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CBI Coup: जब सीबीआई ने ही सीबीआई पर रेड किया, आधी रात को सीबीआई में तख़्तापलट


इन दिनों जो कुछ हो रहा था, लोग निराशा के साथ लिख रहे थे कि कीड़े मारने की दवाई में ही कीड़े पड़ गए। हमारे यहाँ जो इतिहास है उसके आधार पर साबित तो कुछ भी नहीं हुआ, फिर भी बहुत-कुछ साबित हो चुका था! लोग फिर समझ गए कि सरकारें बदलती रहती हैं, सीबीआई कभी नहीं बदलती। इन दिनों सीबीआई के ही डीआईजी ने सीबीआई को सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन नाम दे दिया!
 
यहाँ ये भी नोट करें कि सीबीआई देश की सबसे बड़ी जाँच संस्था भले हो, किंतु वो वैधानिक संस्था नहीं है। आम भाषा में कहे तो सीबीआई ग़ैर संवैधानिक निकाय है।
 
देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी, उसके निदेशक, विशेष निदेशक, डीजीपी, सीवीसी, सचिव स्तर के अधिकारी, राज्य स्तर के मंत्री से लेकर देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक के चेहरे इस त्रासदी में सामने आए। देश की सर्वोच्च अदालत में लिखित रूप से एकदूसरे के नाम उछाले गए। संविधान की धज्जियाँ उड़ी हैं यह संवैधानिक तौर पर कैसे प्रमाणित हो सकता है? इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के उन चार वरिष्ठ जजों ने सार्वजनिक प्रेस वार्ता बुलाकर जो कुछ देश के सामने रखा, लोग इससे अब तक उबर नहीं पाए थे। और अब सीबीआई ने सीबीआई पर ही सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया था।
 
किसी मुजरे में नाचने वाला मीडिया और मुजरे की शान माने जाने वाले समर्थक, दोनों की कृपा से देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और मंत्रीजी तक के ऊपर सुप्रीम कोर्ट में लिखित आरोप लगना बड़ी बात नहीं बन पाया। सरकारी तोते का नाम प्राप्त कर चुकी सीबीआई को नवम्बर 2018 के दौरान सीबीआई के ही डीआईजी एमके सिन्हा ने नया नाम दिया - सेंटर फॉर बोगस इन्वेस्टिगेशन।
 
देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी के भीतर का वो दौर, जो पिछले 70 सालों में पहली बार हुआ। वो दौर, जहाँ किसी राह चलते ने नहीं बल्कि उस संस्थान के निदेशक और विशेष निदेशक ने ही सीबीआई के कपड़े फाड़ दिए! निदेशक और विशेष निदेशक ने एक दूसरे पर केवल आरोप ही नहीं लगाए, बल्कि सीबीआई को क़रीब क़रीब बिना कपड़ों का ही कर दिया। निदेशक, विशेष निदेशक के उपरांत सीबीआई के डीजीपी, डीआईजी, सीवीसी से लेकर सचिव स्तर के चेहरे बेकनाब हुए। पिछले 70 सालों का यह अद्भुत द्दश्य था जहाँ कपड़े केवल सीबीआई के ही नहीं, किसी और के भी उतर रहे थे। मंत्री से लेकर देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक के नाम सामने आए।
 
इस अत्यंत गंभीर और विवादास्पद इतिहास का चौंकाने वाला तथ्य यह था कि यहाँ किसी राजनीतिक दल, राजनीतिक विरोधी या राह चलते ने नहीं, बल्कि सीबीआई के संवेदनशील पदों पर बिराजमान अधिकारियों ने ही सीबीआई- अपराधीकरण और राजनीतिक गठजोड़ की पुरानी काजल की कोठरी खोल दी। नोट यह भी करें कि यह कोठरी किसी न्यूज़ चैनल पर नहीं बल्कि देश के सर्वोच्च न्यायालय के सामने खोली गई थी। बाक़ायदा लिखित में और तथ्यों के साथ।

