ऐसी वाणी बोलिए, मन आप न खोए, औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए। कबीर
दास जी का यह दोहा इंसान के प्रथम कर्तव्य को समझाता है। लेकिन हमारे नेताओं की वाणी
ही ऐसी है कि नागरिक मन का आपा खोने लगते हैं और सब शीतल होने की जगह गर्म होने लगता
है! इनकी वाणी से सुख
की अनुभूति नहीं, विवादों और दंगों तक की उपाधि देश को मिल जाती है!
भाषा ही चरित्र की पहचान होती है, किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी कह गए थे कि कपड़ों से चरित्र की पहचान होती है! देश के इतने बड़े पद पर जब चौबीसों घंटे चुनावी राजनीति और आये दिन अपुष्ट और
विवादित बयान देने का मूड सवार रहता हो, तो फिर दूसरे नेताओं
से उम्मीद ही क्या की जाए? पॉलिटिक्स के साये
इस कदर छाये हुए हैं कि किसी की जुबां तक हिन्दुस्तानी नहीं रही।
पार्ट 7
संस्कृति के रक्षक
बनने का दावा करने वाले नेता अपनी भाषा से संस्कृति को ही शर्मसार कर देते हैं। कभी
कभी नहीं, किंतु सदैव यही लगता है कि ये नियम-क़ानून
वगैरह का नेता लोगों से पालन कराया जाए, तो देश के अच्छे दिन तो यूँ ही आ जाएँगे।
21वीं शताब्दी में नेता और स्वयं नागरिक इतने संकीर्ण हो चुके हैं कि देश का केंद्रीय
मंत्री आसानी से चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत झूठा है ऐसा कह कर स्कूल और कॉलेज के
पाठ्यक्रम में बदलाव की भी हिमायत करने की हिम्मत कर सकता है! स्वास्थ्य मंत्री सरीखे पद वाला नेता कैंसर को इंसानी पाप बता देता है! यज्ञ करने से कोरोना नष्ट हो जाता है! धर्म के आधार पर वोट मांगने की मनाही है, किंतु बिना हिंदू-मुसलमान, बिना ईश्वर-अल्लाह, या अब तो बिना कब्रिस्तान-श्मशान, चुनाव प्रचार ख़त्म होता ही नहीं!
सन 2020 का दिल्ली विधानसभा
चुनाव प्रचार देख दिल से एक ही बात निकली कि मोदीजी, चाहे तो आप 400 सीटें ले लीजिए, लेकिन भाषा अच्छी दे दीजिए। मैट्रिक पास इंसान
तक समझ सकता था कि दिल्ली टाइप दंगल से देश विश्वगुरु बन सकता तो पाकिस्तान कब का बन
गया होता।
बिना पाकिस्तान के
ज़िक्र के, भाजपा का चुनाव प्रचार क्यों पूरा नहीं हो
सकता यह सुलझी हुई बात है, उलझी हुई नहीं! आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा को बिरयानी- हिंदू मुसलमान- गोली
मारो जैसी पटरी पर अपनी रेल दौड़ाने की ज़बर्दस्त आदत है।
सन 2020 का दिल्ली विधानसभा चुनाव। कोई 'गद्दारों को गोली मारने' का नारा लगवा रहा था, कोई 'सरकार बनते ही शाहीन बाग़ को उठवाने' की घोषणा कर रहा था, कोई अपने ‘इलाके की मस्जिदों को गिरवाने' का संकल्प दोहरा रहा था, तो कोई ‘वो लोग आपके धरों में घुसकर बालात्कार करेंगे’ वाले डर को दौड़ा रहा था!
यह भी कहा गया कि, “बीजेपी जीत गई तो सरकारी
जम़ीन पर बनी सभी मस्जिदें गिरा दी जाएगी।” यह नारा भी ख़ूब चला, “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को।” फिर तो पिस्तोल लहराने वाला और गोली मारने वाला कांड भी देश
की राजधानी की सड़क पर खुल्लेआम हुआ!!! एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री को ‘आतंकवादी’ कहा गया और एक केंद्रीय
मंत्री ने इसे दोहरा कर कहा कि, “हां, अरविंद केजरीवाल आतंकवादी है।” फिर उसे उचित ठहराने के तर्क भी दिए!
ओपी शर्मा ने कहा कि, “केजरीवाल के लिए आतंकवादी
सबसे सही शब्द है, केजरीवाल भ्रष्ट व्यक्ति हैं, उन्हें आतंकियों के साथ सहानुभूति है, वो देश में पाकिस्तान आर्मी के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहे
हैं।”
बिरयानी बदनाम हुई
मोदी तेरे लिए!!! स्वादिष्ट और बेहद लोकप्रिय भोजन बिरयानी को एक धर्म विशेष से ही
नहीं जोड़ा गया, बल्कि उसे पाकिस्तानी खाना कह कर प्रचारित
किया गया! ऐसी तसवीर खींची गई मानो बिरयानी खाना देशद्रोह हो!
