हो गया भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच। क्या हुआ? क्या कर लिया? क्या कर पाई देशभक्त प्रजा? थोड़ा बहुत विरोध करने का नाटक, नाराज़गी प्रदर्शित
करने की वो औपचारिकता, थोड़ी बहुत आलोचना करने का अभिनय, और अंत में देश के लिए गोदी मीडिया का वो झुनझुना कि देखिए हाथ नहीं मिलाएँ।
राष्ट्रवाद के इस लचीले चेहरे के सामने देशभक्ति ने घुटने टेक दिए न? ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते - देश के प्रधानमंत्री के इस फ़िल्मी संवाद
के समय फेफड़े फाड़ने वाली जनता को फिर एक बार पीएम ने जुमला थमा दिया न?
दरअसल राजनीति सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता के लिए की जाती है, और सत्ता की साँस सिर्फ़ पैसा है। बीजेपी और उसकी मातृ पितृ संस्था आरएसएस इसमें
दशकों से 'घोर' हैं। कांग्रेस या दूसरे दलों ने राजनीति में जितनी धृष्टता दिखाई थी, ये इनमें भी 'घोर' हैं। रही बात देश, देशभक्ति, राष्ट्र, राष्ट्रप्रेम, आदि की, तो इसके ज़रिए 'प्रजा' गुज़ारा करती है, राजनीति या सत्ता नहीं।
चीन और चीनी वस्तुओं
के बहिष्कार की फेफड़ा फाड़ मुहिम चलाने वाले ख़ुद चीन खींचे चले जाते हैं! भारतीय सेनाध्यक्ष बताते हैं कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय सेना के ख़िलाफ़
पाकिस्तान के पीछे चीन की सेना लड़ रही थी, बदले में ये लोग उसी चीन के साथ व्यापार
सौदा करने के लिए दौड़ लगाते हैं!
ऐसे में सोचिए, ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते, ऐसा कहने वाले ये लोग क्या सचमुच पाकिस्तान
के साथ क्रिकेट मैच नहीं खेलते?
कभी
पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच का फेफड़ा फाड़ विरोध करने वाले आज ज्ञान दे रहे हैं
कि मैच खेलना ज़रूरी है
यूँ तो 2014 से पहले बीजेपी, आरएसएस और उसके उन दिनों जितने साथी थे, जैसे कि शिवसेना आदि, किसी भी आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच खेलने के बिलकुल ख़िलाफ़
रहते थे। ऐसा करना वे देशद्रोह से आगे जाकर जैसे कि बहुत बड़ा पाप समझते थे। विरोध
में सड़कों पर उतरते थे, सत्ता को चूड़ियाँ भेजते थे, मैदान का पीच खोद
देते थे।
आज ये लोग क्रिकेट
मैच खेलने का बचाव करते हैं! बेशर्मी के साथ बचाव करते हैं! इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री के ख़ून और पानी वाले फ़िल्मी संवाद के बाद ख़ुद प्रधानमंत्री, जो एक फ़ोन कॉल से यूक्रेन रूस का युद्ध रूकवा सकते थे, वे भी मैच को नहीं रोकते!
14 सितंबर 2025 को एशिया कप टूर्नामेंट का छठा मुक़ाबला भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाला था।
मेनस्ट्रीम मीडिया सरकारी मुठ्ठी में क़ैद है, लिहाज़ा अंत समय तक शांति बनी रही। जैसे
जैसे तारीख़ नज़दीक़ आने लगीं, विपक्षी नेताओं और सोशल मीडिया पर सामान्य लोगों ने इस पर बोलना
शुरू किया। तारीख़ बिलकुल पास थी और मामला चर्चा के केंद्र में आ रहा था। अंत में बीजेपी
ने अपने ठाकुर साहब को भेज दिया।
बीजेपी के सांसद और पूर्व मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा, "मल्टीनेशनल टूर्नामेंट एसीसी या आईसीसी करवाती है, वहाँ किसी भी देश के लिए हिस्सा लेना मजबूरी और ज़रूरी हो जाता
है। अगर हिस्सा नहीं लेंगे तो टूर्नामेंट से बाहर हो जाएँगे। दूसरी टीम को इसके प्वाइंट
भी मिल जाएँगे।"
ये भी ग़ज़ब है! 2014 से पहले राष्ट्रप्रेम को सबसे ज़रूरी मानने वाले लोग आज राष्ट्रप्रेम से भी ज़्यादा
ज़रूरी कुछ और है यह कहते हैं! चलिए, पता तो चला कि राष्ट्रप्रेम या सैनिकों के बलिदान से भी ज़्यादा प्वाइंट ज़रूरी
होते हैं!
