जब जनवरी-फ़रवरी 2021 में दूसरी लहर की चेतावनी जारी की जा रही थी, तभी अनेक राज्यों
में स्कूल खोलने की तैयारियाँ हो रही थी! पता नहीं कैसे? फिर दूसरी लहर ने
कहर ढाया। महज़ कुछ दिनों तक शिक्षा कार्य जारी रखने के बाद बंद करना पड़ा। फिर जब जुलाई-अगस्त
2021 में तीसरी लहर को लेकर चेतावनियाँ घूम रही थीं, फिर से स्कूल खोलने
की तैयारियाँ शुरू हुईं! पता नहीं कैसे? कई लोग पूछते हैं कि ये रिश्ता क्या कहलता है? और इसका कोई सटीक
और ठोस जवाब नहीं है।
इतनी सारी माथापच्ची के बीच एक बात को लेकर लिखा जा सकता है। यही कि ऑफलाइन शिक्षा
कितनी महत्वपूर्ण, प्रभावी और ज़रूरी है यह समझ आ गया हो तो आगे ऑनलाइन शिक्षा को लेकर विज्ञापनों
में बेवजह जनता के पैसे बर्बाद ना करें सरकारें। अभी कुछ सालों पहले एक ख़ास वर्ग इसी
प्रचार-प्रसार में लगा रहता था कि आगे स्कूलों में बुक्स और दूसरी स्टेशनरी लेकर जाना
नहीं पड़ेगा, टेक्निकल शिक्षा का युग आएगा, ऑनलाइन एजुकेशन के ज़रिए बच्चों को शिक्षा मिलेगी, वगैरह वगैरह।
न जाने कितना कितना
और कैसा कैसा बोला और कहा जा रहा था कुछ सालों पहले। इन दो सालों में हर जगह अब लोग
ऑफलाइन की महत्ता को लेकर बातें कर रहे हैं। वो सारा प्रचार-प्रसार भूगर्भ गटरों में
बह गया है। ऑनलाइन शिक्षा को लेकर हमारी व्यवस्थाएँ कितनी फिसड्डी हैं यह बात इस समय
सभी को समझ आ ही गई होगी। ख़ैर, यहाँ बात हमें दूसरी चीज़ की करनी है, तो उसी तरफ़ आगे बढ़ते हैं।
पढ़े नहीं, लेकिन पास हो गए!!! इस समय चक्र से बाहर
अनेक छात्र निकलना चाहते हैं। कुछ नहीं चाहते होंगे, लेकिन जो चाहते हैं
उनकी तो बात हो ही सकती है न। अगर आपने मूल पढ़ाई ही नहीं कि और आप अगली क्लास में
आ गए, तो यह महामारी की आपातकालीन स्थिति की मजबूरी थी। कोरोना वायरस तो शायद एक मौसमी
बीमारी भी बन कर रह जाए, ऐसे में शिक्षा से यूँ वंचित तो रहा नहीं जा सकता। ऑनलाइन क्लास या ट्यूशन की
सुविधा बहुधा समाज के पास नहीं है। उनको भी वंचित नहीं रखा जा सकता। ऑफलाइन शिक्षा
के फ़ायदे और ऑनलाइन शिक्षा के नुक़सान समाज देख रहा है।
कोरोना महामारी के
दौरान बच्चों के लिए स्कूलों में शिक्षाकार्य शुरू किया जाए या नहीं, अब भी सबसे बड़ा सवाल
यही घूम रहा है। कमाल यह कि इसके पीछे जो मुख्य वजहें हैं उसकी बात नहीं हो रही। ऑनलाइन
एजुकेशन में फिसड्डी साबित होने के बाद ऑफलाइन एजुकेशन ‘मजबूरी’ बन गया है यह तथ्य
देखा नहीं जा रहा। उपरांत देश के बहुधा लोगों के पास ऑनलाइन एजुकेशन प्राप्त करने के
संसाधन ही मौजूद नहीं हैं, इस स्थिति में महीनों से शिक्षा से वंचित उन बच्चों का वर्तमान और भविष्य भी एक
बड़ा मुद्दा है। साथ ही जिनके पास संसाधन हैं वहाँ पर भी स्कूल, स्कूल के शिक्षक, स्कूल का प्रशासन, बच्चे, अभिभावक, सभी ने एक साथ मिलकर
ऑनलाइन एजुकेशन को जिस तरह फिसड्डी साबित किया, वह भी बड़ी वजह मानी जा सकती है।
ग्रामीण इलाका हो या
शहरी इलाका, ऑनलाइन एजुकेशन को देश देख रहा है। स्कूल, स्कूल का प्रशासन, स्कूल के शिक्षक, बच्चे और अभिभावक, सभी ने मिलजुल कर ऑनलाइन एजुकेशन को बदतर ही बनाया, यह भी एक कड़वा सच
है। उपरांत जिनके पास संसाधन नहीं हैं, वे तो महीनों से बिना शिक्षा प्राप्त किए बैठे
हैं। ना मोबाइल हैं, ना इंटरनेट, ना दूसरे संसाधन। ऐसे इलाके बहुत ही ज़्यादा हैं और हर जगह भी हैं। जिस राज्य में
शिक्षा का स्तर सबसे ऊंचा माना जाता है उस केरल में भी ऑनलाइन शिक्षा को लेकर दिक्कतें
ही दिक्कतें हैं। कुल मिलाकर, जिनके पास संसाधन हैं उस तबके के बच्चों में से बहुत ज़्यादा बच्चे बेहतर तरीक़े से ना स्वयं शिक्षा ले रहे हैं और ना बेहतर तरीक़े से शिक्षा प्राप्त हो रही है। उधर
जिनके पास संसाधन नहीं हैं, वे तो अपने वर्तमान और भविष्य की चिंता के अलावा दूसरा कुछ करने की स्थिति में
ही नहीं हैं।
जोखिम यह है कि शायद
एक पूरी पीढ़ी शिक्षा से वंचित रह जाए। और यह अपने आप में कई सारे ख़तरों का सूचक है।
ऑनलाइन तरीक़ों को अब तक अग्रता देने की सनक धारण करने वाला समुदाय अब ऑफलाइन तरीक़ों की बात क्यों कर रहा है? क्योंकि ऑफलाइन शिक्षा का महत्व, मानसिकता, बच्चों पर प्रभाव समेत दूसरे तमाम अनगिनत फ़ायदों से अब लोग परिचित होने लगे हैं।
इन सब स्थितियों के