कुछ महाबली नेताओं
ने तो सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलनकारियों को देश-विरोधी, आतंकी और पाकिस्तान-परस्त
या पाकिस्तान के नक़्शेकदम पर चलने वाला कह डाला!
स्वयं पीएम मोदी ने
कह दिया कि, “शाहीन बाग़ का विरोध प्रदर्शन संयोग नहीं है, एक प्रयोग है।” उधर गृहमंत्री ने शाहीन बाग़ को लेकर कह दिया कि, “बाबरपुर में ऐसा बटन दबाना कि करंट शाहीन बाग़ को लगे।”
“शाहीन बाग़ वाले दिल्ली में फिर मुग़लों का राज बना देंगे”, “भाजपा नहीं जीती तो
शाहीन बाग़ वाले आपके घरों में घुसकर बहू-बेटियों का रेप करेंगे”, “8 फ़रवरी को भारत-पाकिस्तान
का मैच होगा” - यह सब इसी चुनावी प्रचार
के बिगड़े बोल थे।
बीजेपी सांसद प्रवेश
वर्मा ने बयान दे दिया कि, “ये लोग हमारे घरों में घुसेंगे, हमारी लड़कियों को उठाएँगे और बलात्कार करेंगे
और उन्हें मार देंगे।” प्रवेश वर्मा ने कहा कि, “आम आदमी पार्टी जिहादियों
का समर्थन करती है और जिहादियों को फंडिंग करती है, अरविंद केजरीवाल आतंकवादी हैं।” उधर बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव और दिल्ली के सह प्रभारी तरुण
चुघ कह गए कि, “हम नहीं जीतेंगे तो दिल्ली सीरिया बन जाएगा।”
बीजेपी को सीखना था
वाजपेयीजी से, सीखने लगी सोनियाजी से! कांग्रेस नेत्री ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा
था, बीजेपी नेता केजरीवाल को आतंकवादी और जिहादी कहने लगे थे!
यह वही चुनाव था, जहाँ से राजनीति में बीजेपी ने हनुमानजी को
उतार दिया! श्रीरामजी चले न हनुमान के बिना! फिर तो हनुमानजी का चुनावी इस्तेमाल बीजेपी
ने इसी साल के कर्णाटक चुनाव तक जमकर और अतिविवादास्पद तरीक़े से किया।
इससे पहले 2019 में बीजेपी के आला
नेताओं समेत दूसरे नेताओं ने हनुमानजी पर जिस प्रकार का वाणी विलास किया, और तब धर्मरक्षा पर फेफड़े फाड़ने वालों की जो चुप्पी थी, कई सवालों के जवाब मिल गए। उन दिनों राष्ट्रवादियों समेत दूसरे
नेताओं ने हनुमानजी को दलित- आदिवासी- आर्य- चीनी- मुसलमान, सब कुछ बना दिया था! यूपी के तत्कालीन सीएम योगी आदित्यनाथ ने
स्वयं ही उस विवादित यज्ञ को शुरू किया था, यह बोलकर कि हनुमानजी दलित थें!
फिर तो यह मंज़र बहुत
समय तक चला। अनेका अनेक बीजेपी नेताओं ने और ग़ैरबीजेपी नेताओं ने भी, हनुमानजी को कास्ट सर्टिफिकेट देना शुरू कर दिया! हनुमानजी दलित
थे, दलित से भी नीचे थे, मनुवादियों के गुलाम थे, पृथ्वी के पहले आदिवासी नेता थे, आर्य थे, मुस्लिम थे, चीनी थे, खिलाड़ी थे, जाट थे, क्षत्रिय थे, जैन थे, ठाकुर थे, यादव थे, किसान थे! न जाने क्या कुछ कहा गया था उन
दिनों। एक नेता ने तो कह दिया था कि हनुमानजी थे ही नहीं!!!
तब किसी की भावना आहत
नहीं हो रही थी! ना किसी पार्टी की, ना किसी राष्ट्रवादी की, ना किसी भक्तगण की, ना किसी साधु-संत की! कोई कुछ नहीं बोला उन दिनों!
