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Bulldozer and Parade: बुलडोज़र और जुलूस वाले सरकारी पर्दे, सनक और मनोरंजन को संस्कृति बनाती हुई सरकारें


आज-कल भारत में विविध राज्यों में चल रहे 'बुलडोज़र' और 'अपराधियों के जुलूस' दरअसल 'सरकारी पर्दे' हैं, जिससे ज़रूरी मुद्दों को छिपाया जा सकता है। साथ ही जिन मुद्दों के आधार पर सरकारें बनी हो, जो सवाल सिर उठा रहे हो, उन समस्याओं के सामने लोगों को मुफ़्त में मनोरंजन पेश करके उन्हें ख़ुशी दी जा सकती है कि देखिए, भले ही हम तमाम मसलों पर असफल हुए हो, कुछ न कर पाए हो, लेकिन यह तो कर रहे हैं न।
 
अवैध निर्माण के जंगल के बीच किसी एक मामले में बुलडोज़र की एंट्री कराने से तथा अनगिनत अपराधों के बीच किसी एक मामले में सार्वजनिक जुलूस का शो करने से बहुत सारे असली मुद्दों पर पर्दा डाला जा सकता है। पहले सरकारें असली मुद्दों को दफ़्न करने के लिए सांप्रदायिकता और राष्ट्रप्रेम की शीशी सूँघाती थी, अब मामला लोगों के 'फ़ौरी तौर पर मनोरंजन' कराने तक पहुँच गया है!
 
लोगों को ख़ुश करने के लिए पुलिस सुबह किसी अपराधी का सार्वजनिक जुलूस निकालती है और उसी दिन उसी शहर में दूसरे अनेक अपराध हो चुके होते हैं, लेकिन 'समझ' की जगह लोगों की 'सनक' ऐसी कि सुबह निकाले गए जुलूस दिन भर हुए अपराधों को ढक देते हैं! किसी एक मामले में अपराधी का घर या घर का कुछ हिस्सा बुलडोज़र या हथौड़े से तोड़ कर दूसरे तमाम अतिक्रमणों और अवैध निर्माणों के सवाल को दफ़्न किया जा सकता है!
 
बुलडोज़र और सार्वजनिक जुलूस वाली संस्कृति अप्रत्याशित नहीं लगती। क्योंकि यहाँ अपराध और अपराधियों को ही घर्म - जाति - उपजाति - पसंदीदा सत्ता - नापसंदीदा सत्ता, आदि के चश्मे से देखनी की 'सनक' ही संस्कृति बन चुकी है। अतिक्रमण या अपराध जैसी समस्याएँ यहाँ धर्म, जाति, उपजाति, पसंदीदा सत्ता, नापसंदीदा सत्ता के आसपास ही साँसें लेती हैं।
 
यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट है कि देश के तमाम छोटे-मोटे शहरों में और गाँवों तक में अवैध निर्माण हैं, नदियाँ मारकर इमारतें बनाई गई हैं, तालाबों को गायब कर शॉपिंग मॉल्स खड़े कर दिए गए हैं, हर गली-मोहल्ले-सड़कों पर अतिक्रमण हैं, प्राकृतिक निकाल को पूरी तरह नष्ट करके निर्माण किए गए हैं। किंतु समझ की जगह सनक ऐसी कि तमाम तथ्यों को नज़रअंदाज़ करके किसी एक क़िस्से में किसी अपराधी के घर या घर के किसी हिस्से को गिराने का बुलडोज़र एक्शन राष्ट्रनिर्माण या राष्ट्रसुरक्षा के रूप में देखा जाता है!
4 सितंबर 2024 के दिन जस्टिस बी आर गवई और के विश्वनाथन की पीठ ने कहा था, "किसी का घर सिर्फ़ इसलिए कैसे गिराया जा सकता है कि वह आरोपी है?" पीठ ने कहा था, "भले ही वह दोषी हो, लेकिन क़ानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।" देश की सर्वोच्च अदालत ने इसी साल बिना क़ानूनी और संवैधानिक प्रक्रिया के किसी भी अपराधी की संपत्ति को गिराने से मना कर दिया था।
 
क़ानूनी मामलों पर रिपोर्ट करने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक़, सितंबर 2024 में सुनवाई के दौरान जस्टिस विश्वनाथन ने कहा था, "अगर अवैध डेमोलिशन की एक भी घटना होती है तो वो संविधान की प्रकृति के विरुद्ध है।"
 
पहले भी और बाद में भी अदालतों ने बुलडोज़र एक्शन को तथा अपराधियों के जुलूसों को ग़ैरक़ानूनी प्रक्रिया माना है। लेकिन लगता है कि अदालती आदेश वंचितों और ग़रीबों के लिए ही होते होंगे, सरकारों को अदालती आदेश का पालन कराने के लिए किसी दूसरे संविधान की ज़रूरत होती होगी।
 

अब द्दश्य कुछ ऐसा बन चुका है, जैसे कि अदालतें संज्ञान लेगी, सुनेगी, सख़्त बनेगी, आदेश देगी और सरकारें समय समय पर उस अदालती सुनवाईयों और आदेशों को नज़रअंदाज़ करेगी! यानी, एक तरफ़ क़ानून और संविधान की व्यवस्था में मानने वाले नागरिकों को अदालतें ख़ुश करेगी, दूसरी तरफ़ सनक और मनोरंजन में मानने वाले लोगों को सरकारें ख़ुश करेगी!
 