बीच भी अभिभावकों को एक ही चिंता है। और वो चिंता है अपने बच्चों के स्वास्थ्य की, उनकी ज़िंदगी की। जो
बच्चे 10वीं, 12वीं कक्षा में या उससे आगे अभ्यास कर रहे हैं उनके लिए स्थिति और विकट है।
शिक्षा कैसे प्राप्त की जाए इस महामारी की
स्थिति में, यह अभिभावकों की अपनी चिंता है। स्कूल और स्कूल के प्रशासन से उन्हें जितने सुरक्षा
मानक हैं, उन मानकों के पालन की उम्मीद है, क्योंकि अभिभावक उस
राम राज्य को देख चुके हैं दूसरी लहर के दौरान। सुरक्षा मानकों का सरेआम उल्लंघन नेता, सेलेब्स से लेकर लोगों
तक ने घड़ल्ले से किया है। सुरक्षा मानक ढेरों होते हैं, लेकिन उन मानकों का पालन नहीं
होता। अभिभावकों को उम्मीद है कि कम से कम बच्चों के लिए स्कूलों के भीतर वो सारी कमियाँ
न रहे, जो बाहर दिखाई दे रही हैं। और उस चिंता की तरफ़ कोई समिति नहीं देख रही, कोई विशेषज्ञ उन मनों
को टटोल नहीं रहा।
यूँ तो किसी एक शहर
में जो वातावरण होता है, जो लोग देखते हैं, मान लेते हैं कि समूचा देश यही सोचता होगा, चाहता होगा। ऐसी मान्यता अपने आप में आपराधिक सोच है। कोई एक
शहर जो चाहता है, समूचा देश भी वही चाहता है, ऐसा मान लेना कई सारे तथ्यों, आँकड़ों, मान्यताओं, सोच, इच्छा, चाहत, अधिकार, कई चीज़ों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति भर है। आप जहाँ रहते हैं, वहाँ कुछेक लोग, कुछेक अभिभावक, कुछेक शिक्षक, जो चाहते हैं, वही पूरा देश चाहता
होगा यह सोचना खामीपूर्ण द्दष्टिकोण है। उपरांत, स्थिति ही ऐसी है कि अभिभावक और विद्यार्थी मजबूरन अपनी इच्छाओं
और मान्यताओं को बदलने को मजबूर हैं।
एक सीधी बात कि - ऑनलाइन
एजुकेशन लगभग हर जगह फिसड्डी साबित हुआ है। बड़े शहरों में, बड़े स्कूलों में
अव्वल रहा होगा। मोटी फ़ीस के साथ बढ़िया नतीजे मिले होंगे अभिभावकों और विद्यार्थी
को वहाँ। किंतु बहुत सारा देश इस चीज़ को प्राप्त नहीं कर पाया यह भी सच है। सैकड़ों
रिपोर्टें हैं, जिसमें ऑनलाइन एजुकेशन सिस्टम में देश फिसड्डी साबित हो गया है। उन रिपोर्टों
को अलग लेखों में हमने देखा है। मजबूरी यह हो गई कि जोखिम के बाद भी, ख़तरे के बाद भी ऑफलाइन
एजुकेशन की मजबूरी को स्वीकार करने वाला एक समुदाय तैयार हो चुका है।
सर्वे में आप केवल
एक ही सवाल रखते हैं। ऑनलाइन या ऑफलाइन? लेकिन ऑफलाइन क्यों पसंद करने को मजबूर हैं यह सर्वे थोड़ी न दिखाएगा। आज भी कई
अभिभावक कहते हैं कि यदि स्कूल वाले बढ़िया तरीक़े से ऑनलाइन एजुकेशन चलाते हैं तो हम
अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे।
कोरोना की दूसरी लहर
के बाद विशेषत: छोटे बच्चों को लेकर शिक्षा का कार्य ऑफलाइन शुरू किया जाए या वह कार्य फ़िलहाल ऑनलाइन ही जारी रखा जाए, इस विषय को लेकर काफ़ी माथापच्ची हुई। अलग अलग रिपोर्टें, अलग अलग सर्वे को
आधार बनाकर वातावरण ऐसा बना दिया गया कि ज़्यादातर अभिभावक ऑफलाइन शिक्षा कार्य शुरू
करने के पक्ष में हैं।
विशेषक्षों के हवाले
से रिपोर्टें आईं, समितियों ने अपनी रिपोर्टें दीं, अलग अलग सर्वे को आगे किया गया। सब में बड़ी बात यही रखी गई कि ज़्यादातर विशेषज्ञ
और ज़्यादातर अभिभावक ऑफलाइन शिक्षा कार्य शुरू करने के पक्ष में हैं। कभी कुछ सर्वे
छपे, कभी कुछ और। सर्वे में प्रतिशत भी लिखे गए। लिख दिया गया कि इतने प्रतिशत अभिभावक
चाहते हैं कि ऑफलाइन शिक्षा कार्य शुरू किया जाना चाहिए और इतने प्रतिशत अभिभावक नहीं
चाहते, वगैरह वगैरह चीज़ें लिखी-कही जाने लगी।
किसी नेता, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री
को लेकर जिस प्रकार के सर्वे छपते रहते हैं, बिलकुल इसी तरह शिक्षा कार्य को लेकर सर्वे छपने लगे। इन सर्वे को लेकर धड़ल्ले
से लिखा जा सकता है कि 75 फ़ीसदी से ज़्यादा अभिभावकों के पास कोई सर्वे वाला नहीं गया
होगा, ना किसी ने उनसे उनकी राय पूछी होगी। शिक्षा कार्य शुरू किया जाए या नहीं, इसका सर्वे अभिभावकों
के घरों में हो गया यह अभिभावकों को ही नहीं पता!!! किसी ने यह नहीं लिखा कि अभिभावक
यह भी चाहते हैं कि यदि ऑनलाइन एजुकेशन ज़्यादा बढ़िया तरीक़े से हो तो अब भी बहुत सारे
अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजना नहीं चाहते। यह बात किसी सर्वे ने, किसी समिति ने क्यों
नहीं लिखी, इसे कौन सोचेगा भला?
