नहीं ले पाया, लेकिन पैसे और पहुँच
वाला समुदाय पर्यटन उद्योग हेतु यहाँ आने लगा और किसी न किसी प्रकार का निर्माण शुरू
होता दिखाई देने लगा।
लद्दाख के प्राकृतिक
संसाधन, जैसे ग्लेशियर, जल स्रोत, ग्रेनाइट, लाइमस्टोन (चूना पत्थर) और यूरेनियम जैसे खनिज भंडार, को व्यावसायिक हितों
के लिए खोल दिया गया। नतीजन यहाँ पर्यावरण और संस्कृति से जुड़ी समस्याएँ सिर उठाने
लगीं।
अनुच्छेद
370 के
निष्प्रभावी किए जाने के बाद लेह लद्दाख को जो अधिकार और जो ख़ुशी मिलनी चाहिए थी उसमें
देरी हुई?
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करना
- यह जम्मू और कश्मीर, लेह और लद्दाख, के लिए एक ऐतिहासिक घटनाक्रम था। जम्मू कश्मीर मामलों के जानकारों की उन दिनों
की अनेक रपटें थीं, जो दर्शाती थीं कि इस घटनाक्रम ने यहाँ आम जनता को ज़्यादातर तो नयी उम्मीदों
और नयी आशाओं का सवेरा प्रदान किया था।
स्वाभाविक है कि हर
मामले में जनता में एक राय नहीं होती। इस प्रकार यहाँ भी अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने
का घटनाक्रम जनता के तमाम वर्ग के लिए एक समान नहीं था। कुछेक नाराज़गी और असहमती भी
थी। कहीं गुस्सा भी था। किंतु उन दिनों की रपटें दर्शाती थीं कि ज़्यादातर यह नयी उम्मीदों
और नयी आशाओं का सवेरा था।
उन दिनों केंद्र सरकार
ने यहाँ जनता को अनेक वादे किए थे। सपने भी अनेक दिखाए गए थे। लद्दाख ने अपना स्टेटस
तो खो दिया था, लेकिन जनता सरकार द्वारा किए गए वादों और वचनों को लेकर छोटी मोटी नाराज़गी भूलाकर
नयी उम्मीदों के सहारे आगे बढ़ने को तैयार थी।
ग़ैर स्थानीय लोगों
द्वारा ज़मीन के मालिकाना हक़ को नियंत्रित करने वाला नियम ख़त्म होना - यह नाराज़गी
के प्रमुख कारणों में से एक था। क्योंकि इसका संबंध उनकी अपनी रोजगारी, सुरक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, आय की गारंटी का सुरक्षित
स्त्रोत, संस्कृति, आदि से था।
जिस तरह भारत के दूसरे
राज्यों में है, यहाँ भी था। बाहरी लोगों को ज़मीन का मालिकाना हक़ और विशेष दर्जे के ख़त्म होने
से मिल रही कुछ सुरक्षाएँ बंद होने से लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर महसूस की जा
रही असुरक्षा यहाँ व्याप्त थी। लेकिन इन सब मामलों को केंद्र सरकार समय रहते कमजोर
कर सकती थी।
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने
का ऐतिहासिक फ़ैसला केंद्र सरकार ले चुकी थी। किंतु समय बीतने पर ऐसा लगने लगा, जैसे कि केंद्र सरकार
ने इस फ़ैसले को ले तो लिया, किंतु उसके बाद ज़मीन पर जो काम करने चाहिए थे, उसमें सरकार आलस दिखाने लगी।
लद्दाख को स्वतंत्र
राज्य का दर्जा अब तक नहीं मिल पाया था। बाहरी लोगों के मालिकाना हक़ की तलवार सिर
पर थी। रोजगार, आय, भविष्य की सुरक्षा, नौकरी, व्यवसाय के साथ साथ चुनावी भागीदारी, संसदीय परंपरा की ज़मीनी बिछात, जैसे मामलों में लेह और लद्दाख की जनता को लंबा इंतज़ार करना पड़ रहा था।
ऐसा लगता है कि यदि
सरकार ने कुछेक माँगें, जो पूरी की जा सकती थीं, उसे ज़मीन पर लागू करना शुरू कर दिया होता तो दूसरे मुद्दों पर जनता के बीच जो