मोदीजी के लिए अब
तक बहनों का सिंदूर ज़रूरी था, और अब मैच के प्वांइट
ज़्यादा ज़रूरी हो गए! जिनकी ज़रूरत का क्रम
इस तरह बदलता हो, उन पर देश, शर्म या लिहाज़ का दबाव कैसे होता भला?
2014 से पहले 'राष्ट्रवाद सर्वोच्च' के नाम पर फेफड़े
फाड़ने वाले आज सबको ज्ञान दे रहे थे कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच खेलना कितना
ज़रूरी है! बता रहे थे कि प्वांइट कम हो जाते हैं! ऐसा है तब तो हमारी क्रिकेट टीम के प्वाइंट कम नहीं होने चाहिए, वर्ना पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए लोग और ऑपरेशन सिंदूर के बलिदानियों का बलिदान, सब व्यर्थ जाएगा। है न ठाकुर साहब?
पार्टी के पूर्व राज्यसभा सदस्य और आरएसएस के मुख्य विचारकों
में से एक, राकेश सिन्हा इस विवाद में मोदी सत्ता का बचाव करते हुए बेशर्मी पर उतर आए। उन्होंने कहा, "पानी और ख़ून के साथ न बहने की बात थी, क्रिकेट की नहीं।"
इधर अनुराग ठाकुर ने
कहा, "भारत पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय सिरीज़ नहीं खेलता।"
धन्यवाद ठाकुर महोदय! इतना बड़ा ज्ञान देने के लिए! देख लिया न भाइओं? हम आमने-सामने नहीं खेलते, बस कोई तीसरा हमें
आमने-सामने खेलने के लिए बोले तभी खेलते हैं! ठीक है?
भारतीय क्रिकेट टीम
का बहुपक्षीय आयोजनों में पाकिस्तान के सामने खेलना मजबूरी है, वरना आईसीसी और एसीसी जैसे संगठनों से प्रतिबंध लग सकता है - मोदी सत्ता का अपने
प्रवक्ता द्वारा जो कहा गया उसका भावार्थ यह था। और यह बिलकुल जायज़ समस्या या मजबूरी
है। किंतु यह अभी ही नहीं आई, यह मनमोहन सरकार के दौर में थी और उससे पहले भी।
ठाकुर ने कहा, "कई वर्षों से हमने यह निर्णय किया है कि भारत-पाकिस्तान के साथ बायलेटरल नहीं खेलेगा, जब तक पाकिस्तान भारत पर आतंकवादी हमले बंद नहीं करता।"
एक और सख़्त ज्ञान
के लिए धन्यवाद ठाकुरजी! नोट कर लो भाइओं, जब तक पाकिस्तान भारत पर आतंकवादी हमले बंद
नहीं करता तब तक हम उसके साथ आमने-सामने नहीं खेलेंगे, बस कोई तीसरा बोलेगा तब ही तीसरी जगह जाकर खेलेंगे! फिर भले कुछ दिनों पहले हमला हो चुका हो।
सवालों
से निपटने के लिए टिकटों की कम बिक्री का झूठ चलाया जाने लगा, जबकि
ऐसी कोई बात नहीं थी
ठाकुर का जवाब ज़्यादा
कारगर नहीं था, इसलिए सोशल मीडिया के ऊपर तथा गोदी मीडिया के अंदर एक सवाल यह उठाया जाने लगा
कि क्या टिकटों की बिक्री कम हो रही है? और इस तरह कुछ घंटों तक यह भी चलाया गया
कि लोग मैच देखने नहीं जा रहे और राष्ट्रवाद अब भी ज़िंदा है।
लेकिन बीबीसी की मैच
के एक दिन पहले की एक रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि टिकटों की बिक्री कम हो रही है वाली
ख़बर में कोई दम नहीं है। दरअसल, टिकटों की बिक्री हो रही थी।
अरे भाई! यहाँ घर परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए तो जान-पहचान वाले श्मशान से निकलते
ही मोबाइल पर चुटकुला पढ़ रहे होते हैं और बाकी के नज़दीक़ी लोग कुछ दिन बाद फिर खुलकर
जीने लगते हैं। ऐसे में कोई अंजान लोग कहीं मारे गए हो तो बाकी लोग मैच देखना क्यों
छोड़ देते? है न?