12 अगस्त 2021 के दिन
दिव्य भास्कर ने रिपोर्ट की है कि स्कूल खुलते ही बच्चे कोरोना से संक्रमित होने लगे
हैं। अख़बार ने लिखा है कि बैंग्लुरु में एक सप्ताह के भीतर ही 300 से ज़्यादा बच्चे
कोरोना से संक्रमित हो गए। दिव्य भास्कर ने दावा किया कि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों
में स्कूल खुलने के बाद बच्चों में कोरोना संक्रमण बढ़ने के मामले मिल रहे हैं।
हमें एक बात बिलकुल समझनी होगी कि हम तीसरी
लहर की बात कर रहे हैं, किंतु दूसरी लहर अब भी समाप्त नहीं हुई है। ठीक है कि दो-तीन राज्यों में ही देश
के कुल मामलों के 65 से 75 फीसदी मामले मिल रहे हैं। किंतु रोज़ाना आँकड़ा अब भी हज़ारों
में हैं। मार्च 2020 में देश भर में रोज़ाना जितने संक्रमित मिलते थे, आज रोज़ाना उतने लोग
कोरोना की वजह से मारे जा रहे हैं!!! कोरोना की दूसरी लहर समाप्त नहीं हुई है। कई राज्यों
में अब भी तरह तरह के बैन जारी है। केरल और महाराष्ट्र अब भी झूज रहे हैं।
12 अगस्त 2021 के दिन
दिव्य भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि स्कूल खुलने के बाद कर्नाटक और बेंगलुरु
में बच्चों पर कोरोना का प्रभाव देखने को मिल रहा है। बेंगलुरु के प्रशासन द्वारा जारी
किए गए आँकड़ों के मुताबिक़ यहाँ 0 से 9 साल के 127, 10 से 19 साल के 174 बच्चे कोरोना से संक्रमित हो गए। यह आँकड़ा
5 अगस्त से 10 अगस्त के बीच का ही है। कर्नाटक और बेंगलुरु के अलावा उत्तर भारत में
भी स्कूल और कॉलेज खुलने के बाद कोरोना को लेकर स्थिति अच्छी दिख नहीं रही। हिमाचल
में 62 बच्चे और पंजाब में 27 बच्चे कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। हरियाणा में भी
कुछ कुछ ऐसा ही हाल है। छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है।
13 अगस्त 2021 को इसी
मामले को लेकर अमर उजाला ने भी रिपोर्ट छापी। अमर उजाला ने बेंगलुरु में 1 अगस्त 2021
से 11 अगस्त 2021 तक के आँकड़े लिखे, जिसके मुताबिक़ 543 बच्चों में कोरोना की पुष्टि हुई। वैज्ञानिक समुदाय इस स्थिति
को चिंता का विषय मान रहा है। कर्नाटक में इस स्थिति को लेकर सीएम आपात बैठक भी बुला
चुके हैं। ग़ौरतलब है कि विशेषज्ञों की राय के बाद ही सीएम ने कर्नाटक में स्कूलों को
खोले जाने का आदेश पारित किया था।
कुछ राज्यों के नाम
लिखे हैं तो ऐसा न माने कि उन राज्यों में ही ऐसी स्थिति होगी। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों
में स्कूल खुलने से पहले ही बच्चों में कोरोना संक्रमण मिलने के मामले सामने आ चुके
हैं। इस बीच हिमाचल प्रदेश में दूसरी लहर के बाद (यूँ कहे कि दूसरी लहर के बीच) अगस्त
2021 में स्कूल खुले और फिर उसी महीने में कुछ दिनों तक स्कूल बंद कर दिए थे। पंजाब
अपने स्कूलों में आरटी पीसीआर टेस्ट कराने को मजबूर हो चला है।
31 अगस्त 2021 के दिन
एनडीटीवी की रिपोर्ट थी, जिसके मुताबिक़ स्कूल खोलने वाले ज़्यादातर राज्यों में बच्चों में कोरोना संक्रमण
के मामले बढ़े हैं। रिपोर्ट की माने तो ऐसे राज्यों में पंजाब, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उतराखंड और गुजरात
शामिल थे। रिपोर्ट के भीतर अलग अलग राज्यों में बच्चों के संक्रमण में वृद्धि का प्रतिशत
दर्ज किया गया था।
यूँ तो एक तरफ़ कोरोना
की तीसरी लहर को लेकर बातें जम कर हो रही हैं। इन बातों और आशंकाओं के बीच स्कूलें
भी जमकर खोली जा रही हैं। जनवरी-फ़रवरी 2021 का दौर याद आ रहा है, जब दूसरी लहर की आशंका
जताई जा रही थी और इस बीच स्कूलें खोली जा रही थी!!! इस रिश्ते को समझना फ़िलहाल तो
नामुमकिन है।
जिस राज्य में सबसे
दुखदायी नज़ारा देखने को मिला था वहाँ भी स्कूल खुल गए। हम उत्तर प्रदेश की बात कर रहे
हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश में माँ गंगा की गोद में जिस तरह से
सैकड़ों लाशें तैरती दिखी, यह कोरोना की त्रासदी का वह मंज़र था, जिसे कभी भूलाया नहीं जा सकता। यहाँ भी गाँव-गाँव
शहर-शहर कतारों में जलती चिताओं की तसवीरें देखने को मिली थी। यही सच्ची विभीषिका थी।
ऐसे राज्य में स्कूल खुल गए तो फिर बाकी जगहों पर खुलने ही थे।
देश के आधे से ज़्यादा राज्यों में किसी न किसी सर्वे, रिपोर्टें, वगैरह के आधार पर स्कूल खोल दिए गए हैं। गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, असम, तमिलनाडु, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश जैसे
राज्य इसमें प्रमुख हैं।
यूँ तो ज़्यादातर राज्यों ने तय किया है कि
पहले सीनियर स्टूडेंट को बुलाया जाएगा, फिर जूनियर को। हमारे
यहाँ गुजरात समेत देश के कई राज्यों ने '50-50 वाला फॉर्मूला’ अपनाया है। यानी, एक क्लास में 50 प्रतिशत