अवैध निर्माण हटाना और अपराधियों को सार्वजनिक रूप से या बंद दरवाज़े के भीतर डंडे की भाषा में समझाना, हम इन दोनों के ख़िलाफ़ नहीं हैं। अगर किसी की बेटी को कोई बदमाश परेशान करता है और उस बेटी का पिता पुलिस से शिकायत करता है तो क्या होगा? पुलिस उस आरोपी को गिरफ़्तार करेगी। यह जमानती अपराध है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिस अपराध में 7 साल से कम सज़ा का प्रावधान है उन अपराधों में आरोपी को जमानत देनी होगी। तो फिर शिकायत के तुरंत बाद अपराधी बाहर आ जाएगा।
ऐसे में पीड़ित और उनके परिजनों के सामने क्या तस्वीर बनेगी? यही कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। अगर उस आरोपी को पुलिस बंद दरवाज़े के भीतर डंडे की भाषा में समझाएगी तब भी दूसरे ऐसे बदमाशों के सामने या आम जनता के सामने पुलिस की कार्रवाई नहीं दिखेगी। भले ही उस आरोपी को अंदर डंडे की भाषा में समझाया गया हो।
 
इस द्दष्टिकोण से उस आरोपी को मर्यादा के बाहर जाकर सार्वजनिक रूप डंडे की भाषा में समझाया जाएगा तो यक़ीनन दूसरे ऐसे बदमाशों को रोका जा सकता है, साथ ही आम जनता के बीच पुलिस कार्रवाई को दिखाकर जनता को सुरक्षित होने का एहसास दिलाया जा सकता है।
 
किंतु ज़्यादातर तो ऐसे सार्वजनिक जुलूस उपरोक्त बातचीत से दूर दिखाई देते हैं। क्योंकि आम जनता यह भी देखती है कि दूसरे अनेक मामलों में, क़िस्सों में, परेशानियों में, यही पुलिस जनता का साथ नहीं देती, वह किसी दूसरे-तीसरे का साथ देती दिख जाती है। किसी एकाध क़िस्से में, हम काम कर रहे हैं, यह दिखाने के लिए पूरा कार्यक्रम किया जाए, तो फिर ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम मूल समस्या का हल कैसे हो सकते हैं?
 
पूरा शहर अवैध निर्माणों से भरा पड़ा हो, भ्रष्टाचार से लिप्त निर्माण हो, वे अवैध निर्माण शहर- नागरिकों- पर्यावरण, ट्रैफ़िक, सभी को परेशान कर रहे हो, और आप एकाध मामले में बुलडोज़र और हथौड़ा लेकर रील बनाने लग जाए तो यह किस प्रकार से समाधान माना जाए? दिन भर जनता असामाजिक और ग़ैरक़ानूनी माहौल से परेशान हो रही है, और आप एकाध सार्वजनिक जुलूस का शो करके सब सलामत है का नारा कैसे लगा सकते हैं?
 
सवाल बनता है कि अगर अतिक्रमण करना अपराध है तो फिर अतिक्रमण को होने देना क्या है? सवाल यह भी उठता है कि अपराध को रोकने का कर्तव्य निभा लिया जाए तो पुलिस को अपराधियों के जुलूस निकालने की ज़रूरत ही कहाँ?
घर ग़रीबों के ही टूटते हैं, अमीरों के नहीं। जुलूस आम आरोपियों के ही निकलते हैं, बाकियों के नहीं। यहीं सारी गड़बड़ है।
 
तमाम शहरों में किसी बड़े कॉन्ट्रैक्टर, किसी अमीर कारोबारी, या ऊपर तक पहुँच वालों के भ्रष्टाचार की वजह से सामूहिक हत्याकाँड सरीखे क़िस्से अनेकों बार हुए हैं। पुल या निर्माण के ढहने से, आग लगने से, अस्पतालों तक में, सड़कों पर, कहीं भी सामूहिक रूप से नागरिक मारे जाते रहे हैं। इनमें से किसी भी आरोपी का जुलूस निकला नहीं है अब तक! ना किसीका निर्माण तोड़ा जाता है! ना ही इनके परिजनों को सहआरोपी माना जाता है!
 
दरअसल दोनों कार्रवाई, 'अतिक्रमण हटाना' और 'अपराधियों के जुलूस', दोनों राजनीति और एक विशेष परसेप्शन के आसपास साँसे लेते रहते हैं। प्रशासन और पुलिस जैसे कि लोगों को दिखाना चाहते हैं कि हम काम कर रहे हैं। क्योंकि इससे पहले काम नहीं हुआ होता। दोनों कार्रवाई ऐसे होती हैं, जैसे कि लोगों को ख़ुश करना हो। लोग क्या करने से ख़ुश हो रहे हैं, वही करो।

 
अपराध का वीडियो बाज़ार में फैलता है तभी पुलिस काम क्यों करती है? तभी प्रशासन को क्यों याद आता है कि आरोपी का कोई निर्माण अवैध है?
 