नाराज़गी थीं उसे ठंडा किया जा सकता था। कुछ नहीं किया – से - कुछ कर रहे हैं, यह भाव समस्या को
सिर उठाने नहीं देता।
जब आंदोलन
हिंसक हो गया, बीजेपी
का दफ़्तर फूँका गया, वाहन
जला दिए गए, 4 की मौत
जैसे कि ऊपर देखा, एलएबी और केडीए के
नेतृत्व ने 10 सितंबर 2025 के दिन 35 दिनों की भूख हड़ताल शुरू की थी। 23 सितंबर की शाम अनशन में शामिल 15 लोगों में से 2 बुजुर्ग प्रदर्शनकारियों का स्वास्थ्य बिगड़ जाने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती
कराया गया। इसी संबंध में एलएबी की युवा शाखा ने केंद्र सरकार और प्रशासन पर उनकी माँगों
को नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगाते हुए 24 सितंबर को पूर्ण बंद और विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था।
इस दिन आंदोलन अचानक
हिंसक हो गया। ऐसी हिंसा की उम्मीद किसी को नहीं थी। हिंसा के दौरान प्रदर्शनकारियों
ने बीजेपी का दफ़्तर फूँक दिया और वाहन जला दिए। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार मुख्य कार्यकारी
पार्षद के कार्यालय पर तोड़फोड़ और आगजनी हुई। हिंसा में कम से कम 4 लोग मारे गए और 50 के आसपास लोग जख़्मी
हुए।
हिंसा के दौरान पुलिस
वाहन को भी आग के हवाले कर दिया गया। बड़े पैमाने पर पथराव हुआ। यह लद्दाख में हाल
के समय में इस तरह की पहली हिंसक घटना थी।
यह घटना एलएबी के नेताओं
द्वारा 22 सितंबर 2025 को दी गई चेतावनी के दो दिन बाद हुई। उन्होंने कहा था कि हमारा धैर्य ख़त्म हो
रहा है। पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार एलएबी के सह अध्यक्ष चेरिंग दोर्जे ने एक ऑनलाइन
प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, "जब तक कोई समझौता नहीं होता तब तक भूख हड़ताल ख़त्म नहीं होगी... हमारा प्रदर्शन
शांतिपूर्ण हैं लेकिन लोग अधीर हो रहे हैं। स्थिति हमारे हाथ से निकल सकती है।"
आंदोलन
के दौरान हिंसा होने के बाद
हिंसा होने के बाद
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार लद्दाख के उप राज्यपाल कविंदर गुप्ता ने बताया कि लेह ज़िले
में कर्फ़्यू लगा दिया गया है। एएनआई के अनुसार, लेह ज़िले में बीएनएस की धारा 163 (पुरानी धारा 144) लागू कर दी गई।
आंदोलन के दौरान हिंसा
होने के बाद, सोनम वांगचुक ने हिंसा से नाराज़ होकर अपना अनशन ख़त्म कर दिया और हिंसा को नासमझी
बताते हुए अपनी नाराज़गी जताई। वांगचुक ने राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची के लिए चल
रहा अपना आंदोलन भी स्थगित कर दिया।
सोनम वांगचुक ने एक्स
पर एक वीडियो संदेश जारी कर शांति की अपील की। उन्होंने कहा, "आज, हमारे भूख हड़ताल
के 15वें दिन, लेह सिटी में व्यापक हिंसा और तोड़फोड़ की घटनाओं से मैं दुखी हूँ। कई कार्यालयों
और पुलिस की गाड़ियों को आग लगा दी गई।"
वांगचुक ने घटना को
दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा, "लेह में बहुत दुखद घटना हुई। शांतिपूर्ण तरीक़े से आंदोलन करने का मेरा संदेश आज