बच्चों को ही एक दिन में बुलाया जाएगा। पहली नज़र में यह अच्छा लगता है। लेकिन इस फॉर्मूला
को क़रीब से और ज़मीनी स्तर पर देखे तो यह फॉर्मूला ‘प्रशासन की बेवकूफ़ी’ का सिंबल जैसा भी
लगता है।
देश भर में क्या है
पता नहीं, किंतु हमारे यहाँ गुजरात में सैकड़ों स्कूलों की जो स्थिति है उसे देखे तो कुछ
क्लास में बच्चों की संख्या 100 के पार पहुंचती है, कहीं पर यह आँकड़ा महज़ 10 तक ही है। अब 50-50 वाले सरकारी आदेश
का पालन तो करना ही है। सोचिए, जहाँ एक क्लास में 100 के क़रीब बच्चे हैं वहाँ सरकारी आदेश के मुताबिक़ 50 के
आसपास बच्चे आएँगे। इतने सारे बच्चे एक कमरे में बैठ जाएँगे। सरकारी आदेश का पालन होगा।
कहीं पर क्लास का कुल आँकड़ा महज़ 10 तक पहुंचता है। वहाँ 5 बच्चे आएँगे। शिक्षक उन
पाँच बच्चों को पढ़ाएँगे। प्रशासन प्रतिशत वाली बेवकूफ़ी में पड़ा है। उसे अपने स्कूलों
में क्लास में संख्या को लेकर सीधी सादी समझ
नहीं है। वर्ना 50-50 वाले फॉर्मूला के साथ वे कुछ दूसरा फॉर्मूला भी भेजते। अब
ऐसे लोग समितियों की रिपोर्टों पर फ़ैसले लेते हैं और कहते हैं कि सरकार को यह करना
चाहिए, वो करना चाहिए!!! छोटे बच्चों में संक्रमण
बहुत कम है। यह सबसे बड़ा मुद्दा है। अलग अलग विशेषज्ञ कह रहे हैं कि दूसरी लहर के
दौरान बहुत कम बच्चे संक्रमित हुए। समय का चक्र घुमाकर देखते हैं। मेमोरी को एक क्रम
में रखकर देखते हैं। ध्यान रखें कि विशेषज्ञ और वायरस के जानकार, ये दोनों जमात कोरोना
वायरस के आगमन के पहले से ही अलग रही है। लेकिन हम इसे समझ नहीं पाते। मीडिया पर तो
जो लोग कभी युद्ध के मैदान पर भी नहीं गए, वे भी जंग के विशेषज्ञ बनकर चमकते रहते हैं।
इस लिहाज़ से अब विशेषज्ञ की परिभाषा बदल गई है। वायरस के जानकार लोग और स्वयंभू घोषित
विशेषज्ञ, दोनों जमात अलग हैं।
मार्च-अप्रैल 2020
के दौर में विशेषज्ञों के हवाले से कहा जाता था कि कोरोना वायरस फलां फलां उम्र वालों
को ही संक्रमित करता है। हालाँकि तब भी वायरस के जानकार सीधी बात कहते थे कि वायरस
के संक्रमण की कोई उम्र नहीं होती। लेकिन फिर भी वह मान्यता जारी रही कि कोरोना वायरस
का संक्रमण एक ख़ास आयु वर्ग को ही होता है। फिर महीने गुज़रे और वह मान्यता झूठी साबित
हुई।
फिर एक मान्यता यह भी उभरी थी कि सभी को होता है, लेकिन बच्चे सुरक्षित
हैं। इसके पीछे कुछ तर्क भी दिए जाते थे। फिर कोरोना वायरस ने बच्चों को भी संक्रमित
करना शुरू किया। मान्यता फिर एक बार सहुलियत के हिसाब से बदल गई। कहा जाने लगा कि कम
बच्चे संक्रमित हुए हैं। लेकिन पुरानी मान्यता को मार कर यह ज़रूर मान लिया कि बच्चे
भी संक्रमित होते हैं।
फिर कुछ देशों में ज़्यादा बच्चे संक्रमित होने लगे तो एक और
तर्क आया कि बच्चों में रोग प्रतिरोधक शक्ति होने की वजह से कुछ नहीं होगा। तभी वायरस
के जानकारों ने चेता दिया कि बच्चों को कुछ नहीं होगा वाले तर्क से संतुष्ट मत रहें, क्योंकि वे वायरस
के वाहक हो सकते हैं और दूसरों को संक्रमित करने की क्षमता धारण किए हुए होते हैं।
सोचिए, एक साल में कितनी सारी धारणाओं, मान्यताओं को विशेषज्ञों ने बदल लिया।
वायरस के जानकार तो पहले से स्पष्ट थे और
संयमित भी, उधर विशेषज्ञ सहुलियत के मुताबिक़ ख़ुद को और ख़ुद के मतों व बयानों को बदलते रहे।
अगस्त 2021 के मध्य
काल में नीति आयोग ने केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय को कुछ सलाह दी थी। आयोग ने मंत्रालय
को सूचित किया कि स्थानीय स्तर पर संक्रमण के हालात को देखते हुए स्कूल खोलने का फ़ैसला
लिया जा सकता है। हालाँकि आयोग ने एक सलाह यह भी दि कि कम से कम 70 फ़ीसदी शिक्षकों
और स्टाफ़ का टीकाकरण हुआ हो तब आगे बढ़ने में दिक्कत नहीं है। आयोग ने जनसंख्या और
संक्रमण के गाणितीय आधार पर कुछ आँकड़े भी दिए। आयोग ने आगे शिक्षा मंत्रालय को सूचित
किया कि स्टाफ़ का टीकाकरण, इलाके में संक्रमण का दर, इन दोनों के तुलना में एक रेशियो बनाकर उस हिसाब से ही उतनी ही तादाद में स्टूडेंट
को स्कूल बुलाया जाए। आयोग ने उस स्टाफ़ का साप्ताहिक आरटी पीसीआर टेस्ट कराने को कहा, जिनका टीकाकरण हो
नहीं पाया है।
हालाँकि ज़्यादातर राज्यों
में ऐसा कुछ नहीं हुआ। बस एक ही आदेश। 50-50 वाला फॉर्मूला। आयोग ने साथ ही दूसरे तमाम
सुरक्षा मानकों पर भी जोर दिया।
कोरोना के कारण लंबे
समय से बंद पड़े स्कूलों को लेकर एक संसदीय समिति ने भी अपनी चिंता ज़ाहिर की और कहा
कि स्कूलों का खोला जाना बच्चों के लिए फ़ायदेमंद है। इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च, यानी आईसीएमआर के प्रमुख बलराम भार्गव भी एहतियात के साथ प्राइमरी स्कूल और फिर सेकेंडरी