अतिक्रमण को हटाने का काम सरकारों को किसी टीवी कार्यक्रम की तरह गाजे बाजे का साथ क्यों करना पड़ता है? क्योंकि सरकारों ने अतिक्रमणों को रोकने का कर्तव्य निभाया ही नहीं था। पुलिस को अपराधी का जुलूस शो क्यों करना पड़ता है? क्योंकि अपराध को रोकने की सरकारी सैलरी लेने के बाद भी अपराध रोके नहीं गए थे।
 
दरअसल अतिक्रमण का विध्वंश क़ानून के अनुसार होना चाहिए, प्रतिशोधात्मक या पसंदीदा नहीं। अतिक्रमण और अपराध तथा इन दोनों के अपराधियों के साथ नेता और पुलिस की साँठगाँठ तथा कथित भ्रष्टाचार का जो दैत्य है उसे क्यों नहीं देखा जाता? अमीर परिवारों के संतान नशा करके सड़क पर लोगों को कुचल देते हैं, किंतु घर तो सिर्फ़ आम लोगों के ही टूटते हैं!
 
अतिक्रमण और अपराध, दोनों मामलों में अनेक पहलू हैं, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। प्रशासन लाउडस्पीकर पर घोषणा करके या बसों के ऊपर विज्ञापन चिपका कर लोगों को नहीं कहता कि आइए, अतिक्रमण कीजिए। ना पुलिस ऐसा करती है। दोषी तो सरकार-प्रशासन और हम नागरिक, सभी होते हैं। लेकिन यहाँ आदर्श वगैरह की बात नहीं है। बात सरकारी रेनकोट की है।
हम बिलकुल नज़रअंदाज़ नहीं कर रहे कि अवैध निर्माण करने के लिए प्रशासन लोगों को नहीं कहता। लोगों को किसी वजह से, लालच में, मजबूरी में, किसी भी वजह से निर्माण अवैध तरीक़े से करते देखा है। निर्माण करने वालों को पता होता है कि उसने अवैध तरीक़े से कुछ बनाया है। इसके पीछे वजह जो भी हो, लालच हो, या मजबूरी हो, किंतु स्वयं नागरिक इस प्रक्रिया में संलिप्त तो होता ही है।
 
मोटे तौर पर देखा गया है कि वह अवैध निर्माण तभी टूटता है जब वहाँ किसी अमीर को अपना कोई व्यावसायिक निर्माण करना हो, या फिर सरकार को विकास कार्य करने हो। या फिर तभी टूटता है जब प्रशासन को दिखाना पड़ जाए कि वे काम कर रहे हैं।
 

जैसा कि अनेक मामलों में देखा जाता है, अतिक्रमण कर रहे आम नागरिक को पता होता है कि वह अतिक्रमण कर रहा है। फिर जब उसका अतिक्रमण हटाया जाता है तब वह रोता-विलपता है, उसके संतान बेघर हो जाते हैं, टूटे घर से बर्तन, किताबें आदि ढूंढ रहे होते हैं।
 
किसी मसले को भावना में बह कर समझा नहीं जा सकता। इस हिसाब से इसमें आम नागरिक और प्रशासन, दोनों एकसरीखी मात्रा में दोषी नज़र आते हैं।
 
किंतु गड़बड़ी, या सवाल, या आपत्ति, कुछ भी कह लें, वह यही है कि ऐसी कार्रवाई में यकायक वाला तत्व या असमानतापूर्ण व्यवहार क्यों दिखता है? 'अतिक्रमण' और 'अपराध' को रोकने या हटाने का काम सरकारें और प्रशासन शांति से भी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने 'अतिक्रमण' और 'अपराध' को रोकने की जगह फलने-फूलने दिया। यह भी तो पुराना सच है, जो अब भी बदला हुआ नहीं दिखाई देता।
 
ऊपर से सरकार और उसका प्रशासन ऐसी फ़ौरी तोर पर की जाने वाली कार्रवाई को क़ानूनी कार्रवाई बताते हैं, कहते हैं कि नियमों के अनुसार उठाए गए कदम थे। तो फिर अदालतें ऐसे अनेक मामलों को असंवैधानिक क्यों घोषित कर चुकी हैं? क्योंकि क़ानून का पालन नहीं किया गया होता, भले ही करते समय दावा तो किया था।
अवैध निर्माण टूटने चाहिए। बिलकुल टूटने चाहिए। लेकिन इसके टूटेंगे और उसके नहीं टूटेंगे प्रकार की असमानता स्वीकृत नहीं हो सकती। अपराधियों के साथ सख़्ती होनी चाहिए, किंतु इनके साथ होगी और उनके साथ नहीं होगी सरीखा आचरण उचित नहीं ठहराया जा सकता।
 
गुजरात, अहमदाबाद के वस्त्राल इलाक़े में 13 मार्च 2025 के दिन अपराधियों ने सड़क पर तलवारों के साथ हुड़दंग मचाया। किसी ने उसका वीडियो लिया और वीडियो बाज़ार में आया तब पुलिस और सरकार को लगा कि अब कुछ नया करना होगा।
 
आनन फानन में दर्जन भर आरोपियों की गिरफ़्तारी हुई। महज़ कुछ दिनों के भीतर इनमें से कुछ के घर तोड़ दिए गए, कुछ के घर के हिस्सों को तोड़ा गया। आरोपियों का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था, ना ही इनके परिजनों का कोई ऐसा इतिहास था। किसी के घर में छोटे बच्चे थे, किसी के घर में बूढ़े और बीमार परिजन। लेकिन प्रशासन ने सोच लिया कि घर के लड़के के अपराध की सज़ा पूरे परिवार को देनी है!