विफल हो गया। मैं युवाओं से अपील करता हूँ कि कृपया यह सब बंद करें। इससे सिर्फ़ हमारा
मक़सद ख़राब होता है।"
शाम पाँच बजे एक प्रेस
कॉन्फ़्रेंस में वांगचुक ने कहा, "इस हिंसा में तीन से पाँच युवाओं की जान जाना दुखद है और हम उनके परिवारों के साथ
शोक जताते हैं।" उन्होंने कहा, "पाँच सालों से वो (युवा) बेरोज़गार हैं। एक के बाद एक बहाना करके उन्हें नौकरियों
से बाहर रखा जा रहा है और लद्दाख को भी संरक्षण नहीं दे रहे हैं। आज यहाँ कोई लोकतांत्रिक
मंच नहीं है।"
उन्होंने कहा, "यहाँ कुछ लोग 35 दिन से अनशन कर रहे
थे। कल उनमें से दो लोगों की तबीयत ख़राब हो गई और उन्हें बहुत गंभीर स्थिति में अस्पताल
में भर्ती कराया गया। इससे लोगों में बहुत रोष है और आज पूरे लेह में बंद की घोषणा
की गई। इस दौरान हज़ारों की संख्या में युवा सड़कों पर आ गए। एक तरह से ये 'जेन ज़ी' रिवॉल्यूशन था।"
हिंसा
के लिए सरकार और आंदोलनकारियों ने एक दूसरे पर आरोप लगाए
तमाम आंदोलनों में
होता है वैसा यहाँ भी हुआ। हिंसा के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे। आंदोलनकर्ताओं
ने कहा कि यह हिंसा तब भड़की जब राज्य के दर्जे की माँग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों
पर पुलिस ने डंडे बरसाए। उधर सरकार ने दलील दी कि आंदोलनकारियों के हिंसक व्यवहार को
नियंत्रित करने के लिए पुलिस को सख़्ती बरतनी पड़ी।
मीडिया रिपोर्ट के
अनुसार लद्दाख के उप राज्यपाल कविंदर गुप्ता ने हिंसा के पीछे षड्यंत्र का आरोप लगाया।
उन्होंने दावा किया कि प्रदर्शनकारियों ने सीआरपीएफ़ जवानों को ज़िंदा जलाने की कोशिश
की और डीजीपी लद्दाख के वाहन पर पथराव किया।
पुलिस और प्रशासन ने
आंदोलनकारियों पर हिंसा का दोष मड़ा, वहीं आंदोलन में शामिल लोगों ने पुलिस और प्रशासन को ज़िम्मेदार ठहराया। पुलिस
ने दावा किया कि कुछ युवाओं ने कथित तौर पर पथराव शुरू कर दिया, जवाब में पुलिस को
आँसू गैस के गोले और लाठीचार्ज का सहारा लेना पड़ा। स्थानीय लोगों ने कहा कि पुलिस
ने प्रदर्शनकारियों को बीजेपी कार्यालय के बाहर इकट्ठा होने से रोकने की कोशिश की, जिसके बाद मामला बिगड़ा।
केंद्र
सरकार ने ठीकरा सोनम वांगचुक पर फोड़ा, पीछे
पड़ी सरकार
24 सितंबर से पहले भी, लेह और लद्दाख की जो माँगें हैं, वहाँ जनता की जो उम्मीदें हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर ख़बर नहीं बन पातीं, अगर इसके साथ सोनम वांगचुक का चेहरा न जुड़ा होता। वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त
पर्यावरणीय कार्यकर्ता हैं। साथ हीं शिक्षाविद् भी। वे एक इंजीनियर और पर्यावरण कार्यकर्ता
हैं जो लद्दाख की ज़मीन और संस्कृति बचाने के लिए दशकों से लड़ रहे हैं। इन्हें सन
2018 में रेमन मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
वांगचुक ने जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए 'आइस स्टूपा' तकनीक विकसित की, जो सर्दियों में पानी को संग्रहित करने का एक अभिनव तरीक़ा है। उनकी प्रेरणा से