ये बात ज़रूर सच थी
कि टिकट बुकिंग की रफ़्तार कम थी, लेकिन इतनी भी कम नहीं थी। पहले टिकट कुछ मिनटों में बिक जाते
थे, अब की बार कुछ घंटों पहले तक टिकट उपलब्ध ज़रूर थे। एमिरेट्स क्रिकेट बोर्ड के
एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बीबीसी उर्दू को बताया था कि टिकटों की धीमी
बिक्री की धारणा ग़लत है, क्योंकि मैच शुरू होने में अभी दो दिन बाकी हैं। अधिकारी ने
दावा किया था कि 70 से 80 प्रतिशत टिकटें बिक चुकी हैं और रविवार तक सभी टिकटें बिक जाने की उम्मीद है।
और अंत में हुआ भी
यही! स्टेडियम के अंदर और स्टेडियम के बाहर अपने अपने घरों में सभी ने मैच देखा! जो लाइव नहीं देख पा रहे थे वे मोबाइल पर स्कोर चेक करके देखते रहे! जिनके पास डेटा पैक नहीं था वे आसपास पूछकर ख़बर लेते रहे! भारत ने मैच जीत लिया तो इसे किसी जंग को जीत लिया हो ऐसे देखा!
थोड़ा बहुत था वो -
देखिए हाथ नहीं मिलाएँ - इस ढकोसले को आगे धर ख़त्म कर दिया गया। हालाँकि इसका पर्दाफ़ाश
भी ज़ल्द होने वाला था।
पहलगाम
हमले में मारे गए शुभम द्विवेदी की पत्नी ने क्या कहा?
पहलगाम हमले में मारे
गए शुभम द्विवेदी की पत्नी ऐशान्या द्विवेदी ने न्यूज़ एजेंसी एएनआई से बातचीत में
कहा, "सरकार ने हमले के बाद कड़े कदम उठाए थे लेकिन पाकिस्तान से मैच होना ग़लत संदेश
देता है।"
उन्होंने कहा, "बीसीसीआई को यह मानना ही नहीं चाहिए था कि भारत पाकिस्तान के साथ मैच खेलेगा। यह
बहुत बड़ी ग़लती है और हमारे ही देश के लोग यह कर रहे हैं। बीसीसीआई को इन भावनाओं
की कोई परवाह नहीं है।"
ऐशान्या ने कहा, "इस मैच से जितना भी राजस्व बनेगा, पाकिस्तान उसे आतंकवाद पर ही ख़र्च करेगा।
जब पता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का अड्डा है तो हम उसे राजस्व क्यों देंगे?"
किसी भी भारतीय क्रिकेटर
के खुलकर सामने नहीं आने पर भी उन्होंने सवाल उठाया। उन्होंने कहा, "अगर किसी खेल में सबसे ज़्यादा नेशनल फीलिंग मानी जाती है तो वह क्रिकेट है। इसके
बावजूद कोई क्रिकेटर यह नहीं कह रहा कि भारत-पाकिस्तान मैच का बहिष्कार किया जाना चाहिए।"
उन्होंने मौजूदा खिलाड़ियों
से अपील करते हुए पूछा, "आप (भारतीय क्रिकेटर) क्यों नहीं स्टैंड लेते? बीसीसीआई की टीम थोड़े ही आपके ऊपर बंदूक रख रही है? आप ख़ुद देश के लिए स्टैंड लीजिए, लेकिन वो भी नहीं ले रहे।"
आओ बच्चों
मैच खेले लेकिन हाथ नहीं मिलाकर दोहरेपन को भी ढाँके!
मैच खेला लेकिन हाथ
नहीं मिलाया - मोदी सरकार ने अपनी मुठ्ठी में कैद भारत
के मीडिया को यह एक लाइन दे दी है। एक झुनझुना, जैसे कि बजाते रहो और बेशर्मी को ढाँकते
रहो! बीसीसीआई तक ने हाथ नहीं मिलाने को 'साइलेंट प्रोटेस्ट' कह डाला!
हाथ नहीं मिलाया -
वाह! बहुत बहुत सलाम। क्या देशभक्ति है! हाथ नहीं मिलाया! अरे अंटू, अरे शंटू, अरे चंटू, देखो भाई! मैच खेला लेकिन हाथ नहीं मिलाया!