सीबीआई के ख़िलाफ़ सीबीआई, भीतरी जंग जिसने बहुत कुछ सार्वजनिक कर दिया था, संक्षिप्त इतिहास और संलिप्त चेहरे
नौकरशाही के भीतर एक गंदा नाला बहता है। वो गंदा नाला इस दफा बाहर की तरफ़ बहने लगा। उसके भी परनाले होते होंगे। साख़ बनाने में सालों गुज़र जाते हैं, जबकि बंटाधार करने में चंद मिनट। किंतु यहाँ तो बंटाधार अनेक बार हो चुका था! अब की बार, फिर एक बार!
2018 का साल। इस साल की शुरुआत में, 12 जनवरी 2018 के दिन, समूचा देश आहत था जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस वार्ता कर सुप्रीम कोर्ट की स्वायतत्ता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए गुहार लगाई। और उसके बाद अब सीबीआई की भीतरी जंग ऐसा सार्वजनिक रूप ले चुकी थी, जिसमें सीबीआई के वर्तमान अधिकारियों से लेकर पूर्व अधिकारियों के कारनामे खुल रहे थे, वरिष्ठ अधिकारी अदालत में लिखित रूप से अतिगंभीर बातें कह रहे थे, देश के एनएसए सरीखे ओहदे का सम्मान दाँव पर था और सीवीसी से लेकर पीएमओ तक के नाम उछल रहे थे।
 
सीबीआई के भीतर नंबर एक और नंबर दो अधिकारी पर बहुत ही गंभीर आरोप लगे थे। किसी और ने नहीं, बल्कि एक दूसरे ने ही एक दूसरे के कमीज के बटन खोल कर रख दिए थे!
 
सरकारी तोते का नामकरण प्राप्त कर चुकी सीबीआई के भीतर अब वो हो रहा था, जो अच्छे दिन तो कतई नहीं थे। सीबीआई की भीतरी जंग ने समूचे देश में राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा को फेमस कर दिया। देश के सबसे बड़े जाँच संस्थान के भीतर दो वरिष्ठ अधिकारी एक दूसरे को खुलकर भ्रष्टाचारी कहने लगे! कहने लगे वहाँ तक तो ठीक था, साबित करने में भी जुट गए! बाक़ायदा लिखित शिकायतें हुईं, सबूतों और तथ्यों की बातें हुईं।
 
कोई विपक्षी नेता आरोप लगाता तो ठीक था, लेकिन यहाँ निदेशक और विशेष निदेशक एक दूसरे के ख़िलाफ़ कथित सबूतों और तथ्यों के आधार पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ लिखित शिकायतें दाग रहे थे। दोनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ अतिगंभीर आरोपों की बरसात कर दी, वो भी लिखित में। और फिर मोइन कुरैशी समेत दूसरे नाम जुड़ते गए। फिर लोगों को समझ में आया कि मोइन कुरैशी नाम का ये बंदा इन दोनों को ही नहीं, कुल मिलाकर सीबीआई के चार-चार वरिष्ठ अधिकारियों को झुलसा चुका था!
 
सारे वरिष्ठ अधिकारी और संस्था एक दूसरे पर आरोप लगा रहे थे। आरोप भी आज कल के नहीं, बल्कि महीनों या उससे भी पुराने थे। लेकिन कमाल यह था कि तब भी सारे आरोपी अपने पद पर तब तक क़ायम  रहे, जब तक देश ने संविधान की तथा संस्थाओं के साख़ की धज्जियाँ उड़ते नहीं देखी। तमाम एक दूसरे पर महीनों से लिखित रूप से आरोप लगा रहे थे, बावजूद इसके सारे के सारे दूसरे संवेदनशील मामलों की जाँच में भी लगे हुए थे!
 
इस घटना में सतह पर मुख्य पाँच चेहरे थे और पर्दे के पीछे भी बड़े चेहरों का ज़िक्र हो रहा था। सतह पर जो पाँच चेहरे थे, उनमें से एक था मीट व्यापारी मोइन कुरैशी, दूसरा था बिजली विभाग का द्वितीय श्रेणी का कर्मचारी सतीश बाबू सना, तीसरे थे विशेष निदेशक राकेश अस्थाना, चौथे थे निदेशक आलोक वर्मा और पाँचवें थे मोहन प्रसाद और सोमेश प्रसाद।

 
जबकि पर्दे के पीछे जो तीन बड़े चेहरे थे वे ज़्यादा चौंकाते थे। पहले थे देश के मुख्य राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, दूसरे थे राज्य स्तर के मंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी और तीसरा था नितिन संदेसरा।
 