 
इनमें से कुछ आरोपी के परिजनों से बीबीसी ने बात की। 17 मार्च 2025 को बीबीसी गुजराती के लिए भार्गव परीख की रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट में दर्ज है कि आरोपियों को परिवार के सामने पीटा गया और अगले दिन अनेक घरों में तोड़फोड़ की गई। एक क़िस्से में तो प्रशासन ने एक ऐसे आरोपी का घर तोड़ा, जो किराए के मकान में रहते थे!
 
बताइए, किराए का घर तोड़ दिया गया! घर के मालिक का इस पूरी घटना से कोई लेना देना नहीं था! उसका घर प्रशासन ने तोड़ दिया! आरोपियों के घरवाले बताते हैं कि घर में छोटे बच्चे हैं, भूखे हैं, घर नहीं रहा। कोई टीबी का मरीज़ है, जिसे दवा लेना नसीब नहीं हुआ। कोई किसी दूसरी बीमारी का मरीज़ है, किसी के घर में बूढ़े स्वजन हैं। कहीं छोटी बच्ची ढहते हुए घर से अपनी किताबें निकालने के लिए दौड़ लगा रही होती है।
वस्त्राल मामले के एक आरोपी की बहन स्पष्ट रूप से पूछती-बताती है कि अगर मेरा भाई अपराधी है तो उसे सज़ा दो, लेकिन हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? एक आरोपी की माता दावा करती है कि जब वस्त्राल में यह घटना हुई तब मेरे बेटे की दुकान पर काम करते हुए सीसीटीवी फुटेज है, फिर वह आरोपी कैसे हो गया? वह माँ भी पूछती-बताती है कि हम कहते हैं कि अगर मेरा बेटा अपराधी है तो उसे सज़ा दो, लेकिन तुम बीमार पिता और बूढ़ी दादी को इस तरह क्यों परेशान कर रहे हो?
 
किसी के घर इलेक्ट्रिसिटी का बिल आता है, जो नियमित रूप से भुगतान किया होता है! नगर पालिका टैक्स का भुगतान हुआ होता है! उनके घरों में सार्वजनिक सेवा प्रदान की गई होती है! सब कुछ प्रशासनिक और क़ानूनी रूप से! इन दस्तावेज़ों के ज़रिए बैंकों ने लॉन बाँटे हैं!
 
गुजरात पुलिस ने नींद से उठ यकायक घोषणा कर दी, "ग़लत बिजली कनेक्शन लेने वाले, अवैध निर्माण करने वाले या सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण करने वाले सभी लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई का फ़ैसला किया गया है। असामाजिक तत्वों द्वारा किए गए अवैध निर्माण को हटाया जाएगा।"
 
दरअसल, सिस्टम और नागरिक मिल कर अतिक्रमण करते हैं। अवैध निर्माण में वैध तरीक़े से बिजली कनेक्शन लगाया जाता है! नगर निगम क़ानूनी तरीक़े से पानी, सीवेज, जैसी सहुलियत दे देता हैं और सालाना टैक्स की क़ानूनी पर्ची भी अदा करता है!
 
इधर सब कुछ डिजिटल हो चला है। आम आदमी को उसका आधार कार्ड, पैन कार्ड, इलेक्शन कार्ड, फलाँ कार्ड, ढिमका कार्ड, एकदूसरे से जोड़ने हैं। लेकिन ऐसी सेवा प्रदान करने वाले विभागों को जोड़ा नहीं गया क्या? बिजली कनेक्शन मिल सकता है, नगर निगम तमाम सेवाएँ देता है, बदले में कर वसूल करके पर्ची देता है। सब क़ानूनन। लेकिन निर्माण ग़ैरक़ानूनी।
 
यह बात गले से बिलकुल नहीं उतरती कि आप बिजली कनेक्शन लेने जाए तब बिजली विभाग को पता न चले कि आपका निर्माण वैध है या अवैध? कनेक्शन के लिए आपसे तमाम ज़रूरी दस्तावेज़ माँगे जाते हैं। नगर सेवा कचहरी से, दूसरे सरकारी विभागों से आप अपने निर्माण के लिए किसी सार्वजनिक सेवा प्राप्त करने हेतु अर्जी डालते हैं, तब भी दस्तावेज़ चाहिए होते हैं।
ऐसे में सवाल तो यह बनता है कि आरोपी ने ग़ैरक़ानूनी काम किया, अवैध निर्माण किया, तो फिर इन विभागों ने क्या राम लला की पूजा की?
 