स्कूल खोले जाने का सुझाव दे चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 28
अगस्त 2021 के दिन कहा था कि अब पेरेंट्स भी आकर कहते हैं कि जल्दी जल्दी स्कूल खोलो।
आईएमए के अध्यक्ष डॉ. जेए जयलाल ने कहा कि कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार की संभावना
को मद्देनज़र रखते हुए इस समय जोखिम बहुत नगण्य है, यह सही समय है जब सरकार को आगे आकर एक परिकलित जोखिम लेना चाहिए
और उचित तरीक़े से स्कूल खोलने चाहिए। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री ने दावा किया कि दिल्ली
में 70 फ़ीसदी अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल खोले जाए।
दिव्य भास्कर की एक
रिपोर्ट की माने तो, गुजरात के सूरत शहर में तो निजी स्कूल संचालकों के एक समूह ने 19 जुलाई 2021 के आसपास
एलान ही कर दिया था कि अगर दो दिनों के भीतर सरकार इजाज़त नहीं देगी तब भी हम स्कूल
खोल देंगे। बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 50 से ज़्यादा डॉक्टरों, बाल रोग विशेषज्ञों, सार्वजनिक स्वास्थ्य
विशेषज्ञों, आईआईटी के प्रोफ़ेसरों और अर्थशास्त्रियों ने कुछ राज्य सरकारों को खुली चिट्ठी
लिखकर स्कूल खोलने की अपील की थी। ससंदीय समिति ने स्कूल नहीं खोलने के ख़तरों को आगे
रखा था।
ऑनलाइन एजुकेशन में
हर जगह गणित, विज्ञान जैसे विषयों में ढेरों दिक्कतें पेश आ रही हैं। बच्चों में जो आधारभूत
ज्ञान होना चाहिए उसकी कमी भी सामने आ रही है। मानसिक विकास वाला फ़ायदा तो बच्चों को
मिल ही नहीं पा रहा।
उधर 7 अगस्त 2021 के
दिन कोविड कोर कमेटी के सदस्य डॉ. पार्थिव मेहता ने चेताते हुए कहा था कि यह समय वायरल
इंफेक्शन का भी है, क्रोस वायरल इंफेक्शन तेज़ी से फैल रहा है, छोटे बच्चे कोरोना वायरस के करियर बन सकते हैं, कुछ संक्रमित हो सकते हैं, कुछ दूसरों को संक्रमित कर सकते हैं। कई डॉक्टर्स, विशेषज्ञ, शिक्षक, समुदाय ऐसे भी हैं, जो छोटे बच्चों के
लिए स्कूल खोलने को लेकर वेट एंड वॉच की स्थिति रखने के पक्ष में है।
एक बात तो अब लोग समझ
ही चुके हैं कि ऑफलाइन एजुकेशन ही बेहतर है, ऑनलाइन एजुकेशन वाला तरीक़ा तो आपातकालीन स्थिति के लिए था। बहुत सीधी बात है कि
लंबे समय तक शिक्षा कार्य बंद रखना बच्चों के वर्तमान और भविष्य के लिए बहुत सारे ख़तरे ले आएगा। घर की चार दीवारी के भीतर पढ़ने से किसी बच्चे को वह सारे फ़ायदे प्राप्त नहीं
हो सकते, जो स्कूल जाकर पढ़ने से मिलते हैं। यह फ़ायदे अनेका अनेक प्रकार के होते हैं।
सर्वे, समितियाँ वगैरह जैसी
बातें छोड़ दें और ज़मीनी हक़ीक़त के आधार पर सैकड़ों लोगों के साथ बातें करके अनेक मीडिया
रिपोर्टें आई हैं उन मीडिया रिपोर्टों का विश्लेषण करें तो वह विश्लेषण कुछ तथ्यों की तरफ़ ले जाता
है। पहला यह कि ऑनलाइन एजुकेशन ज़्यादातर तो विफल रहा है और इसके पीछे सभी का हाथ है, किसी एक का नहीं।
दूसरा यह कि अगर बेहतर ढंग से ऑनलाइन एजुकेशन मिले तो आज भी कम उम्र के बच्चों को स्कूल
नहीं भेजने का इरादा रखने वाले अभिभावकों की तादाद भी बहुत ज़्यादा है। तीसरा यह कि ज़्यादातर अभिभावकों को चिंता यह है कि स्कूल और स्कूल का प्रशासन क्या उन तमाम मानकों
का सही ढंग से पालन कर पाएँगे? और सबसे बड़ा तथ्य यह कि शिक्षा की ज़रूरत और उस ज़रूरत पूरी करने के तरीक़े महामारी
के दौर में बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ साथ स्कूल, शिक्षकों और स्कूल
के प्रशासन के सामने कई सारी दिक्कतें पेश कर रहे हैं।
कुल मिलाकर आप किसी ठोस तरीक़े से यह नहीं
कह सकते कि कितने फ़ीसदी अभिभावक क्या चाहते हैं। इसका प्रतिशत निकालना मुमकिन ही नहीं
है। साथ ही ग़ैरज़रूरी भी है। प्रतिशत या सर्वे जैसी चीज़ों में समितियाँ व्यस्त रहे
उससे ज़्यादा अच्छा होगा कि जिन तरीक़ों को लागू करना है उसमें बेहतरी और सुरक्षा के
स्थायी प्रबंध किए जाए। ढेर सारी ज़मीनी रिपोर्टों को देखकर एक पत्रकार मित्र से पूछ
लिया कि क्या इसका मतलब यह माना जाए कि दूसरी लहर से पहले ऑनलाइन एजुकेशन एक मजबूरी
था और अब दूसरी लहर के बाद ये ऑफलाइन एजुकेशन एक मजबूरी है? जवाब मिला कि पक्का
तो कुछ नहीं कह सकते, शायद कुछ हद तक बात सही भी हो। क्योंकि दूसरी लहर का जो कहर था, उस कहर ने बहुत कुछ
बदल दिया है। जिन परिवारों ने या जिनके स्वजनों ने वह त्रासदी झेली उनके लिए तो कौन
सा तरीक़ा पकड़े यह तय कर पाना वाक़ई कठीन समय है। उधर जिनके पास पहले वाले तरीक़े के
लिए संसाधन ही नहीं है, उनके लिए रास्ता चुनने का विकल्प ही कहाँ है?