सतीश बाबू सना के हवाले से आईएएस अधिकारी रेखा रानी, केंद्रीय क़ानून सचिव सुरेश चंद्रा, नीरव मोदी मामला, केंद्रीय कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा, लंदन स्थित शख़्स चामुंडेश्वर नाथ समेत कई बड़े बड़े नामों का ज़िक्र हुआ! रॉ के सेवानिवृत्त अधिकारी तथा रॉ के स्पेशल सेक्रेटरी सामंत गोयल जैसे नाम भी सामने आए।
 
बात यहीं नहीं रुकी। इन बहुचर्चित नामों के अलावा स्वयं सीवीसी का नाम भी उछला! कहीं पर पीएमओ का नाम खुलकर सामने नहीं आया इस मामले में। गोदी मीडिया में तो चुप्पी थी, तो फिर वह सवाल किसी ने नहीं पूछा कि सीबीआई और पीएमओ का संपर्क निकट का होता है, तो फिर पीएमओ को महीनों से चल रही इस माथापच्ची की कोई जानकारी कैसे नहीं थी? इस विवाद में केवल सीबीआई की साख़ का ही सवाल नहीं था, सुप्रीम कोर्ट की इज़्ज़त भी दाव पर लगी थी।
 
सरकार, सीवीसी और सीबीआई का मिडनाइट ड्रामा, जब आधी रात को देश की राजधानी में जूतों की टांप सुनाई दी
इस घटना को एक संवाददाता ने बड़े गहरे अंदाज़ में कुछ यूँ समझाया था जब संविधान की धज्जियाँ उड़ती हैं तो आधी रात को जूते की टांप सुनाई देती है। जब जब आधी रात को सरकारें नींद से उठती हैं तब तब ऐसा ही इंसाफ़ किया जाता है।
24 अक्टूबर 2018 की शाम 7 बजे सीबीआई मामले पर सीवीसी में बैठक होती है। पाँच घंटे लंबी चर्चा होती रही। फिर किसी और समय नहीं बल्कि आधी रात को आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना, दोनों को छुट्टी पर भेज दिया गया! रात साढ़े बारह बजे डीओपीटी ने सीवीसी के फ़ैसले पर अपना आदेश जारी किया।
 
रात क़रीब पौने एक बजे दक्षिणी दिल्ली में लोधी रोड स्थित सीबीआई मुख्यालय की दिल्ली पुलिस ने घेराबंदी शुरू की! रात एक बजे के आसपास एनएसए अजीत डोभाल ने पीएमओ के अधिकारियों के साथ बैठक की। तब भी सीबीआई मुख्यालय की घेराबंदी जारी थी! रात एक बजकर पंद्रह मिनट पर नागेश्वर राव सीबीआई मुख्यालय पहुंचे, जिन्हें अंतरिम निदेशक बनना था। पुलिस सुरक्षा के बीच उन्हें उनके ऑफिस ले जाया गया! वे इमारत की 11वीं मंजिल पर पहुंचे। सबसे पहले आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना, दोनों के ऑफिस सील कर दिए गए। 10वीं मंजिल पर स्थित तमाम ऑफिस की चाबियाँ ज़ब्त कर ली गईं।
 
आधी रात को सीबीआई के नंबर एक और नंबर दो अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया गया। एक नये अधिकारी नागेश्वर नये अंतरिम निदेशक बनाए गए। निदेशक बनते ही सुबह से पहले इन्होंने क़रीब एक दर्जन अधिकारियों को काला पानी की सज़ा सुना दी। विवाद थमने की जगह और बढ़ने लगा।

 
नये अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव ने अजय बस्सी, एसएस ग्रूम, एके शर्मा, ए सायमनहोर, वी मुरुगेसन, अमित कुमार, मनीष सिंहा, तरुण गौबा, जसबीर सिंह, केआर चौरसिया, राम गोपाल, सतीश डागर व अनीस प्रसाद जैसे सीबीआई अफ़सरों का तबादला कर दिया। इन अफ़सरों को जिन जगहों पर भेजा गया, दूसरे दिन अख़बारों में अफ़सरों को काला पानी की सज़ा जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए। राकेश अस्थाना के ख़िलाफ़ रिश्वतखोरी के मामले की जाँच कर रहे सीबीआई अधिकारी एसपी एके बस्सी को भी काला पानी के लिए भेज दिया गया। उन्हें मामले की जाँच से हटाकर पोर्ट ब्लेयर भेजा गया, यह कहकर कि आपको सार्वजनिक हित हेतु तत्काल प्रभाव के चलते भेजा जाता है।
 