मई-जून 2022 का
महीना नूपुर शर्मा के बोल की वजह से उबलता रहा। टीवी चैनल डीबेट में एक मौलाना ने
नूपुर शर्मा को भड़काया तो बदले में शर्मा ने अतिविवादित वाणी का इस्तेमाल कर
लिया। अदालत में विचाराधीन ज्ञानवापी मामले पर गहमागहमी इतनी बढ़ी कि अन्य 12 से
ज़्यादा देशों ने शर्मा के बयान को लेकर आधिकारिक विरोध जताया! सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि कौमों को लड़ाने का जो काम अंग्रेज़ों ने किया
था वही काम नेता कर रहे हैं। पार्टी ने शर्मा को सस्पेंड कर दिया।
किसान आंदोलन के दौरान
भी इन महाबलियों ने किसानों को भी ऐसे ही विशेषणों से नवाज़ दिया! केंद्र सरकार के तीन
विवादित कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई लड़ रहे किसानों और उस आंदोलन के समर्थकों
के लिए सत्ता दल के शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर तक जिस तरह की निचले स्तर की
भाषा का इस्तेमाल हुआ, लगा कि जवान- किसान- विज्ञान- संविधान, कुछ भी नेताओं के लिए मायने नहीं रखता।
क़रीब 13 महीने लंबे चले इस
किसान आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों से लेकर आंदोलन को बाहर से समर्थन दे रहे तमाम
लोगों पर प्रधानमंत्री मोदी से लेकर सत्ता दल के तमाम नेताओं ने अतिविवादास्पद और आपत्तिजनक
भाषा का प्रयोग किया! प्रधानमंत्री तो इन किसानों को ‘आंदोलनजीवी’ कहकर धुत्कारते नज़र
आए!!! जबकि आंदोलन, विरोध प्रदर्शन, लोकतंत्र की मूल आत्मा है।
किसानों को बददिमाग़, चोर, डकैत, आतंकवादी, नक्सली, खालिस्तानी, तालिबानी, देशद्रोही से लेकर दूसरे तमाम आपत्तिजनक विशेषणों
से नवाज़ा गया!!! आंदोलन के दौरान लखीमपुर खीरी वाला हत्याकांड ही नहीं हुआ, बल्कि 13 महीने तक, हर दिन नेताओं की वाणी संस्कृति और अस्मिता
की हत्या करती रही।
कंगना रनौत इन दिनों
सत्ता दल का प्रीति पात्र बनने की चाह में इतनी दफा सीमाएँ लांध गई कि इनके लिए चाटुकारिता
का नोबेल पुरस्कार बनता है। इस अभिनेत्री ने सरकार के तमाम आलोचकों, विरोधियों, किसानों, सबको वह सब कह दिया, जो नेताओं के मुँह से निकला हुआ है और ऊपर
लिखा है। इतना ही नहीं, वह महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के
सीएम उद्धव ठाकरे से इस कदर भीड़ी कि अपने बयानों से सीएम तक का लिहाज़ अनेक बार नहीं
किया। आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी, ज़िहादी बताने वालों की सूची में यह अभिनेत्री
भी शामिल थीं!
इस अदाकारा ने तो स्वतंत्रता
संग्राम को भी नहीं छोड़ा था और उस महान संग्राम के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियाँ
कर दी थीं। रनौत ने कहा था कि, “1947 में मिली स्वतंत्रता तो भीख में मिली हुई आज़ादी थी। असली आज़ादी तो 2014 में मिली है।”
बंगाल हिंसा पर कंगना
ने ट्वीट कर दिया कि, “मोदीजी! 2000 की शुरुआत जैसा विराट रूप दिखाओ।” यह बेहद ही भड़काऊ लहज़ा था। नतीजा यह कि उनका
ट्विटर अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया।
कंगना ने इससे पहले
ट्विटर पर अनेक बार विवादित ट्वीट किए थे। बार-बार ऐसा होने पर मई 2021 में ट्विटर ने कंगना
रनौत का अकाउंट अस्थायी समय के लिए हटा दिया, जो जनवरी 2023 में बहाल हुआ।
उधर पीएम मोदी भी चुनावी
प्रचार के दौरान मुझे इतनी बार गाली दी गई, मुझे ये कहा गया, मुझे वो कहा गया, वाली गलियों में घूम रहे थे! कोरोना के समय
लोग मरते रहे, ये लोग चुनाव लड़ते रहे! देश के राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने तो एक बार बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों के नागरिक
समाज को 'युद्ध का नया मोर्चा' तक कह दिया था!!!