बॉलीवुड फिल्म '3 इडियट्स' में आमिर ख़ान का किरदार 'फुनसुख वांगडू' बनाया गया था। उनके द्वारा स्थापित एसईसीएमओएल स्कूल लद्दाखी छात्रों को मुफ़्त
शिक्षा देता है और एसआईएएल में छात्रों को उनके प्रोजेक्ट्स के लिए छात्रवृत्ति दी
जाती है।
लद्दाख के लिए वांगचुक
की जो माँगें हैं उसे सरकार तक पहुँचाने के लिए उनका अब तक का तरीक़ा लोकतांत्रिक और
शांतिपूर्ण रहा है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया तब उस फ़ैसले की उन्होंने खुलकर प्रशंसा की थी और तब
सत्ता से जुड़ी सोशल मशीनरी ने इस समर्थन और प्रशंसा को ख़ूब प्रचारित भी किया था।
बताया जाता है कि जैसे
जैसे वांगचुक लद्दाख की माँगों और केंद्र सरकार और बीजेपी द्वारा किए गए वादों को लेकर
आगे आने लगे, उनके और उनकी संस्थाओं के ख़िलाफ़ सत्ता ने जाँच शुरू कराने में देरी नहीं की
और उनके विरुद्ध कई कार्रवाईयाँ शुरू की गईं।
लद्दाख हिंसा के लिए
केंद्र सरकार ने उसी दिन सीधे तौर पर वांगचुक को ज़िम्मेदार ठहरा दिया। केंद्र सरकार
ने देर शाम को जारी एक बयान में कहा कि इस हिंसा के लिए सोनम वांगचुक ज़िम्मेदार हैं।
गृह मंत्रालय ने दावा किया कि वांगचुक ने अरब स्प्रिंग और नेपाल के जेन-जेड आंदोलनों
का ज़िक्र किया और उनके भड़काऊ भाषणों ने भीड़ को भड़काया। इसके कारण तोड़फोड़, आगजनी और पुलिस के
साथ हिंसक झड़पें हुईं।
गृह मंत्रालय ने दावा
किया कि वांगचुक ने कई नेताओं के अनुरोध के बावजूद अपनी हड़ताल जारी रखी और भ्रामक
बयानों से लोगों को गुमराह किया। वांगचुक ने केंद्र सरकार और बीजेपी के आरोपों को खारिज़
करते हुए कहा कि हिंसा का तात्कालिक कारण दो प्रदर्शनकारियों का अस्पताल में भर्ती
होना था, लेकिन अप्रत्यक्ष कारण युवाओं में पिछले पाँच वर्षों से जमा हुई कुंठा थी, क्योंकि उनकी शांतिपूर्ण
माँगों को नज़रअंदाज़ किया गया।
हिंसा के अगले दिन, यानी 25 सितंबर को ख़बरें
आईं कि केंद्र सरकार ने वांगचुक के ख़िलाफ़ कड़ा रुख अपनाया है और मामले में तुरंत
ही सीबीआई की एंट्री हो चुकी है। सीबीआई द्वारा वांगचुक और उनकी संस्था के ख़िलाफ़
एफ़सीआरए के उल्लंघन की शुरुआती जाँच में तेज़ी की ख़बरें आईं।
बता दें कि लेह लद्दाख
की लंबित माँगों के आंदोलन के मुख्य चेहरे वांगचुक के ख़िलाफ़ सरकार ने जाँच शुरू करने
की प्रक्रिया क़रीब दो महीने पहले ही शुरू कर दी थी। और हिंसा के बाद इसमें सीबीआई
द्वारा तत्काल तेज़ी की ख़बरें आने लगीं।
जाँच एफ़सीआरए, अर्थात, विदेशी योगदान (विनियमन)
अधिनियम के कथित उल्लंघन के मामले को लेकर थी और यह वांगचुक द्वारा स्थापित हिमालयन
इंस्टीट्यूट ऑफ़ अल्टरनेटिव्स लद्दाख यानी एचआईएएल और स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल
मूवमेंट ऑफ़ लद्दाख यानी एसईसीएमओएल से संबंधित थी। सीबीआई की यह कार्रवाई गृह मंत्रालय
की शिकायत के आधार पर शुरू की गई थी, जिसमें आवश्यक मंजूरी के बिना विदेशी योगदान को स्वीकार करना तथा उसके दुरुपयोग
का आरोप लगाया गया था।
मणिपुर
जलता रहा, दूसरे
राज्यों में भी अनेक मुद्दों पर केंद्र ज़िद पर अड़ा, यहाँ भी सरकार समझदारी छोड़ रही है?