ग़ज़ब यह था कि दो कथित भ्रष्ट अधिकारी हटे, वो भी आधी रात को! आधी रात को एक नये अधिकारी को सीबीआई चीफ़ की कुर्सी पर बिठा दिया गया! नये अधिकारी थे नागेश्वर राव। आधी रात को विवादित तरीक़े से सीबीआई में तख़्तापलट हो चुका था। दूसरा ग़ज़ब यह था कि जो नये अधिकारी कुर्सी पर बिठाए गए वे ख़ुद ही विवादित सूची में शामिल थे! भारत के ख़ूनी घोटाले के नाम से मशहूर व्यापमं घोटाले में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को क्लीन चिट देने का श्रेय लेकर घूम रहे इस अधिकारी ने आधी रात को सुरक्षा घेरे में सीबीआई चीफ़ की कुर्सी संभाली।
 
सरकार ने सीबीआई के मामले में कार्रवाई रात के अंधेरे में की, यह भी एक विवाद ही था। वह द्दश्य अद्भुत था जब रात को पौने एक बजे दिल्ली पुलिस ने देश की राजधानी में स्थित सीबीआई मुख्यालय को घेर लिया था! सोचिए, देश की सबसे बड़ी जाँच संस्था के मुख्यालय को दिल्ली पुलिस आधी रात को घेर लेती है! ये अपने आप में ही अभूतपूर्व घटना थी।
मीडिया रिपोर्ट की माने तो आधी रात को एक बजे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार अजीत डोभाल ने बड़े अफ़सरों को तलब किया। उस वक़्त जब सीबीआई मुख्यालय को घेरने का अभूतपूर्व द्दश्य चल रहा था। फिर रात को पौने दो बजे नए सीबीआई निदेशक नागेश्वर राव सीबीआई दफ़्तर पहुंच गए।
 
देश के इतिहास में ऐसे मौक़े कम ही मिलेंगे, जैसा यह था। आधी रात को देश की राजधानी में पुलिस बल देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी के मुख्यालय को घेरता है! आधी रात को उस मुख्यालय के दो मुख्य अधिकारियों को हटाया जाता है और सुरक्षा घेरे में नया अधिकारी चीफ़ की कुर्सी पर बिठा दिया जाता है!

 
नये चीफ़ ने कुर्सी संभालते ही ऐसा कर दिया, जिससे लोगों को लगा कि नंबर एक और नंबर दो के बाद ये नया नंबर वाला तो अब आग में घी ही डाल रहा है! सीबीआई में चार सह निदेशक होते हैं। नागेश्वर राव चौथे नंबर पर थे। इन्होंने अस्थाना के ख़िलाफ़ जाँच कर रहे क़रीब 11 सीबीआई अधिकारियों का एक साथ तबादला कर दिया! वो भी ऐसी जगहों पर कि बचे-खुचे मीडिया में इसे काला पानी की सज़ा जैसे शीर्षक के साथ दर्शाया गया।
 
भारत की जनता रात में करवटें ले रही थी और इधर देश की राजधानी दिल्ली में वो हो रहा था, जो शायद ही सीबीआई के इतिहास में पहले कभी हुआ हो। अटल बिहारी वाजपेयी के काल के क़िस्से को छोड़ दें तो।
 
किसी संपादक का लेखन बहुत हद तक सही था, जो संक्षेप में कुछ यूँ था - दिन में प्रधानमंत्री के भाषणों का वक़्त होता है, इसलिए इंसाफ़ का वक़्त रात का चुना गया। जब भारत की जनता गहरी नींद में सो रही थी, तब दिल्ली पुलिस के जवान अपने जूते की लेस बांध रहे थे। बेख़बर जनता को होश ही नहीं रहा कि पुलिस के जवानों के जूते सीबीआई मुख्यालय के बाहर तैनात होते हुए शोर मचा रहे हैं। लोकतंत्र को कुचलने में जूतों का बहुत योगदान है। जब संविधान की धज्जियाँ उड़ती हैं, तब रात को जूते बांधे जाते हैं।
 