2017 का गुजरात विधानसभा का वो चुनाव प्रचार, जब विकास नहीं बल्कि प्रचार ही पागल हो गया
था! इस चुनाव प्रचार के दौरान ही कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने पीएम मोदी को ‘नीच आदमी’ कह दिया था। इसी चुनाव प्रचार के वक्त पीएम
मोदी ने कह दिया था कि, “पाकिस्तान गुजरात विधानसभा चुनावों में हस्तक्षेप कर रहा है।”
इस बयान के साथ पीएम
मोदी ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त, पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री, भारत के पूर्व उप राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
के बीच बैठक का ज़िक्र कर ज़बर्दस्त विवाद छेड़ दिया। चुनाव ख़त्म होने के बाद संसद के
भीतर मोदी सरकार के मंत्री अरुण जेटली ने कह दिया कि हमें मनमोहन सिंह की देशभक्ति
पर तनिक भी संदेह नहीं है।
प्रियंका गांधी और
नरेंद्र मोदी के बीच जुबानी जंग समय समय पर होती रहती है। बड़े कद के नेता होने के
बाद भी नरेंद्र मोदी भाषण देते समय भाषा की शालीनता जैसे तत्वों पर सोचते नहीं हैं।
वे विवादित और अपुष्ट बयानों के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। गांधी परिवार पर उनके हमले
जगज़ाहिर हैं। उधर गांधी परिवार पर हमले होते हैं तो सामने से उस परिवार के प्रीति पात्र
बनने के इच्छुक नेता स्तर को ज़्यादा गिराकर वार करते हैं।
इसी बीच एक दफा प्रियंका
गांधी ने मोदी सरकार की किसी नीति की आलोचना कर दी। नरेंद्र मोदी चुप रहने वाली प्रवृत्ति
के है नहीं। उन्होंने गांधी परिवार पर तंज़ कसा और प्रियंका गांधी को लेकर कहा कि, “उन्हें क्या कहे, वो तो मेरी बेटी जैसी हैं।” दूसरे दिन प्रियंका गांधी ने अपने तरीक़े से तंज़ कसते हुए कहा, “मैं स्वर्गीय राजीव गांधी की बेटी हूँ। मैं उस परिवार की बेटी हूँ, जिन्होंने भारत
के लिए अपने जीवन कुर्बान किए। मैं ऐसे व्यक्ति के लिए बेटी समान नहीं हो सकती जो झूठ
बोलने का आदती हो।”
क्या खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है, शादी कहाँ करनी है, कौन सी लड़की-लड़के से करनी है, कौन से देश में करनी है, कितने बच्चे पैदा करने हैं, फिर उन बच्चों को कहाँ कहाँ अर्पण करना है, उसके बाद अपनी पसीने की कमाई से क्या ख़रीदना
है, नेता लोग अपने मौलिक
अधिकारों का दायरा बढ़ाते जा रहे थे!
उधर बीजेपी विधायक
संगीत सोम कह गए, “ताज महल भारतीय संस्कृति पर धब्बा है। ताज महल बनाने वाले ने यूपी और हिंदुस्तान
में हिंदुओं का सर्वनाश किया था।” विवाद हुआ तो सीएम योगी और पीएम मोदी ने विरासत
पर गर्व करना चाहिए ऐसा कहकर सोम को शांत करा दिया।
साध्वी निरंजन ज्योति
का एक विधानसभा की चुनावी सभा में दिया गया वो बयान, “दिल्ली के लोग यह निर्णय
कर लें कि वे 'रामजादों' (राम के अनुयायी) की सरकार चाहते हैं या हरामजादों की?” ने ख़ूब विवाद जगाया।
सितंबर 2018 के दौरान महाराष्ट्र
के भाजपा विधायक राम कदम ने दही हांडी के कार्यक्रम में कह दिया, “आप लोग मुझसे किसी भी काम के सिलसिले में मिल सकते हैं। कुछ युवकों ने मुझसे निवेदन
किया है कि लड़कियों द्वारा प्रस्ताव ठुकराये जाने के मामले में मैं उनकी मदद करूँ।
मैं 100 फ़ीसदी आपकी मदद करूँगा। आप अपने अभिभावकों के साथ मेरे पास आएं। यदि वह इसकी स्वीकृति
दें तो मैं आपके लिए यह करूँगा। संबंधित लड़की को अगवा कर शादी के लिए आपको सौंप दूँगा।”
भाजपा सांसद अनंत हेगड़े
ने तो एक बार भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम को एक झूठा नाटक ही कह दिया। फ़रवरी
2020 के दौरान इन्होंने कह दिया कि, “कैसे ‘ऐसे लोग’ भारत में महात्मा पुकारे जाते हैं? पूरा स्वतंत्रता आंदोलन अंग्रेज़ों की सहमति और समर्थन से खेला
गया एक बड़ा ड्रामा था। ये तथाकथित नेता एक बार भी पुलिस द्वारा नहीं पीटे गए। यह वास्तविक
लड़ाई नहीं, बल्कि तालमेल से किया गया स्वतंत्रता आंदोलन था।”
इसी महीने एआईएमआईएम
के प्रवक्ता वारिस पठान ने सीएए विरोध प्रदर्शन के संदर्भ में कह दिया था, “15 करोड़ हैं, लेकिन 100 करोड़ के ऊपर भारी हैं। यह याद रख लेना।”