अहमदाबाद नगर निगम क़ानूनी समिति के अध्यक्ष प्रकाश गुर्जर ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "अवैध निर्माण गिराने में हमने कोई नियम नहीं तोड़ा है। हमने वो गिराए हैं जो कच्ची इमारतें थीं और नगर निगम की ज़मीन पर बनी थीं।" वे बताते हैं, "ईंटों से बने मकान ख़तरनाक थे और हमने उन्हें क़ानूनी नोटिस देकर गिरा दिया। इस मामले में हमने उन्हें क़ानूनी नोटिस दिया है और नक़्शे के साथ नोटिस दिया है। हम उन लोगों को भी अपना पक्ष रखने का मौक़ा दे रहे हैं। ये मकान अवैध तरीके से नहीं तोड़े जा रहे हैं।"
 
दूसरी तरफ़ देखे तो सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोज़र से न्याय देने की प्रक्रिया को ग़लत ठहराया है। बताया है कि, "नगर निगम को इमारत गिराने से पहले इन लोगों को नोटिस देना चाहिए और इस क़ानूनी प्रक्रिया को पूरा करने से पहले उनकी उचित सुनवाई करनी चाहिए। इस क़ानूनी प्रक्रिया के पूरा होने के बाद इमारत को गिराने से पहले 15 दिन का समय दिया जाना चाहिए।"

 
आज का मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता के महिमामंडन करने के काम में पीछे कहाँ रहता है? यकायक अतिक्रमण को हटाया जाने का शो चल रहा हो, आरोपियों का सार्वजनिक जुलूस हो रहा हो, मीडिया पर चलता है कि इन आरोपियों के परिवार को, इनके माता-पिता को, इन बच्चों को संस्कार देने चाहिए थे, या ध्यान रखना चाहिए था, वगैरह वगैरह। या फिर कार्रवाई को न्याय के रूप में पेश करके पत्रकारिता नामक विषय की हत्या कर दी जाती है।
 
यही मीडिया सेलिब्रिटी सरीखे आरोपियों के समय इस तरह से आचरण नहीं करता! किसी की ग़लती या गुनाह की सज़ा उसके परिवार को या उसके परिजनों को दी जाए, यह मीडिया को अगर सही लगता है, तो फिर मीडिया जितना व्हाट्सएपिया दूसरा कोई हो नहीं सकता।
 
अपराधियों को मार मार कर लंगड़ा करने वाली पुलिस उस अपराधी का जुलूस निकालती है तब समाज और मीडिया, सभी को लगता है कि देश में क़ानून और संविधान का राज चलता है। लेकिन इसी पुलिस के इन जुलूस वीडियो से ज़्यादा तो वह वीडियो घूमते रहते हैं जिसमें क़ानून और संविधान की धज्जियाँ उड़ती होती है।
आरोपियों की सार्वजनिक पिटाई या सार्वजनिक जुलूस वाले मामलों में भी अतिक्रमण वाला ही मसला है। लोगों को मज़ा आ रहा है, जनता को ख़ुशी मिलती है, प्रशासन को काम करते हुए दिखाना है, इन सारी वजहों से अनगिनत अपराधों के बीच एकाध मामले में ऐसा शो करना फैशन सा हो चला है!
 
पुलिस सड़कों पर सज़ा देने लगेगी तो अदालतें क्या करेगी? आरोपियों की सार्वजनिक तरीक़े से मारपीट करने का पुलिस का काम आज कल का नहीं है, बहुत पुराना है। किंतु अब वक़्त बदल गया है। साथ ही इस प्रक्रिया के पीछे के मक़सद भी बदले बदले से नज़र आते हैं।
 
दरअसल, आरोपियों ने हुड़दंग कर क़ानून को हाथ में लिया और पुलिस ने उन्हें सार्वजनिक ढंग से मार कर क़ानून को हाथ में लिया। क़ानून व्यवस्था बनाए रखने में बिलकुल विफल रही पुलिस अपनी विफलता छिपाने के लिए सरेआम आरोपियों को पीट कर अपनी पीठ थपथपाती नज़र आती है।

 
राजनीति की तरह यहाँ भी हो रहा है। एकाध मामले में ख़ुद को अच्छा दिखा दो, लोग तमाम कमियों को भूल जाएँगे। पुलिस इस तरह की थ्योरी पर काम करती दिखती है।
 
पुलिस ने सैकड़ों विफलताओं को छिपाने के लिए एकाध क़िस्से में अदालत से पहले ही न्याय देने का अच्छा काम कर दिया। ठीक है। लेकिन फिर न्याय पाने के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे हज़ारों या लाखों नागरिकों के क़िस्सों का क्या? उसे किस पैमाने पर देखें? उन क़िस्सों को किस तरह से समझा जाए?
 
पुलिस का सबसे ज़रूरी और संवेदनशीलता के साथ किया जाने वाला मूल काम होता है ढंग से बयान लेना, ढंग से जाँच करना, सजगता और निष्पक्षता से साक्ष्य जुटाना, गिरफ़्तार करना, मज़बूत चार्जशीट दाखिल करना और आरोपी को अदालत में सज़ा दिलाकर शिकायतकर्ता के साथ साथ समग्र समाज को सुरक्षा और न्याय का अच्छा माहौल प्रदान करना।
जो लोग बुलडोज़र और जुलूस को लेकर उछल कूद कर रहे हैं, उन्हें भी पता है कि पुलिस ने हज़ारों-लाखों अपराधों में ऊपर के पैरा में दर्शाया गया मूल काम सजगता से नहीं किया होता है। सबको पुलिस - अपराधी - वकील - राजनीति - अमीर, का चक्रव्यूह पता है।
 
सबको पता है कि कभी कभी तो आँकड़े दिखाने, आँकड़ों में विभाग और क़ानून व्यवस्था को चमकाने के लिए भी पुलिस काम करती है। केस क्लोज़ करके सफलता के पैमाने को छूने के लिए तमाम बेसिक को मिटाया गया हो ऐसे मामले अनेक हैं।
 
किसी शहर के चौक चौराहे पर खड़ी पुलिस, उनके सीसीटीवी सिस्टम, उस टार्गेट को पूरा करने हेतु ट्रैफ़िक उल्लंघन की पर्ची काटती है, बाकी के समय लोग आराम से नियमों का उल्लंघन करके घूमते नज़र आते हैं!
 