यूँ तो इस समय दो-तीन
राज्य ऐसे हैं जहाँ कोरोना के मामले मिल रहे हैं। देश के ज़्यादातर राज्यों में कोरोना
के मामले ना के बराबर है, या बहुत कम हैं। इस स्थिति में कई लोगों को ऑफलाइन एजुकेशन
शुरू करना उतना जोखिमभरा भी नहीं लगता। ऊपर से उस स्थिति को भी देखना और समझना होगा, जहाँ घर बैठे बैठे
बच्चों में कई सारी नकारात्मक चीज़ें घर कर रही हैं। इस स्थिति को रोकने के लिए भी ऑफलाइन
एजुकेशन ज़रूरी है।
उधर एक वर्ग यह भी
मानता है कि नीति आयोग ने 70 फ़ीसदी स्टाफ़ के टीकाकरण का सुझाव दिया, वह सुझाव 100 फ़ीसदी
का ही होना चाहिए। नीति आयोग ने जो सुझाव दिया, एक दूसरी समिति ने उससे उलट सुझाव दिया है। शिक्षा, महिला, बाल, युवा और खेल मामलों
पर बनी संसद की स्थायी समिति ने विनय सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता में एक रिपोर्ट संसद
में पेश की थी। इस रिपोर्ट में सभी के टीकाकरण पर जोर दिया गया था।
50-50 वाले फॉर्मूला
पर भी मत अलग अलग ही रहे। क्योंकि बहुत सारे लोगों का सीधा सीधा मानना है कि क्लास
में जो संख्या है उसके अनुपात को देखते हुए छात्रों को बुलाना चाहिए। छोटे बच्चे एक
साथ 50 या उससे ज़्यादा तादाद में उपस्थित रहेंगे तो किसी सुरक्षा मानक का पालन नहीं
हो पाएगा।
उपरांत अभिभावकों से
संमति पत्र लिखाने की प्रथा के साथ साथ अभिभावकों को स्कूल का स्टाफ़, स्कूल की तैयारियाँ, आदि की जानकारी देना भी ज़रूरी माना गया है। लेकिन इस पर ना स्कूल वाले गंभीर हैं, ना सरकारी प्रशासन
वाले। स्कूल के स्टाफ़ का टीकाकरण, इसमें भी कितने प्रतिशत का टीकाकरण होना ज़रूरी है इस मत में अंतर तो है, साथ ही कितनों का
टीकाकरण हुआ है उसकी जानकारी अभिभावकों को देने की बात पर भी मतभेद हैं।
अभिभावकों को स्कूल
के स्टाफ़ के वैक्सीनेशन की जानकारी देना, स्कूल में क्लास-बाथरूम वगैरह के सैनिटाइज़ेशन को लेकर आश्वस्थ करना, क्लास की निश्चित
समयावधि के बाद दिन भर सफ़ाई होना, समेत दूसरे जितने सारे मूलभूत सुरक्षा उपाय हैं, उसकी जानकारी अभिभावकों
के साथ साझा करना, आदि मसलों पर स्कूल से लेकर सरकारें मौन हैं। जबकि कुछ लोग अपनी रिपोर्ट में ऐसा
करने की ज़रूरत और ऐसा करने के बाद अभिभावकों और छात्रों पर इसके मानसिक प्रभाव के
चलते जो फ़ायदे मिलने होते हैं उसका ख़ाका भी दे चुके हैं। लेकिन शायद स्कूलों और प्रशासन
को यह फ़ायदे नहीं चाहिए।
एक बात तो साफ़ है, 10वीं या 12वीं या
उससे आगे की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए ख़तरों और जोखिमों के बाद भी शिक्षा के
लिए स्कूल या कॉलेज तक जाना ज़रूरी है। उनके लिए दूसरा विकल्प ही नहीं है। सारी माथापच्ची
उन बच्चों के लिए हैं, जो कम उम्र के हैं।
दूसरी तरफ़ वह दौर भी मुँह फाड़े खड़ा है जब
देश में नेता, सेलेब्स से लेकर आम जनता तक ने घड़ल्ले से कोरोना से संबंधित नियमों को तोड़ा
और बेफ़िक्र व बेपरवाह घूमते रहे। आम जनता में वे लोग भी होंगे, जिनके बच्चे स्कूलों
में जाने को तैयार हो रहे हैं या जाने लगे हैं। तो फिर एक सोच यह भी मन में आती है
कि ऐसे अभिभावक, जिन्होंने स्वयं उन नियमों को ताक पर रखा, वे अपने बच्चों को
किस तरह समझाएँगे, किस तरीक़े से उन्हें तैयार करेंगे? उनके अपने माता-पिता, उनका अपना परिवार
नियमों को तोड़ कर भीड़ में जाता रहा, हिल स्टेशनों पर घूमता रहा। ऐसे परिवारों
के बच्चे अपने अभिभावकों से “जागरूकता की शिक्षा” कैसे प्राप्त करेंगे?
अभिभावकों और बच्चों
को तैयार करना ज़रूरी माना गया है, लेकिन प्रमुख मसला है स्वयं स्कूल का और स्कूल के स्टाफ़ का तैयार होना। तैयार
होना, इसका अर्थ यह नहीं है कि क्लास में जाओ, पढ़ाने लगो, लेक्चर ख़त्म करो ओर निकल लो। तैयार होने का अर्थ कुछ रिपोर्टें समझा चुकी हैं।
सेंट स्टीफेंस अस्पताल में सीनियर क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट संजिता प्रसाद बीबीसी हिंदी
से कहती हैं कि स्कूल पूरी तरह से तैयार नहीं है।
बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट
के मुताबिक़ कई स्कूलों के प्रिंसिपल और कई वायरोलॉजिस्ट कहते हैं कि अभी तक सभी का
संपूर्ण टीकाकरण ही नहीं हुआ है, ऊपर से नए वेरिएंट और वैक्सीन का प्रभाव वाला रिसर्च अब भी जारी है, बच्चों का तो टीका
ही नहीं आया है अब तक, ऐसे में छोटे बच्चों के लिए स्कूल खोलते समय बहुत सारी तैयारियाँ की जानी चाहिए
और इन तैयारियों के लिए कोई भी स्कूल तैयार नहीं है।
एक बात तो है कि बच्चों
में स्कूल जाने का उत्साह होगा ही होगा। वे महीनों से घर में बैठे हैं। अपने दोस्तों
से, अपने टीचर्स से मिले
नहीं हैं। घर के बाहर दिन भर रहे नहीं हैं। फ़ेस टू फ़ेस मिलेंगे तो बच्चे ख़ुश होंगे।
घर की चार दीवारी के बाहर की दुनिया देखेंगे। खेलेंगे, कूदेंगे। और इन सारे
बदलावों को हेंडल करने के लिए स्कूल कितने तैयार हैं, यह मसला देखा ही नहीं
जा रहा।
उपरांत स्कूलों तक
पहुंचने के लिए छात्रों को बसों में, ऑटो में भी जाना होता है। वहाँ क्या होगा, क्या किया जाएगा, किस तरह किया जाएगा, कोई ठोस जानकारी अभिभावकों के पास नहीं है।
शिक्षा कार्य शुरू करना चाहिए या नहीं इसे
लेकर जितनी भी चर्चा हुई, प्रमुख बात रही कोरोना वायरस को लेकर स्कूलों में सुरक्षा मानकों के पालन की।
जब कोरोना वायरस नहीं था तब भी देश के ज़्यादातर स्कूलों में क्या हालात रहे थे वह सोचना
भी ज़रूरी है। ज़्यादातर स्कूलों के जो हालात है, यह सवाल उठना लाज़मी
है कि क्या वहाँ उन तमाम सुरक्षा मानकों का पालन हो पाएगा, जो कोरोना वायरस की
महामारी के दौर में ज़रूरी है?