बीजेपी नेता दिलीप
घोष बंगाल में कह गए थे, “यदि हमारी पार्टी सत्ता में आ गई तो तृणमूल कांग्रेस के लोगों को बीच चौराहे पर
नंगा कर जूतों से पीटा जाएगा।” इसके कुछ समय बाद इन्होंने टीएमसी के लिए कहा कि, “संभल जाओ, नहीं तो हाथ-पैर टूटेंगे, मर भी सकते हो।”
बीजेपी के एक राष्ट्रीय
पदाधिकारी अनुपम हाजरा ने कहा कि, “अगर वह कोरोना संक्रमित हो गए तो ममता बनर्जी को गले लगा लेंगे।”
उधर केंद्र में गृह
राज्य मंत्री नित्यानंद राय बिहार की एक जनसभा में कहते नज़र आए कि, “अगर बिहार में सरकार आरजेडी की बनेगी तो कश्मीर में जिन आतंकियों का हम सफाया कर
रहे हैं, वे बिहार की धरती में आकर पनाह ले लेंगे।” ऐसा ही बयान अमित शाह
ने कुछ सालों पहले दिया था, जिसमें वे कह रहे थे कि, “अगर बीजेपी बिहार में हार गई तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।”
एक बार मध्य प्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्य की पूर्व मंत्री इमरती देवी को ‘आइटम’ कह दिया था! विवाद हुआ तो नेताजी ने कह दिया कि मैं उनका नाम भूल गया था। उधर बीजेपी के एक
नेता ने कांग्रेस के उम्मीदवार की पत्नी के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर लिया, जिसे यहाँ लिखा नहीं जा सकता।
गोवा के सीएम प्रमोद
सावंत ने चुनाव जीतने के बाद घोषित कर दिया था कि, “अगर भगवान भी किसी राज्य के मुख्यमंत्री बन जाएं तो वो भी 100 फ़ीसदी लोगों को सरकारी
नौकरी नहीं दे सकते हैं।”
हाथरस दुष्कर्म मामले
में बाराबंकी से आने वाले नेता रंजीत बहादुर श्रीवास्तव ने कहा था, “लड़की ने लड़के को बुलाया होगा बाजरे के खेत में, चूंकि प्रेम प्रसंग था, सब बातें सोशल मीडिया पर भी हैं, चैनलों पर भी आ चुकी हैं। पकड़ ली गई होगी, अक्सर यही होता है खेतों में। ये जितनी लड़कियाँ इस तरह की मरती
हैं, ये कुछ ही जगहों में पाई जाती हैं। ये गन्ने
के खेत में पाई जाती हैं, अरहर के खेत में, मक्के के खेत में, बाजरे के खेत में, नाले में-झाड़ियों में पाई जाती हैं, जंगल में पाई जाती हैं।”
इन्होंने अपनी घिनौनी
बातों को आगे बढ़ाते हुए यहाँ तक कहा कि, “मैं अपने समाज से कहना चाहूँगा कि अब वे दिन न आने दें कि लड़की को पैदा होते ही
मार दिया जाए या सती प्रथा दोबारा लानी पड़े।”
बलिया से एक और विधायक
सुरेंद्र सिंह ने कहा, “बलात्कार की घटनाएँ सिर्फ़ बेटियों को संस्कार देने से ही रूक सकती हैं।”
एक बात ज़रूर नोट करें कि हमारे यहाँ उद्योगपतियों
के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियाँ सरकार या उनके मंत्री नहीं देते। विपक्ष वाले उद्योगपतियों
व सरकार के रिश्तों को लेकर बोलते रहते हैं, लेकिन स्वयं सरकार या उनके मंत्री कभी उद्योगपतियों
पर विवादित बयान नहीं देते। वे इन्हें छोड़कर बाकी सबको पकड़ते हैं। एक को सत्ता छोड़
देती है, लेकिन जवान, किसान, विज्ञान, भगवान, संविधान किसीको ये लोग नहीं छोड़ते!
कोविड19 कोरोना महामारी का
समय विवादित और विचित्र बयानों का दौर था। “यज्ञ करो कोरोना की अगली लहर भारत को छू नहीं पाएगी”, “सब लोग कुछ दिन सुबह 10 बजे आहूतियाँ डालें तो कोरोना कुछ नहीं कर पाएगा”, “गो मूत्र पीजिए कोरोना से बच जाओगे”, “भाभीजी पापड़ कोरोना से लड़ने में मददगार है”, “कोरोना वायरस प्राणी
है, उसे भी जीने का अधिकार है”, “गाय के पास रहने से कोरोना की बीमारी ठीक हो जाती है, क्योंकि गाय ऑक्सीजन छोड़ती
है”, “एलोपैथिक दवाएँ खाने से लाखों लोगों की मौत हुई है, एलोपैथी स्टुपिड और
दिवालिया साइंस है”, ''ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है, वातावरण में भरपूर ऑक्सीजन है, लोग बेवजह सिलेंडर ढूँढ रहे हैं'', “निजी अस्पताल मरीजों की इम्यूनिटी कमज़ोर कर रहे हैं, इसलिए ब्लैक-व्हाइट फंगस फैल रहा है”... कोरोना समय के ये वाणी
विलास किसी आम नागरिकों के नहीं हैं, किंतु यह केंद्रीय या राज्य मंत्री स्तर के
नेताओं के बयान हैं!!! कुछ बयान महान उद्योगपति बाबा रामदेव के भी हैं इसमें!