ग़ज़ब था कि आधी रात को समूचा देश सो रहा था और तभी एक अधिकारी शायद दफ़्तर की ओर जाने की तैयारी कर रहा था। वो अधिकारी था नागेश्वर राव। ग़ज़ब था कि ये वोही अधिकारी था, जिसके ख़िलाफ़ सीबीआई के ही तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा ने सीवीसी में गंभीर आरोप के चलते लिखित शिकायत की थी! अटपटा इतिहास ही कह लीजिए कि निदेशक भी गंभीर आरोप में घिरे थे, विशेष निदेशक भी और अब कार्यकारी निदेशक भी!!! फिर भी वो नये निदेशक बन जाते हैं!!!
 
दूसरे दिन देश को बताया जाता है कि निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ गंभीर शिकायतें की हैं, लिहाज़ा उनकी जाँच करने के लिए दोनों को बाहर बिठाना ज़रूरी था। पर सरकार को कौन पूछता कि आधी रात को ही क्यों ज़रूरी था? तो फिर वो सवाल पूछने वाला भी कौन हो सकता था कि ये कौन सा तरीक़ा था कि उन दोनों की जाँच के लिए उस निदेशक को बिठा दो जिसके ख़िलाफ़ पहले से ही सीवीसी में गंभीर आरोप पत्र आ चुका हो!!!
विवाद और बढ़ा। निदेशक और विशेष निदेशक, दोनों अदालत पहुंच चुके थे। दोनों ने अदालत में एक दूसरे के ख़िलाफ़ आरोप लगाए। आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी जबरन छुट्टी को लेकर चुनौती दी और सरकार पर बड़े गंभीर आरोप भी लगाए।
 
द वायर में स्वाति चतुर्वेदी ने लिखा कि सीबीआई के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि इंस्पेक्टर जनरल (आईजी) को चीफ़ बना दिया गया हो। स्वाति ने लिखा कि वर्मा ने प्रधानमंत्री कार्यालय के क़रीबी, यानी जिगरी राकेश अस्थाना, की गिरफ़्तारी की अनुमति मांगी थी और वे रफ़ाल डील मामले में जाँच की तरफ़ बढ़ने लगे थे। प्रशांत भूषण, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी से मिल लेने की ख़बर से सरकार रातों को जागने लगी।
 
जनवरी 2017 में आलोक वर्मा को एक कॉलेजियम से दो साल के लिए सीबीआई का चीफ़ बनाया गया था। आलोक वर्मा का कार्यकाल अगले साल फ़रवरी तक था। इस कॉलेजियम में चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया भी थे। जब आलोक वर्मा को हटाया गया तब कोई कॉलेजियम नहीं बना। चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया तक को नहीं बताया गया। जब आलोक वर्मा को हटाकर एम नागेश्वर राव को चीफ़ बनाया गया तब भी इसके लिए कोई कॉलेजियम नहीं बनाया गया। चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया की कोई भूमिका ही नहीं रही।

 
इसी साल अगस्त महीने में जब सीबीआई लंदन की अदालत में अपने दस्तावेज़ लेकर पहुंची कि इन गवाहों के बयान के आधार पर विजय माल्या को भारत ले जाना ज़रूरी है, तब उन सात गवाहों के बयान पर दस्तख़त ही नहीं थे! विजय माल्या 36 सूटकेस लेकर भागा था। विजय माल्या ने तभी तो कहा था कि भागने से पहले जेटली से मिला था। जेटली ने खंडन किया। बड़े विपक्षी नेता ने दस्तावेज़ों के साथ आरोप लगाया कि जेटली की बेटी दामाद के लॉ फ़र्म को माल्या ने फ़ीस दी थी, जो उसके भागने के विवाद के बाद लौटा दी गई।
 
आधी रात को जो इंसाफ़ हुआ उसके बाद एक दिन सुबह देश ने जो देखा वो भी कम नाट्यात्मक नहीं था। अभी सुबह हुई थी, लोग अंगड़ाई ले ही रहे होंगे, तभी आलोक वर्मा के सुरक्षा अधिकारी कुछ संदिग्ध लोगों को जबरन खींच कर घर के भीतर ले जाते दिखे। बाद में इन संदिग्धों की पहचान आईबी अफ़सरों के रूप में हुई! इसे लेकर भी कुछ दिनों तक तूं तूं मैं मैं चलती रही। जासूसी वाला जिन्न फिर बाहर आ चुका था।
 