आज कल शिकायतों के निपटारों के आँकड़े के पीछे का सच अमूमन सबको पता चलने लगा है। उस मामले पर पुलिस के न्याय का क्या करे, जब पुलिस एफ़आईआर ही दर्ज नहीं करती! सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बाद भी पुलिस शिकायत लेने से इनकार करती है! और यही पुलिस एकाध क़िस्से में सार्वजनिक घुलाई कार्यक्रम चलाती है, रील बनाती है, और दिखाती है कि हम काम कर रहे हैं! सिस्टम का यह कमाल सिस्टम है!
 
यूँ तो पुलिस और प्रशासन, दोनों के लिए काम करने हेतु एक स्थायी नियमावली है। क्या उस नियमावली का पालन होता है? बिलकुल नहीं होता। पुलिस विभाग, नगर सेवा के विभाग, पंचायत विभाग, कहाँ किसी का काम सही तरीके से और मर्यादित समय में होता है? यहाँ तो स्टेट ट्रांसपोर्ट बसों के ड्राइवर और टिकट कलेक्टर सरीखे कर्मचारी तक ख़ुद को राजा समझ कर नियमावलिओं की धज्जियाँ उड़ाते हैं।
अगर सरकार को क़ानून और व्यवस्था के पालन पर काम करते हुए ख़ुद को दिखाना ही है, तो क्यों न इन तमाम के सार्वजनिक जुलूस निकाले जाए। क्यों न इन तमाम के अवैध निर्माणों पर हथौड़े चलाए जाए। क्यों न व्यवस्था को तोड़ने के आरोप में इनके ऊपर भी ऐसे शो किए जाए।
 
कुंभकर्ण की तरह सोती रहने वाली पुलिस क्यों अचानक ही नींद से उठ खड़ी होती है? क्यों पुलिस के लोग ही सैकड़ों अवैध मामलों में फँसे नज़र आते हैं? क्यों पुलिस को तिरस्कार के साथ निजी तौर पर लोग नवाज़ते हैं? क्यों लोग बोलते रहते हैं कि पुलिस तो पैसा लेकर मामले निपटाती है? क्यों चौक चौराहों पर सरेआम बोला जाता है कि गिरफ़्तार होने के बाद आरोपी को नहीं मारने के पुलिस पैसे लेती है? क्यों पुलिस की वो आन, बान, शान और सम्मान नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था?
 
आपको ऐसे अनेक रिपोर्ट मिल जाएँगे, जिसमें कहा गया है कि भारत में रिश्वतखोर सरकारी कर्मचारियों की सूची में पुलिस विभाग का हिस्सा बहुत अधिक है। एफ़आईआर दर्ज़ कराने में, आरोपी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ करने में कोताही बरतने को लेकर, जाँच करते समय सबूतों को नज़रअंदाज़ करने संबंधी मामलों में, रसूख़दारों के लाभ में काम करने में, राजनीतिक हस्तक्षेप को इजाज़त देने को लेकर, आदि में पुलिस पाँव से लेकर सिर तक बदनाम हो चुकी है, इन मूल समस्याओं को इस तरह के सार्वजनिक शो किस तरह से हल कर पाएँगे?
 

पुलिस का तानाशाही रवैया, पुलिस का क़ानून और संविधान के ख़िलाफ़ जाकर काम करने का इतिहास, अधिकारों का दुरूपयोग, इन सब मसलों का हल नहीं मिला है तो क्या ऐसे रेनकोट ही अंतिम उपाय है? पुलिस बल सत्ता, राजनेता और अमीरों के लिए काम करता दिखाई देता है, ग़रीब या आम जनता तो पुलिस के पास जाने से भी डरती है, इन मसलों का उपाय ऐसे पर्दे ही हैं?
 
भ्रष्टाचार करने में अव्वल होने के जिस पुलिस तंत्र पर अनेकों बार रिपोर्ट आए हैं, वह पुलिस विभाग अब उस समस्या को संस्कृति बनाकर एक और कदम आगे जाकर अंदरूनी भ्रष्टाचार को जन्म दे चुका है, इस सवाल का जवाब ऐसे शो कैसे हो सकते हैं? पसंदीदा थाना, पसंदीदा नियुक्ति, अंदरूनी टेंडर सिस्टम, पदोन्नति, तबादला, इन अतिगंभीर समस्याओं का उत्तर यह कैसे हो सकता है कि एकाध पब्लिक स्टंट कर लें?
क़ानून और व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने की ज़िम्मेदारी पुलिस पर है, लेकिन अक़्सर देखा गया है कि पुलिस ही मुख्य उल्लंघनकर्ता के रूप में सामने आती है! पुलिस द्वारा आम शिकायतकर्ता के साथ असभ्य व्यवहार, इसका प्रदर्शन बार बार होता है, तो क्या ऐसे प्रदर्शन से वह हल हो जाएगा?
 