ख़ून और पानी एक साथ
नहीं बह सकते - प्रधानमंत्री मोदी का यह शहंशाही संवाद जुमले में परिवर्तित करने का
समय आया तो बेशर्मी को ढँकने के लिए - मैच खेला लेकिन हाथ नहीं मिलाया - यह चंटपना
थमा दिया गया।
हाथ नहीं मिलाया तो
क्या हुआ? मैच तो खेल लिया न? वो भी दुबई जैसे देश में। पूरा का पूरा मैच खेल लिया उसका
क्या?
अरे भाई! वो नॉन बायोलॉजिकल महोदय, जो पाकिस्तान के नाम मात्र से चिढ़ जाते थे, वह अचानक से वहाँ अपना उड़नखटोला ले जाते हैं और उस देश में पहुँचकर उनके प्रधानमंत्री
नवाज़ शरीफ़ की माँ के पैर छू आते हैं, केक सेक खा लेते हैं, तब भी वह ठीक था, तो फिर पूरा का पूरा मैच खेलकर हाथ नहीं मिलाना भी ठीक ही तो
है। है न?
सीधी बात है कि हाथ
न मिलाने को प्रतिरोध बताना हास्यास्पद था। हालाँकि उसका भी खुलासा ज़ल्द हो गया।
खिलाड़ियों
से हाथ न मिलाना ड्रामा था, सरकार ने डाला था मैच खेलने का दबाव
थोड़े बहुत विवाद के
बाद मैच हुआ। मैच में भारतीय क्रिकेट टीम के कैप्टन सूर्यकुमार यादव ने टॉस के समय
पाकिस्तानी कैप्टन सलमान आगा से हाथ नहीं मिलाया, और मैच के बाद भारतीय
खिलाड़ी ड्रेसिंग रूम से बाहर नहीं आए। जबकि परंपरा है कि मैच के बाद दोनों टीमों के
खिलाड़ी एक दूसरे से हाथ मिलाते हैं। सूर्यकुमार ने जीत को पहलगाम हमले में हुए शहीदों
और सैन्य बलों को समर्पित किया।
हैंडशेक नहीं करने
पर जब सूर्यकुमार से पूछा गया तो उन्होंने कहा, "यह फ़ैसला मैच से पहले
ही ले लिया गया था... कुछ चीज़ें खेल भावना से भी ऊपर होती हैं।"
सत्ता का राष्ट्रवादी
मुखौटा और पिछली सरकारों के समय ऐसे मामलों में उसका फेफड़ा फाड़ राष्ट्रप्रेम प्रदर्शन।
लेकिन अब पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच खेलने की मजबूरी, व्यापार, पैसा और अनुबंध!
आख़िर में हाथ नहीं
मिलाया वाला चंटपना बाज़ार में चलाया गया! राष्ट्रवाद का मुखौटा
उतरने के बाद निरुत्तर हुए लोगों ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ भारतीय खिलाड़ियों
ने हाथ नहीं मिलाया, इस अंटशंटपन को कहना-लिखना शुरू कर दिया! बीसीसीआई ने हाथ नहीं मिलाने की घटना को 'साइलेंट प्रोटेस्ट' कहा।
लेकिन 15 सितंबर को ही अनेक जगहों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिनका कहना था कि खिलाड़ियों से हाथ नहीं मिलाना, यह एक ड्रामा था और सरकार ने ही खिलाड़ियों पर मैच खेलने का दबाव डाला था!
कुछ रिपोर्ट्स की माने तो, पूर्व क्रिकेटर सुरेश रैना ने सनसनीखेज़ खुलासा किया कि खिलाड़ी
इस मैच में खेलना नहीं चाहते थे, और सरकार के दबाव में उन्हें मजबूर किया गया था। सुरेश रैना
के बयान ने हाथ नहीं मिलाने को एक स्क्रिप्टेड ड्रामा साबित किया, जिसे संभवत: बीसीसीआई या सरकार ने किरकिरी से बचने के लिए रचा।
पूर्व क्रिकेटर सुरेश रैना ने ‘स्पोर्ट्स तक’ से कहा, "भारतीय खिलाड़ियों को बीसीसीआई ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ खेलने के लिए मजबूर किया, जबकि वे इस मैच में भाग लेना नहीं चाहते थे। अगर व्यक्तिगत राय पूछी जाती, तो वे इंकार कर देते।"
रैना ने कहा, "मुझे एक बात पता है। अगर आप व्यक्तिगत रूप से खिलाड़ियों से पूछें, तो कोई भी एशिया कप नहीं खेलना चाहता। एक तरह से वे मजबूर हैं, क्योंकि बीसीसीआई ने इसकी सहमति दे दी है।"
जब मैच से पहले बीसीसीआई
ने मल्टीलेटरल टूर्नामेंट में खेलने की मजबूरी को सामने रखा था, तब पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर ने साफ़ कहा था, "ये सरकार का फ़ैसला है, खिलाड़ी बस फॉलो करते
हैं।"
लगा कि हाथ न मिलाना
भी एक सुनियोजित कदम था, जिसे योजनाबद्ध रूप से मीडिया में लीक किया गया, ताकि सरकार अपनी झेंप मिटा सके!