पिछले क़रीब 2 सालों से मणिपुर जल
रहा है। उस मामले में भी राज्य और केंद्र सरकार के अड़ियल रवैये को लेकर ख़ूब कहा लिखा
जा चुका है। मणिपुर के सिवा दूसरे कईं राज्यों में पिछले कुछ सालों में ऐसी घटनाएँ
हुई हैं, जिसमें केंद्र या उसके समर्थन वाली स्थानीय सरकारों की ज़िद या अड़ियल रवैये की
बड़ी भूमिका रही।
संस्कृति, परंपरा, पहचान, भाषा, धर्म, जाति, जैसे भावनात्मक
मुद्दों पर जनता के साथ समझदारी से काम लेने की लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी को सरकार ने
जैसे छोड़ ही दिया है। जनता हमेशा सच नहीं होती, किंतु लोकतंत्र में सरकारों से ज़िद और अड़ियल की उम्मीद भी
नहीं की जाती।
लद्दाख हिंसा के तुरंत
बाद केंद्र सरकार और उसके प्रशासन ने सख़्ती दिखाई, सोनम वांगचुक जैसे प्रसिद्ध चेहरे को घेरा जाने लगा और अपनी
सोशल मशीनरी के सहारे मामले को अलग मोड़ पर ले जाना शुरू किया। साथ ही इस मसले का जो
मूल था, माँगें और उम्मीदें तथा किए गए वादों की पूर्ति, इसे अनदेखा कर सरकार
ने क़ानून, नियम, हिंसा, संविधान, के दम पर आगे बढ़ना शुरू किया।
अगले दिन लद्दाख के
समर्थन में कारगिल बंद रहा। स्थानीय निवासियों और लोगों ने आरोप लगाया कि शांतिपूर्ण
प्रदर्शन को संभालने की बजाय प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं। लोगों के साथ हमदर्दी
रखने के बजाय उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, इस तरह का भाव पनपने लगा। लोगों को हिरासत में लिए जाने की सरकारी कोशिशों को
लेकर कहा गया कि स्थिति को बिगड़ने से रोकना सरकार की ज़िम्मेदारी थी, वह विफल रही है।
व्यवस्थागत विफलता
के लिए बेरोजगार युवाओं को दोष देना और उन युवाओं को नेपाल के हिंसक आंदोलन में शामिल
युवाओं के साथ रखने की कोशिशों ने नाराज़गी बढ़ाईं। विशेषज्ञों ने कहा कि लेह और लद्दाख
के युवा जिन माँगों को लेकर लड़ रहे हैं उसे इंस्टाग्राम या यूट्यूब बंद होने जैसी
घटना के बाद हो रहे विरोध सरीखा हल्का फुल्का दिखाया जाने लगेगा तो निराशा और हताशा
बढ़ेगी।
ऐतिहासिक
फ़ैसला लेने भर से काम पूरा नहीं होता, सरकार
की समझदारी और जनता की ज़िद आसपास ठहरी चर्चा
किसी भी आंदोलन में
हिंसा के लिए आंदोलन चलाने वालों पर ही सवाल उठते हैं। और यह बिलकुल स्वाभाविक है।
साथ ही केंद्र सरकार को भी इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार कारणों में से एक कारण बताया
जाने लगा। स्वाभाविक था कि हिंसा के जो द्दश्य इस दिन टेलीविज़न पर चल रहे थे वे कश्मीर
घाटी के नहीं थे, जो अशांति का केंद्र माना जाता है, बल्कि लद्दाख के थे, जहाँ दशकों से ऐसा कुछ देखा नहीं गया था।