राजस्थान हाईकोर्ट
के जज महेश शर्मा ने कह दिया था कि, “मोर ज़िंदगी भर ब्रह्मचारी रहता है। उसके आँसू चुगकर मोरनी गर्भवती होती है। इसीलिए
मोर को राष्ट्रीय पक्षी बनाया गया। ठीक इसी तरह गाय के अंदर भी इतने गुण हैं कि उसे
राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए।”
उधर बीजेपी नेता दिलीप
घोष ने रहस्योद्घाटन किया कि, “भारतीय नस्ल की गायों में एक ख़ासियत होती है। इनके दूध में सोना मिला होता है और
इसी वजह से उनके दूध का रंग सुनहरा होता है।” इन्होंने एक बार कह दिया था कि, “गधे कभी भी गाय की अहमियत नहीं समझेंगे। हमें स्वस्थ रहने के लिए गोमूत्र पीना
चाहिए।”
स्वयं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेकों बार इतिहास, विज्ञान आदि को जमकर कूट चुके हैं! वे बहुत बार इतिहास को उलट-पुलट करते हुए बयान दे चुके हैं तथा विज्ञान की भी
हालत ख़राब कर चुके हैं। भगत सिंह, सिकंदर, ई-मेल, डिजिटल कैमरा, बादल और रडार,
पीएम मोदी के ऐसे बयानों की सूची लंबी है।
नेताजी बिप्लव देब
भी रहस्योद्घाटन कर चुके हैं कि, “जब बत्तख़ पानी में तैरते हैं, तो जलाशय में ऑक्सीजन का स्तर अपने आप बढ़
जाता है। इससे ऑक्सीजन रिसाइकिल होता है। पानी में रहने वाली मछलियों को ज़्यादा ऑक्सीजन
मिलता है। इस तरह मछलियाँ तेज़ी से बढ़ती हैं और ऑर्गनिक तरीक़े से मत्स्यपालन को बढ़ावा
मिलता है।”
कोरोना काल में मध्य प्रदेश
प्रोटेम स्पीकर रामेश्वर शर्मा ने कहा था, “कोरोना वायरस महामारी का अंत अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण कार्य की शुरुआत
के साथ हो जाएगा।”
25 अक्टूबर 2018 को मंत्री सत्यपाल सिंह ने आतंकवाद का समाधान वेदों को बता दिया। केंद्रीय मानव
संसाधन विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह का कहना था कि, “जितने भी अपराध, आतंकवाद, समस्याएं हैं, उन सबका निदान अगर कोई कर सकता है तो वो वेदों
के विचार, ऋषि ज्ञान ही कर सकते हैं। अगर इस देश के
गौरव को पुन: लौटाना है तो हमें पुन: वेदों की तरफ़ जाना पड़ेगा।” इन्होंने तो आगे यह भी कहा कि, “राष्ट्रपति को भी इसकी शपथ लेते देखने का सपना है।”
सोचिए, आतंकवाद, अपराध और दूसरी समस्याओं के लिए क़ानून, उससे जुड़ी हुई संस्थाएँ, विभाग, जाँच, फोरेंसिक, अन्वेषण आदि चीज़ें बेहतर की जानी चाहिए। किंतु
मंत्रीजी समाधान यह दे रहे थे कि सब ग़लत है, बस वेदों की तरफ़ लौट जाओ, जाँच-वाच, फोरेंसिक-वोरेसिंक वगैरह तो जुमले हैं! नोट करें कि सत्यपाल सिंह मुंबई शहर के पुलिस कमिश्नर रह चुके हैं। जजों और पुलिस
कमिश्नरों के अजब-ग़ज़ब बयानों के दौर को देख लगता है कि क्लास-1 या क्लास-2 लोगों के क्लास इतने
भी क्लासलेस होने लगे हैं आज कल!
अप्रैल 2022 में गुजरात के शिक्षा
मंत्री जीतू वाघाणी ने शिक्षा के कमतर स्तर वाले सवाल पर बोल दिया कि, “जिन्हें गुजरात में शिक्षा ठीक नहीं लगती वे सारे गुजरात छोड़ वहीं चले जाएँ, जहाँ
उन्हें ठीक लगता हो।” वे इससे पहले स्कूल इमारतों की ख़राब स्थिति
को लेकर कह चुके थे कि, “हम तो पहले ठंडी के मौसम में भी खुल्ले में ही पढ़ते थे।”
कुत्ते, गधे, चूहे, बिच्छू के बाद एनाकोंडा भी अब राजनीति में
अवतरित हो चुका था! नेता लोग पीएम मोदी के लिए और पीएम मोदी उन नेताओं के लिए जमकर
आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करते रहे। तमाम प्रकार के जीव-जंतु भाषा में आते रहे, जाते रहे! लिहाज़, शर्म, मर्यादा, संस्कृति, अस्मिता सबका इनके द्वारा दोहन होता रहा।
राजनेता, नेता, अभिनेता से लेकर धार्मिक प्रतिनिधि, कोई भी किसी चीज़ का लिहाज़ नहीं कर रहा! दिसंबर 2021 के दौरान हरिद्वार
की धर्मसंसद बिगड़े बोल का मेला सरीखी थी। इस धर्मसंसद में इतने आपत्तिजनक और असंवैधानिक
बयान दिए गए थे कि भारत के बाहर दूसरे देशों के अख़बारों में भी उन ज़हरीले बयानों को
लेकर रिपोर्ट प्रकाशित हुईं!