मुंबई
हमले के बाद क्रिकेट प्रतियोगिता से जब मनमोहन सरकार ने अपने हाथ वापस खींच लिए थे, आईपीएल
को भारत के बाहर जाना पड़ा था
मुंबई में 26 नवंबर 2008 के आतंकवादी हमले के बाद तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने 2009 में आयोजित आईपीएल प्रतियोगिता को सुरक्षा सह्योग देने से इनकार कर दिया था। मनमोहन
सरकार का कहना था कि आतंकवादी हमले के बाद सरकार का पूरा ध्यान और तमाम सुरक्षा बल
देश की सुरक्षा के मामले में व्यस्त हैं और इस वजह से आईपीएल के मैचों में सरकार की
तरफ़ से सुरक्षा व्यवस्था प्रदान नहीं की जाएगी।
यह मामला लंबा चला, विवाद भी हुआ, राजनीति भी हुई। मनमोहन सरकार ने बीसीसीआई को नसीहत दी कि इस साल आईपीएल प्रतियोगिता
स्थगित कर दीजिए, स्थिति ठीक नहीं है और सरकार सुरक्षा सह्योग देने में असमर्थ है। आख़िरकार बीसीसीआई
ने उस वर्ष यह प्रतियोगिता भारत के बाहर साउथ आफ्रिका में कराई थी।
जबकि यहाँ देश की क्रिकेट
टीम ख़र्चा करके बाहर मैच खेलने गई। वो भी पाकिस्तान के साथ, जहाँ से आए आतंकियों ने कुछ दिनों पहले कईं भारतीय महिलाओं के सिंदूर उजाड़े थे, जिस देश के साथ भारत कुछ दिनों पहले तीव्र हवाई संघर्ष में उलझ चुका था। उस देश
के साथ किसी भी क़िमत पर, किसी भी आलोचना या शर्म से परे होकर मैच खेला गया। वो भी दुबई
जैसे देश में।
मैच
के बहिष्कार की नौटंकी क्यों? मोदी सत्ता एक इशारे पर मैच रुकवा सकती थी
क्रिकेट मैच विवाद
पर अनुराग ठाकुर का वो व्हाट्सएपिया जवाब, राकेश सिन्हा की वो बेशर्मी और फिर गोदी
मीडिया के ऊपर मैच के टिकट कम बिक रहे हैं वाली जुमलेबाजी, यह दर्शाने के प्रयास ही क्यों कि मैच के बहिष्कार का अभियान असर डाल रहा है।
बहिष्कार का अभियान
ही क्यों, जबकि ख़ुद को राष्ट्रवादी बताने वाली सत्ता शीर्ष पर बैठी है? बहिष्कार के अभियान की ज़रूरत ही क्या, जब पाकिस्तान के साथ तमाम संबंध फ़िलहाल
रोक दिए गए हैं? सब जानते हैं कि आईसीसी में बीसीसीआई अपने पैसों की ताक़त के दम पर नियंत्रण रखे
हुए हैं। मोदी सत्ता चाहती तो मैच को रोकने के लिए कह सकती थी। बीसीसीआई अपने करोड़ो
अरबों के समंदर से एक लौटा खाली करके बहुत आसानी से हाथ खींच सकता था।
अमित शाह ने 2019 में (पुलवामा के बाद) कहा था, "भारतीय टीम इस वर्ल्ड कप में खेले या न खेले ये अलग बात है, लेकिन आईसीसी को पाकिस्तान को वर्ल्ड कप 2019 से बाहर कर देना चाहिए।" अब उनके बेटे जय शाह आईसीसी के
चेयरमैन हैं, लेकिन
अब की बार यह माँग अमित शाह ने नहीं की!