ऑनलाइन एजुकेशन में
फिसड्डीपन दिखाने के बाद अब अभिभावक और बच्चे ऑफलाइन एजुकेशन लेने को मजबूर है। यह
मजबूरी कई चीज़ों में फिसड्डीपन को उजागर करती है।
विशेषज्ञों, सर्वे, समितियाँ आदि के आधार
पर कहा गया है कि स्कूल खोलने में कोई ख़तरा नहीं है। समाजशास्त्री और मानसिक विशेषज्ञ
का ज़माना अचानक से आ गया है!!! वे भी कूद पड़े हैं। लेकिन जब शिक्षा को छोड़कर कोरोना
वायरस की ही बात करते हैं तो सारे एक ही बात कहते हैं कि यह बहरूपिया वायरस है और इसने
हमारी तमाम धारणाओं, अनुमानों और मान्यताओं को ग़लत साबित किया है, लिहाज़ा कुछ नहीं कहा जा सकता। अब ये रिश्ता क्या कहलाता है, समझ आता भी है और
नहीं भी!!!
कोरोना वायरस को लेकर
कहा जा रहा है कि जिन देशों में कोरोना की तीसरी या चौथी लहर आई है वहाँ बच्चे ज़्यादा प्रताड़ित नहीं हुए हैं। इसी आधार पर आगे का मैदान तैयार कर रहे हैं विशेषज्ञ। उनसे
एक बार पूछ लिया जाए कि जिन देशों ने कोरोना की दूसरी लहर को भुगता, क्या उनमे से किसी
देश ने इतनी लाशें, इतनी मौतें देखी थीं, जितनी भारत ने देखी? तब विशेषज्ञ सीधा जवाब नहीं दे पाएँगे।
सिंपल सी बात है कि
दुनिया की स्थिति देखना ज़रूरी है यह अब समझ आ रहा है तो उन दिनों क्यों समझ नहीं आ
रहा था, जब उसी स्थिति को दिखाकर चेताया जा रहा था कि दूसरी लहर आ रही है। लेकिन तब
समझ नहीं आया। इन सारी ताज़ा घटनाओं को लेकर सीधे सीधे लिखा जा सकता है कि जिनके हाथों
में लोगों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी है, ताक़त है, उनके कारनामे ही ऐसे रहे हैं कि आगे वे कुछ प्रभावी और बेहतर करेंगे यह उम्मीद
ही बेवकूफ़ी है।
साथ ही यह भी कि जो
लोग डिजिटलपंति की सनक धारण किए हुए थे, वे आज जब ऑनलाइन एजुकेशन फिसड्डी साबित हो गया
तब समाजशास्त्री बने हुए हैं!!! कहते हैं कि घर पर रह कर पढ़ने से शिक्षा
को लेकर यह दिक्कत आती है, वह दिक्कत आती है, बच्चों पर ये असर होता है, वह असर होता है। उन लोगों को जन्नाटेदार तरीक़े से समझाना चाहिए कि आपकी उस सनक
के समय भी यही बात सामने आती थी। लेकिन तब उस बात का मज़ाक उड़ाया जाता था। ग़ज़ब की गधापंति
ही कह लीजिए इसे।
स्कूल खुलने चाहिए या नहीं खुलने चाहिए इसे
लेकर बहुत माथापच्ची होती रही। अभिभावकों, शिक्षकों, बच्चों, विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, समाजशास्त्री... अलग
अलग प्रकार के कई लोगों ने अपना अपना माथा खपाया। फिर तो सर्वे आने लगे। सर्वे की ख़ास
बात यह रही कि अभिभावकों की इच्छा का प्रतिशत भी आ गया, किंतु बहुत ही ज़्यादा अभिभावकों को पता ही नहीं चल पाया कि उनकी इच्छा का प्रतिशत निकाला जा रहा है!!! करोडों
अभिभावकों में से शायद 75 फ़ीसदी से भी ज़्यादा अभिभावकों के पास कोई सर्वे वाला गया
ही नहीं होगा। फिर भी अभिभावकों की इच्छा का प्रतिशत निकल आया!!!