इस धर्मसंसद में महामंडलेश्वर
यति नरसिंहानंद के अतिविवादित बयानों ने जमकर बवाल काटा। धर्मसंसद से उन्होंने मुसलमानों
के नरसंहार की बात की, साथ ही दूसरे वाणी विलास भी किए। इन्होंने
तो एक बार यह तक कह दिया था कि, “जिस महिला ने एक बेटा ही पैदा किया, उस माँ को औरत मत मानना।”
इसके बाद एक दूसरी
धर्मसंसद में गोडसे के गुणगान हुए और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के लिए अतिआपत्तिजनक
शब्दों का इस्तेमाल हुआ। साथ ही दूसरे ज़हरीले बयान भी दिए गए।
छत्तीसगढ़ में तीन
बार मंत्री रहे बृजमोहन अग्रवाल ने जून 2021 में महंगाई पर कह दिया कि, “खाना-पीना छोड़ दो, महंगाई पक्का कम हो जाएगी।”
मध्य प्रदेश के एक
मंत्री से ईंधन के बढ़े दामों के बारे में मीडिया ने सवाल पूछा तो वे दार्शनिक अंदाज़ में कहने लगे, “ज़िंदगी में परेशानी ही सुख का आनंद देती है। जब तक एक भी परेशानी न आये तो आनंद
भी नहीं आता है।”
मध्य प्रदेश में बीजेपी
सरकार के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने ईँधन के दामों पर कहा कि, “15 अगस्त 1947 को लाल क़िले की प्राचीर से जवाहरलाल नेहरू ने जो भाषण दिया, उन्हीं ग़लतियों के कारण देश की अर्थव्यवस्था की ये हालत हुई
है।”
ईंधन की क़ीमत जब 100 रुपये के पार चली
गई तब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “मध्यम वर्ग को ऐसी कठिनाई नहीं होती, यदि पूर्ववर्ती सरकारों ने ऊर्जा आयात की निर्भरता
पर ध्यान दिया होता।” अब इससे पूर्व तो उनकी ही सरकार थी!
उधर इसी बीच भारतीय
रेलवे ने कम दूरी के सफ़र पर किराया बढ़ा दिया। किराया बढ़ाने के पीछे तर्क दिया गया
कि, “कोविड महामारी के चलते कम दूरी की ट्रेनों में लोग न चढ़ें, इसलिए किराए में बढ़ोतरी
की गई है।”
महंगाई पर भाजपा प्रवक्ता
सारिका जैन ने तो ऐलान ही कर दिया कि, “मोदी पेट्रोल का दाम कम करने नहीं, भारत को विश्वगुरु बनाने आए हैं।”
कमाल है न! आतंकवाद का कोई इलाज नहीं मिला
तो आतंकवाद को रोकने के लिए नोटबंदी की गई! कोविड को रोकने के लिए रेल किराया बढ़ा दिया! यूँ तो वाणी विलास सदियों पुराना है। किंतु उसकी व्यापकता और स्वीकार्यता आज जितनी
है, उतनी शायद कभी नहीं
रही होगी! आज विवादित वाणी सामान्य सी घटना है! आज का पढ़ा लिखा समाज इस अवगुण को आसानी से स्वीकार लेता है!
एक दौर वो भी था जब
ज़्यादातर लोग देश के नेताओं को सम्मान से बुलाया करते थे। आज लोग नेताओं के कौन से
नामों से जानते या पहचानते हैं, वो जगज़ाहिर है। लोग नहीं बदले, दरअसल नेता बदल गए हैं।
भारत का महान स्वतंत्रता
संग्राम देख लें। अहिंसावादी समुदाय हो या क्रांतिकारी समुदाय, एकदूसरे के लिए तो छोड़ दें, बहुत कम बार अंग्रेज़ों के लिए भी जुबां ऐसे फिसलती नहीं थी। क्योंकि उन्हें पूरी
तरह से ज्ञात था कि बोल लेने से स्वतंत्रता नहीं मिलनी, कर्म करने से मिलनी है। वे अंग्रेज़ों का या फिर एकदूसरे का विरोध
किया करते थे, किंतु उसमें तर्क थे, मर्यादा थी। मतभेद सभी में थे, किंतु अपनी बात कहने का लहज़ा, बात के अंदर तर्क-तथ्य आदि ज़्यादा ज़रूरी माना जाता था। आज यह सब ग़ैरज़रूरी बन गया
है।
इतना ही नहीं, स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसे ढेर सारे उदाहरण मौजूद हैं। राम
मनोहर लोहिया नेहरू के सख़्त विरोधी थे, लेकिन उन्होंने भाषा को गिरने नहीं दिया।
जब नेहरू संसद में भाषण के लिये खड़े होते थे, तब भी कोई विरोधी मर्यादा नहीं तोड़ता था।
सरदार पटेल जितना सख़्त मिज़ाजी कोई नहीं होगा, किंतु उनकी भाषा कभी सीमाएँ नहीं लांधती थी।
इतिहास में वो बात
दर्ज है कि चंद्रशेखर आज़ाद मोतीलाल नेहरू की अंतिमयात्रा में अंग्रेज़ों से छुपकर पहुंचे
थे। इतिहास उस तथ्य को भी सामने लाता है कि चंद्रशेखर आज़ाद की अंतिमयात्रा में कमला
नेहरू तथा अन्य नेतागण भी उपस्थित रहे थे।
वो दौर भी रहा जब राजीव
गांधी ने विपक्षी सांसद वाजपेयी को यूएन महासभा में भारतीय प्रतिनिधि मंडल का हिस्सा
बनाकर भेजा था। 1994 में विपक्ष में होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अटल
बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजे गए प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व
सौंपा था।
एक धटना वो भी दर्ज
है कि एक बार मोरारजी देसाई आमंत्रण के बाद भी पाकिस्तान एक कार्यक्रम में नहीं गए।
उनसे नहीं जाने की वजह पूछी गई तब उन्होंने कहा था कि अगर वहाँ इंदिरा के बारे में
पूछा जाता तो मैं झूठ नहीं बोल पाता, सच बोल देता और विदेश में जाकर मैं अपने देश
की या अपने नेताओं की बुराई कैसे कर सकता हूँ?