इससे देश को किसी प्रकार
का कोई आर्थिक नुक़सान नहीं होने वाला था। जो कुछ भुगतान करना था वो बीसीसीआई को करना
था। और सत्ता के एक इशारे पर वो कर भी देता। कहाँ जाता? करना ही पड़ता उसे। बीसीसीआई स्वतंत्र संस्था है, उस पर सत्ता का नियंत्रण नहीं है, यह चंटपना मत करिए। सच सबको पता है। और ऐसी
ही बात है तो फिर ईसी, सीबीआई, ईडी, ज्यूडिसरी, यूनिवर्सिटी, सारी स्वतंत्र संस्थाएँ ही हैं। वहाँ क्या चल रहा है सब जानते हैं। ऐसे में बीसीसीआई
कोई ऐसी वस्तु नहीं मानी जा सकती।
ख़ून और पानी, आतंकवाद और व्यापार, टेरर और वीज़ा, कुछ भी एक साथ नहीं होगा। बस क्रिकेट का
मैच होगा। समज लीजिए, मैच होगा तो बाकी जो कुछ बचा, वो भी ज़ल्द होगा।
क्या
आरएसएस अपनी संतान बीजेपी से भी ज़्यादा लचीला और ज़्यादा राजनीतिक है?
नरेंद्र मोदी भले ख़ुद
को नॉन बायोलॉजिकल मानते हैं, लेकिन वे हैं नही। इसी प्रकार भले अनुयायी मोहन भागवत को परम
पूजनीय मानते हैं, लेकिन उनके लिए, देश के लिए वे हैं नहीं। हम तो कहते हैं कि आरएसएस हो या कोई और, उन्हें अपने शीर्ष नेतृत्व को परम पूजनीय बताकर उसे दिव्य की श्रेणी में ले जाने
का प्रयास नहीं करना चाहिए। कम से कम भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो बिलकुल नहीं।
ख़ैर, किंतु इनके समर्थक लोग कहेंगे कि क्रिकेट मैच जैसी बात में आरएसएस का क्या लेना
देना? तो क्या युगान्डा या ज़िम्बाब्वे के संगठन का इस मैच से लेना देना था? ये आरएसएस वाले क्या सबको उतना ही चंट समझते हैं जितने उनके अपने सांगठनिक कार्यक्रमों
में नीचे बैठे हुए होते हैं?
कुछ भी अच्छा होगा
तो कहेंगे हमने किया, हमारी सरकार ने किया, हमारे स्वयंसेवक ने सत्ता पर पहुँच कर किया, हमारे आदमी ने सरकार से कह कर कराया। और कुछ बुरा होगा तो ये आरएसएस वाले फ़टाक
से अपना आस्तीन संभ्हालते हुए पतली गली से निकलते नज़र आएँगे! सबको चंट समझ रखा है क्या?
अरे भाई, आपका अपना आदमी सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ है। साथ ही आपने
सत्ता के दूसरे, तीसरे, चौथे, सभी स्थान पर अपने ही आदमी बिठा रखे हैं। आपका आदमी एक फ़ोन
कॉल से यूक्रेन रूस जंग रुकवा सकता है तो क्या भारत पाकिस्तान का मैच नहीं रुकवा सकता
था? उसे छोड़िए, आपके एक निर्देश पर वो आदमी ऐसा नहीं कर सकता था क्या?
आरएसएस और उनके लोगों
का वो घिसा पिटा और चंट सा जवाब - हम सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन हैं, हम सरकार के किसी कामकाज़ में दखल नहीं देतें – अरे छोड़ो यार ऐसे पुराने चुटकुले
को! इसे अपने उन अनुयायियों के सामने बोलिएगा, जो चंट बनकर आपके सामने बैठे रहते हैं। अरे
भाई, आपकी सरकार हो या दूसरों की, आप बिना उसमें दखल दिए कभी रह सके हैं क्या? भारत में घटने वाली किसी भी घटना में आपकी भूमिका होनी चाहिए, उस इच्छा से कभी बाहर आ सके हैं क्या? दिन भर दिल्ली और लुटियंस की ग़लियों की
ख़ाक आपके द्वारा छानी जाती है और कहते हैं कि हम सरकार के कामकाज़ में दखल नहीं देते!