फिर विशेषज्ञों ने, समाजशास्त्रियों ने, समितियों ने अपनी
अपनी रिपोर्टें दीं। इनमें कोन लोग शामिल थे? वही, जो नौकरशाह थे। कोई स्वतंत्र लोग नहीं थे। फिर स्वतंत्र लोगों की बातें भी छपने
लगी। इन स्वतंत्र लोगों में भी उन्हीं लोगों की बातें ज़्यादा छपी, जो बच्चों की मानसिकता, शिक्षा का महत्व और
शिक्षा कार्य फिर से शुरू करने की ज़रूरत पर जोर देते थे। कहीं पर यह नहीं आया कि स्कूल
वाले ऑनलाइन एजुकेशन बेहतर तरीक़े से देते हैं तो फिर ऑफलाइन का जोखिम नहीं उठाने की
चाहत रखने वाले अभिभावकों का प्रतिशत भी ज़्यादा ही है।
ऊपर से ऑनलाइन-ऑफलाइन
की जंजट के बीच उन बच्चों और उन परिवारों का दर्द और मजबूरी कोई समझ नहीं पाया, जिनके पास घर बैठे
शिक्षा प्राप्त करने के संसाधन ही मौजूद नहीं थे। ऑनलाइन एजुकेशन में इन दिनों जितना
फिसड्डीपन दिखा, उसकी बात भी कोई नहीं कर रहा था। भारत के ज़्यादातर राज्यों की ज़्यादातर स्कूलों
में ऑनलाइन एजुकेशन में प्रदर्शन ओसत से भी नीचे रहा। दिक्कतें हर तरफ़ से थी। मजबूरी
में एक ही विकल्प खुला था। वो यह कि जोखिम के बाद भी बच्चों को स्कूल भेज दो।
कोरोना से डरे, अपने बच्चों के स्वास्थ्य
की चिंता करें, या उन्हें स्कूल भेजकर उनकी शिक्षा का कार्य आगे बढ़ाए? अभिभावक सचमुच बहुत
ही बुरी दुविधा में फँसे पड़े हैं। ऑनलाइन एजुकेशन फिसड्डी साबित हुआ यह सच तो कोई
लिख नहीं रहा। अभिभावकों को एक चिंता और भी है, जिसका ज़िक्र सर्वे वाले या समितियों वाले नहीं कर रहे। वो चिंता यह है कि सरकारें
भले काग़ज़ पर या घोषणाओं में दावे कर ले, क्या स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के उपाय बेहतर स्तर के
होंगे? अभिभावकों की यह चिंता वाज़िब है। क्योंकि अब छोटे शहरों की स्कूलों में वह सुरक्षा
उपाय देखने को नहीं मिल रहे, जो पिछली दफा देखने को मिल रहे थे।
ऑनलाइन शिक्षा के लिए
भारत तैयार नहीं है यह कटु सत्य कोरोना काल ने समझा दिया है। समझने को तैयार नहीं हैं वे इसे पचा नहीं सकतें। ऑनलाइन और ऑफलाइन को लेकर बातें करने वालों को एक प्रार्थना
यह भी है कि उन बच्चों को भी अपनी चर्चा में शामिल कर लें, जो पिछले क़रीब दो
सालों से शिक्षा प्राप्त ही नहीं कर पा रहे। लाखों करोड़ों बच्चे ऐसे हैं जो पिछले क़रीब डेढ़ साल से शिक्षा प्राप्त ही नहीं कर पाएँ। ना ऑनलाइन, ना ऑफलाइन। जब आप
देश में शिक्षा को लेकर बात करते हैं, तो फिर इन्हें भी शामिल कर लीजिएगा।
कोरोना काल में केवल
शिक्षा और विद्यार्थी ही बुरी तरह प्रभावित नहीं हुए हैं। अभिभावक भी बुरी तरह फँसे
हुए हैं। अलग अलग राज्यों में कोरोना काल में शिक्षा का कामकाज बहुत बुरी तरह प्रभावित
हुआ। कहीं तो पूरी तरह ठप पड़ा। ऐसे में फ़ीस को लेकर असमंजस की स्थिति पसरती रही। कभी
केंद्र ने, तो कभी राज्यों ने यूँ तो फ़ीस में राहत देने का ऐलान तो कर दिया, किंतु शिक्षा के मंदिर
भी दुकानों की तरह निकले। शिक्षा की दुकानों वालों ने अभिभावकों को कह दिया कि मंत्रीजी
ने ऐलान किया है किंतु काग़ज़ी तौर पर हमारे यहाँ अब तक काग़ज़ नहीं पहुंचा, इसलिए फ़िलहाल तो फ़ीस पूरी की पूरी अदा करनी होगी।
एक बिनती यह भी है कि कोरोना पर नेता और नौकरशाह विशेषज्ञ बनने की मूर्खता अब ना
करें। वायरस और महामारी जिनका विषय है उन्हीं पर आधार रखें। राजनीति, यूँ कहे कि कमतर राजनीति, निठल्लापन, मुग़ालता, अभिमान, किसी की नहीं सुनने
की आदत, चुनावजीवि प्रकृति, उत्सवप्रिय आत्मा, जैसी चीज़ों ने वह नुक़सान किया है, जो होना नहीं चाहिए था।
फ़ेस टू फ़ेस एजुकेशन, जिसे हम ऑफलाइन एजुकेशन कहते हैं, उसकी जगह कोई दूसरा तरीक़ा नहीं ले सकता यह सच लंबे अरसे तक याद रखना ज़रूरी है।
शिक्षा ज़रूरी है। किंतु महामारी के दौरान जिस भी तरीक़े से शिक्षा देने की व्यवस्था
हो, उस व्यवस्था में जरा सी भी कमी बहुत गंभीर बन सकती है। नेतागिरी अपनी सनक, अपनी सोच और अपनी
चुनावजीवि प्रकृति को महामारी और शिक्षा व्यवस्था से दूर रखे यह प्राथमिकता है। शिक्षा
का जो भी तरीक़ा लोगों पर लागू किया जाएगा, लोग उसे अपनाने को तैयार भी हैं तथा मजबूर भी हैं। ज़रूरी यह
है कि जो सुरक्षा मानक हैं उनका सही ढंग से स्कूल में पालन हो। स्कूल में बैठे प्रिंसिपल
को इस समय जो स्थिति है उसकी गंभीरता को तथा अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा। साथ ही
लोगों को उस बेवकूफ़ी को भी छोड़ना होगा, जो वे महीनों से कोरोना काल में धड़ल्ले से किए जा रहे हैं।
पहली चीज़ - स्कूल और शिक्षा ऑफलाइन शुरू करने की इतनी जल्दी है तो फिर अब आगे से
ऑनलाइन एजुकेशन पर सरकारें विज्ञापन पर ख़र्च ना करें। दूसरी चीज़ – कोरोना के संक्रमण
की कोई उम्र नहीं होती और नारों से वायरस को जीता नहीं जा सकता, यह याद रखें। तीसरी
चीज़ – जो भी करें, पूरी ज़मीनी तैयारी के साथ करें, क्योंकि बिना तैयारी के केवल घोषणाओं के ज़रिए भारत अब तक बहुत सारी पीड़ा भुगत
चुका है। और आख़िरी चीज़ – तमाम बच्चे स्कूल नहीं पहुंचने वाले, इस स्थिति में उनके
लिए ऑनलाइन एजुकेशन बेहतर तरीक़े से तथा पूरे मन से जारी रखना भी महत्वपूर्ण है।
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)
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