दूसरी तरफ़ स्वाभाविक
सी बात है कि किसी भी आंदोलन में क़ानून या संविधान के ख़िलाफ़ कुछ भी होता है तब आंदोलन
के कर्ताधर्ताओं की ज़िम्मेदारी बनती है। यदि पीटीआई की रिपोर्ट सही है, जिसमें चेरिंग दोर्जे
को यह कहते हुए दर्ज किया गया कि स्थिति हमारे हाथ से निकल सकती है, ऐसे में यह आंदोलन
चलाने वालों की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वे स्थिति को नियंत्रित करें।
स्थिति नियंत्रण के
बाहर होने पर किसी भी आयोजन में ज़िम्मेदार आयोजक लोग होते हैं। चाहे वह जश्न का छोटा
मोटा आयोजन हो या लोकतांत्रिक तरीक़े से चलाया जा रहा आंदोलन हो। जो आंदोलन चला रहे
थे वे यदि हिंसा नहीं चाहते थे तब भी उन्हें हिंसा की संभावना से जुड़े अच्छे या बुरे
कोणों पर विशेष ध्यान देना चाहिए था।
लेह ने लंबे समय तक
शांतिपूर्ण और संयमित प्रदर्शनों का परिचय दिया। अब हिंसक प्रदर्शन की और ख़तरनाक बदलाव
देखा गया। कहा गया कि लोग धैर्य खो चुके हैं, लोग ख़ुद को ठगा हुआ और अधूरे वादों से निराश महसूस कर रहे हैं।
जिस लेह लद्दाख ने
2019 में जश्न मनाया था, जो नये सवेरे से प्रसन्न होकर अच्छे भविष्य के लिए आशान्वित थे, उसे लंबे समय तक शांतिपूर्ण
और लोकतांत्रिक तरीक़े से अपने अधिकारों और हक़ के लिए तथा सरकार द्वारा दिए गए वचनों
की पूर्ति हेतु लड़ाई लड़नी पड़ी।
जो इलाक़ा चीन की सरहद
से सटा हुआ है, जिसने दशकों से भारत के लिए ही जिया, वहाँ सरकार को अपने उस ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद गंभीरता से सोचना चाहिए था, समझदारी दिखानी चाहिए
थी, यह लगभग तमाम स्वतंत्र
विश्लेषकों का मानना है।
स्वाभाविक है कि लोकतंत्र और चुनावी व्यवस्था में सरकारें जनता को बरगलाती हैं, झूठे वादे करती हैं, सपने भी दिखाती हैं।
यह कड़वा लेकिन सच तो है ही। किंतु हरेक मामले में 'अति' भी एक समस्या बन जाता
है। व्यावहारिक इतिहास है कि सरकारें वादे करती हैं, लेकिन तमाम को पूरे
नहीं करने होते। किंतु सरकारें इतनी तो चालाक होनी ही चाहिए कि वे जनमानस में यह भ्रम
बना रखें कि हम वादे पूरे कर रहे हैं।
कुल मिलाकर विशेषज्ञों में मोटे तौर पर राय यह दिखी कि ऐसे मसले जो व्यापक स्तर
पर सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक पहचान, रोजगारी, संस्कृति, पर्यावरण, संवैधानिक अधिकार, आदि से जुड़ रहे हो वहाँ किसी भी सरकार को ज़िद और अड़ियल रवैया छोड़ समझदारी
दिखानी चाहिए। जो मामला समझदारी के साथ शांतिपूर्वक हल किया जा सकता हो, उसके लिए सत्ता को
ज़िद पर क्यों अड़ जाना?
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)