आपका लचीलापन मशहूर
और पुराना है! तिरंगे को अशुभ मानकर नकारना और फिर आज अपनी छाती पर तिरंगे
का मैग्नेट बेज लगाने का शौक, कभी भगवान राम को स्त्रैण (स्त्री की भाँति कोमल) मानकर नज़रअंदाज़
करना और फिर उन्हीं को अपनी आत्मा बनाकर सत्ता दौड़ लगाना, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन करना और फिर आज हिंदू
एकता का ज्ञान बाँटना, कभी इंदिरा सरकार को पत्र लिख आपातकाल का समर्थन करना और फिर
आज आपातकाल का विरोध करना, स्वतंत्रता संग्राम से भारतीय जनता को दूर रहने के आह्वान का
विवाद और आज आज़ादी की लड़ाई के गुण गाना, ब्रितानी सत्ता से नज़दीक़ी बनाए रखने और
भारतीय आंदोलन से दूर रहने की नसीहत का वो विवाद और आज महान भारत की बात करना, सुभाष बाबू की आज़ाद हिंद फ़ौज के सामने भारतीय लोगों को ब्रिटिश सेना में भेजने
की मुहिम का विवाद और आज राष्ट्रप्रेम का ज्ञान बाँटना!
आरएसएस पर एक आरोप
यह भी लगता रहा है कि वह किसी भी भारतीय सत्ता, जो ताक़तवर हो, के ख़िलाफ़ कभी खड़ा नहीं हुआ, बल्कि लचीला बन मौन सहमति ही देता रहा! ये बात और है कि इंदिरा की ताक़त इन्हें इतनी ज़रूरी लगी कि वहाँ मौन रहकर सहमति
नहीं दी बल्कि प्रशंसा पत्र लिखकर सहमति संदेश जारी किया! स्वतंत्रता से पहले अंग्रेज़ी सत्ता की ताक़त के सामने भी आरएसएस का यह लचीलापन
कई लेखों या किताबों में अंकित किया हुआ मिलेगा।
सावरकर की बात करें
और उन्हें वीर सावरकर संबोधित करते हुए उनकी प्रशंसा करें, उनके त्याग और हिम्मत का श्रुंगार करना शुरू करें तो ये आरएसएस वाले फ़टाक से
दौड़ते थे, ये कहते हुए कि सावरकर उनकी विचारधारा से प्रभावित थे, शाखा में उनका आना जाना था वगैरह। और यदि सावरकर का अंग्रेज़ी सत्ता के सामने
समर्पण का विवादित इतिहास, माफ़ीनामा, ब्रितानी पेंशन, सुभाष बाबू की सेना के ख़िलाफ़ सावरकर की योजनाएँ, इसका बहीखाता खोलने लगते तो ये लोग बड़ी सफ़ाई से अपना हाथ खींच लेते, ये कहते हुए कि सावरकर कभी हमारे संगठन का हिस्सा नहीं था!
बीजेपी और उसके दोनों
प्रधानमंत्रियो ने सत्ता के समय नीतियों, फ़ैसलों, वचनों में या वाणी-वर्तन
में यू टर्न लिए, लेकिन आरएसएस ने जिस विशाल स्तर तक लचीलापन दिखाया था, वहाँ तक बीजेपी शासित सरकारें बहुत मेहनत करने के बाद ही पहुँच पाई।
आरएसएस अपनी संतान
बीजेपी और अपने प्रचारक, जो बीजेपी में पहुँचे, उन्हें यह नसीहत बहुत पहले दे सकता था कि
कुछ बातों को राजनीति से दूर रखिए। या कम से कम यह भी कह सकता था कि राजनीति कीजिए
लेकिन इतनी भी फेफड़ा फाड़ ढंग से मत कीजिए कि भविष्य में यही ख़ुद के गले में फँस
जाए।
आरएसएस यदि सही में
सामाजिक सांस्कृतिक संगठन होता तो अपनी संतान बीजेपी और अपने स्वयंसेवक मोदी को एक
फ़ोन घुमाकर इसे रोक सकता था। यूँ तो आरएसएस को रोकना भी चाहिए था। कम से कम इसलिए, ताकि उसके लिए और उसके लोगों के लिए समाज में जो भी भ्रम है वह बना रहे।
अगर
बीसीसीआई या भारत सरकार ने मैच रद्द नहीं किया तो क्या लोगों ने मैच नहीं देखा?