किंतु अब भी इस विवाद में सनसनी मचना बाकी था। अदालत के भीतर सीबीआई ने ही संस्था के भीतर मनी लॉन्ड्रिंग का चौंकाने वाला खुलासा किया! मामले में राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा के बाद देवेन्दर कुमार का नाम सामने आया। इन्हें गिरफ़्तार भी किया गया और रिमांड पर भी भेज दिया गया।
 
देवेन्द कुमार जैसा बड़ा अधिकारी गिरफ़्तार हो चुका था, रिमांड पर भेजा जा चुका था! ग़ज़ब का दौर चल पड़ा था। सीबीआई ने सीबीआई के ऊपर ही मनी लॉन्ड्रिंग का सनसनीखेज़ आरोप लगा दिया। नोट करें कि इस आरोप में 'रैकेट' लफ्ज़ का इस्तेमाल किया गया था। सोचिए, देश के सबसे बड़े जाँच संस्थान के भीतर ऐसा कथित रैकेट पनप चुका था। उसी संस्थान के भीतर, जहाँ ऐसे रैकेट को रोकने के लिए काम होता रहता है!
दरअसल आधी रात को जो इंसाफ़ हुआ उस पर ही सवालिया निशान था। विनीत नारायण बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सीबीआई के निदेशक का कार्यकाल तय समय के लिए स्थायी होगा। अगर विशिष्ठ परिस्थिति में तबादला करना भी होगा तब चयन समिति से अनुमति लेनी होगी। सवाल था कि आधी रात को जो कुछ हुआ, क्या उसके लिए अनुमति ली गई थी?
 
सवाल उठा कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग यदि सरकार के लिए तकलीफदेह हो जाएं, तो क्या राष्ट्रपति के माध्यम से उन्हें जबरन छुट्टी पर भेज दिया जाएगा? सीवीसी को छुट्टी पर भेजने के लिए वर्ष 2003 के क़ानून की धारा 6 में प्रावधान है, तो क्या भविष्य में सरकारें उनके साथ भी ऐसा बर्ताव कर सकती हैं?
 
भ्रष्टाचार के आरोपों पर दर्ज एफ़आईआर को रद्द करने के लिए अस्थाना द्वारा दायर याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने यथास्थिति क़ायम रखने के आदेश दिए थे। और हाईकोर्ट के इस आदेश के अगले ही दिन नए निदेशक ने आधी रात को चार्ज लेने के बाद अस्थाना मामले की जाँच कर रहे अधिकारी के साथ क़रीब दर्जन अधिकारियों का ट्रांसफर कर दिया! सवाल उठा कि आधी रात को जो हुआ वो क्या हाईकोर्ट के आदेश का उल्लंघन नहीं था?
 
मोदी सत्ता में भी वही परंपरा चल रही है। यही कि हमारे यहाँ सवाल जिस मंत्रालय से होता है, जवाब वो मंत्रालय नहीं देता! सीबीआई कार्मिक विभाग, कार्मिक, पेंशन और लोक शिकायत मंत्रालय के अधीन कार्य करती है, लेकिन जवाब दिया अरुण जेटली ने, जो इस मंत्रालय से ताल्लुक़ नहीं रखते थे! इन्होंने कहा कि पारदर्शिता से जाँच हो इसलिए दोनों अधिकारियों को बाहर रखा गया है।
 
आधी रात को पारदर्शिता से जाँच?! उपरांत पारदर्शिता वाली जाँच ऐसी पारदर्शी कैसे हो सकती थी, जहाँ उसे ही चीफ़ बना दिया जाए जिसके ख़िलाफ़ पहले से ही सीवीसी में आरोप पत्र लिखा गया हो! जिन दो अधिकारियों को बाहर बिठा दिया गया उनके ख़िलाफ़ जिस प्रकार के लिखित आरोप थे, तो फिर नये निदेशक के ख़िलाफ़ वही तो था! उपरांत दोनों अधिकारियों को जबरन छुट्टी पर भेजा गया, किंतु उन दर्जन अधिकारियों को काला पानी की सज़ा कौन सी पारदर्शिता का द्दष्टिकोण हो सकता था? सिर्फ़ उन्हीं अधिकारियों को सज़ा क्यों, जो अस्थाना के ख़िलाफ़ जाँच कर रहे थे? वर्मा के ख़िलाफ़ कोई अधिकारी लगा था तो उसका तबादला या ऐसा कुछ सुनने में नहीं आया उन दिनों।
 