पुलिस एक तरफ़ आरोपियों को आधी रात को घर से उठाती है, परिवार और उसके बच्चों के सामने उसे जानवरों की तरह पीटती है। उसे नहीं मारने के लिए उनके परिजन विनती करते हैं तो उनसे भी यह पुलिस दुर्व्यवहार करती है। माँ-बहन-बेटियों के बाल पकड़ खीँचती है, उनसे अश्लील भाषा में बात करती है। और यही पुलिस नेताओं के कदमों में अपनी ख़ाकी का सम्मान गिरवे रखते हुए दिखती है। यही पुलिस आदतन अपराधियों को सहुलियतें देने के लिए बदनाम है।
 
पुलिस शिकायत ही नहीं लेती, उसका क्या करे? कुछ समय पहले महिला पहलवानों का जो आंदोलन हुआ था, उसमें यह स्पष्ट रूप से देखा गया था। महिला पहलवानों की शिकायत को लेकर पुलिस एफ़आईआर दर्ज करें, यह आदेश सुप्रीम कोर्ट को देना पड़ा था! तब जाकर भारत के इन सितारों की शिकायत दर्ज की गई थी! गुजरात में हाल ही में एक प्रसिद्ध कलाकार देवायत खवड़ को लेकर भी यही द्दश्य देखा गया था।
 

गुजरात में एक वरिष्ठ क्राइम रिपोर्टर ने अहमदाबाद के एक इलाक़े में चल रहे शराब के अड्डों की सूची पर स्टोरी की और पुलिस को जाँच करने की विनती की, तो अड्डों पर जाने की जगह पुलिस न्यूज़ चैनल ऑफ़ीस पहुँच कर पत्रकार टीम की जाँच करने लगती है!
 
वस्त्राल मामले के एक आरोपी की बहन उचित सवाल पूछती हैं, "अगर मेरा भाई बेकसूर साबित होता है तो क्या पुलिस मेरे भाई का जुलूस निकालेगी और कहेगी कि वह निर्दोष है?"
पुलिस संविधान की शपथ लेती है, उसे संविधान ने कहा है कि वह किसी भी ग़लत या ग़ैरक़ानूनी निर्देश का पालन नहीं करेगी, चाहे वह कहीं से भी दिए जाए। जैसे आम जनता लालच में या मजबूरी में अतिक्रमण करती है, ठीक वैसे ही ये लोग भी लालच या मजबूरी में ही क़ानून पर अतिक्रमण करते देखे जा चुके हैं।
 
इस सच्चाई को अनेक क्राइम रिपोर्टरों ने बयाँ किया है कि अनेक राज्यों में गली के गुँडे आगे जाकर पुलिस और राजनेता की मदद से ही कथित डॉन लोग या भाई लोग बन पाए थे। अब तो क्रिमिनल ख़ुद नेता बनने लगे हैं!
 
अब यदि आम जनता के जुलूस निकलते हैं, उसके ख़िलाफ़ मीडिया ट्रायल होता है, उसके लिए सख़्त कार्रवाई है, तो फिर सिक्के के इस दूसरे पहलू के लिए भी यह सब बिलकुल होना चाहिए। न्याय हो रहा है यह दिखाना ही है, तो क्यों न सिक्के के दोनों तरफ़ से न्याय का यह दिखावा आयोजित हो।

 
मानव अधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़, अप्रैल से जून 2022 के बीच असम, दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की 128 प्रॉपर्टीज़ को सज़ा के तहत बुलडोज़र से ढहा दिया गया। रिपोर्ट कहती है कि इन जगहों पर सांप्रदायिक तनाव के बाद ये कार्रवाई की गई थी। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़ इनमें से कई मामलों में निर्धारित क़ानूनी प्रक्रिया का भी पूरी तरह पालन नहीं किया गया था।
 
देश की सर्वोच्च अदालत का वह आदेश तथा उसका यह कथन बारबार अनेक राज्य सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया गया है। और यह किसी फैशन की तरह चल पड़ा है। प्रदेश सरकारें अदालती आदेश का उल्लंघन करती हैं, अदालतें ज़ुर्माने का आदेश देती है, या मुआवज़े दिलाती है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को 6 घरों को अवैध रूप से तोड़ने के मामले में लेकर पूर्व में दिए गए अदालती आदेश को अनदेखा करने पर लाखों रुपये का ज़ुर्माना लगाया है। इससे पहले 2024 के नवंबर महीने में यूपी के एक ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जिसका घर टूटा था उसे लाखों रुपये का मुआवज़ा देने का आदेश प्रदेश सरकार को दिया था।
 
सवाल सीधा है कि सरकारों पर ज़ुर्माना लगाने से, उन्हें मुआवज़े के आदेश देने से क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा? अलग अलग मामलों में अलग अलग सरकारों पर जो ज़ुर्माना लगाया गया है, मुआवज़े का आदेश दिया जाता है, उसकी अदायगी योगी आदित्यनाथ, भूपेंद्र पटेल, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, नरेंद्र मोदी, अमित शाह जैसे नेता अपनी जेब से तो करने वाले नहीं है। वो अदायगी राज्य की तिजोरी से ही तो होगी, जो जनता का ही पैसा है।
 