आतंकवाद और सैन्य संघर्ष
की इस स्थिति में भारत-पाकिस्तान के बीच कोई खेल प्रतियोगिता होनी चाहिए या नहीं, हम इस पर बहस कर ही नहीं रहे। प्रयास इतना सा है कि हमारे भीतर इतनी मैट्रिक पास
समझ विकसित हो कि अकल्पनीय बलिदानों के बाद मिली स्वतंत्रता को हम किसी नेता, किसी संगठन, के बंधक बनकर न गँवाए, क्योंकि वे सदैव आपको मूर्ख ही बनाते हैं।
बीजेपी, आरएसएस, कांग्रेस, एसपी, टीएमसी, आप, किसे क्या कहे? इन राजनेताओं से ज़्यादा लचीलापन, ज़्यादा दोगलापन, हम नागरिक धारण किए हुए हैं! मनमोहन सरकार के दौर
में जब सरबजीत सिंह को पाकिस्तान में फ़ाँसी दी जानी थी तब पाकिस्तान के साथ तमाम रिश्ते
काटने का आक्रोश प्रकट करने वाले लोग तब भी भारत और पाकिस्तान के बीच खेले जा रहे क्रिकेट
मैच का स्कोर समय समय पर देखते रहना भूले नहीं थे!
सरकार बदलती हैं तो
समर्थक बदलते हैं, दूसरा कुछ कहाँ बदलता है? चेहरे बदलते हैं, चरित्र तो वही का वही। यहाँ भी प्रचूर मात्रा
में मैच के टिकट बँटे, लाखों करोड़ों ने टीवी या मोबाइल पर मैच देखा और भारतीय टीम
की जीत का अभिमान भी महसूस किया।
सवाल उठता है कि अगर
प्रजा सचमुच मैच के ख़िलाफ़ होती, सचमुच शहीदों से भाव रखती होती, उसमें सचमुच गंभीरता होती, तो फिर वो काँहे मैच देखती? ख़ैर, तभी तो 'प्रजा' लिखा है, 'नागरिक' नहीं! बेचारी प्रजा ने सरकार से माँग की कि मैच रद्द करो, राष्ट्र का मामला है, सरकार ने रद्द नहीं किया मैच और कहा कि ज़रूरी है, तो प्रजा ने भी मान लिया कि ज़रूरी है तो देख ही लिया जाए! देखना भी तो ज़रूरी है!
अगर सरकार पाकिस्तान
से रिश्ते सुधारना चाहती है, आग पर पानी डालना चाहती है, तो वो जनता को विश्वास
में लेकर क्यों नही करती? क्यों ये सत्ताएँ खेल और खिलाड़ियों को राजनीति से अलग नहीं
रखती? क्यों खेल का ये लोग बुरे से बुरा राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं?
आसानी से समझा जा सकता है कि बीजेपी और आरएसएस, ये लोग अभी विपक्ष में होते तो इनका 'फेफड़ा फाड़ राष्ट्रभक्ति' का प्रदर्शन भारत क्या, पाकिस्तान तक देख
लेता! मैच भले विदेश में होता, ये लोग अपने देश के
मैदानों का पीच खोद देते! जो भी प्रधानमंत्री
होता उसके पुतले जलाने से नहीं थकते और थोक में चूड़ियाँ दिल्ली तक पहुँचाते।
लेकिन आज वे सत्ता में हैं और मेनस्ट्रीम मीडिया उनकी मुठ्ठी में कैद है। आज बीजेपी
और आरएसएस, दोनों ने अप्रत्यक्ष घोषणा की है कि उनके शीर्ष आदमी के द्वारा कहा गया वो संवाद
- ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकते - सिर्फ़ एक जुमला था। और इस घोषणा में एक सच छुपाकर
कह दिया है कि हमारी बातों को जनता गंभीरता से न लें, हम ख़ुद हमारी कहीं गई बातों को गंभीरता से नहीं लेते, हम तो यूँ ही कह देते हैं!
देखिए, आतंकवाद और क्रिकेट एक साथ हो तो गए ही हैं! क्या पता, भविष्य में ख़ून और पानी भी एक साथ बहने लगे! ठीक वैसे ही जैसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान के सोशल मीडिया हैंडल और पाकिस्तानी
यूट्यूब चैनलों पर लगाया गया बैन एक महीने बाद हटा लिया गया था!
(इनसाइड इंडिया, एम वाला)