वाजपेयी वो आख़िरी
शख़्स थे, जो उस मर्यादित और तार्किक राजनीति का आधार माने जाते थे। वाजपेयी ने अपना
90 फ़ीसदी राजनीतिक जीवन
विरोध की राजनीति में ही बिताया, किंतु चमत्कार यह था कि वे ख़ुद ना किसी के
विरोधी रहे, ना कोई उनका विरोधी था! जब वे देश के प्रधानमंत्री बने और पहली बार संसद पहुंचे तो उन्होंने वहाँ नेहरू
की तस्वीर नहीं देखी, जो अरसे से लगाई गई थी। उन्होंने तत्काल वहाँ
नेहरू की तस्वीर लगवाई थी।
वैसे नेतागीरी का यह
ट्रिक भी कमाल का है। बयान कोई एक नेता देता है। उसका मतलब समझाने कोई दूसरा बैठ जाता
है! फिर संदर्भ कोई तीसरा समझाता है! अगर तब भी विवाद नहीं थमता तब चौथा आकर आख़िरी
हथियार छोड़ देता है कि वह बयान व्यक्तिगत था, उसका पक्ष से कोई लेना देना नहीं है, हम बयान की निंदा करते हैं!!! बयान किसी ने भी दिया हो, लेकिन बयान देने की पीछे साफ़ सुथरी मनसा हर सह्योगी को पता होता
है!!! वे तमाम बयानों के समय साफ़ सुथरा मक़सद ज़रूर बता देते हैं।
वैसे बयान को लेकर
एक और तरीक़ा भी है इनके पास। तरीक़ा है, बयान वापस भी लिया जा सकता है!!! कमाल की
चीज़ है यह। संसद में बयान दो, सड़क पर दो, मीडिया में दो, रैली में दो। फिर उसे वापस भी लिया जा सकता
है! इस प्रकार का अन डू टूल उनके लिए ही है। आम नागरिकों के लिए यह व्यवस्था नहीं है।
वर्ना सोशल मीडिया पर कुछेक मामलों को लेकर या कार्टून बनाने को लेकर गिरफ़्तार हुए
नागरिक अन डू कर मामला ख़त्म कर लेते।
नेताओं के बिगड़े बोल
का इतिहास लंबा है। कोई आम नागरिक सीमा लांध दे वो एक अलग विषय है, जबकि सार्वजनिक जीवन में प्रवृत्त शख़्सियत ऐसा कर दे तब विषय
अलग होता है। घर में बैठे रहने वालों को शालीनता या संस्कृति का उतना दबाव नहीं होता, जितना सार्वजनिक जीवन जीने वालों को होता है। क्योंकि आम नागरिक
की आवाज़ की पहुंच हर किसी को पता है। जबकि सार्वजनिक जीवन में प्रवृत्त व्यक्तियों
का हर बयान या हर कदम बड़े समुदाय पर असर डालता है।
ऐसी वाणी बोलिए, जमकर झगड़ा होए, औरन को पागल करे, आपहुं शीतल होए! कबीर दास जी का वो पुराना दोहा आज इस रूप में इस्तेमाल हो रहा हो ऐसा लग रहा
है। वाणी विलास सदियों से होते हैं, स्वतंत्रता से पहले
भी तथा स्वतंत्रता के पश्चात भी, लेकिन उनकी सर्व स्वीकार्यता
और व्यापकता इतनी कभी नहीं थी, जितनी आज है! कौन सी भाषा प्रदेश में या देश में इस्तेमाल की जाए उसे लेकर कई दफा निरंतर बवाल
होता रहता है। कौन सी भाषा को महत्व दिया जाए ये तय करने से पहले भाषा को सुधारने के
बारे में क्यों सोचा नहीं जाता होगा ये वाक़ई बड़ा सवाल है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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