लेकिन अभी भी कुछ होना बाकी था शायद। आलोक वर्मा की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने नये अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव के पर कतर दिए। सर्वोच्च अदालत ने आदेश दिया कि नये निदेशक कोई नीतिगत फ़ैसले नहीं लेंगे, जब तक जाँच पूरी नहीं होती। सीवीसी को दो सप्ताह के भीतर जाँच पूरी करने के लिए कहा गया। अधिकारियों के तबादले समेत अन्य नये फ़ैसलों की जानकारी मांगी गई, जिनकी समीक्षा होनी थी।
केंद्र सरकार ने आलोक वर्मा से सीबीआई चीफ़ पद का कामकाज छीने जाने पर सफ़ाई दी। सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिए कहा कि सीबीआई के निदेशक वर्मा से इसलिए कार्यभार ले लिया गया, क्योंकि वह सीवीसी के साथ सहयोग नहीं कर रहे थे और आयोग की कार्यप्रणाली में जानबूझकर बाधा उत्पन्न कर रहे थे। सरकार ने और भी बहुत सारे आरोप वर्मा पर लगाए।
 
सारे मामले में सरकार ने केवल आलोक वर्मा को ही निशाने पर लिया, अस्थाना को नहीं। उधर आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर याचिका में सरकार पर सीबीआई के कामकाज में हस्तक्षेप करने का आरोप लगा दिया।

 
राकेश अस्थाना मामले की जाँच कर रहे अधिकारी एके बस्सी भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। उन्होंने दावा किया कि अस्थाना के ख़िलाफ़ 3.3 करोड़ रुपये की घूस केस में पुख़्ता सबूत है। बस्सी ने दावा किया कि इस केस में रॉ के विशेष सचिव सामंत गोयल भी शामिल हैं। याचिका में बस्सी ने मांग की कि अस्थाना के ख़िलाफ़ एसआईटी जाँच की जाए। सीबीआई के एडिशनल एसपी एसएस गुरम, जिनका इंसाफ़ भी आधी रात को किया गया था, दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचे। अदालत में दायर याचिका में इन्होंने कहा कि अस्थाना के ख़िलाफ़ 15 अक्टूबर को सीबीआई में दर्ज एफ़आईआर बिलकुल सही है। इनकी याचिका में भी सामंत गोयल का ज़िक्र था, साथ ही दावा था कि राकेश अस्थाना को दिसंबर 2017 में 2.95 करोड़ रुपये दिए गए थे, फिर घूस के तौर पर 36 लाख रुपये और दिए गए।
 
अंजाम क्या हुआ यह पूछने का चलन हमारे यहाँ नहीं है यह आपको ज्ञात होगा। इसके बाद राकेश अस्थाना दिल्ली के पुलिस आयुक्त भी बनाए गए! उन्हें एक साल के लिए सेवा विस्तार का लाभ भी मिला! फ़िलहाल वे आराम से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उधर आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजने के सरकारी फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया। इसके बाद आलोक वर्मा ने फिर सीबीआई में कार्यभार संभाला। किंतु जल्द ही सरकार ने उनका तबादला फायर सर्विसेज़ में कर दिया! इसके चलते उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और सेवानिवृत्ति का विकल्प पसंद किया। दूसरे तमाम चेहरों का भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा।
 
समय बीता और लोग भूल गए। सुप्रीम कोर्ट का वो संकट और सीबीआई का भीतरी गंदा नाला और उसके परनाले, सारे क़िस्से समय के साथ हवा हो गए। सांप्रदायिकता के सामने नागरिकता और पत्रकारिता, दोनों ने घुटने टेक दिए। गंदा नाला और उसका परनाला पहले भी बहता था, अब भी बहता होगा। हमें ऐसे नालों व परनालों में गंगा यमुना से भी ज़्यादा श्रद्धा है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)