यानी, जनता भुगत रही है, जनता शिकायत करती है, जनता के साथ न्याय नहीं होता तो अदालत जनता की तिजोरी से सरकार ज़ुर्माना भरे, यह कहती है! पूरा चक्र न्याय या अंतिम उपाय के आसपास ठहरता नहीं दिखता।

 
बुलडोज़र और जुलूस वाली कार्रवाईयों के बाद भी तमाम जगहों पर इस तरह के अपराध रुके तो नहीं है। ऊपर से क़ानून व्यवस्था और संविधान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी जिन पर हैं वहाँ से चौंकाने वाले क़िस्से बाहर आ रहे हैं।
 
सरकार, उसके विभाग, पुलिस, उसका सिस्टम, इन सब पर सवाल तो हैं ही। उधर अलग अलग अदालतों के जज लोग रिटायर होकर किसी सरकार के द्वारा दिए गए किसी पद का आनंद उठाते हैं।
 
कभी सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ जज लोग अचानक उसी अदालत के बाहर आकर सार्वजनिक प्रेस वार्ता आयोजित करते हैं और कह देते हैं कि यहाँ बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए, अगर सुप्रीम कोर्ट को नहीं बचाया गया तो लोकतंत्र ख़त्म हो जाएगा। कभी किसी जज पर कोई महिला यौन शोषण के आरोप लगाती है और मामला जैसे तैसे पूरा होता नज़र आता है।
कभी किसी जज के घर से अधजले नोट मिलते हैं। कभी कोई जज संदिग्ध तरीक़े से मृत्यु को प्राप्त होता है। कभी कोई जज किसी नेता को अपने घर बुलाकर पूजा पाठ करते नज़र आता है। कभी कहता है कि फलाँ फलाँ विवाद के समाधान के लिए मैं भगवान के सामने बैठा था। यहाँ जज लोग किसी नेता की सरेआम तारीफ़ करने से पीछे नहीं हटते।
 
कभी किसी मामले में अदालत एक दिन कहती है कि यह जमीन के टुकड़े का मामला भर है। कभी कोई अदालत आगे जाकर कहती है कि यह भावनात्मक मुद्दा है, जिसमें आस्था केंद्र बिंदु है। अदालतों में बेंच फिक्सिंग को लेकर विवाद होते हैं। कभी कोई पुस्तक, कोई रचना, कोई व्यंग अदालत के लिए रचनात्मक है, कभी कुछ और। कभी कोई मामला भड़काऊ बन जाता है, कभी नहीं बनता।
 
यहाँ राजद्रोह और राष्ट्रदोह के मामले में फँसने वाला शख़्स सत्ताधारी दल में बाक़ायदा शामिल हो सकता है, चुनाव लड़ सकता है, विधायक या सांसद बन सकता है, वहीं कोई मानहानि जैसे मामले में अपनी सांसदी गँवा देता है!
 
सवाल तब गंभीर बनते हैं जब कोई अदालत यह कह दें कि नाबालिग बच्ची के स्तनों को दबाना, उसके पायजामें के नाड़े को तोड़ना दुष्कर्म की कोशिश नहीं है! कभी कोई अदालत एक ही मामले में कोई और फ़ैसला देती है, कोई दूसरी अदालत कोई दूसरा फ़ैसला देती है! ऐसे में सवाल कोंधता है कि एक ही प्रकार का मामला, तो फिर क़ानून की समझ या क़ानून की व्याख्या ये लोग अलग अलग कैसे करते हैं?
 
आप कितने भी नारे लगा लें, कितना भी महिमामंडन कर लें, सबको यक़ीन सा है कि यहाँ संविधान भले एक हो, पालन कराने के तौर तरीक़े अलग ही हैं। क़ानून की चौखट पर पहुँचे, गृह मंत्रालय का रास्ता नापे, या पुलिस की मदद लेने की सोचे, तो शिकायत करने वाला ज़्यादा परेशान होता है!
 
इन सरकारों की, प्रशासन की लापरवाहियों के चलते इस देश में सालाना जितने लोग जान गँवाते होंगे, उतने तो किसी युद्ध में भी नहीं मारे जाते! इस सच को छिपाने के लिए कितने पर्दे लगाए जाएँगे? कितने रेनकोट आएँगे? पिछले कुछ समय से न जाने कितने बेकसूर लोग बैमोत मारे गए हैं। कभी पुल ढहने से, कभी आग से, कभी हिट एंड रन से। तमाम घटनाओं के आरोपी और अपराधी, किसी का ना कोई जुलूस निकला है, ना इनमें से किसी की संपत्ति पर बुलडोज़र चला है।
 
आप अवैध निर्माण रोकने का काम ही ठीक से नहीं करते, तो फिर इनको तोड़ने का एकाध काम करके ही काम चलाना पड़ेगा न? आप अपराध और अपराधियों पर काम ही नहीं कर रहे होते, तभी तो एकाध मामले में आईऩा साफ करना पड़ेगा न? 'बुलडोज़र' और 'सार्वजनिक जुलूस' के जो सरकारी पर्दें आजमाए जाते हैं, जो बाक़ायदा आजमाते हैं वे भी, और जिन्हें यह पसंद है वे भी, कोई भी यह बता नहीं सकता कि यह संपूर्ण समस्या का समाधान कैसे है?
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)